संपादकीय
छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में दो-तीन जगहों पर पिछले कुछ वर्षों से लोगों के लिए ऐसी दीवारें बनाकर रखी गई हैं जिन्हें नेकी की दीवार का नाम दिया गया है और जहां पर लोग अपने पुराने कपड़े छोड़ सकते हैं, जिन्हें जरूरतमंद लोग ले जा सकते हैं। लेकिन यहां से गुजरते हुए जब-जब देखना होता है, तो दिखता यही है कि लोगों के छोड़े गए कपड़े भी पड़े-पड़े सडऩे लगते हैं, और उन्हें भी ले जाने वाले लोग नहीं हैं। या तो शहरों में इतने गरीब नहीं रह गए कि उन्हें फेंके गए कपड़े काम के लगते हों, फिर यह है कि शहरी लोग इतना कमा लेते हैं कि बाजार में मिलने वाले सस्ते या इस्तेमाल किए हुए कपड़ों को मर्जी और पसंद से खरीद लेते हैं, और छोड़े गए कपड़ों को लेने वाले लोग कम दिखते हैं। पड़े-पड़े कपड़े इतने बड़े-बड़े ग_े बन जाते हैं कि शायद उन्हें म्युनिसिपल उठाकर कचरे में डाल देता हो।
लेकिन यह बात भी है कि लोग जितने कपड़े नेकी की इन दीवारों पर ले जाकर छोड़ते हैं, उससे कहीं अधिक कपड़े अपने आसपास के काम करने वाले लोगों के बीच, या गरीब लोगों के बीच सीधे ही बांट देते हैं, और हिंदुस्तान में हर कपड़ा एक से अधिक बार शायद इस्तेमाल हो भी जाता होगा। लेकिन पूरी दुनिया का तजुर्बा देखें तो वह कपड़ों को लेकर बहुत खराब है। दुनिया का कपड़ा-उद्योग धरती पर पानी की बर्बादी में से 20 फीसदी का हिस्सेदार है। कपड़ा-उद्योग खूब सारा प्रदूषण फैलाता है, पानी में बहुत सारे रसायन डालता है, और इतने कपड़े बनाता है जिसके कि कोई ग्राहक नहीं हैं। एक दक्षिण अमेरिकी देश चिली को पूरी दुनिया का कपड़ों का घूरा माना जा रहा है और अभी एक रिपोर्ट में बताया गया है कि वहां पर हर वर्ष 60 हजार टन से अधिक कपड़े ऐसे पहुंचते हैं जिन्हें कंपनियों ने बना लिया है, लेकिन जिनके ग्राहक नहीं मिले। इसके बाद चिली के लोग इन कपड़ों में से छांटकर कुछ तो खुद इस्तेमाल कर लेते हैं, और कुछ आसपास के देशों में बेचने के लिए मरम्मत करके तैयार कर लेते हैं। लेकिन वहां के एक रेगिस्तान में ऐसे कपड़ों का कबाड़ बढ़ते चल रहा है, और पर्यावरण वैज्ञानिकों का यह हिसाब है कि प्लास्टिक या दूसरे कई सामानों की तरह ऐसे कपड़े भी जल्द खत्म नहीं होते और ये कपड़े 200 बरस तक धरती पर बोझ बने रह सकते हैं। इनकी वजह से धरती में कई किस्म के रसायन मिलते हैं, और प्रदूषण फैलता है।
लोगों को यह भी मालूम है कि कपड़ों का कारोबार फैशन पर चलता है, और जरूरत तो बहुत थोड़ी सी रहती है लोग कपड़ों को फैशन की वजह से बदलते हैं। इश्तहारों से, और फिल्मी सितारों को तरह-तरह के कपड़े पहनाकर फैशन को जल्दी-जल्दी बदलाया जाता है, और कपड़ों के बाजार को बढ़ावा दिया जाता है। आज लोगों की जरूरत सीमित है लेकिन फैशन की चाहत असीमित है। ऐसी नौबत में एक बार फिर लोगों को अपने-अपने स्तर पर कपड़ों को बदल लेने और अधिक से अधिक खरीदने की अपनी चाह को काबू में करने की जरूरत है। और यह कोई नई बात नहीं है और माओ के वक्त चीन में गरीबी इतनी थी कि वहां एक ही किस्म के कोट और पैंट, औरत और मर्द सभी के लिए तय किए गए थे, जिनका एक ही रंग तय कर दिया गया था, और साइकिल पर जाते हुए मजदूर और कामगार एक फौज की तरह, एक ही किस्म के कपड़ों में दिखते थे। वह गरीबी का ऐसा दौर था कि वहां अगर फैशन का सिलसिला चलता तो लोगों पर भारी पड़ता, देश की अर्थव्यवस्था पर भरी पड़ता। दूसरी तरफ हिंदुस्तान में गांधी ने किफायत की एक मिसाल भी सामने रखी थी और वे खुद सामानों की कम से कम खपत करते थे। इसके साथ-साथ उन्होंने लोगों को जिंदगी में सादगी बरतने का रास्ता भी दिखाया था, और खुद उस पर चलकर दिखाया भी था कि कामयाब और महान बनने के लिए सामानों की जरूरत नहीं रहती है।एक जोड़ी चप्पल, दो जोड़ी आधी लंबाई की धोती, एक कमर घड़ी, एक चश्मा, और शायद एक कलम। बस इतने ही सामानों से गांधी ने अपनी बाद की पूरी जिंदगी गुजार ली थी। लेकिन आज दुनिया का कारोबार धरती को तबाह करने की कीमत पर भी कपड़ों, जूते-चप्पलों, और फैशन के दूसरे सामानों को इस कदर बढ़ावा दे रहा है, लोगों को इस कदर उकसा रहा है कि लोग अपनी अलमारियां भरते चले जा रहे हैं, और सामानों की उनकी चाह कम ही नहीं हो रही है।
यह सिलसिला बहुत ही खतरनाक है। जो लोग इंटरनेट पर सर्च कर सकते हैं उन्हें कपड़ा उद्योग का पर्यावरण पर बुरा असर जैसे शब्द सर्च करने चाहिए, और उन्हें डराने वाली जानकारियां दिखने लगेंगी। लेकिन दिक्कत यह है कि पूरी दुनिया में जो बड़े-बड़े फिल्मी सितारे हैं, बड़े-बड़े कलाकार, मॉडल, और खिलाड़ी हैं, वे सारे के सारे कपड़ों के इश्तहारों में जूते-चप्पलों को बेचने में लगे रहते हैं। अभी दो दिन पहले हिंदुस्तान के लोकप्रिय टीवी कार्यक्रम कौन बनेगा करोड़पति में उसके प्रस्तुतकर्ता अमिताभ बच्चन का परिवार मौजूद था। और अमिताभ के घर के लोग अमिताभ के कपड़ों के रंग और फैशन को लेकर चर्चा कर रहे थे जो कि पिछले 1000 एपिसोड में कभी ना दोहराए गए कपड़ों की बात थी। एक शाम के लिए एक जोड़ी अलग किस्म के कपड़े पहन-पहन कर कपड़ों के फैशन को बढ़ावा देना, ऐसा काम बहुत से फिल्मी सितारे करते हैं। लेकिन लोगों को याद रखना चाहिए कि आज दुनिया भविष्य के जिन सितारों की तरफ देख रही है उनमें से एक स्वीडन की एक छात्रा, और पर्यावरण आंदोलनकारी ग्रेटा थनबर्ग ने बरसों से कोई नए कपड़े नहीं खरीदे हैं और जरूरत पडऩे पर वह अपने आसपास के दोस्तों से कपड़े लेकर पहन लेती है, और बहुत जरूरी होता है तो ही वह बाजार से कोई सेकंड हैंड कहे जाने वाला पुराना कपड़ा खरीदती है।
धरती को तबाह होने से अगर बचाना है तो लोगों को अपनी खर्च करने की ताकत का बेजा इस्तेमाल बंद करना होगा, और किफायत बरतनी होगी। आज बहुत से लोग यह मानकर चलते हैं कि पर्यावरण को तबाह करने का काम सिर्फ कोयले और लोहे के कारखाने करते हैं, या कि जंगलों को काटने से ही पर्यावरण खत्म होता है। इस बात को लोग अपने से जोडक़र बिल्कुल नहीं देख पाते कि उनके अंधाधुंध कपड़े-जूते खरीदने से भी पर्यावरण खत्म हो रहा है क्योंकि एक जींस खरीदते हुए किसी को यह अंदाज नहीं होता कि उसे बनाने में 75 सौ लीटर पानी खर्च होता है। ऐसे आंकड़े न तो लोगों के सामने रखे जाते हैं, और न लोगों को खुद होकर ऐसा सूझता कि अपने इस्तेमाल किए जा रहे सामानों के पर्यावरण बोझ के बारे में कुछ सोचें क्योंकि ऐसा सोचने के बाद उन सामानों के इस्तेमाल का मजा भी घट जाएगा। लेकिन यह जरूरी है. अभी-अभी अंतरराष्ट्रीय मीडिया में चिली के बारे में तस्वीरों सहित जो रिपोर्ट आई है, वह डरावनी है कि इस देश में हर वर्ष 60 हजार टन कपड़े पहुंच रहे हैं, जिसमें से कुल 20 हजार टन कपड़ों का इस्तेमाल हो रहा है, और बाकी की भीड़ वहां के रेगिस्तान पर अगले सैकड़ों बरस के लिए बोझ बनकर जुड़ती चली जा रही है।
पश्चिम के विकसित देश अपने पर्यावरण को बचाने के लिए अपनी सरहद के भीतर इस किस्म के कपड़े नहीं बनाते, उस पर पानी खर्च नहीं करते, और ऐसे अधिकतर कपड़े तीसरी दुनिया कहे जाने वाले देशों में बंधुआ मजदूरों जैसी मजदूरी पर बनवाए जाते हैं, जिन पर वहां पर पानी खर्च होता है, जिनके रसायनों से वहां का पानी खराब होता है, और उस सस्ती मजदूरी से बने कपड़ों से अंतरराष्ट्रीय ब्रांड विकसित और सभ्य कही जाने वाली दुनिया में कारोबार करते हैं। इसलिए जब अगला कपड़ा खरीदें तो यह याद रखें कि आपका पुराना कपड़ा धरती पर बोझ बनने जा रहा है, और अगले सैकड़ों बरस के लिए यह बोझ रहने वाला है। यह अंदाज लगाना जरूरी है कि आज छोड़े गए कपड़े या जूते अगले 2 सौ बरस के लिए, यानी तकरीबन आठ-दस पीढिय़ों के लिए बोझ बनकर रहेंगे, पर्यावरण का नुकसान बनकर रहेंगे। इसलिए आज फैशन की चाह लोगों की अगली आठ-दस पीढिय़ों के भविष्य को नुकसान पहुंचाने वाली रहेगी। आज कुछ सामान खरीदते हुए महज यह सोचना जरूरी नहीं है कि उसे खरीद पाना आपके लिए मुमकिन है या नहीं, यह सोचना भी जरूरी है कि क्या आज सचमुच उसकी जरूरत है, और क्या उसका निपटारा अपने जीते-जी देख भी पाएंगे?
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अभी 2 दिन पहले बीबीसी ने एक मुद्दा उठाया कि उत्तर प्रदेश में गरीबी का ऐसा हाल है, लेकिन उसके बावजूद उत्तर प्रदेश के चुनाव में कई किस्म के दूसरे मुद्दे तो हावी हैं, गरीबी चर्चा में नहीं है। और बात सही भी है, देश के 3 सबसे गरीब राज्यों में से एक, उत्तर प्रदेश चुनाव में जा रहा है और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की भाजपा की सरकार लोगों को कई तरह के आर्थिक फायदे देने की घोषणा भी कर रही है, लेकिन लोगों के बीच जो चुनावी मुद्दे हावी हैं उनमें गरीबी या उत्तर प्रदेश की आर्थिक बदहाली का कोई जिक्र नहीं है। जिन्ना का जिक्र जरूर हो रहा है और अखिलेश यादव के नाम को भाजपा के दिग्गज नेता बिगाडक़र अखिलेश अली जिन्ना कर रहे हैं। समाजवादी पार्टी को मुस्लिमपरस्त साबित करने की खूब कोशिश हो रही है और एक ऐसी चुनावी आशंका दिख रही है कि उत्तर प्रदेश के वोटरों के बीच धार्मिक आधार पर एक बड़ा धु्रवीकरण हो जाए। चुनाव में हैदराबाद के एक इलाके के नेता असदुद्दीन ओवैसी भी उत्तर प्रदेश पहुंचकर मुस्लिम वोटों के ऐसे धु्रवीकरण के काम में जुट गए हैं जो कि भाजपा के हाथ मजबूत करने वाला साबित हो। उनका जाहिर तौर पर यही मकसद भी रहता है। कांग्रेस वहां पर महिलाओं के धु्रवीकरण में लगी है और महिलाओं के लिए वह इतने किस्म के वायदे कर रही है जिनके आधे वायदे भी वह उन राज्यों में नहीं छू सकती जहां पर उसकी अपनी सरकार है। बहुत से लोगों का मानना है कि चूंकि उत्तरप्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनने का क्योंकि कोई भी माहौल नहीं है, इसलिए कांग्रेस वहां पर आसमान छूती हुई घोषणा और वायदे करने में लगी हुई है। हो सकता है यह बात सच भी हो, लेकिन कांग्रेस के राज वाले दूसरे राज्यों में यह तो भाजपा का या दूसरे विपक्षी दलों का जिम्मा बनता है कि वह वहां कांग्रेस से पूछें कि क्या 40 फीसदी टिकटें वहां भी महिलाओं को दी जाएंगी और बाकी किस्म के वायदे वहां की महिलाओं से भी किए जाएंगे?
लेकिन हम उत्तर प्रदेश की गरीबी पर लौटें, और उसकी चर्चा करें तो देश के बाकी राज्यों को भी देखने की जरूरत है जो उत्तरप्रदेश जितने गरीब चाहे ना हों, लेकिन जहां गरीब बड़ी संख्या में है। पूरे ही देश में अधिकतर राज्यों में गरीबी की रेखा के नीचे आबादी का एक बड़ा हिस्सा है। ऐसे में हर चुनाव के पहले हर बड़ी पार्टी अलग-अलग प्रदेशों में गरीबों के लिए कई किस्म के वादे करती हैं, जिनमें कहीं मौजूदा मुख्यमंत्री, या मुख्यमंत्री बनने का महत्वाकांक्षी अपने को मामा बताकर प्रदेश की तमाम गरीब लड़कियों की शादी सरकारी खर्च पर करवाने की बात करता है, तो कहीं पर तमिलनाडु की तरह अम्मा इडली और अम्मा मेडिसिन सेंटर चलते हैं, तो कहीं पर महिलाओं को मंगलसूत्र चुनाव में ही बांट दिए जाते हैं क्योंकि सरकार शायद ऐसा नहीं कर सकती। हर पार्टी यह मानती है कि गरीबी बहुत है और गरीबों को चुनाव के पहले और चुनाव के बाद इस किस्म के झांसे देकर या इस किस्म की खैरात बांटकर उनके वोट पाए जा सकते हैं, लेकिन पार्टियां आर्थिक पिछड़ेपन को चुनावी मुद्दा बनाएं ऐसा बिल्कुल भी नहीं होता। ऐसा लगता है कि गरीबी का मुद्दा अलग है और गरीबों को बांटी जाने वाली खैरात, या उन्हें दिए जाने वाले तोहफे एक अलग ही मुद्दा हैं, जिनका गरीबी को हटाने या खत्म करने से कुछ भी लेना देना नहीं है। गरीबों का आर्थिक विकास कोई मुद्दा ही नहीं है लेकिन गरीबों को खैरात देना जरूर मुद्दा है।
ऐसे माहौल में छत्तीसगढ़ ने जरूर पिछले चुनाव में एक अलग मिसाल पेश की थी जब गरीब किसानों से लेकर करोड़पति और अरबपति किसानों तक को, सभी को धान का बढ़ा हुआ दाम मिला था और किसानों की कर्ज माफी हुई थी, और ग्रामीण विकास के लिए सरकार ने गोबर खरीदना शुरू किया, और गांव-गांव में खाद बनाकर उसे सरकार को ही बेचना शुरू किया। इस किस्म के आर्थिक कार्यक्रम कम ही राज्यों में हुए, और छत्तीसगढ़ में 15 बरस तक सत्तारूढ़ रही भाजपा आज इस बात को लेकर परेशान हैं कि मुख्यमंत्री भूपेश बघेल से बड़ा गौभक्त देश में कोई नहीं रह गया, उससे अधिक गौसेवा और कोई नहीं कर रहा, तो अगले चुनाव में भूपेश बघेल को हटाने के लिए भाजपा के परंपरागत हिंदू मुद्दे काम नहीं आने वाले हैं। छत्तीसगढ़ में भाजपा की एक फिक्र यह भी है कि उत्तरप्रदेश में तो राम मंदिर बन रहा है, लेकिन छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल ने राम की मां कौशल्या का बड़ा सा मंदिर बनवा दिया और मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे हुए वे छत्तीसगढ़ के सबसे बड़े हिंदू साबित हो रहे हैं। अब उनके खिलाफ धार्मिक मुद्दा कुछ भी नहीं बचा। छत्तीसगढ़ में मुस्लिम या ईसाईयों का धु्रवीकरण इतना बड़ा मुद्दा नहीं हो सकता, तो यह राज्य कुछ चुनावी परेशानी में घिर गया है कि भाजपा यहां से भूपेश बघेल की सरकार को हटाए तो कैसे हटाए। लेकिन उत्तरप्रदेश जैसे राज्य में भाजपा के सामने ऐसी कोई परेशानी नहीं है। वहां समाजवादी पार्टी की छवि हिंदू विरोधी बनी हुई है, वहां पर अखिलेश यादव को अपने पिता मुलायम सिंह यादव के समय से मुस्लिमपरस्त माना जाता है, वहां पर कांग्रेस की छवि हिंदू पार्टी से बिल्कुल अलग है और वहां पर बसपा अपना जनाधार चारों तरफ खोते दिख रही है। तो ऐसे में योगी आदित्यनाथ की भगवा सरकार हिंदुत्व को एक आक्रामक तरीके से आगे बढ़ा रही है और वहां पर प्रियंका गांधी को हर सांस में प्रियंका वाड्रा कहा जाता है ताकि उनके पति रॉबर्ट वाड्रा की यादें ताजा बनी रहें। उत्तरप्रदेश में मंदिर का मुद्दा है, बनारस का मुद्दा है, घाटों का मुद्दा है, महाआरती का मुद्दा है, मथुरा और वृन्दावन की मस्जिदों का मुद्दा है, लेकिन वहां पर गरीबी कोई मुद्दा नहीं है।
दरअसल गरीब हिंदुस्तान में कोई तबका नहीं रह गया। गरीबों को तोहफे जरूर बांटे जाते हैं, कभी खैरात की शक्ल में तो कभी चुनावी वायदों की शक्ल में, लेकिन गरीब की कोई जाति नहीं है, गरीब का कोई धर्म भी नहीं है। और हिंदुस्तान की अधिकतर राजनीतिक पार्टियों ने लोगों को धर्म और जाति के आधार पर वोट देना सिखा दिया है। नतीजा यह हुआ है कि लोग अपने आर्थिक स्तर को भूलकर अपनी धार्मिक और जातिगत पहचान को याद रखते हैं, उसी के आधार पर नेता चुनते हैं, उसी के आधार पर अपना तबका तय करते हैं, उसी के आधार पर जाति या धर्म की अपनी फौज तय करते हैं। हिंदुस्तान के तमाम नाकामयाब राजनीतिक दलों की यह एक बड़ी कामयाबी रही कि सरकारें उन्होंने चाहे जैसी चलाई हों, उन्होंने गरीब को कभी यह महसूस नहीं होने दिया कि वह सबसे पहले गरीब है। उसे सबसे पहले मुस्लिम, बताया हिंदू बताया, उसे दलित और आदिवासी बताया, उसे पिछड़े वर्ग का बताया, लेकिन उसे कभी आर्थिक आधार पर एक नहीं होने दिया क्योंकि हिंदुस्तान में आर्थिक आधार पर अगर सबसे गरीब लोग एक हो जाएं तो उस तबके की ही चुनी हुई एक सरकार देश और हर प्रदेश में बन सकती है। इससे बड़ा खतरा किसी पार्टी के लिए और किसी सरकार के लिए और कुछ नहीं हो सकता कि लोग अपने आर्थिक स्तर को लेकर जागरूक हो जाएं। ऐसा अगर हो जाए तो सरकारों के सामने यह चुनौती रहेगी कि वह आर्थिक विकास करके दिखाएं, वरना पिछड़े हुए लोग एक होकर उसे पलट देंगे। ऐसा लगता है कि देश की बड़ी-बड़ी तमाम पार्टियों की यही निजी और सामूहिक कामयाबी है कि उन्होंने लोगों के मन से गरीब की उनकी पहचान को छीन लिया और उन्हें उनके जाति और धर्म के आधार पर ही बैठे रहने का एक माहौल जुटाकर दे दिया। यह सिलसिला पता नहीं कैसे खत्म हो सकेगा क्योंकि आर्थिक आधार पर जन चेतना का विकास करके चुनावी राजनीति करने वाली वामपंथी पार्टियों के दिन तकरीबन तमाम जगहों पर लद गए दिख रहे हैं। हो सकता है कि लोगों के बीच जनचेतना की धार को बाकी पार्टियों ने इस हद तक खत्म कर दिया है, इस हद तक भोथरा कर दिया है कि उन्हें धर्म और जाति से ऊपर अपनी गरीबी का एहसास ही नहीं रह गया।
फिर एक और बात को अनदेखा करना ठीक नहीं होगा। भारतीय आम चुनावों को या किसी प्रदेश के चुनाव को जब कभी जनमत कहा जाता है तो उसके साथ ही एक बात को नहीं भूलना चाहिए कि यह सबसे ताकतवर और सबसे संपन्न पार्टी का खरीदा हुआ जनमत भी रहता है। पूरा का पूरा जनमत तो खरीदा हुआ नहीं रहता लेकिन जिन लोगों ने चुनावों को जमीनी स्तर पर करीब से देखा है वे इस बात को जानते हैं कि मामूली जीत-हार वाली सीटों पर फैसला वोटों को खरीदकर बदला जा सकता है, बदला जाता है। लोगों को वोट बेचने में दिक्कत नहीं है, और तकरीबन तमाम पार्टियों को वोट खरीदने में भी कोई दिक्कत नहीं है। बेचने वालों की यह बेबसी है कि वे थोड़े से पैसों को भी अपना एक सहारा मान बैठते हैं, और उनके बीच इतनी समझ ही बाकी नहीं रहने दी गई है कि वे 5 साल की अपनी आर्थिक बेहतरी की भी फिक्र करें। इसलिए मतदान के 2-3 दिन पहले से लगने वाली बोली और होने वाले भुगतान के झांसे में भी बहुत से लोग आते हैं। इसलिए हिंदुस्तान के चुनाव देश के सबसे जलते-सुलगते मुद्दों से बहुत दूर, सांप्रदायिकता और जाति, चाल-चलन और व्यक्तित्व के झूठे और फर्जी आरोपों पर टिके हुए ऐसे चुनाव हो गए हैं कि जिनका जमीनी हकीकत से कुछ भी लेना-देना नहीं रह गया। अगर कोई पार्टी किसी चुनाव में जीत का आसमान छूने लगती है, तब तो यह माना जा सकता है कि उसे उसके काम के आधार पर भी वोट मिले हैं। लेकिन नतीजों के फासले जब मामूली रह जाते हैं, तब ये तमाम लोकतांत्रिक मुद्दे चुनावों को बहुत बुरी तरह प्रभावित करते हैं, और उस वक्त चुनाव परिणाम को जनमत कहना एक फिजूल की बात रह जाती है।
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पाकिस्तान में धर्मांध मुसलमानों ने श्रीलंका के एक नागरिक को पीट-पीटकर मार डाला, और उसके बाद उसे जलाते हुए उसके साथ सेल्फी भी खींची। उस पर यह आरोप लगाया गया था कि उसने खुदा का अपमान किया है। पाकिस्तान में ऐसे आरोपों को ईशनिंदा कहा जाता है और ईशनिंदा का कानून ऐसा कड़ा बनाया गया है कि कई अल्पसंख्यक लोगों को पैगंबर मोहम्मद का अपमान करने के आरोप में फांसी भी दी गई है, और कई लोगों को पीट-पीटकर मार डाला गया है। ऐसा कहा जाता है कि जब किसी अल्पसंख्यक के खिलाफ कोई साजिश रचनी हो तो उस पर ईशनिंदा की तोहमत जड़ दी जाती है, और फिर न तो उसके कानूनी रूप से बचने की कोई गुंजाइश रहती है और न ही गैर कानूनी हिंसा से। अभी श्रीलंका का यह नागरिक पाकिस्तान में एक जगह कारखाने में मैनेजर था और पुलिस के मुताबिक वहां फैक्ट्री की इमारत की मरम्मत चल रही थी इसके लिए वहां की दीवार से कुछ पोस्टर हटाए गए, जिनमें शायद ऐसे भी पोस्टर रहे होंगे जिन पर पैगंबर मोहम्मद का नाम लिखा था. इसी वजह से श्रीलंकाई मूल के इस फैक्ट्री मैनेजर को पीट-पीटकर मारा गया।
इस पर श्रीलंका के प्रधानमंत्री ने अपनी तकलीफ और अपना गुस्सा जाहिर किया है और उन्होंने इस बात के लिए पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान की तारीफ की है कि उन्होंने कड़ी कार्रवाई करने का भरोसा दिलाया है। श्रीलंका ने इस हिंसा पर कहा है कि अगर चरमपंथी ताकतें ऐसी ही आजादी से घूमेंगी तो यह किसी के साथ भी हो सकता है। उसने पाकिस्तान में काम कर रहे अपने नागरिकों की हिफाजत की उम्मीद जताई है और इस भयानक जुर्म के जिम्मेदार लोगों पर कार्रवाई की मांग की है। खुद पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान ने इस हिंसा को एक बेहद शर्मनाक दिन बताया है. पाकिस्तान के लोग एक-दूसरे से यह भी पूछ रहे हैं कि हम लोग यह क्या हो गए हैं। सोशल मीडिया पर पाकिस्तान के लोग ही अपने भीतर के ऐसे हिंसक और कट्टर लोगों पर नाराजगी जाहिर कर रहे हैं, और वहां के राष्ट्रपति ने लिखा है कि यह घटना बहुत ही दुखद और शर्मनाक है, यह किसी भी तरह से धार्मिक नहीं है, इस्लाम एक ऐसा धर्म है जो मॉब लिंचिंग की जगह विचारात्मक न्याय का सिद्धांत स्थापित करता है। पाकिस्तान की मानवाधिकार मंत्री शिरीन मजारी ने इस घटना को भयानक और निंदनीय बताया है और कहा है कि सरकार की कार्रवाई बहुत मजबूत और स्पष्ट होनी चाहिए। ऐसे सैकड़ों ट्वीट किए गए हैं और लोगों ने लिखा है कि हर पाकिस्तानी का सिर शर्म से झुक जाना चाहिए
हाल के वर्षों में हिंदुस्तान ने भी इस किस्म की कई भीड़त्याएं देखी हैं. कोई ईश्वर का अपमान करने के नाम पर, कोई लव-जिहाद नाम का आरोप लगाकर, तो कोई गाय का अपमान करने के नाम पर। हिंदुस्तान में गाय की हत्या करने पर भी ऐसा कोई कानून नहीं है कि भीड़ किसी को घेरकर मार डाले। कुछ प्रदेशों में गाय काटने के खिलाफ कानून हैं, और कई प्रदेशों में यह कानूनी है। इसलिए किसी भी प्रदेश में गौमांस की तोहमत लगाकर जब लोगों पर हमला किया जाता है, उन्हें घेरकर मार डाला जाता है, तो ऐसी धर्मांध हिंसा कानून के राज को हिकारत से देखते हुए अपनी धार्मिक भावनाओं को कानून से ऊपर करार देती है. जबकि ऐसी धार्मिक भावना का दावा करने वाले लोगों के जो आदर्श विनायक दामोदर सावरकर थे, वे लगातार गौमांस खाने के हिमायती रहे, और गौहत्या का विरोध करने वाले लोगों को वे लगातार कोसते रहे। आज भी देश के कुछ हिस्सों में भाजपा के राज में गौमांस कानूनी है, और कई राज्यों में भाजपा की सरकार ने गौ मांस को गैरकानूनी करार दिया हुआ है। ऐसी हालत में देश में जगह-जगह हिंसक लोग गौमांस की तोहमत लगाकर अनचाहे लोगों को निशाना बनाते हैं, और सार्वजनिक रूप से घेरकर मारते हैं। लोगों को कुछ अरसा पहले राजस्थान के एक मुस्लिम की हत्या भी याद होगी जिसे एक हिंदू सांप्रदायिक ने सार्वजनिक रूप से मारा था, और जिंदा जला दिया था. बाद में उसकी गिरफ्तारी भी हुई और बाद में उसका संाप्रदायिक लोगों के बीच खूब जमकर गौरवगान हुआ।
