संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : बेइंसाफी घटाने की एक प्रणाली बनाने की जरूरत
सुनील कुमार ने लिखा है
30-Aug-2025 5:28 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : बेइंसाफी घटाने की एक प्रणाली बनाने की जरूरत

सुप्रीम कोर्ट ने अभी इलाहाबाद हाईकोर्ट के दो मामलों को लेकर सख्त बेचैनी जाहिर की है और एक किस्म से हाईकोर्ट को यह याद दिलाया है कि वह किसी की जमानत की अर्जी पर तारीख पर तारीख, तारीख पर तारीख नहीं बढ़ा सकता। इस मामले में जमानत अर्जी पर सुनवाई 21 बार टल चुकी थी। मुख्य न्यायाधीश और दो अन्य जजों की बेंच के सामने जेल में बंद इस आरोपी के वकील ने याद दिलाया कि कुछ दिन पहले ही एक दूसरे केस में सुप्रीम कोर्ट ने एक व्यक्ति को यह देखकर जमानत दे दी थी कि हाईकोर्ट ने उसकी जमानत अर्जी पर सुनवाई 43 बार टाल दी थी। यह आदमी साढ़े तीन बरस से जेल में बंद था, और उसकी जमानत अर्जी पर सुनवाई हो ही नहीं रही थी, इलाहाबाद हाईकोर्ट जाने क्या सोचकर उस सुनवाई को आगे टालते चल रहा था। सुप्रीम कोर्ट ने अभी यह सब देखकर कहा- हम बार-बार कह रहे हैं कि नागरिकों से जुड़े मामलों को तेजी से सुना, और तय किया जाए। हम हाईकोर्ट की इस आदत को मंजूर नहीं कर सकते कि निजी आजादी से जुड़े मामलों को बार-बार टाल दिया जाए। ऐसे मामलों को सबसे तेजी से निपटाना चाहिए। हम इलाहाबाद हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश से गुजारिश करते हैं कि इस मामले को जल्द निपटाएं। अब कम से कम अगली तारीख पर हाईकोर्ट को उसकी जमानत अर्जी पर फैसला करना ही होगा।

ये दोनों मामले देश की कई केंद्रीय जांच एजेंसियों, और राज्य की पुलिस या दूसरी जांच एजेंसियों के चलाए जा रहे बहुत से दूसरे मुकदमों की तरह हैं जिनमें एजेंसियां किसी एक या दूसरे बहाने से जमानत का विरोध करती हैं। दिल्ली में हुए दंगों में जिनके खिलाफ यूएपीए के तहत मामले दर्ज किए गए थे उनमें से बहुत सारे लोगों को पांच बरस गुजर जाने पर भी जमानत नहीं मिली है, और मामले की सुनवाई भी आगे नहीं बढ़ी है। अब अगर ये लोग अदालत से बेकसूर साबित होते हैं, तो पांच बरस की इस कैद की यह लोकतंत्र क्या भरपाई कर सकता है? और ऐसी बेगुनाही कई दूसरे मामलों में साबित होती रहती है, उसमें अनोखा कुछ भी नहीं है। अभी-अभी एक हफ्ते के फासले में ही मुंबई ट्रेन ब्लॉस्ट और मालेगांव बम धमाकों के दो अलग-अलग मामलों में सारे ही आरोपी छूट गए। इनमें साध्वी प्रज्ञा ठाकुर जैसी चर्चित भूतपूर्व सांसद भी शामिल थीं। देश की एक सबसे ताकतवर बनाई गई जांच एजेंसी ने बम धमाकों के इन मामलों के मुकदमे चलाए थे।

भारत की अदालतों में मुकदमों और अर्जियों की तारीखें आगे बढऩे का सिलसिला उसी तरह चलता है जिस तरह भारत के सरकारी दफ्तरों पर बने हुए एक टीवी सीरियल में दिखाया गया था। हिंदुस्तानी इंसान मुसद्दीलाल बनकर रह गए हैं। अब ऐसे कितने फीसदी लोग होंगे जो हाईकोर्ट का फैसला होने से पहले सुप्रीम कोर्ट तक जा सकें? भारत के कानून में सुप्रीम कोर्ट कई बार कह चुका है कि जमानत एक अधिकार होना चाहिए, और उसे खारिज करके जेल एक अपवाद रहना चाहिए। हाल ही के महीनों में सुप्रीम कोर्ट ने ईडी और सीबीआई सरीखी कई जांच एजेंसियों को जमकर फटकारा है कि वे लगातार जमानत का विरोध करते चलते हैं, या किसी-किसी मामले में एक मामले में जमानत का आसार दिखते ही दूसरा मामला दर्ज कर लेते हैं। लेकिन जेल में अधिक से अधिक समय तक रखने की अंग्रेजों के समय से चली आ रही सोच भारत की बड़ी जांच एजेंसियों, और राज्य की पुलिस तक में बराबरी से हावी है। 

 

हमारा मानना है कि अगर सुप्रीम कोर्ट सचमुच ही देश की अदालतों पर से वजन हटाना चाहता है, जेलों से कैदियों को कम करना चाहता है, और नागरिकों को इंसाफ देना चाहता है तो उसे सारी अदालती कार्रवाई का कम्प्यूटरीकरण करके यह व्यवस्था करनी चाहिए कि किसी मामले में सुनवाई कितने बार आगे बढऩे पर कम्प्यूटर ही जज को याद दिला दे कि इसे और आगे बढ़ाने का अधिकार अब खत्म हो चुका है। अगर एक हाईकोर्ट में जमानत अर्जी पर 43 बार पेशी बढ़ चुकी है, तो ऐसे मामले में सुप्रीम कोर्ट में वकील के पहुंचने पर ही जजों को यह क्यों पता लगे? क्या यही जनता का इंसाफ पाने का हक है? होना तो यह चाहिए था कि सुप्रीम कोर्ट को अदालत का सॉफ्टवेयर यह बताते चलता कि हाईकोर्ट में किस-किस मामले की सुनवाई अब तक कितनी बार बढ़ चुकी है? बहुत मामूली से सॉफ्टवेयर से यह काम हो सकता था, हो सकता है। और अब तो एआई की मेहरबानी से ऐसी निगरानी और भी आसान हो गई है। आज के वक्त मुजरिम भी एआई के मामूली औजार इस्तेमाल करके अपने शिकार छांट रहे हैं, ऐसे में भारत की न्यायपालिका को तो अपने कामकाज को बेहतर बनाने के लिए अब साधारण हो चली ऐसी तकनीक का इस्तेमाल करना चाहिए। हाईकोर्ट में 43 बार वकील खड़े कर चुके इंसान के पास सुप्रीम कोर्ट में फिर वकील खड़ा करने की ताकत हो सकता है कि बची भी न हो। अदालत को ही निगरानी का एक साधारण सा सॉफ्टवेयर बनवाना चाहिए जिससे अदालतों और जेलों का वजन भी कम होगा।

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