संपादकीय
केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री का राहुल गांधी के नाम लिखा खत हैरान करता है। डॉ. मनसुख मांडविया ने राजस्थान के दो सांसदों (जाहिर तौर पर भाजपा के) की लिखी गई चिट्ठी के हवाले से राहुल गांधी से उनकी पदयात्रा में सांसदों के उठाए मुद्दों पर शीघ्र कार्रवाई करने की सिफारिश की है। उन्होंने राहुल को लिखा है कि सांसदों ने राजस्थान में चल रही भारत जोड़ो यात्रा से फैल रही कोविड महामारी पर चिंता जाहिर की है। स्वास्थ्य मंत्री ने सांसदों की दो सलाहें राहुल को भेजी हैं। इनमें से एक राजस्थान में चल रही भारत जोड़ो यात्रा में कोविड गाईडलाईन का सख्ती से पालन करने की है, और यह मांग की गई है कि सिर्फ कोरोना-टीका लगे हुए लोग ही इसमें शामिल हों, और यात्रा में जुडऩे के पहले, और उसके बाद यात्रियों को आइसोलेट किया जाए। दूसरी सलाह यह है कि अगर कोविड प्रोटोकॉल का पालन करना संभव नहीं है तो पब्लिक हेल्थ इमरजेंसी के हालात को देखते हुए देश को कोविड महामारी से बचाने के लिए भारत जोड़ो यात्रा स्थगित की जाए। सांसदों के जिक्र के अलावा स्वास्थ्य मंत्री ने अपनी तरफ से भी सिफारिश की है, इसलिए यह माना जाना चाहिए कि यह भारत सरकार की स्वास्थ्य नीति के अनुकूल लिखी गई बात है। मांडविया ने कहा है कि उन्होंने मंत्रालयों में विशेषज्ञों से बात की है, और उसके आधार पर उन्होंने गहलोत और गांधी को पत्र लिखे हैं। अब इस चिट्ठी की रौशनी में यह देखने की जरूरत है कि भारत सरकार की आज की कोरोना नीति क्या है, कोरोना प्रोटोकॉल क्या है।
कांग्रेस पार्टी ने अपने जवाब में कुछ बातें गिनाई हैं जिन्हें यहां स्वास्थ्य मंत्री की चिट्ठी के साथ पढऩे की जरूरत है। कांग्रेस ने कहा है कि क्या इस तरह का पत्र राजस्थान के भाजपा अध्यक्ष को भेजा गया है क्योंकि वो जनआक्रोश यात्रा निकाल रहे हैं? कांग्रेस ने पूछा कि क्या इस तरह का पत्र कर्नाटक बीजेपी को भेजा गया है, जो इसी तरह की यात्रा निकाल रही है? यह पूछा है कि क्या भारत सरकार ने कोरोना नियमों और प्रोटोकॉल की कोई घोषणा की है, क्या संसद का सत्र स्थगित किया गया है? कांग्रेस प्रवक्ता ने याद दिलाया कि अब तक हवाई सफर में भी न मास्क लगाया जाता है, न सेनेटाइजर दिया जाता है। उन्होंने पूछा कि क्या भारत सरकार को सिर्फ राहुल गांधी, कांग्रेस, और भारत जोड़ो यात्रा ही दिख रही है? कांग्रेस ने यह भी गिनाया है कि जब कोरोना महामारी अपनी चरम पर थी, तब कुंभ का आयोजन किया गया, और यूपी, बिहार, प.बंगाल में विधानसभा चुनाव करवाए गए। एक अखबार ने दो तारीखों के भारत के सरकारी कोरोना आंकड़े गिनाए हैं, द टेलीग्राफ ने लिखा है कि 20 दिसंबर को भारत जोड़ो यात्रा के दौरान देश में 3408 कोरोना पॉजिटिव थे, और 19 अप्रैल 2021 को प.बंगाल में अमित शाह चुनावी रैली कर रहे थे, उस दिन देश में 20 लाख, 31 हजार, 977 कोरोना पॉजिटिव थे।
वैसे तो कांग्रेस पार्टी ने स्वास्थ्य मंत्री की चिट्ठी पर पर्याप्त जवाब दे दिया है, लेकिन हम उसके मुद्दों से परे की कुछ बातें उठाना चाहते हैं। पिछले बहुत सारे महीनों पहले कोरोना की कोई रोक-टोक रही हो, तो रही हो, अभी तो बहुत समय से कोई कोरोना प्रतिबंध याद भी नहीं पड़ रहे हैं। अभी हाल ही में गुजरात का चुनाव हुआ, और उसमें लाखों लोगों की भीड़ एक साथ दिखी, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अभी तीन-चार दिन पहले ही बच्चों के किसी समंदर जैसी भीड़ में झुक-झुककर हर किसी से हाथ मिलाते आगे बढ़ते दिख रहे थे, और यह नजारा सभी समाचार चैनलों पर था। पूरे देश में जगह-जगह धार्मिक और सामाजिक समारोह चल रहे हैं, राजनीतिक कार्यक्रम हो रहे हैं, जहां जिसकी जितनी शोहरत है, वहां पर उतने लोग जुट रहे हैं। पूरे देश को लेकर कोई भी कोरोना गाईडलाईन या प्रोटोकॉल सामने नहीं है। भारत के स्वास्थ्य मंत्रालय का ट्विटर पेज कोरोना से सावधान रहने का एक पोस्टर दिखा रहा है, लेकिन इससे परे कोरोना की कोई बात नहीं है। ऐसे में एकदम से एक अकेले राहुल गांधी को नसीहत देना अटपटा है। खासकर तब जबकि स्वास्थ्य मंत्री ने अपनी चिट्ठी में किसी विशेषज्ञ की राय के आधार पर बात नहीं लिखी है, बल्कि दो भाजपा सांसदों की चिट्ठी की मांग को अपनी सिफारिश बनाकर भेज दिया है। केन्द्र सरकार को कुछ अधिक जिम्मेदारी से कुछ अधिक निष्पक्ष होकर, कुछ अधिक पारदर्शी होकर नसीहत देनी चाहिए। भारत एक संघीय गणराज्य है, और इसमें केन्द्र सरकार को राज्य सरकारों के साथ मिलकर तालमेल से काम करना होता है। अभी तो चीन में कोरोना की एक नई लहर की खबर के बाद भारत सरकार ने राज्यों को भी कोई चेतावनी नहीं भेजी है, सार्वजनिक रूप से कोई सावधानी नहीं गिनाई है, सार्वजनिक आवाजाही में, भीड़ में किसी सावधानी के निर्देश नहीं हैं, और जैसा कि कांग्रेस ने गिनाया है, दो राज्यों में भाजपा के प्रादेशिक नेताओं की पदयात्राओं को लेकर भी केन्द्र सरकार ने कोई नसीहत जारी नहीं की है। ऐसे में इस एक अकेली यात्रा को लेकर दो चुनिंदा सांसदों की चिट्ठी को बुनियाद बनाकर स्वास्थ्य मंत्री की ऐसी चिट्ठी पूरी तरह से नाजायज है, और यह केन्द्र सरकार की इज्जत को घटाती है। कांग्रेस का यह सवाल बिल्कुल जायज है कि देश में अगर कोई कोरोना प्रोटोकॉल लागू है तो उसकी जानकारी दी जाए, और कांग्रेस पार्टी उसका पालन करेगी। आज जब देश में कांग्रेस और भाजपा के बीच संबंध इतने अधिक कड़वे चल रहे हैं कि नीम चढ़ा करेला भी उसके सामने शक्कर लगेगा, तो फिर इन दोनों पार्टियों की सरकारों को दूसरे पक्ष से बात करते हुए सावधानी बरतनी चाहिए क्योंकि हर चिट्ठी और हर बयान इसी कड़वाहट के साथ तौले जाएंगे। फिर जब देश में पब्लिक हेल्थ इमरजेंसी के हालात जैसी बात स्वास्थ्य मंत्री की चिट्ठी में जा रही है, तो यह खुलासा करना जरूरी है कि यह पब्लिक हेल्थ इमरजेंसी जैसी परिस्थितियां देश में कहां-कहां पर है, कब से है, और इससे जूझने के लिए सरकार ने क्या-क्या किया है, और क्या-क्या करने को कहा है।
कोरोना का खतरा छोटा नहीं है, लेकिन अकेले राहुल गांधी की पदयात्रा को देश की सेहत के लिए खतरा अगर केन्द्र सरकार मानती है, तो उसे इस चुनिंदा निशानेबाजी की ठोस वजहें गिनाकर इस पर रोक लगा देनी चाहिए। फिलहाल तो केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री की तरफ से इन बातों पर जवाब आना चाहिए कि अकेले राहुल गांधी को ऐसी चिट्ठी क्यों लिखी गई है, और अकेली यह पदयात्रा केन्द्र सरकार को इतनी खतरनाक क्यों लग रही है?
भाजपा की एक प्रवक्ता नुपूर शर्मा ने मोहम्मद पैगंबर के बारे में एक आपत्तिजनक बयान दिया था, और सोशल मीडिया पर उसका समर्थन करते हुए अमरावती के एक दुकानदार उमेश कोल्हे ने एक पोस्ट किया था। इस पोस्ट के बाद कई लोगों ने मिलकर उमेश कोल्हे का कत्ल कर दिया था। ऐसा शक था कि सीसीटीवी कैमरों पर कैद मारने वाले लोग मुस्लिम थे जिन्होंने सोशल मीडिया पर पोस्ट किए हुए समर्थन के बदले यह कत्ल किया था। अब एनआईए ने अपनी जांच रिपोर्ट पेश की है, और इस बीच उसने अमरावती के ही एक मुस्लिम समुदाय, तब्लीगी जमात के ग्यारह लोगों को गिरफ्तार किया था, और अभी चार दिन पहले उसने कोर्ट में चार्जशीट पेश की है जिसके मुताबिक उमेश कोल्हे के एक सोलह बरस पुराने दोस्त यूसुफ ने ही अपनी जमात के बाकी लोगों के साथ मिलकर यह कत्ल किया। चार्जशीट कहती है कि डॉ. यूसुफ उमेश कोल्हे का पुराना दोस्त था, और यूसुफ की बहन की शादी में मदद की जरूरत थी तो उमेश कोल्हे ने ही मदद की थी।
अभी हम एनआईए की रिपोर्ट को सच मानते हुए आगे की बात लिख रहे हैं। और यह जिक्र जरूरी इसलिए है कि हिन्दुस्तान में कभी-कभी जांच एजेंसियां जांच के नाम पर साजिश करते हुए भी मिली हैं, और किसी बेकसूर को फंसाते हुए भी। फिलहाल इस घटना, और अदालत में पेश इस चार्जशीट से कुछ लिखने की जरूरत लगती है। नुपूर शर्मा नाम की भाजपा की प्रवक्ता ने एक टीवी चैनल के लाईफ टेलीकास्ट के दौरान मोहम्मद पैगंबर के बारे में कुछ आपत्तिजनक बातें कहीं जिन्हें सुप्रीम कोर्ट तक ने देश में साम्प्रदायिक तनाव फैलाने के लिए जिम्मेदार कहा। नुपूर शर्मा का सिर काटने के लिए कुछ लोगों और संगठनों ने फतवे भी जारी किए, और तब से अब तक वे सामने नहीं आई हैं, या आ पाई हैं। जिस तरह के साम्प्रदायिक रूझान के साथ भाजपा की इस प्रवक्ता ने निहायत अवांछित, नाजायज, और भडक़ाऊ बातें कही थीं, वे बातें उनकी बाकी बकवास के साथ मेल खाती हुई थीं। उनका मकसद मुस्लिमों को जख्मी करना था, और वे अपने मकसद में कामयाब भी हुईं, अनहोनी बस यही हुई कि वे इस चक्कर में देश का कानून तोड़ बैठीं, और कुछ मुस्लिम कट्टरपंथियों को उन्होंने इतना अधिक विचलित कर दिया कि उन्होंने नुपूर शर्मा का सिर काटने का फतवा जारी कर दिया। अब जैसा कि सोशल मीडिया पर होता है, हर भडक़ाऊ बात के समर्थन में अनगिनत लोग जुट जाते हैं, और यह साबित करने लगते हैं कि उनके पास दिल-दिमाग चाहे न हों, उनके पास किसी भडक़ाऊ बात को आगे बढ़ाने के लिए उंगलियां जरूर हैं। कुछ ऐसा ही अमरावती के उमेश कोल्हे से हुआ, या उन्होंने किया। और इसके जवाब में स्थानीय मुस्लिम कट्टरपंथियों ने उनकी जान ले ली। चूंकि ये सभी ग्यारह कातिल मुस्लिमों के एक ही सम्प्रदाय के थे, इसलिए जाहिर है कि उनका धार्मिक आधार पर एक-दूसरे से मिलना-जुलना भी रहा होगा, और वे धर्म के आधार पर जुड़े हुए लोग थे।
अब इससे यह तो साबित होता है कि धर्म के नाम पर जहां-जहां नफरत और आक्रामकता है, वहां-वहां लोगों में एकजुटता बड़ी तेजी से हो जाती है। नुपूर शर्मा को न जानते हुए भी उमेश कोल्हे ने उसका समर्थन किया, और उमेश कोल्हे के कत्ल के लिए दस तब्लीगी एकजुट हो गए। यह धर्म का आम मिजाज है कि वह घायल होने के लिए एक पैर पर खड़े रहता है, और अपने धर्म की तथाकथित रक्षा करने के नाम पर किसी भी तरह की हिंसा करने को तैयार रहता है। जब-जब हिन्दू बहुत अधिक एकजुट होते हैं, एक बात बड़ी तेजी से उभरती है कि हिन्दुत्व खतरे में है। जब हिन्दू अलग-अलग रहते हैं, धार्मिक आयोजन कम होते हैं, तब हिन्दुत्व कभी खतरे में नहीं रहता। जब मुस्लिम एक कामगार की शक्ल में काम करते हैं, तब तक इस्लाम खतरे में नहीं रहता क्योंकि उनके पास काम करने की अपनी जरूरत रहती है। लेकिन जब कभी धार्मिक आधार पर वे जुटते हैं, इस्लाम खतरे में पडऩे लगता है। धर्म का मिजाज किसी दूसरे धर्म की दहशत दिखाकर अपने लोगों को एक करने, और फिर उन्हें दुहने का रहता है। धर्म के जो एजेंट ईश्वर और धर्मालु के बीच काम करते हैं, उनका अस्तित्व इसी पर टिका रहता है कि धर्मालुओं की भीड़ अपने को असुरक्षित महसूस करती रहे। अगर आस्थावान सुखी और सुरक्षित हो गए, उनके सिर पर कोई खतरा उन्हें नहीं दिखा, उन्हें अगर किसी दूसरे धर्म के लोगों का खतरा नहीं गिनाया जा सका, तो फिर वे अपने ईश्वर और उसके एजेंट के झांसे में कैसे आएंगे? इसलिए जिस तरह एक पुरानी कहानी में लोगों को भेडिय़ा आया-भेडिय़ा आया कहकर डराया जाता था, उसी तरह आज विधर्मी आया-विधर्मी आया कहकर डराया जाता है। यह डर लोगों को एकजुट करता है, संगठित करता है, और फिर जैसा कि धर्म का आम मिजाज रहता है, वह लोगों को नफरतजीवी और हिंसक भी बनाता है। उनसे दूसरों पर हमले करवाता है क्योंकि धर्म सहअस्तित्व को नहीं मानता। हर धर्म एकाधिकार की सोच पर काम करता है, और दूसरे धर्म को खतरा और खतरनाक मानता है। पूरी दुनिया में धर्मों का विस्तार इसीलिए किया गया कि बहुत अधिक लोगों से हिंसा करना मुमकिन नहीं था, और जब लोग अपने धर्म में आ जाएं, तो फिर उनसे हिंसा की जरूरत क्या है। दुनिया के इतिहास में धर्मों का विस्तार बहुत ही खूनी जंगों से भरा हुआ है, और वह जंग अलग-अलग शक्लों में आज भी जारी है।
हम सोशल मीडिया पर हर कुछ हफ्तों में दिल को छू लेने वाली असल जिंदगी की ऐसी कहानी पढ़ते हैं कि हिन्दू और मुस्लिम दोस्तों ने, समाज के लोगों ने दूसरे के लिए क्या किया। अब इस बीच जब इंसानियत पर धर्म हावी हुआ, तो उसने सोलह बरस पुरानी दोस्ती की भी परवाह नहीं की, और दोस्ती और इंसानियत का गला काटकर धर दिया। यह बिल्कुल धर्म के मिजाज के मुताबिक है। लोगों को याद होगा कि कुछ बरस पहले जब जम्मू में एक छोटी सी मुस्लिम खानाबदोश लडक़ी के साथ एक मंदिर में पुजारी समेत आधा दर्जन हिन्दू लोगों ने बलात्कार किया था, और फिर उस बच्ची को मार डाला था, तो वहां के हिन्दू समाज ने राष्ट्रीय झंडा लेकर बलात्कारियों को बचाने के लिए जुलूस निकाले थे, और बड़े-बड़े भाजपा नेता उसमें शामिल हुए थे। वह भी धर्म का एक मिजाज था जिसने एक छोटी सी बच्ची के साथ मंदिर में पुजारी और दूसरे लोगों द्वारा बलात्कार और हत्या को अनदेखा कर दिया था, और अपने धर्म के हत्यारे-बलात्कारियों को बचाने के लिए सडक़ों पर औरत-बच्चों को लिए हुए जुलूस निकालने लगा था, यह सिलसिला लंबे समय तक चला था, और उस मुस्लिम बच्ची के परिवार को कोई वकील मिलने से भी बाकी हिन्दू वकील रोक रहे थे। आखिर में जिस महिला वकील ने उसका मुकदमा लिया, उसे कई किस्म का सामाजिक बहिष्कार झेलना पड़ा।
दुनिया में दोस्ती को बहुत ऊंचा माना जाता है, लेकिन अमरावती की इस घटना ने साबित किया है कि धर्म की हिंसा दोस्ती का भी गला काट सकती है। इसलिए लोगों को अपनी जिंदगी में धर्म की अहमियत के बारे में चौकन्ना रहने की जरूरत है क्योंकि ईश्वर के प्रति निजी आस्था जब सार्वजनिक जीवन में संगठित होकर एक हमलावर तेवरों की शक्ल ले लेती है, तो फिर वह किसी भी हद तक हिंसक हो सकती है। धर्म की यह डरावनी हिंसा इंसानों को समझनी चाहिए जिन्होंने शेर को बनाकर प्राण फूंकने की एक कहानी की तरह धर्म को गढ़ तो लिया है, लेकिन वह धर्म आज उन्हें ही खा जा रहा है।
अमरीकी संसद की एक जांच कमेटी ने पिछले राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप को चुनाव हारने के बाद 6 जनवरी को संसद पर हुए हमले को उकसाने और हमलावरों की मदद करने का कुसूरवार मानते हुए अमरीका के न्याय विभाग से सिफारिश की है कि ट्रंप पर कुछ अपराधों को लेकर आपराधिक मुकदमा चलाना चाहिए। अठारह महीने से यह संसदीय समिति संसद पर हमले की जांच कर रही थी, और उसने ट्रंप पर चार आरोपों को सही पाया है। कमेटी के सामने ट्रंप के बहुत से सहयोगियों के भी शपथपूर्वक बयान हुए थे, और जांच कमेटी ने ट्रंप की रिपब्लिकन पार्टी के सांसद भी थे। कमेटी ने डेढ़ सौ पेज की रिपोर्ट में कहा है कि संसद और सरकार के खिलाफ विद्रोह को उकसाने, विद्रोहियों की मदद करने, उन्हें मदद का वायदा करने, सरकारी और संसदीय कामकाज में बाधा डालने, अमरीका के साथ धोखा करने, और गलत बयान देने की साजिश के लिए आपराधिक मुकदमा चलाया गया। लोगों को याद होगा कि 6 जनवरी 2021 को जब ट्रंप चुनाव हार चुके थे, और जो बाइडन अगले राष्ट्रपति की शपथ लेने को थे, तब ट्रंप के हजारों समर्थक आदिम हमलावरों की शक्ल में संसद में घुस गए थे, तोडफ़ोड़ और आगजनी की थी, सांसदों को टेबिलों के नीचे छुपकर जान बचानी पड़ी थी, और टीवी पर यह सब हिंसा देखते हुए ट्रंप अपने सहयोगियों की भी यह सलाह तीन घंटे से अधिक तक अनसुनी करते रहे कि उन्हें अपने समर्थकों को हिंसा रोकने के लिए कहना चाहिए। बल्कि ट्रंप सार्वजनिक रूप से जो बयान दे रहे थे, वे चुनावों को फर्जी करार देने वाले, और इस हमलावर भीड़ को देशभक्त बताने वाले थे। इस कमेटी ने संसद पर हमले और टीवी पर हमला देखते ट्रंप को उनके कमरे से देखने वाले हजार से ज्यादा लोगों के बयान लिए थे, और ऐसे तमाम हलफिया बयानों में डेढ़ बरस का समय लगा था। छह जनवरी को करीब 24 घंटे यह हमला चलते रहा, और इसमें पांच लोगों की मौत हुई थी, और सौ से अधिक घायल हुए थे। यह दो बरस के भीतर का इतिहास है इसलिए आज के अधिकतर लोगों को इसकी याद भी होगी।
अमरीका की व्यवस्था के तहत न्याय विभाग संसद और सरकार से परे भी फैसले लेता है, और सरकार का विभाग होने के बावजूद वह कानूनी मामलों में खुद फैसले लेता है। इसके मुखिया वहां के अकादमी जनरल होते हैं, जो सीधे राष्ट्रपति को रिपोर्ट करते हैं। अमरीकी परंपराएं बताती हैं कि इसके हर फैसले पर जरूरी नहीं है कि अमरीकी राष्ट्रपति की सहमति लगी हो। लोगों को यह भी याद होगा कि ट्रंप के घर पर छापा मारकर अमरीका की सबसे बड़ी जांच एजेंसी एफबीआई ने सैकड़ों अतिगोपनीय कागजात जब्त किए थे जो कि रद्दी के गट्ठों में पड़े हुए थे, उनके घर पर बिखरे हुए थे। उसे लेकर भी उन पर मुकदमा चलाने की बात चल ही रही थी कि अब यह संसदीय कमेटी की रिपोर्ट आ गई है।
एक तरफ तो अमरीका में आजादी का हाल यह है कि चुनाव हारा हुआ राष्ट्रपति संसद पर हमला करवा सकता है, चुनावों को धोखाधड़ी करार दे सकता है, और लोगों को अराजकता और बगावत के लिए भडक़ा सकता है कि वे इन नतीजों को न मानें। दूसरी तरफ मौजूदा राष्ट्रपति पर भी संसद महाभियोग चला सकती है, इतिहास में चला चुकी है, और ट्रंप पर अगर ये आपराधिक मुकदमे चलते हैं तो हो सकता है कि उनका बाकी जिंदगी किसी भी चुनाव लडऩे का हक खतम ही हो जाए। इस तरह आज अमरीका एक अभूतपूर्व हालात का सामना कर रहा है जिसमें ट्रंप की रिपब्लिकन पार्टी के भीतर भी उनके खिलाफ आवाज उठ रही है, लोग उनका विरोध कर रहे हैं। और सत्तारूढ़ डेमोक्रेटिक पार्टी के राष्ट्रपति जो बाइडन अपनी गिरती हुई लोकप्रियता के बाद भी वहां हाल में हुए मध्यावधि चुनावों में उम्मीद से अधिक जीत पा चुके हैं, और ट्रंप के करीबी समझे जाने वाले, उनके छांटे हुए रिपब्लिकन उम्मीदवार चुनाव हार चुके हैं।
ट्रंप ने अपने चार बरस के कार्यकाल में लगातार परले दर्जे के एक दकियानूसी और संकीर्णतावादी नेता की तरह घोर नस्लवादी रूख दिखाया, देश के अल्पसंख्यकों के हक कुचलने की कोशिश की, दूसरे देशों से आने वाले प्रवासी कामगारों के खिलाफ जंग सी छेड़ दी, और गरीबों के खिलाफ अपना वैसा ही रूख दिखाया जैसा कि कोई पक्का कारोबारी दिखा सकता है। यहां तक भी बात उनकी पार्टी और उनकी विचारधारा की हो सकती थी, लेकिन ट्रंप पर लगे हुए कई दूसरे आरोप बताते हैं कि उन्होंने चुनावी चंदे का इस्तेमाल अपने वकीलों पर किया, कारोबार में टैक्स चुराने तरह-तरह की धोखाधड़ी की, एक सनकी बादशाह की तरह अमरीकी सरकार को हांकने की कोशिश की, जिन कारोबारियों से वे असहमत थे, उनके खिलाफ तरह-तरह की जांच शुरू करने के लिए अपने अफसरों को उकसाया, और तमाम ऐसी बातें कीं जो कि अमरीकी लोकतंत्र में मंजूर नहीं की जाती हैं। लेकिन यह बददिमागी बढ़ते-बढ़ते चुनावी नतीजों को खारिज करने तक पहुंच गई, और जनता के फैसले के खिलाफ खुली हिंसक बगावत करवाने तक। नतीजा यह हुआ कि उनके हिंसक समर्थकों ने संसद पर ऐसा भयानक हमला किया जैसा कि हॉलीवुड की किसी फिल्म में ही सोचा जा सकता था, असल अमरीका में नहीं।
अमरीकी न्याय विभाग को ट्रंप के खिलाफ ऐसे गंभीर अपराधों के पुख्ता सुबूतों का इस्तेमाल करना चाहिए, और उन्हें अदालत के कटघरे तक ले जाना चाहिए। शायद ऐसा होगा भी। ट्रंप की रिपब्लिकन पार्टी भी ट्रंप की हरकतों से थकी हुई है, और उसके भी कई लोग यह चाहते हैं कि अगले चुनाव में ट्रंप को राष्ट्रपति बनाने के लिए फिर काम करने की नौबत न आए, और ट्रंप से इस तरह छुटकारा मिल जाए। जब पार्टी राजनीतिक रूप से ट्रंप से छुटकारा नहीं पा सक रही है, तब वह अदालत की किसी कार्रवाई की वजह से मिल सकने वाले ऐसे छुटकारे को काम का समझ सकती है। वैसे भी अमरीकी लोकतंत्र में बाकी ट्रंप सरीखे लोगों को यह सबक मिलना चाहिए कि लोकतंत्र पर ऐसा जानलेवा हमला करके किसी की जगह दुबारा कोई निर्वाचित दफ्तर नहीं हो सकता, जेल ही हो सकती है।
दुनिया के बहुत से सभ्य और विकसित लोकतंत्रों में तो लोगों के स्वस्थ मनोरंजन और रोमांच के लिए बहुत कुछ रहता है, लेकिन जो देश धर्म, जाति, खानपान, पोशाक की नफरत में डूबे रहते हैं, वहां स्वस्थ मनोरंजन की गुंजाइश बड़ी कम हो जाती है। ऐसे देशों के लिए भी बीती रात बहुत अहमियत वाली थी क्योंकि फुटबॉल के विश्वकप फाइनल में जो दो टीमें मैदान पर थीं, उनमें न कोई बेशरम रंग दिख रहे थे, और न ही शर्मीले, दोनों में से किसी टीम में ऐसा मजहब ही दिख रहा था कि जिसकी वजह से उसकी हार की हसरत पाल ली जाए। नतीजा यह हुआ कि हिन्दुस्तान में भी बीती रात तकरीबन तमाम लोगों ने फुटबॉल का मजा लिया, और खासकर उन लोगों ने भी जिनका सुबह से रात तक का वक्त नफरत में भीगा हुआ रहता है। कल के इस मैच में नफरत के लायक कुछ नहीं था, और यह हिन्दुस्तान के एक तबके के लिए बड़ा दुर्लभ मौका था।
विश्वकप फुटबॉल का कल का फाइनल गजब का था। किसी हिन्दी फिल्म की कहानी की तरह मैच शुरू होने के पहले से इन दोनों देशों से परे के अधिकतर देशों या लोगों के खयालों में यह बात बसी हुई थी कि अर्जेंटीना के खिलाड़ी लियोनेल मेसी का यह आखिरी अंतरराष्ट्रीय मैच है, और इसके बाद रिटायर हो जाने की घोषणा वे खुद कर चुके हैं। वे बहुत किस्म के रिकॉर्ड बनाने में अपने देश के अपने पहले के एक महानतम खिलाड़ी माराडोना की बराबरी कर चुके थे, और सिर्फ विश्वकप जीतना उनके नाम पर दर्ज नहीं था। इस टूर्नामेंट के शुरू होने के पहले से यह एक बहुत बड़ा खतरा था कि 35 बरस की उम्र में आकर मेसी यह आखिरी विश्वकप खेल रहे थे, और अगर इस बार उनकी टीम नहीं जीतती, तो वे विश्वकप जीतने के सपने को लिए लिए अंतरराष्ट्रीय फुटबॉल से बिदा हो जाएंगे। यह नौबत बड़ी फिल्मी थी, और खासकर तब जब इस बार के टूर्नामेंट में अर्जेंटीना की टीम शुरुआत में ही सऊदी अरब से हार गई थी। इस मैच के बाद लोगों को इस टीम से उम्मीदें खत्म हो चली थीं, लेकिन इसने बीती रात गजब का खेल दिखाया, और विश्वकप भी जीता, और सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी का गोल्डन बॉल पुरस्कार भी मेसी को मिला। यह सब कुछ उनकी जिंदगी के इस आखिरी अंतरराष्ट्रीय मैच में हुआ, जिसमें यह सब हुए बिना भी वे घर लौट सकते थे। किसी हिन्दी फिल्म की कहानी की तरह आखिर में जाकर जिस तरह हीरो और हीरोईन मिलते हैं, उसी तरह मेसी और उनकी यह आखिरी और सबसे बड़ी कामयाबी एक-दूसरे से मिले!