पाकिस्तान में तो ईशनिंदा के नाम पर ऐसी हिंसा कोई नई बात नहीं है और बहुत से लोगों को इस तरह से सार्वजनिक रूप से वहां मारा गया है, लेकिन हिंदुस्तान एक अधिक हद तक कानूनी राज वाला देश है और यहां पर ऐसी भीड़त्या के खिलाफ कड़े कानून है। फिर भी इस देश की बहुत सी राजनीतिक ताकतें ऐसी हैं जो भीड़त्या करने वाले लोगों का जगह-जगह अभिनंदन करती हैं और बहुत सी सत्तारूढ़ राजनीतिक ताकतें ऐसे अभिनंदन पर चुप्पी बनाए रखती हैं। कुछ लोगों को यह कहना बुरा लग सकता है लेकिन पाकिस्तान में धर्मांधता और कट्टरता का यह हिंसक नजारा देखते हुए भी जिन लोगों को हिंदुस्तान में ऐसी हिंसा को रोकने की जरूरत नहीं लग रही है, उनके सिर पर नफरत सवार है, और उन्हें अपनी आने वाली पीढिय़ों के लिए एक अमन-चैन का माहौल छोडक़र जाने की कोई हसरत नहीं है। हिंदुस्तान ही नहीं किसी भी देश को यह सोचना चाहिए कि आज पाकिस्तान जिस हालत में पहुंच गया है उसके पीछे सबसे बड़ा हाथ धर्मांधता और धार्मिक हिंसा का है। इसका जो असर पाकिस्तान पर हुआ है वैसा ही असर दुनिया में दूसरे देशों पर भी होना तय है। आज पाकिस्तान में बदअमनी बेकाबू है, लेकिन दूसरे देश भी कट्टरता को बढ़ावा देते हुए ऐसी हिंसा से अछूते नहीं रह सकते। हिंदुस्तान जैसे देश जिन्होंने पिछले कुछ वर्षों में ही धार्मिक हिंसा में बढ़ोतरी देखी है, उन्हें चौकन्ना होना चाहिए उन्हें कट्टरता के खतरों को समझना चाहिए।
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कोरोना के एक नए खतरे के बीच हिंदुस्तान के अलग-अलग प्रदेशों में स्कूलें खुलती जा रही हैं। छत्तीसगढ़ में भी 1 दिसंबर से तमाम स्कूल-कॉलेज खोल दिए गए हैं और सडक़ों पर आते-जाते बच्चे खेलते हुए दौड़-भाग करते हुए दिखने लगे हैं। लेकिन इसके साथ साथ यह खबर भी आते जा रही है कि इस राज्य के कई जिलों में स्कूली बच्चे कोरोना पॉजिटिव मिल रहे हैं। देश के कुछ प्रदेशों में जहां अंतरराष्ट्रीय यात्रियों का आना-जाना होता है, वहां पर कोरोना के नए वेरिएंट ओमिक्रॉन के मरीज भी मिल रहे हैं। अभी वायरस के इस नए वेरिएंट को लेकर दुनिया के वैज्ञानिकों के पास भी जानकारी कम है कि यह कितना खतरनाक है और यह कितनी तेजी से फैलेगा। अलग-अलग जानकार लोग अलग-अलग बातें कर रहे हैं और यह एक नया खतरा सामने है। आज ही सुबह बीबीसी पर दक्षिण अफ्रीका की एक मेडिकल कॉलेज प्रोफेसर बता रही थी कि कोरोना शुरू होने के बाद से यह पहला मौका है जब घुटनों पर चलने वाले बच्चों से लेकर 20 बरस तक के लोगों की संख्या अस्पतालों में पहुंचने वालों में सबसे अधिक है। और बच्चों के लिए अस्पताल में कोरोना वार्ड में कहीं जगह नहीं रह गई है, और इस बार आने वाले लोगों की हालत अधिक गंभीर है, और ओमिक्रॉन के शिकार लोगों को गंभीर इलाज की जरूरत पड़ रही है।
हिंदुस्तान एक तरफ तो अब अर्थव्यवस्था को चलाने के लिए आम जिंदगी की तरफ लौट रहा है, और दूसरी तरफ स्कूल-कॉलेज लंबे समय तक बंद रहने के बाद अब शुरू हो रहे हैं। लेकिन इन दोनों के सिर पर कोरोना वायरस मंडरा रहा है। यह एक अलग मजबूरी है कि जिंदगी को कोरोना के साथ चलना सीखना होगा क्योंकि बच्चों को भी कितने बरस स्कूलों से दूर रखा जाए? और कामगार मजदूर भी कब तक काम से बचें। इसलिए पिछले कुछ महीनों में कामकाज तो पूरी रफ्तार से शुरु हो चुका है, स्कूल-कॉलेज अब शुरू हो रहे हैं। लेकिन दुनिया का तजुर्बा यह है कि जब सावधानी के साथ जीना बहुत लंबा खिंचने लगता है, तो फिर धीरे-धीरे लोगों को सावधानी से थकान होने लगती है। जापान सहित दुनिया के कई देशों में यह देखने में मिला था कि कोरोना को लेकर साफ-सफाई और परहेज जब बहुत लंबा चलने लगा, तो लोगों को उसकी थकान होने लगी और लोग लापरवाह होने लगे। हिंदुस्तान के सामने आज ऐसा एक खतरा मौजूद है। यहां देश और प्रदेशों की सरकारों को सावधान रहना होगा कि लोगों के मन में यह बात न बैठ जाए कि वे कोरोना से जीत चुके हैं, और थाली-चम्मच बजाना काफी होगा। लोगों को यह याद रखना चाहिए कि कोरोना वायरस तरह-तरह की शक्लें ले-लेकर आ रहा है और ऐसे नए खतरों के लिए हो सकता है कि हम बिल्कुल तैयार ना हों। आज ही एक खबर यह है कि भारत में कोरोना से रोकथाम के लिए केंद्र सरकार ने देश भर की प्रयोगशालाओं का जो नेटवर्क तैयार किया है, उसने सिफारिश की है कि 40 वर्ष से ऊपर के लोगों को कोरोना का बूस्टर डोज़ लगाया जाए और जो फ्रंटलाइन स्वास्थ्य कार्यकर्ता हैं उन्हें भी बूस्टर डोज दिया जाए। अब हिंदुस्तान में अठारह बरस से कम उम्र के लोगों को तो अब तक टीके लगना शुरू भी नहीं हुआ है, बूस्टर डोज की बारी कैसे आएगी?
आज केंद्र और राज्य सरकारों के पास कोरोना के मोर्चे पर तैयारी के लिए तरह-तरह के विशेषज्ञ हैं इसलिए हम मेडिकल जानकारी को लेकर अधिक बोलना नहीं चाहते लेकिन चूंकि स्कूल-कॉलेज कब तक खुले रहेंगे इसकी कोई गारंटी नहीं दिख रही है, और मां-बाप आज भी दहशत से भरे हुए हैं कि वे बच्चों को स्कूल भेजें या ना भेजें। फिर यह भी समझ नहीं आ रहा है कि कोरोना वायरस वेरिएंट ओमिक्रॉन भारत पर कब तक कितना हमला कर सकता है, इसलिए स्कूल-कॉलेज को एक सावधानी यह बरतनी चाहिए कि वह ऐसे किसी संक्रमण के आने के पहले का अपना समय कुछ इस किस्म की तैयारी में लगाए कि अगर स्कूल-कॉलेज दोबारा बंद करने की नौबत आई तो वैसी हालत में बच्चे घर पर रहकर क्या-क्या पढ़ सकते हैं, किस तरह पढ़ सकते हैं। आज के माहौल में यह मानकर चलना कुछ गलत होगा कि स्कूल-कॉलेज अब लंबे समय तक बंद नहीं होंगे। उन पर एक खतरा तो कायम है ही। इसलिए स्कूल-कॉलेज को पढ़ाई के तरीकों में कुछ ऐसा बदलाव तुरंत लेकर आना चाहिए कि कुछ हफ्तों बाद अगर हफ्तों या महीनों के लिए अगर बच्चों का आना बंद हो जाए तो घर पर उनकी पढ़ाई ठीक से हो सके। अगर स्कूल-कॉलेज बंद नहीं होते हैं तो बहुत अच्छी बात है, लेकिन अगर ऐसी नौबत आती है तो उसके हिसाब से कोर्स को बांटकर और पढऩे-पढ़ाने की तकनीक को विकसित करके काम करना चाहिए। राज्य सरकारों को भी चाहिए कि वे अपने इलाज और जांच के ढांचे को एक बार फिर परख लें क्योंकि सरकारी इंतजाम खाली पड़े हुए बहुत तेजी से खराब भी हो जाते हैं। कुछ राज्यों से ऐसी खबर आ रही है कि वहां पर ऑक्सीजन बनाने के कारखानों का ट्रायल फिर से लिया जा रहा है, लेकिन देश के सभी राज्यों को ऐसी तैयारी करनी चाहिए कि अगर कोरोना की तीसरी तीसरी लहर या उसका कोई नया वेरिएंट आए, तो उसे कैसे निपटा जाए। अभी इस नए वायरस का दाखिला भर हिंदुस्तान में हुआ है, उसका हमला नहीं हुआ है, इसलिए यह समय एकदम सही है कि हर प्रदेश अपने-अपने घर को ठीक से संभाल ले, और हर स्कूल कॉलेज भी।
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भारतीय मूल के पराग अग्रवाल को अभी दुनिया की एक सबसे चर्चित और कामयाब कंपनी ट्विटर का मुखिया बनाया गया है. वे पिछले करीब 10 बरस से इस कंपनी में अलग-अलग हैसियत से काम कर रहे थे, और कंपनी के एक संस्थापक और मौजूदा मुखिया ने उनकी बहुत तारीफ करते हुए अपनी कुर्सी उनके हवाले की है। इसे लेकर हिंदुस्तान में खुशी की एक नई लहर दौड़ पड़ी है, और यह बात जायज भी है कि हिंदुस्तानी मूल का कोई व्यक्ति अगर दुनिया की किसी सबसे बड़ी कंपनी का मुखिया बने तो उससे हिंदुस्तानियों की शोहरत और इज्जत दोनों ही बढ़ती है। हिंदुस्तानियों ने इस खबर के बाद अधिक वक्त नहीं लगाया और मिनटों के भीतर ही इस पर तरह-तरह से खुशियां जाहिर करने लगे। कुछ लोगों ने ऐसे पोस्टर बनाए कि हिंदुस्तान की अग्रवाल स्वीट्स मिठाई दुकान के नाम के बोर्ड में अग्रवाल ट्वीट्स कर दिया गया।
खैर यह हंसी-मजाक तो चलता ही रहता है लेकिन हिंदुस्तान के लिए यह फख्र की एक बात तो है ही कि गूगल के मुखिया सुंदर पिचाई सहित कई बड़ी कंपनियों के मुखिया आज भारतवंशी हैं। इनमें से तमाम लोग भारत के आईआईटी या आईआईएम से पढक़र गए हुए लोग हैं, और जिन्होंने कुछ ही वक्त में अमेरिका में अपना कामयाब ट्रैक रिकॉर्ड कायम कर लिया। ऐसा लगता है कि आईआईटी, आईआईएम जैसे देश के प्रमुख शैक्षणिक संस्थान नौजवानों को इतना तैयार करके निकालते हैं कि वे कहीं भी जाकर कामयाब हो सकते हैं। हिंदुस्तानियों को यह भी याद रखने की जरूरत है कि ऐसे संस्थानों की बुनियाद देश में कब रखी गई थी। यह भी याद रखने की जरूरत है कि इन संस्थानों में नफरत और सांप्रदायिकता से परे, धर्मांधता और गंदी राजनीति से परे जो पढ़ाई होती है वही लोगों को अंतरराष्ट्रीय और वैश्विक चुनौतियों के लिए तैयार करती है। देश के आम विश्वविद्यालयों में नौजवानों को जिस तरह से आज सांप्रदायिक गंदगी में झोंक दिया जा रहा है, उससे यह बात बहुत साफ है कि देश के 99 फीसदी कॉलेज और विश्वविद्यालय छात्र-छात्राओं को कभी ऐसी ऊंचाइयां देखने नहीं मिलेगी, क्योंकि उन्हें भीड़ बनाकर धर्मांध और कट्टर भीड़ की शक्ल में दूसरे मोर्चों पर झोंक दिया जा रहा है। इसलिए यह तो याद रखना ही चाहिए कि आईआईटी और आईआईएम की शुरुआत हिंदुस्तान में किसने की थी, यह भी याद रखना चाहिए कि आज देश का माहौल किस तरह पूरी पीढ़ी को खत्म किए दे रहा है।
अब अगर यह सोचें कि हिंदुस्तान के बाहर जाकर ये नौजवान दुनिया की इतनी बड़ी-बड़ी कंपनियों के मुखिया बनाए जा रहे हैं, जहां पर न तो कोई पारिवारिक विरासत काम आती है, और न ही इन नौजवानों की कोई पारिवारिक विरासत अपने खुद के जन्म के देश में भी थी। यह सारे लोग बिना किसी बुनियाद के अमेरिका गए और अपनी काबिलियत को आसमान तक पहुंचा दिया। क्या इससे यह सोचने की जरूरत खड़ी नहीं होती कि ये नौजवान या इनकी तरह के और नौजवान जो कि हिंदुस्तान में ही रह गए हैं, वे इतने कामयाब क्यों नहीं हो पाते? क्योंकि ये पढक़र तो एक साथ निकले हैं और हिंदुस्तान में भी आज बड़ी-बड़ी कंपनियां हैं, फिर फर्क कहां पर रह जाता है? क्यों दुनिया की अधिकतर बड़ी कंपनियां अमेरिका या दूसरे कुछ देशों में पहली पीढ़ी के कारोबारियों द्वारा खड़ी की गई हैं? हिंदुस्तान में तो दो-दो, तीन-तीन पीढ़ी पहले से जो कारोबार चले आ रहे हैं उनमें भी लोग आज अधिक कामयाब नहीं हो पाते हैं। तो कामयाबी की फसल जिस जमीन पर यहां खड़ी होती है, क्या उस जमीन के मिट्टी पानी में ही कोई दिक्कत है? क्या हिंदुस्तान में कारोबार करने के माहौल में कोई कमी है? क्या भारत में सरकार के नियम-कायदों में, राजनीतिक दखल में, और काम करने के सामाजिक वातावरण में कोई फर्क है?
ऐसी बहुत सारी चीजें हैं जिसके बारे में हिंदुस्तानियों को पहले सोचना चाहिए, और उसके बाद यह सोचना चाहिए कि अमेरिकी कंपनियों में मुखिया बनने वाले हिंदुस्तानियों पर गर्व किया जाए, या हिंदुस्तान के माहौल पर शर्म की जाए कि क्यों यहां पर वह कामयाबी पाना मुमकिन नहीं हो पाता? आज अमेरिका में न सिर्फ कारोबार के नियम अलग हैं बल्कि किसी कारोबारी के लिए यह बड़ी आसान बात है कि वे अपनी राजनीतिक विचारधारा में वहां के राष्ट्रपति के खिलाफ जितना बोलना चाहे बोलें, उनका कोई नुकसान सरकार नहीं कर सकती। तो क्या विचारधारा की ऐसी आजादी लोगों के व्यक्तित्व विकास में भी मदद करती है? आज हिंदुस्तान में जब जगह-जगह खानपान को लेकर, पहनावे को लेकर लोगों के बीच हिंसा भडक़ा दी जाती है, लोगों को भीड़ में घेरकर मारा जाता है, तो क्या उससे काम करने वाले नौजवानों का हौसला पस्त नहीं होता? क्या उनकी कल्पनाशीलता खत्म नहीं होती? जहां बोलने और लिखने की आजादी खत्म हो जाती है, जहां पर विचारों को लेकर भारी असहिष्णुता हिंसक होती रहती है, वहां पर काम करना भी लोगों की पसंद नहीं रहती। इसलिए अमेरिका में आजादी के साथ लोग काम करना भी चाहते हैं और अपने बच्चों के लिए आने वाली एक बेहतर दुनिया छोडक़र जाना चाहते हैं।
शायद ऐसी भी कोई वजह होगी कि अधिक होनहार और अधिक काबिल लोग हिंदुस्तान में रहना नहीं चाहते। अभी पार्लियामेंट में एक जानकारी पेश की गई है कि पिछले तीन-चार बरसों में 6 लाख से अधिक लोगों ने भारतीय नागरिकता छोड़ी है। यह जानकारी सीमित है इससे हम यह अंदाज नहीं लगा पा रहे हैं कि मौजूदा मोदी सरकार के पहले कितने लोगों ने नागरिकता छोड़ी थी? आज पहले के मुकाबले कम लोग नागरिकता छोड़ रहे हैं, या अधिक लोग छोड़ रहे हैं? इस बात का भी पता लगाना चाहिए। इतना तो है कि लोग हिंदुस्तानी नागरिकता छोड़ रहे हैं, ये लाखों लोग ऐसा क्यों कर रहे हैं? क्या वे हिंदुस्तानी सरकारी नियमों से परे चले जाना चाहते हैं? लेकिन कुल मिलाकर एक भारतवंशी के ट्विटर का मुखिया बनने के मौके पर खुशी मनाते हिंदुस्तानियों को अभी समझने की जरूरत है कि अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति रहते हुए इसी ट्विटर ने उनका अकाउंट बैन कर दिया था, और राष्ट्रपति कुछ भी नहीं कर पाया था, कंपनी का कुछ भी नहीं बिगड़ा था। भारत की कोई कंपनी भारत में इस तरह की कोई कल्पना भी कर सकती है? शायद सोचने और करने की अमेरिकी आजादी है को कि वहां की कंपनियों को भी दुनिया में सबसे बड़ा बनाती है, और वहां काम कर रहे भारतवंशी या दुनिया के दूसरे देशों के लोग भी आसमान तक पहुंचते हैं।
अब सवाल यह उठता है कि नेहरू के वक्त के बने हुए आईआईटी और आईआईएम की वजह से एक काबिल पढ़ाई करके निकले हुए नौजवान जब अमेरिका के खुले कारोबारी माहौल में इतने कामयाब होते हैं, तो फिर गर्व करने का हक किन-किनको मिलना चाहिए? लोग हिंदुस्तान की आज की हालत को देखें, अमेरिका में विचारों और काम की आजादी को देखें, और उसके बाद यह तय करें कि उन्हें किस बात पर गर्व करना है और किस बात पर शर्म करनी है।
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दुनिया में नास्तिकों और तर्कवादियों की जरूरत हमेशा ही बनी रहती है। अभी हिंदुस्तान का एक सबसे लोकप्रिय टीवी कार्यक्रम ‘कौन बनेगा करोड़पति’ चल रहा है और अमिताभ बच्चन के पेश किये इस कार्यक्रम को करोड़ों लोग देखते हैं। उसमें आने वाले किसी एपिसोड का एक प्रोमो दिखाया गया जिसमें अमिताभ बच्चन के सामने खड़ी एक लडक़ी की आंखों पर पट्टी बंधी होती है, और वह लडक़ी दावा करती है कि वह किताब को सूंघकर ही उसे पूरा पढ़ सकती है। इसे देखते ही फेडरेशन ऑफ इंडियन रेशनललिस्ट एसोसिएशन ने तुरंत ही एक खुला खत लिखकर इस कार्यक्रम से इसका विरोध किया और कहा कि आमतौर पर मिड ब्रेन एक्टिवेशन का नाम लेकर बच्चों के मां-बाप को बेवकूफ बनाने का काम कारोबारी करते हैं, इसलिए ऐसे अंधविश्वास या धोखाधड़ी को इस कार्यक्रम में बढ़ावा देना गलत होगा। इस विरोध पर ‘कौन बनेगा करोड़पति’ के चैनल ने एक बयान भी जारी किया कि उसने इस खास एपिसोड के कुछ सीन हटा दिए हैं, और भविष्य में इस तरह की चीजों का ख्याल भी रखेगा।
कल ही सोशल मीडिया पर एक दूसरी कंपनी का एक इश्तिहार लोगों ने पोस्ट किया था जिसमें छोटे-छोटे बच्चों के लिए पब्लिक स्पीकिंग का कोर्स चलाने वाली कंपनी का दावा था, और माइक लिए हुए बच्चे की तस्वीर थी कि सार्वजनिक जीवन में भाषण देने या मंच और माइक संचालन करने जैसी बातों की ट्रेनिंग छोटे बच्चों को कैसे दी जा सकती है। जिस मिड ब्रेन एक्टिवेशन के बारे में रेशनलिस्ट फेडरेशन ने विरोध दर्ज कराया है, वह एक और बड़े अंधविश्वास की तरह लोगों के बीच में फैलाया जाता है कि इससे बच्चों की पढऩे की रफ्तार बढ़ जाती है उनके याद रखने की क्षमता बढ़ जाती है। ऐसे कारोबारी मोटी फीस के एवज में बच्चों को आँखों पर पट्टी बांधकर पढ़वाने का दवा भी करते हैं। लेकिन पहले जब कभी तर्कवादियों ने ऐसे कारोबारियों को इसके सार्वजनिक प्रदर्शन की चुनौती दी, ये कारोबारी भाग लिए।
इसी वजह से हम इन दो बातों को लेकर, मिलाकर एक साथ देख रहे हैं कि बच्चों को क्या याद रखने का एक कंप्यूटर बना दिया जाए, या कि पढऩे का एक स्कैनर बना दिया जाए, या कि बचपन से ही उन्हें मंच संचालन सिखा दिया जाए? क्या-क्या किया जाए ? छोटे-छोटे बच्चों को आखिर इस उम्र में ही किन बातों के लिए तैयार किया जाए? मां-बाप तो आईआईटी, आईआईएम जैसे दाखिलों के कई-कई बरस पहले से बच्चों की कोचिंग शुरु करवा देते हैं, और उनकी पढ़ाई तो किनारे धरी रह जाती है। मां-बाप उन्हें पूरी तरह से कोचिंग सेंटर की मशीन में झोंक देते हैं। जो स्कूली पढ़ाई बच्चों के लिए जरूरी होना चाहिए उसे खींच-तानकर पास होने लायक कर दिया जाता है, और बच्चों को सिर्फ अगले दाखिले के इम्तिहान के लिए तैयार किया जाता है। पढ़ाई के अलावा भी कई किस्म की दूसरी बातों के इश्तहार फिल्मी सितारे कर रहे हैं और मां-बाप अपने बच्चों को कुछ खास और कुछ अधिक देने के चक्कर में उन्हें तरह-तरह के कोर्स में झोंक दे रहे हैं। हिंदुस्तानी संपन्न मां-बाप इस बात को नहीं समझ पाते कि दुनिया में सबसे आगे बढऩे वाले बच्चे बस्ते के या तरह-तरह के कोर्स के बोझ के साथ आगे नहीं बढ़ते, वे उनकी कल्पना को खुला आसमान मिलने की वजह से आगे बढ़ते हैं, उन्हें मौलिक सोच का मौका मिलता है तो वे आगे बढ़ते हैं।
आज जिस तरह इस देश में बच्चों के लिए इश्तहारों के रास्ते पढ़ाई के तरह-तरह के औजार बेचे जा रहे हैं, जिस तरह उनकी पढऩे की ताकत और स्मरण शक्ति को बढ़ाने के लिए मिड ब्रेन एक्टिवेशन जैसी एक कल्पना को अंधविश्वास की तरह बढ़ाया और बेचा जा रहा है, उस बारे में हिंदुस्तानी मां-बाप को सावधान करने की जरूरत है। हिंदुस्तान के रेशनलिस्ट लोगों के संघ ने जिस तरह से अमिताभ बच्चन के कार्यक्रम में अंधविश्वास बढ़ाने का विरोध किया, वैसी पहल जगह-जगह उठानी पड़ेगी तब जाकर मां-बाप की आंखें खुलेंगी। आज कोई हिंदुस्तानी मां-बाप अपने बच्चों को उनकी अपनी कल्पना के मुताबिक आगे बढऩे देना नहीं चाहते, मां-बाप खुद तय करते हैं कि उन्हें अपने बच्चों को डॉक्टर बनाना है या इंजीनियर, या एमबीए करने भेजना है। ऐसे मां-बाप अपनी हसरत को अपने बच्चों की हकीकत पर थोप देते हैं। यह सिलसिला थमना चाहिए और लोगों को अपने आसपास के ऐसे अति उत्साही और अति महत्वाकांक्षी मां-बाप को समझ देने की कोशिश करनी चाहिए।
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कांग्रेस के चर्चित लोकसभा सदस्य शशि थरूर ने कल दोपहर संसद भवन से अपनी एक तस्वीर फेसबुक पर पोस्ट की जिसमें वे छह अलग-अलग महिला सांसदों के साथ दिख रहे हैं। ये सभी इस तस्वीर में खुश दिख रही हैं, और शशि थरूर ने इस तस्वीर को लेकर भाजपा के लोगों द्वारा किए हमले के बाद अपनी पोस्ट में यह बात जोड़ी है कि ऐसी सेल्फी लेने की पहल महिला सांसदों की ओर से की गई थी, और यह अच्छे मजाक के रूप में ली गई फोटो थी, और उन्होंने मुझसे यह फोटो पोस्ट करने के लिए भी कहा था, अब यह देखकर दुख होता है कि कुछ लोग इस तस्वीर से आहत हैं। लेकिन मुझे काम की अपनी जगह पर अपनी साथी सांसदों के साथ ली गई इस तस्वीर से खुशी है। दरअसल शशि थरूर ने फेसबुक पर इस तस्वीर को पोस्ट करते हुए लिखा था कि कौन कहते हैं कि लोकसभा काम करने के लिए आकर्षक जगह नहीं है। उनकी लिखी हुई इसी बात को लेकर भाजपा के लोग उन पर तमाम किस्म के हमले कर रहे हैं और प्रियंका गांधी से जवाब मांग रहे हैं कि उनका सांसद संसद को एक आकर्षक जगह कह रहा है। महिलाओं के सम्मान में कही बातों की समझ भी भाजपा के ये नेता शायद खो चुके हैं।
भारत की आज की राजनीति इस कदर घटिया हो चुकी है कि अपनी साथी सांसदों के साथ ली गई एक ऐसी मासूम तस्वीर, जिसे जाहिर तौर पर एक गैर कांग्रेसी महिला सांसद ही ले रही है, उसे लेकर एक बवाल खड़ा करना यह न सिर्फ शशि थरूर के लिए अपमानजनक है बल्कि जितनी महिला सांसद इस तस्वीर में दिख रही हैं, ऐसा विवाद उनका भी बड़ा अपमान है। अगर महिला सांसदों के लिए शशि थरूर ने संसद को काम करने की एक आकर्षक जगह लिखा है, तो ना तो उन्होंने कोई ओछी बात लिखी है, न ही किसी का अपमान किया है। अभी दो-चार ही दिन हुए हैं कि किसी एक राज्य में एक मंत्री ने सडक़ों की चिकनाई को लेकर ऐसा बयान दिया है कि उन्हें कैटरीना कैफ के गानों की तरह चिकना बनाया जाए। लोगों को यह भी याद होगा कि लालू यादव ने एक समय बिहार की सडक़ों को हेमा मालिनी के गालों की तरह चिकना बनाने की बात की थी। लंबे समय तक भाजपा और एनडीए के साथ काम कर चुके शरद यादव ने संसद के भीतर ही शहरी महिलाओं के लिए परकटी जैसे शब्द इस्तेमाल किए थे। और जहां तक शशि थरूर का सवाल है तो उनकी पत्नी सुनंदा पुष्कर को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक चुनावी आमसभा में 100 करोड़ की गर्लफ्रेंड जैसे शब्द कहे थे। शशि थरूर ने महिला सांसदों के अलावा दूसरे सांसदों के साथ भी खींची गई इसी तरह की ग्रुप फोटो पोस्ट की है और लिखा है कि इन तस्वीरों को कोई वायरल नहीं करेगा।
अब सोशल मीडिया पर जगह-जगह ऐसी तस्वीरें दिखती हैं कि किसी कार्यक्रम में या किसी स्टेडियम में लड़कियां और महिलाएं जाकर शशि थरूर के साथ अपनी सेल्फी लेती हैं और पोस्ट करती हैं। हो सकता है बहुत से लोगों को उनकी निजी जिंदगी के कुछ विवादों के बावजूद उनका व्यक्तित्व आकर्षक लगता हो, उनकी किताबें पठनीय लगती हों, संसद या और उसके बाहर उनके भाषण अच्छे लगते हों, या फिर अक्सर चर्चा में रहने वाली उनकी अंग्रेजी आकर्षक लगती हो। राह चलते और सार्वजनिक जगहों पर अगर लड़कियां और महिलाएं शशि थरूर के साथ अपनी तस्वीरें खिंचवाने में गर्व महसूस करती हैं तो उनमें कोई बात तो ऐसी होगी। ऐसे में प्रियंका गांधी का नाम ले लेकर जिस तरह से मध्य प्रदेश के दिग्गज भाजपा मंत्रियों ने शशि थरूर को लेकर सवाल पूछे हैं, वह बहुत ही ओछी बात है। ऐसे विवाद खड़े करने वाले नेताओं को यह भी याद रखना चाहिए कि वह महिला सांसदों की सहमति मर्जी और पहल से खींची गई ऐसी तस्वीर को लेकर जब बखेड़ा खड़ा करते हैं, तो वे उन तमाम महिलाओं का भी अपमान करते हैं, और यह भी बताते हैं कि सभ्य समाज के तौर-तरीके बखेड़ेबाज लोगों को छू नहीं गए हैं। यह वही मध्यप्रदेश तो है जहां से आज शशि थरूर के खिलाफ ये बयान जारी किए जा रहे हैं और जहां पर भाजपा सरकार के पिछले एक मंत्री रहे हुए राघवजी को अपने ही नौकर के साथ जबरिया बलात्कार या सेक्स के जुर्म में गिरफ्तार किया गया था। ऐसे और भी कई सेक्स स्कैंडल मध्य प्रदेश में हुए थे, लेकिन हम शशि थरूर और महिला सांसदों की इस इस तस्वीर के संदर्भ में किसी सेक्स स्कैंडल को याद करना नहीं चाहते, हम भाजपा के नेताओं की बयानबाजी को लेकर इसे याद कर रहे हैं. राजनीति और सार्वजनिक जीवन में इतना नीचे नहीं गिरना चाहिए कि जिन लोगों से वैचारिक असहमति हो उन पर हमला करते हुए देश की संसद की आधा दर्जन महिला सांसदों का भी इस तरह अपमान किया जाए।
