अमेरिका में हज़ारों दक्षिण एशियाई पेशेवरों के लिए एच-1बी वीज़ा लंबे समय से एकेडमिक करियर, रिसर्च अवसरों और दुनिया के सबसे बड़े टेक्नोलॉजी बाज़ार में नौकरियों तक पहुंच का साधन रहा है।
लेकिन अब यह रास्ता अचानक कम सुरक्षित दिखाई देने लगा है।
राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने एक कार्यकारी आदेश पर हस्ताक्षर किए हैं जिसके तहत नए एच-1बी वीज़ा आवेदनों पर एक लाख डॉलर की फ़ीस लागू की जाएगी। यह नियम 21 सितंबर से प्रभावी होगा।
इस एलान के बाद से ही भारत के एच-1बी वीज़ा धारक और कंपनी मालिक दोनों असमंजस में हैं।
आदेश जारी होते ही इसके दायरे को लेकर भ्रम फैल गया और वकील, एंप्लॉयर और वीज़ा धारक सभी इसकी भाषा को समझने में उलझे रहे।
ऐसे में वॉशिंगटन डीसी से इरम अब्बासी ने बीबीसी के लिए अमेरिका में रह रहे एच-1बी वीज़ा धारकों और एक्सपर्ट की राय जानी।
वहीं भारत में बीबीसी संवाददाता इशाद्रिता लाहिड़ी ने उन भारतीयों से बात की, जो इस फ़ैसले के समय अपने वतन लौटे थे और अब असमंजस में हैं।
21 सितंबर की डेडलाइन से पहले लौट आएं
इरम अब्बासी, बीबीसी के लिए, वॉशिंगटन डीसी से
साउथ एशियन बार एसोसिएशन की तरफ़ से बुलाई गई एक आपात बैठक में वकीलों ने कहा, टेक्स्ट को ध्यान से पढऩे के बाद भी इस बात की कोई स्पष्ट जानकारी नहीं है कि इसे कैसे लागू किया जाएगा।
उन्होंने अमेरिका में पहले से रह रहे एच-1बी वीज़ा धारकों को सलाह दी, अभी अंतरराष्ट्रीय यात्रा से बचें, क्योंकि बॉर्डर अधिकारियों के पास आदेश की व्यापक व्याख्या करने का अधिकार हो सकता है।
जो लोग अमेरिका से बाहर थे उन्हें कहा गया, अगर संभव हो तो 21 सितंबर की डेडलाइन से पहले लौट आएं, नहीं तो संभावित कोर्ट आदेशों का इंतज़ार करें।
हाल ही में वीज़ा लॉटरी में चुने गए आवेदकों को भी सलाह दी गई, अभी स्टेटस न बदलें और न ही अंतरराष्ट्रीय यात्रा करें, जब तक स्थिति साफ़ न हो।
लेकिन 48 घंटे के भीतर ही व्हाइट हाउस ने इन आशंकाओं को कम करने की कोशिश की। प्रेस सचिव कैरोलिन लेविट ने एक्स पर लिखा कि यह फ़ीस कोई सालाना चार्ज नहीं है बल्कि सिफऱ् एक बार की लागत है, जो केवल नए आवेदनों पर लागू होगी।
उन्होंने ज़ोर देकर कहा, जिनके पास पहले से एच-1बी वीज़ा है और जो इस समय अमेरिका से बाहर हैं, उनसे दोबारा प्रवेश के लिए एक लाख डॉलर नहीं लिया जाएगा।
उन्होंने यह भी कहा, मौजूदा वीज़ा धारक पहले की तरह यात्रा कर सकेंगे और अपना स्टेटस रीन्यू कर सकेंगे।
लेविट ने कहा, यह बदलाव पहली बार अगले एच-1बी लॉटरी साइकिल में लागू होगा।
फिर भी इस अनिश्चितता ने कंपनियों और कर्मचारियों दोनों को हिलाकर रख दिया है।
रिपोर्ट्स के मुताबिक़ कई बड़ी टेक्नोलॉजी कंपनियों ने विदेश में मौजूद अपने एच-1बी स्टाफ़ को सलाह दी है, जल्दी लौट आएं या तब तक अंतरराष्ट्रीय यात्रा से बचें जब तक नए नियम साफ़ न हो जाएं।
प्यू रिसर्च सेंटर के मुताबिक़, साल 2023 में मंज़ूर हुए सभी एच-1बी वीज़ाओं में से लगभग तीन-चौथाई भारतीय नागरिकों को मिले थे। चीन काफ़ी पीछे दूसरे स्थान पर रहा, जिसे 11 प्रतिशत वीज़ा मिले।
अमेरिकी सरकारी आंकड़ों से यह भी पुष्टि होती है कि अक्टूबर 2022 से सितंबर 2023 के बीच जारी किए गए सभी एच-1बी वीज़ा में से 70 प्रतिशत से ज़्यादा भारतीयों को मिले।
इस दबदबे का मतलब है कि इतने बड़े पैमाने पर किसी भी बदलाव का सबसे पहले और सबसे गहरा असर भारतीय पेशेवरों पर पड़ता है।
‘मेरी जि़ंदगी उलट-पुलट हो गई’
मिसौरी यूनिवर्सिटी की एक भारतीय पोस्ट डॉक्टोरल फ़ेलो, जिन्होंने अमेरिका से डॉक्टरेट की डिग्री हासिल की है, उन्होंने बीबीसी से कहा, इस नियम ने मेरी जि़ंदगी को पूरी तरह उलट-पुलट कर दिया है।
उनका वीज़ा अगले साल रिन्यू होना है और उन्हें शक है कि उनकी यूनिवर्सिटी एक लाख डॉलर की फ़ीस भर पाएगी।