किसी खेल या टूर्नामेंट के बारे में विचारों के इस कॉलम में लिखने की हमें शायद ही कभी सूझती है, लेकिन खेल की तकनीकी बारीकियों से परे की बातों पर तो लिखा ही जा सकता है। कल के ही मैच को देखें तो मेसी की तरह ही दस नंबर की जर्सी पहने हुए फ्रांस के स्टार खिलाड़ी किलियन एमबापे का दर्द हार के बाद देखने लायक था। दर्शकों में मौजूद फ्रांस के राष्ट्रपति ने जिस तरह अपनी हारी हुई टीम के बीच मैदान पर पहुंचकर देर तक एमबापे को लिपटाकर दिलासा दिलाया, वह भी देखने लायक था। लेकिन इस फ्रांसीसी सितारे के लिए फुटबॉल की जिंदगी अभी खत्म नहीं हो रही है। वह अभी महज 23 बरस का है, उसके नाम ढेर अंतरराष्ट्रीय गोल करना दर्ज है, और ऐसा माना जाता है कि वह अगले कई और विश्वकप खेलने की संभावना रखता है। इसलिए अगर कल उसकी टीम विश्वकप नहीं जीत पाई, तो यह मेसी की तरह संभावनाओं का अंत नहीं था, अभी उसके सामने फुटबॉल की दुनिया की इस सबसे बड़ी ट्रॉफी को उठाने का बहुत सा मौका बाकी है। इसलिए कल की इस जीत-हार की एक खूबी यह रही कि आखिरी मौके वाले मेसी को मौका मिला, और बिल्कुल जवान खिलाड़ी एमबापे को इस मुकाबले में भी गोल दागने का।
कल के इस मुकाबले से परे, इस बार के विश्वकप में पहली बार एक अफ्रीकी टीम सेमीफाइनल तक पहुंची। मोरक्को ने एक नया रिकॉर्ड कायम किया, अफ्रीका के पौने चार करोड़ आबादी वाले इस देश ने जिस तरह लोगों का दिल जीता, और सेमीफाइनल तक पहुंचने का एक रिकॉर्ड बनाया, उससे भी बाकी दुनिया के बहुत से देशों को बहुत कुछ सीखने की जरूरत है। दुनिया के 32 देशों की टीमें इसमें शामिल हुईं, और इनमें मोरक्को जैसा कम आबादी का देश भी था, लेकिन हिन्दुस्तान जैसा 140 करोड़ आबादी का विश्वगुरू इन 32 टीमों में नहीं था। आबादी के हिसाब से वह दुनिया में दूसरे नंबर पर है, यहां पर फुटबॉल अच्छा-खासा खेला भी जाता है, लेकिन शायद क्रिकेट की दीवानगी की वजह से, या कुछ और वजहों से यह 32 टीमों में भी शामिल नहीं था। एक तरफ क्रिकेट जैसा खेल जिसके लिए सब कुछ खासा महंगा लगता है, दूसरी तरफ फुटबॉल जो कि सबसे ही सस्ता खेल है, जिसे बचपन से हिन्दुस्तानी बच्चे गली-गली खेलते हैं, लेकिन जब फुटबॉल के अंतरराष्ट्रीय मुकाबले की बात आती है, तो हिन्दुस्तान दुनिया के नक्शे से गायब ही है। और फुटबॉल का इतिहास बताता है कि 1950 में आखिरी बार हिन्दुस्तान फुटबॉल वल्र्डकप मुकाबले में दाखिल हो रहा था कि आयोजक फीफा को पता लगा कि भारतीय टीम फुटबॉल के जूते नहीं पहनेगी, और नंगे पैर खेलेगी, तो उसमें भारत के खेलने पर रोक लगा दी थी। वह दिन है, और आज का दिन है कि भारत फिर कभी फुटबॉल विश्वकप में खेलने लायक दर्जा नहीं पा सका। और इस बार तो अंतरराष्ट्रीय फुटबॉल एसोसिएशन फेडरेशन (फीफा) ने भारतीय फुटबॉल फेडरेशन को उसके घरेलू मामलों की वजह से कुछ वक्त के लिए सस्पेंड भी कर दिया था। इस देश में अंतरराष्ट्रीय फुटबॉल खेलने की भी लंबी परंपरा है, लंबा इतिहास है, लेकिन जब फीफा ने विश्वकप के लिए टीमों को छांटा, और 32 टीमों की सीमा थी, तो उसमें हिन्दुस्तान का नंबर 106 था। मोरक्को से 37 गुना अधिक आबादी वाला यह देश 106 नंबर पर रहा, और मोरक्को इस टूर्नामेंट में खेलते हुए सेमीफाइनल तक पहुंचा।
हिन्दुस्तान जैसे देश को अपने देश में इस खेल की एक मजबूत बुनियाद होते हुए, इतनी बड़ी आबादी होते हुए भी दुनिया में 106 नंबर पर होने के बारे में सोचना चाहिए। यह भी सोचना चाहिए कि आज जब क्रिकेट के अलावा हॉकी जैसे दूसरे खेलों में भी भारत को कामयाबी और शोहरत मिल रही है, यहां की महिला खिलाड़ी भी बढ़-चढक़र कामयाब हो रही हैं, ओलंपिक और दूसरे अंतरराष्ट्रीय मुकाबलों में हिन्दुस्तान थोड़ा-थोड़ा आगे बढ़ रहा है, तो फुटबॉल जैसे कम खर्च वाले खेल की इस देश में बुनियाद कैसे मजबूत हो सकती है। फिलहाल जिन लोगों ने कल रात का यह फाइनल मैच नहीं देखा होगा, उन लोगों को इसका कोई रिपीट टेलीकास्ट जरूर देखना चाहिए, और यह भी देखना चाहिए कि अर्जेंटीना जैसे देश को इस जीत से कितना गौरव हासिल हुआ है। क्रिकेट से परे एक सस्ते और आसान खेल में भी संभावनाएं ढूंढनी चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट को लेकर केन्द्र सरकार का रूख एक पहेली की तरह बना हुआ है। पिछले कई महीनों से केन्द्रीय कानून मंत्री किरण रिजिजू तरह-तरह के कार्यक्रमों में या मीडिया से बात करते हुए जिस तरह सुप्रीम कोर्ट की आलोचना कर रहे हैं, वह एक सिलसिले के रूप में देखने पर कोई मासूम हरकत नहीं लगती है। इसके पीछे कोई सोची-समझी बात है, और अदालत से केन्द्र सरकार का सतह के नीचे चलता कोई टकराव दिख रहा है। उन्होंने जजों की नियुक्ति के लिए सुप्रीम कोर्ट द्वारा तय की गई कॉलेजियम प्रणाली की कड़ी आलोचना की, फिर कुछ और मामलों में अदालत के बारे में तरह-तरह की असहमति जताई। अभी उन्होंने सुप्रीम कोर्ट को यह नसीहत दी कि उसे जमानत के मामलों को, और जनहित याचिकाओं को नहीं सुनना चाहिए क्योंकि उनमें बहुत वक्त लगता है। फिर उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के जजों की लंबी छुट्टियों के बारे में कहा इससे वहां चल रहे मुकदमों के लोगों को बड़ी असुविधा होती है। दूसरी तरफ सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चन्द्रचूड़ तुर्की-ब-तुर्की जवाब भी दे रहे हैं।
इससे कम से कम एक यह बात तो समझ में आती है कि केन्द्र सरकार चन्द्रचूड़ के साथ उतनी सहूलियत महसूस नहीं कर रही है जितनी वह पिछले मुख्य न्यायाधीश यू यू ललित के साथ महसूस करती थी। जजों की अपनी निजी राय रहती है, और सरकारें यह अंदाज लगा लेती हैं कि उसकी दिलचस्पी के मामलों में किस जज का क्या रूख रहेगा। इसी को देखते हुए केन्द्र सरकार कॉलेजियम के भेजे हुए नामों को मंजूरी देने के पहले उन्हें महीनों या बरसों तक टांगकर रखती है ताकि जिन जजों या वकीलों के नाम भेजे गए हैं, उनकी सोच अगर सरकार को माकूल नहीं लगती है, तो उन्हें मंजूरी न दी जाए। नतीजा यह होता है कि ऐसी लिस्ट में से कई वकील थककर अपने नाम वापिस ले लेते हैं क्योंकि उन्हें यह समझ आ जाता है कि वे एक तारीख के बाद जज बनने पर कभी चीफ जस्टिस नहीं बन पाएंगे। अभी हाल में ही ऐसे कई लोगों ने अपने नाम वापिस ले लिए हैं। जजों की खाली पड़ी हुई कुर्सियों और सरकार के पास कॉलेजियम की भेजी गई फेहरिस्त का जब साथ-साथ साल-दो-साल इंतजार चलता है तो जाहिर है कि अदालत में मामलों का ढेर बढ़ते चलेगा। लेकिन मौजूदा सरकार को नामों की ऐसी लिस्ट को एक-दो बरस तक भी रोकने से कोई परहेज नहीं है। मुख्य न्यायाधीश सार्वजनिक कार्यक्रम में भी इस बात को उठा चुके हैं, और अब तो ऐसा लगता है कि केन्द्र सरकार के साथ-साथ सुप्रीम कोर्ट भी जनता के बीच अपनी स्थिति को रख देना चाहता है कि सरकार की किन बातों से उसके काम पर असर पड़ रहा है। फिर यह भी लगता है कि भारतीय लोकतंत्र के तीन स्तंभों में से दो, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच अधिकारों को लेकर भी एक खींचतान चल रही है। यह नौबत तब और गंभीर हो जाती है जब लोकतंत्र का तीसरा स्तंभ, विधायिका, अपने भीतर सत्तारूढ़ पार्टी के असीमित बाहुबल के चलते भारतीय लोकतंत्र को अब दो स्तंभों का ही बना चुका है। अब देश में सरकार और अदालत इन्हीं दो का मतलब रह गया है क्योंकि संसद में न तो कोई विपक्ष कोई ताकत रखता, और न ही सरकार को उसकी कोई परवाह ही है। ऐसी हालत में सरकार अपने संसदीय बाहुबल के साथ मिलकर सुप्रीम कोर्ट से दो-दो हाथ करने को उतावली दिख रही है। लेकिन आज के मुख्य न्यायाधीश सरकार के इस रूख के सामने झुकते हुए भी नहीं दिख रहे हैं।
दरअसल भारतीय संविधान जब बना, उस वक्त शायद देश में ऐसी संसदीय स्थिति की कल्पना नहीं रही होगी कि संसद में लगातार एक ही पार्टी का इतना बड़ा बहुमत जारी रहेगा, जो कि देश की तकरीबन तमाम विधानसभाओं तक भी फैला हुआ रहेगा। ऐसा बाहुबल सत्तारूढ़ पार्टी की सोच को संविधान संशोधन में बदलने की ताकत रखता है, और इसीलिए आज हिन्दुस्तान कई किस्म के नए कानूनों को देख रहा है, केन्द्र-राज्य संबंधों में नई तनातनी झेल रहा है, और अब केन्द्र में सत्तारूढ़ ताकतों को शायद यह लग रहा है कि ऐसे अभूतपूर्व जन-बहुमत के रहते हुए भी सुप्रीम कोर्ट अगर एक प्रतिबद्ध-न्यायपालिका के रूप में काम नहीं कर रहा है, तो क्यों नहीं कर रहा है? लोगों को याद होगा कि प्रतिबद्ध-न्यायपालिका शब्द का पिछला या पहला इस्तेमाल इमरजेंसी के दौरान हुआ था जब तानाशाह हो चुकी इंदिरा सरकार और सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी न्यायपालिका से यह उम्मीद कर रही थी कि उसे सरकार के नजरिए से प्रतिबद्ध होकर चलना चाहिए। आज केन्द्रीय कानून मंत्री के लगातार बयानों से अगर सीधे-सीधे यह मतलब नहीं भी निकल रहा है, तो भी इससे सीधे-सीधे उसी दौर की याद आ रही है।
हम केन्द्र और सुप्रीम कोर्ट में किसी टकराव की चाहत के बिना यह उम्मीद जरूर करते हैं कि सुप्रीम कोर्ट सिर्फ देश के संविधान के प्रति अपनी प्रतिबद्धता रखे, और अगर उसके शब्दों के बीच व्याख्या की गुंजाइश है, तो जजों को अपने सरोकार सरकार के साथ नहीं, जनता के साथ जोडऩे चाहिए। लोकतंत्र में जैसे-जैसे सरकार मजबूत होती है, संसद एकतरफा होती है, वैसे-वैसे सुप्रीम कोर्ट को अपनी जिम्मेदारी को अधिक गंभीरता से लेने की जरूरत भी होती है। आज का यह दौर देश की सरकार के साथ-साथ देश की तमाम संवैधानिक संस्थाओं पर एक विचारधारा की ताकतों के एकाधिकार की कोशिश का दौर दिख रहा है। केन्द्र सरकार इसमें बहुत हद तक कामयाब भी हुई है, और मोदी सरकार के इन आठ बरसों में तकरीबन तमाम संवैधानिक संस्थाओं पर लगभग-प्रतिबद्धता की नौबत आ चुकी है। यह वक्त एक बहुत जिम्मेदार और मजबूत रीढ़ वाले सुप्रीम कोर्ट की जरूरत का है, और चूंकि मौजूदा मुख्य न्यायाधीश का कार्यकाल पर्याप्त बाकी है, इसलिए इतिहास इस दौर को गौर से दर्ज करेगा।
ब्राजील में अभी हुए एक वैज्ञानिक शोध में यह पता लगा है कि फास्टफूड या जंकफूड कहे जाने वाले डिब्बा और पैकेट बंद सामान या बाजार में मिलने वाले बर्गर के दर्जे के खानपान से लोगों की याददाश्त कमजोर होने का खतरा बढ़ जाता है। आठ बरस तक दस हजार से अधिक औरत-मर्दों पर किए गए इस अध्ययन में यह पाया गया कि ऐसे अल्ट्रा प्रोसेस्ड खानपान वाले लोगों में याददाश्त कमजोर होने के मामले ऐसा कम से कम खाने वाले लोगों से 28 फीसदी अधिक थे। इस अध्ययन से यह भी साफ होता है कि मानसिक स्वास्थ्य को बनाने मेंं खानपान की एक भूमिका है। दूसरी तरफ एक अलग रिसर्च का नतीजा यह है कि किसी भी किस्म की कसरत लोगों में रोकी जा सकने वाली बीमारियों को रोकने की अकेली सबसे बड़ी तरकीब है। कसरत या किसी और किस्म से बदन की मेहनत से आंतों से लेकर दिमाग तक असर पड़ता है, और जिसे इंसान मन कहते हैं, वह मन भी जोश से भरता है।
ऐसे अलग-अलग बहुत से रिसर्च-नतीजे हैं और दो बातों को लेकर कोई मतभेद नहीं हो सकता कि जंकफूड किस्म के जितने खानपान हैं, उनसे सेहत को अपार नुकसान पहुंचता है, दूसरी तरफ खेलकूद, कसरत, या पैदल-सैर से लोगों की सेहत को बहुत फायदा पहुंचता है। एक दूसरी बात यह है कि ऐसा नुकसान या ऐसा फायदा, ये दोनों ही बातें लोगों की अगली पीढिय़ों तक पहुंचती हैं, और अच्छी या बुरी आदतें विरासत की शक्ल में आगे बढ़ती हैं। ये दोनों ही बातें आज फिक्र करने की इसलिए हैं कि पैकेट और डिब्बों में बंद, और टेलीफोन पर ऑर्डर करने से घर पहुंचने वाला बाजारू खाना बढ़ते चल रहा है। लोग पकाने का वक्त या सहूलियत न रहने से भी ऐसा करते हैं, और जुबान के शौक की वजह से भी ऐसी चीजों को मंगाना पसंद करते हैं जिन्हें घर पर पकाना आसान नहीं है। फिर बाजार को अपने ग्राहक बांधकर रखने होते हैं, इसलिए स्वाद को बढ़ाने के लिए इतने किस्म की चीजों को इस हद तक डाला जाता है, कि जिससे सेहत के चौपट होने की गारंटी सरीखी रहती है। इन दिनों संपन्न परिवारों के बच्चे बचपन से ही ऐसे खानों के शिकार हुए जा रहे हैं, और इसके खतरे की तरफ सरकार और समाज की जागरूकता बिल्कुल भी नहीं है। और परिवार भी समाज से प्रभावित होते हैं, और इस तरह का खानपान बड़ों से लेकर छोटों तक जमकर बढ़ते चल रहा है, और इसके साथ-साथ ही इन सबकी आने वाली जिंदगी में कई किस्म की ऐसी बीमारियों का खतरा भी बढ़ते चल रहा है जिन्हें कि आसानी से रोका जा सकता था।
एक तरफ तो नुकसानदेह खानपान को घटाने की जरूरत है, दूसरी तरफ सेहतमंद जीवनशैली को अपनाने की जरूरत है। बिना किसी खर्च के लोग खाली हाथों कुछ देर कसरत कर सकते हैं, कुछ देर पैदल चल सकते हैं, कुछ देर योग या प्राणायाम कर सकते हैं। इनमें एक धेला भी खर्च नहीं होता, लेकिन लोगों की काम करने की क्षमता बढ़ती है, रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है, और अधिक काम करने का उत्साह भी बढ़ता है। अब यह बात निर्विवाद रूप से, वैज्ञानिक तथ्यों से साबित हो चुकी है कि खेलकूद या कसरत से दिमाग में हार्मोन रिलीज होते हैं जो लोगों को खुशमिजाज भी बनाते हैं, और उनकी जिंदगी सुखी करते हैं। बचपन और जवानी के समय से अगर लोग खेलना-कूदना, कसरत और पैदल चलना शुरू कर देते हैं, तो उनकी जिंदगी गंभीर बीमारियों से बचने की गुंजाइश बढ़ जाती है, और बुढ़ापा शर्तिया अधिक आरामदेह हो जाता है।
हिन्दुस्तान मेंं केन्द्र सरकार की तरफ से फिटइंडिया नाम का एक अभियान कुछ बरस पहले छेड़ा गया था, और वह झाड़ू लगाने के सफाई अभियान की तरह आया-गया हो गया। अब कोई उसकी चर्चा भी नहीं करते। अब न लोगों को फिट रहने के तरीके सुझाने पर कोई मेहनत दिखती, और न ही खराब खाने से सावधान करने का कोई अभियान दिखता। नतीजा यह है कि छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर जैसे शहरों में पैदल चलने के लिए तालाबों के जो किनारे थे, जो मैदान और बगीचे थे, उन पर धड़ल्ले से अवैध निर्माण हो रहे हैं, और खानपान के बाजार वहां खड़े किए जा रहे हैं। लोगों के लिए खुली जगहें म्युनिसिपल और सरकार के लिए आखिरी प्राथमिकता, या नाजायज औलाद की तरह हो गई हैं, और इंच-इंच का भ्रष्ट बाजारू इस्तेमाल भ्रष्ट कमाई का बड़ा जरिया हो गया है। जिस जगह लोग सपरिवार घूम सकते थे, अब वहां लोग सपरिवार बाजारू खानपान ही कर सकते हैं।
सरकारों को बड़े खर्च वाले संगठित काम अच्छे लगते हैं। लोगों में खानपान और सेहत की जागरूकता से सरकारों में बैठे लोगों को कुछ नहीं मिलना है। लेकिन सार्वजनिक जगहों पर बर्बाद खानपान वाले बाजार बसाने में सत्तारूढ़ लोगों को खासी कमाई होती है। दूसरी तरफ लोगों के इलाज के लिए जब सरकारें निजी अस्पतालों को या स्वास्थ्य बीमा कंपनियों को सैकड़ों करोड़ का भुगतान करती हैं, तो उसमें भी सत्ता को कमाई होती है। लोगों से सेहतमंद खाने को कहना, और सेहतमंद जिंदगी गुजारने को कहने से किसी की कोई कमाई नहीं होती। इसलिए सरकार से कोई उम्मीद करना बेकार है। वह तो खुली जगहों को कांक्रीट का जंगल बनाती चलेंगी, और बेचती चलेंगी। लोगों को खुद ही अपने बीच, अपने-अपने दायरे में सेहतमंद खानपान और सेहतमंद जिंदगी को बढ़ावा देना होगा। पहले खुद फिट, फिर परिवार, और फिर आसपास का संसार। इनमें से कोई भी बात अंतरिक्ष विज्ञान जैसे रहस्य की नहीं है। अपनी ही पिछली पीढिय़ों को देखें तो बड़े बुजुर्ग यह सब करते आए हैं, इनसे जिंदगी किफायती भी रहती है, सेहतमंद भी रहती है। और जैसा कि अभी इस नये अध्ययन से पता लगा है कि जंकफूड खाने वालों की याददाश्त भी कमजोर हो रही है। और किसी चीज की न सही कम से कम इस नई बात की तो परवाह करें, क्योंकि याददाश्त नहीं रहेगी तो जिंदगी कैसी मुश्किल होगी इसे देखने के लिए आसपास कुछ बुजुर्ग मरीजों को देखा जा सकता है।
हर कुछ हफ्तों में बलात्कार में शामिल नाबालिगों पर लिखना पड़ता है। अब कल छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में पुलिस ने तेजी से बलात्कार और हत्या का एक ऐसा मामला सुलझाया जिसमें पड़ोस के तेरह बरस के लडक़े ने आठ बरस की बच्ची से बलात्कार किया, और फिर उसका गला घोंटकर मार डाला। पुलिस जांच में किसी सीसीटीवी कैमरे में इन दोनों को साथ जाते देखा गया, और फिर छानबीन में यह लडक़ा पकड़ में आया। यह अपने परिवार के लोगों के मोबाइल फोन पर पोर्नो फिल्में देखा करता था, और मानो उसी के असर से उसने असल जिंदगी में उसी किस्म का जबरिया सेक्स किया, और फिर छोटी बच्ची को मार डाला। पुलिस की दी गई जानकारी में यह भी पता लगा है कि इस बलात्कारी लडक़े का पिता भी अपनी सगी नाबालिग बेटी के साथ रेप के मामले में तीन बरस तक जेल में बंद था, और एक महीना पहले ही जेल से छूटकर आया है। जाहिर है कि इन बरसों में इस लडक़े ने अपने पिता के जुर्म को परिवार के भीतर ही देखा था, सजा को भी देखा था, लेकिन उसे जुर्म तो शायद प्रेरणा मिल गई, पिता को मिली सजा से उसे सबक नहीं मिला। एक मासूम बच्ची की जिंदगी चली गई, और यह नाबालिग लडक़ा अगले कई बरस के लिए सजा काटने चले गया।
हिन्दुस्तान में ऐसे मामले लगातार बढ़ते जा रहे हैं जिनमें मोबाइल फोन पोर्नोग्राफी देखकर बच्चे इस तरह से बलात्कार करें। वैसे तो पूरे देश से इस किस्म की हिंसा और ऐसे जुर्म की खबरें आती ही रहती हैं, लेकिन कल का यह मामला छत्तीसगढ़ में उजागर हुआ है इसलिए यह याद आया कि पिछले पखवाड़े ही छत्तीसगढ़ के बेमेतरा में दस साल की एक बच्ची फांसी पर टंगी मिली। जब उसकी जांच की गई तो पता लगा कि उसके साथ बलात्कार भी हुआ था, अड़ोस-पड़ोस में जांच हुई तो पास के एक नाबालिग लडक़े को पकड़ा गया जिसने बताया कि वह मोबाइल पर अश्लील वीडियो देखते रहता था, और उसने पड़ोस में इस छोटी लडक़ी को पकडक़र रेप किया, और फिर बात खुल जाने के डर से उसकी हत्या करके उसे चुनरी से फांसी पर टांग दिया था। एक पखवाड़े में सौ किलोमीटर के भीतर ठीक ऐसा ही यह दूसरा मामला तकरीबन उसी उम्र के बच्चे का किया हुआ मिला है। और यह तो ऐसा मामला है जिसमें कत्ल की वजह से बात सामने आ गई, वरना घर-परिवार, पड़ोस-रिश्तेदार के भीतर ऐसे मामले बड़ी संख्या में होते हैं, और उन्हें सामाजिक बदनामी के डर से दबा दिया जाता है। लोगों को याद होगा कि अभी चार दिन पहले ही देश के मुख्य न्यायाधीश चन्द्रचूड़ ने कहा है कि बच्चों से बलात्कार के मामलों में परिवारों को सामने आकर पुलिस में रिपोर्ट लिखानी चाहिए। यह बात पूरी दुनिया पर लागू होती है कि अगर ऐसे अपराधी बच जाते हैं, तो वे दूसरे बच्चों के साथ भी इसी तरह का जुर्म तब तक करते रहते हैं जब तक कि वे पकड़ा नहीं जाते हैं। इसलिए किसी मामले को आसपास के संबंधी होने की वजह से दबा देने का मतलब और बच्चों को वैसे ही खतरे में डालना होता है।
