संपादकीय

मणिपुर इस बात का सुबूत बन गया है कि हिन्दुस्तान के लोकतंत्र का आज क्या हाल है। जिस तरह से वहां से ऐसे वीडियो सामने आए हैं जिनमें कुकी आदिवासी महिलाओं को बिना कपड़ों के एक हिंसक जुलूस में ले जाया जा रहा है, और जिस तरह उनके साथ सामूहिक बलात्कार हुआ, जिसकी रिपोर्ट कुछ दिनों में पुलिस में की गई, लेकिन महीनों बाद भी जिस पर कोई कार्रवाई नहीं की गई थी, यह आज का मणिपुर है। और इस बात के बिना मणिपुर का जिक्र अधूरा रहेगा कि यह भाजपा सरकार का मणिपुर है जिसकी कि केन्द्र सरकार भी है। लेकिन सरकार से परे भी कुछ देखने-समझने की जरूरत है। यह एक बड़ा ही विचित्र संयोग रहा कि कल सुबह सुप्रीम कोर्ट ने मणिपुर के ऐसे तैरते वीडियो का खुद नोटिस लिया, और मुख्य न्यायाधीश ने खुद होकर केन्द्र और मणिपुर सरकारों को नोटिस जारी किया कि अगर सरकार ने हालात जल्द नहीं सुधारे तो अदालत को दखल देना होगा। सुप्रीम कोर्ट से इस खबर के निकलने के मिनटों के भीतर प्रधानमंत्री ने संसद के अहाते से मणिपुर पर फिक्र जाहिर की। लेकिन इससे परे एक दूसरी बात के बारे में भी सोचना जरूरी है।
एक वरिष्ठ पत्रकार रहे, और अब सामाजिक मोर्चे पर एक आंदोलनकारी की तरह सक्रिय प्रो.दिलीप मंडल ने इस बात की तरफ ध्यान आकर्षित कराया है कि मणिपुर की यह हिंसा वहां के हाईकोर्ट के जिस आदेश के बाद शुरू हुई है, उसे मद्रास हाईकोर्ट से वहां भेजे गए जस्टिस एम.वी.मुरलीधरन ने दिया था। जब जस्टिस मुरलीधरन को मद्रास हाईकोर्ट से मणिपुर भेजा जा रहा था तो उन्होंने सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम से अपील की थी कि उन्हें मणिपुर नहीं भेजा जाए, उनका मतलब शायद यह था कि वे वहां के समाज, इतिहास, भाषा, और वहां के लोगों से वाकिफ नहीं थे। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें वहां भेजकर ही दम लिया। हालत यह थी कि मणिपुर हाईकोर्ट की बेंच मेें एक भी आदिवासी जज नहीं था जो कि जस्टिस मुरलीधरन को वहां की ट्राइबल भावनाओं को समझा सके। दिलीप मंडल ने दस्तावेजों के साथ यह लिखा है कि जस्टिस मुरलीधरन को भेजने वाले कॉलेजियम के मुखिया रंजन गोगोई थे। 2019 के इस फैसले के पहले जस्टिस मुरलीधरन के आवेदन पर विचार करने की बात भी कही गई थी, जिसमें उन्होंने कर्नाटक, आन्ध्र, केरल या ओडिशा हाईकोर्ट में से कहीं भेजने की अपील की थी। इस आवेदन को खारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने यह आदेश निकाला कि उन्हें मणिपुर ही जाना होगा।
हिन्दुस्तान जैसी विविधताओं वाला देश है, और एक-एक हाईकोर्ट के इलाके में, एक-एक राज्य सरकार के इलाके में जितने किस्म के समुदाय आते हैं, धर्म, जाति, और संस्कृति का टकराव रहता है, उसे देखते हुए केन्द्र सरकार को वहां राज्यपाल नियुक्त करने में, और सुप्रीम कोर्ट को वहां हाईकोर्ट के जज नियुक्त करने में संवेदनशीलता दिखानी चाहिए। किसी भी कुर्सी को कोई फैसले महज इसलिए नहीं ले लेने चाहिए कि उसके पास ऐसे फैसले लेने की ताकत है। फैसले ऐसे लेने चाहिए जो कि लोकतांत्रिक संवेदनशीलता को भी दिखाते हों। हम हिन्दुस्तान जैसे सुप्रीम कोर्ट में भी यह कई बार देखते हैं कि एक ही