ताजा खबर

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : गौमाता की संतानों के प्रदेश में सडक़ों पर थोक-मौतें!
सुनील कुमार ने लिखा है
11-Sep-2025 4:39 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : गौमाता की संतानों के प्रदेश में सडक़ों पर थोक-मौतें!

छत्तीसगढ़ में सडक़ों पर मवेशियों का गाडिय़ोंतले मरना एक बड़ा मुद्दा बना हुआ है। चूंकि इन जानवरों में अधिकतर गौवंशी हैं, इसलिए उनकी मौत ऐसे सडक़ हादसों में मरने वाले इंसानों के मुकाबले कुछ अधिक धार्मिक भावनाएं जगाती हैं। गाय के नाम पर लोग मरने-मारने पर उतारू हो जाते हैं, मरते तो कोई नहीं हैं, मार कई जगह देते हैं। इसलिए सडक़ों पर गौवंश का कुचला जाना, अगर हादसे में गाड़ीवालों की मौत न हो, तो भी उन्हें पीटकर तो मारा ही जा सकता है। इसलिए आवारा मवेशी लिखने पर जिन लोगों की भावनाएं लहूलुहान हो जाती हैं, वे लोग लहूलुहान सडक़ों पर बिखरी गायों, और गोवंश की लाशों का कोई इलाज नहीं ढूंढ पाते हैं। अब कल ही छत्तीसगढ़ के कवर्धा जिले में रायपुर-जबलपुर नेशनल हाईवे पर एक तेज रफ्तार वाहन ने 12 मवेशियों को रौंद दिया, और गाड़ी भाग निकली। सडक़ पर बिखरी हुई लाशों को देखने से समझ पड़ता है कि ये गाय और उसके परिवार के ही मवेशी रहे होंगे। लोगों को याद होगा कि छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट सडक़ों पर से जानवरों को हटाने के लिए लगातार सुनवाई कर रहा है, सरकार को कटघरे में खड़ा कर रखा है, लेकिन सरकार है कि वह आवारा मवेशियों के लिए कोई कटघरे नहीं बनवा पा रही है। दिखावे के लिए कभी पुलिस तो कभी आरटीओ अधिकारी सडक़ के जानवरों के गलों में रात में चमकने वाले टेप को पट्टे की तरह बांध देते हैं, लेकिन इन जानवरों के जो इंसानी मालिक हैं, उनकी गिरफ्तारी शायद पूरे प्रदेश में दो-तीन मामलों में ही हो पाई है। अगर देश के कानून के मुताबिक, हाईकोर्ट के आदेश के मुताबिक, और जनता की हिफाजत का ख्याल रखकर राज्य सरकार कार्रवाई करती, तो हर शहर-कस्बे से दो-चार लोग गिरफ्तार हुए रहते, और गिरफ्तारी की दहशत में ही लोग अपने जानवरों को अपने घर के भीतर कर लेते। लेकिन गौवंशी जानवरों को लेकर जनता की भावनाओं को दुहने से अधिक और कुछ होते नहीं दिखता है, न उनके लिए बाड़े बन पाए, न उनकी जिंदगी बचाने का कोई भी इंतजाम है। सडक़ों पर थोक में जानवर मारे जाते हैं, और इस बार तो उस कवर्धा में ये मौतें हुई हैं जो कि प्रदेश के डिप्टी सीएम, और गृहमंत्री, और हिन्दुत्व के झंडाबरदार विजय शर्मा का इलाका है। प्रदेश के सडक़ हादसों में न तो बोरियों और बकरियों की तरह ढोए जाते इंसानों की मौतें थम रही हैं, और न ही सडक़ पर छोड़ दी गई गायों की।