अब मोबाइल फोन तो एक हकीकत हो गई है, और किसी बच्चे की फोन तक पहुंच रोकना मुमकिन नहीं है। यह भी समझ पड़ रहा है कि परिवार के बड़े लोगों के फोन तक बच्चों की पहुंच रहती है, और अगर बड़े लोगों ने पोर्नोग्राफी देखी हुई है, तो उनके फोन में इसकी हिस्ट्री बची रहती है, और उससे खेलते बच्चों के लिए यह एक आसान रास्ता पोर्नोग्राफी तक पहुंचने का बना रहता है। फिर यह भी है कि आज दुनिया का माहौल बदलने की वजह से, बच्चों के मानसिक और शारीरिक बदलाव कमउम्र में आने की वजह से उनका सेक्स से वास्ता पहले के मुकाबले कमउम्र में पडऩे लगता है। मां-बाप को यह समझ ही नहीं आता कि उनके बच्चे अब सेक्स की तरफ देखने लगे हैं, क्योंकि जब वे उस उम्र के थे, तो उन्हें इसकी कोई समझ नहीं थी। पीढिय़ों में यह फर्क आते चल रहा है, और इसके साथ-साथ हिन्दुस्तान में एक बड़ी दिक्कत यह भी है कि मां-बाप और समाज यह मानकर चलते हैं कि किसी सेक्स शिक्षा की जरूरत नहीं है। इस देश की दकियानूसी और पाखंडी ताकतों ने इसे देश की संस्कृति से जोड़ दिया है, और बात-बात पर वे झंडा-डंडा उठा लेते हैं कि भारतीय संस्कृति को बर्बाद नहीं करने दिया जाएगा। सेक्स शब्द को ही पश्चिमी मान लिया जाता है, जबकि हिन्दुस्तान के इतिहास और पौराणिक कथाओं में कई जगह ऐसा जिक्र भी है कि किसी लडक़ी की माहवारी शुरू होने के बाद उसके मां बनने के मौके को बर्बाद नहीं करना चाहिए। कन्नड़ के ज्ञानपीठ विजेता लेखक भैरप्पा के महाभारत की पृष्ठभूमि पर लिखे एक उपन्यास को देखें तो एक पिता इस बात को लेकर फिक्रमंद रहता है कि बेटी रजस्वला हो गई है, शादी नहीं हुई है, गर्भधारण का मौका बर्बाद होते जा रहा है। उस वक्त के इस चलन का भी इसमें जिक्र है कि शादी के पहले भी लड़कियां गर्भवती हो जाती थीं, और शादी के बाद वे अपने उन बच्चों के साथ पति के घर जाती थीं। इसलिए शादी के पहले, या कमउम्र में सेक्स कोई पश्चिमी बात नहीं है, यह हिन्दुस्तान में भी प्रचलित बात रही है, यह एक अलग बात है कि आज एक बेबुनियाद नवशुद्धतावादी काल्पनिक इतिहास को गढक़र सेक्स को एक अवांछित बात मान लिया गया है। जबकि इन्हीं कन्नड़ लेखक के कर्नाटक में अभी कुछ ही दिन पहले बेंगलुरू के एक निजी स्कूल में अचानक ही लडक़े-लड़कियों के स्कूल बैग जांचे गए तो उनमें कंडोम और खाने वाले गर्भनिरोधक भी निकले हैं। मुम्बई के एक प्रमुख सेक्स परामर्शदाता ने अभी एक इंटरव्यू में यह कहा कि उनके पास दस-बारह उम्र के बच्चों के ऐसे मामले आने लगे हैं जो कि उनके बीच सेक्स से जुड़े हुए हैं।
हिन्दुस्तान को इस बात की पूरी आजादी है कि वह सिर को रेत में छुपाकर हकीकत की तरफ से आंखें मूंदे रहे, और आने वाली पीढ़ी को तरह-तरह के खतरों में डालना जारी रखे। आज जहां सेक्स को जुर्म की तरह दर्ज नहीं भी करवाया जा रहा है, वहां भी कमउम्र के असुरक्षित सेक्स से गर्भ का खतरा भी बना रहता है, और दर्जनों किस्म की यौन-बीमारियों के फैलने का भी। दूसरी तरफ जिन स्कूली बच्चों के पास गर्भनिरोधक मिले हैं, वे दूसरे बच्चों के मुकाबले कुछ अधिक जागरूक हैं क्योंकि वे अपनी शारीरिक-मानसिक जरूरतों को पूरा करते हुए बीमारी और गर्भधारण से बचाव की फिक्र भी कर रहे हैं। यह बात सुनने में चाहे कितनी ही बुरी लगती हो, आज सच तो यह है कि स्कूल पार करते-करते शायद अधिकतर बच्चे किसी न किसी तरह सेक्स का तजुर्बा ले चुके रहते हैं। अब उन्हें परिवार, स्कूल, या समाज बचाव के तरीके सिखाए या नहीं, वे अपनी जरूरतें तो पूरी करते रहते हैं, और भयानक सच तो यह है कि आज अधिकतर बच्चों के पास सेक्स की किसी भी तरह की शिक्षा के नाम पर सिर्फ पोर्नोग्राफी मौजूद है, जो कि सबसे ही खतरनाक किस्म की शिक्षा है। पोर्नोग्राफी प्राकृतिक या स्वाभाविक सेक्स के बजाय बलात्कार और जबरिया सेक्स सिखाती है, और अब तो छोटे-छोटे बच्चे भी उसे सीख रहे हैं।
आज हिन्दुस्तान में जो राजनीतिक दल एक तथाकथित भारतीय संस्कृति के नाम पर वोट दुहने में लगे रहते हैं, वे सेक्स शब्द को ही जेल में डाल देने के हिमायती हैं। और ऐसे कट्टर लोगों के खिलाफ दूसरी बेहतर राजनीतिक पार्टियां भी कुछ बोलने से कतराती हैं, क्योंकि उन्हें बदचलनी बढ़ाने वाला करार दे दिया जाएगा। नतीजा यह है कि देश की शिक्षा नीति को तय करने वाले लोग किशोरावस्था में पहुंचे हुए बच्चों को भी अपने शरीर और स्वास्थ्य की सुरक्षा सीखने देना नहीं चाहते, वे इसे चरित्रहीनता और पश्चिमी संस्कृति करार दे रहे हैं। यह सिलसिला खत्म होना चाहिए क्योंकि अपनी देह से अनजान पीढ़ी सेक्स तक तो उसी तरह पहुंच जा रही है जिस तरह जानवर भी आपस में पहुंच जाते हैं, लेकिन जानवरों में कुछ भी अवांछित गर्भ नहीं होता, यौन-बीमारियों का खतरा या उससे बचाव नहीं होता, इसलिए उनमें तो काम चल जाता है, इंसानों के बच्चों में इससे खतरनाक जुर्म खड़े हो रहे हैं, और सेहत के लिए खतरे भी।
कल छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में दिनदहाड़े खुली सडक़ पर एक दबंग की कार रोककर किसी ने उसे गोलियों से भून डाला। आधा दर्जन फायर किए गए, और कार की सीट पर बैठे हुए ही संजू त्रिपाठी नाम के इस निगरानीशुदा बदमाश की मौत हो गई। कार के सामने जिला कांग्रेस महामंत्री की तख्ती लगी हुई थी, और इस मृतक ने अपने तीन-तीन फेसबुक अकाऊंट पर अपना यही पदनाम लिखकर रखा था। जब चारों तरफ खबरों में फैला कि सत्तारूढ़ पार्टी के जिला महामंत्री की इस तरह सडक़ पर हत्या हो गई, तो जिस रफ्तार से पुलिस ने हत्यारे की तलाश शुरू की होगी, उसी रफ्तार से उसने इस बात का खंडन जारी किया कि मृतक किसी राजनीतिक दल से जुड़ा हुआ था। यह बात अपने आपमें हैरान करती है कि पुलिस कैसे किसी राजनीतिक दल, या सभी राजनीतिक दलों की तरफ से कोई सफाई दे सकती है कि मरने वाला उनका सदस्य या पदाधिकारी नहीं था? लेकिन पुलिस को एक हत्या, और सत्तारूढ़ पार्टी के एक नेता की हत्या में ऐसा बड़ा फर्क दिख रहा था कि वह आनन-फानन प्रेसनोट जारी कर रही थी कि मरने वाला किसी राजनीतिक दल से जुड़ा नहीं था, मानो राजनीतिक दल से परे के किसी की हत्या हो जाना कम अहमियत की बात है।
पुलिस ने आनन-फानन इस मृतक पर दर्ज दर्जनों मामलों की जानकारी जारी की कि यह पुराना आदतन अपराधी था, और इस पर तरह-तरह के हथियारबंद जुर्म करने के मामले दर्ज थे। मामलों की यह लिस्ट 40 पेज लंबी थी, और यह जाहिर है कि यह पुलिस के पास पहले से तैयार थी। अब हैरानी की बात यह है कि अगर इतने अपराधों से जुड़ा हुआ एक आदतन अपराधी अपनी महंगी और बड़ी सी कार पर जिला कांग्रेस महामंत्री की तख्ती लगाकर चल रहा है, तो भी न यह कांग्रेस को दिक्कत की बात लग रही, और न ही पुलिस को। अब कम से कम इस मामले के सामने आने के बाद राजनीतिक दलों को चौकन्ना हो जाना चाहिए कि उनकी पार्टी या पदों के नाम की तख्ती लगाकर घूमने वाले लोग कैसे हैं। इस मृतक के फेसबुक पेज पर उसके जितने तरह के पोस्टर दिख रहे हैं, उन पर भी कांग्रेस के पदाधिकारी होने का बड़ा साफ-साफ जिक्र है। तो क्या कांग्रेस पार्टी जनता से इतनी कट गई है कि गुंडे-मवाली उसके नाम का इस्तेमाल करें, उसके पदाधिकारी होने का दावा करें, और उसे पता भी न चले?
यह एक मामला इस बात का भी नमूना है कि यह आदमी पदाधिकारी सचमुच था या नहीं था, यह तो अलग बात है, लेकिन अपनी गाड़ी पर ऐसी तख्ती लगाकर घूमते हुए यह अपने अपराधों के लिए एक राजनीतिक आड़ तो इस्तेमाल कर ही रहा था। इसके ऊपर जिस तरह दर्जनों गंभीर मामले दर्ज हैं, वे अपने आपमें हैरान करते हैं कि इन सबके बावजूद यह आदमी बिलासपुर में खुलेआम घूम रहा था, और हर कुछ दिनों में कोई नया जुर्म कर भी रहा था। किसी शहर में ऐसी गुंडागर्दी करने वाले मुजरिम के खिलाफ तो सत्तारूढ़ पार्टी को खुद होकर भी कार्रवाई करनी चाहिए, लेकिन पार्टी से अपने युवक कांग्रेस के दिनों से जुड़ा हुआ यह मुजरिम डंके की चोट पर पार्टी का पदाधिकारी बना घूमते रहा, और किसी ने यह सिलसिला नहीं रोका।
छत्तीसगढ़ के शहर-कस्बों का यह आम हाल है कि यहां न सिर्फ सत्तारूढ़ पार्टी, बल्कि कोई दूसरे राजनीतिक दल, सामाजिक और धार्मिक संगठन, साम्प्रदायिक संगठन, सभी तरह की तख्तियां लगाकर लोग चलते हैं, और पुलिस किसी पर भी कार्रवाई करने से बचती है। ऐसा शक्तिप्रदर्शन पुलिस को धमकाने के लिए ही रहता है, और उसका असर यहां होते दिखता है। गाडिय़ों के लिए बने कानून में ऐसी तख्तियों पर तगड़े जुर्माने का इंतजाम है, लेकिन जुर्माना करने वाला पुलिस अमला इनसे सहमकर ही रहता है। ऐसे शक्तिप्रदर्शन का नतीजा यह होता है कि राजनीतिक दलों के पदाधिकारी गुंडागर्दी करने लगते हैं, और गुंडे राजनीतिक दलों के पदाधिकारी बनने की कोशिश करते रहते हैं ताकि उन्हें किसी भी कानूनी कार्रवाई का सामना न करना पड़े। यह सिलसिला पूरी तरह खत्म होना चाहिए। लेकिन दिक्कत यह है कि सांसद और विधायक, जज और बड़े-छोटे अफसर, सभी लोगों को तख्तियां लगाकर गाडिय़ों का हॉर्सपावर बढ़ाने का शौक रहता है, और यह आदत संक्रामक रोग की तरह बाकी लोगों में फैलती रहती है। जिन राजनीतिक दलों के लोग ऐसी तख्तियां लगाकर सड़क़ों पर शक्तिप्रदर्शन करते हैं, उन्हें जनता की नाराजगी भी मिलती है, लेकिन चूंकि सभी छोटी-बड़ी पार्टियों के लोग इस मनमानी में एक जैसे जुटे हुए हैं, इसलिए चुनाव में नुकसान का किसी को पता नहीं लगता है। यह सिलसिला खत्म होना चाहिए। और कल बिलासपुर में इस हत्या के बाद जिस तरह सत्तारूढ़ पार्टी से उसका रिश्ता न होने की बात कही जा रही है, तो सभी पार्टियों को ऐसी वारदात के पहले भी मुजरिमों से अपने रिश्तों, और अपनों से मुजरिमों के रिश्तों पर गौर कर लेना चाहिए।
अभी कुछ दिनों से सोशल मीडिया पर बेशरम रंग के बारे में काफी कुछ लिखा जा रहा है। यह शाहरूख खान और दीपिका पादुकोण के अभिनय वाली फिल्म, पठान, का एक बड़ा ही मादक फिल्माया गया गाना है। जिन लोगों को खूबसूरत शरीर को उघड़ा देखकर हीनभावना होती है, वैसे तमाम औरत-मर्दों की भावनाओं को यह गाना गहरी चोट दे सकता है क्योंकि इसमें थोक में, दर्जनों के भाव से खूबसूरत जिस्म उत्तेजक हाव-भाव दिखाते नाचते हैं, और दीपिका और शाहरूख इन दोनों के बदन देखते ही बनते हैं। जैसा कि मादकता के किसी भी मामले में हो सकता है, लोगों की सोच उसे लेकर अलग-अलग हो सकती है। नग्न बदन कुछ लोगों को अश्लील लग सकते हैं, कुछ लोगों को इस तरह के मादक और उत्तेजक डांस आपत्तिजनक लग सकते हैं। लेकिन हमारा यह मानना यह है कि खूबसूरत और गठे हुए बदनों को देखकर लोगों को आपत्ति कम होती है, रश्क अधिक होता है, और इसी जलन से हीनभावना में आकर वे इसे अश्लील करार देने लगते हैं क्योंकि खुद ऐसी अश्लीलता दिखाने लायक बदन नहीं रखते।
लेकिन बेशरम रंग नाम के इस गाने को लेकर लोगों की आपत्ति देखने लायक है। इस नाच-गाने में दीपिका ने दर्जनों पोशाकें बदली होंगी, लेकिन लोगों को उसमें से एक पोशाक से खास परहेज दिख रहा है जो कि भगवा-केसरिया जैसे रंग की है। इस रंग की बिकिनी में दीपिका की खूबसूरती देखते ही बनती है, बदन कुछ अधिक ही झांकते दिखता है, और इन्हीं पलों में वह शाहरूख की बांहों में, उसकी पकड़ में दिखती है। किसी भी फिल्म में नायक और नायिका का किरदार करने वाले लोगों के बीच यह अंतरंगता देखने लायक है, और ऐसे लोग सौंदर्यबोध के मामले में एकदम कंगाल दिखते हैं जिनको इतने खूबसूरत बदन के इतने खूबसूरत हिस्सों के बजाय गिने-चुने छोटे से कपड़ों का रंग दिख रहा है! और दिलचस्प बात यह है कि इसे शाहरूख के मजहब से जोडक़र देखा जा रहा है, और सोशल मीडिया पर प्रतिक्रिया ऐसी आ रही है कि मानो एक मुस्लिम ने एक हिन्दू का शोषण कर लिया है। ये दोनों कलाकार शादीशुदा हैं, दोनों परले दर्जे के कामयाब हैं, दोनों की जिंदगी विवादों से परे है, और एक फिल्म के किरदारों की शक्ल में इन्होंने जो किया है वह तारीफ के काबिल है। फिर भी शाहरूख के मुस्लिम होने से, और दीपिका पादुकोण के कुछ बरस पहले जेएनयू के आंदोलन में जाने की वजह से ये दोनों ही हिन्दुस्तान के दक्षिणपंथी साम्प्रदायिक आक्रामक हिन्दुत्ववादियों के निशाने पर रहे हैं। अब इस तबके की तमाम नफरत निकलकर सामने आ रही है कि मुसलमान अपनी औरतों को किस तरह ढांककर रखते हैं, और हिन्दू औरतों को किस तरह उघाडक़र दिखा रहे हैं। इसके साथ ही सोशल मीडिया पर बॉलीवुड और इस फिल्म के बायकॉट का फतवा जारी हो गया है, जो कि हो सकता है कि फिल्म के निर्माता की तरफ से एक गढ़ी गई योजना भी हो। सोशल मीडिया इसे लेकर हिन्दू-मुस्लिम, ‘पवित्र भगवे रंग’ के अपमान जैसी बातें देख रहा है। दीपिका ने इस एक गाने में दर्जनभर से अधिक रंगों की अलग-अलग बिकिनियां पहनी होंगी, लेकिन जिन्हें हिन्दू-मुस्लिम किए बिना डकार नहीं आती, अपच के शिकार ऐसे लोगों को उनमें से सिर्फ भगवा रंग दिखा। अब इसी हिन्दुत्व-सेना की सबसे पसंदीदा अभिनेत्री कंगना रनौत के भी तरह-तरह की पोशाकों की तस्वीरें सोशल मीडिया पर मौजूद हैं, लेकिन वह अर्धनग्नता हिन्दुत्व को ठीक उसी तरह मंजूर है जिस तरह खजुराहो के मंदिरों की दीवारों पर मंजूर है। बस पठान नाम की फिल्म, और एक मुस्लिम अभिनेता की बांहों में एक हिन्दू अभिनेत्री को देखकर एकदम से भगवे रंग पर हमला शुरू हो गया। यह हिन्दू-मुस्लिम मामला नहीं रहता, तो हिन्दी और हिन्दुस्तानी फिल्मों में अनगिनत खलनायक भगवे कपड़ों में रहते आए हैं, और वैसे ही कपड़ों में बलात्कार भी करते आए हैं, उनमें से किसी से हिन्दू भावनाओं को कभी चोट नहीं पहुंची।
हैरानी यह है कि आज के हिन्दुस्तान के जिस हिन्दू राज को सैकड़ों बरस बाद आया हिन्दू राज कहा जा रहा है, उसी राज के चलते हिन्दुत्व सबसे अधिक खतरे में दिख रहा है। इसके पहले हिन्दुत्व कभी इतना नाजुक नहीं रहा, न ही इतने खतरे में रहा। आज हर कुछ घंटों में हिन्दू भावनाओं पर कोई न कोई हमला मान लिया जाता है, और हिन्दू देवी-देवताओं को भी इतना कमजोर करार दिया जा रहा है कि मानो वे अपनी और अपने धर्म की हिफाजत करने लायक नहीं रह गई है। जो तबका आज विश्वगुरू बनने पर आमादा है, जो आज की अपनी ताकत के सामने चीन को भी कुछ नहीं गिन रहा है, जिसे हिन्दुस्तान इन बरसों में सोने की चिडिय़ा बनते दिख रहा है, उन लोगों का हिन्दू धर्म आज इस कदर कमजोर हो गया है कि भगवे रंग की बिकिनी से उसकी बुनियाद हिलने लगी है। अब इनमें से कोई यह बताएंगे कि हिन्दुस्तान के इतिहास में जिन सुंदरियों और अप्सराओं का चित्रण किया गया है, क्या उनमें से किसी के भगवा-केसरिया पहनने पर रोक लगी रहती थी? और संस्कृत और हिन्दी के कितने ही श्रंृगार रस साहित्य में सुंदरी के सीने पर बंधने वाले छोटे से कपड़े या चोली का जिक्र होता था? जो साम्प्रदायिक ताकतें हरा रंग देखकर सांड की तरह भडक़ती हैं, वे अब भगवे-केसरिया रंग से भडक़ रही हैं, और दीपिका के पहने दर्जनों रंगों में से बेशरम रंग उन्हें सिर्फ भगवा-केसरिया दिख रहा है, यह कैसी गजब की हैरानी की बात है।
हो सकता है कि यह पूरा सिलसिला फिल्म की शोहरत बढ़ाने की तरकीब हो, और हिन्दुत्व के झंडाबरदार लोग ऐसी किसी बाजारू साजिश में भाड़े के भोंपू बनकर सोशल मीडिया पर अपने जख्म दिखा रहे हैं। आज देश में, देश के इतिहास की सबसे मजबूत हिन्दुत्व-सरकार है, फिर भी हिन्दुत्व पर इतने बड़े-बड़े जख्म दिखना हैरान करता है। फिलहाल हमारी सलाह यही है कि लोगों को शाहरूख और दीपिका के खूबसूरत और सेहतमंद बदन देखकर यह प्रेरणा पाना चाहिए कि फिट कैसे रहा जा सकता है, फिट रहने पर कितना अधिक खूबसूरत दिखा जा सकता है, और फिट रहने पर बदन कितने किस्म के उत्तेजक और मादक करतब कर सकता है। जख्मी हिन्दुत्ववादियों को किसी वैदिक मरहम की तलाश करने दें, और इस खूबसूरत गाने की उत्तेजना का मजा उठाएं, इसमें जिन लोगों को इसके सबसे उत्तेजक पलों में बदन पर कुछ इंच के कपड़ों का रंग दिख रहा है, उन्हें अपनी आंखों का इलाज कराना चाहिए, अपने सौंदर्यबोध का भी।
राजस्थान के कोटा में संपन्न बच्चों को ऊंची पढ़ाई के दाखिला इम्तिहान के लिए तैयार करने के कारखाने चलते हैं। इन कारखानों का हाल किसी औद्योगिक शहर के इंडस्ट्रियल एरिया जैसा है। मेडिकल, इंजीनियरिंग, मैनेजमेंट की ऊंची पढ़ाई के लिए राष्ट्रीय स्तर पर मुकाबले का इम्तिहान होता है, और उसके लिए तैयारी करवाते हुए तीन से लेकर पांच बरस तक इस शहर में बच्चों के तन-मन, दिल-दिमाग का तेल निकाल दिया जाता है। कोचिंग सेंटर हॉस्टल भी चलाते हैं, ऐसी स्कूलें भी चलाते हैं जहां अपने बच्चों को फर्जी हाजिरी देकर स्कूल की इम्तिहान भी साथ-साथ पास करा दी जाए। जिस तरह किसी हिन्दू तीर्थस्थान में पंडे पूजा-पाठ, पिंडदान से लेकर दूसरी कई किस्म की पूजाओं तक के सामान तैयार रखते हैं, जजमान को ठहरा भी देते हैं, उनका रिजर्वेशन भी करा देते हैं, ठीक उसी तरह राजस्थान के कोटा में कोचिंग उद्योग चलता है जो कि मां-बाप की हसरतों को पूरा करने का तीर्थस्थान सरीखा है, और यहां पर हर बरस जाने कितने ही बच्चे आत्महत्याएं करते हैं। अभी इस पर लिखने की जरूरत इसलिए हुई कि कल ही कोटा में कोचिंग पा रहे तीन अलग-अलग लडक़ों ने अलग-अलग आत्महत्याएं की हैं। एक दिन में तीन लाशों ने लोगों को कुछ दिनों के लिए हिलाया होगा, और इसके बाद हिन्दुस्तानी मां-बाप अपने बच्चों की जिंदगी हलाकान करने में लग जाएंगे। रोज फोन करके उनसे पढ़ाई, कोचिंग, और तैयारी पूछेंगे, और उन्हें याद दिलाते रहेंगे कि मां-बाप की हसरत पूरी करना अब उन्हीं के ऊपर है। नतीजा यह होता है कि कारखानों की फौलादी मशीनों में कच्चा माल डालकर फिनिश्ड प्रोडक्ट निकालने के अंदाज में जब बच्चों को झोंका जाता है, तो उनमें से कई लोग इस तनाव को नहीं झेल पाते। लोगों को यह भी याद होगा कि आईआईटी में दाखिला पा लेने के बाद भी हर बरस वहां कई छात्र आत्महत्याएं कर लेते हैं क्योंकि वे पढ़ाई के उस स्तर के दबाव को नहीं झेल पाते।
हिन्दुस्तान में छात्र-छात्राओं की आत्महत्या की जिम्मेदारी मोटेतौर पर मां-बाप की होती है जो कि अपनी हसरतों को औलाद की हकीकत बनाने पर उतारू रहती हैं। कई परिवारों में मां-बाप गोद में खेलते अपने बच्चों का भविष्य तय करने लगते हैं कि उनमें से कौन इंजीनियर बनेगा, और किसे सीए बनाया जाएगा। देश में कुल मिलाकर चार या पांच ऐसे कोर्स हैं जिनके लिए मां-बाप में दीवानगी भरी हुई है, और इनमें से भी मर्जी से किसी एक को छांटने की छूट बच्चों को नहीं मिलती है, उन्हें मां-बाप मार-मारकर उस सांचे में ढालना चाहते हैं जो कि उन्हें पसंद है। लोगों ने चीन की कई तस्वीरों को देखा होगा जिनमें नाशपाती जैसे फल पेड़ों पर लगे हुए ही प्लास्टिक के सांचों में बंद कर दिए जाते हैं, और वे वहां से बुद्ध प्रतिमा के आकार में ढलकर ही पकते हैं। आम हिन्दुस्तानी मां-बाप की हसरतों का हाल कुछ ऐसा ही रहता है। उन्हें इस बात की परवाह नहीं रहती कि दुनिया में आगे किस-किस तरह के पेशों की संभावनाएं हैं, उनके अपने बच्चों की दिलचस्पी क्या पढऩे में है। शायद ही ऐसे कोई मां-बाप होंगे जिन्होंने अपने बच्चों को दुनिया के हजारों किस्म के पेशों में से कुछ दर्जन से भी सामना करवाया हो, उनके लायक पढ़ाई की विविधता को बताया हो। लोग अपने पड़ोस और रिश्तेदार, दफ्तर और जान-पहचान के दूसरे लोगों की पसंद, और उनके बच्चों की कामयाबी की कहानियां सुनकर अपने बच्चों को इन गिनी-चुनी चार-छह किस्म की पढ़ाई में से अपनी पसंद की किसी एक में झोंक देने के लिए जान लगा देते हैं। यही वजह रहती है कि बचपन से मां-बाप की हसरतें सुनते हुए बच्चे इस तनाव में रहते हैं कि उन्हें मां-बाप के सपनों को पूरा करना है। और फिर इन सपनों के कारखाने में जब कच्चेमाल की तरह उन्हें भेजा जाता है, तो वे पारिवारिक सम्मान के चलते उन्हें मना भी नहीं कर पाते, कारखाने की फौलादी मशीनों के दबाव को झेल भी नहीं पाते, और उनकी कुंठा, उनके तनाव का अहसास भी परिवार और समाज को तब होता है जब उनका पोस्टमार्टम होता है। मरने के पहले कोई अवसाद, कोई निराशा, खबर नहीं बन पाते, और मौतें गिनती में उतनी अधिक नहीं रहतीं कि ऐसे इंडस्ट्रियल एरिया पर देश रोक लगा दे। जीते जी ही बच्चे मर जाते हैं, टूट जाते हैं, और जिंदगी में अपनी पसंद की किसी कामयाबी के लायक भी नहीं रह जाते।
