संपादकीय

भारत के मुख्य न्यायाधीश एन वी रमणा ने यह राय जाहिर की है कि अब न्याय व्यवस्था को जनता के लिए रहस्यमुक्त करने का वक़्त आ गया है, उन्होंने यह बात गुजरात उच्च न्यायालय में अदालती कार्यवाही की लाइव स्ट्रीमिंग, यानी इंटरनेट पर जीवंत प्रसारण, के मौके पर कही। गुजरात ने अपने हाई कोर्ट की कार्रवाई को लाइव दिखाने का काम शुरू किया है और देश के मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट भी इस तरफ काम कर रहा है कि कैसे कम से कम कुछ अदालतों की कार्रवाई को लाइव दिखाया जा सके। न्यायाधीश ने कहा कि आजादी की पौन सदी बाद भी न्याय व्यवस्था को लेकर जनता के मन में अभी कई तरह की गलत धारणाएं हैं, इनको दूर करने की जरूरत है। लेकिन अदालती कार्यवाही के जीवन पर प्रसारण के साथ जुड़े हुए खतरे का भी उन्होंने जिक्र किया और कहा कि इससे कभी-कभी जज को सार्वजनिक जांच का दबाव महसूस हो सकता है जिससे एक तनावपूर्ण स्थिति हो सकती है। लेकिन जज को यह याद रखना चाहिए कि भले ही इंसाफ लोकप्रिय धारणा के खिलाफ हो, उसे संविधान के प्रति प्रतिबद्धता के साथ ऐसा करना चाहिए। मुख्य न्यायाधीश ने कहां कि एक जज को लोकप्रिय राय से प्रभावित नहीं किया जा सकता।
यह बात लंबे समय से हवा में चली आ रही थी कि अदालती कार्यवाही का जीवंत प्रसारण होना चाहिए, लेकिन लोगों को यह खतरा भी लगता था कि इससे जनता में होने वाली प्रतिक्रिया का अदालती फैसले पर क्या कोई असर होगा? लोगों को यह भी याद रखना चाहिए कि जब संसद की कार्यवाही का जीवंत प्रसारण शुरू हुआ उस वक्त भी यह बात लगती थी कि इससे सांसदों को अपने चुनाव क्षेत्र के मतदाताओं को दिखाने के लिए कई बातें कहने को सूझेगा, लेकिन अब इतने बरस बाद भी आज तक कभी ऐसा नहीं हुआ कि किसी सांसद के भाषण को लेकर यह तोहमत लगी हो कि वह सदन के बाहर के लोगों को सुनाने के लिए यह बात बोल रहे थे, सदन के भीतर के लोगों के लिए नहीं। इसलिए जनता की नजरों के सामने किसी बात को लाने का यह मतलब कहीं नहीं होता कि वह जनता को लुभाने की कोशिश होने लगेगी। जब लोकसभा, राज्यसभा में, और राज्यों की विधानसभाओं में कार्रवाई का जीवंत प्रसारण होने लगा है, और उन सांसदों-विधायकों की बहसों का जीवंत प्रसारण होने लगा है जिन्हें जनता के बीच वोटों के लिए दोबारा जाना भी पड़ता है, तो ऐसे लोगों के मुकाबले जजों को भला कौन सी लुभावनी बात कहने की मजबूरी रहेगी? जजों को तो किसी चुनाव से आना नहीं रहता और न ही दोबारा किसी चुनाव में जाना रहता है। वह तो जितना चाहे उतना अलोकप्रिय फैसला भी दे सकते हैं। हिंदुस्तान की राजनीति में तो होता यह है कि सरकारें बहुत किस्म के कड़वे और लोकप्रिय फैसले खुद लेने के बजाय एक ऐसी स्थिति पैदा करती हैं कि ये फैसले अदालतों से निकलकर आएं, और सरकार केवल उन पर मजबूरी में अमल करती हुई दिखें। इसलिए हमें ऐसी कोई आशंका नहीं लगती कि जनता का कोई दबाव जजों के ऊपर रहेगा। और कुछ दबाव तो वैसे आज भी है जब अदालतों से जीवंत प्रसारण नहीं है तब भी अखबारों के रास्ते या टीवी की खबरों के रास्ते, मुकदमे के चलते हुए भी अधिकतर बातें जनता के बीच में आ ही