भारत के राजनेताओं को लेकर समय-समय पर जितने किस्म के विवाद सामने आए हैं उनकी लिस्ट अगर बनाई जाए तो भाजपा कहीं भी कांग्रेस के पीछे नहीं रहेगी। इसलिए किसी एक दिन की सुर्खियां कब्जाने के लिए इस तरह की बकवास बहुत ही घटिया बात है, और सार्वजनिक जीवन के लोगों को, गैरराजनीतिक भी, ऐसी बकवास के खिलाफ खुलकर बयान देना चाहिए। शशि थरूर एक अच्छे लेखक हैं एक अच्छे वक्ता हैं उनका लंबा अंतरराष्ट्रीय तजुर्बा है वह संयुक्त राष्ट्र संघ में लंबा काम कर चुके हैं और सार्वजनिक जीवन में उन्हें घटिया बोलने के लिए नहीं जाना जाता। वह दरियादिली के साथ सभी पार्टियों के नेताओं को जन्मदिन या दूसरे मौकों पर बधाई देने से नहीं चूकते फिर चाहे इसे लेकर राजनीति के लोग उनकी आलोचना ही क्यों न करें। भाजपा के जिन नेताओं ने इस तस्वीर को लेकर शशि थरूर के खिलाफ उनके चरित्र की तरफ इशारा करते हुए घटिया बातें कही हैं उन्होंने राजनीति में गिरावट का एक नया रिकॉर्ड कायम किया है। शशि थरूर के साथ इस तस्वीर में अलग-अलग पार्टियों की महिला सांसद हैं और सांसदों का सम्मान करना अगर भाजपा के नेता नहीं सीख पाए तो उन्हें कम से कम महिला का सम्मान तो करना चाहिए क्योंकि वे भारत माता के गुणगान करते हुए थकते नहीं हैं। कांग्रेस के एक सांसद से अपने विरोध का चुकारा करने के लिए ऐसा घटिया काम भाजपा के नेताओं को नहीं करना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
जो लोग हिंदुस्तान में नेताओं को देख-देखकर थक गए हैं उन लोगों के लिए एक अलग किस्म की खबर है. जब अपने यहां इतना अच्छा कुछ न होता हो तो कम से कम दूसरी किसी जगह की किसी बात को देखकर खुश हो जाना चाहिए। न्यूजीलैंड की एक सांसद जूली एन जेंटर ने अभी फेसबुक पर अपनी खुद की, 27 नवम्बर की, एक दिलचस्प कहानी लिखी है। उन्होंने लिखा है कि आज सुबह 3:00 बजे हमारे परिवार में एक नए सदस्य का आना हुआ। रात 2:00 बजे मुझे दर्द उठने लगा था तो मैं साइकिल से ही अस्पताल गई, और 10 मिनट में वहां पहुंच गई, और जल्द ही एक बिटिया को जन्म दिया। इस सांसद ने अपने फेसबुक पेज पर सबसे पहली लाइन यही लिखी है कि वह ग्रीन सांसद है और अपनी साइकिल से मोहब्बत करती है। आज ही की एक दूसरी खबर सोशल मीडिया पर ही जर्मनी की भूतपूर्व चांसलर एंजेला मर्केल को लेकर है जो एक फ्लैट में पूरे कार्यकाल तक रहती थीं, और अभी भी वहीं रह रही हैं. खुद बाजार जाकर अपना सामान खरीदती थीं, और जब एक फोटोग्राफर ने उनसे कहा कि 10 बरस पहले भी उसने इन्हीं कपड़ों में उनकी फोटो खींची थी, तो उन्होंने कहा कि मैं जनसेवक हूं, कोई मॉडल नहीं हूं जिसे बार-बार कपड़े बदलने पड़ते हैं। यूरोप के बहुत से देशों में प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति, या मंत्री और सांसद, साइकिलों पर दिखते हैं, बड़े-बड़े प्रोफेसर, नोबेल पुरस्कार विजेता भी साइकिल चलाते दिखते हैं। भारत के ही बगल में भूटान के एक से अधिक प्रधानमंत्री, भूतपूर्व प्रधानमंत्री साइकिल चलाते दिखते हैं। लेकिन हिंदुस्तान ऐसा है कि जहां किसी छोटे से राज्य का कोई बहुत छोटा सा मंत्री भी निकले तो पांच-दस गाडिय़ों का काफिला साथ चलता है। हिंदुस्तान में सत्ता की मेहरबानी से जो शान-शौकत चलती है, वह हिंसक किस्म की हो गई है क्योंकि वह देश की गरीबी की रेखा के नीचे की एक बड़ी आबादी के हक के पैसों को लूटकर उसका बेजा इस्तेमाल करके की गई शान-शौकत रहती है। सरकारी खर्च पर चलने वाले छत्तीसगढ़ के एक बंगले में पिछली भाजपा सरकार के वक्त लोगों ने 58 एसी गिने थे, पता नहीं उसके बाद के वर्षों में उनकी गिनती और बढ़ी थी या नहीं। लेकिन जनता के पैसों पर जब नेता फिजूलखर्ची करते हैं, तो उर्दू की एक लाइन याद आती है, माल-ए-मुफ्त, दिल-ए-बेरहम।
दुनिया के जिन देशों में न्यूजीलैंड की इस महिला सांसद की तरह सादगी से जीने वाले लोग रहते हैं, उन्हें देखकर लगता है कि सभ्यता को दिखावे की शान-शौकत की कोई जरूरत नहीं रहती, और लोग ताकत के बावजूद सचमुच ही सादगी से रह सकते हैं, आम जनता की तरह रह सकते हैं। दुनिया के सबसे ताकतवर राष्ट्र प्रमुखों में से एक जर्मनी की चांसलर लंबे समय तक रहने वाली एंजेला मर्केल जिस सादगी से पूरी जिंदगी रहीं और आज भी रह रही हैं, वह एक मिसाल है कि देश का ताकतवर और संपन्न होना, खुद नेता का बहुत ताकतवर होना, उसका स्थाई होना, और उसकी निरंतरता होना, इनमें से किसी भी बात को लेकर दिखावे की शान-शौकत की जरूरत नहीं रहती। और हम यह भी नहीं कहते कि हिंदुस्तान में ऐसे लोग बिल्कुल भी नहीं है। लाल बहादुर शास्त्री की जिंदगी इसी किस्म की सादगी की थी, आज भी बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की जिंदगी ऐसी ही सादगी की है। त्रिपुरा के मार्क्सवादी मुख्यमंत्री रहे माणिक सरकार इसी किस्म की सादगी वाले रहे, और कम्युनिस्टों में ऐसे बहुत नेता हुए जिन्होंने अपने पूरे परिवार को भी सादगी से रखा। लेकिन हिंदुस्तान में आज जिस तरह सरकारी खर्च पर सत्तारूढ़ नेता, और विपक्ष के भी दर्जा प्राप्त नेता, जिस शान-शौकत का मजा लेते हैं वह पूरी तरह अलोकतांत्रिक है, गांधीवाद के खिलाफ है, और गरीब जनता के साथ बेइंसाफी भी है।
अब अगर दुनिया के एक संपन्न देश न्यूजीलैंड की एक महिला सांसद अपने बच्चे को जन्म देने के लिए अस्पताल जाते हुए जन्म के घंटे भर पहले भी साइकिल चला कर जा रही है, तो यह बात एक आईने की तरह दुनिया भर के देशों के उन नेताओं को दिखाने लायक है जो कि बड़े-बड़े काफि़लों में चलते हैं, बड़े ऐशो-आराम से जीते हैं और जिनका पूरा बोझ उनकी जनता उठाती है। हिंदुस्तान को देखें तो लगता है कि गांधी को राष्ट्रपिता बनाकर चबूतरे पर बैठाया, या खड़ी की गई मूर्ति के भीतर गांधी को कैद करके उससे छुटकारा पा लिया गया है। किसी धातु की या पत्थर सीमेंट की मूर्ति में गांधी की आत्मा को कैद कर दिया और उसके बाद उसकी किफायत का भी मानो पिंडदान कर दिया क्या हिंदुस्तान में सत्ता को सादगी सिखाने का कोई काम हो सकता है? बीते दशकों में कई ऐसे सत्तारूढ़ नेता आए और गए जो एक-एक दिन में आधा दर्जन अलग-अलग कपड़ों में सार्वजनिक जगहों पर दिखते हैं। क्या ऐसे नेताओं को जर्मनी की एंजेला मर्केल से कुछ सीखना चाहिए?
जिस दिन हिंदुस्तान पर सबसे बड़ा आतंकी हमला हुआ था और शिवराज पाटिल केंद्रीय गृह मंत्री की हैसियत से दिल्ली से मुंबई गए थे, उस दिन सार्वजनिक जगहों पर उनकी खींची गई तस्वीरों को जब साथ रखकर देखा गया था तो यह साफ-साफ दिखा कि उन्होंने आधा दर्जन से अधिक बार अपने कपड़े बदले थे और ये कपड़े हमले में किसी खून के दाग लग जाने पर बदले गए हों ऐसा भी नहीं था, ये कपड़े अलग-अलग सार्वजनिक कार्यक्रमों में अलग-अलग पहने गए थे। मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी अनगिनत रंगों के, अनगिनत किस्मों के कपडे पहनने के लिए जाने जाते हैं. उनका एक सूट तो बहुत ख़बरों में रहा किसकी धारियों में उनका नाम गूंथकर वह कपड़ा ही अलग से बनाया था, और कहा गया था कि वह दस लाख रुपियों का कपडा था। यह किस किस्म का दिखावा है, और किस कीमत पर दिखावा है? क्या यह गरीबी की रेखा के नीचे की देश की एक बहुत बड़ी आबादी की खिल्ली उड़ाने तरीका नहीं है? जब हिंदुस्तान के मुकाबले प्रति व्यक्ति आय के मामले में दर्जनों गुना आगे चलने वाले देशों के सांसद, प्रधानमंत्री, और राष्ट्रपति सादगी के साथ साइकिलों पर चलते हैं तो हिंदुस्तान में राशन की मदद पाने वाली जनता के हक छीनकर नेता अंधाधुंध खर्च करते हैं। हिंदुस्तान के लोगों को अपने नेताओं के ऐसे मिजाज के बारे में जरूर सोचना चाहिए। हिंदुस्तानी वोटरों को भी चाहिए कि न्यूजीलैण्ड की इस सांसद की सादगी की कहानी अपने नेताओं को भेजें।
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उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में एक दलित परिवार के चार लोगों की कुल्हाड़ी से मारकर हत्या कर दी गई। इसके अलावा ऐसी आशंका है कि उस परिवार की एक नाबालिग बच्ची के साथ गैंगरेप भी किया गया है, क्योंकि उसकी लाश उसी तरह से मिली है। इस परिवार ने कुछ दबंग ठाकुर लोगों पर पहले से आशंका जताते हुए पुलिस रिपोर्ट लिखाई थी, लेकिन जैसा कि आमतौर पर होता है, पुलिस ने कोई कार्यवाही नहीं की थी, और यह दबंग लोग इस परिवार से पहले भी मारपीट कर चुके थे, जान से मारने की धमकी दे चुके थे। अब पुलिस तमाम किस्म की कार्रवाई करने का वायदा कर रही है। मरने वालों के करीबी संबंधियों का कहना है कि पुलिस हमलावरों से समझौता करने के लिए दबाव डाल रही थी, और पुलिस ने ही हौसला बढ़वाकर ये कत्ल करवाए हैं। दो दिन पहले जब यह खबर आई तो उसी दिन राजस्थान से एक दूसरी खबर आई कि वहां पर एक दलित दूल्हे की बारात पुलिस की हिफाजत में घोड़ी पर निकल रही थी और उसे घोड़ी पर चढ़ा हुआ देखकर, जाहिर तौर पर, सवर्णों की तरफ से पथराव किया गया। दूल्हा पुलिस के घेरे में था फिर भी उस पर पथराव हुआ।
इन दो मामलों के अलावा भी कोई ऐसा दिन नहीं होता है जब उत्तर भारत और काऊ बेल्ट कहे जाने वाले हिंदी भाषी प्रदेशों से दलित प्रताडऩा की कई-कई खबरें न आएं। रोजाना ही इस किस्म के जुल्म होते हैं जो हजारों बरस पहले की जाति व्यवस्था से उपजे हुए एक हिंसक अहंकार का नतीजा होते हैं, और जो आज भी दलितों के सिर उठते देखना नहीं चाहते। लोगों को याद होगा कि एक वक्त दक्षिण भारत में दलित महिलाओं को अपने सीने ढंकने के लिए एक टैक्स देना पड़ता था, जो टैक्स नहीं दे पाती थीं उन्हें अपने सीने खुले रखने पड़ते थे। और यह व्यवस्था उसे दक्षिण भारत में थी जहां पर ब्राह्मणवादी व्यवस्था बड़ी मजबूत थी। भारत का आज का केरल एक वक्त इस हिंसक प्रथा का गवाह था और वहां पर एक दलित महिला ने इस टैक्स के खिलाफ विरोध दर्ज करने के लिए हंसिये से अपने स्तन काट दिए थे। वहां के एक कलाकार मुरली ने उस इतिहास को दर्ज करते हुए पेंटिंग्स बनाई हैं। नीच कहीं जाने वाली जातियों की महिलाओं को अपना सीना ढंकने की इजाजत नहीं थी, और अगर वे ऐसा करना चाहती थीं तो उन्हें एक बड़ा टैक्स देना पड़ता था। यानी ऊंची समझिए जाने वाली जातियों के मर्दों ने दलित महिलाओं के स्तनों को देखने को अपना हक़ बना रखा था।
हिंदुस्तान में आज बहुत से लोगों को लगता है कि जातिगत आरक्षण की कोई जरूरत नहीं है और इसे खत्म कर दिया जाना चाहिए क्योंकि जातियों की व्यवस्था को खत्म हुए जमाना हो चुका है। लेकिन हालत यह है कि जातियों की व्यवस्था आज इस मजबूती से कायम है कि राजस्थान जैसे कांग्रेस के राज वाले प्रदेश में भी एक दलित दूल्हे को घोड़ी पर चढऩे के लिए पुलिस के घेरे में भी पथराव झेलना पड़ता है, यही हाल उत्तर प्रदेश के योगीराज में एक दलित परिवार का है जहां पर कि दबंग ठाकुर लोग इस दलित परिवार को सबक सिखाने के लिए उसकी नाबालिग बच्ची को मारने के पहले उससे सामूहिक बलात्कार करते हैं, और घर के सारे लोगों को एक साथ काट कर फेंक देते हैं। बहुत से प्रदेशों में बहुत सी पार्टियों के सरकारों में दलितों का इसी किस्म का हाल है और शायद यही वजह है कि पंजाब में जब कैप्टन अमरिंदर सिंह को हटाने के बाद कांग्रेस ने एक दलित को मुख्यमंत्री बनाया तो उसे एक बड़ा हौसले वाला कदम बताया गया और यह भी कहा गया कि उत्तर प्रदेश से लेकर पंजाब तक कांग्रेस के विरोधियों के लिए इसका जवाब देना मुश्किल पड़ेगा। अब राजनीति में किसी दलित के मुख्यमंत्री बनने से फर्क पड़ेगा या नहीं पड़ेगा यह तो नहीं मालूम, लेकिन कांग्रेस का राज हो या भाजपा का, दलितों का हाल मोटे तौर पर इन कुछ प्रदेशों में ऐसा ही बुरा चले आ रहा है। मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, राजस्थान जैसे कई राज्य हैं जहां दलितों को आज भी मानो मनु के राज में जीना पड़ रहा है। वहां मानो उनके कान में वेद का कोई वाक्य पड़ जाए तो अब भी उन कानों में पिघला हुआ सीसा भर दिया जाएगा।
भारत में पता नहीं अपराध के शिकार लोगों की जाति का कोई विश्लेषण हुआ है या नहीं, लेकिन बलात्कार और हिंसा के शिकार लोगों की जातियों का कोई विश्लेषण अगर किया जाए तो उसमें दलितों की बारी सबसे पहले और सबसे ऊपर आते हुए दिखेगी जो कि बलात्कार के लिए सवर्णों की पहली पसंद रहते हैं। यह बात भी बड़ी अजीब सी है कि जो दलितों छूने के के लायक भी नहीं रहते हैं, जिनकी छाया से भी सवर्ण अशुद्ध हो जाते हैं, उन दलित महिलाओं के बदन का एक तंग हिस्सा सवर्णों को छुआछूत नहीं लगता है और वहां पहुंचकर सवर्णों के बदन का एक हिस्सा अचानक समाजवादी बराबरी का हिमायती हो जाता है। यह सिलसिला आंकड़ों की शक्ल में निकाला जाकर एक विश्लेषण के बाद लोगों के सामने आना चाहिए कि दलितों पर जुल्म कितने तरह के हो रहे हैं, किन राज्यों में अधिक हो रहे हैं, किन पार्टियों के राज में यह अधिक होते हैं, किन जातियों द्वारा यह जुल्म अधिक किए जाते हैं, और यह भी कि क्या मुख्यमंत्री की जाति का इस पर कोई फर्क पड़ता है? यह वही उत्तर प्रदेश है जहां पर बात-बात पर आरती होने लगती है और हिंदू धर्म के भीतर की ब्राह्मणवादी व्यवस्था के मुताबिक पूजा-पाठ और धार्मिक अनुष्ठानों में पूरी की पूरी सरकार झोंक दी जाती है। इस बात के फर्क को भी समझने की जरूरत है कि क्या हिंदुत्व का ऐसा चेहरा जो कि इस तथाकथित हिंदू तबके के भीतर भी जाति के एक हिस्से की मर्जी से लदा हुआ चलता है, और क्या यह हिस्सा दलितों पर जुल्मों के लिए अधिक जिम्मेदार है? जाति व्यवस्था का कौन सा हिस्सा दलितों को बलात्कार और पत्थरों के मरने लायक मानता है, इसका एक सामाजिक विश्लेषण सामने आना चाहिए जिसमें जातियों की खुलकर चर्चा होनी चाहिए क्योंकि जातियां हिंदुस्तान में न तो इतिहास हैं, न कल्पना हैं, वे एक कड़वी हकीकत हैं जिनका कि लंबे वक्त तक कायम रहना भी तय है। यह सिलसिला इस सदी के अंत तक भी थमते नहीं दिखता है क्योंकि अभी तक तो यह बढ़ते ही दिख रहा है। जब देश का सुप्रीम कोर्ट भी दलित और आदिवासी मामलों में दर्ज होने वाली रिपोर्ट पर कार्रवाई को लेकर एक वक्त दलित विरोधी रुख दिखा चुका है, और उसके बाद मजबूरी में उसे अपना फैसला वापस लेना पड़ा था, तो ऐसी तमाम चीजों से देश के हालात को समझना जरूरी है। जो लोग ऐसा समझते हैं कि हिंदुस्तान में जातिगत आरक्षण खत्म होना चाहिए उन्हें दलितों पर होने वाले ऐसे जुल्म की खबरों को ध्यान से पढऩा चाहिए, और अपनी सोच को दोबारा तय करना चाहिए।
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कर्नाटक की राजधानी बेंगलुरु से एक बड़ी खूनी खबर आई है, जितनी भयानक खबर सुनने और मानने को दिल नहीं करता है। लेकिन हकीकत किसी अपराध कथा से भी अधिक डरावनी होती है, और अपराध कथा तो किसी न किसी हकीकत से उपजी होती है, उसमें कल्पना कम होती है, हकीकत ज्यादा होती है। कर्नाटक में एक कंपनी में काम करने वाला एक सुरक्षा मैनेजर पिछले 2 साल से अपनी 17 साल की बेटी से बलात्कार करते आ रहा था। अब जांच पड़ताल में पुलिस ने पता लगाया है कि लडक़ी की मां को यह मालूम था कि बाप अपनी बेटी का यौन शोषण कर रहा है। उसने अपने पति से बात भी की थी, लेकिन कोशिश बेकार गई, और मामला संबंधों को तनावपूर्ण बना गया। यह पूरा मामला इस तरह सामने आया कि इस लडक़ी ने थककर स्कूल में अपनी क्लास के एक दोस्त से इस जुल्म के बारे में बताया और फिर उस सहपाठी ने क्लास के तीन और दोस्तों से इसकी चर्चा की, और इन चारों ने मिलकर अपनी सहपाठी को इस तकलीफ से आजादी दिलाना तय किया। वे चारों रात उस लडक़ी के घर पहुंचे, दरवाजा खुलवाया और उसके बाप को कुल्हाड़ी से काटकर चले गए। जब लहूलुहान लाश मिली और आसपास के कैमरों से इन लडक़ों के घर आने और निकलने के सुबूत मिले, तो पुलिस ने इन सबको पकड़ा और जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड के सामने पेश करने के बाद उन्हें रिमांड होम भेज दिया गया है।
इस मामले के अलग-अलग के कई पहलू हैं. पहली बात तो यह कि अपनी सहपाठी एक लडक़ी के लिए सहपाठी लडक़ों के मन में इतनी हमदर्दी पैदा होना और फिर उसका इतना हिंसक भी हो जाना कि कत्ल करने की सजा के बारे में कुछ न कुछ अंदाज रहते हुए भी इस तरह का जुर्म करना। यह तो एक पहलू हुआ, दूसरा एक पहलू यह है कि दो बेटियों वाली एक माँ का अपनी एक बेटी से उसके बाप द्वारा लगातार बलात्कार देखते हुए भी पर्याप्त विरोध नहीं करना, उसे छोडक़र नहीं निकलना। पुलिस की दी हुई जानकारी बताती है कि यह मां कपड़ा बनाने वाली एक मजदूर है, और दोनों बेटियां पढ़ रही हैं। अब ऐसे में सवाल यह उठता है कि बलात्कारी पति के खिलाफ इस महिला ने कुछ और कड़ा कदम क्यों नहीं उठाया? अपनी बच्चियों को बचाने के लिए वह घर छोडक़र निकल क्यों नहीं गई? इस बारे में जज बनकर नतीजा निकालना तो बड़ा आसान है लेकिन उस महिला की जगह रहकर देखें तो पति को खोने के साथ-साथ उसे दोनों बच्चियों की पढ़ाई-लिखाई बंद हो जाने और तीनों की भारी सामाजिक बदनामी का खतरा भी दिखा होगा जो कि झेलने में आसान नहीं है। उसने यह भी देखा होगा कि किस तरह देश भर में जगह-जगह बलात्कार की शिकार लडक़ी या महिला से पुलिस वाले और बलात्कार करने लगते हैं, और रिश्वत वसूलने लगते हैं, किस तरह उन्हें अदालतों में सामाजिक और मानसिक प्रताडऩा झेलनी पड़ती है। जाने ऐसी कितनी ही बातें उस महिला के दिमाग में रही होंगी जो वह खुद अपने पति को न मार पाई न अपनी बच्चियों के साथ उसे छोडक़र निकल पाई।
एक महिला के लिए ऐसा कोई भी फैसला आसान नहीं होता है और एक कम कमाने वाली महिला की बहुत ही सीमित ताकत के साथ ऐसा कोई कड़ा फैसला लेना भी मुमकिन नहीं होता। इसलिए उस महिला ने क्या-क्या नहीं किया ऐसा सोचने के बजाए हम यह सोचना बेहतर समझेंगे कि उस महिला के लिए क्या-क्या कर पाना मुमकिन नहीं हुआ। आज भी कानून की बनाई हुई सारी व्यवस्था के बावजूद कानूनी मदद के लिए हौसला दिखाने वाली महिला का जितने किस्म का शोषण और बढ़ जाता है, वह अच्छी-खासी हिम्मती महिला का हौसला भी तोडऩे लायक रहता है। एक महिला किस वजह से अपने साथ हुए बलात्कार की रिपोर्ट तुरंत नहीं लिखा पाती है, किस तरह वह अपने यौन शोषण का तुरंत विरोध नहीं कर पाती है, इस बारे में सोचने के लिए एक महिला की नजर से देखना जरूरी होता है। एक आदमी की नजर से देखकर तो यही लग सकता है कि एक बड़ी पत्रिका के चर्चित संपादक से जब उसकी मातहत कर्मचारी को यौन शोषण की शिकायत थी, तो वह उसके मातहत कई घंटे और काम क्यों करती रही, और तुरंत पुलिस तक क्यों नहीं पहुंची। एक महिला का नजरिया, उसकी बेबसी और मजबूरी, और उसकी आशंकाएं समझ पाना आसान नहीं होता है। इसलिए हम कर्नाटक के इस मामले में बिना अधिक जानकारी के इस नतीजे पर कूदना नहीं चाहते कि बलात्कार देखती इस महिला को अपने पति के खिलाफ रिपोर्ट लिखाकर अपनी बच्ची को बचाना था, या पति को छोडक़र घर से निकल जाना था। जिंदगी में लोगों को कई किस्म के समझौते करने पड़ते हैं और इन समझौतों को करते हुए किन्हीं कड़े पैमानों पर खरा उतर पाना बड़ा आसान नहीं रहता है।
कुल मिलाकर बात यह बनती है कि हिंदुस्तान में कानून की व्यवस्था और समाज की व्यवस्था इतनी मजबूत नहीं है कि कोई 17 बरस की लडक़ी आसानी से अपने पिता के खिलाफ शिकायत का हौसला जुटा सके। व्यवस्था ऐसी भी नहीं है कि एक महिला शिकायत करने के बाद जिंदा रहने का कोई इंतजाम पा सके। इसलिए समाज के लोगों को और सरकार को यह सोचना चाहिए कि जुल्म के ऐसे लंबे दौर के बाद, दो बरस तक चलने वाले बलात्कार के बाद भी अगर पुलिस तक जाने का हौसला नहीं जुट पा रहा है तो इस हौसले का इंतजाम कैसे किया जाए? महज कानून से यह इंतजाम नहीं हो सकता क्योंकि कानून के इस्तेमाल के लिए एक जमीन लगती है, एक समाज लगता है, अगर यह जमीन ही कानून के इस्तेमाल को हिकारत की नजर से देखे, और समाज ऐसे कानून के इस्तेमाल पर सजा देने लगे, तो जाहिर है कि लोग ऐसे कानून का कोई इस्तेमाल नहीं कर पाएंगे। आज भी हमारा अंदाज यह है कि समाज के लोग अपवाद के रूप में ही शिकायत का हौसला जुटा पाते हैं, अधिकतर लोग तो बिना हौसले के ही जुल्म झेलते रह जाते हैं।
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वैसे तो किसी सालाना दिन पर उस दिन के हिसाब से लिखना बड़ा बोरियत का काम होता है, लेकिन फिर भी आज संविधान दिवस है और हिंदुस्तान में रहते हुए कानून को लेकर मन में भड़ास कितनी भरी हुई रहती है कि संविधान दिवस पर कुछ लिखने को दिल कर रहा है। 26 नवंबर के इस दिन को भारत में राष्ट्रीय कानून दिवस भी कहा जाता है और 1949 में आज ही के दिन भारत की संविधान सभा ने देश के संविधान को मंजूरी दी थी ,जो कि 26 जनवरी 1950 से लागू हुआ था। मोटे तौर संविधान का जलसा 26 जनवरी को मनाया जाता है लेकिन आज के दिन का एक अलग महत्व है जब संविधान सभा का काम पूरा हुआ था और संविधान के मसौदे को मंजूरी दी गई थी। इन ऐतिहासिक तथ्यों से परे यह सोचने और समझने की जरूरत है कि यह संविधान भारत के किस काम आया है?