हिन्दुस्तानी मां-बाप जिस तरह अपने बच्चों पर उनके जीवनसाथी थोपने के आदी हैं, ठीक उसी तरह वे अपने बच्चों पर अपनी पसंद की पढ़ाई थोपने के आदी हैं। बच्चों को कभी बड़ा होने ही नहीं दिया जाता, और उनकी संभावनाओं को कोई मौका नहीं दिया जाता। यह सिलसिला उस वक्त भी जारी रहता है जब शादी के बाद बच्चे मां-बाप के साथ रहने लगते हैं, उस वक्त भी बहुएं कौन से कपड़े पहनें, कब और कितने बच्चे पैदा करें, बाहर नौकरी करें या न करें, जैसे तमाम फैसले घर के बुजुर्ग लेते रहते हैं। सच तो यह है कि हिन्दुस्तानी बच्चे कभी बड़े हो ही नहीं पाते, उन्हें बोन्सई पेड़ों की तरह बौना ही रखा जाता है, और अनगिनत मां-बाप ऐसे हंै जो अपने बच्चों को बिना किसी काम किए हुए, बूढ़े हो जाने तक उनका बोझ उठाने को भी तैयार रहते हैं अगर वे बच्चे दूसरे देश-परदेस जाने के बजाय उनके साथ गांव-कस्बे में रहने को तैयार हों।
हिन्दुस्तानी मां-बाप की हसरत कभी पूरी होती ही नहीं है। वे ताकत रहने पर बच्चों के मन, और कभी-कभी तन को भी मरने देने के लिए कोटा भेज देते हैं। उन्हें अपनी पसंद के पेशे या कारोबार में झोंक देते हैं। उन्हें एक स्वतंत्र व्यक्ति के रूप में, एक जिंदा इंसान के रूप में कभी आगे बढऩे ही नहीं देते। यह पूरा सिलसिला हिन्दुस्तान को एक औसत दर्जे का देश बनाकर छोड़ रहा है। यहां के गिने-चुने उच्च शिक्षा के संस्थानों को छोड़ दें, तो बाकी हिन्दुस्तान की पढ़ाई-लिखाई, और पेशों की खूबियां बहुत ही औसत दर्जे की हैं। जेएनयू जैसे किसी संस्थान में अगर विश्वस्तर की पढ़ाई हो रही है, तो उसे साम्प्रदायिक विचारधारा के बुलडोजर से गिरा देने पर बरसों से सरकार आमादा है। बड़ी तनख्वाह वाले चार-पांच पेशों की पढ़ाई से परे अगर सामाजिक विज्ञान और उससे जुड़े बहुत से दूसरे विषयों में जेएनयू की पढ़ाई होती है, तो देश की साम्प्रदायिक विचारधारा उसे बुढ़ापे तक करदाताओं के पैसों पर पलना कहती है। उत्कृष्ट पढ़ाई के लिए ऐसी हिकारत ने देश में पेशेवर पढ़ाई के अलावा दूसरे पाठ्यक्रमों के लिए कोई सम्मान भी नहीं छोड़ा है, और औसत मां-बाप इसी माहौल के झांसे में अपने बच्चों को गिने-चुने कोर्स में झोंकते हैं।
कोटा में कल की तीन आत्महत्याओं को लेकर देश की सरकारों को भी यह सोचना चाहिए कि किस तरह स्कूली पढ़ाई के बाद बच्चों के रूझान को आंकने का कोई इंतजाम होना चाहिए ताकि उनकी निजी पसंद और उनकी क्षमता का कोई व्यावहारिक मेल सामने रखा जा सके। बच्चों के सामने तरह-तरह के विकल्प रखे जाने चाहिए, और विविधता को जिंदा रखने की कोशिश करनी चाहिए, विविधता को भी, और बच्चों को भी। स्कूल के बाद कॉलेज में किस तरह की पढ़ाई करनी है, या पढ़ाई के अलावा कुछ और करना है, यह विचार-विमर्श और संभावना-दर्शन (मार्गदर्शन नहीं) का इंतजाम किया जाना चाहिए। जो बच्चे दाखिले की ऐसी तैयारियों से जिंदा निकल जाते हैं, और आईआईटी जैसी पढ़ाई से भी जिंदा निकल जाते हैं, उनमें से कितनों की खूबियां दम तोड़ चुकी रहती हैं, इसका अंदाज लगाना न आसान है न मुमकिन है।
इंटरनेट पर अभी एक बड़ी दिलचस्प बहस चल रही है कि मोरक्को ने पुर्तगाल को हराकर विश्वकप फुटबॉल में सेमीफाइनल में जो जगह बनाई है, उसे एक मुस्लिम जीत बताना कितना जायज या नाजायज है। सदियों तक अरब राज झेलने वाला अफ्रीकी देश मोरक्को 97 फीसदी मुस्लिम आबादी वाला देश है। और फुटबॉल के इतिहास का यह पहला मौका है कि एक अफ्रीकी देश इतने ऊपर तक पहुंचा है। इस विश्वकप टूर्नामेंट में अकेला मोरक्को ही मुस्लिम बहुल आबादी वाला देश है, और इसकी जीत के बाद जिस तरह इसके एक स्टार खिलाड़ी की बुर्का पहनी हुई मां मैदान पर पहुंची, और मां-बेटे ने जिस तरह खुशी में डांस किया, उससे भी खिलाडिय़ों का धर्म पता लग रहा था। इन खिलाडिय़ों ने मैच के दौरान हर गोल करने पर खुदा का शुक्रिया अदा किया था, और मैदान पर ही जीत को मनाने के लिए धरती पर सिर झुकाकर खुदा को याद किया था। यहां तक की बात तो ठीक थी, लेकिन सोशल मीडिया पर जिस तरह बहुत से लोगों ने इसे एक मुस्लिम जीत बताया, उससे भी यह सवाल उठ खड़ा हुआ कि क्या फुटबॉल के इतिहास की इसके पहले की तमाम जीतें ईसाई जीत थीं?
मोरक्को एक छोटा सा देश है, साढ़े तीन करोड़ की आबादी है, 97 फीसदी से अधिक आबादी मुस्लिम हैं। यह आसानी से माना जा सकता है कि यहां के खिलाडिय़ों ने अपनी बाकी आबादी की तरह इस्लाम के अलावा बहुत कम और कुछ देखा होगा। अभी पौन सदी पहले तक हिन्दुस्तान का हिस्सा रहने वाले पाकिस्तान के खिलाड़ी भी क्रिकेट के मैदान पर मैच के बाद सवालों का जवाब देने के पहले अल्लाह को याद करते हैं, और उसके जिक्र से ही बात शुरू करते हैं। इसलिए अगर इस जीत को दुनिया के मुस्लिम एक मुस्लिम जीत करार दे रहे हैं, तो इसकी कई वजहें हैं जिनको समझना चाहिए। पहली बात तो यह कि यह एक अब तक की कमजोर टीम के इतने आगे आने का मौका है जो कि अफ्रीकी इतिहास में पहली बार हुआ है। दूसरी बात यह कि यह कामयाबी एक बहुत छोटे से देश ने हासिल की है जहां कि तकरीबन तमाम आबादी मुस्लिम है। इसलिए मोरक्को की इस कामयाबी को अगर दुनिया के तमाम मुसलमान एक मुस्लिम-कामयाबी मान रहे हैं, तो उसमें भी कोई अटपटी बात नहीं है। इसे इस्लाम की जीत तो करार नहीं दिया जा रहा है, और न ही इसे ईसा मसीह पर अल्लाह की जीत कहा जा रहा है। आज यह समझने की जरूरत है कि दुनिया भर में मुस्लिमों को अपनी धर्म की वजह से जितने किस्म के तनावों का सामना करना पड़ रहा है, वे कम नहीं हैं। दुनिया के कई देशों में इस्लाम के नाम पर आतंक करने वाले संगठनों ने पूरी दुनिया में मुस्लिमों के लिए जीना मुश्किल कर रखा है। ऐसे में अगर पूरी तरह से मुस्लिम टीम को ऐसी कोई जीत मिली है, तो उस पर दुनिया के मुसलमानों का खुश होना नाजायज नहीं है। यह धर्म की जीत नहीं है, लेकिन यह मुस्लिम खिलाडिय़ों की कामयाबी तो है ही।
यह भी समझने की जरूरत है कि दुनिया के जिन पेशों में धर्म की कोई भूमिका नहीं है, वहां पर भी धर्म को जगह मिलती है। हिन्दुस्तान में ही फौज में तमाम धर्मों की उपासना की सहूलियत मुहैया कराई जाती है, और पंडित से लेकर मौलवी, ग्रंथी, और पादरी तक नियुक्त किए जाते हैं। इसलिए अगर खिलाड़ी अपने धर्म का प्रदर्शन कर रहे हैं, तो यह प्रदर्शन दुनिया के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री भी करते हैं, दुनिया के फिल्म कलाकार भी करते हैं, और अपनी पोशाक से बहुत से पत्रकार और साहित्यकार भी अपने धर्म का प्रदर्शन करते हैं। कामयाबी के मौकों पर इनमें से बहुत से लोग अपने ईश्वर को धन्यवाद देते हैं, इसलिए मोरक्को की टीम का अपने ईश्वर को धन्यवाद देना भी अटपटा नहीं है, दुनिया की अनगिनत टीमों के खिलाड़ी किसी मैच के पहले या किसी जीत के बाद अपने गले के क्रॉस को चूमते हुए दिखते हैं। यह भी समझने की जरूरत है कि विश्वकप फुटबॉल की टीमों में मोरक्को अकेली पूरी तरह से मुस्लिम खिलाडिय़ों की टीम है। अपने पूरी तरह से मुस्लिम देश से आकर वे कामयाबी पा रहे हैं, ऐतिहासिक कामयाबी पा रहे हैं, दुनिया की एक दिग्गज टीम को हरा रहे हैं, तो वे अपने ईश्वर का शुक्रिया तो अदा करेंगे ही।
दुनिया में जो धर्म निशाने पर रहता है, उसके लोगों में एकजुटता भी आती है, और आत्मरक्षा के लिए वे तरह-तरह के काम करते हैं। दुनिया के इतिहास में जब और जहां जिस धर्म के लोगों पर हमले हुए, उनकी बसाहट एक साथ होने लगी ताकि वे मुसीबत के समय एक-दूसरे के काम आ सकें। हिन्दुस्तान में ही 1984 के सिक्ख विरोधी दंगों के बाद बहुत से शहरों ने सिक्खों के मुहल्लों में और अधिक सिक्खों के आने को देखा। इसी तरह आज जब मुस्लिम देशों में आतंक की वजह से, सरकारों की नाकामयाबी की वजह से, मुस्लिम रिवाजों के पश्चिमी देशों में विरोध की वजह से मुस्लिम समुदाय के लोग एक अभूतपूर्व तनाव से गुजर रहे हैं। दुनिया के कई देशों में पहुंचते ही वहां विमानतलों पर उन्हें उनके मुस्लिम नाम की वजह से, या उनके मुस्लिम देश की वजह से घंटों तक अतिरिक्त पूछताछ का सामना करना पड़ता है। ऐसी तमाम वजहों से लोगों में अपने धार्मिक रिवाजों के लिए अधिक उत्साह पैदा होता है। इसलिए आज अगर मोरक्को की जीत को दुनिया के बहुत से प्रमुख मुसलमान भी मुस्लिमों की जीत कह रहे हैं, पाकिस्तान के पिछले प्रधानमंत्री इमरान खान इसे एक मुस्लिम टीम की जीत कह रहे हैं, तो इसमें अटपटी बात कुछ नहीं है। फुटबॉल का यह विश्व मुकाबला एक धर्म के खिलाडिय़ों की इतनी बड़ी कामयाबी पहली बार देख रहा है, और लोगों का उत्साह किसी दूसरे धर्म की टीम के खिलाफ नहीं है, दूसरे धर्म के खिलाडिय़ों के खिलाफ नहीं है, इसलिए मुस्लिमों का यह आत्मगौरव हिंसक नहीं है, और यह उनका हक बनता है।
हिन्दुस्तान में एम्स, यानी अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान को देश का सबसे अच्छा सरकारी अस्पताल माना जाता है। एक वक्त यह सिर्फ दिल्ली में था, और बाद में अलग-अलग प्रदेशों में भी खुलते चले गया। इसकी शोहरत का यह हाल रहता है कि जिस प्रदेश में एम्स है, उसके पड़ोसी राज्यों से भी लोग वहां इलाज के लिए पहुंचते हैं। इसकी एक वजह यह भी है कि एम्स न सिर्फ अस्पताल है, बल्कि यहां मेडिकल के ग्रेजुएट, पोस्ट ग्रेजुएट, और सुपरस्पेशलिटी के कोर्स भी चलते हैं, और उनकी वजह से यहां पढ़ाने वाले डॉक्टर इलाज करते हैं जिनका ज्ञान सिर्फ इलाज करने वाले डॉक्टरों के मुकाबले बेहतर रहता है। लेकिन केन्द्र सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय के जो आंकड़े नए बने 18 एम्स के बारे में सामने आए हैं, वे बड़ी फिक्र खड़ी करते हैं। इनमें पढ़ाने वाले डॉक्टरों की 44 फीसदी कुर्सियां खाली पड़ी हैं। चार हजार छब्बीस शिक्षक होने चाहिए, लेकिन अभी कुल 2259 शिक्षक ही हैं। इनमें से गुजरात के राजकोट के एम्स की हालत सबसे ही खराब है जहां पर शिक्षकों के 78 फीसदी पद खाली हैं, और 183 की जगह कुल 40 काम कर रहे हैं। छत्तीसगढ़ के रायपुर में भी 44 फीसदी कुर्सियां खाली हैं। खुद केन्द्र सरकार के भीतर प्राध्यापक-डॉक्टरों की इस कमी से फिक्र है, और इन जगहों पर नियुक्ति के लिए तरह-तरह के रास्ते सोचे जा रहे हैं।
लेकिन देश के निजी चिकित्सा महाविद्यालयों को देखें, तो उनमें से भी अधिकतर में पढ़ाने वाले डॉक्टरों की भारी कमी रहती है, और छत्तीसगढ़ में हम सरकारी मेडिकल कॉलेजों में भी यही हाल देख रहे हैं कि उनकी मान्यता के नवीनीकरण के समय इधर-उधर से डॉक्टर जुटाकर, नामों का फर्जीवाड़ा करके किसी तरह मान्यता बचाई जाती है ताकि इन मेडिकल कॉलेजों में कोर्स बंद न हो जाएं। ऐसा भी नहीं है कि हिन्दुस्तान में डॉक्टर बिल्कुल नहीं हैं, शहरों में गली-गली डॉक्टर दिखते हैं, और इनमें से जितने पोस्ट ग्रेजुएट हैं, उनकी जगह मेडिकल कॉलेजों में बन सकती है, लेकिन निजी प्रैक्टिस में शायद डॉक्टरों की कमाई अधिक रहती है, इसलिए वे सरकारी नौकरी में जाना नहीं चाहते। फिर सरकार के जो नियम अपने दूसरे विभागों की नियुक्तियों के लिए हैं, अफसरशाही उनको ही मेडिकल कॉलेजों पर भी लागू करना चाहती है, और उतनी तनख्वाह और सहूलियतों पर पढ़ाने के लिए मेडिकल-शिक्षक उपलब्ध नहीं हैं।
आज जिस हिन्दुस्तान के आईआईएम और आईआईटी जैसे संस्थान से निकले हुए लोग दुनिया भर में बड़ी-बड़ी कंपनियां चला रहे हैं उस हिन्दुस्तान में सरकार के लंबे समय से चले आ रहे इस चिकित्सा शिक्षा के ढांचे की बुनियादी जरूरतों को सुलझाने का काम यह देश नहीं कर पा रहा है। जब किसी नौकरी के लिए लोगों की कमी है, और वैसे ही लोग बाजार में निजी अस्पतालों को हासिल हैं, तो इसका एक ही मतलब है कि डिमांड और सप्लाई की शर्तों में कोई कमी है। आज अगर पढ़ाने लायक डॉक्टरों को निजी अस्पतालों और निजी प्रैक्टिस में बहुत अधिक तनख्वाह मिल रही है, तो केन्द्र और राज्य सरकारों को अपने मेडिकल कॉलेजों के लिए तनख्वाह और बाकी सहूलियतों पर दुबारा गौर करना चाहिए। तनख्वाह तय करके लोगों से अर्जियां बुलवाने के बजाय काबिल लोगों से तनख्वाह की उनकी उम्मीदें मंगवानी चाहिए, और उनसे मोलभाव करके उन्हें बाजार भाव पर लाने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए। यह तो खुली बाजार व्यवस्था है जिसमें मेडिकल कॉलेजों से लेकर अस्पताल तक इन सबमें सरकारी भी हैं, और कारोबारी भी हैं। इसलिए जब इन दोनों किस्मों को आमने-सामने खड़ा कर दिया गया है, तो सरकार को भी कारोबार के मुकाबले खर्च करना पड़ेगा। जो मेडिकल अस्पताल-कॉलेज देश में सबसे अच्छे माने जाते हैं, वहां अगर पढ़ाने वालों की आधी कुर्सियां खाली पड़ी हैं, तो इससे वहां से निकलने वाले डॉक्टरों की क्वालिटी पर भी फर्क पड़ेगा, और दुनिया भर में भारत की चिकित्सा शिक्षा की साख भी घटेगी। वैसे यह साख इस छोटे से तथ्य से भी घट रही है कि जिस गुजरात के राजकोट के एम्स में सबसे अधिक कुर्सियां खाली हैं, वह प्रधानमंत्री और देश के स्वास्थ्य मंत्री का गृहप्रदेश है।
दूसरी दिक्कत यह भी है कि हर सरकारी मेडिकल कॉलेज के साथ ऐसा अस्पताल भी जुड़ा रहता है जहां लोगों को मुफ्त में जांच और इलाज की सहूलियत रहती है। अब अगर पढ़ाने को डॉक्टर कम हैं, तो इसका मतलब यह है कि इलाज के लिए भी डॉक्टर कम मौजूद हैं। एम्स जैसे प्रमुख चिकित्सा केन्द्रों को पूरी क्षमता से चलाना चाहिए क्योंकि ये क्षेत्रीय उत्कृष्टता केन्द्र रहते हैं। अपने इलाकों में ये राज्य सरकार के मेडिकल कॉलेजों से बेहतर तो रहते ही हैं, ये अधिकतर निजी अस्पतालों से भी बेहतर माने जाते हैं। एम्स में पढ़ाई के लिए दाखिला इम्तिहान देश में सबसे कड़ा होता है, और वहां से डिग्री लेकर निकलने वाले डॉक्टरों की अच्छी साख रहती है। इसलिए आज की खुली बाजार व्यवस्था से विशेषज्ञ डॉक्टरों को लाकर यहां जगह भरनी चाहिए ताकि देश में उत्कृष्ट शिक्षा-चिकित्सा जारी रह सके। यह नौबत फिक्र की इसलिए भी है कि केन्द्र सरकार ने देश में चार सौ नए मेडिकल कॉलेज खोलना शुरू कर दिया है। जब एम्स जैसे केन्द्र सरकार के अस्पताल में पढ़ाने को डॉक्टर नहीं मिल रहे हैं तो जिलों के सरकारी अस्पतालों में खुलने वाले नए मेडिकल कॉलेजों को डॉक्टर कहां से मिलेंगे? और ताजा समाचार तो यह भी बता रहा है कि केन्द्र सरकार 22 नए एम्स खोलने जा रही है। हो सकता है कि ये एम्स इलाज पहले शुरू करने, और चिकित्सा-शिक्षा बाद में चालू हो, लेकिन मौजूदा और नए एम्स के लिए ही अगर चिकित्सा-शिक्षकों की कमी है, तो जिलों में खुलने वाले मेडिकल कॉलेजों के बारे में फिर से सोचना चाहिए। मान्यता पाने और जारी रखने के लिए अगर मेडिकल कॉलेज शिक्षकों के नाम उधार लाकर, फर्जी मरीज भर्ती दिखाकर काम चला रहे हैं, तो यह घटिया शिक्षा की आसान राह है। यह नौबत बदलनी चाहिए।
उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने एक सार्वजनिक कार्यक्रम में यह चेतावनी दी है कि उत्तरप्रदेश में अब चौराहों पर कैमरे लग गए हैं, और अगर किसी एक चौराहे पर कोई किसी लडक़ी को छेड़ेगा, तो अगले चौराहे तक पहुंचने के पहले पुलिस उसे ढेर कर देगी। भारत की प्रचलित भाषा में पुलिस के ढेर कर देने का एक ही मतलब होता है, गोली मारकर गिरा देना। लोगों को याद होगा कि दो-तीन बरस पहले उत्तरप्रदेश में योगी की लीडरशिप में पुलिस ने बहुत से संदिग्ध और आरोपी गुंडे-बदमाशों को मुठभेड़ में मार गिराया था, और जब इसके आंकड़े सामने आए, तो यूपी पुलिस के खिलाफ बड़ा बवाल खड़ा हुआ था। अगस्त 2021 में एक प्रमुख अखबार इंडियन एक्सप्रेस ने यह रिपोर्ट छापी थी कि योगी सरकार ने 2017 से सत्ता में आने के बाद करीब साढ़े 8 हजार एनकाउंटर किए थे, और इनमें करीब डेढ़ सौ लोगों को मारा गया, और 33 सौ से अधिक लोगों को गोली मारकर लंगड़ा किया गया। इसे उत्तरप्रदेश पुलिस की भाषा में ऑपरेशन लंगड़ा कहा जा रहा था। यही दौर था जब बहुत से आरोपी या अभियुक्त गले में तख्ती टांगकर थाने पहुंचते थे कि वे आत्मसमर्पण कर रहे हैं उन्हें गोली न मारी जाए। 2019 में एक मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा तो जजों ने कहा कि इस नौबत पर गंभीर विचार की जरूरत है। राज्य में विपक्ष ने इस मुद्दे को उठाते हुए कहा था कि यह सरकार की ‘ठोक दो’ नीति है। इसके बाद का एक और दौर लोगों को याद है कि किसी भी आरोपी, अभियुक्त, नापसंद मुस्लिम के घर-दुकान पर अफसर बुलडोजर चलाकर उन्हें बेघर-बेरोजगार कर रहे थे।
जब कभी लोकतंत्र में सरकारें भ्रष्ट हो जाती हैं, अदालतें रफ्तार खो बैठती हैं, मानवाधिकार से जुड़ी संवैधानिक संस्थाओं पर सत्ता के अपने चापलूस काबिज हो जाते हैं, तब लोगों का भरोसा मुजरिमों की बंदूक की नाल से निकलने वाले फैसलों की तरफ होने लगता है। मुम्बई में यह अच्छी तरह दर्ज है कि हाजी मस्तान जैसे लोग दरबार लगाकर लोगों के झगड़े निपटाते थे। उत्तर भारत में भी कई जगहों पर बड़े-बड़े मुजरिम इंसाफ के लिए पुलिस से ज्यादा असरदार मान लिए गए थे। जब लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर लोगों का भरोसा इस हद तक गिर जाता है, तो फिर उन्हें सरकार और पुलिस की अलोकतांत्रिक और आपराधिक मुठभेड़ सुहाने लगती हैं। दरअसल समाज के भीतर मुठभेड़ की नौबत इस बात का सुबूत रहती है कि निर्वाचित सरकार, अदालत, और कानून की प्रक्रिया लंबे समय से अपना काम ठीक से नहीं कर रही हैं। इन सबके बेअसर हो जाने से लोग बंदूक की नली से निकले इंसाफ को पसंद करने के लिए एक किस्म से मजबूर हो जाते हैं। लोगों को याद रखना चाहिए कि देश के नक्सल-हिंसा प्रभावित इलाकों में जब लोकतांत्रिक सरकारों का इंतजाम पूरी तरह जुल्मी और भ्रष्टाचार हो गया था, तभी उन इलाकों में नक्सलियों को पांव जमाने का मौका मिला, और जनअदालतों में जब किसी सरकारी कर्मचारी-अधिकारी के खिलाफ फरमान जारी होता था, तो इलाके के लोग उसे ही इंसाफ भी मानते थे। उत्तरप्रदेश में कानून के राज की नाकामयाबी को मुजरिमों की कामयाबी बताकर उन्हें सडक़-चौराहे पर ठोक देने का सरकारी फतवा योगी ने सार्वजनिक रूप से दुहराया है, और हमारा मानना है कि मुख्यमंत्री का यह बयान न सिर्फ पूरी तरह अलोकतांत्रिक है, बल्कि यह अराजक भी है, और किसी अदालत में घसीटने लायक भी है। और फिर मुख्यमंत्री ने यह बात हत्यारों या बलात्कारियों के लिए नहीं कही है, सडक़ पर छेडख़ानी करने वालों के लिए कही है, जिनका जुर्म अदालत में साबित हो जाने पर भी शायद साल-दो साल की ही कैद हो।
