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photo courtesey The New York Times
क़रीब 50 साल तक सार्वजनिक तौर पर काम करने के बाद और दो बार उप-राष्ट्रपति रहने के बाद जो बाइडन आख़िरकार अमेरिका के नए राष्ट्रपति चुन लिए गए हैं.
बीबीसी ने अनुमान में बताया है कि उन्होंने बहुमत के लिए ज़रूरी 270 इलेक्टोरल कॉलेज वोटों का आँकड़ा पार कर लिया है
लेकिन इस बार का चुनावी अभियान कुछ ऐसा नहीं था जिससे किसी तरह की कोई अटकलें लगाई जा सकती हों.
ये चुनाव कोरोना महामारी के दौर में हुआ है जो दुनिया के 180 से अधिक देशों में फैल चुका है. इस वायरस ने अमेरिका को सबसे बुरी तरह प्रभावित किया है. साथ ही वो दौर है जब देश के भीतर समाजिक उथलपुथल दिख रही है.
इन सभी माहौल के बीच बाइडन, डोनाल्ड ट्रंप के रूप में एक ऐसे प्रतिद्विंदी के सामने खड़े थे जो पहले के राष्ट्रपतियों से पूरी तरह अलग रहे हैं.
लेकिन राष्ट्रपति पद की तीसरी बार की अपनी दौड़ में बाइडन की टीम ने राजनीतिक चुनौतियों को पार करने का रास्ता तलाश ही लिया और आख़िरकार बाइडन को उनकी मंज़िल तक पहुंचा ही दिया.
देखने में ऐसा लगता है कि इलेक्टोरल कॉलेज वोटों के मामले में बाइडन और ट्रंप के बीच का फ़र्क़ अधिक नहीं है लेकिन अगर देश के सभी वोट के आँकडों को देखा जाए तो बाइडन लाखों वोट से ट्रंप से आगे हैं.
लेकिन डेलावर के एक कार सेल्समैन का बेटा देश में सत्ता के शिखर तक पहुंचा कैसे. जानिए वो पांच वजहें जिस कारण बाइडन आज राष्ट्रपति पद तक पहुंचे हैं.
पहला - कोविड, कोविड और कोविड
शायद बाइडन की जीत का सबसे बड़ा कारण ख़ुद पूरी तरह से उनके नियंत्रण से बाहर रहा है.
कोरोना वायरस महामारी अमेरिका में दो लाख तीस हज़ार लोगों की जान ले चुका है और इसने वहां के लोगों की ज़िंदगियों के साथ-साथ राजनीति को उलट कर रख दिया है.
चुनाव प्रचार के आख़िरी दिनों में खुद डोनाल्ड ट्रंप ने ये बात स्वीकार की थी.
बीते सप्ताह विस्कॉन्सिन में हुई एक रैली में ट्रंप ने कहा, "फेक न्यूज़ के साथ हर जगह कहीं अगर कुछ है तो वो है कोविड, कोविड और कोविड." हाल के दिनों में विस्कॉन्सिन में संक्रमण के मामलों में तेज़ी से उछाल आया है.
अमेरिका में मीडिया का फ़ोकस लगातार कोविड पर बना रहा जो इस बात का संकेत था कि महामारी लोगों की सबसे बड़ी और गंभीर चिंता बन गई थी लेकिन राष्ट्रपति के चुनाव अभियान का का मुद्दा ये नहीं था. ऐसे में राष्ट्रपति ने इस मामले को जैसे संभाला उससे उनकी लोकप्रियता में कमी आई.
बीते महीने पिउ रीसर्च ने एक पोल किया था जिसमें कहा गया था कि कोविड संकट को संभालने के बारे में लोगों की राय के हिसाब से बाइडन, ट्रंप से 17 पॉइंट आगे हें.
ट्रंप के अभियान का केंद्र विकास और समृद्धि था लेकिन हक़ीक़त में कोविड के कारण अर्थव्यव्सथा के लिए मुश्किलें बढ़ रही थीं.
इसके साथ विज्ञान पर सवाल खड़े करना, छोटी या बड़ी नीतियों के मामले में तुरंत फ़ैसले लेना जैसे कई क़दमों की वजह से ट्रंप के नेतृत्व में लोगों का भरोसा कम हुआ.
गैलअप के अनुसार इस साल की गर्मियों में ट्रंप की अप्रूवल रेटिंग क़रीब 38 फ़ीसदी तक गिर गई थी और इसकी एक बड़ी वजह कोविड संकट से निपटने से जुड़ा था. ट्रंप के चुनाव अभियान की इसी कमी को बाइडन के चुनाव अभियान में हथियार के रूप में इस्तेमाल किया.
