जन्म से दोनों हाथ न होने के कारण गुलशन लोहार ब्लैकबोर्ड पर पैर से लिखकर हाई स्कूल के छात्रों को गणित पढ़ाते हैं.
उनका स्कूल झारखंड के सबसे पिछड़े जिलों में से एक, पश्चिम सिंहभूम के ज़िला मुख्यालय से लगभग 90 किलोमीटर दूर बरांगा गांव में है.
यह गांव सारंडा के जंगलों में स्थित है. इसी गांव में जन्मे गुलशन लोहार ने पढ़ाई-लिखाई से लेकर शिक्षक बनने तक लंबा संघर्ष किया है.
गुलशन लोहार सात भाइयों में सबसे छोटे हैं. जन्म से ही दोनों हाथ न होने की वजह से उन्हें कई तरह की तकलीफ़ों का सामना करना पड़ा.
गुलशन लोहार के भाई छोटेलाल बताते हैं कि एक बार उनकी मां रायवरी ने उनसे कहा, "गुलशन अगर शिक्षित हो जाए तो उसे बेहतर जीवन की दिशा मिल सकती है."
इस पर छोटेलाल ने अपनी मां से पूछा, "गुलशन जब कलम नहीं पकड़ सकते तो पढ़ेंगे कैसे?"
छोटेलाल कहते हैं, "तब मां ने कहा कि कलम पकड़ने के लिए हाथ नहीं हैं तो पैर को ही हाथ बना दूंगी."
माँ ने सिखाया पैर से पेंसिल पकड़ना
परिवार वालों के मुताबिक़, जब गुलशन तीन साल के थे तभी से उनकी मां ने उन्हें सिखाना शुरू कर दिया.
छोटेलाल लोहार बताते हैं, "मां एक चॉक को गुलशन के बाएं पैर के अंगूठे और दूसरी उंगली के बीच फंसाकर लकीर खींचने का अभ्यास करवाने लगीं."
कुछ दिनों बाद छोटेलाल ने चॉक की जगह पेंसिल गुलशन की उंगलियों में रखकर कॉपी पर लिखने का अभ्यास करवाना शुरू किया.
डेढ़ साल में गुलशन का आत्मविश्वास इतना बढ़ा कि छोटेलाल ने उनका दाख़िला स्थानीय प्राइमरी स्कूल में करवा दिया.
स्कूल के शुरुआती दिनों को याद करते हुए गुलशन कहते हैं, "उस वक़्त मुझे समझ आ गया था कि मैं दूसरे बच्चों की तरह सामान्य नहीं हूं. जहां सभी बच्चे हाथ से लिखते थे, वहीं मैं पैर से लिखता था. इससे मेरा मन बहुत दुखी हो जाता."
लेकिन उन हालात में बड़े भाई छोटेलाल ही गुलशन को हिम्मत देते और पढ़ाई के लिए प्रेरित करते.
इन कोशिशों का नतीजा यह रहा कि पहली से दसवीं तक गुलशन स्कूल के टॉपर बने. उन्होंने साल 2003 में पैर से लिखकर हाई स्कूल की परीक्षा पास कर ली.
हर दिन किया 74 किलोमीटर का सफ़र
पश्चिम सिंहभूम ज़िले के बरांगा गांव में, लगभग 50 परिवार रहते हैं. वहां हाई स्कूल के बाद आगे की पढ़ाई का कोई विकल्प नहीं था.
ऐसे में गुलशन लोहार ने इंटरमीडिएट की पढ़ाई के लिए चक्रधरपुर स्थित जवाहर लाल नेहरू कॉलेज में दाख़िला ले लिया.
शुरुआती दिनों में जब गुलशन कॉलेज पहुंचते तो उन्हें देखने के लिए भीड़ इकट्ठा हो जाती.
उन दिनों को याद करते हुए गुलशन कहते हैं, "मानो मैं कोई अजूबा था. उस दौरान छात्रों के बीच तरह-तरह की चर्चाएं होतीं कि बिना हाथ मैं कैसे लिख-पढ़ सकता हूं."
गुलशन हर दिन 74 किलोमीटर दूर स्थित चक्रधरपुर कॉलेज जाते थे. दिन में कक्षाएं करने के बाद शाम को वे घर लौट आते. इस दौरान वे रोज़ाना आठ किलोमीटर पैदल भी चलते थे.
कड़ी मेहनत और लगन का नतीजा उन्हें साल 2005 में मिला, जब उन्होंने इंटरमीडिएट की परीक्षा 65% अंकों के साथ पास कर ली.
तत्कालीन मुख्यमंत्री शिबू सोरेन ने दिया पढ़ाई का ख़र्च
गुलशन ने जवाहर लाल नेहरू कॉलेज से बीएड करने का मन बनाया था, लेकिन उनके सामने चौबीस हज़ार रुपये की फीस जुटाने की बड़ी चुनौती थी.
छोटेलाल लोहार कहते हैं, "फीस की व्यवस्था हमारे बस की बात नहीं थी. ऐसे में गुलशन ने मुख्यमंत्री से मिलने की ज़िद की."
साल 2008 में छोटेलाल गुलशन को लेकर रांची पहुंचे, ताकि तत्कालीन मुख्यमंत्री शिबू सोरेन से मुलाकात कर सकें.
उस दौरान उनकी कई रातें रेलवे स्टेशन पर गुज़रीं और दिन मुख्यमंत्री से मिलने की कोशिश में उनके आवास के बाहर बीते. कई दिनों की कोशिशों के बाद ही उनकी मुलाकात शिबू सोरेन से हो सकी.
गुलशन के सर्टिफ़िकेट देखने के बाद मुख्यमंत्री शिबू सोरेन प्रभावित हो गए.
गुलशन बताते हैं, "गुरुजी ने मुख्यमंत्री कोष से चौबीस हज़ार रुपये का चेक देते हुए कहा कि बाबू, पढ़ाई नहीं रुकनी चाहिए."
साल 2009 में बीएड पूरा करने के बाद भी गुलशन ने पढ़ाई जारी रखी और 2012 में राजनीति शास्त्र से पोस्टग्रेजुएशन कर लिया.
ऐसे बने शिक्षक
पोस्टग्रेजुएशन करने के बाद गुलशन ने झारखंड शिक्षक पात्रता परीक्षा की तैयारी शुरू कर दी. साल 2013 की इस परीक्षा में वे मात्र एक अंक से मेरिट में शामिल नहीं हो सके.
उस समय तक उनके सभी भाई, जो पेशे से मज़दूर थे, अपने-अपने परिवारों के साथ अलग रहने लगे थे. ऐसे में बढ़ती आर्थिक तंगी के बीच गुलशन पश्चिम सिंहभूम के ज़िला उपायुक्त से नौकरी मांगने पहुंच गए.
तत्कालीन ज़िला उपायुक्त अबूबकर सिद्दीकी की पहल पर साल 2014 में स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया लिमिटेड (सेल) की सहायता से उनके पैतृक गांव बरांगा के उत्क्रमित उच्च विद्यालय में गुलशन को प्रति घंटे के मानदेय पर गणित शिक्षक के तौर पर नियुक्ति मिल गई.