किसी राज्य की पुलिस को अगर गुंडा बनाना हो, तो यह उसका एक बड़ा आसान तरीका है कि उसे शक की बिना पर किसी भी राह चलते को ठोक देने, और ढेर कर देने का फतवा दिया जाए। और जब यह फतवा मुख्यमंत्री की तरफ से सार्वजनिक कार्यक्रम के मंच और माईक से आए, तो फिर उससे बड़ा और कौन सा समर्थन पुलिस को चाहिए। इसके बाद जब मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की अल्पसंख्यकों से नापसंदगी, और पुलिस के मुस्लिम विरोधी साम्प्रदायिक रूख के साथ जोडक़र जब इस फतवे को देखा जाए, तो फिर यह साफ हो जाता है कि ऐसे ढेर में लहूलुहान कपड़ों से कौन से धर्म की पहचान होगी।
जिस लोकतंत्र में कानून की भावना यह है कि चाहे सौ गुनहगार बच निकलें, एक भी बेकसूर को सजा नहीं होनी चाहिए, और जब किसी के खिलाफ मामला शक से परे साबित होता है, तभी जाकर कोई सजा होती है, ऐसे लोकतंत्र में निर्वाचित मुख्यमंत्री का सडक़ों पर ढेर कर देने का यह फतवा सबसे हिंसक, और सबसे खतरनाक बात है। लेकिन जब देश-प्रदेश की जनता का धार्मिक ध्रुवीकरण पूरी तरह हो चुका हो, तब योगी की बात के भीतर छुपे हुए संदेश को लोग समझते हैं, और इससे योगी की शोहरत बहुसंख्यक आबादी के भीतर बढ़ती ही है।
हम पहले भी यह बात लिखते आए हैं कि राज्यों में मानवाधिकार आयोग, महिला आयोग, बाल अधिकार परिषद, अनुसूचित जाति या जनजाति आयोग, अल्पसंख्यक आयोग जैसी संवैधानिक संस्थाओं में सत्ता की पसंद से मनोनयन खत्म होना चाहिए। आज अगर उत्तरप्रदेश में ऐसे आयोग योगीमुक्त होते, तो उनमें से किसी का नोटिस मुख्यमंत्री के लिए जारी हो चुका होता। लेकिन जब अपने ही पिट्ठुओं को इन संस्थाओं में बिठाने की आजादी नेताओं को है, तो फिर ऐसे चुनिंदा और पसंदीदा मनोनीत लोग क्या खाकर मुख्यमंत्री के खिलाफ कोई कार्रवाई कर सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट को इस मामले में दखल देना चाहिए। हम पहले भी कह चुके हैं कि किसी राज्य की ऐसी संस्थाओं में मनोनयन के लिए उन राज्यों में काम कर चुके जजों और अफसरों के नाम प्रतिबंधित करने चाहिए। दूसरे प्रदेशों से ही ऐसे नाम छांटे जाने चाहिए, और ये नाम ऐसे भी रहने चाहिए जो कभी राजनीति में नहीं रहे। ऐसा न होने पर कानून के राज में गिनाने के लिए ऐसी संवैधानिक संस्थाएं सामने खड़ी रहती हैं, लेकिन वे जुल्मी सरकार की मौन मददगार भी बनी रहती हैं। इन संवैधानिक संस्थाओं को बनाने का मकसद यही था कि ये अदालतों तक किसी मामले के पहुंचने के पहले भी उन पर सरकार और लोगों को नोटिस जारी कर सके। इन्हें बेअसर बनाने का मतलब सरकार के जुल्म का रास्ता साफ करने के अलावा और कुछ नहीं है। चूंकि देश की संसद के बहुमत और सरकार की नीयत भी संवैधानिक संस्थाओं को कागजी बनाकर रखने की है, इसलिए इस पर सोच-विचार का काम सिर्फ अदालत ही कर सकती है। योगी के इस ताजा बयान को देखते हुए ऐसे सोच-विचार की जरूरत आ खड़ी हुई है।
दुनिया के कुछ बिल्कुल ही अलग-अलग किस्म के मुस्लिम देशों में कट्टरता का एक नया दौर दिखाई पड़ रहा है। ये तमाम जगहें एक-दूसरे से इतनी अलग हैं कि इनके बीच कोई रिश्ता ढूंढना मुश्किल है, लेकिन एक बात एक सरीखी है कि इस धार्मिक कट्टरता के एक नए उफान से गुजर रहे हैं। अभी साल भर के पहले अफगानिस्तान में फिर से काबिज हुए कट्टरपंथी तालिबानों ने अभी पहली सार्वजनिक मौत की सजा दी है, और दुनिया को समझ आ रहा है कि इनसे किसी बेहतर बर्ताव की उम्मीद नहीं की जा सकती। लोगों को लाउडस्पीकर पर आवाज देकर इकट्ठा किया गया, और अफगान सरकार के कई मंत्री भी मौत की यह सजा देखने पहुंचे जिनमें वहां के विदेश मंत्री भी शामिल थे। इस पर संयुक्त राष्ट्र सहित बहुत से देशों ने बहुत निराशा जाहिर की है क्योंकि इस देश में दसियों लाख लोग आज भूखे पड़े हुए हैं, और यह विश्व समुदाय की जिम्मेदारी मानी जा रही है कि इन्हें मरने से बचाए। लेकिन ऐसे तालिबानी शासन के बीच दुनिया अपनी मदद भी भेजना नहीं चाह रही है। संयुक्त राष्ट्र सहित बहुत से देशों ने तालिबान पर इस बात के लिए दबाव डालकर देख लिया कि अगर उन्हें अंतरराष्ट्रीय मदद चाहिए तो उन्हें अपनी छात्राओं को स्कूल जाने देना चाहिए, महिलाओं को काम करने देना चाहिए, लेकिन तालिबानों की इस्लामिक जीवनशैली की अपनी एक सबसे कट्टर व्याख्या है, जिसके चलते वे लड़कियों और महिलाओं को कोई इंसानी हक देना नहीं चाहते। अब सार्वजनिक रूप से मौत की सजा के बाद उसकी एक खूंखार शक्ल सामने आई है। दूसरी तरफ बगल के ईरान में कल एक प्रदर्शनकारी को मौत की सजा दी गई है जिस पर सरकार विरोधी प्रदर्शनों के दौरान एक सुरक्षा अधिकारी को चोट पहुंचाने का दोषी कहा गया था। ये प्रदर्शन ईरान की कट्टरपंथी इस्लामिक सरकार के खिलाफ देश भर में चल रहे हैं जिनमें सरकार के हिजाब नियमों का विरोध किया जा रहा है। हिजाब ठीक से न पहनने के आरोप में गिरफ्तार एक युवती की हिरासत-मौत के बाद देश भर में लगातार सरकार विरोधी आंदोलन चल रहे हैं। इन सबसे बढक़र इंडोनेशिया की संसद ने अभी एक नए कानून को पास किया है जिसके मुताबिक शादी के बाहर सेक्स पर एक साल तक की कैद का प्रावधान किया गया है। दिलचस्प बात यह है कि सभी राजनीतिक दलों ने इसका समर्थन किया है क्योंकि इंडोनेशिया की मुस्लिम बहुल आबादी के बीच धर्मगुरूओं ने इसे एक मुद्दा बनाकर जनता का रूख इसके लिए अनुकूल बनाकर रखा था। लेकिन इससे यह डर पैदा हो रहा है कि दुनिया के एक बड़े पर्यटन केन्द्र इंडोनेशिया का यह कारोबार मार खाएगा क्योंकि इसके तहत गैरशादीशुदा जोड़े के साथ रहने पर भी रोक लगाई गई है, और यह कानून पर्यटकों पर भी लागू होगा।
आज दुनिया के सामने यह एक सोचने की बात है कि जब योरप के कई विकसित देशों में लगातार नास्तिकों की संख्या बढ़ रही है, धर्म को मानने वाले घट रहे हैं, वैसे में दुनिया के कई देशों में धार्मिक कट्टरता बढ़ती क्यों जा रही है? यह बात न सिर्फ मुस्लिम देशों में हो रही है, बल्कि हिन्दुस्तान जैसे देश में भी जनता के बीच धर्मान्धता और साम्प्रदायिकता लगातार ऊपर जा रहे हैं, और ये इस्लाम धर्म या मुस्लिम समुदाय से परे की बात है। हिन्दुस्तान में बहुसंख्यक हिन्दू आबादी को जिस तरह आक्रामक हिन्दुत्व का नशा कराया जा रहा है, वह भयानक है। ऐसा लगता है कि कार्ल मार्क्स ने डेढ़ सौ से अधिक बरस पहले धर्म के अफीम होने के बारे में जो कहा था, वह बात आज की दुनिया को देखकर कही थी। आज दुनिया भर के आर्थिक प्रतिबंधों का सामना कर रहे ईरान के सामने अपने भविष्य की कई तरह की चिंताएं हैं, लेकिन वह कट्टर इस्लाम में डूबा हुआ है। भारत में बेरोजगारी, आर्थिक असमानता, और कुपोषण की भारी समस्याएं हैं, लेकिन लोग धर्म को एक रामबाण दवा मानकर चल रहे हैं, और उससे परे किसी और बात की फिक्र उन्हें अब नहीं दिखती है। जिस इंडोनेशिया की बात ऊपर की गई है, उसके पर्यटन उद्योग को कोरोना ने बहुत बुरी तरह मारा था, और अब 2025 तक इस नुकसान से उबरने की उम्मीद थी, कि यह नया कानून वहां लगभग सर्वसम्मति से आ गया है, जो कि जीने के तथाकथित इस्लामिक तौर-तरीकों के मुताबिक बनाया गया बताया जा रहा है।
दो दशक लंबे अमरीकी कब्जे के बाद अफगानिस्तान उससे आजाद हुआ, तो वह सीधे तालिबानों के हाथों में आया, देश की अर्थव्यवस्था, उसका कारोबार सब खत्म है, लोगों के जिंदा रहने की चुनौती है, बिना अंतरराष्ट्रीय मदद के भूख से निपटा नहीं जा सकता, लेकिन धार्मिक उन्माद है कि तालिबानों को अंतरराष्ट्रीय मदद के लिए भी कट्टरता छोडऩे को तैयार नहीं कर पा रहा। धर्म ऐसा ही नशा होता है जिसके असर में लोग तमाम किस्म की तकलीफों को भूल जाते हैं, और कट्टरता के शिकार हो जाते हैं। अभी यहां पर हमने कई अफ्रीकी देशों में भुखमरी के बीच भी लगातार चल रहे कट्टरपंथी इस्लामी आतंकियों के बड़े-बड़े हमलों की चर्चा नहीं की है, जो कि धर्म के नाम पर अनगिनत लोगों को मार रहे हैं, अनगिनत महिलाओं और बच्चों से बलात्कार भी कर रहे हैं। यह पूरा सिलसिला धर्म के उसी खूनी चेहरे को उजागर करता है जिसके खतरे से कार्ल मार्क्स ने डेढ़ सदी के पहले आगाह किया था। जहां पर आज यह उन्माद इस हद तक खूनी नहीं हुआ है, उन्हें भी आज इसके खतरों को समझ लेने की जरूरत है।
देश के दो विधानसभा चुनावों और एक म्युनिसिपल चुनाव के नतीजे उम्मीदों के मुताबिक ही रहे। जिस हिमाचल को एक्जिट पोल डांवाडोल बता रहे थे, वहां पर कांग्रेस का साफ बहुमत आते दिख रहा है, और अगर कोई खरीद-बिक्री का सिलसिला न चले तो हिमाचल में कांग्रेस की सरकार बनना तय दिख रहा है। दूसरी तरफ गुजरात में बीजेपी देश का एक अलग ही रिकॉर्ड बनाने जा रही है, और 1998 से अब तक वह लगातार वहां सत्ता में है, और जनता ने उसे पांच और बरस दिए हैं। यह पश्चिम बंगाल में वाममोर्चे की सरकार के 33 बरस के लगातार शासन के बाद का एक रिकॉर्ड बना है। हिमाचल के नतीजे वहां बारी-बारी से सरकार बदलने के रहते आए हैं, और उसी मुताबिक वहां सत्तारूढ़ भाजपा को खासे वोटों से हटाकर जनता ने कांग्रेस को बड़ी संख्या में लीड दी है, यह भी प्रत्याशित ही था। चुनावी सर्वे इसे कांटे की टक्कर बता रहे थे, लेकिन नतीजे कांग्रेस के हक में गए हैं। आम आदमी पार्टी ने इन दोनों जगहों पर खासा दम लगाया था, लेकिन हिमाचल में अभी उसका खाता खुलते नहीं दिखा है, और गुजरात में भी वह छह सीटें पाकर रह गई है। यह जरूर है कि गुजरात में कांग्रेस ने बड़ी संख्या में सीटें खोई हैं, और वे आम आदमी पार्टी और भाजपा में गई दिखती हैं। लगातार सत्ता में रहने के बाद भी जनता का सरकार से न थकना, उसके वोट भी कम न होना, उसकी सीटें भी कम न होना एक बड़ी बात है। अब गुजरात की इस जीत के साथ लोग यह बात जोड़ सकते हैं कि इसे राज्य सरकार या भाजपा के नारे पर नहीं लड़ा गया, इसे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का चेहरा दिखाकर लड़ा गया, और यह जीत किसी भी हिसाब से राज्य सरकार के कामकाज को मिली जीत नहीं कही जा सकती। लेकिन हर जीत और हार के ऐसे बहुत से तर्क दिए जा सकते हैं, क्योंकि कोई भी राष्ट्रीय पार्टी अपने राष्ट्रीय नेताओं को किसी प्रदेश के चुनाव में झोंकती ही है। खुद केजरीवाल अपने पंजाब के मुख्यमंत्री के साथ गुजरात में डेरा डाले हुए थे, और दिल्ली के वार्डों के चुनाव में पंजाब के मुख्यमंत्री गली-गली घूम रहे थे। इसलिए हार और जीत के बाद ऐसे तर्क अधिक मायने नहीं रखते, इन आंकड़ों के आधार पर कुछ बुनियादी मुद्दों पर बात होनी चाहिए।
गुजरात में कांग्रेस की ऐसी शर्मनाक हार को लेकर अब यह कहा जा रहा है कि कांग्रेस पार्टी राहुल गांधी की पदयात्रा में लगी हुई थी, और उसने गुजरात चुनाव एक किस्म से छोड़ ही दिया था। सच तो यह है कि कांग्रेस की हर चुनावी हार के बाद भाजपा की ओर से यह तंज कसा जाता रहा है कि राहुल गांधी को सक्रिय रहना चाहिए, उनकी वजह भाजपा की जीत होती है। अभी एक राजनीतिक विश्लेषक ने एक निजी बात में यहां तक कहा था कि मोदी-शाह एकाध राज्य कांग्रेस के पास बने रहने देना चाहते हैं ताकि कांग्रेस पार्टी का खर्च चलता रहे, और सोनिया परिवार देश छोडक़र बाहर न जाए, और चुनावों में राहुल गांधी का फायदा मिलता रहे। अब अगर राहुल गांधी के नाम पर चुनावों में हार मिलती है, तो फिर राहुल गांधी तो गुजरात चुनाव से तकरीबन दूर ही रहे। वे महीनों से एक पदयात्रा पर हैं, और गुजरात चुनाव भाजपा की भाषा में राहुलमुक्त था। फिर वहां कांग्रेस की सीटें इतनी क्यों गिरीं? दूसरी तरफ राहुल हिमाचल चुनाव से भी दूर थे, वहां पर गृहमंत्री अमित शाह लगे हुए थे, पूरी भाजपा लगी हुई थी, लेकिन भाजपा वहां साफ-साफ हारी हुई है। इसलिए राहुल की पदयात्रा से चुनाव को न राहुल गांधी ने जोड़ा था, और न ही इन नतीजों पर उसका कोई असर दिखता। बहस की यह एक अलग बात हो सकती है कि एक पार्टी के एक सबसे बड़े नेता को दो राज्यों में चुनावों के दौरान क्या चुनावी राजनीति से अलग रहकर देश को जोडऩे की ऐसी पदयात्रा करनी चाहिए थी? लेकिन चुनाव पूर्व के अनुमानों को देखें तो पहले से हिमाचल में कांग्रेस आते दिख रही थी, और गुजरात में भाजपा बनी रहते दिख रही थी। और नतीजे भी वहीं हैं। इसलिए राहुल गांधी की पदयात्रा से किसी राज्य की जीत-हार को जोडक़र देखना ठीक नहीं है। अगर वे गुजरात से दूर रहकर वहां पार्टी की सीटें खासी कम होते देख रहे हैं, तो वे हिमाचल से दूर रहकर पार्टी की सीटें खासी बढ़ते भी देख रहे हैं।
आज इन तीनों चुनावों को सामने रखकर बारीकी से देखा जाए तो दिल्ली में लंबे समय से म्युनिसिपल चला रही भाजपा उन्हें बुरी तरह खो बैठी है, और आम आदमी पार्टी ने दिल्ली प्रदेश सरकार के साथ-साथ अब इस संयुक्त म्युनिसिपल पर भी कब्जा कर लिया है। दूसरी तरफ भाजपा ने हिमाचल प्रदेश साफ-साफ खो दिया है, और गुजरात पर कब्जा महज कायम रखा है। मतलब यह कि इन तीनों जगहों पर भाजपा का राज था, और दो जगहों पर खत्म हो गया। जिस एक जगह वह अपना राज बचा पाई है, उसके लिए उसने अपने आपको बुरी तरह से झोंक दिया, मोदी एक पदयात्री मतदाता की तरह मतदान के बीच कई किलोमीटर सडक़ पर चलते रहे, अमित शाह ने बहुसंख्यक हिन्दू मतदाताओं को साफ-साफ याद दिलाया कि 2002 में मोदी सरकार ने गुजरात में जो सबक सिखाया था, उसके बाद से अब तक शांति है, और प्रदेश और देश की भाजपा सरकारों ने मिलकर एक गर्भवती मुस्लिम से सामूहिक बलात्कार और हत्या के 11 मुजरिमों को गलत तरीके से समयपूर्व जेल से रिहा किया था। ऐसे कई किस्म के ध्रुवीकरणों के बाद भाजपा वहां अपनी सत्ता बचा पाई है। इसलिए आज देश के एक साथ हुए इन तीन चुनावों के नतीजों को एक साथ मिलाकर देखने की जरूरत है। कांग्रेस ने खोया हुआ हिमाचल वापिस पाया है, आम आदमी पार्टी ने दिल्ली म्युनिसिपल पर पूरा कब्जा कर लिया है, और भाजपा गुजरात में अपने को बचा पाई है। इन तीन चुनावों के नतीजों को देखें तो सबसे बड़ा नुकसान भाजपा का ही हुआ है जिसके हाथ से एक राज्य निकल गया, और दूसरा, राज्य जितना बड़ा म्युनिसिपल निकल गया। ये नतीजे यह भी बताते हैं कि राज्यों के चुनावों में कोई राष्ट्रीय लहर काम नहीं आ रही है, और जहां दिल्ली के एक-एक वार्ड में मोदी के नाम पर चुनाव लड़ा गया, वहां भी वह नाम वार्ड जीतने के काम नहीं आ सका। यह बात आने वाले बरसों में देश में होने वाले और राज्यों के चुनावों के संदर्भ में अगर देखें, तो फिक्र का बड़ा सामान आज भाजपा के सिर पर ही है।
कुछ महीने पहले जब केन्द्र सरकार ने दिल्ली की तीनों म्युनिसिपलों को मिलाकर एक किया था, तो उसे दिल्ली प्रदेश की केजरीवाल सरकार के मुकाबले एक चुनौती खड़ी करने का काम माना गया था। इन तीनों म्युनिसिपलों के जो ढाई सौ वार्ड आज मतगणना देख रहे हैं, वे मिलाकर राज्य सरकार सरीखी एक ताकतवर संस्था बनाने जा रहे हैं। अभी तक की मतगणना में आम आदमी पार्टी पर्याप्त आगे चलते दिख रही है, जिस केन्द्र सरकार के मातहत दिल्ली प्रदेश के बहुत से काम होते हैं, उसकी सत्तारूढ़ भाजपा एक्जिट पोल के नतीजों को शिकस्त देकर आप के पीछे-पीछे चल रही है। दोनों के बीच फासला काफी है, लेकिन उतना भी नहीं जितना कि तमाम एक्जिट पोल बतला रहे थे। अभी कुछ और घंटे की मतगणना यह तय करेगी कि म्युनिसिपल पर किसका राज रहेगा, लेकिन एक बात तो तय है कि सत्ता की इन सतहों पर अगर अलग-अलग पार्टियों का राज रहता है, तो टकराव के बावजूद लोकतंत्र की एक विविधता दिखती है। केन्द्र सरकार ने दिल्ली प्रदेश को पूर्ण राज्य का दर्जा कभी नहीं दिया, दिल्ली के दो बार के निर्वाचित मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और उनकी पार्टी का केन्द्र सरकार से लगातार टकराव चलते रहा, लेकिन केजरीवाल ने दिल्ली में स्थानीय प्रशासन के कुछ नए तरीके सामने रखे, और उन्हीं की कामयाबी गिनाते हुए वे पंजाब प्रदेश जीतने वाले बने। दिल्ली में उनके किए काम सीमित किस्म के थे, लेकिन उन्होंने यह भी साबित किया कि एक राज्य को किस तरह, म्युनिसिपल की तरह कैसे चलाया जा सकता है। और अब जब म्युनिसिपल पर उनकी पार्टी काबिज होते दिखती है, तो इसके पीछे दिल्ली सरकार में उनका कामकाज शायद सबसे बड़ा मुद्दा रहा होगा।
वैसे तो पूरे हिन्दुस्तान में लोकतांत्रिक सरकार के तीन स्तर तय हैं। संसद से बनी केन्द्र सरकार, विधानसभा से बनी राज्य सरकार, और शहर या गांवों के स्थानीय वोटों से बनी म्युनिसिपल या पंचायत सरकार। इनमें दिल्ली का मामला सबसे अटपटा इसलिए है कि दिल्ली की पुलिस, वहां की जमीन, और कुछ दूसरे विभाग प्रदेश सरकार के मातहत नहीं आते, वे केन्द्र सरकार के तहत ही काम करते हैं। ऐसे में राज्य सरकार के पास अपना काम दिखाने का मौका स्कूलों और मुहल्ला क्लीनिक तक सीमित था, और केजरीवाल सरीखे अफसर जैसे काम करने वाले निर्वाचित मुख्यमंत्री को भी यह ठीक लगता था, क्योंकि वे दूसरे मुख्यमंत्रियों की तरह देश की राजनीति में हिस्सा लेना नहीं चाहते थे। वे आखिर प्रदेशों में चुनाव लडऩे के लिए गए, पंजाब को जीता भी, लेकिन उन्होंने देश के जलते-सुलगते सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों पर कुछ बोलने से कतराना जारी रखा। उन्होंने एक म्युनिसिपल कमिश्नर की तरह स्थानीय विकास के पैमाने पर दिल्ली को कामयाब साबित किया, और अब वही कामयाबी दिल्ली के म्युनिसिपल चुनाव में उनके काम आ रही है। अगर मतगणना का यह रूझान जारी रहता है, तो दिल्ली की स्थानीय राजनीति में भाजपा और कांग्रेस का दखल घटेगा, और केजरीवाल प्रदेश सरकार से लेकर म्युनिसिपल तक अपना काम और दिखा पाएंगे।
लेकिन इतनी बातचीत के आगे हम आज की इस चर्चा को दिल्ली से बाहर भी निकालना चाहते हैं, और यह देखना चाहते हैं कि देश के बाकी हिस्सों में राज्य सरकार और म्युनिसिपलों या पंचायतों के बीच अलग-अलग पार्टियों का राज रहने से संबंध किस तरह के रह पाते हैं। आज ही छत्तीसगढ़ के एक प्रमुख जिले राजनांदगांव की खबर है कि वहां एक पखवाड़े से म्युनिसिपल कर्मचारियों के मोबाइल रिचार्ज नहीं हो पाए हैं, और बड़ी दिक्कत हो रही है। अब यह नौबत खतरनाक है कि एक तरफ तो राज्य सरकार प्रदेश स्तर पर बड़ी-बड़ी योजनाएं घोषित कर रही है, राजधानी रायपुर का म्युनिसिपल सैकड़ों करोड़ रूपये की फिजूलखर्ची की तोहमतों से घिरा हुआ है, एक जिला मुख्यालय का म्युनिसिपल अपने मोबाइल भी रिचार्ज नहीं करवा पा रहा है। ऐसा बहुत सी जगहों पर होता है कि राज्य में सरकार एक पार्टी की है, और म्युनिसिपल या जिला पंचायत में किसी दूसरी पार्टी का बहुमत है। ऐसे में कई जगह राज्य सरकार अपने को नापसंद पार्टी के नेताओं के लिए दिक्कत भी खड़े करती रहती है, लेकिन जहां पर ये दोनों ही सरकारें एक ही पार्टी की रहती हैं, वहां पर एक मिलीजुली साजिश की तरह ये गिरोहबंदी से काम करती हैं, और बहुत किस्म के गलत काम होते हैं। लोकतंत्र में एक ही पार्टी के राज का यह सिलसिला कोई अनिवार्य शर्त नहीं होनी चाहिए, क्योंकि इसी का दूसरा रूप फिर यह हो जाएगा कि प्रदेश में उसी पार्टी का राज रहना चाहिए जिसका राज देश पर है। ऐसे में लोकतंत्र की विविधता खत्म हो जाएगी, और रूस या चीन की तरह का एक पार्टी का राज कायम हो जाएगा। लोकतंत्र के विकास के लिए चेक और बेलैंस की यह व्यवस्था बनी रहनी चाहिए।