जो बाइडन ने जीता अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव, डोनाल्ड ट्रंप हारे
दूसरा - कम तड़क-भड़क वाला चुनावी अभियान
अपने राजनीतिक करियर में बाइडन ख़ुद को परेशानी में डालने वाले के रूप में जाने जाते हैं.
एक बार की उनकी ग़लती के कारण 1987 का राष्ट्रपति पद का चुनाव वो हार गए थे. इसके बाद 2007 तक उन्हें चुनाव में कभी उस तरह की सफलता नहीं मिल सकी.
तीसरी बार की अपनी कोशिश में भी बाइडन के रास्ते में परेशानियां कम आईं ऐसा नहीं है, लेकिन इस बार ये कभी उतना बड़ा मुद्दा नहीं बन पाईं.
इसका पहला कारण ये रहा कि राष्ट्रपति ट्रंप खुद अपने बयानों के लिए सुर्खियों में रहते थे. दूसरा कारण ये कि बीते महीनों में कई ऐसी ख़बरें थीं जिन्होंने मीडिया को बिजी रखा, जैसे कोरोना महामारी, जॉर्ज फ्लायड की मौत के बाद हुए प्रदर्शन और हिंसा और आर्थिक मुश्किलें. इन सभी ख़बरों ने देश के लोगों का ध्यान अपने ओर लगाए रखा.
इसके लिए बधाई बाइडन के चुनावी अभियान को भी दी जानी चाहिए क्योंकि उन्होंने बाइडन को मीडिया में उतना ही आने दिया जितना अभियान के लिए ज़रूरी था. इससे उनकी ज़ुबान के फिसलने जैसी ग़लतियों के मौक़े कम बने और वो ग़लत कारणों में ख़बरों में रहने से बच गए.
लेकिन इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि अगर ये सामान्य चुनाव होता और संक्रमण से बचने के लिए अधिकतर अमेरिकी घरों से बाहर नहीं निकलने का फ़ैसला नहीं करते तो बाइडन के टीम की ये रणनीति उन पर भारी पड़ सकती थी.
हो सकता है कि उस वक्त ट्रंप के "बाइडन छिप गए हैं" जैसे बयानों को अलग तरीक़े से देखा जाता.
बाइडन के चुनावी अभियान ने इस मुश्किल स्थिति से दूरी बनाए रखी जबकि उस दौरान ट्रंप की ज़ुबान ने कई बार उन्हें धोखा दिया और विवादों में घिरते रहे. ये बाइडन के लिए फ़ायदेमंद साबित हुआ.
तीसरा - ट्रंप के सिवा कोई और
चुनाव के दिन से एक सप्ताह पहले तक बाइडन के अभियान ने टेलीविज़न पर प्रसारित होने वाले अपने अंतिम विज्ञापन दिखाने शुरू किए. इनमें जो संदेश था वो बीते साल के उनके किकऑफ़ अभियान में भी देखा गया था. अगस्त में उनके नामांकन एक्सेप्टेंस स्पीच में उन्होंने इसी संदेश की बात की थी.
उन्होंने कहा कि "ये चुनाव अमेरिका की आत्मा को बचाने की लड़ाई है". उन्होंने इस चुनाव को बीते चार सालों में पड़े विभाजनकारी असर और बढ़ती अव्यवस्था को ठीक करने का राष्ट्रीय मौक़ा कहा.
इस स्लोगन के पीछे एक छोटा सा मैथ्स का हिसाब-किताब था. बाइडन ने अपना राजनीतिक भाग्य इस सोच पर दांव पर लगा दिया कि ट्रंप ध्रुवीकरण चाहते हैं, वो भड़काऊ बातें करते हैं और अमेरिकी लोगों को शांत और स्थिर नेतृत्व चाहिए.
थिएरी एडम्स 18 सालों से फ्लोरिया में रहते हैं. इस बार मायामी में वो पहली बार वोट कर रहे थे. उनका कहना था, "ट्रंप के रवैये से मैं थक गया हूं"
इस चुनाव को डेमोक्रैट नेता, ट्रंप पर जनमतसंग्रह का रूप देने में कामयाब हुए, न कि दो उम्मीदवारों के बीच का चुनाव.
बाइडन का संदेश स्पष्ट था, "ट्रंप नहीं".
डेमोक्रैट समर्थकों की ये आम धारणा थी कि अगर बाइडन जीते को कुछ सप्ताह तक राजनीति के बारे में सोचने से फुर्सत मिलेगी. हालांकि ये पहले केवल एक मज़ाक था लेकिन इसमें कहीं न कहीं सच्चाई भी छिपी थी.
चौथा - मध्यमार्गी रास्ता चुनने की रणनीति
जिस दौरान जो बाइडन डेमोक्रैटिक पार्टी की उम्मीदवारी के लिए मैदान में थे उनका कंपीटिशन बर्नी सैंडर्स और एलिज़ाबेथ वॉरन से था. इन दोनों के अभियान में पैसा अधिक था, अभियान का आयोजन पूरे व्यवस्थित तरीके से हो रहा था और इनमें बड़ी संख्या में लोगों की भीड़ भी जुट रही थी.
