संपादकीय
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के अपने प्रदेश गुजरात में एक सैलानी-पुल के गिरने से 141 मौतें हो चुकी हैं, और नदी के पानी में बाकी लोगों की तलाश की जा रही है। कल ही मोदी गुजरात के कुछ और कार्यक्रमों में शामिल हुए थे, और वहां से उन्होंने इस हादसे पर अफसोस भी जाहिर किया था। लेकिन उस कार्यक्रम में भी मोदी जिस तरह से हैट लगाकर तस्वीरें खिंचवा रहे थे उस पर लोग नाराज और निराश दोनों थे। अब हादसे वाले मोरबी शहर के अस्पताल की तस्वीरें आई हैं जहां भर्ती लोगों को देखने के लिए मोदी आज पहुंच रहे हैं, और इसके पहले अस्पताल को दर्शनीय बनाने के लिए गुजरात सरकार रात भर रंग-पेंट करने, नए टाईल्स लगाने में लगी हुई है। सरकार की क्षमता अपार होती है, इमारत को बाहर-भीतर रंगा जा रहा है, और छत के नीचे भी उखड़े पेंट को हटाकर दुबारा पुट्टी-पेंट होते तस्वीरों में दिख रहा है। कांग्रेस ने ऐसी तस्वीरें ट्वीट करते हुए इसे त्रासदी का इवेंट लिखा है, और कहा है कि पीएम मोदी की तस्वीर में कोई कमी न रहे, इसका सारा प्रबंध हो रहा है। उसने लिखा- इन्हें शर्म नहीं आती, इतने लोग मर गए, और ये इवेंटबाजी में लगे हैं। लेकिन कांग्रेस से बढक़र दिल्ली के आम आदमी पार्टी के एक विधायक ने लिखा है- किसी के घर मौत हो जाए तो क्या रंगाई-पुताई करवाई जाती है? अस्पताल के अंदर 134 लाशें पड़ी हैं, और अस्पताल की रंगाई-पुताई चल रही है। एक और ने यह लिखा है कि भाजपा ने अगर 27 बरस में काम किया होता तो आधी रात को अस्पताल चमकाने की जरूरत नहीं पड़ती।
अब यह नरेन्द्र मोदी और अमित शाह का अपना गुजरात है, यहां पर इन दोनों का लंबा राज रहा है, और इनके दिल्ली आने के बाद भी वहां लगातार इनकी पार्टी का ही राज चला है। यह एक बहुत संपन्न प्रदेश है, कारोबार और कारखानों के मामलों में गुजरात देश के अव्वल राज्यों में है, जाहिर है कि सरकार और म्युनिसिपलों की टैक्स से कमाई भी खासी होती होगी, और ऐसे में अस्पतालों पर खर्च का भी बजट रहता ही होगा। लेकिन ऐसे मौके पर जब प्रधानमंत्री वहां रखी सवा सौ से अधिक लाशों के बीच इलाज पा रहे जख्मी लोगों को देखने जा रहे हैं, तो उस वक्त अस्पताल की साज-सज्जा, उसका रंग-रोगन, रात भर जागकर टाईल्स बदलना, यह सब कुछ संवेदना से परे का काम लगता है। ऐसे हादसे के वक्त जब अस्पताल की सारी प्राथमिकता लाशों को पोस्टमार्टम के बाद परिवारों को देना और घायलों का इलाज करना होना चाहिए, उस वक्त अस्पताल प्रधानमंत्री के स्वागत के लिए सजाया जा रहा है। शायद इसीलिए दुनिया के सभी सभ्य लोकतंत्रों में हादसे के तुरंत बाद प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति जैसे लोग कुछ दिन वहां जाने से बचते हैं ताकि बचाव दल, अस्पताल, और स्थानीय अधिकारियों का ध्यान न बंटे। अमरीका में एक बड़े तूफान से हुई तबाही को देखने एक राष्ट्रपति जब कुछ दिन नहीं गए, और लोगों ने उनकी आलोचना शुरू की, तो उन्होंने साफ किया कि वे वहां पहुंचकर बचाव में लगे लोगों का ध्यान बंटाना नहीं चाहते। यह बात बिल्कुल सही है, और हम हमेशा से यह लिखते आए हैं कि अस्पतालों में नेताओं का जाकर मरीजों और घायलों से मिलना पूरी तरह बंद होना चाहिए क्योंकि इससे मरीजों पर तरह-तरह के संक्रमण होने का खतरा बढ़ जाता है। अस्पताल में भर्ती किसी भी जख्मी या मरीज को किसी नेता से कुछ हासिल नहीं हो सकता, सिवाय किसी संक्रमण के। इसलिए बेहतर तो यह होता कि प्रधानमंत्री बिना अस्पताल गए दूर से ही हमदर्दी जाहिर कर देते, बजाय रात भर अस्पतालों की साज-सज्जा के। जिनके परिवारों की लाशें भीतर पड़ी हैं, जख्मी दम तोड़ रहे हैं, उन्हें इस साज-सज्जा से क्या लग रहा होगा यह सोचना बहुत मुश्किल भी नहीं है।
हिन्दुस्तान का लोकतंत्र बस कहने के लिए लोकतंत्र है, इसमें सामंती मिजाज अब तक सदियों पहले का ही चले आ रहा है। किसी राजधानी में विधानसभा का सत्र शुरू होने के पहले विधानसभा की तरफ जाने वाली सडक़ों को फिर से बनाया जाता है, मानो नई चिकनी सडक़ पर जाकर विधायक वहां असुविधा के सवाल नहीं पूछेंगे। किसी भी शहर में प्रधानमंत्री के पहुंचने पर फुटपाथों तक को दुबारा पेंट किया जाता है। पश्चिम बंगाल में वामपंथी सरकार के रहते हुए एक ब्रिटिश प्रधानमंत्री जॉन मेजर कोलकाता पहुंचे थे, और प्रदेश की राजधानी को खूबसूरत दिखाने के लिए तमाम सडक़ों के गड्ढे भरे गए थे, फुटपाथों को अवैध कब्जों से खाली कराया गया था, सडक़ किनारे रंग-रोगन किया गया था, लेकिन इससे भी बढक़र, कोलकाता के सारे बेघर लोगों और भिखारियों को शहर के बाहर ले जाकर फेंक दिया गया था। लोगों को याद होगा कि अभी कुछ बरस पहले ही जब अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप हिन्दुस्तान आए थे तो मोदी उन्हें अपने प्रदेश की राजधानी अहमदाबाद ले गए थे। वहां सडक़ किनारे की झोपड़पट्टियों को रातों-रात उजाडऩा मुमकिन नहीं था, इसलिए सडक़ किनारे पक्की और ऊंची दीवार बनाई गई थी ताकि झोपडिय़ां ट्रंप के काफिले से न दिखें। लेकिन विदेशी मेहमानों के लिए किसी समारोह के मौके पर स्वागत करने के लिए कुछ साज-सज्जा तो समझ आती है, लेकिन जिस गुजरात में नरेन्द्र मोदी पिछले बीस बरस से मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री की तरह राज कर रहे हैं, वहां पर लाशों के बीच रंगाई-पुताई न सिर्फ गैरजरूरी है, बल्कि नाजायज भी है। यह सिलसिला गुजरात में भी बुरा है, और देश में किसी भी दूसरे प्रदेश में भी बुरा है। ऐसी साज-सज्जा प्रधानमंत्री की तस्वीरों के लिए की जा रही है, या उनकी पार्टी की राज्य सरकार उनके सामने अपनी तस्वीर सुधारना चाह रही है, यह तो इन दोनों के बीच की बात है, लेकिन जो बात सबके सामने है, वह यह है कि यह पूरी हरकत बहुत ही संवेदनाशून्य है, और प्रचलित शब्दों में कहा जाए तो अमानवीय है, हालांकि ऐसी सोच और भावना मानव-स्वभाव का एक हिस्सा ही है, और हम अपनी जुबान में इंसानों की की गई किसी भी बात को अमानवीय नहीं मानते।
प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, मुख्यमंत्री, या किसी विदेशी मेहमान के लिए साज-सज्जा पर ऐसा अंधाधुंध खर्च जनता के पैसों का बेरहम इस्तेमाल है। यह सिलसिला पूरी तरह खत्म होना चाहिए, और जहां कहीं भी ऐसा हो, उसका जमकर विरोध होना चाहिए।
गुजरात के मोरबी में कल एक पुल टूटने से अब तक 141 मौतों की खबर है, और एक आशंका यह भी है कि पुल के नीचे नदी में सारा पानी नालों का है जो कि इतना गंदा है कि अंधेरे में बचावकर्मी लाशों को ढूंढ भी नहीं पाए। यह टंगा हुआ पुल डेढ़ सौ बरस से भी अधिक पुराना था, और कई बरस बंद रहने के बाद अभी उसे सुधारकर शुरू किया गया था। इसे एक पर्यटन केन्द्र का दर्जा मिला था, और छठ पूजा होने से वहां शायद अधिक लोग पहुंचे, और पुल पर उसकी क्षमता से शायद चार-पांच गुना लोग चढ़े हुए थे, ऐसा लगता है कि इसी अधिक वजन की वजह से यह पुल टूटा होगा। राज्य और केन्द्र सरकार अपनी पूरी ताकत से लोगों को बचाने में लगी हुई हैं, लेकिन मौतों का अब तक का आंकड़ा भी दिल दहलाने वाला है।
इस हादसे से कई किस्म के सबक लिए जाने चाहिए। हिन्दुस्तान में बहुत से तीर्थयात्राओं के मौकों पर, मंदिरों में और तीर्थ के रेलवे स्टेशनों पर भगदड़ में कई हादसों में बड़ी संख्या में लोगों की मौतें हुई हैं। गैरतीर्थ पर्यटन केन्द्रों पर भी भीड़ और भगदड़ मिलकर बड़ा हादसा खड़ा कर देते हैं, और 1980 में कुतुबमीनार के भीतर पर्यटकों में हुई भगदड़ में 45 लोग मारे गए थे जिनमें से अधिकतर बच्चे थे। हिन्दुस्तान की एक दिक्कत यह भी है कि यहां लोग कुछ चुनिंदा त्यौहारों और छुट्टियों पर तीर्थों और पर्यटन केन्द्रों पर टूट पड़ते हैं, और किसी जगह की क्षमता ऐसी भीड़ के लायक नहीं रहती है। अभी कुछ दिन पहले ही मध्यप्रदेश में एक मंदिर से लौटते हुए ट्रैक्टर ट्रॉली पर सवार तमाम रिश्तेदार शराबी ड्राइवर की मेहरबानी से एक तालाब में जा गिरे थे, और बड़ी संख्या में मौतें हुई थीं। धार्मिक और सामाजिक कार्यक्रमों में सडक़ के कोई नियम लागू नहीं होते, और श्रद्धा और आस्था से भरे हुए लोग पूरी तरह अराजक होकर चलते हैं। नतीजा यह होता है कि थोक में बहुत सी मौतें होती हैं। हाल के बरसों में धर्मान्ध भीड़ रास्ते के बाजारों पर हमले करते भी चलती दिखी है, और यह सिलसिला उन राजनीतिक दलों द्वारा बढ़ावा भी पा रहा है जो कि धार्मिक आधार पर वोटों के ध्रुवीकरण की नीयत रखते हैं।
अब गुजरात का यह हादसा एक अलग किस्म की तकनीकी और प्रशासनिक विफलता का है। पुल पुराना जरूर था, लेकिन वह अभी-अभी मरम्मत के बाद दुबारा शुरू किया गया था, इसलिए कोई वजह नहीं थी कि पुल टूट जाता। लेकिन जैसे कि हर मजबूत चीज की मजबूती की एक सीमा होती है, इस पुल की भी क्षमता अगर सौ लोगों की थी, और उस पर चार-पांच सौ लोग चढ़ गए थे, तो यह स्थानीय प्रशासन की नाकामी थी। कई जगहों पर विसर्जन या किसी दूसरे धार्मिक जुलूस को देखने के लिए किसी पुराने और कमजोर हो चुके मकान के छज्जे पर बहुत से लोग चढ़ जाते हैं, और छज्जा गिरने से एक साथ बहुत सी मौतें होती हैं। कल गुजरात के इस पुल पर जाने वाले लोगों को भी रोकने का पुख्ता इंतजाम होना चाहिए था। अगर ऐसा रोकना मुमकिन नहीं था, तो इस पुल को शुरू ही नहीं करना था। ऐसा हाल बहुत से मंदिरों में होता है, और कई जगहों पर गीली सीढिय़ों पर भीड़ फिसलती है, और लोग कुचलकर मारे जाते हैं। खबरों में आया है कि अजंता घडिय़ां बनाने वाली कंपनी को यह पुल चलाने का ठेका दे दिया गया था, और ऐसा लगता है कि इस कंपनी ने क्षमता से कई गुना अधिक टिकटें बेच दी थीं। इस पर निगरानी की जिम्मेदारी फिर भी अफसरों की होनी चाहिए थी जिन्होंने आपराधिक लापरवाही दिखाई है।
हिन्दुस्तान के बारे में एक बात बहुत साफ समझ लेनी चाहिए कि धर्म से परे भी रोजाना की जिंदगी में हिन्दुस्तानियों को न तो नियम मानने की आदत है, और न ही कतार लगाने की। बिना कतार की भीड़ में किसी का भी काम होने में दुगुना समय लग सकता है, लेकिन लोग भीड़ की शक्ल में रहना पसंद करते हैं, कतार मानो लोगों के अहंकार को चोट पहुंचाती है। इस पुल पर भी जाने वाले लोगों की अगर कोई कतार रहती, अगर क्षमता के बाद लोगों को रोक दिया जाता, तो कोई वजह नहीं थी कि ऐसा हादसा होता। सौ लोगों की क्षमता के पुल ने दो सौ भी झेल लिए थे, तीन सौ लोगों के चढऩे तक भी पुल नहीं टूटा था, शायद चार सौ भी बर्दाश्त हो गए थे, लेकिन उसके बाद फिर किसी समय पुल टूटा। हम रोजाना की जिंदगी में देखते हैं तो लोग छोटी सी मोपेड पर बोरे भर-भरकर सामान ले जाते हैं, तीन सवारियों के लिए बने ऑटोरिक्शा में लोग 15-20 मुसाफिर भरकर ले जाते हैं। जब देश का राष्ट्रीय चरित्र ही ऐसी अराजकता का हो गया है, तो यहां ऐसे हादसे होते ही रहेंगे, और यह अपने आपमें एक हैरानी की बात है कि ऐसे हादसे यहां रोज क्यों नहीं होते हैं?