संविधान को लागू करने की जिम्मेदारी भारत की तीनों संवैधानिक संस्थाओं पर बराबरी की है, कार्यपालिका यानी सरकार, न्यायपालिका यानी अदालत, और विधायिका यानी संसद। लेकिन हाल के बरसों में इन तीनों का जो बदहाल रहा है, वह मन को बैठा देता है। खासकर सरकार और संसद ने हम लोगों को जिस हद तक निराश किया है, और यह निराशा पिछले कई वर्षों से लगातार जारी है। इन दोनों से परे सुप्रीम कोर्ट में कभी किसी अच्छे चीफ जस्टिस के आ जाने पर बाकी जजों का मिजाज भी बदला हुआ दिखता है और ऐसा लगता है कि संविधान को लेकर जो बुनियादी जिम्मेदारी अदालत पर है, उसे पूरे उसे पूरा करने की नीयत अदालत की दिख रही है। लेकिन जब इन तीनों संस्थाओं के आपस के रिश्तों को देखें तो अनगिनत मामलों में यह लगता है कि सरकार और संसद ये दोनों संविधान के खिलाफ किस हद तक काम कर रही हैं कि बीच-बीच में अदालत को दखल देकर इन दोनों के इंजन और डिब्बे पटरी पर लाने पड़ते हैं। संसद के काम में दखल देने की अदालत की अपनी एक सीमा है, लेकिन संसद के बनाए हुए कानूनों की व्याख्या करना अदालत के अधिकार क्षेत्र में है, इसलिए जब कभी संसद अलोकतांत्रिक कानून बनाती है, या बेईमानी के कानून बनाती है, तब अदालत को दखल देकर उसकी मरम्मत करनी पड़ती है। यह एक अलग बात है फिर संसद में अगर किसी सरकार की ताकत जरूरत से अधिक हो, तो वह शाहबानो जैसे फैसले को पलटकर सुप्रीम कोर्ट से कह सकती है कि तुम्हारी औकात हमारे मुकाबले कुछ नहीं है। फिर भी इन सबके बीच यह देखने की जरूरत है कि ये तीनों संस्थाएं संविधान को लेकर क्या कर रही हैं?
इन तीनों में जो सबसे कम गुनाहगार दिख रही है उस अदालत की बात करें तो वह भी 100 फीसदी पाक साफ नहीं है, और बहुत से जज भ्रष्ट जाने जाते हैं, बहुत से जज सरकार को खुश करके रिटायरमेंट के बाद अपने पुनर्वास के लिए फैसले देते हुए दिखते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने तमाम ताकतें रहने के बावजूद कभी यह नहीं सोचा कि देश के सबसे कमजोर लोग इंसाफ पाने के लिए देश की सबसे छोटी अदालतों की सीढिय़ों तक भी नहीं पहुंच पाते, और वैसे में वे किसी ताकतवर के खिलाफ लड़ रहे हों, या कि किसी सरकार के खिलाफ, उनकी जीत की कोई गुंजाइश नहीं रहती। तो ऐसा संविधान किस काम का जो एक दस्तावेज की शक्ल में एक ऐसा ढकोसला हो जो कि ताकतवरों के पैर दबाता है, उनके सिर पर चंपी मालिश करता है, और जो सबसे कमजोर तबका है उसके पेट की भूख को भी अनदेखा करता है, ऐसा संविधान किस काम का? अदालत की बात करते हुए यह याद रखने की जरूरत है अभी हाल के बरसों के एक सुप्रीम कोर्ट मुख्य न्यायाधीश ने जिस तरह से, जिस बेशर्मी से अपने खुद पर लगे यौन शोषण के आरोपों की सुनवाई खुद करना तय किया था, वह संविधान की किसी भी किस्म की भावना के सख्त खिलाफ था, उसके शब्दों के भी खिलाफ था। लेकिन कई वजहें ऐसी थीं कि वह मुख्य न्यायाधीश सत्तारूढ़ पार्टी के संसद के बाहुबल से भी बचे रहा, और सुप्रीम कोर्ट के जजों के भीतर भी उसे लेकर कोई बगावत नहीं हुई। जब सरकार मेहरबान तो किसी महाभियोग का तो सवाल ही नहीं उठता। यह मुख्य न्यायाधीश अपने चर्चित फैसलों के बाद सत्तारूढ़ पार्टी की ओर से राज्यसभा सांसद बन गया !
लेकिन सुप्रीम कोर्ट से परे अगर सरकार को देखें तो पिछले कुछ दशकों में सरकारों के फैसले लगातार उन चोरों की तरह रहे जो कि रात को पुलिस गश्त से बचते हुए तंग गलियों से निकलकर अपनी मंजिल तक पहुंचते हैं। सरकारों ने संविधान के खिलाफ, अपनी शपथ के खिलाफ, और देश के हितों के खिलाफ, जनता के खिलाफ लगातार फैसले लिए, और उन्हें ऐसी शक्ल दी कि अदालत से उन्हें पलटा जाना आसान न हो। जब संसद में बहुमत जरूरत से अधिक बड़ा होता है तो बददिमागी भी उसी अनुपात में बड़ी हो जाती है। इसलिए आज संविधान दिवस पर यह याद करना जरूरी है कि देश की पिछली सरकारों ने संविधान की भावना के खिलाफ और जनहित के खिलाफ कौन-कौन से फैसले लिए, उन्हें अध्यादेश और कानून का दर्जा दिया, अदालतों को अपने काबू में रखा, और जनता के संवैधानिक अधिकारों को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से कुचलने का काम किया।
अब अगर संसद की बात करें तो संसद ने अपने-आपको दल-बदल कानून के दायरे में लाकर अपने हाथ-पैर इस तरह काट दिए हैं कि किसी पार्टी के गलत फैसलों को भी उस पार्टी के कोई ईमानदार सांसद कोई चुनौती नहीं दे सकते। संसद के भीतर जब किसी वोट की नौबत आती है तो हर पार्टी के सांसद को अपनी पार्टी के हर सही-गलत फैसले के पक्ष में वोट देना होता है, वरना उसकी सदस्यता खत्म हो सकती है. मतलब यह कि जिस संसद को होनहार और प्रतिभावान, अनुभवी और जन कल्याणकारी सांसदों का फायदा मिलना था, वह संसद अब सांसदों की पार्टियों की गिरोहबंदी की जगह रह गई है, और निजी प्रतिभा का कोई फायदा उसे मिलना बंद हो गया है। संसद में तो दरअसल विचार-विमर्श और बहस होना भी बंद हो गया है और अब वह गंदी तोहमतों की एक जगह रह गई है जहां पर बहुमत के नाम पर एक ध्वनिमत को लादकर लोकतंत्र का गला घोंट दिया जाता है। यह संसद संविधान की भावना के तो बिल्कुल ही खिलाफ हो चुकी है, और लोगों की आम समझ-बूझ भी बताती है कि यह संसद अब अरबपतियों और करोड़पतियों का एक क्लब बन चुकी है, जिसमें दाखिल हो पाना देश के किसी गरीब और मध्यमवर्गीय के लिए नामुमकिन सा हो गया है। वामपंथी दलों के कुछ गिने-चुने गरीब सांसद वहां जरूर हैं लेकिन न उनकी कोई ताकत वहां पर रह गई है, और न उनकी बातों को सुनकर भी उन्हें सुनना जरूरी रह गया है। संसद को जिसकी लाठी उसकी भैंस जैसी जगह बना देना संविधान की सोच में तो नहीं रखा गया था।
सरकार भ्रष्ट, बाहुबली संसद बददिमाग, और सुप्रीम कोर्ट हांकने वाले लोग अपने-अपने पुनर्वास के लिए फिक्रमंद, देश में संविधान दिवस पर संविधान को बनाने वाली, और संविधान को लागू करने वाली संस्थाओं का यह हाल बड़ा निराश करने वाला है। यह भी ध्यान देने की जरूरत है कि सुप्रीम कोर्ट ऐसे मामलों से लदा हुआ है जो कि सरकार के असंवैधानिक फैसलों के खिलाफ जनता या जन संगठनों द्वारा दायर किए गए हैं। आज कुल मिलाकर संविधान की फिक्र जनता और जन संगठनों को दिख रही है जिनकी अलग से कोई ताकत नहीं है, और जिन्हें चुनाव में भी जब यह विकल्प मिलता है कि उन्हें बुरे और बहुत बुरे में से किसी एक को चुनना है, जब उन्हें भ्रष्ट पार्टी और सांप्रदायिक पार्टी में से किसी एक को चुनना है, तो उनका सरकार चुनने का संवैधानिक अधिकार भी भला किस काम का रह गया है। दरअसल भारत जैसे संसदीय लोकतंत्र में संविधान ऐसा दस्तावेज नहीं है जिसके पन्नों को फाडक़र लोग पखाना पोंछने का काम करते रहें, और वह फिर भी असरदार बना रहे। यह पूरी संसदीय व्यवस्था एक ऐसे संविधान के ढांचे से ली गई है जहां पर संविधान का सम्मान करना एक परंपरा की बात रही है, एक गौरव की बात रही है। इस संविधान को छड़ी लेकर लागू करवाना मुमकिन नहीं है, यह संविधान को अपनी जिम्मेदारी मानकर खुद लागू करना तो मुमकिन है। लेकिन हिंदुस्तान की हालत बहुत खराब है और ऐसा संविधान दिवस याद दिलाता है इस देश में यह संविधान किसी काम का नहीं रह गया है, या कि यह देश किसी काम का नहीं रह गया है। यह संविधान बाहुबलियों की लाठी बन चुका है, यह संविधान संसद में बाहुबल का गुलाम हो चुका है, और यह संविधान अक्सर ही सुप्रीम कोर्ट के जजों के रिटायर होने के बाद की महत्वाकांक्षा का शिकार हो चला है। इस दिन पर संविधान के साथ, और उससे कहीं अधिक इस देश की आम जनता के साथ हमारी हमदर्दी है, जिसके किसी काम का यह संविधान नहीं रह गया है।
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हिंदुस्तान की राजनीति एक बिल्कुल ही नए किस्म का और दिलचस्प दौर देख रही है। कांग्रेस पार्टी जिसे कि भारतीय जनता पार्टी के अलावा देश में हर राज्य में मौजूदगी वाली एक पार्टी माना जाता था, या अभी भी माना जाता है, वह एक रफ्तार से अपनी जमीन खो रही है। बिना किसी बाहरी दबाव के, सिर्फ अपने आंतरिक संघर्ष के चलते हुए कांग्रेस ने पंजाब में अपने एक सबसे बुजुर्ग नेता और सबसे पुराने मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह को खोया, या दूसरा नजरिया हो सकता है कि उनसे छुटकारा पा लिया। जो भी हो अमरिंदर की जो भी थोड़ी बहुत जमीन हो, वे आज भाजपा के साथ कदमताल करते हुए दिख रहे हैं और नवजोत सिंह सिद्धू नाम का रेत का टीला पंजाब में कांग्रेस की इमारत की बुनियाद बना हुआ है, और यह टीला किस सुबह खिसक जाएगा इसका अंदाज पिछली शाम तक भी नहीं होगा। लेकिन बात महज पंजाब तक सीमित रहती तो भी ठीक था। कांग्रेस को एक बिल्कुल ही नए मोर्चे पर चुनौतियां झेलनी पड़ रही हैं, और तृणमूल कांग्रेस की ममता बनर्जी अपनी पूरी ताकत से कांग्रेस पर हमला बोल रही हैं। वैसे तो उनका घोषित मकसद भाजपा के खिलाफ राष्ट्रीय स्तर पर एक विपक्षी मोर्चा तैयार करना है, लेकिन फिलहाल उस मोर्चे के लिए गारा तैयार करने के लिए वे कांग्रेस की इमारत तोड़ रही हैं, और उसके ईंट-सीमेंट के टुकड़ों से अपने मोर्चे को जोड़ कर रही हैं। गोवा से लेकर त्रिपुरा तक और मेघालय से लेकर हरियाणा तक ममता बनर्जी कांग्रेस छोडक़र तृणमूल कांग्रेस में आने लायक हर नेता पर डोरे डाल रही हैं। और आज की नौबत के पीछे की एक दूसरी जानकारी को भी इस चर्चा में याद कर लेना जरूरी है।
लोगों को याद होगा कि कुछ महीने पहले ममता बनर्जी के राजनीतिक रणनीतिकार प्रशांत किशोर मुंबई जाकर दो बार शरद पवार से मिले और फिर दिल्ली आकर उन्होंने सोनिया गांधी, राहुल, और प्रियंका से भी मुलाकातें कीं। उस वक्त यह चर्चा चल निकली थी कि प्रशांत किशोर कांग्रेस में शामिल होने जा रहे हैं। वे कांग्रेस से एक सीमित हद तक जुड़े भी रहे हैं कि वे पंजाब में मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह के राजनीतिक या चुनावी सलाहकार रह चुके हैं। इसलिए यह माना जा रहा था कि प्रशांत किशोर कांग्रेस से जुडक़र देश में एक बड़ा विपक्षी मोर्चा बना सकते हैं। बात यहां तक तो सही निकली कि वे देश में एक बड़ा विपक्षी मोर्चा बनाने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन कांग्रेस से निराश होते ही उन्होंने यह खुलासा कर दिया कि विपक्षी मोर्चा कांग्रेस की नहीं, ममता बनर्जी की लीडरशिप के लिए विकसित किया जा रहा है। और प्रशांत किशोर की वजह से या ममता बनर्जी के अपने व्यक्तित्व की वजह से बंगाल तक सीमित तृणमूल कांग्रेस एक के बाद दूसरे राज्य तक अपनी मौजूदगी बढ़ाते चल रही है. यह मौजूदगी किसी और राज्य में सरकार बनाने के करीब नहीं है, लेकिन ममता बनर्जी की तमाम कोशिशें तृणमूल कांग्रेस को एक राष्ट्रीय स्तर की पार्टी की शक्ल देने की है। उन्होंने बंगाल से एकदम दूर गोवा जाकर वहां कांग्रेस के एक भूतपूर्व मुख्यमंत्री को तृणमूल कांग्रेस में शामिल करवाया और असम में अखिल भारतीय महिला कांग्रेस की अध्यक्ष रह चुकी सुष्मिता देव को टीएमसी में शामिल करवाया। लेकिन जो सबसे बड़ा झटका उन्होंने कांग्रेस को दिया है वह मेघालय में है, वहां पर कांग्रेस के 17 में से 12 विधायक भूतपूर्व मुख्यमंत्री मुकुल संगमा की अगुवाई में तृणमूल कांग्रेस में शामिल होने जा रहे हैं। रातों-रात तृणमूल राज्य में प्रमुख विपक्षी दल बनने जा रही है।
कहीं दिल्ली तो कहीं हरियाणा, शिकार के लिए तृणमूल कांग्रेस की पहली पसंद कांग्रेस के नेता रह गए हैं। यह बात समझने की जरूरत है कि एक वक्त कांग्रेस छोडक़र निकले शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी ने जगह-जगह कांग्रेस की संभावनाओं को खत्म किया था। महाराष्ट्र में तो जाहिर तौर पर उन्होंने कांग्रेस के एकाधिकार को खत्म करके अपनी मजबूत मौजूदगी बनाई थी. लेकिन कम लोगों को यह याद होगा कि छत्तीसगढ़ राज्य के पहले विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री अजीत जोगी की लीडरशिप वाली कांग्रेस को हराने का काम राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के बैनर तले एक असंतुष्ट कांग्रेस नेता विद्याचरण शुक्ल ने किया था, और उन्होंने एनसीपी को इतने वोट दिलवाए थे जो कि कांग्रेस की हार से ज्यादा थे। मतलब साफ था कि छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकार को आने से एनसीपी ने रोक दिया था। अभी भी पिछले कुछ महीनों के शरद पवार के बयान देखें तो वह कांग्रेस की आज की घरेलू बदहाली को लेकर निराश दिख रहे हैं। और ममता बनर्जी के साथ उनका कोई सीधा टकराव नहीं है क्योंकि दोनों की अलग-अलग राज्यों में मौजूदगी है। दिक्कत यहीं पर आ सकती है कि शरद पवार और ममता बनर्जी में से अगले चुनाव में विपक्षी गठबंधन को लीडरशिप देने के लिए इनमें से किसे मौका मिले? लेकिन यह बात तय दिख रही है कि यह दोनों ही पार्टियां कांग्रेस से परे एक विपक्षी गठबंधन में जा सकती हैं, और हो सकता है कि लीडरशिप का मुद्दा भी सुलझा लिया जाए। जो बात अभी बहुत साफ नहीं है वह यह है कि भाजपा के भी कई लोग, बंगाल से परे भी तृणमूल कांग्रेस में जा रहे हैं, जिनमें मोदी से असंतुष्ट चल रहे पहले ही भाजपा छोड़ चुके भूतपूर्व केंद्रीय वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा सबसे बड़े नेता रहे हैं, और कल की खबर यह है कि मोदी से सबसे असंतुष्ट रहने वाले भाजपा के नेताओं में से एक और, आज के भाजपा सांसद सुब्रमण्यम स्वामी भी ममता बनर्जी से मिले हैं, और ममता बनर्जी की तारीफ करते नहीं थक रहे हैं।
इस तरह आज हिंदुस्तान में राजनीति की फिजां बदली हुई दिख रही है और विपक्षी गठबंधन कांग्रेस की लीडरशिप में एक होने के बजाय अब किसी और लीडरशिप में एक होने की तरफ बढ़ सकता है। बिहार में लालू यादव की पार्टी आरजेडी कांग्रेस से परे जा चुकी है, उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी और मायावती की बसपा कांग्रेस से बहुत दूर जा चुकी है, इस तरह धीरे-धीरे कांग्रेस अलग-थलग पड़ रही है और ममता बनर्जी तिनका-तिनका जोडक़र एक घोंसला बनाने की तरफ बढ़ रही हैं। हालांकि पिछले कुछ हफ्तों से प्रशांत किशोर के बारे में कोई खबर नहीं आई है, लेकिन ऐसा लगता है कि बंगाल की तृणमूल कांग्रेस के लिए देशभर में संभावनाएं ढूंढने का काम प्रशांत किशोर कर रहे हैं, और वे ममता को एक प्रादेशिक नेता से ऊपर लाकर एक राष्ट्रीय नेता के रूप में स्थापित करने में लगे हैं, और वे एक शुरुआती कामयाबी पाते दिख रहे हैं। देश में विपक्ष का ऐसा गठबंधन 2024 के आम चुनाव में काम आएगा, लेकिन उसके पहले अलग-अलग कई राज्यों के विधानसभा चुनावों में ऐसी किसी विपक्षी एकता का असर देखने मिलेगा और उस असर की कामयाबी से राष्ट्रीय स्तर पर संभावनाएं कम या अधिक होंगी। कुल मिलाकर इन सारी घटनाओं का निचोड़ यह है कि कांग्रेस अपनी जमीन खो रही है और उस जमीन पर कब्जा पाने वाले लोगों में ममता बनर्जी आज सबसे आगे दिख रही हैं।
जो लोग भारत के पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश के बीच हर बरस की आने वाली बाढ़ में खोने वाली जमीन का हाल जानते हैं, वे इस बात को बेहतर समझ सकते हैं। बाढ़ कई इलाकों से खेतों को बहाकर खत्म कर देती है, और वह मिट्टी जाकर दूसरी तरफ, दूसरे देश में किनारे एक जमीन खड़ी कर देती है। आज कांग्रेस के साथ एक भूतपूर्व कांग्रेसी नेता ममता बनर्जी कुछ ऐसा ही करते दिख रही हैं. आगे आगे देखिए होता है क्या।
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जिस तरह कांग्रेस पार्टी अपने किसी न किसी नेता के बयान या बर्ताव को लेकर रोज परेशानी में फंस रही है, उसी तरह हिंदुस्तान की कोई ना कोई बड़ी अदालत रोजाना अपने अटपटे फैसलों की वजह से लोगों को हैरान कर रही है, और ऐसा लगता है कि इंसाफ का मजाक उड़ाया जा रहा है। अभी-अभी हमने बॉम्बे हाई कोर्ट की नागपुर बेंच की एक महिला जज के पॉक्सो कानून के तहत दिए गए एक फैसले के सुप्रीम कोर्ट से खारिज होने और सुप्रीम कोर्ट की कड़ी टिप्पणियों को लेकर इसी जगह पर लिखा था। अब उसी पॉक्सो कानून के तहत एक बच्चे के यौन शोषण को लेकर इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक जज ने एक फैसले में लिखा है कि नाबालिग के साथ ओरल सेक्स या मुखमैथुन ज्यादा संगीन यौन दुव्र्यवहार नहीं है और यह एक कम गंभीर अपराध है। जस्टिस अनिल कुमार ओझा की सिंगल जज बेंच ने निचली अदालत द्वारा बच्चे के यौन शोषण के एक मामले में 10 बरस की कैद दे दी थी जिसे घटाकर हाईकोर्ट ने 7 बरस का कर दिया है और फैसले में लिखा है कि लिंग को मुंह में डालना बहुत गंभीर यौन अपराध या यौन अपराध की श्रेणी में नहीं आता है। इस मामले में एक आदमी 10 बरस के एक लडक़े को 20 रुपये का लालच देकर ले गया था और उसके साथ उसने मुख मैथुन किया और निचली अदालत ने उसे 10 साल की कैद सुनाई थी। (कुछ ऐसी ही सजा महाराष्ट्र की एक जिला अदालत ने एक बच्चे के यौन शोषण के मामले में एक आदमी को सुनाई थी जिसे वहां की महिला हाई कोर्ट जज ने खारिज कर दिया था।) अब इलाहाबाद हाईकोर्ट के अकेले जज की बेंच ने लिखा है कि ओरल सेक्स गंभीर पेनिट्रेटिव सेक्सुअल एसॉल्ट के तहत नहीं आता। फैसले की इस बात को लेकर सोशल मीडिया पर सामाजिक कार्यकर्ता जमकर आलोचना कर रहे हैं। बच्चों के अधिकारों के लिए लडऩे वाले लोग भी इस बात को लेकर हैरान हैं कि बच्चों को यौन शोषण से बचाने के लिए बनाए गए इस कानून की कैसी-कैसी अजीब व्याख्या हाई कोर्ट के जज कर रहे हैं।
क्योंकि मुंबई हाईकोर्ट की नागपुर बेंच की महिला जज ने जो फैसला दिया था उसमें भी पॉक्सो कानून की तकनीकी बारीकियों का गलत मतलब निकाला गया था और गुनहगार को रियायत मिल गई थी। उसे सुप्रीम कोर्ट ने सुधारा और यह कहा कि किसी भी कानून का बेजा इस्तेमाल मुजरिम को बचाने के लिए नहीं हो सकता। अब इस दूसरे हाईकोर्ट के इस फैसले को लेकर बात फिर सुप्रीम कोर्ट तक जाएगी। पहली नजर में हमारा यह मानना है कि किसी बच्चे के साथ किसी बालिग द्वारा मुखमैथुन करने को गंभीर अपराध ना मानना अगर इस कानून का प्रावधान है तो फिर इस प्रावधान को बदल देने की जरूरत है। क्या यह कानून इतना खराब ड्राफ्ट किया गया है कि एक के बाद दूसरे हाई कोर्ट जज इसका गलत मतलब निकाल कर मुजरिम को रियायत देने का काम कर रहे हैं? अगर ऐसा है तो सुप्रीम कोर्ट को इस कानून की सभी धाराओं पर खुलासा करना चाहिए ताकि बाल यौन शोषण के मुजरिम किसी तरह की रियायत ना पा सके।
अभी कुछ ही दिन पहले अंतरराष्ट्रीय पुलिस संगठन इंटरपोल से मिली जानकारी के आधार पर सीबीआई ने देश भर में दर्जनों लोगों को गिरफ्तार किया जो कि बच्चों से सेक्स के वीडियो पोस्ट कर रहे थे। यह अंतरराष्ट्रीय संगठन दुनिया भर के देशों में इस तरह के काम पर निगरानी रखता है और वहां की स्थानीय पुलिस को खबर करता है ताकि इस गंभीर अपराध पर आनन-फानन कार्रवाई हो सके। जितनी बड़ी संख्या में हिंदुस्तान के लोग गिरफ्तार किए गए हैं और बच्चों के तरह-तरह के यौन शोषण में बड़ी संख्या में लोग लगे हुए हैं। वैसे भी जानकार लोगों का यह तजुर्बा रहा है कि घर-परिवार में रिश्तेदार और परिचित लोगों द्वारा बच्चों का यौन शोषण बड़ी आम बात है, और खुद मां-बाप अपने बच्चों द्वारा की गई शिकायत पर भरोसा नहीं करते हैं, नतीजा यह होता है कि ऐसे मुजरिम आगे भी अपना हिंसक हमला जारी रखते हैं, और ऐसे बच्चे आगे भी दूसरे लोगों के हाथों यौन शोषण का शिकार होते चलते हैं। इसलिए जब कभी ऐसा कोई पुख्ता मामला अदालत तक सबूतों के साथ पहुंच पाता है, तो उसमें कानून कहीं कमजोर नहीं पडऩा चाहिए। आज यह बात बच्चों को यौन शोषण से बचाने वाले कानून का मखौल उड़ाने की तरह है कि 10 बरस के बच्चे के साथ किया गया मुखमैथुन और उसके मुंह में वीर्य उड़ेल दिया जाना कोई गंभीर अपराध नहीं है। हाई कोर्ट जज ने 10 बरस की सजा को घटाकर भी सजा को 7 बरस तो कायम रखा है, लेकिन जिला अदालत ने जो सजा दी थी उसे घटाकर हाईकोर्ट ने एक खराब मिसाल पेश की है। अगर हाईकोर्ट के हाथ इस कानून की किसी तकनीकी बातों से बंधे हुए हैं, तो हम उस पर कुछ नहीं कहते, लेकिन हाई कोर्ट जज को कानून के ऐसे किसी कमजोर प्रावधान के खिलाफ फैसले में लिखना चाहिए। बच्चों को यौन शोषण से बचाने वाले कानून में ऐसे छेद नहीं रहने चाहिए कि जिनसे मुजरिम या तो पूरी तरह बचने के लिए, या कि कड़ी सजा से बचने के लिए उनका बेजा इस्तेमाल कर सके।
भारत में एक तो बच्चों के यौन शोषण के मामले सामने नहीं आ पाते हैं। किसी तरह कोई परिवार हिम्मत भी जुटाते हैं तो पुलिस और समाज के दूसरे लोग हौसला पस्त करते हैं कि क्यों इतनी बदनामी का काम कर रहे हैं। ऐसे में बच्चों का यौन शोषण करने वाले आदतन मुजरिम खुले घूमते हैं और चारों तरफ ऐसा जुर्म करते हैं। इसलिए सुप्रीम कोर्ट को चाहिए कि पॉक्सो कानून में अगर ऐसी कमजोरियां रह गई हैं तो उन्हें खत्म करे। नागपुर हाई कोर्ट बेंच के फैसले में तो यह मान लिया गया था कि जब तक चमड़ी से चमड़ी नहीं छूटेगी तब तक कपड़ों के ऊपर से किया गया कोई यौन शोषण भी पॉक्सो कानून के तहत किसी सजा के लायक नहीं बनता। यह सिलसिला खत्म करने की जरूरत है और इस कानून के प्रावधान बड़े खुलकर बच्चों को बचाने वाले रहने चाहिए। संसद की कोई कमेटी भी अगर बच्चों के मामलों को देखती है तो इस कानून की कमजोरियों की जितनी मिसालें हैं उन्हें इकठ्ठा करके इस कमेटी को विचार करना चाहिए कि क्या इसे फिर से लिखा जाए?
