संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : पार्टियों से अलग दिख रही नेताओं की बयानबाजी अनायास, या सोची-समझी?
31-Dec-2023 4:34 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय :  पार्टियों से अलग दिख रही नेताओं की बयानबाजी अनायास, या सोची-समझी?

अगले लोकसभा चुनाव को लेकर उद्धव ठाकरे की लीडरशिप वाली शिवसेना के प्रवक्ता और बड़े नेता संजय राउत ने अभी कहा था कि सीटों के बंटवारे पर कांग्रेस के साथ उनकी बातचीत शून्य से शुरू होगी, क्योंकि राज्य में उसके पास कोई भी लोकसभा सीट नहीं है। उन्होंने यह भी याद दिलाया था कि कांग्रेस को यह बात याद रखना चाहिए कि अभी-अभी वह तीन राज्यों में चुनाव हारी है। संजय राउत ने यह भी कहा था कि शिवसेना महाराष्ट्र में 23 सीटों पर लड़ेगी। इसके पहले महाराष्ट्र के कांग्रेस नेताओं ने शिवसेना के विभाजित होने पर तंज कसा था, और इसके जवाब में संजय राउत ने कहा था कि कांग्रेस विभाजित तो नहीं है, लेकिन वह तीन राज्य हार गई है। मानो इन सबके जवाब में, और कांग्रेस की स्वाभाविक नाराजगी को घटाने के लिए उद्धव ठाकरे ने कहा है कि वे ऐसा कुछ भी नहीं करेंगे जिससे महाराष्ट्र के गठबंधन को नुकसान पहुंचे। उल्लेखनीय है कि महाराष्ट्र में उद्धव-शिवसेना का एनसीपी और कांग्रेस के साथ गठबंधन राज्य शासन में भी था, और विपक्ष में आने के बाद भी वह जारी है। उद्धव ने कहा कि वे इस तरह के बयान देने वाले लोगों पर ध्यान नहीं देंगे, और जब तक कांग्रेस अध्यक्ष सीट बंटवारे पर नहीं बोलेंगे, तब तक न तो मैं, और न ही मेरी तरफ से कोई और टिप्पणी करेंगे। 

अभी दो-चार दिन पहले ही कांग्रेस के ओवरसीज संगठन के मुखिया, सैम पित्रोदा ने एक समाचार एजेंसी को अयोध्या की प्राण-प्रतिष्ठा को लेकर यह कहा था कि भारत के लोगों को तय करना होगा कि क्या वे देश को एक हिन्दू राष्ट्र बनाना चाहते हैं, या फिर वे एक ऐसे राष्ट्र का निर्माण करना चाहते हैं जो वास्तव में धर्मनिरपेक्ष हो, और जिसमें तमाम विविधताओं की जगह हो। उन्होंने कहा था कि मंदिर देश का मुख्य मुद्दा नहीं बन सकता है, और लोगों को तय करना है कि बेरोजगारी, महंगाई या राम मंदिर, असली मुद्दे क्या हैं। इसके तुरंत बाद कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता जयराम रमेश ने इस बयान को पार्टी का नजरिया मानने से इंकार कर दिया था, और कहा था कि यह सैम का निजी विचार होगा, यह पार्टी की सोच नहीं है। उल्लेखनीय है कि अयोध्या में 22 जनवरी को प्राण-प्रतिष्ठा में शामिल होने या न होने पर अलग-अलग पार्टियों के अलग-अलग रूख सामने आ रहे हैं, और कुछ पार्टियों ने जाने से इंकार कर दिया है, कुछ को न्यौता नहीं मिला है, और कुछ का फैसला अभी सामने नहीं आया है। इस बीच में विदेश में बसे हुए सैम पित्रोदा को कांग्रेस के एक जिम्मेदार ओहदे पर रहते हुए, और राहुल गांधी के तमाम विदेशी कार्यक्रमों के इंचार्ज भी रहते हुए क्या कहना चाहिए था, और क्या नहीं, इस पर उनकी खुद की समझ जमीन से कटी हुई, और कमजोर दिखती है।