हिन्दुस्तानियों के मिजाज में पहले तो कानून के खिलाफ, और फिर नियमों के खिलाफ जिस किस्म की हेठी भर दी गई है, उसी का नतीजा है कि सार्वजनिक जीवन खतरों से भर गया है। और सार्वजनिक नियमों के प्रति सम्मान लोगों में कतरे-कतरे में नहीं आ सकता, वह कुल मिलाकर ही आ सकता है। जो लोग मोटरसाइकिल पर तीन और चार लोग सवार होकर चलते हैं, उनसे दुनिया में कहीं भी कतार लगाने की उम्मीद नहीं की जा सकती, वे कहीं एटीएम के भीतर थूकेंगे, तो कहीं किसी लिफ्ट के भीतर, कहीं वे अंधाधुंध रफ्तार से मोटरसाइकिल चलाएंगे, तो कहीं चलाते हुए मोबाइल पर बात करते रहेंगे। नियमों के प्रति सम्मान, सार्वजनिक जीवन में दूसरों के प्रति सम्मान की सोच जब खत्म हो जाती है, तो लोग मनमाना हिंसक बर्ताव करने लगते हैं। अलग-अलग किस्म के हादसों में जिम्मेदारियां कुछ अलग-अलग हो सकती हैं, लेकिन जिस तरह इस पुल पर पहुंचने वाले पर्यटक गैरजिम्मेदार रहे, उसी तरह इस पुल को नियंत्रित करने वाली स्थानीय म्युनिसिपल भी गैरजिम्मेदार दिखती है जिसने कि सीमित क्षमता वाले पुल पर असीमित लोगों को जाने दिया। जब पूरे समाज में ही नियमों का सम्मान खत्म हो जाता है, तो म्युनिसिपल कर्मचारी भी उसी समाज का हिस्सा तो रहते हैं।
हिन्दुस्तान में लगातार बढ़ती हुई असभ्यता को देखें तो लगता है कि दुनिया के सभ्य देश आगे बढ़ रहे हैं, और हिन्दुस्तान अधिक असभ्य, अधिक अराजक होते चल रहा है। ऐसे समाज में किसी भी हादसे में, हिंसक हमले में, भीड़ के हाथों बेकसूर लोगों की मौत होती ही रहती है। जब तक हिन्दुस्तानियों का आम चरित्र अनुशासन का नहीं होगा, जब तक यहां पर लोग अपनी ड्यूटी की जिम्मेदारी पूरी करने के प्रति गंभीर नहीं रहेंगे, अलग-अलग हादसे होते रहेंगे। ऐसे तकरीबन हर हादसे को बारीकी से देखने पर यह समझ आता है कि ये सब रोके जा सकते थे, जिंदगियों को बचाया जा सकता था, लेकिन हमारे आम राष्ट्रीय चरित्र की वजह से यह संभावना खत्म हो गई है।
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कुछ समर्थक अपने ही नेताओं का जीना हराम किए रहते हैं। अधिक हफ्ते नहीं गुजरे हैं कि राहुल गांधी के मुंह से आटे का भाव गिनाते हुए लीटर शब्द निकल गया था। शायद ही कोई ऐसे नेता होंगे जिनसे किसी तरह की चूक नहीं होती होगी। फिर भी जिन्होंने अपनी जिंदगी का एक बड़ा हिस्सा राहुल गांधी को पप्पू साबित करने को समर्पित किया हुआ है, उन्होंने इस मौके को लपक लिया, और भाजपा के बड़े-बड़े नेता राहुल की इस जुबानी चूक पर टूट पड़े। नतीजा यह हुआ कि लोगों ने कुछ घंटों के भीतर ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से लेकर गृहमंत्री अमित शाह तक के ऐसे वीडियो ढूंढ निकाले जिनमें उन्होंने बोलते हुए इससे भी बड़ी-बड़ी दर्जनों गलतियां की थीं। उनकी वह चूक आई-गई हो चुकी थी, लेकिन उनके उत्साही और समर्पित भक्तों ने वैसे दर्जनों वीडियो चारों तरफ फैलाने का एक माहौल बना दिया, और मोदी विरोधी संख्या में चाहे कम हों, वे सोशल मीडिया पर कुछ चीजें तो फैला ही सकते हैं। ऐसे में जितना नुकसान राहुल गांधी का हुआ, उससे हजार गुना नुकसान मोदी-शाह का हो गया। लेकिन उससे कोई सबक लिए बिना अभी हिमाचल के चुनाव प्रचार में भाजपा के एक बड़े नेता ने एक बार फिर आमसभा के भाषण में इसे मुद्दा बनाया। और अब अगर इसके जवाब में भाजपा विरोधी एक बार फिर मोदी-शाह के वीडियो फैलाने लगेंगे, जो कि संख्या में दर्जनों गुना अधिक हैं, तो इससे बड़ा नुकसान भाजपा का ही होगा।
आज इस पर चर्चा की जरूरत इसलिए है कि कर्नाटक की एक भाजपा नेता प्रीति गांधी ने ट्विटर पर कल राहुल की पदयात्रा की एक फोटो पोस्ट की है जिसमें दक्षिण भारत की एक अभिनेत्री उनके साथ चल रही हैं, और राहुल उनका हाथ थामे हुए हैं। प्रीति गांधी ने इस तस्वीर के ऊपर हॅंसते हुए लिखा है- अपने ग्रेट ग्रैंड फॉदर के पदचिन्हों पर। यह बात नेहरू की तरफ एक इशारा है जिनके चाल-चलन की चर्चा करते हुए उनके विरोधियों को ऐसा लगता है कि नेहरू के सारे योगदान को उनके किसी प्रेमप्रसंग के चलते खारिज किया जा सकता है। जब ऐसी चर्चा भाजपा के लोग करते हैं तो उन्हें यह भी याद रखना चाहिए कि नेहरू से भी कहीं अधिक गंभीर किस्म का, सामाजिक रूप से कुछ अधिक आपत्तिजनक प्रेमप्रसंग अटल बिहारी वाजपेयी का था जो कि अपनी महिला मित्र के पूरे परिवार को अपने साथ अपने सरकारी बंगले पर रखते थे, और उसकी बेटी को भारत की कूटनीतिक व्यवस्था में प्रधानमंत्री की बेटी का दर्जा दिया गया था। उस बेटी का पति अटल सरकार के वक्त तरह-तरह के आरोपों से भी घिरा रहता था। लेकिन शायद ही किसी पार्टी के किसी नेता ने अटल बिहारी वाजपेयी की इस अनोखी पारिवारिक व्यवस्था के बारे में कोई लांछन लगाया हो। अब प्रीति गांधी नाम की यह भाजपा नेता नेहरू के चरित्र पर लांछन लगाने के अपने पसंदीदा काम को करते हुए खुली सडक़ पर सैकड़ों लोगों से घिरे हुए पैदल चलते राहुल गांधी के हाथ को थामे चलती एक अभिनेत्री के चरित्र पर भी लांछन उछाल रही है। जाहिर है कि कांग्रेस ने इस पर इतना तो कहना ही था कि एक महिला होकर वे दूसरी महिला को बदनाम कर रही हैं। इस अभिनेत्री पूनम कौर ने प्रीति गांधी की पोस्ट पर लिखा कि यह वे बिल्कुल अपमान कर रही हैं, याद रखें प्रधानमंत्री नारी शक्ति के बारे में बात करते हैं। मैं फिसल गई और लगभग गिरने ही वाली थी, और इस तरह सर (राहुल) ने मेरा हाथ पकड़ लिया, थैंक यू सर। महिला कांग्रेस की सोशल मीडिया प्रभारी नताशा शर्मा ने लिखा- तुम औरत होकर इतना कैसे गिर जाती हो, तुमसे ज्यादा नीच और गिरा हुआ तो मैंने आज तक नहीं देखा, कुछ तो शर्म करो, या फिर शर्म बेच खाई है? कांग्रेस की एक प्रवक्ता ने लिखा- हां, वे अपने परनाना के नक्शेकदम पर चल रहे हैं, और हमारे इस महान देश को एकजुट कर रहे हैं, आपके बचपन के दुख गहरे हैं, और आपके बीमार दिमाग का सुबूत हैं, आपको इलाज की जरूरत है।
लेकिन बात महज जुबानी जमाखर्च पर नहीं रूकी, और एक लडख़ड़ाती महिला का हाथ थामकर उसे सहारा देते राहुल के बारे में लिखी ओछी बात के जवाब में लोगों ने प्रीति गांधी की इसी पोस्ट पर जितने तरह की तस्वीरें लगाई हैं वे देखने लायक हैं। इनमें से एक प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की है जिनमें वे एक युवती के टी-शर्ट की बांह पर आटोग्राफ दे रहे हैं। इंटरनेट पर सर्च करने पर यह फोटो बॉक्सिंग में विश्व चैंपियन बनकर लौटी निकहत (या निखत) जरीन की है। इसके अलावा लोगों ने बहुत सी ऐसी तस्वीरें पोस्ट की हैं जिनमें मोदी अपने सामाजिक परिचय की महिलाओं से सार्वजनिक रूप से उनके हाथ थामे हुए बात कर रहे हैं, जिनमें आपत्तिजनक तो कुछ नहीं है लेकिन जो प्रीति गांधी की पोस्ट की गई गंदी नीयत का एक राजनीतिक जवाब जरूर बन सकती हैं, बनी हैं। लोग देख रहे हैं कि राहुल गांधी इन महीनों में लगातार पैदल चलते हुए छोटे-छोटे बच्चों से लेकर बुजुर्ग महिलाओं और आदमियों तक की मोहब्बत पा रहे हैं, लोग उनसे लिपट रहे हैं, उनके हाथ थामकर उनके साथ चल रहे हैं, और किसी को इसमें गंदगी की कोई बात नहीं लगी। अब भाजपा की एक नेता जिसकी अपनी बहुत सी तस्वीरें मोदी के साथ उसने खुद ही पोस्ट की हुई हैं, वह राहुल की एक सार्वजनिक तस्वीर को लेकर अगर उनके परनाना पर इस तरह का ओछा हमला कर रही है, तो यह समझ लेने की जरूरत है कि हिन्दुस्तान के अधिकांश जनता इस दर्जे के नफरत की तारीफ नहीं करती। जो लोग ऐसी घटिया नफरत फैलाना चाहते हैं, जो दूसरों के चरित्र पर ऐसा लांछन लगाना चाहते हैं, वे मुंह की खाते हैं, और उनकी गंदी हरकतों का भुगतान उनके नेता और उनकी पार्टी को करना होता है।
सोशल मीडिया का जमाना लांछन उछालो और भाग निकलो, जैसा नहीं है, अब यहां पर की गई हरकतों का भुगतान भी करना पड़ता है। यह एक अलग बात है कि भाड़े के भोंपुओं को अधिक संख्या में रखने वाले लोग अपने विरोधियों पर हमला अधिक तेजी से कर सकते हैं, लेकिन दूसरे लोग भी जवाबी हमला कुछ हद तक तो कर ही सकते हैं। पार्टियों और संगठनों को अपने लोगों को काबू में रखना चाहिए, वरना एक व्यक्ति की नीचता उसके संगठन को भारी पड़ सकती है।
मुस्लिमों की तरफ इशारा करते हुए एक समुदाय के पूरे आर्थिक और सामाजिक बहिष्कार करने का सार्वजनिक फतवा देने वाले भाजपा सांसद प्रवेश वर्मा अभी अपने उस बयान के विवाद से उबरे नहीं हैं कि अब उनका एक नया विवाद सामने आ गया है। छठ पूजा के लिए दिल्ली में यमुना के पानी की सफाई के लिए दिल्ली जलबोर्ड द्वारा उसमें डाले जा रहे केमिकल पर प्रवेश वर्मा ने जमकर आपत्ति की, और जलबोर्ड के अफसर से सार्वजनिक रूप से खूब बदसलूकी की। उनका जो वीडियो तैर रहा है, और अखबारों में जो समाचार आए हैं, उनके मुताबिक उन्होंने अफसर को कहा-‘नदी साफ करना तुझे आठ सालों में याद नहीं आया? तुम यहां लोगों को मार रहे हो, पिछले आठ सालों में यमुना साफ नहीं कर पाए। उन्होंने अफसर से कहा- यह केमिकल तेरे सिर पर डाल दूं, बकवास कर रहा है, बेशर्म और घटिया आदमी।’ दिलचस्प बात यह है कि नेता आमतौर पर जनता जो कि ऐसे मौके पर नेता की हां में हां मिलाती है, इस मामले में खुलकर अफसर के साथ रही, और वहां मौजूद लोगों ने भाजपा सांसद के बर्ताव का जमकर विरोध किया। उन्होंने कहा कि वे देख रहे हैं कि अफसर यहां काम कर रहे हैं, और आपकी पार्टी का यहां कोई नहीं आता। लोगों ने इस पर आपत्ति की कि सांसद किसी अफसर से ऐसे बात कैसे कर सकते हैं।
यह मामला अपने किस्म का कोई बहुत अनोखा मामला नहीं है। मध्यप्रदेश में तो बहुत से मंत्री अफसरों को पीटते नजर आए हैं, और दूसरे भी कई प्रदेशों में ऐसा होता है। छत्तीसगढ़ में भी पिछली भाजपा सरकार में एक ताकतवर मंत्री रहे रामविचार नेताम ने सर्किट हाऊस के एक कमरे को लेकर एक डिप्टी कलेक्टर को ही पीट दिया था। इंदौर का मामला अदालत तक पहुंचा था जिसमें भाजपा के दिग्गज नेता कैलाश विजयवर्गीय के विधायक बेटे आकाश विजयवर्गीय ने क्रिकेट की बैट से एक अफसर को दिनदहाड़े खुली सडक़ पर पीटा था, और चारों तरफ दूसरे अफसर यह देख रहे थे, लेकिन इस वीडियो के बावजूद जब मामला अदालत पहुंचा तो उस अफसर ने यह कह दिया कि उन्होंने मारने वाले को नहीं देखा था, जबकि मार खाते हुए वे खुली आंखों से आकाश विजयवर्गीय को देख रहे थे। अफसरों की हालत नेताओं के सामने इसी किस्म की रहती है कि जबरा मारे भी, और रोने भी न दे। यह बात समझ से परे है कि कर्मचारियों और अधिकारियों के बहुत से संगठन होते हैं, अखिल भारतीय सेवाओं के अफसरों के भी एसोसिएशन होते हैं, लेकिन जब नेता इनसे बदसलूकी करते हैं, तो इनमें से कोई भी उसका कानूनी जवाब देने की हिम्मत नहीं दिखाते। बहुत कम ऐसे मामले होते हैं जिनमें कलेक्टर स्तर के किसी अफसर की बड़ी पैमाने की बदसलूकी का विरोध किया जाता है, लेकिन मंत्री और मुख्यमंत्री, केन्द्रीय मंत्री या सांसद की बदसलूकी का विरोध कर्मचारी और अधिकारी आमतौर पर नहीं कर पाते।
अब सरकारी अमले को लेकर दो किस्म की बातें हैं, एक तो यह कि कुछ लोग भ्रष्टाचार करने के आदी रहते हैं, जमकर कमाई करने की कुर्सी की ताक में रहते हैं, और वे किसी महत्वहीन या कमाईविहीन कुर्सी पर जाने से डरते हैं, और इसलिए नेताओं को जवाब देने के बजाय उनकी बदसलूकी झेलते हैं। एक दूसरा तबका ऐसा भी रहता है जो कि रिश्वतखोर नहीं रहता है, लेकिन जो अपने परिवार के साथ चैन की जिंदगी गुजारते रहता है, और उसे देश-प्रदेश में किसी दूर की जगह फेंक दिए जाने का डर रहता है, और परिवार के साथ रहने के लालच में, बच्चों की पढ़ाई एक ही जारी रहने के लालच में वे राजनीतिक गुंडागर्दी का विरोध नहीं कर पाते। कुछ लोग सरकारी नौकरी में रगड़े खा-खाकर यह बात समझ चुके रहते हैं कि अगर उन्हें नौकरी में कामयाबी पाने वाला लंबी रेस का घोड़ा बनना है, तो उन्हें सत्ता की बदमिजाजी को बर्दाश्त करना सीखना होगा। और अपनी लंबी नौकरी को ध्यान में रखते हुए वे छोटी-मोटी बदतमीजी को अनदेखा करना सीख लेते हैं।
लेकिन दिल्ली के जिन लोगों ने इतने वजनदार भाजपा सांसद प्रवेश वर्मा की बदसलूकी का खुलकर विरोध किया, उन्होंने बाकी देश की जनता के लिए भी एक राह दिखाई है। उन्होंने यह साबित किया है कि बिना ताकत वाले आम लोग भी जुल्म और बदसलूकी के खिलाफ आवाज उठा सकते हैं, और उस वक्त भी आवाज उठा सकते हैं जब निशाने पर वे नहीं हैं, कोई सरकारी अधिकारी या कर्मचारी है। यह एक भारी सामाजिक परिपक्वता की बात है कि जनता अपने अफसरों को राजनीतिक बदतमीजी से बचाने के लिए इस तरह खुलकर सांसद के सामने खड़ी हो रही है। बाकी देश में जनता के पास अगर ऐसा हौसला नहीं है, अगर ऐसी राजनीतिक जागरूकता नहीं है, तो उन पर धिक्कार है। सार्वजनिक जगह पर कोई भी व्यक्ति गलत काम कर रहे हैं, तो उसका विरोध करने का हौसला एक लोकतांत्रिक जिम्मेदारी की बात है। बुरे अफसरों का भी लोगों को सार्वजनिक विरोध करना चाहिए, और बुरे नेताओं का भी। भारत जैसे लोकतंत्र में निर्वाचित नेताओं का ऐसा कोई अधिकार नहीं होता कि वे अधिकारियों और कर्मचारियों के साथ गुंडागर्दी करें। हमारा ख्याल यह है कि ऐसे वीडियो सुबूत रहने पर यह आम जनता का भी हक है कि ऐसे नेताओं के खिलाफ मानवाधिकार आयोग, या अदालत तक जाकर शिकायत करें। जिस देश-प्रदेश में जनता जितनी जागरूक होती है, वहां पर अफसर और नेता उतने ही काबू में भी होते हैं। केरल जैसे शिक्षित राज्य में नेता या अफसर न तो जनता से ऐसी बदसलूकी कर सकते हैं, और न ही एक-दूसरे से। और यह बात सिर्फ शिक्षा से जुड़ी हुई नहीं है, यह राजनीतिक जागरूकता से जुड़ी हुई है जो लोगों को उनके अधिकारों की जानकारी देती है। दूसरी तरफ उत्तर भारत के राज्यों में हाल बुरा है जहां पर नेता और अफसर सभी तानाशाह की तरह काम करते दिखते हैं, लोगों को हिकारत से देखते हैं, गैरकानूनी काम करते और करवाते हैं, और कानून की तरफ से, लोकतांत्रिक मूल्यों की तरफ से बेपरवाह रहते हैं। कुल मिलाकर लोकतंत्र में लोगों की मनमानी को खत्म करने का अकेला जरिया यही रहता है कि लोग सरकारी गुंडागर्दी के सामने एकजुट होकर खड़े हों। देश के बहुत से प्रदेशों से ऐसे वीडियो भी सामने आए हैं जिनमें गैरजिम्मेदार मंत्री और दूसरे नेता जब किसी इलाके में पहुंचते हैं, तो वहां जनता की भीड़ उन्हें धक्के देकर बाहर हकाल देती है। हम किसी तरह की हिंसा की हिमायत नहीं कर रहे, लेकिन सार्वजनिक बहिष्कार की जागरूकता एक लोकतांत्रिक अधिकार है, और जनता को तानाशाह नेताओं और अफसरों के खिलाफ इसका इस्तेमाल करना चाहिए।
महीनों से हवा में तैर रहा ट्विटर का सौदा आज शायद पूरा हो गया है, और अमरीका के एक सबसे बड़े कारोबारी एलन मस्क ने दुनिया के इस सबसे बड़े सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म को आसमान छूते दाम देकर खरीद लिया है। इसके साथ ही अमरीका के बड़े और भरोसेमंद अखबारों में यह खबर भी आई है कि नए मैनेजमेंट ने ट्विटर के भारतवंशी मुखिया पराग अग्रवाल के साथ-साथ दो और बड़े अधिकारियों को नौकरी से निकाल दिया है, इनमें भी एक भारतवंशी महिला विजया गडे हैं। नए मालिक एलन मस्क का मुख्य कारोबार टेस्ला नाम की बैटरी से चलने वाली कार बनाना है जो कि ऐसी कार बनाने वाली दुनिया की सबसे बड़ी कंपनी है। इसके अलावा वे अंतरिक्ष में सैलानियों को भेजने का एक नया कारोबार शुरू कर चुके हैं। अभी उन्होंने यह कहा है कि उन्होंने ट्विटर इसलिए खरीदा है क्योंकि वे मानवता की मदद करना चाहते हैं, और ऐसा प्लेटफॉर्म मानव सभ्यता के भविष्य के लिए जरूरी है जहां विभिन्न मतों को स्वस्थ तरीके से बिना हिंसा के उठाया जा सके। मस्क ने इस बात को भी इस सौदे के विवाद के दौरान एक सार्वजनिक मुद्दा बनाया था कि ट्विटर पर जो फर्जी अकाउंट हैं, जिन्हें स्पैम अकाउंट कहा जाता है, वे उन्हें हटाना चाहते हैं, और इस प्लेटफॉर्म पर बोलने की आजादी को बचाना चाहते हैं। उनका लगातार यह बयान आते रहा कि ट्विटर पर फर्जी अकाउंट कंपनी के बताए आंकड़ों के मुकाबले बहुत ज्यादा हैं।
दुनिया के किसी बड़े कारोबार का मालिकाना हक बदलने में इस जगह पर लिखने लायक कुछ नहीं रहता लेकिन दुनिया के लोकतंत्रों और तानाशाहियों के बीच आज ट्विटर हर तरह की विचारधारा से जुड़े समाचार और विचार का एक बड़ा मंच बन गया है, और दुनिया के सूचनातंत्र में, दुनिया के लोकतंत्रों में इसकी भूमिका और इसके महत्व को कम नहीं आंका जा सकता। एलन मस्क अपनी कार कंपनी या रॉकेट कंपनी की तरह की दस-बीस कंपनियां भी खरीदते, तो भी यहां लिखने की जरूरत नहीं रहती। लेकिन मीडिया और सोशल मीडिया से जुड़ा हुआ कारोबार लोगों को उनकी ग्राहकी के अलावा भी कई दूसरे किस्म से प्रभावित करता है, और इसीलिए इस मुद्दे पर यहां पर बात जरूरी है। आज जब एक सनकी की शोहरत रखने वाले एक कारोबारी ने बेदिमाग दाम देकर जब इस कंपनी को शायद खरीद लिया है, और जब वह अभिव्यक्ति की आजादी की अपनी परिभाषा इस्तेमाल करते हुए वहां पर डोनल्ड ट्रंप सरीखे झूठे, मक्कार, और नफरतजीवी इंसान के स्वागत की भी बात करता है, तो अभिव्यक्ति की ऐसी आजादी परेशान करने वाली बात रहती है। कल ही हिन्दुस्तान की एक जिला अदालत ने यूपी के एक बड़े मुस्लिम नेता आजम खान को नफरत भरे एक भाषण देने के जुर्म में तीन बरस की कैद सुनाई है। हालांकि इस समाजवादी नेता के पास अभी ऊपर की अदालतों तक जाने का विकल्प बाकी है, लेकिन नफरत को लेकर इन दिनों हिन्दुस्तान में सुप्रीम कोर्ट की ताजा रूख भी खतरनाक है, नफरतजीवियों के लिए। ऐसे में ट्विटर पर अगर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर यह नया सनकी मालिक अगर उसे नफरत की और अधिक आजादी का मंच बना देता है, तो यह दुनिया के लिए बहुत फिक्र की बात होगी। दुनिया के इतिहास में पहले भी, जब सोशल मीडिया नहीं था, और जब मीडिया ही सब कुछ था, तब भी लोगों ने यह देखा हुआ है कि किसी दूसरे कारोबार की कमाई पर चलने वाले मीडिया मालिक मीडिया को अपनी सनक के साथ इस्तेमाल करते हैं। दुनिया के सबसे अधिक लोगों के इस्तेमाल किए जाने वाले इस सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के साथ आज यह खतरा खड़ा हो गया है कि इसका मालिक एक तानाशाह सरीखी सनक के साथ इसके बारे में फैसले कर सकता है। हिन्दुस्तान के संदर्भ में तो हम जानते ही हैं कि इसकी मौजूदा आजादी से भी यहां के करोड़ों भाड़े के भोंपुओं, या समर्पित लोगों की नफरत का सबसे बड़ा मंच बना हुआ है, और अब अमरीका के हिंसाजीवी लोग भी इस नए मालिक से बड़ी उम्मीदें लगाए हुए हैं, और अगर इसकी नीतियों में, इसके कम्प्यूटरों में अगर ऐसी नफरती ‘आजादी’ के लिए और अधिक छूट दी जाती है, तो यह हिन्दुस्तान के हिंसक और नफरतजीवी लोगों के लिए एक जश्न की बात होगी।