एक तरफ आम आदमी पार्टी को दिल्ली प्रदेश सरकार चलाने का नफा या नुकसान दिल्ली म्युनिसिपल चुनाव में मिलेगा, दूसरी तरफ केन्द्र पर सत्तारूढ़ भाजपा के हाथ उसके कब्जे की तिहाड़ जेल से निकले हुए वे तमाम वीडियो थे जो कि ईडी द्वारा बंद किए गए केजरीवाल के मंत्री को मिल रही सहूलियत दिखा रहे थे। केन्द्र सरकार के ये गोपनीय वीडियो दिल्ली में म्युनिसिपल पर सत्तारूढ़ भाजपा के चुनाव प्रचार के सबसे ताकतवर वीडियो माने जा रहे थे, लेकिन वे भी काम नहीं आए, और भाजपा वार्डों को बहुत बुरी रफ्तार से खो रही है। अभी तक के आंकड़ों से यह साफ है कि आम आदमी पार्टी का मेयर दिल्ली पर काबिज होने जा रहा है, और अब केन्द्र के भाजपा नेताओं के मुकाबले दिल्ली में मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के साथ-साथ म्युनिसिपल मेयर का एक और सत्ता केन्द्र खड़ा हो जाएगा।
अब इस मुद्दे पर चूंकि लिखा ही जा रहा है, इसलिए कांग्रेस के बारे में भी यह लिख देना ठीक है कि लंबे समय तक दिल्ली का मुख्यमंत्री रखने वाली कांग्रेस पार्टी दिल्ली म्युनिसिपल में भी मटियामेट है, और वह जितने वार्ड पाते दिख रही है, उससे दुगुने वार्ड वह इस चुनाव में खो भी रही है। भारत जोड़ो पदयात्रा पूरी होने के बाद कांग्रेस पार्टी को एक अलग अभियान अपनी पार्टी को जोडऩे का भी चलाना पड़ेगा क्योंकि राजनीतिक दल को महज जनसंगठन की तरह तो चलाया नहीं जा सकता, उसे चुनावी राजनीति में भी अपना अस्तित्व बनाए रखना होगा। आज दिल्ली के स्थानीय चुनाव पर लिखने की जरूरत इसलिए हुई कि भाजपा ने यहां चुनाव प्रचार में अपने आधा दर्जन मुख्यमंत्रियों को झोंक दिया था, केन्द्रीय मंत्री गली-गली घूम रहे थे, और भाजपा ने इसे अपने अस्तित्व की लड़ाई मानकर लड़ा था। जब पार्टी अपनी इतनी साख दांव पर लगा देती है, तो उसकी शिकस्त भी अहमियत रखती है। भाजपा की शिकस्त की यह अहमियत उसे लंबे समय तक परेशान करेगी। इसकी एक वजह वहां यह बताई जा रही है कि निर्वाचित पार्षद बहुत बुरी तरह भ्रष्ट हो जाते हैं, उनके चुने गए महापौर भी भ्रष्ट हो जाते हैं, इसलिए सत्तारूढ़ पार्टी म्युनिसिपलों को आमतौर पर हारती है। इस बात को देश भर में हर म्युनिसिपल पर सत्तारूढ़ पार्टी को समझ लेना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
बिहार के बड़े नेता लालू यादव की तस्वीरें उनकी बेटी की तस्वीरों के साथ कल से सोशल मीडिया पर बड़े भावनात्मक संदेशों के साथ छाई हुई हैं। कल इस बेटी ने पिता को अपनी किडनी दी जो कि सिंगापुर के एक अस्पताल में लालू यादव को लगाई गई। लोग एक बेटी के त्याग की तारीफ कर रहे हैं, और यह भी लिख रहे हैं कि एक बेटी ही ऐसा त्याग कर सकती है। यह जाहिर है कि किडनी देने और पाने वाले दोनों ही एक-एक किडनी के सहारे चलते हैं, और किडनी देने के बाद बाकी जिंदगी कई तरह की दवाईयों के सहारे, बहुत सी प्रतिबंधों और बहुत सी सावधानियों के साथ चलती है, और जिंदगी पर एक खतरा बने ही रहता है। इसलिए बहुत से लोग अपने परिवार के लोगों की किडनी लेने के बजाय कई तरह की कानूनी और गैरकानूनी तरकीबें निकालते हुए, कभी-कभी दूसरे देश जाकर भी किसी तथाकथित दानदाता से किडनी खरीदते हैं, और अपने परिवार के लोगों को खतरे में डालने से बचते हैं। फिर भी अधिकतर मामलों में परिवार के लोग ही इस तरह का दान देते हैं, और आमतौर पर यह दरियादिली और हौसला दिखाने का जिम्मा महिलाओं पर ही आता है।
रायपुर मेडिकल कॉलेज से डॉक्टर बने डॉ. सजल सेन ने 20 से अधिक बरस पहले दिल्ली के एम्स में एक अध्ययन किया था, और किडनी देने और पाने वाले साढ़े चार सौ लोगों की जानकारी जुटाई थी। उनका यह नतीजा निकला था कि किडनी पाने वाले लोगों में महज दस फीसदी ही महिलाएं हैं, और किडनी देने वाले लोगों में 75 फीसदी से अधिक महिलाएं हैं। इसके बाद के एक और सर्वे में एम्स में पता लगा कि जोड़ों के बीच किडनी देने वालों में 92.5 फीसदी महिलाएं हैं, और आगे चलकर यह आंकड़ा 98.4 फीसदी हो गया। कुछ बरस पहले एक समाचार रिपोर्ट के आंकड़े बताते हैं कि अहमदाबाद के एक किडनी इंस्टीट्यूट में पति-पत्नी के बीच किडनी डोनेशन में 92.6 फीसदी दानदाता पत्नियां रही हैं। कमोबेश इसी तरह का आंकड़ा देश भर में बाकी जगहों पर भी रहा कि परिवार की महिला पर ही किडनी देने का जिम्मा आता है।
अब हम आंकड़ों से निकल रहे नतीजे के खिलाफ सोचकर देखें तो दो छोटी-छोटी बातें दिखती हैं। पहली तो यह कि किडनी देने वाले अगर पुरूष हैं, तो उनके बाहर कामकाज और दौड़-भाग पर इससे असर पड़ सकता है, और अगर परिवार में महिला बाहर काम करने वाली नहीं है, तो उसके किडनी देने से उसकी जिंदगी पर उतना बड़ा फर्क शायद नहीं पड़ेगा। दूसरी बात यह है कि मर्दों की शराबखोरी या किसी और किस्म की आदत की वजह से हो सकता है कि उनकी किडनी इतनी स्वस्थ न रह गई हो कि वे परिवार के जरूरतमंद मरीज को दे सकें। लेकिन इन दोनों बातों के बाद भी ये आंकड़े बताते हैं कि हिन्दुस्तानी समाज जिस लडक़ी को पैदा ही नहीं होने देना चाहता है, वही लडक़ी आगे जाकर भाई, पिता, पति, या परिवार के दूसरे लोगों को किडनी देने के काम आती है। अगर किडनी देने में औरत और मर्द का योगदान एक बराबर कर दिया जाए, तो या तो हिन्दुस्तान में किडनी ट्रांसप्लांट का काम ठप्प ही हो जाएगा, या फिर वह दुगुना हो जाएगा। और यह हाल भी तब है जब किसी लडक़ी की शादी हो जाने के बाद उसके मायके के लोगों को किडनी की जरूरत पडऩे पर उस लडक़ी के बारे में फैसला लेने में उसके ससुराल का बड़ा हिस्सा रहता है जो अपने घर की बहू की सेहत खतरे में डालने से बचते नजर आते हैं क्योंकि बहू ही सेहतमंद नहीं रहेगी, तो घर का काम कौन करेगा।
अभी कुछ दिन पहले ही हमने इसी जगह पर लिखा था कि तमिलनाडु में एक बस्ती ऐसी है जिसके हर घर से किसी न किसी ने किडनी बेची हुई है, और लंबे समय तक खरीद-बिक्री के ऐसे कारोबार के बाद देश में इसके खिलाफ कानून बनाया गया। परिवार को अगर एक सदस्य के किडनी बेचने से कुछ लाख रूपये मिलते भी हैं तो उससे देश के गरीबों की यह भयानक हालत उजागर होती है कि वे परिवार को जिंदा रखने के लिए किडनी बेचने को मजबूर हैं। दूसरी तरफ कुछ लोगों का यह भी तजुर्बा है कि अगर शरीर के अंग इसी तरह बेचने की छूट जारी रहती, तो कई लोग अपना नशा पूरा करने के लिए भी उसी तरह किडनी बेच देते, जिस तरह वे आज भी खून बेचते ही हैं। इसलिए किसी परिवार के लिए अगर एक सदस्य की एक किडनी से अधिक जरूरी कोई दूसरी जरूरतें भी हैं, तो उन्हें पूरा करने की जिम्मेदारी सरकार की है, न कि अंगों के कारोबार को अनदेखा करने की। इसलिए हिन्दुस्तान में आज अंगदान और अंग प्रत्यारोपण के कानून बहुत कड़े बने हुए हैं, और जब बाजार से कोई चीज खरीदी नहीं जा सकती, जिसे देने में घर के सदस्यों की अपनी जिंदगी पर भी खतरा है, तो जाहिर है कि हिन्दुस्तानी समाज इसका बोझ महिला पर ही डालेगा, और वही हो रहा है।
इसलिए कल जब लालू यादव को किडनी लगी, और उनकी बेटी ने अपनी किडनी दान दी, तो यह भारतीय परिवारों के बीच की आम व्यवस्था की तरह है। और बाप-बेटी का जो रिश्ता होता है उसके चलते इन दोनों के बीच एक-दूसरे के लिए बड़े से बड़ा त्याग करना भी अधिक स्वाभाविक लगता है। चूंकि कल यह बात खबरों में आई और लोगों ने इसके बारे में खूब लिखा, इसलिए इंटरनेट पर मामूली सी सर्च ने पुराने अध्ययनों के ये आंकड़े सामने रखे कि किस तरह अंगदान भारतीय महिला का ही जिम्मा बना हुआ है। अंग पाने में महिला का हिस्सा दस फीसदी या उससे कम है, लेकिन अंग देने के मामले में नब्बे फीसदी से अधिक दानदाता महिलाएं ही हैं। लोगों को चाहिए कि अपने घर-परिवार की महिलाओं की इज्जत और फिक्र बाकी बातों के साथ-साथ इस बात के लिए भी करें कि उन्हें जरूरत पड़ेगी तो किडनी पाने की सबसे अधिक संभावना परिवार की महिला की तरफ से ही मौजूद रहेगी। इसलिए परिवार की महिलाओं को ठीक रखना एक किस्म का पूंजीनिवेश भी है, जिन लोगों को और कोई वजह नहीं दिखती है, उन्हें भी चाहिए कि वे कम से कम इसे एक काफी वजह मानकर चलें। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
जो लोग किसी संघर्ष या इंतजार से थककर उम्मीद छोडऩे वाले हैं, उनकी उम्मीद बनाए रखने के लिए असल जिंदगी की एक फिल्मी कहानी अभी सामने आई है जिसमें अपनी बेटी को ढूंढते एक मां-बाप को उससे पचास बरस बाद मिलना नसीब हुआ। जब यह लडक़ी 22 महीने की थी, तब उसे 1971 में उसकी आया बाई लेकर चली गई थी, उसकी तलाश दशकों तक जारी रही, अमरीका की पुलिस, वहां की राष्ट्रीय जांच एजेंसी एफबीआई, और उस लडक़ी का परिवार, सभी ने उसकी खूब तलाश की, लेकिन उसका कोई सुराग नहीं लगा। हाल के बरसों में अमरीका में डीएनए सैम्पल के मार्फत बिछड़े हुए लोगों को उनके परिवार के लोगों से मिलाने की कुछ वेबसाईट शुरू हुई हैं, वैसी एक वेबसाईट ने अभी इस लडक़ी को मां-बाप से मिलवाया। मेलिसा नाम की यह लडक़ी अब 53 बरस की है, और उसका जन्मदिन अब बस आने को है। इस परिवार ने फेसबुक पर यह लिखा कि बिना पुलिस या एफबीआई के, सिर्फ डीएनए मिलान करने वाली वेबसाईट की वजह से उनकी बेटी उन्हें मिली है, और खुशी का इससे बड़ा मौका और कोई नहीं हो सकता। इस पूरे दौर में मेलिसा भी अपने मां-बाप की तलाश कर रही थी, और मां-बाप उसकी तलाश कर रहे थे। अब यह बेटी अपनी शादी का जलसा एक बार फिर करना चाहती है ताकि उसके पिता चर्च में उसका थामकर उसे दूल्हे तक ले जा सके।
यह घटना आम लोगों की रोजाना की जिंदगी में होने के हिसाब से कुछ अधिक फिल्मी है। हर किसी की जिंदगी में संयोग इतने बड़े और खुशनुमा नहीं होते हैं, लेकिन ऐसे करिश्मे हाड़-मांस के आम इंसानों की जिंदगी में हुए हैं, जिनके पास इस तलाश के लिए कोई अंधाधुंध पैसे नहीं थे। ऐसी मुलाकात की कई कहानियां हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के बीच विभाजन में खोए परिवारों के बीच भी देखने मिलती हैं, अभी कुछ दिन पहले ही 72 बरस पहले बिछुड़े भाई-बहन करतारपुर गुरुद्वारे में मिले हैं। इस बात की चर्चा का मकसद यह है कि जो लोग जिंदगी से निराश हो जाते हैं उन्हें यह भी सोचना चाहिए कि जिंदगी की पोटली में चौंकाने वाली बहुत सी बातें रहती हैं, कब वक्त किसे क्या निकालकर देता है, इसका किसी को अंदाज भी नहीं रहता। दुनिया के जिन देशों ने विभाजन की त्रासदी देखी है, लोगों को अपना मुल्क छोडक़र शरणार्थी होकर कहीं और जाना पड़ा है, ऐसे अनगिनत लोगों की जिंदगी में लोग बिछुड़ते हैं, उनकी अपनी जगह छिन जाती है, लेकिन ऐसे बहुत से लोग अपनी जड़ों की तलाश करते हुए कामयाब भी होते हैं। हिन्दुस्तान में भी हर बरस दो-चार ऐसी कहानियां आती हैं जिनमें आधी सदी पहले बाहर गए हुए लोगों के बच्चे अपने पुरखों की तलाश करते हुए उन तक पहुंच जाते हैं। अब डीएनए मिलान करके लोगों को उनके संभावित परिवारों से मिलवाने वाली वेबसाईटें लगातार अधिक कामयाबी पा रही हैं, और अपने देश से बिछुड़े हुए लोग इन वेबसाईटों की मदद से एक बार फिर एक हो रहे हैं।
जिंदगी में लोगों को नाकामयाब कोशिशों से हौसला नहीं छोडऩा चाहिए। बहुत कोशिशों के बाद जीतने वाले लोग, कामयाबी पाने वाले लोग वे ही होते हैं जो कि बहुत बार हारकर भी एक आखिरी कोशिश और करते हैं, और वही आखिरी कोशिश कामयाब होती है। जिंदगी में बहुत बार गिरना मायने नहीं रखता है, आखिरी बार गिरकर भी फिर उठकर खड़े होने का हौसला मायने रखता है, और लोगों को हार मानकर कोशिश या जिंदगी खत्म कर लेने के बजाय अपने हौसले को बनाए रखना चाहिए।
एक बार फिर अमरीका की इसी असली फिल्मी कहानी पर लौटें तो मां-बाप 70 बरस से ऊपर के हो चुके हंै, खोई हुई दुधमुंही बेटी भी अब 53 बरस की हो चुकी है, और अब ये सब मिलकर अपनी खोई हुई जिंदगी के कुछ चुनिंदा पलों को एक बार फिर जी लेने की तैयारी कर रहे हैं। जिंदगी को लेकर नजरिया वही रखना चाहिए जो कि, आज फिर जीने की तमन्ना है, गाने के इन पहले शब्दों में है। और जो जिंदगियां इतनी फिल्मी नहीं भी रहती हैं, उन्हें भी कोशिश इसी दर्जे की करनी चाहिए। छत्तीसगढ़ के एक आईएएस कई बार सोशल मीडिया पर लिख चुके हैं कि स्कूल-कॉलेज में वे कितनी बार फेल हुए थे, कैसे खराब नंबर पाने के बाद भी वे कोशिश कर-करके यूपीएससी में कामयाब हुए, और आईएएस बने। ऐसी मिसालें कम मायने नहीं रखती हैं, ये लोगों को कोशिश जारी रखने का हौसला बंधाती हैं।
आज एक दिक्कत यह भी हो गई है कि लोगों की उम्मीदें ऐसी आसमान छूती हो गई हैं कि स्कूली बच्चों को उनका मनपसंद मोबाइल नहीं मिलता, तो निराश होकर वे जान दे देते हैं। स्कूल की पढ़ाई में नंबर अच्छे नहीं आए, तो भी कुछ बच्चे जीना बेकार समझ लेते हैं। ऐसे तमाम लोगों को यह समझना चाहिए कि शुरुआती जिंदगी की नाकामयाबी के बाद आगे बढक़र दुनिया में कई लोग महानता के आसमान पर पहुंचे हैं। जाने कितने नोबल पुरस्कार विजेता होंगे जिन्हें स्कूल में अच्छे नंबर नहीं मिलते थे। दुनिया के कुछ सबसे कामयाब वैज्ञानिक भी स्कूल में फेल हुए हैं। इसलिए किसी भी नाकामयाबी से सबक लेकर आगे बढऩा ही जिंदगी है। अब अमरीका के ये मां-बाप, और उनकी बेटी आधी सदी से अधिक वक्त तक एक-दूसरे की तलाश करते रहे, और इस बीच अगर थककर उन्होंने हाथ डाल दिए रहते, तो उस आखिरी कोशिश के बिना कुछ नहीं होता जिससे कि वे आज एक हुए हैं।
मीडिया और सोशल मीडिया के पास लोगों का हौसला बढ़ाने, या उसे पस्त करने की अपार ताकत है। जिंदगी से निराश लोग कम नहीं हैं, लेकिन उनकी जिंदगी में एक नई आस भरने का काम मीडिया भी कर सकता है, और अब सोशल मीडिया पर भी सकारात्मक नजरिए के लोग दूसरों तक कामयाबी की ऐसी असली कहानियां बढ़ा सकते हैं, खासकर उन लोगों तक जिन्हें कि उम्मीद की एक किरण की जरूरत है।
इन दिनों दुनिया के दो महत्वपूर्ण देशों में दो ऐतिहासिक आंदोलन चल रहे हैं, जिनका एक-दूसरे से कोई लेना-देना तो नहीं है, लेकिन इन्हें साथ रखकर देखने की जरूरत है। चीन में वहां के कोरोना-लॉकडाऊन के हाल के बरसों से उपजी सत्ता-विरोधी बेचैनी पिछले चौथाई सदी से अधिक की वहां की सबसे बड़ी बेचैनी मानी जा रही है। दूसरी तरफ ईरान में महिलाओं पर पोशाक की कड़ाई के चलते एक युवती की हिरासत में मौत के बाद वहां पूरे देश में गांव-कस्बों तक, महिलाओं से लेकर मर्दों तक फैल गया सरकार विरोधी आंदोलन इस्लामी मुल्लाओं की सत्ता की नींद हराम किए हुए है। बहुत कड़े कानून और भारी ज्यादतियों के बावजूद इन दोनों देशों में सत्ता के खिलाफ चल रहे आंदोलन खुद वहां के लोगों को हैरान कर रहे हैं, बाकी दुनिया को तो हैरान कर ही रहे हैं। अब इन दोनों को एक साथ देखने की हमारी एक वजह यह भी है कि ये दोनों ही देश पश्चिमी देशों के विरोधी हैं, और ये दोनों ही आज की अंतरराष्ट्रीय जंग में रूस के साथ खड़े हैं।
इसे हम किसी पश्चिमी साजिश की कामयाबी की तरह नहीं देखते क्योंकि इन दोनों ही जगहों पर बाहरी असर की गुंजाइश बहुत सीमित है, और पश्चिम की इन दोनों देशों से टकराहट हमेशा से चली आ रही है। इसलिए रातों-रात अमरीका या योरप के देश इन दोनों जगहों पर जनआंदोलन छिड़वा सकें, ऐसी गुंजाइश नहीं दिखती है। इन दोनों ही जगहों पर सत्ता के फौलादी रूख के खिलाफ बेचैनी पहले से चली आ रही थी, दुनिया के दूसरे देशों में लोकतंत्र के झोंके सरहद पार से भी सोशल मीडिया और मीडिया की मेहरबानी से इन फौलादी सींखचों को पार करके यहां के आम लोगों तक पहुंच ही रहे थे। उसी का नतीजा था कि जब ईरानी और चीनी जनता को सरकारी ज्यादतियों के खिलाफ एक होने का मौका मिला, तो उन्होंने अपनी सरकारों की तानाशाही के खिलाफ आवाज उठाने में देर नहीं की। ऐसा लगता है कि ईरान की महिलाओं ने हिजाब की पसंद के अपने जिस हक के लिए यह लड़ाई शुरू की है, उसके पीछे पड़ोस के अफगानिस्तान के मुल्लाओं की भयानक ज्यादतियां भी हैं जिन्होंने अफगान महिलाओं को कुचलकर रख दिया है। कोई हैरानी नहीं होगी कि पड़ोस का यह हाल देखकर ईरानी महिलाओं को यह सूझा हो कि अगर वे अपने हक की आवाज बुलंद नहीं करेंगी, तो वे भी अफगान मौत मरेंगी। कुछ ऐसा ही चीन में अभी इसलिए हुआ हो सकता है कि वहां के राष्ट्रपति शी जिनपिंग एक और कार्यकाल पाकर असाधारण बाहुबल पा चुके हैं, और अब वहां के लोगों को भी यह लग रहा है कि उनकी सरकार और उनकी पार्टी जरूरत से अधिक ताकत हासिल कर चुके हैं। शायद इसी नई ताकत से आशंकित लोगों ने अब बेरहम सरकारी प्रतिबंधों के खिलाफ आवाज उठाई है, और यह आवाज चीन के दशकों पहले के थ्यानमान चौक के जनसंहार के बाद की पहली ऐसी बुलंद आवाज मानी जा रही है।
चीन का तो नहीं मालूम लेकिन ईरान में महिलाओं से शुरू हुए और सभी के बन गए इस जनआंदोलन का असर दिख रहा है। ईरान के धर्मशिक्षा केंद्र, कुम, पहुंचकर ईरानी अटॉर्नी जनरल ने साफ-साफ शब्दों में कहा है कि महिलाओं पर पोशाक की रोक-टोक लागू करने वाली ईरानी नैतिक-पुलिस को खत्म करने का विचार चल रहा है, और सरकार और संसद महिलाओं पर लागू पोशाक के नियमों पर सोच-विचार करने जा रही है। उन्होंने साफ-साफ कहा कि ड्रेस कोड पर दो हफ्तों में विचार कर लिया जाएगा। यह ईरानी महिलाओं की मामूली जीत नहीं है कि आज सरकार उनकी आवाज सुनने के लिए तैयार है, वरना पिछले कुछ हफ्ते में सरकारी फौजों ने तीन सौ से अधिक आंदोलनकारियों को मार डाला है। किसी भी तरह से ईरान किसी सीधे अंतरराष्ट्रीय दबाव में नहीं है, महिलाओं के इस आंदोलन को लेकर उसे किसी नए अंतरराष्ट्रीय आर्थिक प्रतिबंध को नहीं झेलना पड़ रहा है। ऐसे में अगर वहां की सरकार और संसद महिलाओं की बात सुनने जा रही है, तो इसका मतलब है कि जनआंदोलन से सरकार घबराई है।
जिन देशों में ईरान और चीन की तरह ज्यादतियां नहीं हैं, जहां मानवाधिकार इन दोनों देशों जितने कुचले नहीं गए हैं, वहां पर ऐसे जनआंदोलन दिखाई नहीं पड़ रहे हैं। शायद ऐसे विशाल जनआंदोलन या विरोध प्रदर्शन के लिए एक खास डिग्री की ज्यादती लगती है जो कि दूसरे बहुत से देशों में अब तक उस डिग्री तक नहीं पहुंच पाई है। लेकिन बाकी देशों की अलोकतांत्रिक या तानाशाह सरकारों को इन दो देशों को देखकर संभल जाना चाहिए, साथ ही बाकी देशों की जनता को भी ईरानी महिलाओं और चीनी नागरिकों के हौसले से कुछ सीखना चाहिए। ये दोनों ही देश अभी जनता के हक पर किसी किनारे नहीं पहुंचे हैं, अभी वहां पर मामला मंझधार ही है, लेकिन इस पर लिखना इसलिए जरूरी है कि बाकी दुनिया के देश भी इन दो मामलों को बारीकी से देखें।
ट्विटर खरीदकर खबरों में आए, और खासा नुकसान झेल चुके, एलन मस्क ने अभी यह कहकर और सनसनी फैला दी है कि उनकी एक कंपनी इंसान के दिमाग में कम्प्यूटर चिप लगाने के करीब है, और अगले छह महीनों में उनकी कंपनी यह टेक्नालॉजी विकसित कर लेगी। उनकी यह उम्मीद अगर वक्त पर पूरी हो जाती है तो इससे दिमाग से जुड़ी कई किस्म की बीमारियों के इलाज की एक नई संभावना पैदा होगी, लेकिन साथ-साथ दुनिया में एक नए किस्म का खतरा भी खड़ा हो जाएगा। मस्क की कंपनी न्यूरालिंक का कहना है कि वह जो ब्रेन-चिप बना रही है उससे किसी इंसान की खोई हुई दृष्टि वापिस हासिल हो सकेगी, और जो लोग जन्म से दृष्टिहीन हैं, उनमें भी इस ब्रेन-चिप से दिखने लग सकता है। इसके अलावा पूरे बदन को काबू करने वाले दिमाग के और कई किस्म के काम इससे हो सकेंगे। कंपनी ने छह महीनों में इसके ट्रायल की उम्मीद जताई है।
