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शहरी सरकारी जमीन बेचने के खिलाफ याचिका
26-Jun-2020 8:04 PM
शहरी सरकारी जमीन बेचने के खिलाफ याचिका

हाईकोर्ट ने दो सप्ताह में मांगा जवाब

'छत्तीसगढ़' संवाददाता
बिलासपुर, 26 जून।
नगरीय क्षेत्रों में अतिक्रमित 7500 वर्गफीट तक की जमीन के 30 साल के लिये लीज बिक्री पर आबंटन के खिलाफ दायर जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए हाईकोर्ट ने आज राज्य सरकार से दो सप्ताह के भीतर जवाब दायर करने के लिये कहा है।
 
हाईकोर्ट अधिवक्ता रोहित शर्मा ने याचिकाकर्ता भाजपा नेता सुशांत शुक्ला का पक्ष रखते हुए कहा कि 11 सितम्बर 2019 को राजस्व एवं आपदा प्रबंधन विभाग के सचिव एन के खाखा द्वारा जारी आदेश विधि विरुद्ध है। इस सम्बन्ध में कोई अधिसूचना प्रकाशित की गई है, इसकी भी आम लोगों को जानकारी नहीं है। निजी व्यक्तियों को भूमि आबंटित करने के लिए विभिन्न अधिनियम छत्तीसगढ़ नगर एवं ग्राम निवेश विभाग और भू राजस्व न्यायालय का है। इन विभागों की सहमति और अनुमति के बिना कलेक्टर को 7500 वर्गफीट तक और उससे बड़ी भूमि के आबंटन का अधिकार राज्य शासन को दिया गया है। 

जिस तरह से भूमि आबंटन का आदेश है वह लोककल्याणकारी नहीं है। भूमि का लाभ उन्हें ही मिलना है जिनके पास करोड़ों रुपये हैं। याचिका में करीब 90 ईश्तहार लगाये गये हैं, जिसके आधार पर कहा गया है कि लोगों ने 4-5 हजार वर्गफीट तक की जमीन को आवासीय प्रयोजन के लिए आबंटित करने का आवेदन दिया है। अंदाजा लगाया जा सकता है कि इतने बड़े भूखंड पर मकान बनाने की क्षमता किसके पास हो सकती है। छत्तीसगढ़ के मूल निवासियों, गरीबों और आदिवासियों की क्षमता नहीं है कि वे इस नियम का लाभ ले सकें। 

याचिका में आपत्ति की गई है कि जिस भूमि के लिए सिर्फ एक आवेदन आयेगा, उसके लिये नीलामी की प्रक्रिया भी नहीं अपनाई जायेगी। उसके पास सिर्फ जमीन खरीदने की रकम होनी चाहिये, जबकि कोई शासकीय विभाग, निर्माण कार्य के लिये भूमि की मांग करता है तो उसे बताना होता है कि उसके पास बाउन्ड्रीवाल के लिये राशि उपलब्ध है। 

याचिका में कहा गया कि जब भूमि निजी हाथों में इस तरह से बेच दी जायेगी तो क्या भविष्य में विकास के कार्य जंगल में कराये जायेंगे। शासन का तर्क है कि इससे राजकोष में वृद्धि होगी लेकिन इसके अन्य तरीके भी हैं। 
बिलासपुर शहर का सर्वेक्षण कहता है कि यहां 40 फीसदी लोग झुग्गी बस्तियों में रहते हैं, दल्ली राजहरा जैसे नगरीय क्षेत्र में 70 फीसदी लोग झुग्गियों में हैं, जिन्हें अभी भूमि आबंटन की आवश्यकता है। कलेक्टर को अधिकार नहीं दिया जा सकता कि वे निर्धारित करें कि जिस भूमि को आबंटित कर रहे हैं वह लोक 
स्वास्थ्य, लोक सुविधा, स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिए आवश्यक नहीं है। 

राज्य सरकार, सतत् विकास के लिये, आने वाली पीढ़ी का ध्यान रखने के लिये तथा ऐहतियाती सिद्धांतों को विशेषकर पर्यावरण के संदर्भ में ध्यान रखने के लिये बाध्य है। यह समय-समय पर कानूनों के जरिये तय किया गया है। भोपाल में कुशाभाऊ ठाकरे ट्रस्ट को आबंटित भूमि इसी आधार पर निरस्त कर दी गई थी।
 
याचिकाकर्ता ने मुख्य सचिव, राजस्व् सचिव सहित प्रदेश के सभी कलेक्टरों को इस प्रकरण में प्रतिवादी बनाने की मांग की है। हाईकोर्ट में शासन का पक्ष उप महाधिवक्ता चंद्रेश श्रीवास्तव ने रखा। 


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