वैसे तो दुनिया के किसी कारोबारी पर किसी वैचारिक प्रतिबद्धता की बात लागू नहीं होती है, और फेसबुक जैसे एक दूसरे सबसे बड़े सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म को लेकर कई तरह की तोहमतें लगती हैं कि वहां पर किसी खास विचारधारा के लोगों को अधिक महत्व दिया जाता है, उन्हें अपनी बात अधिक लोगों तक पहुंचाने की छूट दी जाती है। अब इन कंपनियों के कम्प्यूटर एल्गोरिद्म एक बंद रहस्य रहते हैं, इसलिए बाहर के लोग यह नहीं समझ पाते कि वहां पर बदनीयत से किसी को बढ़ावा दिया जाता है, या ऐसी कोई साजिश नहीं होती है। लेकिन ऐसे आरोप लगते ही रहते हैं। और फिर जब दुनिया में पैसों की ताकत के साथ-साथ एक सनक भी रखने वाले लोग अपने आपको मानवता के लिए जनकल्याणकारी बताते हुए ऐसे नाजुक धंधे पर कब्जा करते हैं, तो दुनिया के लिए फिक्र की बात तो रहती ही है। दुनिया का इतिहास बताता है कि जनकल्याणकारी तानाशाह जैसी कोई चीज हो नहीं सकती है, जो सच ही जनकल्याणकारी होंगे, वे तानाशाह नहीं हो सकते, और जो तानाशाह हैं, वे जनकल्याणकारी नहीं हो सकते। ऐसे में एलन मस्क का ट्विटर का मालिक बनना दुनिया में सूचना और विचार के प्रवाह को बेहतर भी बना सकता है, और उसे प्रदूषित भी कर सकता है। आने वाला वक्त बताएगा कि अरबों लोगों के बीच संपर्क का एक बड़ा साधन बना हुआ ट्विटर नए मालिक के हाथों में कैसी शक्ल लेता है।
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कई बरस पहले से जापान के शहरों की सार्वजनिक जगहों की ऐसी तस्वीरें आती हैं जिनमें लोग पखाने में बैठे हैं, और उनके आसपास के एक तरफ से देखे जा सकने वाले कांच से वे तो फुटपाथ, सडक़, या दूसरी जगहों को देख सकते हैं, लेकिन बाहर से उन्हें देखना मुमकिन नहीं रहता क्योंकि कांच एक ही तरफ से काम करता है। अब मान लें कि ऐसे पखाने का शीशा एकाएक टूट जाए तो भीतर बैठे इंसान को दुनिया बिना कपड़ों देख लेगी। ऐसा ही कुछ कल अरविंद केजरीवाल के साथ हुआ है जब उन्होंने मोदी सरकार से यह मांग की कि हिन्दुस्तानी नोटों पर गांधी के साथ-साथ लक्ष्मी-गणेश की फोटो भी छापी जाए। यह मांग दीवाली के ठीक अगले दिन हुई है जब देश के बहुत बड़े हिस्से में अधिकतर लोग लक्ष्मी की पूजा करते हैं, और यह मांग गुजरात चुनाव के ठीक पहले आई है जो कि अगले कुछ हफ्तों में होने जा रहे हैं। केजरीवाल को बरसों से लोग भाजपा और आरएसएस की बी टीम की तरह पाते हैं, और वे भाजपा के खिलाफ जितनी भी बयानबाजी करें, वे बयान चुनावों में भाजपा को नुकसान नहीं पहुंचाते, और ठीक उसी तरह केन्द्र सरकार आम आदमी पार्टी के नेताओं पर जितनी भी कार्रवाई करते दिखे, वह दिखती अधिक है, होती कम है। इसलिए लोग यह मानते हैं कि भाजपा किसी भी चुनाव में अपने मजबूत विपक्षी दल के वोट बंटवाने के लिए केजरीवाल का इस्तेमाल करती है, और इस बार केजरीवाल ने भाजपा का इस्तेमाल कर लिया दिखता है, उन्होंने भाजपा के हिन्दुुत्व के मुद्दे पर उससे भी चार मील आगे बढक़र दिखा दिया जब हिन्दू देवी-देवता की तस्वीरें नोटों पर छापने की मांग उन्होंने की है।
दरअसल केजरीवाल अन्ना हजारे के उस आंदोलन से सामने आए हैं जो कि निहायत फर्जी किस्म के मुद्दों को लेकर चलाया गया था, और अधिकतर राजनीतिक विश्लेषकों ने बाद में उसे आरएसएस की उपज बताया था। देश के चुनिंदा कथित भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर अन्ना हजारे का गिरोह देश में बाकी सभी और बड़े भ्रष्टाचार को अनदेखा भी कर रहा था, और लोगों का ध्यान उस तरफ से हटा भी रहा था। इस आंदोलन में कर्नाटक से शामिल होने वाले जस्टिस हेगड़े और श्रीश्री रविशंकर जैसे लोगों को उसी वक्त कर्नाटक में चल रही येदियुरप्पा सरकार में रेड्डी बंधुओं के अंधाधुंध भ्रष्टाचार नहीं दिखते थे, और वे दिल्ली आकर यूपीए सरकार के खिलाफ डेरा डालकर बैठे थे। गांधी टोपी लगाए हुए, खादी पहने हुए, सत्याग्रह का अनशन करते हुए अन्ना हजारे ने गांधीवाद को भी खूब दुहा, और सरकार को भरपूर बदनाम किया। इसके बाद से अब तक अन्ना हजारे अपने गांव जाकर सोए हैं, और अब चूंकि दिल्ली में कांग्रेस की सरकार आठ बरस से नहीं है, दो बरस और नहीं रहेगी, इसलिए उन्हें उठने की कोई जल्दी नहीं है। उसी आंदोलन की उपज अरविंद केजरीवाल थे जिन्होंने अन्ना हजारे के साथ मिलकर जनलोकपाल बनाने के लिए आक्रामक आंदोलन चलाया था, और उसके बाद से अब तक उस मुद्दे को छुआ भी नहीं है।
अरविंद केजरीवाल एक शहर वाले राज्य दिल्ली के निर्वाचित मुख्यमंत्री हैं, और उन्होंने एक शहरी म्युनिसिपल कमिश्नर जैसा ही काम किया है। मोहल्ला क्लीनिक और बेहतर स्कूलों का काम दुनिया भर में बेहतर म्युनिसिपल कमिश्नर करते ही हैं, और केजरीवाल ने बस उतना ही किया। देश के और जितने जलते-सुलगते मुद्दे उनके राजनीतिक जीवन में देश को घेरकर रखे चले आ रहे हैं, उन पर उन्होंने कभी मुंह नहीं खोला। देश में बड़ी-बड़ी साम्प्रदायिक सुनामी आती रही, लेकिन केजरीवाल अपने टापू में महफूज बैठे रहे, होठों को सिलकर, आंखों को बंद करके। अब गुजरात और हिमाचल के चुनाव में केजरीवाल भाजपा और कांग्रेस के मुकाबले उतरे हुए हैं, और आम आदमी पार्टी को इन दोनों राज्यों में कम या अधिक संभावना दिख रही है, ऐसे में उन्होंने भाजपा से भी आगे जाकर लक्ष्मी-गणेश की तस्वीरें नोटों पर छापने की मांग कर डाली है। केजरीवाल आईआईटी से पढ़े हुए हैं, यूपीएससी से निकलकर इंकम टैक्स में ऊंची नौकरी कर चुके हैं, और देश के कानून को अच्छी तरह समझते हैं। इसके बावजूद वे इस धर्मनिरपेक्ष में किसी एक धर्म के देवी-देवताओं की तस्वीरों को नोटों पर छापने की मांग कर रहे हैं, तो इसके पीछे उनकी नीयत समझी जा सकती है। उन्हें भी मालूम है कि हिन्दुस्तान में ऐसा नहीं किया जा सकता, लेकिन वे एक जुमला उछालकर भाग निकलने में माहिर आदमी हैं, और उन्होंने इस बार भी वही किया है। अब सवाल यह उठता है कि अमूमन भाजपा-आरएसएस की रणनीति को आगे बढ़ाने के लिए चुनावों में उतरती आम आदमी पार्टी इस बार क्या भाजपा के परंपरागत वोटों को भी अपनी तरफ खींचने की कोशिश कर रही है? क्या पंजाब के बाद उसकी महत्वाकांक्षा दूसरे राज्यों की तरफ बढ़ रही है? क्या वह अब भाजपा के शामियाने वाले की तरह काम करना बंद कर रही है? या फिर इन दोनों पार्टियों के बीच किसी और किस्म की रणनीतिक साझेदारी हुई है?
इस देश में बहुसंख्यक हिन्दू समाज का एक तबका वैसे भी धर्मान्धता, और साम्प्रदायिकता में झोंका जा चुका है, और केजरीवाल की यह मांग उस बात को और आगे ही बढ़ाएगी। बहुत से लोगों को यह सलाह सही लगेगी कि धन और वैभव के देवी-देवताओं की तस्वीर इस हिन्दू-बहुसंख्यक देश में नोटों पर क्यों न छापी जाए? जिन लोगों को अखबारों में छपे हुए देवी-देवताओं की तस्वीरों वाले पुराने कागज पर मांसाहारी खानपान बांधकर देने पर दंगा करना जरूरी लगता है, वे हिन्दू देवी-देवताओं की नोटों पर छपी तस्वीरों को कसाई के पास, शराबखाने में, वेश्याओं के पास जाने पर क्या महसूस करेंगे? धर्मान्धता को आगे बढ़ाने का खतरा यह रहता है कि उसकी भूख बढ़ते चलती है, और धीरे-धीरे इन नोटों को लेकर दूसरे धर्म के कारोबारियों के पास न जाने का फतवा भी कल का कोई केजरीवाल जारी करने लगेगा। यह सिलसिला इस देश के धार्मिक और साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण को और आगे तक ले जाएगा, और देश के बाकी धर्मों के लोगों को लगेगा कि वे यहां दूसरे दर्जे के नागरिक हैं। चुनाव जीतने के लिए केजरीवाल कुछ और राज्यों में संभावना देखकर उस वक्त यह मांग भी कर सकते हैं कि हिन्दुस्तान को हिन्दू राष्ट्र घोषित किया जाए। यह आदमी लोकतंत्र का मसीहा बनने का नाटक करते हुए राजनीति में आया, और आज यह लोकतंत्र की सारी भावना को कुचलकर चुनावी जीत हासिल करने की मक्कारी पर आमादा है। इस देश में जिन लोगों को राजनीतिक और सामाजिक मुद्दों की समझ नहीं है, उन्हें एक म्युनिसिपल कमिश्नर सरीखे नेता को भी सब कुछ बना देने में कुछ गलत नहीं लगता। ऐसे ही लोगों की मेहरबानी से इस देश में तानाशाही खप रही है। केजरीवाल की ऐसी बकवास को जमकर धिक्कारने की जरूरत है।
एक भारतवंशी कहे जा रहे ऋषि सुनक के ब्रिटिश प्रधानमंत्री बनने से ब्रिटेन में एक नया इतिहास बना है कि दक्षिण एशियाई मूल का कोई व्यक्ति वहां पीएम बना है, और वह भी एक ऐसी पार्टी से जो कि गोरों के दबदबे वाली कंजरवेटिव पार्टी है। ऋषि सुनक के दादा-दादी आज के पाकिस्तान के गुजरांवाला से अफ्रीका गए थे, और वहां ऋषि सुनक के माता-पिता पैदा हुए थे। फिर वे ब्रिटेन गए और वहां पर उनके बच्चे हुए जिनमें से एक ऋषि सुनक भी थे। इस तरह इस परिवार का दो पीढ़ी पहले का आज के पाकिस्तान के पंजाब से उस वक्त रिश्ता था। उनका भारत से और दो किस्म का रिश्ता है, एक तो यह कि वे धर्म को मानने वाले हिन्दू हैं, और सांसद की शपथ उन्होंने गीता पर हाथ रखकर ली थी। दूसरी बात यह कि उनकी पत्नी भारत के एक सबसे बड़े कारोबारी, नारायणमूर्ति की बेटी हैं, और उनकी कंपनी इन्फोसिस की एक शेयरहोल्डर होने के नाते ब्रिटेन की सबसे संपन्न महिलाओं में से हैं। यह भी कहा जाता है कि वे ब्रिटेन की महारानी से भी अधिक दौलतमंद हैं। इन तमाम वजहों से ऋषि सुनक को भारतवंशी मानकर भारत में बड़ी खुशियां मनाई जा रही हैं। कई लोग तो यह मानकर चल रहे हैं कि वे हिन्दुस्तान के साथ अपनी वफादारी दिखाएंगे, और भारत से वहां गया कोहिनूर वापिस दिलवाएंगे।
हिन्दुस्तानी भी गजब के रहते हैं। दुनिया में जहां कहीं कामयाबी दिखे वहां वे भारत से उसका रिश्ता तेजी से जोड़ लेते हैं। कमला हैरिस अमरीकी उपराष्ट्रपति बनीं, तो भारत में ऐसी खुशियां मनाई गईं कि अब अमरीका पर भारत का ही राज होगा, भारतीयों की खूब चलेगी। आज हालत यह है कि हिन्दुस्तान में अगर कोई अमरीकी वीजा के लिए अर्जी लगाए, तो सारे कागजात देने के साढ़े सात सौ दिन बाद इंटरव्यू की तारीख मिल रही है, वीजा मिले न मिले यह तो बाद की बात है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से सार्वजनिक रूप से अधिक घरोबा दिखने की वजह से हिन्दुस्तान के उनके समर्थक अमरीकी राष्ट्रपति रहे डोनल्ड ट्रंप के नाम पर बावले हो गए थे, और जब ट्रंप ने चुनाव लड़ा, तो हिन्दुस्तान में जगह-जगह उनकी जीत के लिए हवन करवाए जा रहे थे। यह एक अलग बात है कि वही ट्रंप अमरीका में प्रवासियों के सबसे अधिक खिलाफ थे, जिनमें हिन्दुस्तानी भी शामिल थे। उनसे हिन्दुस्तान का एक धेला भला नहीं हुआ, लेकिन लोगों को वे अपने फूफा लग रहे थे। अब ऋषि सुनक के डीएनए के अलावा उनका हिन्दुस्तान, और तकनीकी रूप से आज के पाकिस्तान से और कुछ लेना-देना नहीं है, लेकिन लोग ऐसे मजे से खुशियां मना रहे हैं कि अब लंदन जाने पर प्रधानमंत्री निवास में ही ठहरना होगा। सच तो यह है कि उन्होंने आते ही भारतीय मूल की एक सांसद सुएला ब्रेवरमैन को गृहसचिव (मंत्री) बनाया है जिन्होंने हफ्ते भर पहले ही पिछले मंत्रिमंडल से इस्तीफा दिया था। उन्होंने भारत से ब्रिटेन पहुंचने वाले लोगों के खिलाफ टिप्पणी की थी। वे भारत के गोवा में पैदा हुई थीं, और अपनी इस टिप्पणी के लिए ये विवाद से घिरी थीं।
जिन लोगों ने दुनिया को नहीं देखा है, लोकतंत्र को नहीं देखा है, विकसित और सभ्य समाजों को नहीं देखा है, उनके लिए हिन्दी फिल्मों के डायलॉग की तरह खून का रिश्ता सबसे मजबूत होता है। हिन्दुस्तानी (या पाकिस्तानी) डीएनए आज अगर अमरीकी प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचा है, तो उसमें डीएनए से परे इन देशों का क्या योगदान है, इस पर कोई चर्चा करना नहीं चाहते। हिन्दुस्तान में काम की बेहतर संभावनाएं न रहने पर ऋषि सुनक के दादा-दादी पूर्वी अफ्रीका गए थे, कमला हैरिस की मां अमरीका गई थीं, और गूगल के आज के मुखिया सुन्दर पिचाई बेहतर भविष्य के लिए अमरीका गए थे। ऐसे में उनके जन्म के देश के यह भी समझना चाहिए कि इस देश की वजह से ये लोग आगे बढ़े, या इस देश के बावजूद वे बाहर जाकर इतना आगे बढ़ पाए। आज जब ऋषि सुनक की खुशियों से हिन्दुस्तान का एक तबका लबलबा रहा है, तब एक दूसरी खबर यह है कि सुन्दर पिचाई की अगुवाई वाली कंपनी गूगल पर भारत में प्रतिस्पर्धा आयोग ने 936 करोड़ रूपये का जुर्माना लगाया है क्योंकि यह कंपनी गूगल प्ले स्टोर बाजार में अपने दबदबे का गलत तरीके से फायदा उठा रही थी। अब भारतीय बाजार में अगर गूगल का कामकाज इतने बड़े जुर्माने के लायक समझा गया है, तो यह भारत के साथ सुन्दर पिचाई की किसी खास रियायत का सुबूत नहीं है। जो लोग इस दुनिया के बीच एक कुएं में जीते हैं, वे यह नहीं समझ पाते कि अपने जन्म के देश के साथ वफादारी निभाते हुए लोग उन देशों के साथ गद्दारी या धोखेबाजी नहीं कर सकते, जहां वे पले-बढ़े हैं, या पढ़े हैं, और काम कर रहे हैं। वे जहां के नागरिक हैं, उनकी पहली जिम्मेदारी वहां के लिए है, और हिन्दुस्तान के लिए उनकी कोई वफादारी नहीं बनती है। हिन्दुस्तान के कुछ चैनल अपनी आदत और नीयत के मुताबिक यह साम्प्रदायिकता भडक़ाने में लग गए हैं कि ऋषि सुनक के दादा-दादी गुजरांवाला से पूर्वी अफ्रीका इसलिए गए थे कि वे वहां पर हिन्दू-मुस्लिम तनातनी से डरे हुए थे। मतलब यह कि ऋषि सुनक को अपना साबित करने के लिए उसे भारतवंशी बताना भी जरूरी है, लेकिन साथ-साथ आज के पंजाब में मौजूद गुजरांवाला को बदनाम करने के लिए उसे हिन्दू-मुस्लिम तनाव वाला बताना भी जरूरी है। ऐसी नीयत के साथ जो लोग गौरव पर कब्जा करना चाहते हैं, वे खुद भी आगे नहीं बढ़ सकते, क्योंकि वे झूठे गौरव के साथ खुश रहना सीख चुके रहते हैं।
हिन्दुस्तान के भीतर काबिल लोगों को अच्छे कॉलेजों में दाखिले से रोकना, नौकरियों से रोकना, उनके कारोबार में तरह-तरह से अड़ंगे लगाना, ऐसी हरकतों वाला देश दुनिया में कहीं कामयाबी पर दावा करते हुए अपने आपको हॅंसी का हकदार बना देता है। हिन्दुस्तानी इसमें बहुत माहिर हैं। वे कोहिनूर का रास्ता देख रहे थे, और उन्हें भारतविरोधी बयान देने वाली मंत्री बनाने वाली ऋषि सुनक की खबर मिली है। लोगों को गर्व और गौरव के लिए अपनी ठोस कामयाबी और उपलब्धि तलाशनी चाहिए, कहीं और की कामयाबी जो किन्हीं और वजहों से हुई है, उन पर दावा जताना खोखले लोगों का काम होता है।
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गुजरात के गृहमंत्री ने 21 से 27 अक्टूबर तक किसी का भी ट्रैफिक चालान काटने से मना कर दिया है। उन्होंने दीवाली के मौके पर इसे जनता को तोहफा कहा है, और चुनाव के करीब पहुंच रहे गुजरात में इसे वहां की बड़ी हिन्दू आबादी को लुभाने वाला एक फैसला कहा जा रहा है। उन्होंने मंच और माईक से सार्वजनिक घोषणा करते हुए कहा कि इस एक हफ्ते गुजरात टै्रफिक पुलिस कोई जुर्माना नहीं वसूलेगी। कल ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एक बार फिर अपनी मुफ्त की रेवड़ी वाली बात को दुहराते हुए दिखे, और उन्होंने मध्यप्रदेश में एक सार्वजनिक कार्यक्रम में कहा कि टैक्स देने वाले जब यह देखते हैं कि उससे वसूले गए टैक्स से मुफ्त की रेवड़ी बांटी जा रही है, तो टैक्सपेयर सबसे ज्यादा दुखी होते हैं। उन्होंने कहा- मुझे गर्व है कि देश में एक बड़ा वर्ग है जो देश को रेवड़ी कल्चर से मुक्ति दिलाने के लिए कमर कस रहा है।
ये दोनों ही बातें कल की हैं, दोनों ही बातें गुजरात से निकले लोगों की कही हुई है। गुजरात के गृहमंत्री हर्ष संघवी चालान से छूट की देश की यह अपने किस्म की पहली रेवड़ी जब बांट रहे थे, तभी गुजरात से निकलकर देश के प्रधानमंत्री बने नरेन्द्र मोदी एक दूसरे मंच से रेवड़ी कल्चर के खिलाफ बोल रहे थे। पिछले कुछ महीनों में रेवड़ी कल्चर का यह एक नया जुमला नरेन्द्र मोदी की तरफ से शायद इसलिए आया कि हिमाचल और गुजरात में चुनाव होने जा रहे हैं, इन दोनों ही राज्यों में आम आदमी पार्टी ताल ठोंकते हुए चुनाव में उतरी हुई है, और इस पार्टी का पुराना इतिहास रहा है कि यह तरह-तरह की लुभावनी रियायतों और तोहफों वाला चुनावी घोषणापत्र लाती है, और शायद उसे काफी हद तक पूरा भी करती है। ऐसी चुनावी घोषणाओं पर रोक लगाने के लिए भाजपा के एक बड़े नेता जो कि सुप्रीम कोर्ट के वकील भी हैं, वे एक जनहित याचिका लेकर अदालत में हैं, और अदालत ने केन्द्र सरकार, राजनीतिक दलों, और चुनाव आयोग से इस पर उनकी राय भी पूछी है। मोदी के उछाले गए रेवड़ी-कल्चर शब्दों का मौका इन विधानसभा चुनावों के ठीक पहले का भी था, और सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चलने के बीच भी था। लेकिन अब यह भी समझने की जरूरत है कि हिन्दुओं के साल के एक सबसे बड़े त्यौहार पर अगर कानून तोडऩे की छूट का यह चुनावपूर्व तोहफा गुजरात में दिया जा रहा है, तो आने वाले बरसों और चुनावों में इसका क्या असर होगा?