उन्होंने बताया कि वह अमेरिका इसलिए आईं क्योंकि एच-1बी प्रोग्राम ने उनके जैसे रिसर्चर्स को एकेडमिक करियर बनाने में मदद दी।
उनका कहना है कि नए नियमों को लेकर विरोधाभासी संदेशों ने साथियों में घबराहट बढ़ा दी है और भारतीय राजनयिकों से दख़ल की मांगें तेज़ कर दी हैं।
नाम न बताने की शर्त पर उन्होंने बीबीसी से कहा कि एच-1बी पर करियर बनाना उनके लिए बेहद मुश्किल साबित हुआ है।
वह पहली बार अमेरिका स्टूडेंट वीज़ा पर समाजशास्त्र में पीएचडी करने आई थीं।
इसके बाद उन्हें एच-1बी वीज़ा के ज़रिए पहला टीचिंग पोस्ट मिला। पिछले चार साल में वह तीन संस्थानों में काम कर चुकी हैं।
हर बार उन्हें नई जगह जाना पड़ा, नेटवर्क दोबारा बनाना पड़ा और नए पेशेवर माहौल में ख़ुद को ढालना पड़ा। उनका परिवार भारत में ही रहा और इस दौरान वह अपने पिता की हार्ट सर्जरी और बहन की शादी में शामिल नहीं हो सकीं, क्योंकि अंतरराष्ट्रीय यात्रा का जोख़िम उठाना संभव नहीं था।
उनके पति, जो बाद में अमेरिका आए, उन्हें ख़ुद का वर्क परमिट मिलने में दो साल लगे। उन्होंने कहा कि लगातार अस्थिरता ने उनकी सेहत पर असर डाला है, तनाव की वजह से एक ऑटोइम्यून बीमारी और बढ़ गई है।
उनका कहना था कि एकेडमिक सेक्टर में मिलने वाली तनख्वाह इतनी नहीं है कि वीजा से जुड़ी इस भारी लागत को पूरा कर सके।
अमेरिका में एच-1बी वीज़ा पर काम कर रहे एक पाकिस्तानी नागरिक ने भी बीबीसी से नाम नहीं बताने की शर्त पर कहा, ‘मैं पूरी तरह उलझन में हूं और अधिक जानकारी का इंतज़ार कर रहा हूं।’
उन्होंने कहा कि वह रोज़ाना आधिकारिक अपडेट और क़ानूनी सलाह देख रहे हैं, लेकिन अभी तक इस बारे में कोई साफ़ दिशा-निर्देश सामने नहीं आया है कि नियम कैसे लागू होंगे।
उनका कहना है, ‘अनिश्चितता ने मुझे बीच में लटका दिया है। मुझे नहीं पता कि अमेरिका में लंबे समय तक योजनाएं बनाऊं या अचानक घर लौटने की तैयारी करूं।’ एक्सपर्ट्स ने चेतावनी दी है कि इस भ्रम के व्यापक असर हैं।
एक्सपर्ट क्या कह रहे हैं?
अमेरिकन इमिग्रेशन काउंसिल के पॉलिसी डायरेक्टर जॉर्ज लोवरी ने बीबीसी से कहा, ‘यह पॉलिसी बिना किसी सूचना, बिना किसी दिशा-निर्देश और बिना योजना के लाई गई है।’
उन्होंने आगे कहा, ‘हम देख रहे हैं कि भ्रम सिफऱ् वीज़ा धारकों और उनके परिवारों में ही नहीं है, बल्कि एंप्लॉयर और यूनिवर्सिटीज़ भी समझ नहीं पा रहे कि उन्हें कैसे इसका पालन करना है। सरकार पर यह जि़म्मेदारी है कि वह नियमों को साफ़ करे, ख़ासकर तब जब लोगों की जि़ंदगियां और करियर दांव पर हों।’
अमेरिका में स्थित अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार वकील गुंजन सिंह ने बीबीसी से कहा कि यह आदेश सख्त है और साफ़ नहीं है।
इसने पहले ही एच-1बी नौकरियों की कतार में लगे पेशेवरों और छात्रों में दहशत पैदा कर दी है।
उन्होंने चेतावनी दी, ‘एक लाख डॉलर की फ़ीस का असर सबसे ज़्यादा रिसर्चर्स और ग़ैर-लाभकारी संस्थानों में काम करने वालों पर पड़ेगा, क्योंकि उनकी सैलरी कॉर्पोरेट टेक्नोलॉजी भूमिकाओं की तुलना में बहुत कम होती है।’
गुंजन सिंह का कहना है कि इस आदेश ने अमेरिकी कांग्रेस को दरकिनार किया है, जिससे कार्यपालिका की सीमा से बाहर जाने को लेकर संवैधानिक सवाल खड़े हो रहे हैं।
उन्होंने यह भी कहा कि, ‘इमिग्रेशन अधिकारियों की ओर से आई सफ़ाई से पता चलता है कि फ़ीस केवल आगे आने वाले नए मामलों पर लागू होगी, इससे मौजूदा एच-1बी वीज़ा धारकों को कुछ राहत मिलेगी।’
इस बीच भारतीय कंपनियां अपने ऑनसाइट स्टाफि़ंग मॉडल पर फिर से विचार कर रही हैं और यूनिवर्सिटीज़ यह सोच रही हैं कि क्या वे शुरुआती करियर वाले रिसर्चर्स को इतनी ऊंची लागत पर स्पॉन्सर कर पाएंगी?