लिबरल पक्ष से इस चुनौती के बावजूद बाइडन ने बीच का रास्ता यानी मध्यमार्गी बने रहने का फ़ैसला किया. उन्होंने सरकार द्वारा चलाई जाने वाली स्वास्थ्य सेवा, कॉलेज में मुफ़्त शिक्षा या वेल्थ टैक्स का समर्थन करने से इनकार किया.
इससे उनके अभियान की अपील मॉडरेट और असंतुष्ट रिपब्लिकन्स तक पहुँचाने में काफ़ी मदद हुई.
बाइडन ने कमला हैरिस को उप-राष्ट्रपति पद की उम्मीदवार के तौर पर चुना जबकि वो वामपंथी खेमे का समर्थन पाने के लिए से किसी और को भी चुन सकते थे.
पर्यावरण और जलवायु-परिवर्तन के मुद्दे पर बाइडन, बर्नी सैंडर्स और वॉरेन के काफी क़रीब थे और इस मुद्दे के साथ उन्होंने युवाओं को भी अपनी तरफ आकर्षित किया जिनके लिए ये बेहद गंभीर मुद्दा था. हालांकि इसके साथ उन्होंने स्विंग स्टेट्स में ऊर्जा (प्रदूषण करने वाले एनर्जी उत्पादन) पर निर्भर रहने वाली इंडस्ट्री से जुड़े वोटरों का समर्थन न पाने ख़तरा भी मोल लिया.
लेकिन ये एक अपवाद साबित हुआ.
पर्यावरण पर काम करने वाली संस्था सनराइज़ मूवमेंट की सह-संस्थापक वार्शिनी प्रकाश कहती हैं, "ये कोई छुपी हुई बात नहीं कि हम अतीत में उप-राष्ट्रपति बाइडन की योजनाओं और प्रतिबद्धताओं की आलोचना करते रहे."
"लेकिन उन्होंने इन आलोचनाओं का उत्तर दिया है. उन्होंने निवेश बढ़ाया है और ये भी विस्तार से बताया है कि वो कैसे तुरंत क़दम उठाएंगे, पर्यावरण की सुरक्षा करेंगे और साथ ही अधिक संख्या में रोज़गार पैदा करेंगे."
पाँचवाँ - अधिक पैसा, कम समस्याएं
इस साल की शुरुआत में बाइडन के पास चुनावी अभियान चलाने के लिए अधिक पैसा नहीं था. उनकी जेब खाली थी.
लेकिन उन्होंने नुक़सान उठा कर चुनाव अभियान शुरू करने की फ़ैसला किया, वो भी ट्रंप के ख़िलाफ़ जिन्होंने अपने राष्ट्रपति के कार्यकाल के दौरान अभियान के लिए अरबों डॉलर जुटाए थे.
अप्रैल के बाद से बाइडन ने अपने चुनावी अभियान को फंडरेज़िंग अभियान (दान इकट्ठा करने का अभियान) में बदल दिया और शायद ट्रंप के चुनाव अभियान की लापरवाही के कारण उनसे कहीं अधिक पैसा जमा कर लिया.
अक्टूबर के आख़िर तक बाइडन के चुनाव अभियान के पास ट्रंप के अभियान के मुक़ाबले 14.4 करोड़ डॉलर अधिक धन था. उन्होंने हर महत्वपूर्ण राज्य में इतने अधिक टेलिविज़न विज्ञापन दिए जिसका उनके प्रतिद्वंदी इसका मुक़ाबले नहीं कर सके.
लेकिन पैसा ही सब कुछ नहीं है. चार साल जब ट्रंप कम पैसों पर अपना अभियान चला रहा थे उस वक्त क्लिंटन के पास अभिय़ान के लिए पैसों की कोई कमी नहीं थी.
साल 2020 में जब कोरोना महामारी के कारण एक राज्य से दूसरे राज्य में घूम-घूम कर अभियान चलाना संभव नहीं था, तब अधिकतर अमेरिकी ज़्यादा टेलीविज़न देख रहे थे. इस वक्त बाइडन के विज्ञापनों काम में आए क्योंकि वो घरों में बैठे वोटरों तक अपने संदेश आसानी से पहुंचा पा रहे थे.
इससे वो अपने अभियान को बढ़ा सके और टेक्सस, जॉर्जिया, ओहायो और आयोवा जैसे बड़े बड़े राज्यों में अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचने में कामयाब हुए.
वो रूढ़िवादी एरिज़ोना और बेहद कंपीटीटिव जॉर्जिया में ट्रंप को कड़ी टक्कर देने में सफल रहे.(bbc)