अगर इस घोषणा को गैरकानूनी करार देते हुए इस पर रोक नहीं लगाई गई, इस पर अदालती फटकार नहीं लगी, तो फिर बाकी राजनीतिक दलों के लिए, और बाकी प्रदेशों के लिए मैदान खुला रहेगा। और फिर वह मैदान चुनाव के पहले के महीनों में ही नहीं खुलेगा, वह बारहमासी और पांचसाला हो जाएगा। बंगाल में दुर्गा पूजा के हफ्ते में चालान नहीं होंगे, गोवा में क्रिसमस से नए साल तक न सडक़ों पर चालान होंगे, और न ही पिये हुए लोगों पर कोई कार्रवाई होगी, और मुख्यमंत्री भगवंत सिंह मान के पंजाब में तो ऐसी रियायत पूरे पांच बरस देनी होगी। और जैसा कि आज के हिन्दुस्तान का हाल सुप्रीम कोर्ट ने अभी दो दिन पहले के अपने ताजा फैसले में लिखा है, यह तो जाहिर है ही कि देश के तकरीबन तमाम प्रदेशों में ये रियायतें हिन्दू त्यौहारों पर ही मिलेंगी, और बाकी धर्मों के लोग अपने-अपने फिलीस्तीन जहां चाहें वहां ढूंढ लें।
कल जब गुजरात के मुख्यमंत्री दीवाली का यह तोहफा दे रहे थे, तो सुप्रीम कोर्ट का ताजा फैसला आए भी दो दिन हो चुके थे, पूरा फैसला लोगों के सामने था जो कि कह रहा था कि अगर नफरत फैलाने वाले बयानों पर किसी प्रदेश में खुद होकर कार्रवाई नहीं की गई, तो उसे सुप्रीम कोर्ट की अवमानना माना जाएगा, और वहां के अफसरों को कटघरे में बुलाया जाएगा। वह बात नफरत की थी, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने यह साफ किया था कि आज देश में, देश में जगह-जगह, या देशभर में देश का लोकतांत्रिक चरित्र खत्म किया जा रहा है, और अल्पसंख्यकों को निशाना बनाया जा रहा है। निशाना बनाने का यह काम इस तरह भी हो सकता है कि केन्द्र और राज्य सरकारें गले-गले तक किसी एक धर्म को मनाने में लग जाएं, सरकारी खजाना उस धर्म की भक्ति में झोंक दिया जाए, और बिना कुछ कहे बाकी धर्म हाशिए पर धकेल दिए जाएं। गुजरात का यह ताजा फैसला उसी तरह का है। यह अल्पसंख्यकों के बारे में, या गैरहिन्दू धर्मों के बारे मेें कुछ नहीं कह रहा, लेकिन हिन्दू त्यौहार के मौके पर यह गैरकानूनी रियायत बिना कुछ कहे भी दूसरे धर्मों को उनकी औकात याद दिला देती है।
सुप्रीम कोर्ट ने नफरत के भाषणों के खिलाफ एक कड़ा रूख तो दिखाया है, लेकिन धर्मान्धता, और साम्प्रदायिकता के जो जलते-धधकते मामले हैं, उन्हें देश की यह सबसे बड़ी अदालत मोटेतौर पर अनदेखा करके ही चल रही है। आज जरूरत देश की साम्प्रदायिक स्थिति को एक समग्रता से देखने की है, यह भी सवाल करने की है कि किसी एक धर्म को देश या किसी प्रदेश का राजकीय धर्म कैसे बनाया जा रहा है? लेकिन सुप्रीम कोर्ट की कई बेंचें असुविधा से भरे इस काम से बचती दिख रही हैं, और यह समकालीन इतिहास इस बचने को भी दर्ज करते चल रहा है। फिलहाल किसी को गुजरात के इस फैसले के खिलाफ अदालत जाना चाहिए क्योंकि यह महज धार्मिक या साम्प्रदायिक मामला नहीं है, यह एक ऐसा गैरकानूनी मामला भी है जो सडक़ों पर लोगों की हिफाजत खत्म करता है। और ऐसा करना किसी सरकार का हक नहीं है। हो सकता है कि गुजरात के गृहमंत्री को यह अच्छी तरह मालूम हो कि यह आदेश अदालत में एक सुनवाई भी खड़ा नहीं रहेगा, और उसके बाद भी उन्होंने इसे चुनाव के पहले जनता के बीच खपाने के लिए ही कहा हो, लेकिन ऐसी मिसालों का विरोध होना चाहिए। इस हरकत से, और ऐसी चुनिंदा रियायत से गुजरात में जनता का साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण करने की कोशिश भी यह दिखती है।
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देश के सबसे प्रमुख सरकारी अस्पताल, दिल्ली के एम्स में सांसदों को खास हक देने वाला एक फैसला डॉक्टरों के संगठन के भारी विरोध के बाद वापिस लिया गया है। इस फैसले में सांसदों, और उनकी सिफारिश पर आने वाले दूसरे मरीजों के लिए कई किस्म के विशेषाधिकार तय किए गए थे, और इसके लिए अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान ने अपने अफसरों और डॉक्टरों को लिखित-निर्देश दिए थे कि किसी सांसद के इलाज के लिए आने पर किस तरह खास इंतजाम किए जाएं, तुरंत डॉक्टर तक ले जाया जाए, बिना देर किए सबसे अच्छा इलाज कराया जाए, इसके लिए फोन और मोबाइल पर लोग तैनात रहें, और किसी सांसद की सिफारिश पर आने वाले मरीज की भी अलग से मदद की जाए। डॉक्टरों के संगठनों ने एम्स के डायरेक्टर के इस आदेश का जमकर विरोध करते हुए केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री को लिखा था कि आज जब यह देश वीआईपी संस्कृति के खिलाफ लड़ रहा है, उस वक्त एम्स सांसदों के लिए इस तरह का खास इंतजाम कर रहा है जिससे कि बाकी मरीजों का इलाज का हक, और उनका इलाज दोनों बुरी तरह प्रभावित होंगे। डॉक्टरों ने केन्द्र सरकार को याद दिलाया कि सरकारी अस्पतालों को कभी यह नीति नहीं बनानी चाहिए कि कुछ चुनिंदा लोगों का बेहतर इलाज, और बाकी तमाम लोगों का कमजोर इलाज। उन्होंने कहा कि चिकित्सा सेवा के मामले में इस तरह की गैरबराबरी बिल्कुल मंजूर नहीं की जा सकती, और यह डॉक्टरों की ली गई शपथ के भी खिलाफ है, और देश के हर डॉक्टर की आत्मा के भी खिलाफ है। केन्द्रीय मंत्री को यह भी याद दिलाया गया कि इस तरह का आदेश डॉक्टरों पर हिंसक हमले करने वालों का भी हौसला बढ़ाएगा क्योंकि अध्ययन करने पर यह पता लगा है कि ऐसी हिंसा का 80 फीसदी हिस्सा राजनेता, या उनसे जुड़े हुए लोग करते हैं।
गनीमत यह है कि यह आदेश निकलने के एक हफ्ते के भीतर ही इसे वापिस लेना पड़ा, और जिस तरह एम्स की ओर से लोकसभा सचिवालय को इस आदेश की चि_ी भेजी गई है, उससे यह जाहिर होता है कि लोकसभा की पहल पर इस तरह का आदेश निकला होगा। देश संसद के रेस्त्रां में सांसदों के रियायती खाने को लेकर पहले से विचलित चल रहा था, और उस रेस्त्रां के रेटकार्ड को देखकर लोग हैरान होते थे कि खाना इतना रियायती भी किया जा सकता है। इसके साथ-साथ लोग सांसदों को मिलने वाले वेतन, पेंशन, मकान और सफर की सहूलियत जैसी बातों को भी गिनाते थे, और इन तमाम बातों को मिलाकर मानो हिकारत काफी पैदा नहीं हो रही थी कि अस्पताल में इलाज का यह नया हुक्म निकाला गया था जिसमें हिन्दुस्तान के सांसदों, और उनकी सिफारिश पर पहुंचने वाले लोगों को दूसरे मरीजों से पहले, उनसे ऊपर रखा गया था, और अस्पताल को हुक्म दिया गया था कि इन लोगों से बारातियों की तरह पेश आया जाए। जनता के बीच यह मुद्दा उठ पाए, उसके पहले ही हौसलेमंद डॉक्टरों के संगठनों ने इसका जमकर विरोध किया, और सांसदों को आम नागरिकों से ऊपर का इलाज का दर्जा शुरू होने के पहले ही खत्म हो गया। यह बात हैरान करती है कि देश में आज जागरूकता के इस दौर में भी लोग जनता के हकों को इस हद तक कुचलने का दुस्साहस रखते हैं, और दूसरे मरीजों की कतार को धकेलते हुए खुद पहले इलाज पाने की ऐसी बेशर्मी रखते हैं। किसी लोकतंत्र में वीवीआईपी शब्द, और ऐसे दर्जे एक सामंती मिजाज का सुबूत रहते हैं, और धिक्कार के लायक रहते हैं।
हम समय-समय पर ऐसे वीआईपी हकों के खिलाफ लिखते आए हंै जिनमें सिर्फ सांसद और विधायक नहीं रहते, जज और अफसर भी रहते हैं। हर प्रदेश में हाईकोर्ट के जज जिस तरह सायरन बजाती पायलट गाडिय़ों के साथ सडक़ पर दूसरों को किनारे धकेलते हुए चलते हैं, वह अपने आपमें एक बहुत ही शर्मनाक हरकत रहती है, लेकिन अभी तक कोई जज ऐसे नहीं मिले हैं जिन्होंने ऐसी सामंती सहूलियतों से मना किया हो। जो जज अदालत में गिने-चुने घंटे बैठते हैं, और साल में डेढ़ सौ दिन से अधिक छुट्टियां लेते हैं। कुछ बरस पहले एक जनहित याचिका लगी थी जिसमें सुप्रीम कोर्ट से पूछा था कि वह साल में कुल 193 दिन क्यों काम करता है जबकि वह मामलों से लदा हुआ है। इसी जनहित याचिका के मुताबिक देश के हाईकोर्ट साल में 210 दिन काम करते हैं, और जिला अदालतें 245 दिन। इस जनहित याचिका ने याद दिलाया था कि सुप्रीम कोर्ट का ही एक आदेश है कि जज साल में कम से कम 225 दिन काम करें। यह अंग्रेजों के समय से चले आ रही एक वीआईपी संस्कृति है जिसके तहत सुप्रीम कोर्ट जज साल में पांच बार बड़ी-बड़ी छुट्टियां लेते हैं, गर्मियों में 45 दिन, सर्दियों में 15 दिन, होली पर एक हफ्ते, और दशहरा-दीवाली पर पांच-पांच दिन। जब देश की सबसे बड़ी अदालत खुद अपने ही नियमों के खिलाफ इस तरह सामंती सहूलियत का मजा लेती है, तो जाहिर है कि इस लोकतंत्र में बाकी किस्म की सत्ता भी आम जनता के हकों के ऊपर अपना दावा करेगी, और एम्स का यह ताजा हुक्म उसी का एक सुबूत था।
लोकतंत्र में लोगों के बीच इस तरह का फर्क एक जुर्म है। लोकतंत्र में जुर्म की परिभाषा महज संसद के बनाए कानून से, सरकारों के बनाए नियम से, और अदालतों के फैसलों से तय नहीं होते। लोकतंत्र में जनता के बीच सार्वजनिक पैमानों से भी यह तय होता है कि कौन सी बातें जुर्म हैं। जब तथाकथित वीवीआईपी लोगों के काफिले रफ्तार से ले जाने के लिए चौराहों पर आम जनता को रोका जाता है, एम्बुलेंसों को रोक दिया जाता है, तब दूसरों के हक को कुचलते हुए कुछ चुनिंदा लोग अपनी निहायत गैरजरूरी और नाजायज हड़बड़ी दिखाते हैं। सडक़ पर साइकिल से जाते हुए एक मजदूर के हक के मुकाबले किसी मंत्री-मुख्यमंत्री, जज और अफसर का हक अधिक कैसे हो सकता है? एक मजदूर के काम के मुकाबले इनका काम अधिक महत्वपूर्ण कैसे हो सकता है? दरअसल लोकतंत्र की बुनियादी समझ के मुताबिक तो वीआईपी और वीवीआईपी शब्द बड़ी गालियां हैं, और लोगों को याद होगा कि पूरी दुनिया के इतिहास में लालबत्ती को वेश्याओं के इलाके का एक प्रतीक माना जाता था। आज हिन्दुस्तान जैसे सामंती और तथाकथित लोकतांत्रिक देश में बड़े-बड़े ताकतवर लोग उसी लालबत्ती को अपने सिर पर सजाए चलने को अपना गौरव मानते हैं। यह पूरा सिलसिला खत्म होना चाहिए, और देश के लोगों को डॉक्टरों के उन संगठनों का अहसान मानना चाहिए जिन्होंने केन्द्र सरकार के कर्मचारी होने के बावजूद सरकार और संसद के ऐसे विशेषाधिकार का जमकर विरोध किया, और उसे हटवाकर दम लिया। इसके बजाय तथाकथित वीआईपी लोगों को उस वक्त प्राथमिकता देना बेहतर होगा जब इन्हीं अस्पतालों में भैंसे पर सवार होकर कोई मरीजों को ले जाने के लिए पहुंचेगा। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
महाराष्ट्र की वर्धा नाम की जिस जगह पर गांधी ने बहुत समय गुजारा था, वहां पर उनकी स्मृति में महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय है। यह केन्द्रीय विश्वविद्यालय कई वजहों से अच्छी और बुरी चर्चा में रहता है। लेकिन अब तीन दिन पहले की इसकी एक ताजा चि_ी बड़ी दिलचस्प है। विश्वविद्यालय के कुलसचिव ने सारे लोगों को लिखा है कि परिसर की गौशाला में गौबारस के पावन पर्व पर 21 अक्टूबर को सुबह 8.30 बजे गाय और बछड़े के पूजन का आयोजन किया गया है। सभी विद्यार्थियों, अध्यापकों, कर्मचारियों से अनुरोध है कि इस पूजन में सपरिवार अपनी सहभागिता सुनिश्चित करने का कष्ट करें। आज देश भर में भाजपा शासित प्रदेशों में और केन्द्र सरकार के संस्थानों में हिन्दू धर्म को देश के अकेले धर्म के रूप में एकाधिकार दिलवाने के लिए लगातार एक मुहिम चल रही है। यह उसी मुहिम का एक हिस्सा है।
छत्तीसगढ़ में भी हम कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय में इसी तरह की पूजा-पाठ और हवन देख चुके हैं, जिसकी तस्वीरें विश्वविद्यालय बड़े गर्व से सोशल मीडिया पर पोस्ट करता है। देश के प्रधानमंत्री और दूसरे बड़े सत्तारूढ़ नेता, भाजपा के कई मुख्यमंत्री, और अब कांग्रेस के भी मुख्यमंत्री लगातार मंदिरों में जाते दिखते हैं। कांग्रेस के मुख्यमंत्रियों में फर्क महज इतना है कि वे दूसरे धर्मों के कार्यक्रमों में भी चले जाते हैं, भाजपा के मंत्री-मुख्यमंत्री अपने धर्म तक सीमित रहते हैं, और इनमें किसी गैरहिन्दू की तो अधिक गुंजाइश भी नहीं है। लेकिन इस धार्मिक भेदभाव से धीरे-धीरे देश का एक माहौल जो बड़ी मुश्किल से आधी सदी में जाकर कुछ हद तक धर्मनिरपेक्ष सरीखा हो पाया था, वह तबाह हो गया है, और अब संविधान में संशोधन करके इसे एक हिन्दू राष्ट्र बनाए बिना भी सरकारों की तमाम कोशिशें इसे तमाम व्यवहारिक बातों के लिए हिन्दू राष्ट्र बना चुकी हैं। जेल से गलत तरीके से वक्त के पहले रिहा किए जाने वाले सामूहिक बलात्कारियों को माला और आरती सुप्रीम कोर्ट की आंखों के सामने ही मिल रही हैं, और किसी भी तरह के छोटे-मोटे जुर्म के आरोपी मुसलमानों के परिवार और कारोबार को कुछ घंटों के भीतर बुलडोजर मिल रहा है। हिन्दुस्तान की न्यायपालिका कभी इतनी बेबस और लाचार नहीं दिखी थी कि वह रात-दिन टीवी पर चलने वाले ऐसे नजारों को भी अनदेखा करना शायद अपनी हिफाजत के लिए बेहतर समझती है। उसे न तो सरकारों के संपूर्ण-हिन्दूकरण में कोई दिक्कत दिख रही है, और न ही पुलिस और प्रशासन के पूरी तरह साम्प्रदायिक हो जाने में। यह सिलसिला उन सत्तारूढ़ लोगों के लिए सहूलियत का है, और उनका हौसला बढ़ा रहा है जो कि पूरे देश को एक भगवा रंग में रंग देना चाहते हैं।
जिन विश्वविद्यालयों में अंतरराष्ट्रीय स्तर की पढ़ाई होनी चाहिए, वहां पर एक धर्म के हवन-पूजन का सिलसिला चला हुआ है, देवी-देवताओं के साथ-साथ अब वहां गाय-बछड़े की पूजा भी हो रही है, और उसका बड़ा जलसा हो रहा है, जिसका न तो पढ़ाई से कोई लेना-देना है, और न ही देश की धर्मनिरपेक्षता से। जो जाहिर तौर पर सोच-समझकर एक धर्म को बाकी सब पर लादने की एक हिंसक और हमलावर कोशिश है जो कि पूजा की शक्ल में पेश की जा रही है। यह बात साफ है कि देश की आबादी के गैरहिन्दू तबकों में यह सब देखकर एक निराशा है, और नाराजगी है। उनके बीच यह बात घर कर रही है कि वे सब दूसरे दर्जे के नागरिक हैं, और तमाम नागरिक हक अगर पाने हों, तो उन सबको भी हिन्दू हो जाना चाहिए। देश के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने को जिस रफ्तार के साथ तहस-नहस कर दिया गया है, वह अविश्वसनीय है। दस बरस पहले किसी से यह कल्पना करने को कहा गया होता कि किसी एक धर्म की तानाशाही हिन्दुस्तान पर इस हद तक हावी हो सकती है, तो शायद लोग आसानी से इस बात को नहीं मानते। लेकिन अब इसे साबित करने के लिए किसी सुबूत की भी जरूरत नहीं बची है क्योंकि यह चारों तरफ सरकारी स्तर पर अच्छी तरह से स्थापित है।