अब दुनिया के एक सबसे बड़े, ताकतवर, और सनकी दिखने वाले कारोबारी के हाथ अगर ऐसी टेक्नालॉजी लग चुकी है, और छह महीनों में इसे इंसानों के दिमाग से जोडक़र उनकी बीमारियों पर काबू पाया जा सकेगा, तो यह बात भी तय है कि बीमारियों पर काबू से परे भी कई दूसरी किस्म की बातों पर काबू भी इस टेक्नालॉजी से मुमकिन हो सकता है। आज खुद अमरीका में बड़े-बड़े वैज्ञानिकों के सामने दिमाग के साथ इस तरह की छेड़छाड़ एक बड़ी फिक्र बनकर सामने है। बहुत से वैज्ञानिकों का मानना है कि इससे कई दूसरे किस्म के नैतिक सवाल उठ खड़े होंगे जिनके जवाब मिलना मुश्किल है। जो ब्रेन-चिप दिमाग के साथ संपर्क करेंगे, वे आगे-पीछे दिमाग को पढऩे की ताकत भी पा जाएंगे। ऐसी हालत में टेक्नालॉजी किसी व्यक्ति के दिमाग में जमा यादों, इरादों, और बाकी बातों में भी झांकने की हालत में आ सकती है। लोगों को याद होगा कि आधी-एक सदी पहले से विज्ञान कथा लेखकों ने ब्रेन-वॉश की कल्पना लिखना शुरू कर दिया था जिसके मार्फत टेक्नालॉजी लोगों के दिमाग में कोई बात सुझा सकती है, या दिमाग में वह बात भर सकती है। एक मशहूर चिकित्सा-विज्ञान अपराध-कथा लेखक ने कई दशक पहले एक उपन्यास लिखा था जिसमें एक दवा कंपनी डॉक्टरों को मौज-मस्ती के लिए एक जहाज पर ले जाती है, और वहां पर उन्हें ब्रेन-वॉश करके इस कंपनी की दवाओं को अधिक से अधिक लिखना सुझाया जाता है। अब अगर इंसानों को ब्रेन-वॉश करने की ऐसी कल्पना में लोगों के दिमाग में कोई चिप बैठाकर उसके माध्यम से उनकी सोच बदली जा सकती है, तो इसकी भयानक संभावनाएं या आशंकाएं पहली नजर में ही दिखती हैं। बड़े संपन्न राजनीतिक दल ऐसा चाह सकते हैं कि लोग उसके हिमायती बनें, और बने रहें। अब हिन्दुस्तान जैसे देश में जहां पर लोग पैसों के लिए खून बेचते हैं, किडनी बेचते हैं, लिवर बेचते हैं, वहां पर भुगतान पाकर चिप लगवाने के लिए भी लोग तैयार हो सकते हैं। जब एक किडनी बेचकर और बची एक किडनी के सहारे जिंदा रहना भी हजारों लोगों की जिंदगी की हकीकत है, तो अपने दिमाग तक पहुंच का एक रास्ता देकर अगर लोगों को पैसे मिल सकते हैं, तो गरीबी से भरे इस देश में इसमें दिलचस्पी रखने वाले बहुत से गरीब निकल सकते हैं। यह भी हो सकता है कि हर आम वोटर को प्रभावित करने के बजाय कोई पार्टी या सरकार प्रमुख लोगों के दिमाग प्रभावित करने की कोशिश करे ताकि उसकी विचारधारा की सरकार चल सके, लंबी चल सके, मनमानी कर सके। आज भी कई जगहों सरकारों में कई लोग इस तरह काम करते दिखते हैं कि मानो उनका ब्रेन-वॉश हो चुका हो, किसी ब्रेन-चिप की मेहरबानी से यह सिलसिला छलांगें लगाकर आगे बढ़ सकता है।
एलन मस्क एक ऐसा कारोबारी है जिसने ट्विटर जैसे दुनिया के सबसे बड़े सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म को अपनी मनमर्जी से चलाने के लिए इतना बड़ा घाटे का सौदा किया है, और न सिर्फ अपनी दौलत का एक बड़ा हिस्सा, बल्कि अपनी कारोबारी साख को बहुत हद तक दांव पर लगा भी दिया है। एलन मस्क एक सनकी और अपार ताकत का धनी कारोबारी है जिसकी जनकल्याण की अपनी सोच है, और जो अभिव्यक्ति की आजादी का हिमायती बनते हुए मनमानी करने का आदी है। अब अगर ऐसे तानाशाही सोच वाले कारोबारी के हाथ ब्रेन-चिप जैसी कोई टेक्नालॉजी लगती है, तो वह आगे चलकर एक औजार के बजाय एक हथियार साबित हो सकती है। इस टेक्नालॉजी की संभावनाएं किन दिमागी तकलीफों को दूर करने में हो सकती है, इस पर तो बहुत चर्चा है, लेकिन इसे किसी साजिश के तहत लोगों के दिमाग पर काबू करने में कैसे-कैसे इस्तेमाल किया जा सकता है, ऐसे चिकित्सा-नैतिकता के पहलुओं पर अभी पूरी कल्पनाएं दौडऩा भी मुमकिन नहीं है। फिर भी यह जाहिर तौर पर एक ऐसी तकनीक दिख रही है जिसके बेकाबू होने का खतरा बहुत है। खासकर गरीब देशों की बड़ी आबादी ऐसी हो सकती है जो कि राजनीतिक, धार्मिक, कारोबारी सोच के सिग्नल अपने ब्रेन तक पहुंचने देने के लिए, या अपने दिमाग को किसी कम्प्यूटर से पढऩे देने के लिए मामूली रकम लेकर तैयार हो जाए। आज अफगानिस्तान जैसे देश में तालिबान-राज लौटने के साल भर के भीतर ऐसी नौबत आ गई है कि लोग अपने छोटे-छोटे से बच्चे बेच रहे हैं ताकि उन्हें भी जिंदा रख सकें, और अपने बचे हुए परिवार को भी कुछ दिन खाना खिला सकें। हिन्दुस्तान के चेन्नई में ऐसी पूरी बस्ती ही है जिसके हर घर में लोग एक-एक किडनी बेच चुके हैं, और बाकी दूसरी किडनी पर जिंदा हैं। गरीबी और असमानता से भरी ऐसी दुनिया में दिमाग तक पहुंच की राह बेचने वाले बहुत से लोग हो जाएंगे, क्योंकि इस दुनिया में अनगिनत महिलाएं मजबूरी में अपनी देह बेच ही रही हैं। ऐसी टेक्नालॉजी चिकित्सा-विज्ञान को संभावनाएं दिखा रही है, लेकिन मामूली समझबूझ के लोगों को भी इसकी आशंकाएं भी नजर आ सकती हैं।
देश के एक सबसे बड़े निजी विश्वविद्यालय, कर्नाटक के मणिपाल विश्वविद्यालय में एक छात्र के कड़े विरोध के बाद उसका वीडियो चारों तरफ फैलने के दबाव में विश्वविद्यालय ने उस प्रोफेसर के खिलाफ जांच शुरू की है जिसने क्लास में एक मुस्लिम छात्र को मुम्बई हमले के आतंकी कसाब के नाम से बुलाया था। जो वीडियो बाहर आया है उसमें यह छात्र बहुत खुलकर प्रोफेसर का विरोध कर रहा है कि वे उसे एक आतंकी के नाम से कैसे बुला सकते हैं? उसने कहा कि इस देश में मुसलमान होना, और यह सब हर रोज झेलना मजाक नहीं है। उसने प्रोफेसर से भरी क्लास में कहा कि वे उसके धर्म का मजाक नहीं उड़ा सकते, उसे आतंकी नहीं कह सकते, और उसकी आस्था का अपमान नहीं कर सकते। जाहिर तौर पर एक कॉलेज की इस भरी क्लास में कोई भी दूसरे छात्र-छात्रा इस लडक़े का साथ देते नहीं दिखते, और प्रोफेसर का विरोध करते सुनाई नहीं पड़ते। यह तो साफ है ही कि इंजीनियरिंग कॉलेज में पहुंचने की वजह से ये सारे के सारे छात्र-छात्राएं इस देश के मतदाता हैं, और उनकी जागरूकता और जवाबदेही का हाल यह है कि एक प्रोफेसर की ऐसी घोर साम्प्रदायिक बात का भी वे कोई विरोध नहीं करते। इस देश की हकीकत यही रह गई है कि लोगों में सार्वजनिक, सामूहिक, और सामाजिक जिम्मेदारी की भावना खत्म हो चुकी है। अगर क्लासरूम का यह पूरा मामला वीडियो रिकॉर्ड नहीं किया होता, तो यह बात भी आई-गई हो जाती, लेकिन यह वीडियो सामने आने के बाद इस प्रोफेसर को जिस तरह धिक्कारा जा रहा है, और विश्वविद्यालय जिस बुरी कानूनी नौबत में फंसा है, उस वजह से इस प्रोफेसर को काम से अलग करके उसके खिलाफ जांच शुरू करने की बात कही गई है।
कोई भी जिम्मेदार हिन्दुस्तानी इस बात से इंकार नहीं करेंगे कि इस देश में आज मुस्लिमों का, दलितों और आदिवासियों का बराबरी से जीना नामुमकिन हो चुका है। चारों तरफ ताकतवर लोग दबंगता से नफरत फैलाने में लगे हुए हैं। आज जब हम इस बात को लिख रहे हैं, तो ठीक उसी वक्त सोशल मीडिया पर फैले अपने एक वीडियो की वजह से अभिनेता और बीजेपी नेता, भूतपूर्व सांसद परेश रावल अपने बयान पर माफी मांग रहे हैं जिसमें उन्होंने गुजरात की चुनावी सभा में मंच से कहा था कि अगर दिल्ली की तरह रोहिंग्या शरणार्थी और बांग्लादेशी आपके पड़ोस में आकर रहने लगेंगे, तो क्या बंगालियों के लिए मछली पकाओगे? जाहिर है कि गुजरात में हमलावर तेवरों के साथ भाजपा को चुनौती देते हुए दिल्ली के आम आदमी पार्टी के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के प्रदेश का जिक्र करते हुए परेश रावल वोटरों को पड़ोसी देशों के मुस्लिम शरणार्थियों की दहशत दिला रहे थे, और नफरत पैदा कर रहे थे। यही परेश रावल सांसद भी रह चुके हैं, उन्हें सरकार ने राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय का चेयरपर्सन भी बनाया था, और वे भाजपा के एक बड़े नेता हैं, उन्हें नरेन्द्र मोदी ने प्रधानमंत्री बनते ही पद्मश्री से सम्मानित किया था। परेश रावल मुम्बई में पैदा और बड़े हुए, लेकिन साम्प्रदायिकता से फिर भी नहीं उबर पाए।
साम्प्रदायिक नफरत को हिन्दुस्तान में एक नवसामान्य दर्जा हासिल हो गया है। कर्नाटक जैसे विकसित राज्य में मणिपाल जैसी अंतरराष्ट्रीय शैक्षणिक संस्था में एक प्रोफेसर को अगर मुस्लिम छात्र को कसाब कहकर बुलाना सूझ रहा है, तो इसका मतलब है कि पढ़ाई-लिखाई से लोगों की समझ का कुछ खास लेना-देना नहीं रह गया है। वे पढ़े-लिखे मूर्ख हैं, नफरतजीवी भी हैं, साम्प्रदायिक भी हैं, और परले दर्जे के गैरजिम्मेदार भी हैं। हमारा ख्याल है कि इस प्रोफेसर को कड़ी सजा मिलनी चाहिए, ताकि यह हिन्दुस्तान के बाकी लोगों के लिए एक मिसाल भी रहे। बहुत से लोगों को यह बात अभी याद नहीं होगी कि जब इंदिरा गांधी को उनके एक सिक्ख अंगरक्षक ने मार दिया था, तो उसके बाद देश भर में सिक्ख विरोधी दंगे भडक़ गए थे, और जगह-जगह सिक्खों को अपमानजनक तरीके से आतंकी या खाडक़ू कहा जाता था। देश को उस तनाव और नफरत से उबरने में खासा वक्त लगा था, और यह बात सिर्फ सिक्ख समुदाय के लोग ही समझ सकते हैं कि उस तनाव और अपमान के बीच वे किस तरह जीते थे। आजादी के करीब चालीस बरस बाद जिस तरह इस देश में सिक्ख विरोधी दंगे हुए थे, वे देश के ताने-बाने को छिन्न-भिन्न करने लायक थे, और सिक्ख कौम की बहादुरी की अनगिनत मिसालों और कहानियों ने उस नौबत को सुधारने में मदद की थी। आज हिन्दुस्तान में बात-बात में मुसलमानों को बदनाम करने का कोई मौका नहीं छोड़ा जा रहा है, और एक मुस्लिम हत्यारा किसी हिन्दू लडक़ी को बर्बर तरीके से अगर काट डालता है, तो उसे पूरे मुस्लिम समाज का प्रतिनिधि सा बनाकर पेश किया जा रहा है, ताकि मुस्लिमों के खिलाफ एक नफरत फैल सके।
दुनिया में नफरत की बातें पूरी तरह से खत्म करने की ताकत विकसित लोकतंत्रों में भी नहीं हैं। अभी दो दिन पहले ब्रिटिश राजघराने का एक मामला सामने आया है जिसमें राजपरिवार की एक अधिकारी ने अफ्रीकी मूल की ब्रिटेन में पैदा हुई एक महिला से लंबी पूछताछ में जिस अपमानजनक तरीके से बातचीत की थी, उसे खुद राजपरिवार को खारिज करना पड़ा, और उसके लिए बहुत अफसोस जाहिर करना पड़ा। जब यह शिकायत सार्वजनिक हुई तो राजघराने ने एक अभूतपूर्व बदनामी झेली और यह माना कि यह बर्ताव बिल्कुल बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। इस अफसोस के साथ-साथ राजघराने ने अपनी इस अफसर का इस्तीफा भी ले लिया। यह महिला 1960 से राजघराने के लिए काम कर रही थी, और महारानी एलिजाबेथ के साथ भी आधी सदी से काम किया था। उसने अपने बर्ताव पर माफी मांगी है, और शाही ड्यूटी से इस्तीफा दे दिया है।
दुनिया में कोई लोकतंत्र महज लगातार चुनाव करवाने की वजह से महान नहीं हो जाते। लोकतंत्र में महानता गौरवशाली परंपराओं से आती है, समानता और इंसाफ से आती है। यह एक अलग बात है कि लोकतंत्र एक चुनाव प्रणाली के रूप में हिन्दुस्तान की तरह का गैरजिम्मेदार और संवेदनाशून्य समाज भी बना सकता है। आज हिन्दुस्तान में जिस तरह राष्ट्रीय चुनावों की जगह एक धार्मिक जनगणना ने ले ली है, उसने इस देश की लोकतांत्रिक सभ्यता के विकास को दशकों पीछे धकेल दिया है। संवैधानिक संस्थाओं और कड़े कानूनों के बावजूद आज नफरतजीवी लोग अपनी अतिसक्रियता के साथ अपने को इस देश में पूरी तरह महफूज महसूस करते हैं। नफरत को आज कोई खतरा नहीं है, और मोहब्बत को पीटने के लिए बाग-बगीचों में भी लगातार लाठियां लेकर तैनात रहते हैं, सडक़ों पर इन डंडों पर झंडे लगा लेते हैं, और सोशल मीडिया पर नफरत का लावा सा उगलते रहते हैं। हिन्दुस्तानी लोकतंत्र, यहां की संवैधानिक संस्थाओं, इन सबने इस नवसामान्य को पूरी तरह मंजूर कर लिया है। लेकिन हम इसे अपनी जिम्मेदारी समझते हैं कि इसके खतरों को गिनाते चलें। लोगों को यह समझना होगा कि यह सभ्यता के विकास की राह नहीं है, उसके विनाश की राह है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
देश के एक प्रमुख और अब तक काफी या कुछ हद तक विश्वसनीय बने हुए समाचार चैनल, एनडीटीवी, का मालिकाना हक बदल जाने से इसे देखने वाले लोगों को लग रहा है कि यह हिन्दुस्तानी टीवी पर भरोसेमंद पत्रकारिता का अंत हो गया है। अभी नए मालिक, देश के सबसे बड़े उद्योगपति अडानी ने अपना रूख दिखाना शुरू भी नहीं किया है, लेकिन लोगों की ऐसी आशंकाएं बेबुनियाद नहीं हैं। एक घाटे के कारोबार को देश का सबसे बड़ा मुनाफा कमा रहा कारोबारी अगर ले रहा है, तो उसे भरोसेमंद पत्रकारिता जारी रखने के लिए तो ले नहीं रहा। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से अडानी का घरोबा जगजाहिर है, और एनडीटीवी एक ऐसा समाचार चैनल था जिसका कम से कम कुछ हिस्सा मोदी की आलोचना की हिम्मत करता था। एनडीटीवी के हिन्दी के सबसे चर्चित टीवी-पत्रकार रवीश कुमार का नाम देश और दुनिया में आज हिन्दुस्तान के सबसे हिम्मती पत्रकार के रूप में लिया जाता था, और सोशल मीडिया पर आम प्रतिक्रिया कल यही थी कि जब सरकार और कारोबार एक पत्रकार को नहीं खरीद सके, तो उन्होंने पूरा चैनल ही खरीद लिया। और जैसी कि उम्मीद थी मालिक बदलने के साथ एनडीटीवी से पहला इस्तीफा रवीश कुमार का ही हुआ क्योंकि अपनी विचारधारा और अपने तौर-तरीके के साथ उनकी कोई जगह अडानी के चैनल में बच नहीं गई थी। और सच तो यह है कि आज एनडीटीवी को लेकर लोगों के बीच जितनी हमदर्दी है, उसका बहुत सा हिस्सा अकेले रवीश कुमार की वजह से है जो कि साफ-साफ सच कहते थे, यह एक अलग बात है कि आज के हालात के मुताबिक वह सच मोदी सरकार और देश के मीडिया में उनके अंधसमर्थकों की आलोचना लगता था। अगर सच किसी को आलोचना लगता है, तो ईमानदार लोग सच लिखना या बोलना तो बंद नहीं कर देंगे। रवीश कुमार देश-विदेश में अपनी पत्रकारिता के लिए खूब सम्मान पाते रहे हैं, और जाहिर है कि उसी अनुपात में उन्हें हिन्दुस्तान में भक्तजनों की गालियां भी मिलती रही हैं। एनडीटीवी के मालिकान एक वक्त तो पत्रकार थे, लेकिन बाद में वे चैनल-मालिक कारोबारी रहे, इसलिए उनकी पत्रकारिता के बारे में आज अधिक चर्चा की जरूरत नहीं है। चर्चा रवीश कुमार की ही हो रही है, होनी भी चाहिए, जिनकी वजह से इस चैनल को भी एक ऐसी साख मिली जो कि रवीश कुमार के बिना नहीं मिल सकती थी। लेकिन चैनल की इस बात के लिए तो तारीफ की ही जानी चाहिए कि उसने रवीश कुमार को इस हद तक बढ़ाया, और इतने लंबे वक्त तक उन्हें जगह दी, या बर्दाश्त किया। यह भी कोई छोटी बात नहीं थी। आज सत्ता अपने खिलाफ असहमति को हटाने के लिए बहुत कुछ करती है, और रवीश कुमार बहुत लंबे समय तक खरी पत्रकारिता की एक मिसाल बने हुए सत्ता की आंखों की किरकिरी बने रहे, और एनडीटीवी मैनेजमेंट की इस बात के लिए तो तारीफ की ही जानी चाहिए।
हिन्दुस्तान में यह पहला मौका है जब एक मीडिया कारोबार को लेकर लोगों की इस तरह की हमदर्दी सामने आ रही है, और उससे भी बढक़र एक अकेले पत्रकार के साथ इतनी बड़ी संख्या में प्रशंसक खड़े हुए दिख रहे हैं। एक बहुत ही मजबूत सरकार से असहमत के साथ सहमत होकर सोशल मीडिया पर उजागर होना भी आज के वक्त में एक छोटे से हौसले की बात तो है ही। आज सहूलियत यही है कि अपनी बात लोगों तक पहुंचाने के लिए किसी को अखबार या टीवी चैनल की जरूरत नहीं रह गई है। लोग बिना किसी लागत के, बहुत मामूली खर्च से अपना यूट्यूब चैनल शुरू कर सकते हैं, और बात की बात में लाखों, दसियों लाख लोगों तक पहुंच सकते हैं। ऐसा काम बहुत से स्वतंत्र पत्रकार कर भी रहे हैं, और उनमें से जिनका काम अच्छा है वे यह भी साबित करने में कामयाब रहे हैं कि बड़े कारोबारी ढांचे के बिना भी आज अखबारनवीसी या पत्रकारिता मुमकिन है। और सच तो यह है कि बड़ा कारोबारी ढांचा अखबारनवीसी के खिलाफ भी जाता है। जब ढांचे की लागत बहुत बड़ी हो जाती है, उसे चलाने का खर्च बहुत बड़ा हो जाता है तो ऐसे मीडिया संस्थान को सौ किस्म के समझौते भी करने पड़ते हैं, और दूसरे ऐसे कारोबार भी करने पड़ते हैं जिनका मिजाज मीडिया के ईमानदारी के मिजाज से मेल नहीं खाता। ऐसी मिसालें नाम लेकर गिनाने की जरूरत नहीं हैं, वे चारों तरफ बिखरी हुई है। कहीं सत्ता की ताकत से मीडिया चलता है, कहीं कारोबार की ताकत से, और कहीं कुछ रहस्यमयी छुपी हुई ताकतों से। हिन्दुस्तान में जहां पर कि कालेधन की अपार संभावना रहती है, किसी भी कारोबार से दो नंबर के पैसे निकाले जा सकते हैं, और उनसे कोई दूसरा कारोबार चलाया जा सकता है, वहां पर अपने बड़े राजनीतिक या कारोबारी हितों के लिए एक पालतू मीडिया खड़ा कर लेना मुश्किल नहीं है। कोई एक वक्त रहा होगा जब लोगों को लगता था कि मीडिया कारोबारी के कोई और कारोबार नहीं होने चाहिए, लेकिन वह बात बहुत पहले ही खत्म हो गई, और एक वक्त के देश के एक सबसे बड़े कारोबारी, बिड़ला, न सिर्फ मीडिया में आए, बल्कि राज्यसभा तक पहुंचे। मीडिया, कारोबार, राजनीति, और सत्ता इन सबका एक बड़ा घालमेल हिन्दुस्तान में चलते ही रहता है, और इस कारोबार में ईमानदारी बनाए रखने के लिए कोई लोकतांत्रिक सोच इस देश की संवैधानिक संस्थाओं में नहीं रही।
खैर, रवीश कुमार आज अगर अपने यूट्यूब चैनल पर पूरा वक्त लगाते हैं, तो शायद वे एनडीटीवी के वक्त की अपनी दर्शक संख्या को भी पार कर जाएंगे। हिन्दुस्तान में अच्छी पत्रकारिता के लिए यही उम्मीद की एक बात है कि सोशल मीडिया, इंटरनेट, और तरह-तरह के मुफ्त के अंतरराष्ट्रीय प्लेटफॉर्म पर खरी और ईमानदार बात कहने की गुंजाइश आज भी मुफ्त में हासिल है। रवीश कुमार के पहले भी कुछ दूसरे पत्रकारों ने किसान आंदोलन के दौरान अपनी पहचान इसी तरह अखबार और टीवी से परे बनाई, और हो सकता है कि रवीश कुमार से बहुत से और लोगों को भी एक नई राह मिले जो कि सत्ता पर काबिज नेताओं और मीडिया-कारोबार के मालिकान के काबू से बाहर रहे। बिना लागत की मीडिया-पहल के ईमानदार और दबावमुक्त बने रहने की संभावना किसी भी परंपरागत कारोबार के मुकाबले अधिक रहेगी। अब आने वाले दौर से यह उम्मीद की जानी चाहिए कि उससे मीडिया और पत्रकारिता के कोर्स बदल जाएंगे, और एक व्यक्ति के अपने यूट्यूब चैनलों के कारोबार भी बिजनेस मैनेजमेंट की पढ़ाई में जगह पाएंगे।
रवीश कुमार का भविष्य तो सुनहरा है, क्योंकि उनका दांव पर कुछ भी नहीं लगा है, और बिना कारोबारी ढांचे के भी उनकी कामयाबी की गारंटी रहेगी। लेकिन यह देखना भी कम दिलचस्प नहीं रहेगा कि दूरदर्शन के लिए एक साप्ताहिक कार्यक्रम पेश करने वाले प्रणब रॉय एनडीटीवी को खोने के बाद अब आगे क्या करते हैं? क्योंकि टीवी चैनल जितनी लागत के बिना भी वे अंग्रेजी का अपना कोई यूट्यूब चैनल शुरू कर सकते हैं, और आधी सदी पहले पैदा हुई पीढ़ी को याद भी होगा कि प्रणब रॉय के साप्ताहिक समाचार बुलेटिनों का किस तरह इंतजार रहता था। भारत की पत्रकारिता और मीडिया कारोबार के लिए आने वाले दिन दिलचस्प हो सकते हैं।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