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दिल्ली का इलाका एनसीआर कहलाता है, नेशनल कैपिटल रीजन, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र, इसके बारे में अभी खबर आई है कि यहां पर वायु प्रदूषण इतना अधिक हो चुका है कि कोरोना वायरस की वजह से होने वाली मौतों से अधिक मौतें वायु प्रदूषण से हो सकती हैं, और जिन लोगों को पहले कोरोना की वजह से फेफड़ों की बीमारी निमोनिया हो रहा था, उससे अधिक संख्या में लोगों को वायु प्रदूषण की वजह से निमोनिया हो रहा है। अब दिक्कत यह है कि वायु प्रदूषण से होने वाली मौतें सीधे-सीधे कोरोना मौतों की तरह दर्ज नहीं होती हैं और इसलिए वे मोटे तौर पर अनदेखी रह जाती हैं। फिर दूसरी बात यह भी है कि मौतों से अलग, प्रदूषण की वजह से फेफड़ों की, सांस की, जो भी दूसरी बीमारियां हो रही हैं उनकी वजह से लोगों की जिंदगी घट रही है, उनकी मौत तो तुरंत नहीं हो रही है, लेकिन उनकी सेहत कमजोर होती चली जाती है, और वे अपनी पूरी जिंदगी नहीं जी पाते। लेकिन यह बात भी सरकारी रिकॉर्ड में नहीं आ पाती क्योंकि इसे आंकड़ों में नापतौल पाना मुमकिन नहीं होता।
इस बारे में सुप्रीम कोर्ट लगातार सुनवाई कर रहा है कि दिल्ली का प्रदूषण कैसे कम किया जाए, केंद्र और दिल्ली सरकार इन दोनों की खासी आलोचना भी हो रही है, लेकिन हर बरस इस्तेमाल होने वाले तौर-तरीकों को ही बार-बार अपनाया जा रहा है और दिल्ली के बुनियादी ढांचे में जो फेरबदल करके इस शहर को जिंदा रहने लायक बनाना चाहिए उस बारे में अभी तक कोई बातचीत भी नहीं हो रही है। हमने इसी जगह अभी हफ्ते-दस दिन पहले ही लिखा था कि दिल्ली की घनी बसाहट को कम करने के लिए केंद्र सरकार को राष्ट्रीय स्तर पर एक योजना बनानी चाहिए कि दिल्ली से कौन-कौन सी चीजों को बाहर ले जाया जा सकता है। अभी पिछले डेढ़ बरस से जिस तरह लॉकडाउन और ऑनलाइन काम, वर्क फ्रॉम होम, इन सबका तजुर्बा बाकी दुनिया के साथ-साथ हिंदुस्तान को भी हुआ है, उसे इस्तेमाल करते हुए किस तरह से दिल्ली से दफ्तरों को बाहर ले जाया जा सकता है, दिल्ली से किन कारोबार को बाहर ले जाया जा सकता है, इसके बारे में सोचना चाहिए।
दिल्ली से परे देश की एक उपराजधानी बनाने की एक सोच लंबे समय तक चलती रही लेकिन हाल के वर्षों में उस पर कोई बातचीत नहीं हो रही है। दक्षिण भारत के कुछ राज्यों का यह मानना था कि उत्तर भारत में बसी हुई देश की राजधानी की वजह से दक्षिण भारत के साथ बेइंसाफी होती है, और उपराजधानी दक्षिण भारत में होनी चाहिए। राजीव गांधी के मंत्रिमंडल में ताकतवर मंत्री रहे माधवराव सिंधिया अपने शहर ग्वालियर में उपराजधानी ले जाना चाहते थे और वे उसके लिए खुली कोशिश भी कर रहे थे। अब हमारा यह मानना है कि शारीरिक रूप से बहुत से दफ्तरों को एक साथ रखने की जरूरत नहीं रह गई है। लोग अब ऑनलाइन काम कर रहे हैं, वीडियो कॉन्फ्रेंस पर बैठकें हो जा रही हैं, लोग कंप्यूटरों पर सारा काम कर ले रहे हैं और एक साथ आना-जाना, बैठना, इसकी जरूरत पहले के मुकाबले घट गई है। ऐसे में केंद्र सरकार को तुरंत ही यह सोचना चाहिए कि वह अपने कौन-कौन से दफ्तरों को दिल्ली के बाहर ले जा सकती है। इसके लिए उसे देशभर के अलग-अलग राज्यों से सलाह भी करनी चाहिए और उनसे प्रस्ताव मंगवाने चाहिए कि कौन-कौन सा राज्य अपने कौन से शहर में केंद्र सरकार के दफ्तरों के लिए कितनी जगह देने को तैयार है, और कितने किस्म की रियायतें वह राज्य दे सकता है। बहुत से राज्य ऐसे होंगे जो अपने किसी शहर के विकास के लिए, एयरपोर्ट और खुली जगह के साथ-साथ केंद्र सरकार के ऐसे संस्थानों के लिए जगह बनाएं।
आज एक बड़ी जरूरत यह है कि केंद्र सरकार एक ऐसा आयोग बनाए जिसमें राज्यों के प्रतिनिधि भी हों और राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर के योजनाशास्त्री हों, शहरी विकास के विशेषज्ञ हों, और जिसमें यह तय हो कि केंद्र सरकार के कौन-कौन से दफ्तर, दिल्ली में चलने वाले कौन-कौन से संवैधानिक संस्थान, कौन-कौन से शैक्षणिक संस्थान बाहर ले जाए जा सकते हैं। इससे परे यह भी देखने की जरूरत है कि अंतर्राष्ट्रीय संगठनों और विदेशी संस्थानों का जो जमावड़ा दिल्ली में हो गया है उसे भी कैसे कम किया जा सकता है। और ऐसा करते हुए देश में आज प्रदूषण और घनी बसाहट झेल रहे दूसरे महानगरों को बाहर रखना चाहिए। ऐसी कोई वजह नहीं है कि संयुक्त राष्ट्र संघ या ऐसे दूसरे अंतरराष्ट्रीय संगठन देश के किसी दूसरे हिस्से में अपने दफ्तर ना बना सकें। इसके लिए दिल्ली में नए भवन निर्माण पर बड़ी कड़ाई से रोक लगानी होगी। आज प्रदूषण को घटाने के लिए दिल्ली सरकार की जो योजनाएं चल रही हैं, वे बहुत तंग नजरिए की हैं और वे केवल डीजल की गाडिय़ों को कम करने, पुरानी गाडिय़ों को हटाने, इस तरह की छोटी-छोटी बातें कर रही हैं। लेकिन दिल्ली की प्रदेश सरकार का यह अधिकार भी नहीं है कि वह दिल्ली में बसे हुए केंद्र सरकार या अंतरराष्ट्रीय संगठनों के दफ्तरों को बाहर ले जाने के बारे में किसी योजना पर काम करे, वह शायद ऐसा चाहेगी भी नहीं, यह काम केंद्र सरकार को ही करना होगा।
आज हिंदुस्तान में कम से कम 2 दर्जन ऐसे शहर छंाटे जा सकते हैं जो अलग-अलग राज्यों में होंगे, जो हवाई सफऱ के लिए, ट्रेन के लिए जुड़े हुए होंगे, और जहां पर राज्य सरकार खुली जगह दे सकेगी जिससे कि वहां होने वाले भवन निर्माण से स्थानीय रोजगार और कारोबार दोनों को बढ़ावा मिलेगा। यह काम बिना देर किए करना चाहिए और इस बारे में हम एक से अधिक बार इसलिए भी लिखते हैं क्योंकि ऐसी कोई सुगबुगाहट भी आज शुरू नहीं हो रही है। हो सकता है सरकार का इतना बड़ा हौसला न हो लेकिन इस देश में शहरी योजना को लेकर आईआईटी या एसपीए जैसे जो शैक्षणिक संस्थान बड़े-बड़े कोर्स चलाते हैं, जहां बड़ी-बड़ी पढ़ाई होती है, शोध कार्य होते हैं, वहां से भी किसी को ऐसा काम करना चाहिए और ऐसी एक ठोस योजना बनाकर केंद्र सरकार के सामने या सार्वजनिक रूप से सामने रखना चाहिए कि कैसे दिल्ली को फिर से जिंदा रहने लायक एक शहर बनाया जा सकता है। आज हकीकत यह है कि जिनके परिवार के लोग अधिक बीमार हैं और जिनके पास दिल्ली से बाहर उन्हें रखने की सहूलियत है वे लोग उन्हें बाहर ले जा रहे हैं, और जब तक ठंड का पूरा मौसम खत्म नहीं हो जाता तब तक उन्हें वापस नहीं ला रहे हैं। यह सिलसिला बहुत ही खतरनाक है और इसके पहले यह सिलसिला बढ़ते चले जाए और कोई योजना न बन सके, हम इसे अपनी जिम्मेदारी समझते हैं कि ऐसा फैसला लेने वाले, योजना बनाने वाले, शोध कार्य करने वाले लोगों के के बीच कागज पर काम शुरू हो सके।
यह याद रखने की जरूरत है कि दिल्ली के सबसे गरीब लोगों के पास तो इस जानलेवा प्रदूषण से बचने के लिए न एसी गाडिय़ां हैं, और न ही एसी घर हैं। वे सबसे पहले बेमौत मारे जा रहे हैं।
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कई महीनों से अपने आप को रोकने के बावजूद आज हमें कंगना रनौत पर लिखना पड़ रहा है क्योंकि अब वह एक व्यक्ति से बढक़र एक ऐसा मुद्दा हो गई है जो कि इस देश के लिए एक बड़ा खतरा है। किसी लोकतंत्र के लिए, और उसके भीतर के विविधतावादी समाज के लिए खतरा सिर्फ बंदूक और बम लिए हुए, फौजी वर्दी वाले आतंकी नहीं होते हैं, ऐसे लोग भी खतरा होते हैं जो कि पूरे वक्त समाज में नफरत फैलाने का काम करते हैं, लोगों की सोच में गंदगी घोलते हैं और हर दिन सुबह उठते ही इस देश के इतिहास के गौरव पर थूकते हैं। शायद इस देश के इतिहास के हर महान गौरव पर थूकने के एवज में ही कंगना रनौत को पद्मश्री से सम्मानित किया गया है, हम उस पर लिखना नहीं चाहते थे, लेकिन अब समाज की जो प्रतिक्रिया उसकी बकवास पर आ रही है उसे देखते हुए भी अगर हम नहीं लिखेंगे, तो यह समाज की अनदेखी होगी। हम अभी तक अलग-अलग राजनीतिक विचारधाराओं के लोगों का कंगना के खिलाफ कहा हुआ अनदेखा कर रहे थे, लेकिन कल की एक खबर है कि दिल्ली की सिख गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी ने थाने के साइबर प्रकोष्ठ में शिकायत दर्ज कराई है कि कंगना ने सिखों के खिलाफ जानबूझकर अपमान की बातें लिखी हैं और किसानों के प्रदर्शन को खालिस्तानी आंदोलन बतलाया है। गुरुद्वारा कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में यह लिखा है कि सिख समुदाय की भावनाओं को आहत करने के लिए जानबूझकर वह पोस्ट तैयार किया गया और अपराधिक मंशा से उसे साझा किया गया इसलिए इस पर कड़ी कार्यवाही की जाए। कंगना के खिलाफ और भी कई लोगों ने जगह-जगह पुलिस में रिपोर्ट लिखाई है लेकिन इन्हें देखते हुए भी हम अब तक इस महिला को अनदेखा कर रहे थे, लेकिन जब गुरुद्वारा कमेटी ने सिख किसानों वाले आंदोलन को कंगना द्वारा खालिस्तानी करार देने पर रिपोर्ट की है, तो इसे अनदेखा करने का हमारा कोई हक नहीं है।
कंगना को पिछले एक-दो बरस से जिस तरह से बढ़ावा मिल रहा था और जिस तरह से उसकी बकवास बढ़ती चली जा रही थी उसका अंत शायद यहीं पहुंचकर होना था कि उसके खिलाफ कोई अदालत कोई सजा सुनाए। लेकिन हिंदुस्तान की अदालतों का हाल देखते हुए यह आसान और जल्द होने वाला काम नहीं लग रहा है, इसलिए इस महिला की फैलाई जा रही नफरत के खिलाफ राष्ट्रपति को लिखी गई चि_ी बहुत ही जायज है कि इससे पद्मश्री वापस ली जाए। देश का राष्ट्रीय सम्मान इसलिए नहीं होता कि आजादी की लड़ाई में अपना सब कुछ झोंक देने वाले स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के मुंह पर यह औरत रोज सुबह थूके और आज़ादी को अंग्रेजों से मिली हुई भीख बताए, और देश की असली आजादी 2014 (में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने) को बताए। हैरानी की बात तो यह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद होकर इस औरत की कही हुई इस बहुत ही घटिया और ओछी बात के खिलाफ कुछ नहीं कहा। प्रधानमंत्री को चाहिए था कि वे देश की आजादी के खिलाफ कही जा रही इन बातों की सांस में ही उनके प्रधानमंत्री बनने को देश की आजादी करार देने की बात को नाजायज कहते। उनकी चुप्पी उनके लिए नुकसानदेह है क्योंकि देश की आजादी कब मिली है यह सबको मालूम है, और एक नफरतजीवी हिंसक औरत के बयानों से देश और दुनिया के इतिहास का वह दौर नहीं बदलता। ऐसी गंदी बातें कहने वाली औरत जिसकी तारीफ करती है उसी का नुकसान करती है। प्रधानमंत्री के आसपास के कुछ लोगों को तो इस बात को समझना चाहिए और प्रधानमंत्री को समझाना चाहिए कि ऐसे प्रशंसक और ऐसे भक्त उनका नुकसान छोड़ और कुछ नहीं कर रहे हैं। देश के देश के इतिहास में यह अच्छी तरह दजऱ् हो रहा है कि ऐसी गंदी बातों को खबरों की सुर्खियों में देखते हुए भी प्रधानमंत्री चुप रहे। नरेंद्र मोदी खुद भी 2014 में देश की आजादी की बात नहीं सोचते होंगे, और उनके नाम को जोडक़र गांधी-नेहरू सहित लाखों स्वाधीनता संग्रामियों के त्याग और बलिदान पर थूकने वाली इस महिला से अपने बारे में ऐसी तारीफ सुनकर प्रधानमंत्री की प्रतिक्रिया क्या होगी यह तो नहीं मालूम, लेकिन ताजा इतिहास इसे अच्छी तरह दर्ज करने वाला है।
सोशल मीडिया का एक सबसे बड़ा प्लेटफार्म ट्विटर पहले ही औरत की बकवास को ब्लॉक कर चुका है, उसके अकाउंट को ही ब्लॉक कर चुका है। अब हैरानी इस बात की है कि देश की कोई अदालत खुद होकर आजादी की लड़ाई में जान गंवाने वाले लोगों की इज्जत को जनहित और देशहित मानकर कोई सुनवाई शुरू क्यों नहीं कर रही है? जिन लोगों ने पुलिस में और राष्ट्रपति को यह लिखा है कि कंगना की बात देशद्रोह है, उन्होंने भी कुछ गलत नहीं लिखा है। अगर कोई गांधी के नाम पर इस तरह बार-बार थूके और बार-बार गांधी के हत्यारों का गुणगान करे, तो उसे देशद्रोही ही मानना चाहिए। यह सिलसिला पता नहीं कब तक चलेगा क्योंकि लोकतंत्र एक बहुत लचीली व्यवस्था रहती है जो इस किस्म के बहुत से गंदे लोगों को उनकी पूरी जिंदगी बर्दाश्त करती है। लेकिन इस औरत के खिलाफ एक जनमत तैयार होना चाहिए और इसकी फैलाई जा रही गंदगी पर लोगों को पुलिस में भी जाना चाहिए, अदालत में भी जाना चाहिए, और लोकतांत्रिक कानूनों से इसका मुंह बंद करवाना चाहिए। लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जिम्मेदारियों के साथ ही मिलती है, इसलिए नहीं मिलती है कि ऐसी घटिया औरत नफरत और गंदगी को फैलाए और देश के गौरव पर बार-बार थूके, देश के लिए सबसे अधिक क़ुरबानी देने वाले सिखों को खालिस्तानी कहे। इसकी जगह जेल ही हो सकती है।
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आज दुनिया की एक बड़ी फिक्र यह है कि बहुत से देशों में लोगों के पास खाने-पीने को नहीं है। कुछ देश गृह युद्ध की वजह से, तो कुछ देश सूखे की वजह से भुखमरी की कगार पर हैं। अफ्रीका के कुछ देश भुखमरी का लंबा इतिहास झेल रहे हैं, लेकिन अभी युद्ध जैसे लंबे दौर से गुजरे हुए अफगानिस्तान में भी बच्चों के खाने-पीने को नहीं है, लोग अपने बच्चों को बेच रहे हैं। दुनिया के लोग यह भी मान कर चल रहे हैं कि आबादी जिस रफ्तार से बढ़ रही है उससे कुछ वक्त बाद जाकर धरती पर अनाज की, या खाने-पीने के सामानों की कमी होने लगेगी। बहुत से लोगों का यह भी कहना है कि मांस के लिए जिन पशुओं को पाला जाता है, उनकी वजह से पानी की खपत बहुत बढ़ जाती है और कई तरह की गैस हवा में घुलती है जिससे मांस पर्यावरण के मुताबिक खान-पान का अच्छा विकल्प नहीं है। कई जागरूक देश धीरे-धीरे मांस की खपत कम कर रहे हैं जिसके पीछे पर्यावरण को बचाना एक मकसद है, लेकिन लोगों को अधिक मांस खाने से रोकना भी एक दूसरा मकसद है ताकि उन्हें कई किस्म की बीमारियां न हों। दुनिया एक अलग किस्म के उथल-पुथल से गुजरते ही रहती है जिसके चलते कुछ देश अपना अधिक अनाज समंदर में फेंक देते हैं और कुछ दूसरे देशों के बच्चे और बड़े लोग कुपोषण और भुखमरी का शिकार होकर कम उम्र में मर जाते हैं, या वक्त के पहले खत्म हो जाते हैं। दुनिया का भविष्य कैसा होगा इसे सोचते हुए लोग खाने-पीने के बारे में जरूर सोचते हैं इतनी आबादी के लिए अनाज कहां से आएगा, या खाने-पीने के और दूसरे कौन से सामान जुटाए जा सकते हैं। हिंदुस्तान में जब कोई व्यक्ति महीनों तक बिना खाए रह लेते हैं, तो दुनिया के बहुत से वैज्ञानिक रिसर्च के लिए पहुँच जाते हैं कि क्या इसका कोई इस्तेमाल गरीब आबादी के लिए भी हो सकता है?