हम पहले भी इस मुद्दे पर कई बार कह चुके हैं कि राजनीतिक दलों के अनगिनत नेता और प्रवक्ता जटिल और नाजुक मुद्दों पर अपनी निजी राय धड़ल्ले से पेश करते रहते हैं, और शायद खबरों में जगह पाने के लिए उन्हें ऐसा जरूरी लगता है। सवाल यह है कि राजनीतिक दल अपने लोगों की जुबान पर लगाम क्यों नहीं लगा सकते? कम से कम जो जलते-सुलगते मुद्दे हैं, जिनसे सहयोगी दलों का लेना-देना है, या जिनसे देश की जनभावनाएं जुड़ी हुई हैं, उन पर पार्टी के औपचारिक सार्वजनिक रूख से परे अलग-अलग बातें लोग क्यों करते हैं? इसकी एक वजह यह भी हो सकती है कि हम कुछ अधिक तर्कसंगत होकर सोच रहे हैं, और राजनीतिक दल सोच-समझकर ऐसी धुंध फैलाकर रखते हैं ताकि वोटरों का रूख भांपा जा सके। ऐसा तो हो नहीं सकता कि पार्टी अपने लोगों को कुछ मुद्दों पर बयानबाजी न करने को कहे, उसके बाद भी लोग बयान देते ही रहें। भाजपा के कई नेताओं ने अलग-अलग मौकों पर बहुत ही साम्प्रदायिक और हिंसक बयान भी दिए हैं, जिनमें से कुछ गिने-चुने बयानों से पार्टी ने अपने को अलग भी किया है, लेकिन उनमें से अधिकतर बयानों का कोई खंडन नहीं होता। तो यह समझने की जरूरत है कि क्या यह वोटरों के बर्दाश्त को तौलने का एक तरीका रहता है कि और कितनी हिंसक बात कही जा सकती है? यह तो होता ही है कि लोकतंत्र में हर हिंसक और नफरती बयान धीरे-धीरे पहले के कम हिंसक और कम नफरती बयान को बेअसर करते चलते हैं, और नफरत-हिंसा की नई ऊंचाई एक नई सामान्य भाषा बनकर स्थापित हो जाती है। 

किसी गठबंधन की जमीन अभी तैयार हो ही रही है, और उसके बीच अगर लगातार हर साथी दल की तरफ से बयानबाजी चलती रहेगी, तो उसका नतीजा क्या होगा? किसी गठबंधन पर पार्टी का बयान देने के लिए हर पार्टी को अपने किसी एक नेता को अधिकृत करना चाहिए कि उनसे परे कोई और गठबंधन के मामलों में कुछ भी नहीं कहेंगे। उद्धव ठाकरे ने कांग्रेस के कुछ नेताओं, और संजय राउत के बीच की बयानबाजी को लेकर उसका जिक्र किए बिना जो कहा है कि वे कांग्रेस अध्यक्ष के बयान पर ही प्रतिक्रिया देंगे, वह एक बहुत समझदारी का रूख है। बड़बोले लोगों के आए दिन के बयानों से गठबंधन का तो नुकसान होगा ही, खुद ऐसे लोगों की पार्टियों का भी नुकसान होगा। यह सिलसिला शुरू नहीं होने देना चाहिए। पार्टियों को यह तय करना चाहिए कि किस तरह के आम मुद्दों पर पार्टी के नेता क्या कहें, और किन खास मुद्दों पर कुछ पूछे जाने पर भी वे अपनी पार्टी के अधिकृत नेता का नाम बता दें कि इस बारे में वे ही कुछ कह सकेंगे। 

दूसरी बात यह भी है कि कुछ जरूरी मुद्दों पर पार्टी के सबसे अधिकृत व्यक्ति को समय रहते साफ-साफ बयान देना चाहिए, और उसे निजी राय के रूप में पेश भी नहीं करना चाहिए। जब पार्टी के प्रवक्ता यह कहते हैं कि उनका ऐसा सोचना है, या वे ऐसा मानते हैं, तो ऐसे प्रवक्ता एक गलतफहमी पैदा करते हैं। प्रवक्ता को निजी राय का इस्तेमाल ही नहीं करना चाहिए, उसे सीधे-सीधे पार्टी का रूख ही बताना चाहिए। और जब दूसरे नेता कुछ कहें तो उन्हें साफ कर देना चाहिए कि यह उनका निजी विचार है, और इसे पार्टी की ओर से कोई मंजूरी मिली हुई नहीं है। भारत के राजनीतिक दल बहुत अनुभवी हैं, और उन्हें ऐसी किसी नसीहत की जरूरत होनी नहीं चाहिए, लेकिन तरह-तरह की बकवास से लोकतंत्र का भी खासा समय खराब होता है, इसलिए सार्वजनिक जीवन के लोगों को, राजनीति से परे भी, अवांछित बातें कहने से बचना चाहिए। 

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