संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : एक ऐसी अफीम जिसने संघर्ष की ताकत ही खत्म कर दी लोगों की, धर्म और कर्म की कुछ चर्चा
06-Aug-2021 12:30 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  एक ऐसी अफीम जिसने संघर्ष की ताकत ही खत्म कर दी लोगों की, धर्म और कर्म की कुछ चर्चा

ईसाई धर्म से जुड़ी हुई संस्कृति में क्रिसमस के मौके पर एक काल्पनिक सांता क्लॉज रात में आकर बच्चों के लिए तोहफे छोड़ जाता है। शायद यह रिवाज इसलिए शुरू किया गया है कि ऐसे तोहफे अच्छे बच्चों को ही मिलने की बात उनके ध्यान में डाली जाती है और ऐसा बताया जाता है कि खराब काम करने वाले बच्चों को सांता क्लॉज कोई तोहफे नहीं देता। धर्म से जुड़ी हुई बहुत सी बातें इस किस्म की होती हैं जो लोगों को सपनों में जीने का मौका देती हैं। कहीं पर पूर्वजन्म के किए का फल इस जन्म में, और इस जन्म में किए का फल अगले जन्म में पाने की बात सिखाई जाती है तो कहीं यह सिखाया जाता है कि जिनको कम मिल रहा है, वह उनके कर्मों का फल है। सांता क्लॉज की धारणा तो कम नुकसानदेह है क्योंकि यह ईसाई संस्कृति में या पश्चिमी जीवन-शैली में समारोह को मनाने के एक तरीके के रूप में इस्तेमाल की जाती है और छोटे बच्चों को तोहफे देने का यह एक रास्ता होता है। लेकिन धर्म जब बहुत सी दूसरी बातों को कर्म से अलग करके स्थापित करने की कोशिश करता है तो वह कार्ल मार्क्स के शब्दों में अफीम की तरह लोगों को सुस्त और मंद करके सोचने और संघर्ष करने से दूर कर देता है।

हम किसी एक धर्म के त्यौहार के मौके पर इस चर्चा को नहीं छेड़ रहे हैं क्योंकि बहुत से धर्मों में, या शायद सभी धर्मों में, धर्म लोगों को कर्म से दूर रखने का एक जरिया रहता है, और इस कर्म में सामाजिक जागरूकता और अपने हक़ ले लिए संघर्ष भी शामिल रहते हैं। यह सिलसिला भारत सहित बहुत से देशों में बहुत खतरनाक हद तक लोगों को ऐसा भाग्यवादी और ऐसा निराश बना देता है कि लोग अपने साथ हो रहे किसी भी किस्म के अन्याय को अपनी किस्मत मान बैठते हैं और उसके लिए जो अच्छा-बुरा कहना रहता है वह ईश्वर को कहकर, उसके लिए असल जिम्मेदार इंसानों को बख्श देते हैं, जिससे कि समाज के भीतर अन्याय के खिलाफ संघर्ष की संभावना खत्म हो जाती है। धर्म को बनाया इसी हिसाब से गया है कि वह ताकतवर शोषक को कमजोर बहुसंख्यक तबके का निशाना कभी न बनने दे। इसलिए हम भारत में लगातार देखते हैं कि जनता को, देश को और धरती को लूटने वाले सबसे बड़े लोगों से किसी धर्मगुरु को कोई परहेज नहीं होता और उनके प्रवचनों में, धार्मिक अनुष्ठानों में हर किस्म के अपराधी ताकतवर लोग सबसे ऊपर, सबसे सामने जगह पाते हैं और एक किस्म से प्रवचन करने वाले गुरु ऐसे लोगों का सम्मान करते भी दिखते हैं, इन्हीं के डेरों में महीनों गुजारते हैं। यह पूरा सिलसिला माक्र्स की जुबान की अफीम की तरह लोगों को सामाजिक और आर्थिक शोषण और अन्याय को समझने से भी दूर रखता है और इस तरह धर्म, और उसकी एक दूसरी शक्ल आध्यात्म, में पूंजी निवेश करके ताकतवर, अत्याचारी और शोषक तबके उसी तरह एक बीमा पॉलिसी और चौकीदार खरीद लेते हैं जिस तरह वे अपने कारखानों और दुकानों के लिए खरीदते हैं।

ईश्वर को न मानने वाले हमारे किस्म के नास्तिक इतने कम हैं, और उनकी प्रचार की ताकत इतनी कम है कि वे ईश्वर की धारणा का भांडाफोड़ नहीं कर पाते। दूसरी बात यह कि ईश्वर की धारणा, धर्म की बातें दिमाग पर जोर नहीं डालतीं, वे चूंकि तर्कों से परे की होती हैं इसलिए वे लोगों को कीर्तन में सिर हिलाने की तरह का आसान काम लगती हंै। धर्म पर सवाल खड़े करना, उसकी वैज्ञानिकता और उसकी सामाजिक उपयोगिता के बारे में बात करना बहुत तकलीफ का काम होता है। और किसी भी जगह किसी भी आबादी या भीड़ में यह न तो लोकप्रिय काम होता और न ही लुभावना काम। लेकिन हम ऐसा काम करने से परहेज नहीं करते और लोगों को धर्म के बजाय कर्म की तरफ देखने को सलाह देते रहते हैं। धर्म का राज जब तक समाज के लोगों के दिल-दिमाग पर चलता रहेगा तब तक समाज के सबसे ताकतवर लोग सबसे कमजोर तबकों पर राज करते रहेंगे, उनके हक लूटते रहेंगे। कबीलों के जमाने से लेकर आज की 21वीं सदी तक धर्म ने कमजोर लोगों को लूटने का, लुटवाने का काम ही किया है, और जब हिटलर ने लाखों को मारा, तब भी पोप चुप ही रहा। कहने को यह बात कही जा सकती है कि ईश्वर, धर्म और धर्मगुरुओं में फर्क है। किसी तर्क से बचने के लिए, किसी बहस से बचने के लिए धर्म के झंडाबरदार अक्सर यह तर्क उठा लेते हैं कि धर्म का यह बिगड़ा हुआ चेहरा ईश्वर नहीं है। लेकिन समाज पर राज तो धर्म का बिगड़ा हुआ चेहरा ही करता है। यह चर्चा हमने छेड़ी तो आज है लेकिन इसका किसी एक धर्म से कोई लेना-देना नहीं है और हर धर्म के लोग अपने-अपने भीतर यह झांक सकते हैं कि वहां पर किस-किस किस्म का शोषण उनके ईश्वर और धर्म के बैनर तले चल रहा है, चलता रहेगा।
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