अदालत होने के बावजूद उसके अलग-अलग जजों की अलग-अलग बेंच में जो फैसले लिए जाते हैं वे कई बार उन जजों की निजी सोच और समझ से भी प्रभावित होते हैं। इसलिए न सिर्फ जजों में विविधता होनी चाहिए, बल्कि जब जजों की कोई बेंच बनाई जाती है, तब भी उसमें इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वे अलग-अलग पृष्ठभूमि से आए हुए जज हों ताकि उनकी संवेदनशीलताओं में एक संतुलन रह सके। कई जजों को उनके कड़े पूर्वाग्रहों के चलते हुए कई किस्म के मामलों से अलग भी रखना चाहिए। और हम तो इस बात में भी कोई बुराई नहीं देखते हैं कि जब कोई जज बिल्कुल ही अनजान इलाके में पोस्ट किए जाएं, तो उन्हें स्थानीय इतिहास, संस्कृति, राजनीति, और समाज के बारे में कुछ महीनों का एक कोर्स भी करवाया जाए। एक हाईकोर्ट जज के एक आदेश की वजह से, या कम से कम उसके बाद जो बवाल खड़ा हुआ है, वह पूरे मणिपुर को जलाकर भी आगे बर्बादी जारी रखे हुए है। फिर एक बात यह भी है कि केन्द्र और राज्य सरकार एक ही पार्टी की होने से एक किस्म की सहूलियत भी होती है, लेकिन विचार-मंथन की गुंजाइश कम हो जाती है। मणिपुर के साथ यह भी हो रहा है। वहां प्रदेश को बचाना, और अपनी पार्टी के मुख्यमंत्री को बचाना, इन दो हितों के बीच एक बड़ा टकराव चल रहा है। इन तमाम बातों को देखें और कल वहां की एक आदिवासी राज्यपाल अनुसुईया उईके के वीडियो-बयान को देखें तो लगता है कि नाजुक मौकों पर धर्म या जाति की समझ सचमुच मायने रखती है। अनुसुईया उईके ने हालात पर बड़ा अफसोस जाहिर किया है, और एक किस्म से कल का उनका बयान अपने आपको केन्द्र और राज्य इन दोनों के आज के हाल से कुछ अलग कर लेने वाला दिख रहा है। खैर, इससे कोई फर्क इसलिए नहीं पड़ता कि भारत की संवैधानिक व्यवस्था में राज्यपाल को केन्द्र के मातहत ही काम करना है, और मुख्यमंत्री राज्यपाल की किसी बात को मानने के लिए मजबूर नहीं रहते। इसलिए एक आदिवासी महिला राज्यपाल हिंसा शुरू होने के महीनों बाद, खासकर प्रधानमंत्री के अफसोस जाहिर करने के बाद मुंह खोल रही है, और उस वक्त मुंह खोल रही है जब आदिवासी महिलाओं को नंगा करके उनकी परेड निकाली जा रही है, और सामूहिक बलात्कार के महीनों बाद भी कोई कार्रवाई न होने की बात सामने आ रही है। जब पूरी बस्ती जलकर राख हो जाए, तब जाकर किसी का अफसोस किसी काम का नहीं है, न प्रधानमंत्री का, न सुप्रीम कोर्ट का, और न राज्यपाल का। ये सब रस्मी ढकोसले हैं, और सुप्रीम कोर्ट का इतिहास भी इस बात को दर्ज करेगा कि उसने मणिपुर को देश के बाहर का दर्जा देकर रखा था। जब पूरी दुनिया से इन वीडियो को देखकर धिक्कार आने लगा, तब जाकर सुप्रीम कोर्ट ने एक औपचारिकता पूरी की है। और इसके बाद प्रधानमंत्री ने मुंह खोला है, और राज्यपाल ने एक वीडियो-कैमरा बुलवाकर इतिहास में दर्ज होने की कोशिश की है। लेकिन लोकतंत्र इतिहास को कैलेंडर की तारीखों और घड़ी के घंटों के साथ दर्ज करता है, और ऐसी रस्म अदायगी मणिपुर के किसी काम की नहीं है। हिन्दुस्तान का लोकतंत्र मणिपुर में इस हद तक नाकामयाब साबित हो चुका है कि अब मणिपुर अगर कभी हथियार भी उठा ले, तो इस पर किसी को हैरानी नहीं होनी चाहिए।