ऐसे में यूरोप में खानपान को सुरक्षा सर्टिफिकेट देने वाली सबसे बड़ी कानूनी संस्था यूरोपीयन फूड सेफ्टी अथॉरिटी ने अभी टिड्डों को खाने के लायक सुरक्षित माना है और उसकी मंजूरी दी है। टिड्डों की दिक्कत दुनिया के कई देशों में भयानक बढ़ते चल रही है और अफ्रीका से शुरू होकर ये टिड्डे ईरान, अफगानिस्तान, पाकिस्तान होते हुए हिंदुस्तान तक आते हैं और न सिर्फ फसलों को चट कर जाते हैं, बल्कि किसी भी तरह की पत्तियां चाहे वे पेड़ों पर हों चाहे पौधों पर हों, उन सबको खाकर खत्म कर देते हैं। इन तमाम देशों में टिड्डी दलों को फसल और इंसानों पर एक बहुत बड़ा खतरा माना गया है. ऐसे में जब यूरोप ने कानूनी मंजूरी देकर टिड्डों को खाना या उनको जमाकर, या उन्हें सुखाकर और पीसकर, तरह-तरह के खानपान बनाने को मंजूरी दी है तो इससे एक बिल्कुल नई संभावना आ खड़ी हुई है। ऐसा भी नहीं कि कीड़े-मकोड़े कभी खानपान में शामिल ही नहीं थे। चीन सहित बहुत से ऐसे देश हैं जहां पर तरह-तरह के कीड़ों को हमेशा से खाया जाता रहा है और उन्हें गरीबी की वजह से नहीं, पेट भरने के लिए नहीं, स्वाद के लिए और न्यूट्रीशन के लिए भी खाया जाता रहा है। इसलिए अब जब यूरोप में खाई जाने लायक चीजों की फेहरिस्त में टिड्डों को जोड़ दिया गया है तो ऐसा लगता है कि खानपान में एक नई चीज जुड़ी है जिससे कि धरती के मौजूदा खानपान पर बोझ घटेगा।
यूरोप में कुछ एक कंपनियां पहले से टिड्डों से उनके भारी प्रोटीन की वजह से उन्हें सुखाकर, या सुरक्षित करके तरह-तरह के खानपान बनाते आई थीं। अभी उनका जानवरों के खानपान में अधिक इस्तेमाल हो रहा था, लेकिन अब इंसानों के खानपान में इसके शामिल होने से बहुत से मांसाहारी लोगों की प्रोटीन की जरूरत पूरी हो सकेगी और जहां कहीं टिड्डों का हमला होता है वहां भी उनसे खान-पान तैयार हो सकेगा। जिस तरह आज पोल्ट्री फॉर्म में मुर्गी या अंडा तैयार किए जाते हैं, डेयरी में दूध तैयार किया जाता है या दुनिया में कई जगह मांस के लिए भी जानवरों को पाला जाता है, उसी तरह टिड्डों को पैदा करने के ऐसे केंद्र तैयार हो सकते हैं जहां उनकी आबादी बढ़ाई जाए और वही हाथ के हाथ लगी हुई फैक्ट्री में उनसे डिब्बाबंद या पैकेटबंद सामान बनाए जाएं। दुनिया की बहुत बड़ी आबादी ऐसी है जो शौक से भी अलग अलग किस्म के सामान खाती है और बहुत सी आबादी ऐसी है जो मजबूरी में कई किस्म की चीजें खा लेती है। इन सबके बीच टिड्डों दूसरे कीड़े-मकोड़ों के साथ एक अलग बाजार भी रहेंगे और खान-पान का सामान भी रहेंगे।
कीट पतंगों से खानपान बनाने वाली यूरोप की एक बहुत बड़ी कंपनी का कहना है कि टिड्डे प्रोटीन और फाइबर से समृद्ध होते हैं, उनमें खूब विटामिन और मिनरल होता है और वे मैग्नीशियम, कैल्शियम, और जिंक से भरपूर रहते हैं. टिड्डों का प्रोटीन बहुत आसानी से पचने वाला रहता है और इन चीजों से बनाए गए सामान नाश्ता बनाने से लेकर बर्गर बनाने तक, भोजन में, और यहां तक कि मिठाइयों में भी इस्तेमाल हो सकते हैं। इस कंपनी का कहना है कि आज वैसे भी खिलाडिय़ों के बीच में अधिक प्रोटीन की बड़ी जरूरत रहती है, इसके अलावा कुछ बुजुर्ग या दूसरे लोगों को भी अधिक प्रोटीन लगता है, ऐसे तमाम लोगों के बीच टिड्डों से मिला हुआ यह प्रोटीन बहुत काम का हो सकता है। इसी कंपनी की अर्जी पर यूरोपीयन फूड सेफ्टी अथॉरिटी ने तमाम जांच करके अभी यह मंजूरी दी है। लेकिन यह मंजूरी महज इस कंपनी तक सीमित नहीं है और इस मंजूरी के बाद दुनिया भर में कीट-पतंगों के खानपान में इस्तेमाल के रिसर्च में लगी हुई कंपनियां तेजी से आगे बढ़ेंगी, और यह मार्केट आज के मौजूदा मांसाहार और प्रोटीन के बाजार में एक नई संभावना लेकर आएगा।
भारत में भी राजस्थान सहित कुछ दूसरे राज्यों ने पिछले वर्षों में लगातार टिड्डी दल का हमला देखा हुआ है। ऐसे में तमाम मांसाहारी लोगों के बीच एक संभावना यह पैदा होती है कि ऐसे हमले में आने वाले टिड्डी दल को किस तरह पकड़ा जाए और किस तरह खाया जाए। इससे फसल भी बच सकेगी और एक नया खान-पान मिल सकेगा। क्योंकि सैकड़ों और हजारों बरस से चीन जैसे कई देशों में कई तरह के कीट-पतंग खाने का रिवाज लगातार चला आ रहा है, इसलिए उससे बड़ी कोई रिसर्च न तो हो सकती है न उसकी जरूरत है। अब देखना यही है कि अलग-अलग इलाकों में खानपान का स्वाद किस तरह टिड्डों को अपने भीतर जगह दे पाता है। लेकिन इससे एक ऐसी संभावना तो खड़ी होती है कि धरती पर खानपान, और न्यूट्रिशन की कमी को दूर करने के लिए एक छोटा या बड़ा रास्ता निकल रहा है।
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छत्तीसगढ़ के भीतर रहने वाले लोगों को अपने शहरों में साफ-सफाई में चाहे थोड़ी कमी दिखती हो, लेकिन जब भारत सरकार ने देश के तमाम राज्यों की तुलना की, तो छत्तीसगढ़ को लगातार तीसरे साल देश के सबसे साफ-सुथरे राज्य का पुरस्कार मिला है। यह छोटी बात इसलिए नहीं है कि राज्य का इतिहास कुल 20 बरस पुराना है और अविभाजित मध्यप्रदेश का हिस्सा रहते हुए छत्तीसगढ़ हमेशा उपेक्षित रहते आया है। इसलिए जब यह राज्य बना यहां शहरों का बहुत काबिल ढांचा नहीं था। लेकिन ऐसे में इतने वर्षों में इसने जो तरक्की की है, वह देखने लायक है, और दक्षिण भारत के अपेक्षाकृत अधिक अनुशासन में रहने वाले राज्यों से भी मुकाबले में जब छत्तीसगढ़ को अधिक साफ-सुथरा पाया गया है, तो यह सचमुच तारीफ का हकदार है। मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की अगुवाई में नगरी प्रशासन मंत्री शिव डहेरिया और अफसरों ने राष्ट्रपति से आज सुबह यह पुरस्कार पाया है। छत्तीसगढ़ के लिए यह एक खुशी का मौका भी है, साथ में एक बड़ी चुनौती भी है। अगले बरस हो सकता है कि कोई और राज्य मेहनत करके छत्तीसगढ़ से आगे निकल जाए, और लगातार चौथे बरस यह पुरस्कार नहीं मिल पाए, इसलिए इस राज्य को न सिर्फ अपनी जगह पर काबिज रहने के लिए और अधिक मेहनत करने की जरूरत है, बल्कि एक दूसरी जरूरत भी है अपने आपको अपने से बेहतर बनाने की।
अब जब पुरस्कार और सम्मान की खुशियां पूरी हो जाएं, तो उसके बाद छत्तीसगढ़ को गंभीरता से यह भी सोचना चाहिए कि यह साफ-सफाई वह किस कीमत पर कर रहा है और क्या इस साफ-सफाई को कम खर्च पर किया जा सकता है? यह भी सोचने की जरूरत है कि क्या इस साफ-सफाई में सिर्फ सरकारी अमला काम कर रहा है या फिर जनता की भी इसमें कोई भागीदारी है? आज छत्तीसगढ़ में दिक्कत यह लग रही है कि राज्य की संपन्नता की वजह से स्थानीय संस्थाएं साफ-सफाई पर खासा खर्च कर रही हैं और कुछ जगहों पर वार्ड के पार्षद भी निजी दिलचस्पी लेकर अपने साधन जुटाकर वार्ड को साफ रख रहे हैं, लेकिन प्रदेश में शायद ही कहीं जनता की भागीदारी अपने इलाके को, अपने शहर को साफ रखने में दिखाई पड़ती है। कुछ बरस पहले सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट के एक सेमिनार में दक्षिण भारत की एक म्युनिसिपल ने एक प्रस्तुतीकरण किया था जिसमें उन्होंने बताया था कि वहां एक पैसा भी सफाई पर खर्च नहीं किया जाता, और यह जनता की जिम्मेदारी मानी जाती है कि वह निर्धारित जगह पर कचरा डाले, और कचरा इस तरह से अलग-अलग करके डाले कि उससे कमाई की जा सके। कचरे को उस म्युनिसिपल ने कमाई का जरिया बना लिया है। हिंदुस्तान का ही एक दूसरा शहर अगर ऐसा कर रहा है, तो कोई वजह नहीं है कि बाकी शहर उससे कोई सबक न ले सकें। वैसे भी सफाई की लागत को अगर छोड़ भी दें, तो भी पर्यावरण के हिसाब से जिस जगह कचरा पैदा होता है, उसी जगह पर उसकी छंटाई धरती को बचाने में मददगार रहती है। इसलिए छत्तीसगढ़ की स्थानीय संस्थाओं को अपने लोगों को जिम्मेदार बनाने का बीड़ा उठाना चाहिए और लोगों को उनके पैदा किए हुए कचरे की छंटाई और उसके निपटारे में जिम्मेदार भी बनाना चाहिए।
आज केंद्र सरकार और प्रदेशों का बहुत सा पैसा शहरों की सफाई पर लगता है। जैसे इंदौर शहर को देश का सबसे साफ सुथरा शहर होने का पुरस्कार लगातार पांच बरस से मिल रहा है, इस बरस भी मिला है। उस शहर में सफाई की लागत सैकड़ों करोड़ रुपए साल की है। अब यह लागत जनता को जिम्मेदार बनाने से बहुत हद तक घट सकती है। दूसरी बात यह कि जब जनता अपने घर और दुकान से ही कचरे को अलग-अलग करके भेजेगी, तो न सिर्फ म्युनिसिपल की सफाई लागत घटेगी बल्कि उस अलग-अलग कचरे के निपटारे से म्युनिसिपल की कमाई भी हो सकेगी। आज छत्तीसगढ़ में कचरे के निपटारे में जनता की भागीदारी शून्य है और स्थानीय संस्थाएं और कुछ चुनिंदा निर्वाचित जनप्रतिनिधि अपने दम पर अपने इलाकों को साफ रखते हैं। सफाई के काम में लोगों को, गाडिय़ों को, और मशीनों को लगाकर इलाके को साफ कर देना खर्चीला होने के बावजूद आसानी से मुमकिन काम है। दूसरी तरफ जनता से इस काम को करवाना एक अलोकप्रिय काम भी हो सकता है, और उसके लिए अफसरों और पार्षदों को मेहनत भी अधिक करनी पड़ सकती है।
लेकिन पर्यावरण को बचाने की जिम्मेदारी सिर्फ सरकार या स्थानीय सरकार को नहीं उठानी चाहिए, उसमें लोगों को भी शामिल करना चाहिए। इसके लिए किसी उच्च तकनीक की जरूरत नहीं पड़ती है, बल्कि घरों में अलग-अलग रंग की बाल्टियां रखकर उसमें अलग-अलग किस्म का कचरा जमा करके इस काम को आसानी से शुरू किया जा सकता है। एक बार जब यह कचरा एक साथ मिल जाता है तो फिर उसे अलग-अलग करना किसी भी कीमत पर मुमकिन नहीं होता। उसमें सडऩे लायक बायोडिग्रेडेबल सामान भी ठोस स्थाई कचरे के साथ मिल जाते हैं, और इन दोनों का कोई अलग-अलग इस्तेमाल नहीं हो पाता। शहरों में जहां पर कि कंक्रीट का कचरा लगातार निकलता ही है, वहां पर शहरों को यह कोशिश भी करनी चाहिए कि उसका चूरा बनाकर उसे भवन निर्माण या सडक़ निर्माण में दोबारा इस्तेमाल किया जाए ताकि रेत-मुरम-गिट्टी की जरूरत घटे। लेकिन यह काम बड़े-बड़े शहरों में भी शुरू नहीं हो पा रहा है, जबकि इसकी लागत इमारत मलबे से बने चूरे को बेचकर निकाली जा सकती है।
छत्तीसगढ़ दिल्ली से अभी इतने सारे पुरस्कार लेकर लौट रहा है। खुशी मनाने के बाद इस विभाग को बैठकर अपने म्युनिसिपलों के साथ ऐसे तमाम सुधार के लिए देश के कामयाब शहरों के जानकार और तजुर्बेकार लोगों को आमंत्रित करके उनसे सीखना चाहिए, और प्रदेश के शहरों को अगले वर्षों के लिए और अच्छा बनाकर मुकाबले में खड़ा रखना चाहिए। लोकतंत्र में वही व्यवस्था बेहतर रहती है जो कि जनभागीदारी से पूरी होती है।
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आज सुबह जब यह खबर आई कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नौ बजे राष्ट्र को संबोधित करेंगे, तो बहुत से लोगों के मन में यह आशंका हुई कि यह जनता की सहूलियत बढ़ाने वाला कोई फैसला होगा, या कि जनता के लिए नोटबंदी, लॉकडाउन, या जीएसटी की तरह का परेशानी लाने वाला कोई फैसला होगा। लेकिन जिस बात की किसी को उम्मीद नहीं थी, वह घोषणा करते हुए प्रधानमंत्री ने एक बार फिर लोगों को चौंकाने का काम किया और कहा कि जिन तीन किसान कानूनों के खिलाफ किसान आंदोलन चल रहा था, उन्हें सरकार वापिस ले रही है। उन्होंने कहा कि सरकार किसानों के एक तबके को इन कानूनों का फायदा समझाने में नाकामयाब रही, और वह इसके लिए लोगों से माफी चाहते हैं। उन्होंने साफ किया कि संसद के शुरू होने वाले सत्र में ही इन कानूनों को वापस लेने की संवैधानिक औपचारिकता पूरी कर ली जाएगी। साथ ही उन्होंने यह घोषणा भी की कि केंद्र सरकार राज्य सरकारों, किसानों, कृषि वैज्ञानिकों, और कृषि अर्थशास्त्रियों के प्रतिनिधियों की एक समिति बना रही है, जो इस बात पर चर्चा करेगी कि न्यूनतम समर्थन मूल्य को कैसे अधिक असरदार बनाया जा सकता है, और कैसे फसल के पैटर्न को वैज्ञानिक तरीके से बदला जा सकता है।
उन्होंने आज की यह घोषणा सिखों के एक सबसे बड़े धार्मिक त्यौहार प्रकाश पर्व के मौके पर की, और पिछले एक बरस से अधिक समय से चले आ रहे किसान आंदोलन में शामिल लोगों से घर लौटने की अपील की। इस आंदोलन में पंजाब, हरियाणा, और उत्तर प्रदेश के किसान शामिल हैं, और इन तीन में से दो राज्य, पंजाब और उत्तर प्रदेश में अभी 3 महीने बाद चुनाव होने जा रहे हैं। तमाम विपक्षी पार्टियों का यह मानना है कि पंजाब और यूपी के चुनावों को देखते हुए किसानों की नाराजगी को कम करने के लिए प्रधानमंत्री ने यह घोषणा की है। लेकिन इस पर किसानों की पहली प्रतिक्रिया यह आई है कि वे आंदोलन खत्म करने नहीं जा रहे। पहले तो वे इस बात का इंतजार करेंगे कि संसद से यह कानून खत्म हो जाए, और उसके बाद वे इस बात के लिए लड़ाई जारी रखेंगे कि न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था को कानून की शक्ल मिले। किसानों के नेता राकेश टिकैत ने यह भी कहा कि हजारों किसानों पर तरह-तरह के मुकदमे दर्ज किए गए हैं, तो जब कभी भी सरकार की बनाई कमेटी से बात होगी, उसमें यह मुद्दा भी उठेगा कि आंदोलन खत्म करने के पहले ये सारे मुकदमे खत्म किए जाएं। उन्होंने कहा कि यह सोचना गलत होगा कि अपने सिर पर ऐसे मुकदमों का कानूनी बोझ लेकर किसान घर लौटेंगे।
विपक्ष के सबसे बड़े नेता राहुल गांधी लगातार किसानों के पक्ष में बयान देते आ रहे थे, और आज सुबह से उनका एक वीडियो भी तैर रहा है जिसमें वे दमखम के साथ यह कह रहे थे कि लोग लिखकर रख लें कि एक दिन मोदी सरकार को इन काले किसान कानूनों को वापस लेना पड़ेगा। साल भर से अधिक से चले आ रहे इस किसान आंदोलन के दौरान कांग्रेस के अलावा बहुत सी विपक्षी पार्टियों के लोग खुलकर आंदोलन के साथ में थे, फिर भी इस आंदोलन की कामयाबी यह रही कि वह अहिंसक भी बने रहा और गैर राजनीतिक भी। आज राहुल गांधी ने मोदी की घोषणा के बाद कहा कि अन्याय के खिलाफ जीत की बधाई, देश के किसानों ने अहंकारी सरकार को सत्याग्रह के माध्यम से झुकने के लिए मजबूर किया है। यह लोगों का देखा हुआ है कि किस तरह से वामपंथी पार्टियों के नेता, और वामपंथी किसान संगठनों के मुखिया लगातार किसान आंदोलन के साथ बने रहे. आज इस मौके पर सोशल मीडिया पर देश के हजारों लोगों ने यह याद किया कि किस तरह से 700 किसानों की शहादत के बाद केंद्र सरकार ने अपना इरादा बदला है, और कई लोगों ने यह भी कहा कि जिंदगियों का इतना बड़ा नुकसान होने के पहले भी केंद्र सरकार यह फैसला ले सकती थी। लोगों ने इस मौके पर यह भी याद किया कि भाजपा के बड़े-बड़े नेताओं ने केंद्र और उसकी राज्य सरकारों के मंत्रियों ने किस तरह किसानों को कभी खालिस्तानी कहा, कभी पाकिस्तानियों से मिला हुआ कहा, कभी देशद्रोही कहा, तो कभी कुछ और। इन्हें बड़े किसानों का और आढ़तियों का दलाल कहा गया, और इनके खिलाफ जितने तरह का दुष्प्रचार सत्तामुखी हो चुके टीवी चैनलों पर किया गया, उसे भी आज लोगों ने याद किया है, और यह सवाल खड़ा किया है कि इन टीवी चैनलों के लोग साल भर तक किसान आंदोलन को बदनाम करने के बाद आज किस तरह इस कानून की वापसी की तारीफ करेंगे, यह देखने लायक होगा।
यह बात बहुत जाहिर तौर पर दिख रही है कि उत्तर प्रदेश और पंजाब के विधानसभा चुनावों को लेकर केंद्र सरकार ने यह कड़वा घूंट पिया है, और किसानों के सामने, विपक्ष के समर्थन से चल रहे इस मजबूत आंदोलन के सामने अपनी हार मानी है। लेकिन किसानों का आंदोलन इन तीन कानूनों की वापसी या खात्मे से परे भी जारी रहना सरकार के सामने एक चुनौती रहेगा, लेकिन इसमें एक अच्छी बात यह होने जा रही है कि प्रधानमंत्री की बनाई हुई कमेटी में राज्यों को भी जोड़ा जा रहा है. किसानों के मुद्दों पर बिना राज्य सरकारों को भरोसे में लिए हुए, बिना उनका सहयोग मांगे हुए, और बिना उनकी हिस्सेदारी के राष्ट्रीय स्तर पर कोई भी फैसला करना गलत और मनमानी होगा। भारत के संघीय ढांचे के मुताबिक भी देशभर के लिए ऐसी कोई भी बड़ी नीति अगर बनती है, तो वह केंद्र सरकार की मनमानी के बजाय राज्य सरकारों की भागीदारी से बननी चाहिए। जिस वक्त संसद में ये तीनों कानून पास किए गए थे उस वक्त की बात भी लोगों को याद है कि किस तरह वहां एक बहुमत के आधार पर, बिना किसी अधिक चर्चा के, सत्तापक्ष ने इन कानूनों को बनवा दिया था। उस वक्त भी अगर एक खुली बहस इन पर हुई रहती, तो भी इन कानूनों की खामियां सामने आ गई रहतीं, लेकिन बहुमत की सरकार ने किसी असहमति की फिक्र नहीं की थी। और यह पहला मौका है जब एक मजबूत आंदोलन के चलते हुए, और विपक्ष के मजबूत समर्थन के जारी रहते हुए, बिना राजनीति, बिना हिंसा चल रहा प्रदर्शन सरकार को झुकने पर मजबूर कर गया।
ये कानून तो खत्म हो गए, लेकिन सत्तारूढ़ भाजपा के लोगों ने किसानों के खिलाफ जितने किस्म की अपमानजनक बातें कही थीं, और जिस तरह लखीमपुर खीरी में एक केंद्रीय मंत्री के बेटे ने अपनी गाड़ी से किसान आंदोलन के लोगों को कुचल कर मारा, वह सब कुछ बहुत ही भयानक अध्याय बनकर हमेशा लोगों को याद रहेगा। जब बहुत ही मजबूत केंद्र और राज्य की सत्ता अपनी मनमानी करती है, तो उसके लोग इस हद तक जुबानी और चक्कों की हिंसा पर भी उतर आते हैं। अभी तुरंत तो सामने खड़े हुए विधानसभा चुनाव मोदी सरकार और उनकी पार्टी को डरा रहे होंगे, इसलिए किसान आंदोलन के किसी नए ताजा बड़े दौर के बिना भी केंद्र सरकार ने खुद होकर यह सुधार कुछ उसी तरह किया है, जिस तरह पेट्रोल और डीजल के दाम कम किए हैं। पता नहीं जनता चुनाव तक इन फैसलों के पीछे की चुनावी मजबूरियों को याद रख पाएगी या भूलकर वोट देगी, जो भी हो किसान आंदोलन ने इस देश के किसी भी किस्म के आंदोलन के इतिहास में मील का एक नया पत्थर लगा दिया है जो कि देश के बहुत से लोकतांत्रिक आंदोलनों के लिए हमेशा ही एक मिसाल बना रहेगा। अब आने वाले दिनों में देखना है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आज घोषित की गई कमेटी कब तक बनती है और वह किस तरह किसानों के मुद्दों को आगे ले जाती है। इसमें छत्तीसगढ़ जैसे राज्य के मुद्दे भी सामने आएंगे जिसमें केंद्र सरकार ने यह शर्त रख दी थी कि अगर छत्तीसगढ़ धान पर बोनस देगा तो केंद्र सरकार उससे चावल नहीं खरीदेगी। आज दिल्ली में कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में इस बात को उठाया है, और देशभर के अलग-अलग राज्यों में इस तरह की जो भी और बातें होंगी, वे सब भी किसान-मुद्दों पर बनाई गई ऐसी राष्ट्रीय कमेटी में सामने आएंगी और उन पर राष्ट्रीय स्तर पर ही विचार होना चाहिए, जिनमें केंद्र और तमाम राज्यों की भागीदारी होनी चाहिए। ऐसा लगता है कि किसान कानूनों पर केंद्र सरकार के हाथ जिस तरह जले हैं, उससे उसने यह तय किया है कि आगे बचे हुए मुद्दों पर राज्यों को भी बातचीत में शामिल किया जाए।
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सुप्रीम कोर्ट का एक फैसला इस साल के शुरू से चले आ रहे एक तनाव को खत्म करने वाला रहा। मुंबई हाई कोर्ट की नागपुर बेंच की एक महिला जज ने जनवरी में फैसला दिया था कि अगर किसी बच्ची के बदन को कोई व्यक्ति कपड़ों के ऊपर से छूता है, और अगर चमड़ी से चमड़ी का संपर्क नहीं होता है, तो उस पर यौन शोषण वाला पॉक्सो कानून लागू नहीं होगा। यह फैसला आते ही विवादों से घिर गया था और इसके ठीक अगले ही दिन इस अखबार ने इसी जगह पर इसके खिलाफ जमकर लिखा था। उस संपादकीय में हमने यह भी लिखा था कि सुप्रीम कोर्ट को खुद ही इस फैसले के खिलाफ सुनवाई करनी चाहिए और इस फैसले को तुरंत खारिज करके इस महिला जज को आगे इस तरह के किसी मामले की सुनवाई से अलग भी रखना चाहिए। यह मामला एक आदमी द्वारा 12 बरस की एक बच्ची को लालच देकर घर में बुलाने और उसके सीने को छूने, उसके कपड़े उतारने की कोशिश का था, जिस पर जिला अदालत ने उसे पॉक्सो एक्ट के तहत 3 साल की कैद सुनाई थी। नागपुर हाई कोर्ट बेंच की महिला जज ने इस सजा को खारिज कर दिया था और कहा था कि जब तक चमड़ी से चमड़ी न छुई जाए तब तक पॉक्सो एक्ट लागू नहीं होता।
अभी सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में हाईकोर्ट के फैसले को बेतुका करार दिया और खारिज कर दिया। हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ भारत के महान्यायवादी, राष्ट्रीय महिला आयोग, और महाराष्ट्र शासन अपील में गए थे जिस पर यह फैसला आया। सुप्रीम कोर्ट के 3 जजों की बेंच ने यह कहा कि पॉक्सो की शर्तों को चमड़ी से चमड़ी छूने तक सीमित करना इस कानून की नीयत को ही खत्म कर देगा जो कि बच्चों को यौन अपराधों से बचाने के लिए बनाया गया है। सुप्रीम कोर्ट ने फैसले में कहा कि ऐसी परिभाषा निकालना बहुत संकीर्ण होगा और यह इस प्रावधान की बहुत बेतुकी व्याख्या भी होगी। यदि इस तरह की व्याख्या को अपनाया जाता है तो कोई व्यक्ति किसी बच्चे को शारीरिक रूप से टटोलते समय दस्ताने या किसी और कपड़े का उपयोग कर ले, तो उसे अपराध के लिए दोषी नहीं ठहराया जाएगा, और यह बहुत बेतुकी स्थिति होगी। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि कानून का मकसद मुजरिम को कानून की पकड़ से बचने की इजाजत देना नहीं हो सकता। अदालत ने फैसले में कहा कि जब कानून बनाने वाली विधायिका ने अपना इरादा स्पष्ट रखा है तो अदालतें उसे अस्पष्ट नहीं कर सकतीं, किसी कानून को अस्पष्ट करने में न्यायालय को अतिउत्साही नहीं होना चाहिए। एक जज ने इस फैसले से सहमतिपूर्ण, लेकिन अलग से फैसला लिखा और कहा कि हाईकोर्ट के विचार ने एक बच्चे के प्रति नामंजूर किए जाने लायक व्यवहार को वैध बना दिया। सुप्रीम कोर्ट ने और भी बहुत सी बातें हाई कोर्ट की इस महिला जज के फैसले के बारे में लिखी हैं, लेकिन उन सबको लिखना यहां प्रासंगिक नहीं है।
जब हाई कोर्ट का यह फैसला आया था उसके अगले ही दिन हमने इसी जगह पर लिखा था- ‘बाम्बे हाईकोर्ट की नागपुर बेंच की जज पुष्पा गनेडीवाला ने लिखा है- सिर्फ वक्ष स्थल को जबरन छूना मात्र यौन उत्पीडऩ नहीं माना जाएगा इसके लिए यौन मंशा के साथ स्किन टू स्किन संपर्क होना जरूरी है। हाईकोर्ट का यह फैसला अगर कानून के पॉस्को एक्ट के शब्दों की सीमाओं में कैद है, तो यह शब्दों का गलत मतलब निकालना है। जितने खुलासे से इस मामले के यौन शोषण की जानकारी लिखी गई है, वह मंशा भी दिखाने के लिए काफी है, और बच्ची तो नाबालिग है ही इसलिए पॉस्को एक्ट भी लागू होता है। एक महिला जज का यह फैसला और हैरान करता है कि क्या यह कानून सचमुच ही इतना खराब लिखा गया है? और अगर कानून इतना खराब है तो उसे बदलने और खारिज करने की जरूरत है। फिलहाल तो कानून के जानकार लोग हाईकोर्ट के इस फैसले को पूरी तरह से गलत मान रहे हैं, और सुझा रहे हैं कि इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जानी चाहिए। कानून के एक जानकार ने कहा है कि पॉस्को एक्ट में कहीं भी कपड़े उतारने पर ही जुर्म मानने जैसी बात नहीं लिखी गई है, यह हाईकोर्ट ने अपनी तरफ से तर्क दिया है।’
हमने लिखा था- ‘अब सवाल यह है कि कई बरस मुकदमेबाजी के बाद तो जिला अदालत से सजा मिलती है, वह अगर कई बरस चलने के बाद हाईकोर्ट से इस तरह खारिज हो जाए तो सुप्रीम कोर्ट में जाने और कितने बरस लगेंगे। ऐसी ही अदालती बेरूखी, और उसके भी पहले पुलिस की गैरजिम्मेदारी रहती है जिसके चलते शोषण की शिकार लड़कियां और महिलाएं कोई कार्रवाई न होने पर खुदकुशी करती हैं। बाम्बे हाईकोर्ट के इस फैसले के खिलाफ सोशल मीडिया पर आज खूब जमकर लिखा जा रहा है, और लिखा भी जाना चाहिए। एक विकसित राज्य के हाईकोर्ट की महिला जज अगर यौन शोषण की शिकार एक लडक़ी के हक के बारे में सोचने के बजाय ऐसे दकियानूसी तरीके से बलात्कारी या यौन शोषण करने वाले के पक्ष में कानूनी प्रावधान की गलत व्याख्या कर रही है, तो निचली अदालत के जजों से क्या उम्मीद की जा सकती है? बाम्बे हाईकोर्ट का यह फैसला इस मायने में भी बहुत खराब है कि जज उस आदमी का पॉस्को एक्ट के तहत गुनाह नहीं देख रही है जो कि एक नाबालिग बच्ची को बरगला कर घर ले गया, और कपड़ों के ऊपर से उसका सीना थाम रहा है, उसके कपड़े उतारने की कोशिश कर रहा है। अगर यह सब कुछ यौन उत्पीडऩ की श्रेणी में नहीं आता, तो फिर यौन उत्पीडऩ और होता क्या है? हाईकोर्ट की महिला जज ने इस एक्ट के तहत शरीर से शरीर के सीधे संपर्क की जो अनिवार्यता बताई है, उसे कानून के जानकारों ने खारिज किया है कि पॉस्को एक्ट में ऐसी कोई शर्त नहीं है। हमारा तो यह मानना है कि अगर एक्ट में ऐसी कोई नाजायज शर्त होती भी, तो भी हाईकोर्ट जज को उसकी व्याख्या करके उसके खिलाफ लिखने का हक हासिल है, लेकिन इस जज ने ऐसा कुछ भी नहीं किया।’
हमने फैसले के अगले ही दिन लिखा था-‘हिन्दुस्तान में एक बड़ी दिक्कत यह भी है कि लड़कियों और महिलाओं की शिकायत को, बच्चों की शिकायत को भरोसेमंद नहीं माना जाता, और उन्हें आसानी से खारिज कर दिया जाता है। हाईकोर्ट के इस फैसले के तहत अगर किसी बच्चे का यौन शोषण कपड़ों के ऊपर से हो रहा है, तो उसके खिलाफ कानून लागू ही नहीं होता। यह बच्चों का यौन शोषण करने वालों का हौसला बढ़ाने वाला फैसला है, और देश भर की अदालतों में जहां-जहां पॉस्को एक्ट के तहत ऐसी हालत वाले मामले रहेंगे, वहां-वहां इस फैसले का बेजा इस्तेमाल किया जाएगा। इसलिए इस फैसले के खिलाफ तुरंत ही सुप्रीम कोर्ट में अपील करनी चाहिए, और सुप्रीम कोर्ट को इसे तुरंत सुनवाई के लिए लेना चाहिए इसके पहले कि देश भर के इस किस्म की बलात्कारी अपनी सुनवाई में इसका फायदा उठा सकें। सुप्रीम कोर्ट को इस मामले में फैसला देते हुए ऐसी सोच रखने वाली महिला जज को इस किस्म के अगले मामलों से परे भी रखना चाहिए।’
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हत्या और आत्महत्या की दो अलग-अलग खबरें ऐसी आई हैं जो बताती हैं कि हिंदुस्तानी समाज में लडक़ी की क्या हालत है, पहले कम हिंसक खबर देखें तो छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में एक युवती की शादी कहीं पर तय हुई, तो उसके प्रेमी या दोस्त ने सडक़ पर उसे पीट डाला। उसने घर जाकर आत्महत्या कर ली। और दूसरी खबर मध्यप्रदेश के भोपाल से है जहां पर एक लडक़ी ने समाज से बाहर शादी कर ली थी, और उसका परिवार उससे नाराज चल रहा था। शादी के बाद उस लडक़ी का एक बच्चा हुआ जो 6 महीने का था और जिसकी मौत हो गई। उस बच्चे को दफनाने के नाम पर इस लडक़ी का पिता और भाई पहुंचे और दफनाने के लिए जंगल ले जाते हुए वह लडक़ी भी साथ चली गई। वहां पर उसके पिता ने पहले अपनी बेटी से बलात्कार किया और फिर उसका गला घोंटकर कत्ल कर दिया फिर बाप-बेटे उस लडक़ी की लाश और उसके बच्चे की लाश को जंगल में फेंककर आ गए। पुलिस ने बाप-बेटे को गिरफ्तार कर लिया है, और 55 बरस के बाप ने अपना कुसूर मान लिया है कि वह बेटी के प्रेम विवाह से नाराज था। यह पूरी जानकारी पुलिस ने एक प्रेस कांफ्रेंस करके दी है।
यह समझ नहीं पड़ता है कि हिंदुस्तानी लडक़ी के हक इंसानों की तरह कुछ हैं भी या कुछ भी नहीं हैं? कहीं उसकी दोस्ती किसी और से है, और मां-बाप किसी और जगह शादी तय कर रहे हैं, तो वह दोस्त या प्रेमी से सडक़ पर पिट रही है और तकलीफ में खुदकुशी कर रही है। दूसरी तरफ परिवार की इज्जत के नाम पर बाप अपनी बेटी से उसके बच्चे की लाश के बगल में बलात्कार कर रहा है, और उसका बेटा बहन से हो रहे इस बलात्कार में बाप का साथ दे रहा है। फिर बाप-बेटे मिलकर उसका कत्ल कर दे रहे हैं, और लाश को फेंककर घर चले आ रहे हैं। जाति के बाहर शादी करने का यह गुनाह कितना बड़ा है जिसके लिए अपनी बेटी के तकलीफ के ऐसे वक्त में जब उसने अपना बच्चा खोया ही है, वह अपना बाप भी खो दे रही है, बाप की शक्ल में एक इंसान को भी खो दे रही है, भाई की इंसानियत भी खो दे रही है, जिस भाई को उसने रक्षा बंधन पर राखी बांधी रही होगी, उसने यह किस किस्म की रक्षा दी उसे! ऐसा कितना बड़ा गुनाह उसने किया था जिसकी ऐसी सजा उसको दी गई ? और परिवार की ऐसी कौन सी इज्जत थी जो लडक़ी की शादी से तबाह हो गई थी, और जिसे वापस लाने के लिए बाप अपनी बेटी से बलात्कार कर रहा है?