किसी प्रदेश में सिर्फ सडक़-पुल, रेल और प्लेन की आवाजाही का ढांचा मायने नहीं रखता, कानून व्यवस्था कैसी है, सडक़ सुरक्षा कैसी है, यह भी मायने रखता है। दूसरे प्रदेशों से जो पर्यटक यहां आते हैं, या पूंजीनिवेशक अगर यहां आते हैं तो उन पर भी सडक़ों के हाल का असर सबसे पहले होता है। सबसे पहले वे स्थानीय अखबारों को देखते हैं कि इस प्रदेश में कानून व्यवस्था का हाल कैसा है, हादसे किस किस्म के होते हैं, जुर्म कैसे-कैसे हो रहे हैं। इसके बाद ही वे यहां अधिक घूमना-फिरना, या कोई कारोबार शुरू करना सोचते हैं। सरकार एक तरफ तो देश-विदेश से पूंजी जुटाने की कोशिश करती है, दूसरी तरफ म्युनिसिपल और जिला प्रशासन, जिला पंचायत और पुलिस के हवाले जो जिम्मा है, उसमें कमी रहने पर वह सिर्फ स्थानीय लोगों को नहीं खटकती बल्कि बाहर से आए हुए लोगों को भी खटकती है। किसी प्रदेश के सुरक्षित होने का मतलब सिर्फ लुटेरों से सुरक्षित होना नहीं रहता, वह सडक़ का सफर सुरक्षित रहना भी रहता है। छत्तीसगढ़ में सडक़ हादसों में कोई कमी आ नहीं रही है, और मौतें बहुत बड़ी संख्या में हो रही हैं।

 

केन्द्र सरकार की अलग-अलग योजनाओं के तहत पूरे देश में चौड़ी और तेज रफ्तार सडक़ें बन गई हैं। दूसरी तरफ महंगी गाडिय़ां कई-कई घोड़ों की ताकत के बराबर के इंजनों से आंधी की रफ्तार से दौड़ती हैं। जब इन दोनों का मेल होता है, तो बीच में किसी इंसान या जानवर के अचानक आ जाने की गुंजाइश नहीं बचती। इन दोनों ही वजहों से बहुत से सडक़ हादसे हो रहे हैं, और पैदल या दुपहिया पर चलने वाले इंसान, और जानवर, बराबर की संख्या में मारे जा रहे हैं। हाईकोर्ट इन बातों को लेकर राज्य सरकार से लेकर नेशनल हाईवे के लिए जिम्मेदार केन्द्र सरकार के विभाग को भी लगातार कटघरे में खड़ा करके फटकारते जा रहा है। हाईकोर्ट की फटकार सुनकर कई बार तो सडक़ पर बैठे मवेशी हड़बड़ाकर उठ जाते हैं, और दूर चले जाते हैं, लेकिन अफसरों पर इसका कोई असर नहीं हो रहा है। और असर न होने की सालगिरह भी गुजर चुकी है, और हाईकोर्ट के बेअसर होने की वर्षगांठ का केक भी कट चुका है। जितने लोग गाय को माता मानकर उसकी पूजा करते हैं, गोबर और गोमूत्र से लोगों का इलाज करते हैं, उतने लोग अगर गाय को सिर्फ जानवर मानकर उसे बचाने की कोशिश करते, तो सडक़ों पर गायों की मौत अब तक बंद हो चुकी रहतीं। लेकिन पूजा भी जारी है, और मौतें भी जारी हैं। अदालत तो भक्तिभावना की इस जुबान में व्याख्या नहीं कर सकती, लेकिन हम तो कर सकते हैं। हमारे मन में यही सवाल उठता है कि जिस प्रदेश में गाय को राज्यमाता बनाने की मांग हो रही है, जहां गाय को कटने से बचाने के लिए गोवंश की बिक्री पर कई तरह की रोक लगी हुई है, वहां पर गोवंश के गाडिय़ोंतले कुचलकर मारे जाने से किसी की भावनाएं नहीं जाग रही हैं। यह नौबत बहुत ही शर्मनाक है। इस तरह गाय को माँ मानने से बेहतर तो विनायक दामोदर सावरकर का गाय को महज एक जानवर मानना था जो कि उसके दुधारू बने रहने तक उसकी फिक्र करने के हिमायती थे, और उसके बाद उसे खा जाने के। गायों की इस तरह सडक़ों पर थोक में मौत भी जिस प्रदेश में कोई भावनात्मक मुद्दा नहीं बन रही है, और सरकारें हाईकोर्ट में जिम्मेदारी से कन्नी काट रही हैं, उस प्रदेश में क्या सचमुच ही गाय को माँ कहने का हक किसी नेता या अफसर को होना चाहिए? जजों को भी अगली सुनवाई में यह सवाल पूछना चाहिए।

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)


अन्य पोस्ट