दिक्कत यह है कि आज संसद में एक ही सोच का बाहुबल, देश की अधिकतर विधानसभाओं में उसी सोच का बाहुबल ऐसा है कि वह किसी अश्वमेध यज्ञ के घोड़े की तरह चारों तरफ पहुंच रहा है, और अपना झंडा गाड़ रहा है। मतदाताओं के बीच इस सोच ने लोकतांत्रिक संसदीय चुनावों को एक धार्मिक जनगणना की तरह बनाकर रख दिया है। इस बात को हिन्दुस्तान के गैरहिन्दू तो भुगत ही रहे हैं, वे हिन्दू भी भुगत रहे हैं जिनकी ऐसी हमलावर सोच पर कोई आस्था नहीं है। दुनिया के बाकी देशों में जो सभ्य और विकसित लोकतंत्र हैं वे लगातार यह पा रहे हैं कि हिन्दुस्तान में धार्मिक स्वतंत्रता न्यायपूर्ण नहीं रह गई है, एक धर्म की स्वतंत्रता रह गई है, और बाकी धर्मों के लिए इसका अकाल पड़ गया है। इससे आज तो जितना नुकसान हो रहा है, जितना खतरा दिख रहा है, वह तो है ही, इससे भी अधिक बढक़र इसका नुकसान आने वाले बरसों में दिखेगा जब अगली पीढिय़ां अपने इर्द-गिर्द ऐसी ही धार्मिक हिंसा को देखते हुए बड़ी होंगी, और उन्हें यह समझ आएगा कि यही नवसामान्य हिन्दुस्तान है। उन्हें दिक्कत तब होगी जब वे विकसित लोकतंत्रों में काम करने जाएंगे, और उन्हें पता लगेगा कि हिन्दुस्तान के भीतर के धार्मिक भेदभाव और साम्प्रदायिक हिंसा की वजह से उन्हें उन देशों में शर्मिंदगी झेलनी पड़ेगी। धर्मान्धता सिर्फ अफगानिस्तान या ईरान जैसे देशों को अछूत नहीं बनाती, हिन्दुस्तान जैसे देश के खिलाफ भी दुनिया के कई देशों में संसदों में चर्चा हो चुकी है, और कई देशों के संवैधानिक संगठन भारत के इस भेदभाव पर फिक्र कर चुके हैं। ऐसी साम्प्रदायिकता से हिन्दुस्तान अपनी संभावनाओं से कोसों दूर रह जाएगा क्योंकि आबादी के कई हिस्सों को विकास की मूलधारा से काटकर रखने का नुकसान तो हो ही रहा है।
हिन्दुस्तान की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी अभी अपने सबसे बुरे दौर से भी गुजर रही है, और वह इससे उबरने की कोशिश भी कर रही है। कल दशकों बाद कांग्रेस ने एक औपचारिक चुनाव से गांधी-परिवार के बाहर के एक सबसे पुराने नेता मल्लिकार्जुन खडग़े को अपना अध्यक्ष चुना है। आज किसी भी राजनीतिक पार्टी में संगठन के चुनाव में जितनी पारदर्शिता हो सकती है, उससे बहुत अधिक पारदर्शिता के साथ कांग्रेस के संगठन चुनाव हुए हैं, और देश के एक सबसे बुजुर्ग और सबसे अनुभवी दलित नेता को इस चुनौती भरे दौर में इस पार्टी की अगुवाई मिली है। इसे ओहदा मिलना कहना बिल्कुल गलत होगा, खडग़े को यह सिर्फ एक बहुत बड़ी चुनौती मिली है।
कांग्रेस 2014 के बाद से लगातार जमीन खोते जा रही थी, और 2019 के चुनाव के बाद वह हाशिए पर जा चुकी दिख रही थी। लेकिन संसद में सीटें कम होने से कांग्रेस को खारिज कर देना ठीक नहीं है क्योंकि भाजपा के वोटों से आधे वोट रह जाने पर भी कांग्रेस देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी है, न सिर्फ लोकसभा चुनाव में मिले वोटों के आधार पर, बल्कि देश के हर हिस्से में अपनी मौजूदगी की वजह से भी। भाजपा के अलावा कांग्रेस ही अकेली ऐसी पार्टी है जो देश भर में है, और शायद कुछ हिस्से ऐसे हो सकते हैं जहां अभूतपूर्व कामयाब भाजपा की भी मौजूदगी न हो, लेकिन कांग्रेस की मौजूदगी वहां भी होगी। इसलिए कांग्रेस के बिना अगले कई बरस तक हिन्दुस्तानी लोकतंत्र का कोई विपक्ष नहीं हो सकता, और विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी होने के नाते कांग्रेस के सामने ऐतिहासिक जिम्मेदारी भी है, और अभूतपूर्व चुनौती तो पिछले कई बरसों से बनी हुई है ही। खडग़े ने जिस दौर में, करीब 80 बरस की उमर में यह चुनौती पाई है, वह सचमुच ही मुश्किल है, और गांधी परिवार की मौजूदा पीढ़ी के साथ काम करने की एक अजीब सी नौबत भी है।
दरअसल कांग्रेस के पिछले चुनाव जब हुए थे, तब सोनिया गांधी की लीडरशिप नहीं थी, और पिछले दो-ढाई दशक सोनिया और राहुल लगातार पार्टी के अध्यक्ष रहे, किसी औपचारिक चुनाव की कोई जरूरत भी नहीं हुई, और सफलता या असफलता के बावजूद उनकी लीडरशिप को कोई चुनौती भी नहीं थी। लेकिन 2019 का चुनाव हारने के बाद राहुल गांधी ने कांग्रेस अध्यक्ष का पद छोड़ दिया, और तमाम लोगों की तमाम कोशिशों के बावजूद वे दुबारा अध्यक्ष बनने को तैयार नहीं हुए। उनकी जिद के चलते कांग्रेस पिछले दो-तीन बरस से एक बड़े असमंजस के दौर से गुजर रही थी, सोनिया गांधी अनमने ढंग से कामचलाऊ अध्यक्ष बनी हुई थीं, और पार्टी के भीतर के दो दर्जन बड़े नेताओं ने पारदर्शी चुनाव और पार्टी में सुधार की मांग को लेकर एक किस्म से खुली बगावत कर रखी थी। बड़े-बड़े कुछ नेताओं ने फेरबदल न होने पर पार्टी छोड़ भी दी, लेकिन कुल मिलाकर जिस किस्म के चुनाव की मांग की गई थी, वैसा चुनाव कल पूरा हुआ है, और किसी को भी चुनाव लडऩे से रोका नहीं गया, सबको मौका था, गुप्त मतदान हुआ, मिलीजुली मतगणना हुई, गांधी परिवार ने किसी का खुला समर्थन नहीं किया, और मल्लिकार्जुन खडग़े करीब 90 फीसदी वोट पाकर निर्विवाद रूप से अध्यक्ष बने।
इस पूरी पृष्ठभूमि में अब अगर उनके कार्यकाल को देखें, तो जितनी बड़ी चुनौती भाजपा और उसके सहयोगी दलों से चुनाव लडऩे की है, उतनी ही बड़ी चुनौती इस बात की भी है कि अध्यक्ष के अपने कार्यकाल में वे सोनिया परिवार के साथ किस तरह के संबंध रखते हैं, किस तरह उनकी लीडरशिप की खूबियों का इस्तेमाल करते हैं, किस तरह उनकी शोहरत को पार्टी के लिए काम में लाते हैं। यह कांग्रेस का सबसे मुश्किल और चुनौतीभरा दौर है, लोग उन्हें सोनिया-परिवार की पसंद का अध्यक्ष भी मानते हैं, और ऐसे में पार्टी को बांधकर रखने वाले इस परिवार के साथ वे कैसे संबंध रखते हैं, इस पर भी पार्टी के भीतर उनकी कामयाबी टिकेगी। यह बात बहुत जाहिर है कि आज भी न सिर्फ देश के मतदाताओं के बीच बल्कि कांग्रेस के नेताओं और कार्यकर्ताओं के बीच भी सोनिया-परिवार पार्टी के किसी भी दूसरे नेता के मुकाबले अधिक लोकप्रिय है। यह तो राहुल गांधी की जिद थी कि उनके परिवार के बाहर से अध्यक्ष चुने जाएं, इसलिए यह नौबत आई, वरना कितनी भी चुनावी शिकस्त होने पर भी इस परिवार से अधिक बड़े कोई नेता पार्टी में नहीं है, और पार्टी के लोगों को मंजूर नहीं हैं। लेकिन अब यह बात साफ है कि कन्याकुमारी से कश्मीर तक की अभूतपूर्व पदयात्रा पर निकले हुए और धूप में तपकर निखरते हुए राहुल गांधी कांग्रेस के लिए आज सबसे बड़ी ताकत बनकर उभरे हैं। एक किस्म से इतनी ताकत पार्टी के औपचारिक अध्यक्ष के मुकाबले एक दूसरे शक्ति केन्द्र की तरह हो सकती है। और कांग्रेस को, सोनिया परिवार को इस बात का ख्याल रखना पड़ेगा कि उसके आभा मंडल के पीछे निर्वाचित अध्यक्ष दब और छुप न जाएं। पार्टी को मुसीबत से उबारना है तो उसे अपने लोकप्रिय चेहरे को अलग रखना होगा, और निर्वाचित अध्यक्ष की सत्ता को अलग रखना होगा। आज अगर पार्टी के भीतर या मतदाताओं के सामने एक ऐसी तस्वीर जाएगी कि एक बुजुर्ग, वरिष्ठ, और तजुर्बेकार अध्यक्ष के रहते हुए भी सोनिया-परिवार पिछली सीट पर बैठकर कार चला रहा है, तो इससे परिवार के बाहर का अध्यक्ष बनाने का पूरा मकसद ही शिकस्त पाएगा। पार्टी के भीतर सबसे अधिक, अपार ताकत रखते हुए भी इस परिवार को संगठन के मामलों में अपने को दूर रखना होगा, और तभी राहुल गांधी की यह साख बन पाएगी कि वे सचमुच ही पार्टी के बाहर का अध्यक्ष चाहते थे। अगर यह परिवार मालिक की तरह खुद घर बैठकर खडग़े से मैनेजर की तरह काम करवाएगा, तो पार्टी के और बुरे दिन आएंगे, राजनीतिक के साथ-साथ व्यक्तित्व की ईमानदारी की साख भी चौपट होगी। यह एक बड़ी चुनौती रहेगी कि आमतौर पर मुसाहिबों और खुशामदखोरों से घिरे हुए सोनिया-परिवार को संगठन पर अपनी ताकत और पकड़ के इस्तेमाल से अपने को रोकना होगा, अपने को बचाना होगा। इसके साथ-साथ खडग़े के लिए भी यह एक चुनौती रहेगी कि संगठन में वे सोनिया-परिवार के प्रतिद्वंद्वी या विरोधी की तरह न दिखें, और इस परिवार की लोकप्रियता का पार्टी के पक्ष में अधिक से अधिक इस्तेमाल करें। यूपीए सरकार के वक्त मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी की जोड़ी ने यह कर दिखाया था। सोनिया की शासन क्षमता शून्य थी, और मनमोहन सिंह की वोटरों के बीच अपील भी तकरीबन उतनी ही थी। लेकिन मनमोहन सिंह ने दस बरस संगठन के साथ संबंध और सरकार दोनों को बखूबी निभाया था। खडग़े इतने पुराने और इतने किस्म के कामों से आगे बढ़े हुए नेता हैं कि उनके लिए यह बात नामुमकिन नहीं है, मुश्किल जरूर हो सकती है। आज उनकी, कांग्रेस की, और सोनिया-परिवार की साख के लिए यह जरूरी है कि इस परिवार के साथ परस्पर सम्मान का एक संबंध रखते हुए वे कांग्रेस पार्टी को मुसीबत से उबारने की एक स्वायत्त कोशिश करें। किसी भी अगले चुनाव में पार्टी को इस परिवार की लोकप्रियता का सहारा तो मिलते ही रहेगा, फिलहाल उसे देश भर में अपने संगठन को जिंदा और मजबूत करना चाहिए, और भारत का चुनावी-लोकतांत्रिक इतिहास खडग़े और सोनिया-परिवार के इस दौर को बारीकी से दर्ज करेगा।
संयुक्त राष्ट्र संघ की एक बड़ी अफसर प्रमिला पैटन ने अभी कहा है कि रूसी सैनिकों को एक फौजी रणनीति के तहत वियाग्रा देकर यूक्रेन के मोर्चे पर भेजा जा रहा है ताकि कैद की जाने वाली यूक्रेनी महिलाओं, और वहां के बच्चों, आदमियों को बलात्कार करके तमाम यूक्रेनी आबादी में दहशत पैदा की जा सके, और उन्हें हताश किया जा सके। संयुक्त राष्ट्र जो कि आमतौर पर देशों के बीच विवाद में निष्पक्ष बने रहने की भरसक कोशिश करता है, उसकी अफसर की कही गई यह बात भयानक है, और अगर यह सच है तो यह एक नए किस्म का युद्ध अपराध है। वैसे तो दुनिया में जब कभी आम जिंदगी से हटकर कुछ भी होता है, तो उसका पहला शिकार औरतें और बच्चे होते हैं। चाहे यह पर्यटन हो, प्राकृतिक या मानव निर्मित विपदाओं की वजह से बेदखली हो, किसी जंग की वजह से देश छोडक़र जाने को मजबूर आम जनता हो, हर किस्म के अचानक और बुरे हालात की पहली मार औरत-बच्चों पर पड़ती है, और यूक्रेन में भी वही हो रहा है। जिस तरह यूक्रेन से आज करोड़ों लोगों को देश छोडक़र जाना पड़ रहा है, और दूसरे देशों में शरण लेनी पड़ रही है, उससे भी सेक्स-शोषण और मजबूरी में सेक्स के कारोबार के शिकार औरत-बच्चों की भयानक कहानियां अगले कई बरस तक आती ही रहेंगी। लेकिन अपनी फौज को बलात्कारी बनाकर उस तैयारी से भेजने की बात दुनिया की सारी कहानियों से आगे बढक़र दिल दहलाती है।
संयुक्त राष्ट्र संघ की इस महिला अधिकारी की इस बात पर बांग्लादेश से निर्वासित और भारत में शरण पाकर बसी हुई लेखिका तसलीमा नसरीन ने लिखा है कि रूसी सैनिकों को वियाग्रा देकर यूक्रेन भेजा गया है ताकि वे बलात्कार कर सकें, लेकिन 1971 के जंग में पाकिस्तानी फौज ने दो लाख बांग्लादेशी महिलाओं से बलात्कार किया था और उनके पास वियाग्रा भी नहीं थी। तसलीमा ने जो लिखा है वे बातें उस वक्त भी हिन्दुस्तानी, पूर्वी पाकिस्तानी (अब बांग्लादेश) और दुनिया के मीडिया में खुलासे से आई थीं कि किस तरह पश्चिम पाकिस्तान (वर्तमान पाकिस्तान) से आई हुई फौजों ने अपने ही देश के पूर्वी हिस्से की क्रांति को कुचलने के लिए जुल्म ढहाए थे, जिसके तहत महिलाओं से बड़े पैमाने पर बलात्कार किए गए थे। इन्हीं तमाम स्थितियों का जिक्र करते हुए, और पूर्वी पाकिस्तान से भारत में आने वाले करीब एक करोड़ शरणार्थियों का जिक्र करते हुए भारत ने इस जंग में दखल दी थी, और पाकिस्तान की फौज का आत्मसमर्पण करवाया था, और पाकिस्तान के दो टुकड़े करवाए थे। आज दुनिया के अधिकतर हिस्सों से जंग के बीच फौजों के संगठित बलात्कार की खबरें आती हैं, और उन्हें जंग का एक हिस्सा मानकर चला जाता है।
महिलाओं पर जंग का पहला वार शुरू होता है, और वह अंत तक चलते रहता है। लेकिन महिलाओं से भेदभाव के मामले में हमलावर देशों की सरकारें या वहां के फौजी अकेले नहीं रहते। आज जब यूक्रेन पर रूस के परमाणु हमले के खतरे पर अंतरराष्ट्रीय मीडिया में चर्चा चल रही है, अटकलें लगाई जा रही हैं, तब परमाणु हथियारों के इस्तेमाल का कैसा असर होगा, यह सुनना अपने आपमें दहशत तो पैदा करता ही है, लेकिन वैज्ञानिकों के निकाले गए कुछ निष्कर्ष आज ही एक प्रमुख अंतरराष्ट्रीय मीडिया के एक इंटरव्यू में सामने आए हैं जो कि विज्ञान के लैंगिक भेदभाव को बताते हैं। यह भला किसने सोचा होगा कि परमाणु बम बनाने वाले वैज्ञानिकों से यह एक ऐसी विनाशकारी तकनीक बन रही है जो कि औरत और मर्द में भेदभाव करेगी! वैज्ञानिक नतीजे बतलाते हैं कि परमाणु विस्फोट के बाद जो विकिरण फैलता है, या फैलेगा, उसका असर आदमियों के मुकाबले औरतों के बदन पर अधिक होगा, और वयस्कों के मुकाबले बच्चों के बदन पर अधिक होगा। यह तकनीक इस तरह के भेदभाव के साथ जनसंहार करने के लिए बनाई नहीं गई है, लेकिन वैज्ञानिकों ने यह पाया है कि चाहे किसी परमाणु-बिजलीघर से फैले हुए परमाणु विकिरण की बात हो, या परमाणु हथियारों से, महिलाओं के बदन पर इसका असर पुरूषों के