हिंदुस्तान में वैसे तो हर महीने कहीं न कहीं ऑनर किलिंग कही जाने वाली ऐसी हत्याएं होती हैं, लेकिन यह हत्या तो सबसे ही भयानक है। ऐसा तो किसी कहानी में भी अभी तक पढऩे में नहीं आया था कि बेटी पहली बार मां बनी, उसने अपने बच्चे को खो दिया, और उसकी लाश के बगल उससे रेप करके बाप-भाई उसे भी मार डालें। जाति और परिवार की इज्जत, धर्म की इज्जत का यह पाखंड इंसानों को इतना घिनौना मुजरिम बना दे रहा है कि इससे लोगों को ऐसी हिंसक जाति और धर्म की व्यवस्था से नफरत होने लगे, या दहशत होने लगे, या दोनों होने लगे। यह भी सोचने की जरूरत है कि जो परिवार या समाज इस तरह की सोच का शिकार है कि परिवार की और जाति की कोई ऐसी इज्जत होती है जो कि बाप-बेटी के रिश्ते से भी ऊपर हो, जो कि एक छोटे बच्चे की मौत की तकलीफ से भी ऊपर हो और जो बेटी पर बलात्कार करने के जुर्म के डर से भी ऊपर हो। इस बारे में क्या कहा जाए, शब्द कम पड़ रहे हैं, और शब्द कमजोर भी पढ़ रहे हैं।
हिंदुस्तान में देवियों की पूजा बहुत प्रचलन में है। नवरात्रि पूरी होती है तो अष्टमी के दिन उत्तर भारत और बाकी कई प्रदेशों में छोटी बच्चियों को खिलाने की कन्या भोज की प्रथा सडक़ों पर दिखती है। लोग तरह-तरह की देवियों की तरह तरह से पूजा करते हैं, हिंदुओं के साल के सबसे बड़े त्यौहार दिवाली पर लक्ष्मी की पूजा होती है, गुजरात में दुर्गा की पूजा होती है, और बंगाल में दुर्गा के एक दूसरे स्वरूप की पूजा होती है। इन सब जगहों पर देवियों की यही पूजा साल की सबसे बड़ी पूजा रहती है। बंगाली जहां-जहां बसते हैं वहां वे एक दूसरी देवी, काली के नाम पर कालीबाड़ी बनाते हैं, उत्तर भारत में तमाम जगहों पर स्कूलों में सरस्वती की पूजा होती है। देवियों की इतनी पूजा करने वाले लोग जिंदा देवियों को पैदा होने के पहले से मारना शुरू करते हैं, घरों में बेटों के मुकाबले उन्हें कम खाना देते हैं, उन्हें कम पढ़ाते हैं, उनका कम इलाज करवाते हैं, और उनकी शादी करके उन्हें यह कहकर विदा करते हैं कि लडक़ी की डोली बाप के घर से उठती है, और अर्थी पति के घर से ही उठती है। इस तरह उसे बाकी पूरी जिंदगी के लिए वनवास पर भेजने की तरह पिता के घर से निकाल दिया जाता है। देश में जगह-जगह, कहीं लडक़ी को मंदिरों में देवदासी बनाया जाता है, और उससे देह का धंधा करवाया जाता है, तो कहीं और उसे पति के गुजरने पर सती बना दिया जाता था, जो कि अब कड़े कानून की वजह से खत्म हुआ है। एक अकेली शाहबानो को सुप्रीम कोर्ट ने उसका हक़ दिलाने की कोशिश की, तो देश की भारी बहुमत वाली सरकार ने संसद में शाहबानो को कुचल डाला था।
अधिक लड़कियां पैदा करने पर बहू को मार देने की एक खबर कल ही आई है कि तीन बेटियां पैदा करने वाली बहू को ससुराल ने मार डाला। हिंदुस्तान ऐसे विरोधाभासों से भरा हुआ ऐसा पाखंडी देश है जो कि पत्थर और मिट्टी की देवियों की, मूर्तियों की तो पूजा करता है, लेकिन जिंदा देवियों को तरह-तरह से मारता है जिसमें आज तक का एक सबसे ऊंचा पैमाना भोपाल में सामने आया है, जिसमें जाति के बाहर शादी करने की सजा देने के लिए बाप ने बेटी से बलात्कार करके उसको कत्ल कर दिया। अब देखना यह है कि परिवार की इज्जत किसने बचाई और किसने बिगाड़ी? क्या बेटी ने इज्जत बिगाड़ दी और बाप ने सुधार दी?
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सुप्रीम कोर्ट में मामले की सुनवाई के दौरान देश के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमन्ना ने केंद्र सरकार के वकील तुषार मेहता से कहा कि वे बहुत अच्छी अंग्रेजी नहीं जानते क्योंकि उन्होंने आठवीं के बाद अंग्रेजी पढऩा शुरू किया। यह बात तुषार मेहता और रमन्ना जस्टिस रमन्ना दोनों के बीच एक ही किस्म की थी क्योंकि अप भी पढ़ाई-लिखाई का ऐसा भी इतिहास तुषार मेहता ने भी रखा। यह मुद्दा इसलिए उठा कि केंद्र सरकार का पक्ष रखते हुए तुषार मेहता ने दिल्ली के ताजा प्रदूषण के लिए किसानों को जिम्मेदार ठहराने से अपनी बात शुरू की। इस पर तुरंत ही मुख्य न्यायाधीश ने आपत्ति की। तब सरकारी वकील ने साफ किया कि उनकी बात का यह मतलब बिल्कुल न निकाला जाए कि केंद्र सरकार किसानों को ही जिम्मेदार मान रही है, और वे सिलसिलेवार तरीके से बाकी पहलुओं को भी पेश करने जा रहे हैं। इस मुद्दे पर दोनों ने अपने अपने स्कूल और कॉलेज की पढ़ाई के बारे में बात रखी।
दरअसल हिंदुस्तान ही नहीं दुनिया के अधिकतर देशों में अभावग्रस्त स्कूलों से पढक़र निकले हुए बच्चों को कई तरह की दिक्कत आगे चलकर झेलनी पड़ती है। इन अभावों के अलावा हिंदुस्तान जैसे देश में अंग्रेजी भाषा का अपना एक महत्व है क्योंकि मुख्य न्यायाधीश तेलुगू स्कूल से पढक़र निकले थे, और उस तेलुगु भाषा का सुप्रीम कोर्ट में कोई काम नहीं है। सुप्रीम कोर्ट में तो हिंदी भाषा का भी कोई काम नहीं है, वहां पर तो हर कागज अंग्रेजी में दाखिल करना पड़ता है, और सारी बातचीत भी अंग्रेजी में होती है। यह बात समय-समय पर उठी है, और मौजूदा चीफ जस्टिस, जस्टिस रमन्ना ने ही यह बात कही थी कि वकीलों के मुवक्किल अंग्रेजी भाषा न जानने की वजह से यह भी नहीं समझ पाते कि उनके वकील उनकी बात को दमखम से रख रहे हैं या नहीं। भाषा की एक बहुत बड़ी ताकत होती है, और हिंदुस्तान में अंग्रेजी ही ताकतवर जुबान है। सत्ता और सरकार से लेकर कारोबार तक हर जगह अंग्रेजी का बोलबाला रहता है, और बड़ी अदालतों में तो अंग्रेजी के अलावा किसी और जुबान में काम होता नहीं है। इसलिए यह जुबान ही हिंदुस्तान की कई चीजों को महंगा बना देती है।
फिर भाषा के अलावा कुछ और चीजें भी हैं जो कि लोगों के बीच भेदभाव खड़ा करती हैं। भाषा जानने के बाद भी अगर उस भाषा की बारीकियां न जाने, उसके व्याकरण को न जाने, उसके हिज्जे और उच्चारण को सही-सही ना समझें तो भी जानकार लोग कमजोर लोगों की खिल्ली उड़ाने में पीछे नहीं रहते। जबकि हकीकत यह है कि किसी भी जुबान में हिज्जों और उच्चारण का इस्तेमाल उस भाषा को सिखाने के लिए तो जरूरी है, लेकिन उस भाषा में कामकाज के लिए उसका एक सीमित उपयोग रहता है। अधिकतर काम मामूली गलतियों वाली भाषा के साथ चल सकता है, और चलता है। आज हिंदुस्तान के सोशल मीडिया में हिंदी में लिखने वाले बहुत ही शानदार और दमदार लेखक ऐसे हैं जो कि बड़े वजनदार सोच लिखते हैं, लेकिन उनकी टाइपिंग में कई किस्म की गलतियां रह जाती हैं। अब या तो उन गलतियों पर ही ध्यान दिया जाए, या फिर जिन मुद्दों को वे उठा रहे हैं और जिन सामाजिक सरोकारों पर लिख रहे हैं, उन पर ध्यान देते हुए उनकी भाषा की गलतियों को, या टाइपिंग की गलतियों को भूल जाया जाए।
हमारा तो हमेशा से यही मानना रहता है कि भाषा की शुद्धता को एक शास्त्रीय स्तर तक ले जाना उसे लोगों से काट देने जैसा है ,क्योंकि आम लोग व्याकरण की बारीकियों को समझकर, अगर उसका ख्याल रखकर लिखेंगे और बोलेंगे, तो शायद वे कभी बोल नहीं पाएंगे। और यह बात यहीं नहीं, यह बात अंग्रेजी जुबान के साथ भी है, और हो सकता है कि दूसरी भाषाओं के साथ भी हो। अंग्रेजी में देखें तो एक जैसे हिज्जे वाले शब्दों के बिल्कुल ही अलग-अलग किस्म के उच्चारण किसी भी नए व्यक्ति को वह भाषा सीखते समय मुश्किल खड़ी कर देते हैं। इसके बाद अंग्रेजी के कई अक्षर मौन रहते हैं, और वह मौन क्यों रहते हैं इसे खासे पढ़े-लिखे लोग भी नहीं समझ पाते। ऐसे में अंग्रेजी को पूरी तरह से सही समझ पाना और लिख-बोल पाना मुश्किल हो जाता है। अब अगर कोई यह सोचे कि जिसे पूरी तरह से सही अंग्रेजी ना आए, वे अंग्रेजी में काम ही न करें, तो यह उस भाषा से लोगों को तोडऩा हो जाएगा। ऐसा ही हिंदुस्तान में सही हिंदी को लेकर है, और अब तो एक दिक्कत और होती है कि कंप्यूटरों पर हिंदी टाइप करने के लिए लोग बोलकर भी टाइप कर लेते हैं, लेकिन ऐसा करते हुए हिज्जों की कई तरह की गलतियां रह जाती हैं। अब लोग अगर यह चाहेंगे कि उनके लिखे हुए में जब कोई भी गलती न बचे तभी वे उसे सोशल मीडिया पर पोस्ट करें, तो ऐसे में उनका लिखना ही बहुत कम हो पाएगा। आज अधिक जरूरत जनचेतना, जागरूकता, और सरोकार की है। आज अधिक जरूरत इंसाफ और अमन की बात करने वालों की है। ऐसे में अगर भाषा की मामूली कमजोरी रह भी जाती है तो भी उसकी अधिक परवाह नहीं करना चाहिए। आज सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश किसी बड़ी अंग्रेजी स्कूल में नहीं पढ़े हैं, लेकिन उनके फैसले बहुत लोकतान्त्रिक, और जनता के हिमायती हैं। भाषा की लफ्फाजी बहुत ऊँचे दर्जे की होती, और इंसाफ कमजोर होता, तो वैसी अंग्रेजी किस काम की होती?
भाषा हो या संगीत, या कोई और कला, उसमें जब किसी शास्त्रीयता के नियम कड़ाई से लाद दिए जाते हैं, तो फिर उस भाषा को बोलने वाले कमजोर तबकों के लोगों को काट दिया जाता है, यह सिलसिला खराब है। सही भाषा बहुत अच्छी बात है लेकिन भाषा की मामूली कमजोरी को किसी इंसान की ही पूरी कमजोरी मान लेना बेइंसाफी की बात है। दुनिया के बहुत से सैलानी तो सौ दो सौ शब्दों की जानकारी रखकर किसी दूसरी भाषा वाले देश भी घूम आते हैं। वह तो वहां पूरा वाक्य भी नहीं बना पाते, लेकिन अपना काम पूरा चला लेते हैं।
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दिल्ली का प्रदूषण न सिर्फ देश में सबसे अधिक बुरा प्रदूषण बन चुका है, बल्कि सुप्रीम कोर्ट के जजों के फेफड़ों को क्योंकि वह सीधे प्रभावित करता है, इसलिए उस पर सुनवाई लगातार होती है। कई बरस हो गए, दिल्ली के प्रदूषण पर अदालत तरह-तरह से केंद्र सरकार और दिल्ली सरकार को कटघरे में लाती है, और फसलों के ठूंठ (पराली) जलाने के मामले में दिल्ली से लगे हुए दूसरे कुछ राज्यों के किसानों पर भी तरह-तरह की तोहमत ये दोनों सरकारें लगाती हैं। आज दिलचस्प बात यह रही कि सुप्रीम कोर्ट में जब केंद्र सरकार और दिल्ली सरकार के वकीलों ने उनके तर्क रखे, तो जजों ने कम से कम दिल्ली सरकार को बहुत बुरी तरह खारिज कर दिया, और मामले से जुड़े हुए मुद्दों से आगे बढ़ते हुए जजों ने कहा कि बेकार के बहाने बनाना ठीक नहीं है, ऐसे में लोकप्रियता के नारों पर दिल्ली सरकार जो खर्च करती है, उसका ऑडिट करवाने के लिए अदालत मजबूर होगी।
केंद्र सरकार और दिल्ली सरकार की आपसी राजनीति भी है जिसके चलते हुए दोनों एक-दूसरे को कभी-कभी घेरने का काम भी करती हैं। अदालत में केंद्र सरकार के वकील ने बतलाया कि प्रदूषण में किसानों के खेत में ठूंठ जलाने से 10 फ़ीसदी हिस्सा ही जुड़ा है, और बाकी प्रदूषण दूसरी वजहों से हो रहा है। यह तमाम दूसरी वजहें दिल्ली सरकार के दायरे की हैं, और इसीलिए मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि फसल के ठूंठ जलाने के अलावा कंस्ट्रक्शन, बिजली, ट्रांसपोर्ट, और धूल जैसे मुद्दे भी हैं। अदालत ने इस पर तुरंत ही बैठक करके यह योजना लाने के लिए कहा है कि कल शाम तक इस पर कैसे अमल किया जा सकता है. उसने इतना भी सवाल किया है और क्या दिल्ली आने वाली तमाम गाडिय़ों को रोक दिया जाए?