जाती हैं। यह एक अलग बात रहती है कि मीडिया अपने पूर्वाग्रह या अपनी पसंद-नापसंद या अपनी किसी साजिश के तहत, चुनिंदा बातों को अदालत की पूरी कार्रवाई की शक्ल में सामने रखता है। जब प्रसारण होने लगेगा तो दिलचस्पी रखने वाले लोग अपनी पसंद के मामले के पूरी की पूरी बहस को देख लेंगे और उसे बेहतर समझ सकेंगे। अदालत में कार्यवाही कैसे होती है, कौन से वकील क्या कह रहे हैं, कौन से जज क्या कह रहे हैं, इन बातों को लेकर अदालत के बाहर एक रहस्य बने रहता है। बहुत से मामलों में तो यह होता है कि वादी-प्रतिवादी के वकील तैयारी से नहीं जाते और अगली तारीख ले लेते हैं, अगर ऐसा भी कुछ होगा तो लोग यह देख सकेंगे कि उनके वकील अदालत के भीतर कितनी मेहनत कर रहे हैं, या मुफ्त की फीस ले रहे हैं।
इस मौके पर हम यह भी कहना चाहेंगे कि बड़ी अदालतों में जजों की नियुक्ति जब होती है, तो उसके लिए भी एक संसदीय सुनवाई होनी चाहिए। हिंदुस्तान में यह बड़ी अजीब अदालती व्यवस्था बना दी गई है कि सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ही सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों के नाम तय करके केंद्र सरकार को भेजता है और वहां से कुछेक नामों पर आपत्ति के अलावा अधिकतर नाम ज्यों के त्यों मंजूर हो जाते हैं। केंद्र सरकार के हाथ में किसी अदालत के जज को हटाने के लिए संसद में महाभियोग लाने जैसा मुश्किल काम ही अकेला रास्ता बचता है। यह व्यवस्था वैसे भी देश में लंबे समय से आलोचना झेल रही है कि अदालत को इतनी अधिक शक्तियां अपने हाथ में नहीं लेना चाहिए कि वही जज नियुक्त करे और उस जज को हटाना सरकारों के लिए एक बहुत कठिन पहाड़ी चढ़ाई की तरह रहे। हम कहीं से भी यह सुझाना नहीं चाह रहे हैं कि सरकार की दखल जजों की नियुक्ति में होनी चाहिए, लेकिन हम यह जरूर चाहते हैं कि संसद की एक भूमिका इसमें होनी। जिस तरह अमेरिका में सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति के पहले संसदीय समिति उनकी लंबी सुनवाई करती है और उसका जीवंत प्रसारण भी होता है, उन्हें संभावित जजों से 100 किस्म के सवाल किए जाते हैं, जिनमें उनकी निजी जिंदगी से जुड़े सवाल भी रहते हैं, और उनकी पसंद-नापसंद, राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक विचारधारा के बारे में भी सवाल किए जाते हैं। हमारा मानना है कि हिंदुस्तान में भी कॉलेजियम के तय करने के पहले या कॉलेजियम के तय करने के बाद ऐसी एक संसदीय सुनवाई होनी चाहिए और जजों को सवालों की एक अग्निपरीक्षा से गुजरना चाहिए ताकि उनके पूर्वाग्रह, उनके संबंध पहले से उजागर हो सकें, और उसके बाद यह तय हो सके कि उन्हें जज बनाना ठीक रहेगा या नहीं। फिलहाल नए मुख्य न्यायाधीश अब तक तो कुछ ना कुछ सकारात्मक और सुधारात्मक बात कर रहे हैं उनके फैसले का आदेश भी किसी सरकारी विभाग के आदेश की तरह नहीं दिख रहे हैं, इसलिए उनका यह कहना जनभावना के अनुरूप ही है कि अदालती कार्यवाही के प्रसारण को अब शुरू कर देना ताकि लोग अदालत को किसी वकील की नजरों से देखने के बजाय खुद भी देख सकें। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)