बदन के मुकाबले अधिक होता है। जंग की दुनिया की इस सबसे खतरनाक तकनीक का असर भी इस तरह भेदभाव का हो सकता है यह बात किसी को शायद सूझी भी नहीं होगी, लेकिन यही हकीकत है।
और यह बात महज दुश्मन देशों के बीच फौजियों की की हुई नहीं होती है। देश के भीतर ही जो पुलिस या पैरामिलिट्री हथियारबंद लोग होते हैं, वे भी हथियारबंद संघर्ष के कई मोर्चों पर इस तरह के जुर्म करते मिलते हैं। छत्तीसगढ़ के बस्तर के नक्सल मोर्चे पर कई बार पुलिस और केन्द्रीय सुरक्षा बलों पर स्थानीय गरीब आदिवासी ग्रामीण महिलाओं के साथ बलात्कार और उनके यौन शोषण के आरोप लगते रहे हैं। कुछ लोगों का ऐसा भी मानना रहा है कि बीते करीब दो दशक में बलात्कार को आदिवासी समुदाय का आत्मविश्वास तोडऩे के लिए भी एक मौन सहमति या अनुमति दी गई थी, ताकि समुदाय का आत्मगौरव खत्म हो, उनका आत्मविश्वास कुचल जाए। इस बारे में बिना अधिक सुबूतों के अधिक खुलासे से लिखना ठीक नहीं होगा, लेकिन अभी कुछ बरस पहले तक की पुलिस ज्यादती के दौर में बस्तर में, उत्तर-पूर्वी राज्यों में जगह-जगह सुरक्षाबलों पर इस तरह के आरोप लगते आए हैं। ऐसा लगता है कि दुनिया भर में हथियारबंद वर्दीधारियों के बीच बलात्कार को एक और हथियार की तरह इस्तेमाल करने की एक संस्कृति रही है, और उसे जिस तरह आज शायद रूस वियाग्रा देकर बढ़ावा दे रहा है, उसे कुछ सरकारें अनदेखा करके भी बढ़ावा दे सकती हैं। जब दुनिया के किसी और कोने में इस तरह की फौजी रणनीति सामने आती है, तब बाकी देशों को भी अपने भीतर लगने वाले ऐसे आरोपों, और उनकी अनदेखी के बारे में सोचना चाहिए, आत्मविश्लेषण और आत्ममंथन करना चाहिए।
ईरानी महिलाओं पर हिजाब की बंदिश लादने वाली वहां की इस्लामिक सरकार के खिलाफ जो आंदोलन चल रहा है, वह अभूतपूर्व है। ईरान में करीब 40 बरस पहले शाह की सरकार के खिलाफ तख्तापलट से जो इस्लामिक सरकार आई थी, उसके खिलाफ तब से अब तक इतना मजबूत कोई आंदोलन चला नहीं था। औरत-मर्द की गैरबराबरी वाले ईरानी समाज में ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था कि हिजाब को लेकर आंदोलन हो, और उसमें छात्र-छात्राओं से लेकर बूढ़ों तक सब शामिल हैं, और लड़कियों-औरतों के अलावा लडक़े और मर्द भी शामिल हैं। दुनिया की निगाहों से दूर कट्टर इस्लामी काबू वाले इस देश से भी आज जिस तरह हजारों वीडियो बाहर आ रहे हैं, वे बतलाते हैं कि सरकार के लिए आज वहां चुनौती न सिर्फ बहुत बड़ी है, बल्कि पूरी तरह अभूतपूर्व भी है। ईरानी महिलाएं और लड़कियां हिजाब से आजादी चाहती हैं।
लेकिन यह देखना दिलचस्प है कि ऐन इसी वक्त हिन्दुस्तान का सुप्रीम कोर्ट एक मामले से जूझ रहा है जिसमें भाजपा की सरकार वाले कर्नाटक में सरकार स्कूली पोशाक के साथ हिजाब पहनने वाली लड़कियों के हिजाब उतरवा चुकी है क्योंकि वह पोशाक का हिस्सा नहीं है। अब हिजाब बांधने का हक मांगती हुई मुस्लिम छात्राएं सुप्रीम कोर्ट में हैं। ऐसा भी नहीं है कि हिन्दुस्तान में हर मुस्लिम छात्रा हिजाब बांधना चाहती है। हिन्दुस्तान के मुस्लिम समाज का एक बड़ा हिस्सा बिना बुर्के और बिना हिजाब वाला है। और हिन्दुस्तान के इस स्कूल-यूनिफॉर्म के मुद्दे को योरप के फ्रांस जैसे कई देशों के ताजा कानूनों से जोडक़र देखने की जरूरत है जहां पर सार्वजनिक जगहों पर मुस्लिम महिलाओं के बुर्के पर रोक लगाई जा रही है कि वह योरप की आजाद संस्कृति के खिलाफ है। जिस तरह ईरान में हिजाब न पहनने पर वहां की नैतिकता-पुलिस लड़कियों और महिलाओं को मार-मारकर जेल में डाल रही है, उसी तरह फ्रांस के समुद्र तटों से उन मुस्लिम महिलाओं को हटा दिया जा रहा है जो कि गर्दन से पांव तक पूरे बदन को ढांकने वाली बुर्किनी (बुर्के और बिकिनी को मिलाकर बनाया गया शब्द) पहनी हुई रहती हैं। योरप में कई जगहों पर यह माना जा रहा है कि ऐसे धार्मिक रिवाज मुस्लिमों को वहां के स्थानीय समाज के साथ घुलने-मिलने में बाधा बन रहे हैं।
अब हिन्दुस्तान और योरप की चर्चा के बाद कुछ अमरीका की चर्चा जरूरी है जहां पर अभी कुछ महीने पहले अमरीकी इतिहास के सबसे संकीर्णतावादी जजों से भर गए सुप्रीम कोर्ट ने 50 बरस पहले से महिलाओं को गर्भपात का मिला हुआ हक खारिज कर दिया है। अब गर्भ के शुरू के दो-चार हफ्तों के बाद कोई गर्भपात नहीं हो सकता, वह सजा के लायक जुर्म करार दिया गया है। वहां पर सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के खिलाफ बहुत बड़ा जनमत खड़ा हो गया है और दुनिया के इस एक सबसे विकसित देश में आज आधी आबादी आधी सदी का यह हक खो बैठी है। अमरीकी समाज यह नहीं समझ पा रहा है कि दकियानूसी सोच वाले जो जज सुप्रीम कोर्ट में बहुमत में आ गए हैं, वे आने वाले महीनों में और कौन-कौन से तबाह करने वाले फैसले देंगे।
इन अलग-अलग बातों की चर्चा एक साथ इसलिए की जा रही है कि इन सबमें एक बात एक सरीखी है। ये सारी की सारी बातें एक महिला की अपनी पसंद को लेकर है कि उसे अपनी पोशाक से लेकर अपने बदन, और अपनी कोख तक पर अपना हक मिलना चाहिए। ईरान में हर महिला हिजाब के खिलाफ नहीं हैं, और वहां आंदोलन कर रही जनता उन महिलाओं का हिजाब उतरवाने के लिए सडक़ों पर नहीं हैं जो उन्हें पहनना नहीं चाहतीं। आंदोलन इसलिए है कि लोगों को अपनी मर्जी से पहनने या न पहनने के हक की आजादी रहे। इसी तरह हिन्दुस्तान में स्कूली पोशाक में हिजाब पहनने की मांग करने वाली छात्राओं की भी मांग यही है कि यह उनकी पसंद होना चाहिए कि वे हिजाब पहने या न पहनें। योरप में भी फ्रांस और कुछ दूसरे देशों में बुर्के और बुर्किनी पर लगाई गई रोक को बहुत से लोग इसलिए गलत मान रहे हैं कि यह रोक महिला से उसकी पसंद के हक को छीन रही है। अमरीका में महिलाओं का और बाकी तमाम लोगों का सुप्रीम कोर्ट के फैसले का विरोध इसलिए चल रहा है कि यह फैसला महिला के गर्भपात के फैसले का हक छीनता है।
इन सब बातों को एक साथ देखें तो मामला महिला की पसंद का है कि पोशाक से लेकर अपने गर्भ तक उसकी अपनी पसंद चलनी चाहिए। अब दिलचस्प और अटपटी बात यह है कि इससे जूझ रही सरकारें ईरान, हिन्दुस्तान, फ्रांस, और अमरीका जैसे देशों की सरकारें हैं। इनमें से सिर्फ अमरीका की सरकार है जो कि खुद आंदोलनकारी महिलाओं के साथ खड़ी है, और जो अमरीकी सुप्रीम कोर्ट के फैसले से पूरी तरह असहमत है। आज मुद्दा सरकारों का अकेले का न होकर अदालतों का हो गया है। हिन्दुस्तान में भी कर्नाटक के यूनिफॉर्म मामले में कर्नाटक हाईकोर्ट ने सरकार से सहमति जताई है, और छात्राओं को पोशाक के साथ हिजाब पहनने का हक देने से मना कर दिया है। सुप्रीम कोर्ट में भी दो जजों में से एक इसी सोच के निकले, और दोनों जजों में असहमति की वजह से हिजाब का मामला अब बड़ी बेंच के लिए भेजा गया है।
दुनिया के अलग-अलग लोकतंत्रों या तानाशाहियों में, धार्मिक कट्टरता या बहुत अधिक लोकतांत्रिक उदारता की वजह से महिलाओं को हक देने के मामले में जो तंगदिली सरकारों से लेकर अदालतों तक सामने आ रही है, वह सारी तंगदिली बहुत हद तक मर्दों के बनाए हुए कानूनों और सामाजिक रिवाजों पर टिकी है। आज दुनिया में बहुत साफ-साफ यह समझने की जरूरत है कि महिलाओं को अपनी पोशाक और अपने बदन पर हक मिलना चाहिए, और उनके हिस्से का हक कोई सरकार या अदालत तय न करे। इस हिसाब से आज अगर ईरान में इस निहत्थी, अहिंसक नागरिक क्रांति के चलते सरकार भी उखाडक़र फेंक दी जाए, तो वह भी जायज होगा। हिन्दुस्तान की सरकारों और अदालतों को, और बाकी देशों में भी सरकारों और अदालतों को यह समझना चाहिए कि दबाव डालकर किसी महिला से धार्मिक और सामाजिक रीति-रिवाज मनवाना, या छीनना, दोनों ही गलत है। आज दुनिया भर में अलग-अलग जगहों पर चल रहे इन मुद्दों को एक साथ जोडक़र देखना जरूरी है।
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केरल में अभी कुछ दिन पहले एक तांत्रिक ने एक पति-पत्नी को दौलत दिलाने के लालच में ऐसा फंसाया कि वे मानव बलि देने के लिए तैयार हो गए। देवी को खुश करने के नाम पर पहले एक बलि दी गई, फिर कहा गया कि देवी अब तक खुश नहीं हुई है, तो दूसरी बलि दी गई, और इन लाशों का मांस पकाकर खाया गया, उसके टुकड़े-टुकड़े करके घर के कई कोनों में गाड़ दिए गए, और अब जब सारी गिरफ्तारियां हो चुकी हैं, तो केरल के लोग हक्का-बक्का हैं कि उनके बीच के लोगों ने यह कैसा काम किया है। यह बात कुछ अधिक हैरान इसलिए भी करती है कि केरल हिन्दुस्तान में सबसे अधिक पढ़ा-लिखा राज्य है, वहां के लोग तरह-तरह के कामगार हैं, दुनिया के कई कोनों में जाकर काम करते हैं, वहां राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय पर्यटकों की आवाजाही भी रहती है, और वहां के लोग शहरी समाज से कटे हुए किसी जंगल के लोग नहीं हैं। विज्ञान और टेक्नालॉजी की केरल के लोगों में सबसे अधिक समझ है, और इसलिए यह बात हैरान करती है। यह तांत्रिक एक मुस्लिम है जिसने एक हिन्दू दम्पत्ति को झांसा देकर मानव बलि के लिए तैयार किया, और ताजा जानकारी यह भी कहती है कि यह तांत्रिक पति के सामने ही उसकी पत्नी से सेक्स करता था, और इन सबसे देवी के खुश होने का दावा भी करता था। इस मामले की बाकी जानकारी दिल दहलाने वाली है, और इस तरह से बलि देकर इंसानी गोश्त खाने का यह भयानक मामला है।
केरल के इस ताजा मामले से एक बार फिर यह बात मजबूती के साथ स्थापित होती है कि विज्ञान, टेक्नालॉजी, या दूसरे किसी किस्म की आधुनिक औपचारिक शिक्षा लोगों को कितना भी समझदार बना ले, धर्म में उन्हें झांसा देने की, उनसे गलत काम करवाने की अपार क्षमता उससे ऊपर ही रहती है। अब जिस केरल के लोग सारे हिन्दुस्तान में तकनीकी दक्षता के लिए जाने जाते हैं, अंग्रेजी टायपिंग से लेकर चिकित्सा विज्ञान में टेक्नीशियन तक, हर किस्म के काम में केरल के लोगों को बेहतर माना जाता है, या वे अधिक दिखते हैं। वामपंथी प्रभाव वाला राज्य होने की वजह से केरल में सामाजिक जागरूकता भी काफी रही है, लेकिन इस ताजा हादसे से ऐसा लगता है कि समाज में हर कोई बराबर हद तक प्रभावित नहीं हो पाते हैं। तमाम विकास और शिक्षा के बावजूद अंधविश्वास कुछ लोगों में इतना गहरा बैठा है, धर्मान्धता इतनी गहरी बैठी है कि लोग मानव बलि और इंसानी गोश्त खाकर देवी को खुश कर रहे हैं। वैसे हम कई बार इस बात को लिखते हैं कि धर्म कई तरह की हिंसा सिखाता है, और धर्म का बुनियादी मिजाज हिंसक ही रहता है। वह अपने धर्म से परे के लोगों के साथ किसी भी दर्जे की हिंसा करने का आदी भी रहता है। ऐसे में अपनी देवी को खुश करने के लिए कुछ दूसरे लोगों की बलि दे देने में धर्मान्ध और अंधविश्वासी लोगों को लगता है कि अधिक दिक्कत नहीं हुई है। और अब तक जो जानकारी आई है उसके मुताबिक यह काम करने वाले लोग मानसिक रोगी भी नहीं पाए गए हैं। आमतौर पर इस किस्म के जुर्म में शामिल लोगों के बारे में लोग तुरंत ही उनके मानसिक रोगी होने का निष्कर्ष निकाल लेते हैं। लेकिन इस मामले को देखकर लगता है कि धर्म अपने आपमें एक बहुत खतरनाक मानसिक रोग है।
हिन्दुस्तान में अभी सौ-डेढ़ सौ बरस पहले तक किसी भी बड़े निर्माण के वक्त, उस जगह पर मानव बलि देने का एक रिवाज था। बड़े-बड़े पुल या बांध बनाते हुए बलि दी जाती थी, और कुछ जगहों पर तो उसका जिक्र करते हुए शिलालेख अब तक लगे हुए हैं। आमतौर पर इसके लिए गरीब दलितों को छांटा जाता था, जिनकी मौत पर कोई बवाल भी खड़ा नहीं होता था। धर्म की यह गजब की खूबी है कि जिस दलित की छाया भी किसी धार्मिक आयोजन पर नहीं पडऩी चाहिए, उस धार्मिक आयोजन में दलित को बलि चढ़ाने पर कोई रोक नहीं थी। धर्म समाज की जाति व्यवस्था की बुनियाद में भी रहा है, और समाज की अन्यायपूर्ण व्यवस्था ने धर्म के साथ मिलकर एक-दूसरे को अधिक हिंसक भी बनाया है। केरल के मानव बलि के इस मामले को कुछ देर के लिए अलग भी रख दें, तो भी हिन्दुस्तान में धर्म की हिंसक शक्ल पर गौर करने की जरूरत है। हर गली-मुहल्ले में या किसी घर में होने वाले धार्मिक कार्यक्रम रास्ता रोकने से लेकर लाउडस्पीकर तक कई तरह से अराजक और हिंसक दिखते हैं, और एक-दूसरे के देखादेखी किसी एक धर्म के भीतर भी, और फिर मुकाबले में दूसरे धर्मों में भी यह अराजकता बढ़ती चलती है। अंधविश्वास धर्म का एक अनिवार्य तत्व है क्योंकि वैज्ञानिक सोच तो धर्म को पूरे का पूरा खारिज ही कर देती है, इसलिए वैज्ञानिक सोच को दफन करके ही उसके ऊपर धर्म का साम्राज्य खड़ा हो पाता है। पिछले कुछ चुनावों से हिन्दुस्तान में लगातार धर्म, धर्मान्धता, और धार्मिक हिंसा को इतना बढ़ावा दिया जा रहा है कि वह लोगों की लोकतांत्रिक सोच को पूरी तरह कुचलकर रख दे, और वोटर न्यायसंगत, तर्कसंगत तरीके से कुछ सोच ही न पाएं। ऐसा सिलसिला देश के लोगों की वैज्ञानिक सोच को भी खत्म करता है, और मानव बलि से नीचे भी कई किस्म के हिंसक पाखंड समाज में होते रहते हैं जो कि पुलिस और खबरों तक नहीं आ पाते। अब इसी मामले में अगर दो लोगों की बलि नहीं दी गई होती, उसका भांडाफोड़ नहीं हुआ रहता, तो देवी को खुश करने के नाम पर पति के सामने पत्नी से बलात्कार की बात तो कभी सामने आ भी नहीं पाती। और यह बात केरल में ही नहीं है, अधिकतर प्रदेशों में कहीं न कहीं से ऐसी खबर आती है कि भूतप्रेत उतारने के नाम पर, या बच्चा पैदा करवाने के नाम पर धर्मों से जुड़े हुए तरह-तरह के तांत्रिक या दूसरे धर्मों के लोग बलात्कार करते हैं। सबसे तकलीफ की बात यह है कि अंधविश्वास के शिकार परिवार ऐसे बलात्कार से सहमत भी रहते हैं, और इसके गवाह भी रहते हैं। जिन लोगों को ऐसी घटना एक अकेली घटना लगती है, किसी बीमार दिमाग का काम लगती है, उन्हें यह समझ लेना चाहिए कि एक देश और समाज के रूप में हिन्दुस्तान धर्म और धर्मान्धता का शिकार होकर, हिंसा को मान्यता देकर एक बीमार दिमाग वाला समाज बन ही चुका है, और इसकी हिंसा तरह-तरह से लोगों को अपना शिकार बना रही है, यह एक और बात है कि यह हिंसा आमतौर पर पुलिस और खबरों तक पहुंचने जितनी गंभीर नहीं रहती है, इसलिए अनदेखी रह जाती है।