दिल्ली का प्रदूषण बहुत खतरनाक है और वहां रहने वाले लोगों की सेहत के लिए यह हर बरस कई महीनों तक खतरा बने रहता है, अभी भी है। दिल्ली में सरकारी और निजी बड़े-बड़े अस्पतालों में रोजाना लाख-पचास हजार मरीज पहुंचते हैं, और उनमें से दसियों हजार इलाज के लिए भर्ती भी रहते हैं। इसलिए इनकी तकलीफ और दिक्कतों में प्रदूषण से और इजाफा ही होता होगा। पिछले दिनों हमने इसी जगह देश के प्रदूषण, और खासकर दिल्ली के प्रदूषण को लेकर बार-बार लिखा है कि सुप्रीम कोर्ट पटाखों पर लगाए गए प्रतिबंधों को किसी अमल के लायक नहीं लिख पाया, और उसके आदेश से न तो पटाखे रुकने थे, और न रुके। हमने यह बात भी लिखी थी कि पश्चिम बंगाल हाईकोर्ट ने जब अलग-अलग धर्मों के कई त्योहारों पर पटाखों पर पूरी की पूरी रोक लगा दी थी, तो सुप्रीम कोर्ट ने उस आदेश को पलट दिया। सुप्रीम कोर्ट ने खुद ही एक अजीब सी नामुमकिन नौबत सरकार और पुलिस के सामने खड़ी कर दी कि मानोकुछ हजार पुलिस वाले दिवाली की रात पटाखे फोडऩे वाले लोगों को लाखों की संख्या में गिरफ्तार कर सकते हैं, या लाखों मामले दर्ज कर सकते हैं। अदालत को कोई आदेश देने के पहले यह भी तो सोच लेना चाहिए कि उस पर अमल करना मुमकिन होगा या नहीं।
अभी भी वक्त है सुप्रीम कोर्ट हर दिवाली के आसपास कुछ हफ्ते तक दिवाली, फसल, मौसम, और बाकी के समय के प्रदूषण को मिलाकर सुनवाई करना बंद करे, और अभी से अगले दिवाली के लिए यह तय करे कि देश में किसी भी तरह के पटाखे न बनाए जाएं और न फोड़े जाएं। पटाखे न तो किसी धर्म का हिस्सा हैं, और न ही लोकतंत्र में पटाखे फोडऩे का हक जरूरी है। आज के वक्त में जब प्रदूषण इतनी बड़ी दिक्कत बन चुका है कि सुप्रीम कोर्ट की एक बड़ी बेंच बैठकर केवल इसी मामले की सुनवाई कर रही है तो अदालत को देश में हवा जहरीली करने वाले पटाखों पर पूरी की पूरी रोक लगानी चाहिए। यह सिलसिला हर बरस दिवाली मनाने की तरह, हर बरस अदालती सुनवाई करने जैसा नहीं हो जाना चाहिए। लोकतंत्र में पुलिस की काम करने की एक सीमा है और वह सारी की सारी जनता को त्यौहार के बीच में पटाखे जलाने से रोककर एक नए किस्म का दंगा खड़ा नहीं कर सकती। इसलिए अदालत को जमीनी हकीकत को थोड़ा सा समझना चाहिए, वरना लोग यह मानकर चलेंगे कि जज बड़ी ऊंची-ऊंची मीनारों में बैठे रहते हैं, जिन्हें यह भी पता नहीं रहता कि पुलिस क्या कर सकती है और क्या नहीं कर सकती।
पटाखों से परे कुछ और चीजों के बारे में सोचने की जरूरत है जिसमें दिल्ली पर तो फोकस रहेगा ही, लेकिन बाकी देश में भी उस पर अमल करना चाहिए। दिल्ली में चूंकि पैसा बहुत है, सरकारी फिजूलखर्ची बहुत है, देश भर की राज्य सरकारों के दफ्तर और अफसर भी दिल्ली में बसे हुए हैं, और दिल्ली में दुनिया भर के विदेशी दूतावास और अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के दफ्तर भी हैं, इसलिए वहां पर गाडिय़ों में कोई कमी नहीं होती है। इतने बड़े-बड़े कारोबारी हैं कि वे परिवार के लिए कई-कई गाडिय़ां रख सकते हैं, ड्राइवर रख सकते हैं, और पूरे वक्त सडक़ पर डीजल-पेट्रोल जला सकते हैं। ऐसे शहर में जब तक सार्वजनिक परिवहन को बढ़ावा नहीं मिलेगा, जब तक हर आय वर्ग के लोगों के लिए तरह तरह की बसों का पूरा इंतजाम नहीं होगा, तब तक निजी गाडिय़ों का इस्तेमाल नहीं घट सकता। लेकिन यह बात पूरे देश पर लागू होती है, और देश के अधिकतर शहरों में सार्वजनिक परिवहन को बढ़ाने की जरूरत है। निजी गाडिय़ां लगातार बढ़ रही हैं, और उससे सरकार को एक टैक्स तो मिलता है लेकिन उससे सडक़ों को एक अंधाधुंध दबाव भी मिलता है, बढ़ा हुआ ट्रैफिक जाम भी मिलता है। इसलिए गाडिय़ों की बिक्री को बहुत अच्छी बात मानना ठीक नहीं होगा, और मेट्रो, बस, लोकल ट्रेन, इनका जो भी इंतजाम जहां हो सकता है, वह किया जाना चाहिए ताकि निजी गाडिय़ों का इस्तेमाल कम से कम हो सके। वैसे भी इस बात को समझने की जरूरत है कि जिस रफ्तार से गाडिय़ां बढ़ती जा रही हैं शहरों में सडक़ें वैसे भी इतनी गाडिय़ों को झेल नहीं पाएंगी और थमा हुआ ट्रैफिक सबसे बुरा प्रदूषण पैदा करते रहेगा। इस काम को केंद्र सरकार को बड़े पैमाने पर देश के तमाम शहरों के लिए बढ़ावा देना चाहिए ताकि डीजल का धुआँ कम हो सके। लोगों को उनकी खर्च करने की ताकत के मुताबिक सहूलियत, और शान-शौकत वाले सार्वजनिक परिवहन जब तक मुहैया नहीं कराए जाएंगे, तब तक यह प्रदूषण बढ़ते ही चले जाएगा।
सरकार को आज पूरी दुनिया में चल रही एक दूसरी चर्चा पर भी गौर करना चाहिए कि हिंदुस्तान में कौन-कौन से ऐसे काम है जिन्हें घर पर रहकर किया जा सकता है, जिसके लिए लोगों को काम की जगह पर आना-जाना कम पड़े। यह भी सोचना चाहिए कि क्या अलग-अलग किस्म के दफ्तरों को अलग-अलग दिनों पर, या अलग-अलग वक़्त पर खोलने और बंद करने का कोई ऐसा तरीका निकाला जा सकता है जिससे सडक़ों पर हर दिन कुछ लोगों की भीड़ कम रहे। केंद्र सरकार को दिल्ली से बहुत से सरकारी दफ्तर दूसरे शहर भेजने के बारे में भी सोचना चाहिए। यह तमाम नए तौर-तरीके रहेंगे और केंद्र और राज्य सरकारों को अपने-अपने स्तर पर इनके बारे में फिक्र करनी चाहिए। आज दुनिया के बहुत से देशों में महामारी के चलते घर से काम को बढ़ावा मिला है, और भारत में भी कम से कम बड़े शहरों में इसके कुछ हिस्सों पर तो अमल किया ही जा सकता है। अब देखना यही है कि कल शाम तक केंद्र सरकार और दिल्ली सरकार कौन सी बंदिशें लागू करने की बात सुप्रीम कोर्ट को बताती हैं, और क्या सुप्रीम कोर्ट महीने-दो महीने की सुनवाई के बाद इस मामले को अगले साल तक फिर छोड़ देगा, या अगली दिवाली और अगले ठंड के मौसम का भी कोई इलाज अभी से करेगा।
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उत्तर प्रदेश के बरेली से एक दिल दहलाने वाली खबर सामने आई है जिसमें एक महिला ने अपने दो बच्चों का गला घोंटकर उन्हें मार डाला और सुबह घरवालों को कहा कि रात सपने में देवी दुर्गा आई थीं, और उन्होंने बच्चों को मार देने के लिए कहा था, इसलिए उसने उनका गला घोंट दिया। सात बरस पहले उसकी शादी हुई थी, और दो बरस का बेटा, छह महीने की बेटी, दोनों को उसने खत्म कर दिया, और खुद जेल चली गई। यह बात पूरी तरह से अभूतपूर्व तो नहीं है क्योंकि कभी-कभी, किसी न किसी प्रदेश से ऐसी खबर आती है कि किसी देवी या देवता का हुक्म मानकर लोग अपने ही घर के लोगों को मार डालते हैं। दरअसल लोगों के मन में अंधविश्वास इतना गहरा बैठा हुआ है कि वह बैठे-बैठे ऐसे सपने देखने लगते हैं, उन्हें ऐसा एहसास होने लगता है कि उन्हें देवी-देवता कोई हुक्म दे रहे हैं, और कोई अपनी जीभ काटकर मंदिर में प्रतिमा पर चढ़ा देते हैं, तो कोई घर के लोगों को मार डालते हैं।
ऐसा सिर्फ देवी-देवताओं के लिए होता है यह भी नहीं है, बहुत से लोग अपने आध्यात्मिक गुरुओं को लेकर इसी तरह का अंधविश्वास दिखाते हैं, और परिवार के लोगों को भी ले जाकर बलात्कारी बाबाओं को समर्पित कर देते हैं। जिस मामले में आसाराम नाम का तथाकथित बापू कैद काट रहा है, उसमें जिस नाबालिग बच्ची से उसने बलात्कार किया था वह उसके भक्तों की बेटी ही थी। ऐसा भी नहीं कि जो लोग बेटी पैदा कर चुके हैं, और बेटी स्कूल तक पहुंच चुकी है, उन मां-बाप को बाबाओं से बेटी को किसी तरह के खतरे का अहसास न रहा हो। लेकिन अंधविश्वास ऐसा रहता है कि लोग अपने पर, अपने परिवार पर होने वाले बलात्कार को भी खुशी-खुशी मंजूर करते हैं। ऐसा ही हाल इस महिला का था जिसने देवी के उस तथाकथित आदेश को पूरा करने के लिए अपने ही बच्चों को मार डाला। बहुत सारी महिलाएं ऐसी रहती हैं जो एक बच्चे की हसरत लिए हुए कई किस्मों के बाबाओं से बलात्कार करवाने की हद तक चली जाती हैं। और इस महिला ने अंधविश्वास में अपने बच्चों को इस तरह खत्म कर दिया, और खुद की भी लंबी जिंदगी जेल में कटने का इंतजाम कर लिया है।
इस बात को बार-बार जोर देकर लिखने की जरूरत रहती है कि किसी देश या समाज में अंधविश्वास से आजादी पाना बहुत मायने रखता है। यह बात न सिर्फ हत्या और आत्महत्या जैसी बड़ी खबरों में उभरकर दिखती है, बल्कि जिंदगी की छोटी-छोटी बातों में भी यह अंधविश्वास लोगों के लिए अड़ंगा बनकर खड़ा हो जाता है। अंधविश्वास के चलते लोग यह समझ नहीं पाते कि तरह-तरह के जादू-टोने और तंत्र मंत्र का पाखंड उनका नुकसान कर रहा है। लोग तरह-तरह के मुहूर्त देखते हैं, ताबीज बंधवाते हैं, और पाखंडी लोगों से कई किस्म की सलाह लेते हैं। नतीजा यह निकलता है कि एक खुले दिमाग से, तर्कशक्ति के साथ निष्कर्ष निकालकर आगे बढऩे का जो रास्ता सूझना चाहिए वह पाखंडियों के सुझाए हुए ऊटपटांग तरीकों से भटक जाता है। बहुत से लोगों ने देखा होगा कि लोगों के घरों में वास्तु शास्त्र के मुताबिक फेरबदल करने के लिए कई लोग चले आते हैं, और सोने के कमरे को रसोई बना देते हैं, रसोई को पाखाना और पखाने की जगह पर पूजा बना देते हैं। इसके बाद लोगों को लगता है कि उनकी जिंदगी बेहतर हो जाएगी। इस सिलसिले में केरल के एक सामाजिक कार्यकर्ता की याद पड़ती है जो कि अंधविश्वास के खिलाफ लगातार काम करता था और उसने वहां बहुत प्रचलित वास्तु शास्त्र के जानकारों को सार्वजनिक चुनौती दी कि वे एक मकान की ऐसी डिजाइन बना कर दें जो वास्तु शास्त्र के हिसाब से सबसे अधिक अशुभ हो, और फिर उसने उसे दी गई ऐसी डिजाइन के मुताबिक मकान बनाया और उसमें बहुत सुख शांति से पूरी जिंदगी गुजारी। पाखंड का इस तरह का विरोध जहां किया जाना चाहिए, वहां पर लोग पाखंड को बढ़ाने में लगे रहते हैं। इसी बलात्कारी आसाराम के पुराने वीडियो देखें उसकी पुरानी तस्वीरें देखें तो अलग-अलग पार्टियों के अनगिनत बड़े-बड़े नेता स्टेज पर जाकर उसके पांव छूते दिखते हैं। ऐसी ही चमत्कारी छवि बनाते हुए लोग अपने आपको स्थापित करते हैं और फिर भक्तों से बलात्कार करने तक की नौबत में आ जाते हैं।
हिंदुस्तानी लोगों के बीच पाखंड के खिलाफ, अंधविश्वास के खिलाफ, जागरूकता लाने की जरूरत है, और लोगों के बीच वैज्ञानिक सोच को बढ़ाने की जरूरत है। लेकिन जब-जब समाज के बहुतायत लोगों को धर्म और जाति के नाम पर, खानपान के नाम पर एक पाखंड में डुबाया जाएगा, और धर्मों का नाम लेकर दुकानदारी करने वाले लोगों को बढ़ावा देकर, उन्हें स्थापित करके, उनका चुनावी इस्तेमाल किया जाएगा, तो फिर ऐसे लोग समाज में खतरा भी बनेंगे, और समाज की अपनी सोचने की ताकत भी खत्म होती चलेगी। आज हिंदुस्तान इसी बात का शिकार है। जब देश अंतरिक्ष में पहुंच चुका है, जब टेक्नोलॉजी और विज्ञान ने जिंदगी को सहूलियतों से भर दिया है, तब भी लोगों के बीच अंधविश्वास आत्मघाती स्तर पर अगर पहुंचा हुआ है, तो इसके पीछे लोगों को ऐसा बनाए रखने की राजनीतिक साजिश है, और उसे समझना भी चाहिए।
छत्तीसगढ़ में डॉ. दिनेश मिश्रा जैसे सामाजिक कार्यकर्ता हैं जो कि अपने खर्च से, अपना वक्त निकालकर, गांव-गांव जाकर अंधविश्वास की हर घटना का भांडाफोड़ करते हैं, वहां लोगों को वैज्ञानिक बातें समझाते हैं, वहां पर लोगों की तर्कशक्ति विकसित करने की कोशिश करते हैं। अब दिक्कत यह है कि धर्म और अंधविश्वास के बीच फासले को इतना घटा दिया गया है कि उसे मानने वाले लोग उसे अंधविश्वास से दूर बताते हैं, लेकिन बड़ी आसानी से अंधविश्वास में फंस जाते हैं। इसलिए धार्मिक आस्था को अंधविश्वास से दूर करने की जरूरत है और अंधविश्वास को खत्म करने के लिए लोगों में वैज्ञानिक चेतना बढ़ाने की जरूरत है। इसकी कमी से सिर्फ हिंसक घटनाएं होती हो ऐसा भी नहीं है, वैज्ञानिक चेतना की कमी से लोगों के बीच कितने तरह के पूर्वाग्रह पैदा हो जाते हैं कि वे मेहनत करने के बजाए राहु-केतु और शनि की ग्रह दशा ठीक करने में लगे रहते हैं। यह सिलसिला अंधविश्वासी समाज को कभी भी उसकी पूरी संभावनाएं नहीं पाने देता।
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मद्रास हाईकोर्ट के 237 वकीलों ने भारत के मुख्य न्यायाधीश और सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम को चिट्ठी लिखकर इस बात का विरोध किया है कि मद्रास हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस को मेघालय हाई कोर्ट भेजा जा रहा है। वकीलों ने लिखा है कि 75 जजों वाली मद्रास हाई कोर्ट में हर साल 35 हजार मामले आते हैं, और ऐसे हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को दो जजों वाली मेघालय हाई कोर्ट में भेजा जा रहा है जहां साल में मुकदमों की संख्या 70-75 ही रहती है। वकीलों ने 12 पेज लम्बे विरोध पत्र में लिखा है कि मद्रास हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस संजीव बनर्जी भ्रष्टाचार को जरा भी बर्दाश्त नहीं करते थे, और ना ही अक्षमता को, और उनके इस मिजाज को सराहा जाता था। ऐसे ईमानदार चीफ जस्टिस को इस तरह देश के एक सबसे बड़े हाई कोर्ट से, देश के सबसे छोटे हाई कोर्ट में भेजना कई तरह के सवाल खड़े करता है। वकीलों ने लिखा है कि न्यायिक प्रशासन के लिए ट्रांसफर जरूरी होते हैं, लेकिन ऐसा अटपटा ट्रांसफर क्यों किया जा रहा है, इस बारे में वकीलों और आम जनता को पता रहना चाहिए। उल्लेखनीय है कि सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने अभी 2 बरस पहले मद्रास हाई कोर्ट की चीफ जस्टिस विजया के तहिलरामानी का ट्रांसफर मेघालय हाई कोर्ट कर दिया था। जस्टिस विजया ने इसे मंजूर नहीं किया, आपत्ति की, लेकिन कॉलेजियम ने उसे नहीं सुना, इस पर उन्होंने इस्तीफा दे दिया था।
भारत की अदालतों के बारे में यह कहा जाता है कि वह कई तरह के दबावों के बीच काम करती हैं। खासकर केंद्र सरकार की एक भूमिका सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में किसी को जज बनाने में या उसके प्रमोशन में रहती है, और ऐसा कहा जाता है कि सरकार अपने मर्जी के लोगों को जज बनवा लेती है, और नापसंद लोगों का जज बनना रोक भी देती है। सुप्रीम कोर्ट का कॉलेजियम, जजों की नियुक्ति का एक किस्म से एकाधिकार रखता है, लेकिन उसकी आखिरी मंजूरी तो केंद्र सरकार से होती है। इसलिए यह बात बार-बार होती है कि सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम की भेजी गई लिस्ट को केंद्र सरकार क्या करती है। ऐसी हालत में अगर किसी हाई कोर्ट जज का या मुख्य न्यायाधीश का इस केस में से अटपटा तबादला होता है, तो मद्रास हाई कोर्ट के वकीलों की यह बात ठीक लगती है कि यह एक ईमानदार और निडर जज को सजा देने जैसा कदम है।
यह बात भी बड़ी हैरानी खड़ी करती है कि इसी हाईकोर्ट से 2 साल में दो-दो चीफ जस्टिस मेघालय हाई कोर्ट भेजे गए जो कि जाहिर तौर पर प्रशासनिक नियमों की आड़ में दी गई एक सजा है। जब सैकड़ों वकील किसी मुख्य न्यायाधीश को ईमानदार और हिम्मती बताते हुए तबादले का विरोध कर रहे हैं, तो उस जज में कोई तो बात तो होगी ही। ऐसे में सवाल यह उठता है कि सुप्रीम कोर्ट किसी रहस्य की तरह कैसे तबादला कर सकता है, जो कि जाहिर तौर पर सजा दिख रहा है? यह सिलसिला खत्म होना चाहिए और इस सिलसिले में किसी तरह की पारदर्शिता आनी चाहिए। हमारे पास ऐसे संदेह का कोई तुरंत समाधान नहीं है क्योंकि न्याय व्यवस्था में तबादले किस तरह किए जा सकते हैं इसे दुनिया की दूसरी अदालतों को जानने-समझने वाले लोग बेहतर तरीके से सुझा सकते हैं। लेकिन यह बात तो तय है कि ऐसा रहस्यमय सिलसिला लोकतंत्र में अच्छा नहीं लग रहा है, इसका कोई बेहतर तरीका ईजाद किया जाना चाहिए। यह भी भला कोई बात है कि देश के एक सबसे बड़े हाई कोर्ट से उठाकर किसी को देश के सबसे छोटे एक हाईकोर्ट में भेज दिया जाए, और खासकर तब जबकि बड़े हाईकोर्ट का मुखिया रहते हुए उसके खिलाफ किसी तरह की कोई शिकायत ना आई हो, कोई आरोप ना लगे हो। हो सकता है कि न्याय व्यवस्था के भीतर ऐसे आरोप भी लगे हों जो कि जनता की नजर में न आए हैं, लेकिन ऐसा तबादला लोगों के मन में सरकारी दखल या किसी और तरह के दबाव का शक खड़ा करता है। यह सिलसिला खत्म होना चाहिए।
तमिलनाडु के न्यायिक दायरे में यह जानकारी आम है कि वहां की अदालतों के ईमानदारी और सही तरीके से काम करने के लिए चीफ जस्टिस बनर्जी ने भ्रष्टाचार के खिलाफ कई किस्म की जांच शुरू करवाई थी। अभी माना जा रहा है कि ऐसे अचानक तबादले का, भ्रष्टाचार के खिलाफ शुरू करवाई गई जांच से भी लेना-देना हो सकता है। तमिलनाडु से आया हुआ समाचार बतलाता है कि यह बात इतिहास में अच्छी तरह दर्ज है कि जो जज ईमानदार और कडक़ होते हैं, और जो सरकार के खिलाफ बिना डरे फैसले देते हैं, उन्हें कम महत्वपूर्ण जगहों पर भेज दिया जाता है। ऐसे तबादलों को सजा के बतौर तबादला कहा जाता है। ऐसी तमाम बातों को गिनाते हुए मद्रास हाई कोर्ट के वकीलों ने देश के मुख्य न्यायाधीश को लिखा है कि यह बहुत ही दुर्भाग्यजनक बात है कि किसी ईमानदार जज का इस तरह सजा दिए सरीखे तबादला किया जा रहा है।
और सरकार की ही बात नहीं है, न्यायपालिका कई किस्म के और आरोपों को भी झेलती है। देश के एक भूतपूर्व कानून मंत्री शांति भूषण और उनके वकील बेटे प्रशांत भूषण ने एक वक्त सुप्रीम कोर्ट के बहुत से जजों के भ्रष्ट होने का आरोप लगाया था, और उस मामले की सुनवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट ने उसे रोक कर रखा है, माफी न मांगने पर भी इन दोनों को कोई सजा नहीं दी है। और ऐसे आरोप पहले और बाद में भी सुप्रीम कोर्ट के जजों पर लगते रहे हैं। अभी-अभी कुछ अरसा पहले सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश तो बहुत ही गंदे गंदे आरोप झेलते रहे, और अपनी कुर्सी पर डटे भी रहे। इसलिए जजों को आलोचना और टिप्पणियों से परे कोई पवित्र संस्थान मानना गलत होगा। यह भी समझ लेना जरूरी है कि अदालतों की प्रशासनिक व्यवस्था अदालत के अदालती कामकाज से अलग है और इसे लेकर अदालत को किसी आलोचना के प्रति अधिक संवेदनशील भी नहीं होना चाहिए। यह बहुत ही अजीब बात है कि देश के सबसे दक्षिणी हिस्से से देश के सबसे पूर्वी हिस्से में इस तरह से 2 बरस में दो मुख्य न्यायाधीशों को भेजा जा रहा है और वकीलों को विरोध करना पड़ रहा है।
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कांग्रेस पार्टी के साथ शायद एक बुनियादी दिक्कत है कि जब कभी चुनाव सामने रहते हैं, उसके कोई ना कोई नेता ऐसे बयान देते हैं कि जिनसे पार्टी का भरपूर नुकसान हो सके। और मानो आज यह काफी नहीं था, तो कांग्रेस के केंद्रीय मंत्री रहे सलमान खुर्शीद ने अभी आई अपनी एक किताब में हिंदुत्व की तुलना आईएसआईएस और बोको हराम जैसे इस्लामिक आतंकी संगठनों से की है। इससे जिस किस्म का भी धार्मिक ध्रुवीकरण उत्तर प्रदेश के वोटरों के बीच होना है, वह तो होगा ही, लेकिन उससे पहले भी उनकी किताब में लिखी गई यह बात बड़ी अटपटी है, बड़ी नाजायज भी है। फिर यह आलोचना लिखने के लिए हमारी जरूरत नहीं रही क्योंकि उनकी किताब को लेकर जैसे ही यह खबर सामने आई, कांग्रेस के एक दूसरे बड़े मुस्लिम नेता, गुलाम नबी आजाद ने ट्विटर पर लिखा कि सलमान खुर्शीद ने अपनी किताब में भले ही हिंदुत्व को हिंदू धर्म की मिली-जुली संस्कृति से अलग एक राजनीतिक विचारधारा मानकर इससे असहमति जताई, लेकिन हिंदुत्व की तुलना आईएसआईएस और जिहादी इस्लाम से करना तथ्यात्मक रूप से गलत और अतिशयोक्ति है।
यह किताब अयोध्या पर आए फैसले पर लिखी गई है और जिस बात को लेकर बवाल खड़ा हो रहा है उस वाक्य में सलमान खुर्शीद ने लिखा है ‘भारत के साधु-संत सदियों से जिस सनातन धर्म और मूल हिंदुत्व की बात करते आए हैं, आज उसे कट्टर हिंदुत्व के जरिए दरकिनार किया जा रहा है। आज हिंदुत्व का एक ऐसा राजनीतिक संस्करण खड़ा किया जा रहा है जो इस्लामी जेहादी संगठनों आईएसआईएस, और बोको हराम जैसा है।’ जाहिर है कि इस बात पर बवाल तो होना ही था. सलमान खुर्शीद क्योंकि उत्तर प्रदेश के ही रहने वाले हैं इसलिए उन्हें यह पता होगा कि अगले कुछ महीनों में ही वहां पर चुनाव होने जा रहे हैं, और उत्तर प्रदेश के वोटरों के धार्मिक ध्रुवीकरण की तमाम कोशिशें चल रही हैं. इसलिए ऐसे मौके पर अपनी इस किताब का विमोचन करवाते हुए ऐसा तो है नहीं कि उन्हें उस किताब के बारे में पता नहीं होगा कि उसमें हिंदुत्व के बारे में उन्होंने क्या लिखा है। यह सिलसिला कांग्रेस को हर बार गड्ढे में ले जाकर डालता है। किताब मोटे तौर पर मंदिर के पक्ष में आए फैसले को अच्छा बता कर मंदिर का ही साथ देने वाली है। लेकिन यह लाइन जाहिर तौर पर हिंदुत्व और हिंदू धर्म दोनों से जुड़े हुए लोगों को विचलित करने वाली है।
पूरी किताब में जगह-जगह सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को सही ठहराया गया है कि उसने बाबरी मस्जिद गिराने के बाद खाली हुई उस जगह पर मंदिर बनाने का फैसला दिया है। जबकि किताब के विमोचन के मौके पर मौजूद पिछले केंद्रीय मंत्री पी. चिदंबरम ने माइक से यह कहा था। ‘बहुत समय बीत जाने की वजह से दोनों पक्षों ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को स्वीकार कर लिया। सुप्रीम कोर्ट का फैसला दोनों पक्षों ने स्वीकार कर लिया इस वजह से यह अच्छा फैसला हो गया, न कि फैसला अच्छा होने की वजह से दोनों पक्षों ने इसे स्वीकार किया।’ किसी बात को बिना किसी को जख्मी किए हुए भी कहा जा सकता है और चिदंबरम ने फैसले की आलोचना करते हुए भी आपा नहीं खोया और सलमान खुर्शीद ने फैसले की तारीफ में पूरी किताब लिखते हुए भी एक गलत लाइन लिखकर अपनी पार्टी को भारी नुकसान पहुंचा दिया है. फिर मानो यह बात काफी नहीं थी तो कांग्रेस के एक और मुस्लिम नेता और पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता राशिद अल्वी ने अभी एक समारोह में कहा कि जय श्री राम का नारा लगाने वाले सभी लोग मुनि नहीं हो सकते, इन दिनों जय श्री राम बोलने वाले कुछ लोग संत नहीं हैं, बल्कि राक्षस हैं।
इन दोनों मुस्लिम कांग्रेस नेताओं ने अपनी लंबी जिंदगी राजनीति में गुजारी है और हिंदुस्तान के वोटरों की भावनाओं से भी वे पूरी तरह वाकिफ हैं और चुनावी राजनीति में किसी बयान को तोड़-मरोड़ कर उसका कैसा बेजा इस्तेमाल किया जा सकता है इस प्रचलित चतुराई से भी दोनों का तजुर्बा रहा है। इसके बावजूद इस तरह की नाजायज बातों को करने का क्या मकसद हो सकता है? बिना किसी संदर्भ के आज किसी मुस्लिम कांग्रेस नेता को किसी हिंदू धार्मिक मुद्दे पर फिजूल की बात करना क्यों चाहिए? खासकर तब जबकि उसकी कोई जरूरत नहीं है? यह बात ठीक उसी तरह की है जिस तरह कि किसी मुस्लिम मुद्दे पर किसी हिंदू नेता को फिजूल की कोई बात क्यों करनी चाहिए खासकर तब जब उनकी पार्टी में उस मुद्दे पर बोलने के लिए मुस्लिम नेता मौजूद हैं। हमारी यह बात लोगों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के खिलाफ नहीं है, लेकिन हमारी यह बात किसी राजनीतिक दल को सावधानी सुझाने वाली है कि आज के घोर सांप्रदायिक हो चले सार्वजनिक जीवन में हर पार्टी के प्रवक्ता और नेताओं को किस तरह सावधान रहना चाहिए। आज जब कांग्रेस पार्टी के ही दिग्विजय सिंह संघ परिवार या हमलावर हिंदुत्व के खिलाफ लगातार बोलते हैं, तो उनकी बात को एक सांप्रदायिक मोड़ नहीं दिया जा सकता क्योंकि वह अपने-आपको एक धर्मालु हिंदू कहते और साबित करते आए हैं। आज यह सावधानी तमाम लोगों को बरतने की जरूरत है जो कि चुनावी राजनीति में हैं। और जो लोग हमारी तरह अखबारनवीसी में हैं वे फिर तमाम धर्मों के बारे में तमाम किस्म की बातें लिखें, और लोगों की नाराजगी झेलने के लिए तैयार भी रहें, लेकिन चूंकि हमें कोई वोट मांगने नहीं जाना है, और हम किसी संगठन के प्रति जवाबदेह नहीं हैं, इसलिए हम अपनी विचारधारा के प्रति प्रतिबद्धता के साथ अपनी मर्जी के मालिक हैं। लेकिन जब राजनीतिक दलों को अपनी दाढ़ी-टोपी, तिलक-आरती, और जनेऊ का सार्वजनिक प्रदर्शन करना पड़ता है तो ऐसे माहौल में उसके लोगों को सावधान भी रहना चाहिए।
आज तो हालत यह है कि किसी पार्टी से जुड़े हुए कोई वकील भी अदालत में किन मामलों को लड़ रहे हैं, इसका भी असर उनकी पार्टी की चुनावी संभावनाओं पर दिखता है। इसलिए सलमान खुर्शीद की बात न सिर्फ बुनियादी रूप से नाजायज बात है, बल्कि वह पार्टी को भारी नुकसान पहुंचाने वाली बात भी है। हिंदुस्तान अब उतने बर्दाश्त वाला देश नहीं रह गया है कि वह लोगों की लिखी हुई बातों का राजनीतिक इस्तेमाल न करे। और फिर सलमान खुर्शीद की अपनी नीयत शायद यही रही होगी कि वे उत्तर प्रदेश चुनाव के पहले मंदिर बनाने के अदालती फैसले की तारीफ में यह किताब लिखकर शायद उत्तर प्रदेश के बहुसंख्यक हिंदू वोटरों पर असर डाल सके, और किताब की एक लाइन ने इसका ठीक उल्टा असर डाल दिया है। कांग्रेस के बहुत से नेता इसके हर चुनाव के पहले इस तरह की हरकतें करते हैं, और कांग्रेस की विरोधी पार्टियों को घर बैठे उसका फायदा मिलता है।
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