महाराष्ट्र के जालना की एक बड़ी अजीब सी खबर है। वहां एक महिला ने सुबह स्कूल जाने के लिए अपनी चौदह बरस की बेटी को जगाया जो कि स्कूल में एक मोबाइल फोन चोरी करते पकड़ाई थी, और उसने स्कूल जाना बंद कर दिया था। मां के जगाने पर वह गुस्से में बाथरूम में घुसी जहां उसकी सात बरस की चचेरी बहन नहा रही थी। उसने गुस्से में छोटी बहन का गला ब्लेड से काट दिया, और उस बच्ची की मौत हो गई। मां ने अपनी बेटी को रोकने की कोशिश की, लेकिन उसने दरवाजा भीतर से बंद कर रखा था, और उसका हमला कामयाब रहा। बाद में इस महिला ने ही पुलिस को जानकारी दी। अब हिंसा की यह घटना जिन लोगों को न हिला पाए, उनके लिए छत्तीसगढ़ के बेमेतरा की एक और खबर है। पुलिस को दस बरस की एक बच्ची की फांसी लगाकर आत्महत्या की सूचना मिली। जब इसका पोस्टमार्टम कराया गया तो पता लगा कि उसके साथ बलात्कार हुआ था। जब आसपास जांच की गई तो पड़ोस के एक नाबालिग लडक़े पर शक हुआ, और पूछताछ में उसने मंजूर किया कि वह मोबाइल पर अश्लील वीडियो देखते रहता था, और उसने पड़ोस में इस छोटी लडक़ी को पकडक़र रेप किया, उसके विरोध और बात खुल जाने के डर से उसके नाक-मुंह दबा दिए। इसके बाद उसने चुनरी से फांसी का फंदा बनाकर उसे टांग दिया, और छत के रास्ते अपने घर चले गया। अब उस लडक़े को बाल संप्रेक्षण गृह भेजा गया है।
ये दो खबरें बहुत विचलित करती हैं। मां-बाप अपने बच्चों को स्कूल जाने को न कहें, तो क्या कहें? अगर वे पढ़ेंगे-लिखेंगे नहीं, तो आगे चलकर परिवार और दुनिया पर एक खतरनाक बोझ बनेंगे। और अगर बच्चों का गुस्सा इस कदर बेकाबू है कि मां के जगाने पर वह छोटी बहन का गला काट डाले, तो एक गरीब परिवार अपने बच्चों की और कितनी परवाह कर सकता है, उन्हें हिफाजत से रखने के लिए और क्या कर सकता है। ठीक वही हाल छत्तीसगढ़ की इस बच्ची का है जो कि जाहिर तौर पर गरीब दिखती है, और पड़ोस के पोर्न-प्रभावित लडक़े के लिए एक आसान शिकार साबित हुई। घर-परिवार के भीतर की ऐसी हिंसा को रोकने का कोई तरीका दुनिया की किसी पुलिस के पास नहीं हो सकता है। यह तो परिवार और समाज के ही कुछ करने की बात है। बच्चों की सोच किस तरफ जा रही है, वे मोबाइल या कम्प्यूटर पर क्या देख रहे हैं, उन पर कैसा असर हो रहा है, और वे किसी गलत काम को करने का कितना मौका पा रहे हैं, यह देखना पुलिस के बस का बिल्कुल नहीं हो सकता। जब ऐसे जुर्म की खबर लगती है तब ही पुलिस का दाखिला होता है, जो अदालत के फैसले के बाद खत्म हो जाता है। लेकिन सरकार और समाज मिलकर स्कूलों के माध्यम से या मुहल्लों के रास्ते बच्चों को हिंसा से दूर रखने की कुछ तरकीबें जरूर निकाल सकते हैं।
मोबाइल फोन को लेकर बच्चों की दीवानगी पिछले बरसों में लॉकडाउन और वर्क फ्रॉम होम के दौरान एकदम से बढ़ गई है। लोग घरों में बैठे फोन और कम्प्यूटर पर काम करते थे, या बिना काम के भी इन्हीं उपकरणों पर समय गुजारते थे, और इन्हें देख-देखकर बच्चों ने भी टीवी, कम्प्यूटर, और मोबाइल की लत लगा ली। कोई एक-दूसरे को मना भी नहीं कर पाए। स्कूल-कॉलेज के बच्चों को पढ़ाई के लिए भी मोबाइल और कम्प्यूटर जरूरी हो गया। इंटरनेट के साथ जब ये उपकरण बच्चों को मिल गए, तो वे क्या देखते हैं, और उससे क्या सीखते हैं, यह उन्हीं के बस की बात रह गई। कामकाजी मां-बाप बच्चों पर पूरे वक्त निगरानी तो रख नहीं सकते थे, नतीजा यह हुआ कि बच्चे कहीं-कहीं से पोर्न तक पहुंचने लगे, और फिर वहीं फंसने लगे। लोगों को याद होगा कि पिछले बरस भी छत्तीसगढ़ में इसी किस्म का एक भयानक मामला हुआ था जिसमें परिवार के ही कई नाबालिग भाईयों ने मोबाइल फोन पर पोर्न देख-देखकर घर में ही छोटी बहन के साथ बलात्कार किया था। बाद में जब मामला उजागर हुआ तो परिवार और पुलिस को यह भी ठीक से समझ नहीं आया कि घर के भीतर के इस मामले में घर के तमाम लडक़ों को पुलिस के रास्ते सुधारगृह भेजा जाए, या क्या किया जाए।
अब जब डिजिटल जिंदगी एक हकीकत बन चुकी है, घरों में छोटे-छोटे बच्चे बिना वीडियो देखे खाने-पीने से भी मना कर देते हैं, रोजाना कई-कई घंटे टीवी या कम्प्यूटर-फोन के सामने बैठे रहते हैं, तब इस नौबत का कोई इलाज ढूंढना जरूरी है। इससे उनके दिल-दिमाग और आंखों पर तो असर पड़ ही रहा है उनका विकास भी प्रभावित हो रहा है। बच्चों के वीडियो-खेल भी गोलीबारी और हिंसा से भरे हुए हैं, और जब वे इंटरनेट और यूट्यूब पर कुछ भी ढूंढते हैं, तो जाहिर है कि किसी न किसी वक्त तो पोर्न तक पहुंच ही जाएंगे। टीवी के बुलेटिनों में रात-दिन तरह-तरह के सेक्स और जुर्म की खबरें घरों में चलती ही रहती हैं, और मां-बाप को यह परवाह भी कम जगहों पर ही रहती है कि इन्हीं के सामने उनके बच्चे भी बैठे हैं। ऐसे में हिंसा, सेक्स, अराजकता, और जुर्म इन सबका मिलाजुला असर बच्चों पर कई तरह से पड़ रहा है, और आसपास के दूसरे बच्चे उनके नाबालिग-जुर्म का शिकार हो रहे हैं। अब घर के लोग भी अपने बच्चों को कितनी तरह से बचाकर रख सकते हैं? खुद के घर के बच्चों से, पड़ोस के बच्चों से, या घर-पड़ोस के परिचित बड़े लोगों से बच्चों को आखिर कितने दूर रखा जा सकता है? लेकिन इस सिलसिले को शुरू में ही रोक देना जरूरी है क्योंकि ऐसे सेक्स-हिंसा में फंसे हुए बच्चे अगर पकड़ में नहीं आएंगे, उनकी शिनाख्त नहीं हो पाएगी, तो वे ऐसे कई जुर्म और भी कर सकते हैं, और आमतौर पर उनके शिकार उनसे छोटे बच्चे ही रहेंगे।
नाबालिग बच्चों के मुजरिम बन जाने से उनकी बाकी की पूरी जिंदगी बहुत बुरी तरह प्रभावित होती है। हिन्दुस्तान में सुधारगृहों का जो हाल है, उनका तजुर्बा यह है कि वहां गए हुए बच्चे कई और किस्म के जुर्म सीखकर लौटते हैं। दूसरी तरफ इस देश में मनोचिकित्सक और मानसिक परामर्शदाता जरूरत से बहुत ही कम हैं, और जिन बच्चों को उनकी जरूरत है उनमें से बहुत ही गिने-चुने को वे नसीब होते हैं। सरकार और समाज की बाकी कोशिशों के साथ-साथ एक बात और यह की जानी चाहिए कि विश्वविद्यालयों में मनोवैज्ञानिक परामर्शदाताओं के कोर्स चलाए जाएं, और स्कूल-कॉलेज में, या समुदाय में उनकी सेवाएं उपलब्ध हों। आज बहुत महंगे निजी स्कूलों में तो परामर्शदाता कुछ घंटों के लिए रहते हैं, लेकिन शायद एक फीसदी बच्चों को भी वे नसीब नहीं होते। गरीब और सरकारी स्कूलों, और छोटी निजी स्कूलों तक परामर्शदाता तभी हो सकते हैं, जब ऐसे पाठ्यक्रम बड़े पैमाने पर प्रशिक्षित लोगों को तैयार कर सकें। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हिन्दुस्तान के भीतर, और बाहर बसे भारतवंशियों के बीच द कश्मीर फाईल्स नाम की फिल्म को लेकर जो बहस साल भर से चल रही थी, वह कल फिर जिंदा हो गई है जब भारत के अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में निर्णायक मंडल के अध्यक्ष इजराईली फिल्ममेकर नवाद लपिड ने इसे एक प्रोपेगेंडा और भद्दी फिल्म करार दिया। समापन समारोह के मंच से उन्होंने केन्द्रीय सूचना प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर और हिन्दुस्तान के दूसरे बड़े अफसरों की मौजूदगी में उन्होंने इस फिल्म के बारे में जितनी कड़ी बात कही, वह इस समारोह के इतिहास में अभूतपूर्व थी। उन्होंने कहा कि निर्णायक मंडल ने मुकाबले में शामिल की गईं जितनी फिल्में देखीं, उनमें से बाकी सभी फिल्में बहुत अच्छी क्वालिटी की थीं, और उन्होंने बहुत शानदार बहस छेड़ी। लेकिन कश्मीर फाईल्स को देखकर सारा निर्णायक मंडल विचलित और हैरान था, यह एक प्रोपेगेंडा और भद्दी फिल्म जैसी लगी जो कि इस तरह के प्रतिष्ठित फिल्म फेस्टिवल के कलात्मक मुकाबले के लायक नहीं थी। उन्होंने कहा कि वे आमतौर पर लिखित भाषण नहीं देते हैं, लेकिन इस बार वे लिखा हुआ भाषण पढ़ रहे हैं क्योंकि वे सटीकता के साथ अपनी बात कहना चाहते हैं। उन्होंने कहा कि वे इस फिल्म के बारे में खुलकर अपनी बात कह रहे हैं क्योंकि वे खुलकर कहना चाहते हैं।
द कश्मीर फाईल्स नाम की यह फिल्म विवेक अग्निहोत्री की बनाई हुई है, और इसमें कश्मीरी पंडितों की त्रासदी के कथानक को फिल्माया गया है। इस फिल्म के आते ही जानकार लोगों ने खुलकर इसके खिलाफ लिखा कि यह कश्मीर के लोगों को और बुरी तरह बांटने की नीयत से बनाई गई है, और कश्मीर की आम जनता पर भी एक हमला है। इस फिल्म को हिन्दुस्तान के भाजपा-समर्थकों, और दूसरे मुस्लिमविरोधी संगठनों ने हाथोंहाथ लिया था, और भाजपा राज्यों ने इसे जगह-जगह टैक्सफ्री किया था। यह फिल्म केन्द्र सरकार के राजनीतिक एजेंडा को बढ़ाने वाली मानी गई थी, और खासकर कश्मीर में मोदी सरकार के मातहत चल रहे राज्यपाल के शासन को ताकत देने की नीयत से बनाई गई भी कही गई थी। हाल के बरसों में कई ऐतिहासिक कहानियों पर हिन्दुस्तान में ऐसी फिल्में बनीं जिनसे लोगों के राजनीतिक रूझान को एक खास चुनावी मोड़ दिया जा सके। इसके अलावा पिछले दशकों के कुछ हादसों और वारदातों को लेकर भी ऐसी फिल्में बनीं जिन्होंने पूरे मुस्लिम समाज को मुजरिम या खलनायक की तरह पेश किया, और हिन्दुस्तान में धार्मिक ध्रवीकरण का एक एजेंडा सेट किया। अभी हिन्दुस्तान में इस किस्म की फिल्मों और टीवी सीरियलों पर काम चल रहा है जिससे कि दक्षिणपंथी सोच को मजबूत किया जा सके। कश्मीर फाईल्स ऐसी ही एक फिल्म मानी गई थी, और वह धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील ताकतों से लगातार आलोचना पा रही थी। दूसरी तरफ नफरतजीवी संगठनों को इस फिल्म से एकजुट होने का एक नया मौका मिला था, और इसे कश्मीर के इतिहास का एक सच्चा पन्ना बताकर स्थापित किया जा रहा था।
जिस तरह हिन्दुस्तान में आज बहुत से दूसरे मुद्दे दो अलग-अलग किस्म की सोच का समर्थन और विरोध पा रहे हैं, द कश्मीर फाईल्स वैसा ही एक मुद्दा बनकर लोगों के सामने रही है, और कुछ महीनों की ऐसी जिंदगी के बाद इस फिल्म पर चर्चा खत्म हो चुकी थी, और हिन्दुस्तान के मुस्लिमविरोधी लोगों ने भक्तिभाव से इस फिल्म को बढ़ावा दिया था। अभी फिल्म फेस्टिवल में निर्णायक मंडल की ओर से अध्यक्ष की कही इस बात के पहले यह फिल्म खबरों से हट चुकी थी, लेकिन अब फिर यह चर्चा में है। भारत में इजराईल के राजदूत ने इस इजराईली फिल्मकार के बयान को पूरी तरह से खारिज करते हुए इस पर भारत के लोगों से माफी मांगी है। लेकिन सवाल यह है कि एक फिल्म समारोह के पूरी तरह से मनोनीत निर्णायक मंडल ने अगर एकमत होकर कोई राय सामने रखी है, तो उस पर इजराईल के राजदूत को माफी मांगने का क्या हक है? उस पर तमाम लोग अपनी प्रतिक्रियाएं दे सकते हैं, लेकिन निर्णायक मंडल अध्यक्ष का इजराईली हो जाने से इजराईल के राजदूत का माफीनामा जायज नहीं हो जाता। इजराईल की अपनी मजबूरियां हैं कि वह भारत को नाराज करना नहीं चाहता है क्योंकि भारत इजराईल के कुल निर्यात का आधा हिस्सा खरीदता है। दुनिया की सबसे तेज कारोबारी कही जाने वाली यहूदी नस्ल के लोगों की सरकार अगर अपने सबसे बड़े ग्राहक का भी सम्मान नहीं करेगी, तो कारोबार में मार खाएगी। इसलिए इजराईल के राजदूत ने आनन-फानन जो अफसोस जाहिर किया है, और अपने देश के फिल्मकार को धिक्कारा है, वह एक कारोबारी की मजबूरी है। सवाल यह है कि कई देशों के फिल्मकारों से मिलकर बना हुआ एक निर्णायक मंडल किसी एक देश की सरकार, या उसकी सोच के प्रति जवाबदेह नहीं रहता है, वह अपने समारोह में दाखिल फिल्मों के लिए जवाबदेह रहता है।
इससे एक बात और साबित होती है कि किसी भी देश की सरकार, या वहां के धार्मिक संगठन कोई फिल्म तो बनवा सकते हैं, या किसी और की बनाई हुई फिल्म को बढ़ावा दे सकते हैं, लेकिन वे उस फिल्म को उत्कृष्टता के पैमाने पर खरी साबित नहीं करवा सकते। कश्मीरी पंडितों की त्रासदी इतिहास में अच्छी तरह दर्ज है, लेकिन उसे भडक़ाऊ अंदाज में, उसका राजनीतिक शोषण करने के लिए बनाई गई फिल्म को अगर उत्कृष्टता के पैमाने पर कमजोर पाया जा रहा है, तो अच्छे फिल्मकार तो उत्कृष्टता की ऐसी कमी पर अपनी बात रखेंगे ही। और भारत का अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह दुनिया के सबसे बड़े फिल्म समारोहों में से एक है, और भारत में हर बरस दुनिया की सबसे अधिक फिल्में भी बनती हैं। इसलिए अगर इसके निर्णायक मंडल ने कुछ महसूस किया है, तो उनकी सोच पर गौर करना चाहिए, बजाय इसके कि उसके खारिज किया जाए। इजराईली राजदूत ने इस इजराईली फिल्मकार के बयान को खारिज करने के लिए जिस तरह आनन-फानन एक बयान दिया है, वह दो देशों के संबंधों को आंच से बचाने की कोशिश है। लेकिन फिल्मों की उत्कृष्टता के पैमाने कूटनीति से तय नहीं होते हैं। यह अच्छा हुआ कि भारत सरकार के तय किए हुए निर्णायक मंडल से ही निकलकर ऐसी सर्वसम्मत बात इस फिल्म के बारे में आई है। बाकी तो फिर हिन्दुस्तान और दूसरी जगहों के धर्मान्ध और साम्प्रदायिक लोगों का यह अधिकार है कि ऐसी आलोचना को खारिज करके अपना एजेंडा जारी रखें।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
उत्तरप्रदेश के मेरठ का एक मामला सामने आया है जिसमें स्कूल की एक टीचर के साथ क्लास के तीन लडक़ों की छेडख़ानी, और छींटाकशी का उन्होंने खुद ही वीडियो बनाया, अश्लील टिप्पणी करते हुए अपनी खुद की आवाज रिकॉर्ड की, अश्लील हावभाव दिखाते हुए अपने चेहरे रिकॉर्ड किए, और वीडियो को चारों तरफ फैला भी दिया। ये लडक़े, और उनके साथ एक लडक़े की बहन, ये सब तकनीकी रूप से ही नाबालिग हैं, लेकिन बालिग होने के करीब हैं, और उनकी हरकत जैसा कि साफ दिख रहा है, बालिगों से बढक़र है। इस टीचर ने पहले प्रिंसिपल से इस बात की शिकायत की, और क्लास बदलने को कहा, लेकिन न तो प्रिंसिपल ने यह बात सुनी, और न ही क्लास के भीतर और क्लास के बाहर भद्दे कमेंट करते हुए वीडियो बनाने वाले इस तथाकथित नाबालिग गिरोह ने अपनी हरकतें बंद कीं। नतीजा यह हुआ कि इस शिक्षिका को थक-हारकर पुलिस में जाना पड़ा, और पुलिस अब इन चारों को उठाकर अदालत में पेश किया है। नाबालिग होने से इनकी गिरफ्तारी नहीं हुई है लेकिन इन्हें किसी सुधारगृह में रखा गया होगा। यह वीडियो चारों तरफ फैला हुआ है, और इसकी वजह से यह शिक्षिका डिप्रेशन में बताई जा रही है, और घरवालों का कहना है कि वह आत्महत्या की सोच रही है।
यह वीडियो कई बातें दिखाता है, और चौंकाता भी है। इसमें लडक़े बड़े फख्र से अपना चेहरा दिखाते हुए, अश्लील हावभाव दिखाते हुए शिक्षिका को दिखाते हैं, और तरह-तरह के भद्दे फिकरे कसते हैं। उन्हीं का बनाया हुआ वीडियो बताता है कि जब यह शिक्षिका स्कूल के अहाते में जा रही है, तो राह पर बैठे हुए ये लडक़े अश्लील बातें कहते हुए फिर अपना वीडियो बनाते हैं, और वह शिक्षिका क्लास के भीतर भी किताब से अपना चेहरा ढक लेने को मजबूर हो जाती है, और बाहर भी इन्हें पार करके किसी तरह चली जाती है। शिक्षिका हिजाब बांधे हुए है, साड़ी पर कोट पहने हुए है, वह किसी भी तरह से भडक़ाती हुई नहीं दिखती है। और जब यह सब फिल्माया जा रहा है तो लडक़ों की अश्लील बातें सुनकर क्लास में बड़ी संख्या में मौजूद लड़कियां हॅंसती हुई भी दिखती हैं। जिन लडक़ों के सामने शिक्षिका का कोई बस नहीं चल रहा, जिनका दुस्साहस इतना है कि वे खुद की ही गुंडागर्दी का, छेडख़ानी का ऐसा वीडियो फैला रहे हैं, उनसे लड़कियां भी क्लास में क्या भिड़ जातीं। लेकिन वे ऐसी हरकतों पर हॅंसती हुई दिखती हैं जो कि 12वीं में पहुंचने के बाद उनकी जागरूकता कितनी है, इसका एक सुबूत है। इनमें से कई छात्र-छात्राएं वोट डालने के लायक भी हो चुके होंगे या कुछ महीनों में हो जाएंगे, और जागरूकता के ऐसे स्तर के साथ वे किस तरह की सरकार चुनेंगे, यह भी हैरानी होती है।
किसी शिक्षिका की शिकायत पर भी स्कूल प्रशासन अगर कार्रवाई न करे, तो यह भी सदमा पहुंचाने वाली बात है, क्योंकि किसी महिला के लिए आज हिन्दुस्तान में पुलिस में जाकर रिपोर्ट करना भारी शर्मिंदगी की वजह रहती है, और थाने से लेकर अदालत तक उसे ही बुरी निगाह से देखा जाता है। यह घटना यह भी बताती है कि एक आम हिन्दुस्तानी स्कूल में पढ़ाई का माहौल कैसा है। स्कूल से सर्टिफिकेट लेकर, और कॉलेज से डिग्री लेकर निकलने वाले लोग किस स्तर के रहते हैं। यह मामला उत्तरप्रदेश का है जहां के औसत लोग औसत दर्जे से नीचे के पढऩे वाले माने जाते हैं। यही हाल दक्षिण भारत का, या महाराष्ट्र का होता, तो शायद हालात इतने खराब नहीं दिखते। उत्तरप्रदेश में सभी तरह के मामलों में अराजकता का जो आम हाल है, वह वहां की ऐसी स्कूलों पर भी झलक रहा है।
लेकिन इस मामले में एक और पहलू पर गौर करने और चर्चा करने की जरूरत है। हिजाब लगाई हुई और पूरे कपड़े पहनी हुई इस शिक्षिका के साथ इस छेडख़ानी के दुस्साहस वाले तीनों लडक़ों के जो नाम कुछ खबरों में सामने आ गए हैं, वे सारे ही मुस्लिम नाम हैं। अब मुस्लिम समाज के भीतर हिजाब के हिमायती लोग बिना हिजाब अपनी बच्चियों को पढऩे भेजने के भी खिलाफ रहते हैं। उनके मुताबिक लड़कियों को सारे बाल बांधकर और ढांककर रखने चाहिए। मर्दों के बनाए हुए जिन नियमों को यह समाज अपनी लड़कियों और महिलाओं पर ज्यादती के साथ थोपता है, वह समाज अपने लडक़ों को किस तरह तैयार करता है, यह भी मेरठ के इस मामले में साफ दिखता है। स्कूल राममनोहर लोहिया के नाम पर है, वहां पर बिना हिजाब छात्राएं भी दिख रही हैं। लेकिन हिजाब से ढंकी हुई एक शिक्षिका से खुली छेडख़ानी करने और उस पर गर्व करने वाले तमाम लडक़े मुस्लिम हैं। अब मुस्लिम समाज को यह सोचना चाहिए कि उन्होंने एक शिक्षिका पर तो हिजाब लादा हुआ है, कहने के लिए हो सकता है कि उस शिक्षिका ने अपनी पसंद से यह हिजाब बांधा हुआ हो, लेकिन इसी मुस्लिम समाज के लडक़े अपनी शिक्षिका के साथ अश्लील हरकतें कर रहे हैं, उन्हें दुस्साहस से रिकॉर्ड कर रहे हैं, और अब पुलिस कार्रवाई के बाद उनके परिवार शिक्षिका को ही धमका रहे हैं। यह धर्म के नाम पर हिजाब जैसे प्रतिबंध लागू करने वाले मुस्लिम समाज के सोचने की बात है कि उसे अपने लडक़ों की जुबान को बांधना था, उनकी उंगलियों को बांधना था, लेकिन वह तो किया नहीं गया, उन गुंडे लडक़ों को बचाया जा रहा है, और इस शिक्षिका का साथ नहीं दिया जा रहा है जिसने मुस्लिम समाज की हिजाब की परंपरा को ढोया है।
हम उत्तरप्रदेश में इस अराजकता के साथ-साथ मुस्लिम समाज के इस रिवाज के बारे में भी बात करना चाहते हैं कि जब तक समाज के लडक़े और मर्द इस तरह बिगड़े रहेंगे, तब तक महिलाओं पर नाजायज रोकटोक से भी कोई फायदा नहीं होगा। महिलाओं को आत्मविश्वास के साथ, और बराबरी से हक से जीने का मौका मिलना चाहिए, जो कि मुस्लिम, और बाकी समाज भी नहीं दे पा रहे हैं। इस एक मामले को समाज के सामने नमूने की तरह पेश करना चाहिए, इन लडक़ों को उम्र की रियायत की वजह से जो भी मामूली सजा मिलेगी, वह नाकाफी रहेगी, अदालत को इनके परिवारों पर भी कोई जुर्माना थोपना चाहिए। दूसरी तरफ स्कूल मैनेजमेंट के ऐसे बर्ताव को देखते हुए प्रिंसिपल और दूसरे जिम्मेदार लोगों के खिलाफ भी कानूनी कार्रवाई करनी चाहिए। एक ढकी हुई शिक्षिका अगर आज मवाली छात्रों की वजह से, और मैनेजमेंट की उदासीनता से आत्महत्या की कगार पर है, तो यह मामला एक सैंपल केस की तरह सामने रखने की जरूरत है कि कानून क्या कर सकता है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)