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अपने आपको हिन्दुस्तान का सबसे बड़ा राष्ट्रवादी और देशभक्त कारोबारी साबित करने वाले, स्वघोषित बाबा, रामदेव की ताजा बकवास सामने आई है जिसमें किसी नशाविरोधी सार्वजनिक कार्यक्रम में वह मुस्लिम लोगों के नाम लेकर उनके नशा करने के बारे में बोल रहा है। रामदेव ने मंच और माईक से जब कई बार यह कहा कि सलमान खान का बेटा ड्रग्स लेते हुए पकड़ाया और जेल गया, तो लोगों ने उन्हें सुधारा, और कहा कि वह सलमान का नहीं, शाहरूख खान का बेटा था, तो रामदेव ने कहा कि शाहरूख का बच्चा ड्रग्स लेते पकड़ा गया, और सलमान भी ड्रग्स लेता है। उन्होंने कहा आमिर ड्रग्स लेता है या नहीं, यह पता नहीं, पूरा बॉलीवुड आज ड्रग्स की चपेट में है, एक्ट्रेस का तो भगवान ही मालिक है। फिर बॉलीवुड से परे इतिहास में जाकर उन्होंने कहा कि इस्लाम में अगर कोई शराब पी ले, या उसे हाथ भी लगा दे, तो उसे नापाक कहते हैं, लेकिन जिन्ना दारू पीता था, अच्छा हुआ मर गया।
वैसे तो रामदेव नाम का यह बकवासी आदमी किसी गंभीर टिप्पणी के लायक नहीं है, लेकिन जब वह इस देश में एक साम्प्रदायिक नफरत को फैलाने की ऐसी खुली और हिंसक कोशिश करता है, तो उसकी इस बदनीयत के खिलाफ लिखना भी जरूरी है। चूंकि देश के हर कस्बे तक इसके सामानों की दुकानें खुल चुकी हैं, यह खुद कई टीवी चैनलों का मालिक है, देश के सबसे मान्यता प्राप्त, और जीवनरक्षक इलाज, एलोपैथी के खिलाफ तरह-तरह की बकवास करने के बाद माफी मांगने को मजबूर हो चुका है, और फिर भी इसकी आदत जाती नहीं है, इसलिए इसकी बकवास के पीछे की साम्प्रदायिकता को उजागर करना जरूरी है।
लोगों को याद होगा कि यूपीए सरकार के समय उसे हटाने की नीयत से गांधी टोपी की आड़ में अन्ना हजारे ने जो बेईमान आंदोलन शुरू किया था, उसने मनमोहन सिंह सरकार को इस हद तक बदनाम करने में कामयाबी पाई थी कि मोदी के प्रधानमंत्री बनने की राह आसान हो गई थी। उस आंदोलन में रामदेव भी शामिल था, और देश भर में महज अकेली कांग्रेस पार्टी के भ्रष्टाचार के खिलाफ झंडा उठाकर रामदेव ने धर्म से लेकर आध्यात्म तक, और राष्ट्रवाद से लेकर फर्जी फतवों तक का सहारा लिया, और कांग्रेसविरोधी और मोदी समर्थक अभियान चलाया। टीवी के कार्यक्रमों में रामदेव मोदी सरकार आने पर 35 रूपये में डॉलर, और 35 रूपये में पेट्रोल दिलवाने की मुनादी कर रहा था, और विदेश से कालाधन लाकर देश के हर नागरिक के खाते में 15-15 लाख रूपये डलवाने की गारंटी भी दे रहा था। आज जब डॉलर और पेट्रोल दोनों ही मनमोहन सरकार के वक्त से डेढ़ गुने से अधिक महंगे होते दिख रहे हैं, तो बाबा की बोलती बंद है। अब उसे न डॉलर दिखता, न डीजल-पेट्रोल, और 15 लाख रूपये की बात तो वह सहूलियत के साथ भूल ही चुका है।
अब इस आदमी की नफरती नीयत इस ताजा भाषण से उजागर होती है जिसमें वह नशे के सिलसिले में चार मुस्लिमों के नाम लेता है, मानो मुस्लिमों के अलावा इस देश में और कोई नशा करते ही नहीं हैं, और न ही इतिहास में जिन्ना के अलावा कोई शराबी हुआ है। यह आदमी सलमान खान के ड्रग्स लेने की बात को इस दमखम से बोल रहा है कि मानो इसने खुद पतंजलि में सलमान खान का ड्रग टेस्ट किया हो। सच तो यह है कि आज सलमान खान अपनी आर्थिक क्षमता और रामदेव के आर्थिक साम्राज्य दोनों के मुताबिक हजार करोड़ रूपये का मानहानि का दावा करे, तो रामदेव की अकल पल भर में ठिकाने आ जाएगी। फिल्म इंडस्ट्री में कौन-कौन नशा नहीं करता है, इसका अंदाज लगाने के लिए भी रामदेव को एक और मुस्लिम कलाकार मिलता है, और वह कहता है कि आमिर ड्रग्स लेता है या नहीं, यह पता नहीं। कुल मिलाकर यह है कि नशे के संदर्भ में रामदेव को मुस्लिमों के अलावा और कोई नहीं दिखता। और यह बात मासूम बात नहीं है। इसके साथ-साथ नशे के सिलसिले में जब यह भगवाधारी, जटाजूटी, साधूनुमा आदमी कहता है कि एक्ट्रेस का तो भगवान ही मालिक है, तो यह बॉलीवुड की तमाम अभिनेत्रियों पर शक की उंगली भी उठाता है। इस आदमी को लोग दो वजहों से माफ करते आए हैं, बहुत से लोगों का यह मानना है कि साधू के हुलिए में जो भगवाधारी है, उसके सौ कतल माफ होते हैं, और ऐसे धर्मालु लोग रामदेव की हर बकवास को भक्तिभाव से सुनते हैं। दूसरे जो लोग रामदेव की हकीकत को जानते-समझते हैं, वे लोग इसे बुनियादी-बकवासी मानकर एक गैरगंभीर की तरह अनदेखा कर देते हैं। लेकिन हम इस पर इसलिए लिख रहे हैं कि हम भगवे की आड़ में नफरत फैलाने की ऐसी साम्प्रदायिक हरकत को अनदेखा करने की गैरजिम्मेदारी दिखाना नहीं चाहते। यह आदमी परले दर्जे का काईयां और धूर्त है, यह समय-समय पर अपने कारोबार के लिए तिरंगे झंडे की आड़ लेता है, राष्ट्रवाद की आड़ लेता है, योग और ऋषिमुनियों की आड़ लेता है। यह भाड़े के हत्यारे की तरह का सुपारी-आंदोलनकारी है जो कि किसी नाजुक वक्त पर किसी चुनिंदा निशाने के खिलाफ आंदोलन और अभियान का ठेका लेता है। कोई हैरानी नहीं होगी कि इसने आज बॉलीवुड के एक मुस्लिम-विरोधी तबके से ऐसी बकवास करने की कोई सुपारी ली हो। सलमान खान एक ऐसे पेशे में हैं कि वे शायद इस देश की जनता के एक बड़े धर्मान्ध और मुस्लिम-विरोधी तबके की नाराजगी लेना न चाहें, क्योंकि फिल्मों के दर्शक तो वे लोग भी होते हैं। वरना यह सही मौका है कि रामदेव को एक सबक सिखाया जाए, अदालत में घसीटा जाए, और यह साबित करने को कहा जाए कि सलमान खान ड्रग्स लेते हैं, यह साबित करे। अदालत में यह भी पूछा जाना चाहिए कि नशे के सिलसिले में इसे महज मुस्लिम नाम क्यों याद आते हैं? रामदेव की सोच के एकदम करीब वाले हिन्दुस्तान के एक भूतपूर्व प्रधानमंत्री ने तो अपने शराब पीने की बात को बहुत रहस्य बनाकर भी नहीं रखा था, और उनकी शराब के बारे में जानकारी हजारों लोगों को थी। रामदेव को ऐसी मिसालें इसलिए नहीं सूझतीं कि इनसे मुस्लिमों को बदनाम करने का उसका मौका कुछ कमजोर हो जाएगा। हम सार्वजनिक जीवन के किसी भी चर्चित और बड़े व्यक्ति की ऐसी साजिशों को अनदेखा करने के खिलाफ हैं, और इन्हें सार्वजनिक रूप से धिक्कारा जाना चाहिए, इनकी बदनीयत का भांडाफोड़ किया जाना चाहिए।
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हिन्दी टीवी पर पारिवारिक मनोरंजन के नाम पर तरह-तरह की कुंठा और भड़ास को बढ़ाने की बेताज महारानी एकता कपूर अब सुप्रीम कोर्ट पहुंचकर एक मामले में घिरी हैं, और जजों की आलोचना का शिकार हो रही हैं। पारिवारिक साजिशों, कटुता और कुटिलता के अंतहीन धारावाहिक बना-बनाकर एकता कपूर ने हिन्दुस्तान की आबादी के एक बड़े हिस्से के लिए पारिवारिक जहर घोल रखा है, लेकिन आज का अदालती मामला एक दूसरे धारावाहिक को लेकर है। एकता कपूर ने अपने ओटीटी प्लेटफॉर्म की एक वेबसिरीज में एक सैनिक की पत्नी को लेकर एक किरदार गढ़ा है, और इसे लेकर बिहार की एक जिला अदालत ने एक पूर्व सैनिक की शिकायत पर एकता कपूर के खिलाफ वारंट जारी किया है, उसके खिलाफ एकता कपूर सुप्रीम कोर्ट पहुंची हुई हैं। सुप्रीम कोर्ट के दो जजों ने सुनवाई के दौरान कहा कि एकता कपूर इस देश की युवा पीढ़ी का दिमाग प्रदूषित कर रही हैं। वे लोगों को किस तरह का विकल्प दे रही हैं? जजों ने यह भी साफ किया कि सिर्फ इसलिए कि वे बड़े वकील की सेवाएं ले सकती हैं, सुप्रीम कोर्ट उनकी बात सुनने को मजबूर नहीं है। जजों ने कहा कि यह अदालत उनके लिए काम करती है जिनके पास आवाज नहीं है।
इस मामले से दो-तीन बुनियादी सवाल उठते हैं। एकता कपूर द्वारा बड़े पैमाने पर हिन्दी दर्शकों के लिए फैलाई जा रही मानसिक गंदगी के बारे में हम पहले भी कई बार लिख चुके हैं। और चूंकि गंदगी के दर्शक हमेशा ही रहते हैं, अपराध कथाओं की पत्रिकाएं टीवी पर अपराध के कार्यक्रम आने के पहले तक किसी भी दूसरी पत्रिका से अधिक बिकती थीं। जब तक कम अक्ल लोग अपने लिए बेहतर सामग्री छांटने के लायक नहीं रहेंगे, न सिर्फ घटिया सीरियल चलेंगे, बल्कि घटिया अखबार, घटिया टीवी समाचार चैनल अधिक कामयाब रहेंगे, और हैं भी। लेकिन एकता कपूर की इस गंदगी से परे इस मामले से जुड़ा हुआ एक अलग बुनियादी सवाल और है जिसे अनदेखा करना हम नहीं चाहते। जब सुप्रीम कोर्ट के दो जज एकता कपूर को फटकार लगा रहे हैं, तो हमारे लिए भी यह आसान हो जाता है कि हम भी गड्ढे में गिरे हुए हाथी को दो लात मार दें। लेकिन अदालत की इस फटकार से परे भी इस मुद्दे को लेकर यह समझने की जरूरत है कि एक भूतपूर्व सैनिक ने अगर किसी सीरियल की कहानी में एक सैनिक की पत्नी के किरदार को सैनिकों का अपमान माना है, तो क्या इस आधार पर किसी फिल्मकार के खिलाफ अदालत में मामला दर्ज होना चाहिए, और उसकी गिरफ्तारी होनी चाहिए? ऐसा होने पर कल के दिन मुम्बई के किसी मोहल्ले के लोग अदालत जा सकते हैं कि उनके इलाके को मुजरिमों का अड्डा बताया गया है, और इससे उनका इलाका बदनाम हो रहा है, वहां की प्रापर्टी के रेट गिर रहे हैं। अनगिनत हिन्दी फिल्मों में गांव के सबसे बड़े गुंडे और बलात्कारी को ठाकुर बताया गया है, तो क्या ठाकुर लोग इसका विरोध करें कि उनकी जाति बदनाम हो रही है? तमाम सूदखोर, काईयां कारोबारी बनिया बताए जाते हैं, तो क्या बनिया जातियां ऐसे किरदारों का विरोध करें? एक जिला अदालत के सोचने की सीमाएं रहती हैं। वे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की असीमित संभावनाओं की व्याख्या करने की सही जगह नहीं रहतीं, लेकिन जब इस मामले से जुड़ी एक अपील सुप्रीम कोर्ट में चल रही है, और सुप्रीम कोर्ट के जज एक सीरियल की सामग्री पर टिप्पणी कर रहे हैं, तो यह सामग्री और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर एक बुनियादी बहस है, और इस पर जमानत अर्जी से अलग भी बात होनी चाहिए।
आज अगर एक लेखक या फिल्म-सीरियल निर्देशक एक काल्पनिक कथानक में भी किसी किरदार को इसलिए नकारात्मक दिखाने से रोक दिए जाएं कि उससे सैनिकों के परिवारों की भावनाओं को ठेस पहुंच रही है, तो फिर ऐसे कौन से नकारात्मक किरदार हो सकते हैं जिनसे किसी तबके की भावना का ठेस न पहुंचे? कहीं किसी की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचेगी, कहीं जाति की भावना को, और कहीं किसी पेशे से जुड़े हुए लोगों की भावनाओं को। और भला ऐसा कौन सा तबका हो सकता है जिसके भीतर कोई गलत लोग न हों, या जिसके लोग कोई गलती न करते हों? और सेना को या अदालत को किसी अतिरिक्त सम्मान और पवित्र भावना से देखने की जरूरत इसलिए नहीं है कि देश और समाज के बाकी तबकों की तरह इन तबकों में भी सभी किस्म के गलत लोगों को यह देश देख चुका है। सेना के लोगों को बेईमानी और भ्रष्टाचार करते हुए, देशद्रोह करते हुए दुश्मन देश के लिए जासूसी करते भी हर कुछ महीनों में पकड़ा जाता है। इसलिए जहां किसी रचनात्मक कलाकृति, या लेखक-फिल्मकार की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात आती है, तो किसी एक नकारात्मक किरदार से किसी तबके की भावनाओं को आहत होने की बात मानने लायक नहीं है। अगर ऐसी तंग सीमाएं लागू की जाएंगी, तो अच्छी रचनात्मकता भी खत्म हो जाएगी, एकता कपूर की रचनात्मकता हो सकता है कि घटिया दर्जे की भी हो। लेकिन जब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बुनियादी बात की जाएगी, तो उसमें संदेह का लाभ न सिर्फ अच्छे रचनाकारों को मिलता है, बल्कि बुरे रचनाकारों को भी मिलता है। स्वतंत्रता को अनिवार्य रूप से उत्कृष्टता के साथ जोडक़र नहीं देखा जा सकता। इस देश में आजाद रहने का जितना हक एक पुलिस को है, उतना ही हक एक चोर को भी है। जुर्म पर सजा के पहले और बाद बुरे लोग भी आजाद ही रहते हैं, और यही लोकतंत्र है। सुप्रीम कोर्ट के जजों ने जिला अदालत के जारी किए हुए वारंट के खिलाफ सुनवाई करते हुए इस सीरियल पर भी टिप्पणी की है, जबकि यह सीरियल इस अदालत में बहस का मुद्दा नहीं था, और जिस निचली अदालत में यह बहस चलनी है, उसके छोटे से जज पर सुप्रीम कोर्ट के दो जजों की भारी-भरकम टिप्पणियों का एक नाजायज असर भी हो सकता है। इसलिए अब अभिव्यक्ति की इस किस्म की आजादी पर बहस बिहार के एक जिले की अदालत में आसान भी नहीं रह गई है। कल सुप्रीम कोर्ट में जो हुआ, उसके इस पहलू को भी अनदेखा नहीं करना चाहिए कि जजों ने निचली अदालत के न्याय क्षेत्र के पहलुओं पर अपनी राय दी है, जो कि निष्पक्ष न्याय की संभावनाओं को घटा सकती है।
एकता कपूर के आलोचकों को यह सिलसिला आज अच्छा लग सकता है, लेकिन कल अगर ऐसी ही अदालती नजीरों की बुनियाद पर श्याम बेनेगल जैसे किसी अच्छे निर्देशक की फिल्म या सीरियल पर भी रोक लगा दी जाएगी कि उसके किसी किरदार के काम किसी तबके को नाराज कर रहे हैं, तब क्या होगा? जब देश की सबसे बड़ी अदालत कुछ कहती है तो उसके दूरगामी प्रभावों को भी सोच लेना चाहिए। आज घेरे में एकता कपूर है, कल यही मिसाल बेहतर लोगों पर भी लागू होगी, और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर खतरा बनेगी। यह मामला सोच-समझकर आगे बढऩे का है, सुप्रीम कोर्ट जजों की तीखी बातों पर तालियां बजाने का नहीं है।
हिन्दुस्तान की इन दिनों की खबरें देखें तो कहीं हरियाणा में मस्जिद में घुसकर नमाज पढ़ते लोगों की पिटाई, और गांव से निकालने की धमकी दिखाई देती है, तो कहीं यूपी के बागपत में एक मुस्लिम की पीट-पीटकर हत्या करने वाले और जयश्रीराम का नारा लगाकर फरार होने वाले चार हिन्दू युवकों को गिरफ्तार किया गया है। इसके पहले कर्नाटक के एक मदरसे में घुसकर जबर्दस्ती वहां पूजा करने वाले कुछ लोगों को पुलिस ने गिरफ्तार किया है। दिल्ली में भाजपा के सांसद परवेश वर्मा ने अभी एक सार्वजनिक कार्यक्रम में मंच और माईक से एक समुदाय के पूरे बहिष्कार की बात कही है और कहा है कि इस समुदाय की अक्ल ठिकाने लगानी है तो फिर इनकी दुकानों का बहिष्कार करो, इनके लोगों के ठेलों से कुछ न खरीदो, और इन्हें रोजगार भी न दो।
हिन्दुस्तान में एक दिन भी ऐसा नहीं गुजरता है जब मुस्लिमविरोधी लोग देश में कहीं न कहीं इस तरह की हरकतें न करते हों, या इस तरह के फतवे जारी न करते हों। हर कुछ हफ्तों में भीड़त्या दिखाई पड़ती है जिसमें जानवर ले जा रहे डेयरी कारोबारी भी पीट-पीटकर मारे जाते हैं, या किसी के पास किसी भी तरह का गोश्त मिलने पर उसे गोमांस के शक में मार दिया जाता है। देश की अदालतें मुस्लिमों से जुड़े मुद्दों पर बहसों से भरी हुई हैं, और ऐसा लगता है कि तमाम देश ही इस एक समाज में सुधार करने पर आमादा है। कर्नाटक में मुस्लिम छात्राओं के बाल और कान न दिखने पर मानो हिन्दू छात्र-छात्राओं का मन पढ़ाई की तरफ से हट जा रहा है, और मुस्लिम बच्चियों के पढऩे की संभावना को भी हिजाब हटाने की जिदतले दफन कर दिया जा रहा है। पूरा का पूरा देश एक ऐसे जुनून से भर दिया जा रहा है कि जो कुछ मुस्लिम है, वह गलत है, उसमें सुधार और मरम्मत होनी चाहिए, रिवाजों में मरम्मत के साथ-साथ मुस्लिमों की मरम्मत भी होनी चाहिए, और इन तब तक सामाजिक बहिष्कार होना चाहिए जब तक ये भूखे मरकर सुधर न जाएं, बदल न जाएं। नफरत के ऐसे सैलाब के बीच झांसा और धोखा देने के लिए तरह-तरह की बातें की जाती हैं, मुस्लिमों का डीएनए हिन्दुस्तान के हिन्दुओं के डीएनए वाला ही बताया जाता है, और ऐसे डीएनए-भाई को कूट-कूटकर उसका कीमा बना देने का भाईचारा दिखाया जाता है।
दिक्कत यह नहीं है कि समाज का एक छोटा हिस्सा इतना हिंसक हो गया है, और लोकतंत्र के सारे संवैधानिक स्तंभ इस तरह बेअसर हो गए हैं, बेरहम हो गए हैं कि वे एक स्कूली बच्ची की पढ़ाई छुड़वा देने की कीमत पर भी उसका हिजाब उतरवाने पर आमादा हैं मानो उसके हिन्दू सहपाठियों की पढ़ाई उसके बाल और कान देखकर बेहतर हो जाएगी। यह पूरा सिलसिला कम खतरनाक है, अधिक खतरनाक है देश की बहुसंख्यक आबादी के बहुसंख्यक हिस्से का ऐसी हिंसा की तरफ से बेपरवाह हो जाना। यह हिन्दुस्तानी लोकतंत्र में अब एक नया सामान्य वातावरण है, एक नवसामान्य माहौल। हिंसा जितनी खतरनाक होती है उससे कहीं अधिक खतरनाक हिंसा के लिए बर्दाश्त होती है। अब मुस्लिमों के साथ हिंसा हिन्दुस्तान के मीडिया के एक बड़े हिस्से में तो तब तक खबर नहीं बनती, जब तक सोशल मीडिया का एक हिस्सा उसके सुबूत पेश नहीं कर देता। कुछ इंसानों का कातिल हो जाना उतना खतरनाक नहीं है जितना कि कातिलों के लिए लोगों के मन में सम्मान हो जाना है, बलात्कारियों के लिए मन में इज्जत, और हाथों में माला आ जाना है। आज हिन्दुस्तान में मुस्लिम को मारने वाले, उनकी महिलाओं से बलात्कार करने वाले लोगों का सम्मान, सामान्य हो गया है, यह लोगों के बीच मान्य हो गया है। अधिक खतरनाक यह बर्दाश्त है, और लोकतंत्र इससे जीत नहीं सकता।
हिन्दुस्तान का लंबा इतिहास रहा है जिसमें पिछले सैकड़ों बरस तो कई धर्मों के लोगों के सहअस्तित्व के रहे हैं। जब लोकतंत्र नहीं था, अदालतें नहीं थीं, तब भी लोग एक-दूसरे को बर्दाश्त करते हुए साथ जी लेते थे। राजाओं के वक्त भी इस तरह की हिंसा मुमकिन नहीं थी। अधिकतर जगहों पर कई धर्मों के रिवाज साथ-साथ चल जाते थे। लोकतंत्र आने के बाद जो सौ फीसदी बराबरी की संवैधानिक सोच थी, वह अभी दस बरस पहले तक तो तकरीबन ठीक-ठाक चलती रही, लेकिन इन दस बरसों में यह पूरी तरह कुचलकर खत्म कर दी गई। पौन सदी के पहले जो लोकतंत्र नहीं था, और लोकतंत्र ने आधी सदी के सफर में जो कुछ सीखा था, उस स्लेट को इन दस बरसों में पूरा ही साफ कर दिया गया है। मतलब यह कि लोकतंत्र में जितना सभ्य होने की गुंजाइश थी उससे सौ गुना अधिक क्षमता उसकी असभ्य होने की है, और उसने बहुत रफ्तार से असभ्य होकर एक हिंसक शक्ल अख्तियार कर ली है। यह बात तय है कि देश के हालात अगर कभी बेहतर भी होंगे, तो भी इस हिंसा और नफरत से उबरने में उसे कई गुना अधिक वक्त लगेगा, उस वक्त के मुकाबले जो कि उसने हिंसक और नफरतजीवी होने में लगाया है। लोगों को अपनी आने वाली पीढिय़ों की भी फिक्र करना चाहिए कि इतनी नफरत के बीच, इतनी हिंसा के बीच, वह किस तरह जिंदा रहेगी, कितनी महफूज रहेगी।
मध्यप्रदेश के गृहमंत्री नरोत्तम मिश्रा बड़े दिलचस्प आदमी हैं। उन्होंने हिन्दुत्व के सबसे आक्रामक मॉडल की रक्षा का जिम्मा अकेले ले लिया है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह इन दिनों सिर्फ पूजा-पाठ और कन्या-कल्याण के सिलसिले में ही खबरों में आते हैं, राज्य के बाहर की मामलों को लेकर एक हमलावर-हिन्दुत्व तेवरों के साथ खड़े हुए सिर्फ नरोत्तम मिश्रा दिखते हैं। और ऐसे तेवर चूंकि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को बड़े सुहाते हैं, इसलिए चैनल एक-दूसरे से गलाकाट मुकाबले में उनके कहे हुए एक-एक शब्द को कैमरों और माइक्रोफोन पर सोखते हुए उसे लोगों के सामने परोसने की हड़बड़ी में रहते हैं। हाल के बरसों में मध्यप्रदेश के ये गृहमंत्री बहुत से लेखकों, कलाकारों, अभिनेताओं, कार्टूनिस्टों को कानूनी कार्रवाई की धमकियां देते आए हैं, गिरफ्तारी की चेतावनी देने में भी वे देश के अव्वल मंत्री हैं। यह एक बड़ा अजीब सा संयोग है कि नरोत्तम मिश्रा उन्हीं मुद्दों पर अधिक भडक़ते दिखते हैं जिनके पीछे कोई मुस्लिम नाम होता है। जिस तरह सांड के बारे में कहा जाता है कि वह लाल कपड़ा देखकर भडक़ता है, नरोत्तम मिश्रा हरा कपड़ा देखकर भडक़ते हुए दिखते हैं।
अब अभी ताजा मामला एक निजी बैंक के एक वीडियो-इश्तहार का है जिसमें आमिर खान और कियारा अडवानी एक नए शादीशुदा जोड़े की तरह दिखाए गए हैं, और इसमें परंपरागत बिदाई के बाद दुल्हन दूल्हे के घर नहीं जाती, बल्कि दूल्हा दुल्हन के घर जाता है, वहां दुल्हन की मां दोनों की आरती करती है। यह इश्तहार सवाल करता है कि सदियों से जो प्रथा चल रही है वही क्यों चलती रहेगी? जो लोग विज्ञापन के कारोबार की बहुत मामूली और सतही समझ रखते हैं, उन लोगों को भी यह मालूम है कि विज्ञापन की योजना कोई विज्ञापन एजेंसी बनाती है, उसके लोग कथानक लिखते हैं, कोई फिल्मकार टीम उस पर इश्तहार बनाती है, और उसमें सबसे कम दखल कलाकारों का होता है जो कि उन्हें दिए गए कपड़े पहन लेते हैं, दिए गए डायलॉग बोल देते हैं, बताए मुताबिक मुस्कुरा या रो देते हैं। अब ऐसे में जिस बैंक का यह इश्तहार है उसे चेतावनी देने के बजाय, विज्ञापन एजेंसी को चेतावनी देने के बजाय अगर मध्यप्रदेश के गृहमंत्री सिर्फ आमिर खान को चेतावनी दे रहे हैं, तो इसके पीछे की उनकी नीयत को आसानी से समझा जा सकता है। इसी इश्तहार में परंपराओं को तोडऩे का ठीक उतना ही काम तो दुल्हन बनी हुई हिन्दू अभिनेत्री कियारा अडवानी ने भी किया है जो कि दूल्हे को ब्याह कर घर लेकर आई है। लेकिन नरोत्तम मिश्रा को इस दुल्हन का काम नहीं खटक रहा, सिर्फ आमिर खान के बारे में उनका कहना है कि इस तरह की चीजों से धर्म विशेष की भावनाएं आहत होती हैं, और उनका मानना है कि उन्हें (आमिर खान को) किसी की भावनाओं को आहत करने की इजाजत नहीं है।
यह बहुत ही विरोधाभासी बात है कि एक तरफ तो भाजपा यह कहती है कि सैकड़ों बरस बाद दिल्ली पर एक हिन्दू का राज लौटा है। दूसरी तरफ देश भर में जगह-जगह, बात-बात पर हिन्दू भावनाएं इस तरह और इस हद तक आहत हो रही हैं जैसी कि कांग्रेसी या किसी दूसरी सरकार के रहते भी नहीं हुई थीं। आज हिन्दू पहले के मुकाबले सबसे अधिक खतरे में दिख रहे हैं क्योंकि देश भर में जगह-जगह वे अपनी भावनाओं को आहत पा रहे हैं। अब ये जख्म देश में एक हिन्दूवादी सरकार के रहते, और अधिकतर प्रदेशों में हिन्दूवादी सरकारों के रहते कैसे पैदा हो रहे हैं, यह हैरानी की बात है। सैकड़ों बरसों में हिन्दू भावनाएं हिफाजत से थीं, और अब वे खतरे में पड़ गई हैं, यह कैसी अजीब बात है? खुद भाजपा के भीतर बड़े-बड़े मुस्लिम नेताओं ने हिन्दू लड़कियों से शादियां की थीं, बड़े-बड़े भाजपा नेताओं की बेटियों ने मुस्लिम नौजवानों से शादियां की थीं, लेकिन कभी भी इस देश पर लव-जेहाद नाम का खतरा नहीं मंडराया था। पता नहीं कैसे देश के सबसे आक्रामक हिन्दूवादी मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के बाद से देश इस लव-जेहाद के खतरे में बुरी तरह डूब गया है, या शायद पहली बार उसका अहसास हुआ है, क्योंकि मुस्लिम मर्दों के हिन्दू लड़कियों से शादी करने पर कभी भाजपा ने भी अपने मुस्लिम नेताओं को नोटिस जारी नहीं किया था, इसके खिलाफ कोई सलाह जारी नहीं की थी। मुस्लिमों के खिलाफ सबसे अधिक बोलने और लिखने वाले नेताओं में से एक, डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी की अखबारनवीस बेटी ने एक मुस्लिम से शादी की, लेकिन तब भी हिन्दू धर्म खतरे में नहीं आया था। जब से उत्तरप्रदेश में योगीराज आया, देश में मोदीराज आया, और मध्यप्रदेश में नरोत्तम मिश्रा गृहमंत्री बने, तब से हिन्दुत्व पता नहीं कैसे इस बुरी तरह खतरों से घिर गया है! यह एक बहुत फिक्र की नौबत है कि देश में सेंसर बोर्ड के रहते हुए, केन्द्र सरकार का सूचना और प्रसारण मंत्रालय रहते हुए, विज्ञापनों पर निगरानी रखने वाले संगठन के रहते हुए, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर नजर रखन वाले संगठन के रहते हुए, और प्रेस कौंसिल जैसी संवैधानिक संस्था के रहते हुए भी मध्यप्रदेश के गृहमंत्री को पूरे देश में अभिव्यक्ति पर नजर रखनी होती है, और पूरे देश में हिन्दुत्व की रक्षा करनी पड़ती है। यह बात हिन्दुत्व के तमाम झंडाबरदारों के लिए फिक्र की है कि एक प्रदेश के गृहमंत्री के कंधे चाहे कितने ही मजबूत हों, वे आखिर कितना बोझ उठा सकते हैं? ऐसा लगता है कि नरोत्तम मिश्रा योगी आदित्यनाथ के बाद अपने आपको हिन्दुत्व के सबसे बड़े रक्षक की तरह पेश कर रहे हैं, और आगे तो फिर हिन्दुत्ववादी ताकतों और संगठनों को यह सोचना होगा कि इन मजबूत कंधों पर और कौन-कौन सी जिम्मेदारियां डाली जाएं। आज यह कल्पना करना भी मुश्किल है कि अगर नरोत्तम मिश्रा जैसा गृहमंत्री मध्यप्रदेश मेें न हो, तो फिर पूरे देश में तथाकथित धर्मनिरपेक्ष ताकतें, और मुस्लिम लेखक-कलाकार क्या-क्या नहीं करेंगे? लगातार मेहनत से अपने आपको हिन्दुत्व-रक्षक की तरह पेश करते हुए नरोत्तम मिश्रा ने एक मिसाल कायम की है, और जैसे-जैसे देश में हिन्दुत्व पर खतरा बढ़ेगा, वैसे-वैसे नरोत्तम मिश्रा का महत्व बढ़ेगा, उनकी जरूरत बढ़ेगी। आगे-आगे देखें, होता है क्या।
टेक्नालॉजी किस तरह हिन्दुस्तान के एक प्रतिष्ठित समझे जाने वाले, और अहमियत रखने वाले पेशे और कारोबार को प्रभावित कर रही है, यह देखना हो तो मीडिया और सरकार को देखना चाहिए। सरकार के नियम मीडिया के तौर-तरीकों को, नीति-सिद्धांतों को, परंपराओं को किस तरह बदल रहे हैं, यह कागजों पर लिखा दिखता है। केन्द्र सरकार और बहुत सी राज्य सरकारों ने मीडिया को इश्तहार देने के जो नियम बनाए हैं, वे पहले तो इस कारोबार को, और फिर उसी वजह से पत्रकारिता के पेशे को कुचल रहे हैं। इसमें एक सिलसिला तो पुराना है जो कि अखबारों के एकाधिकार के वक्त से चले आ रहा है जिसके तहत केन्द्र सरकार की एक एजेंसी अखबारों की प्रसार संख्या तय करती है। और इस एजेंसी के नियमों को पूरा करने के लिए अखबारों का पूरा कारोबार फर्जी आंकड़ों पर खड़ा किया जाता है, इन आंकड़ों से अखबारों के केन्द्र सरकार के विज्ञापनों के रेट भी तय होते हैं, और कई राज्य सरकारें केन्द्र सरकार के इसी रेट को ज्यों का त्यों मान लेती हैं। अब प्रसार संख्या का यह खेल पूरी तरह से जालसाजी के आंकड़ों पर टिका रहता है, और मीडिया-कारोबार पर लिखने वाले लोग यह लिखते आए हैं कि अधिक प्रसार संख्या दिखाने के लिए बड़े अखबार किस तरह लाखों कॉपियां ऐसी छापते हैं जो कि छापते ही ट्रकों में भरकर लुग्दी कारखाने भेज दी जाती हैं, दुबारा कागज बनाने के लिए। बहुत से अखबार तरह-तरह की प्रतिबंधित योजनाएं लागू करते हैं ताकि फर्जी या असली ग्राहक जुटाए जा सकें, और उससे सरकारी रेट बढ़वाया जा सके, और फिर उस रेट को दिखाकर बाजार का रेट भी बढ़वाया जा सके। लेकिन इस फर्जीवाड़े से परे पहले से एक बात तो यह भी चली आ रही थी कि अखबारों में समाचार और विचार ऐसे छपें जिन्हें अधिक से अधिक लोग पढ़ें, फिर चाहे वे गैरजिम्मेदार और सनसनी के हों, लोगों को लुभाने और भडक़ाने वाले हों, या झूठे भी हों। यह पूरा सिलसिला तो पहले से चले आ रहा था, और इसे आज की टेक्नालॉजी से जोडक़र देखना गलत होगा।
लेकिन अब छपे हुए अखबारों से परे की बात करें, तो पहले तो समाचार चैनलों जैसा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया बाजार में बढ़ते चले गया, और अपने गलाकाट मुकाबले में उसने फर्जी दर्शक संख्या जुटाने का संगठित जुर्म किया। लोगों को याद होगा कि मुम्बई में किस तरह ऐसी ही फर्जीवाड़े में कुख्यात टीवी पत्रकार-मालिक अर्नब गोस्वामी की गिरफ्तारी हुई थी, और फर्जी दर्शक संख्या जुटाने वाला पूरा गिरोह गिरफ्तार हुआ था। अब हालत यह है कि भारत में इस दर्शक संख्या को गिनने के लिए जो संस्था बनी है, उसका एनडीटीवी से लेकर जीन्यूज तक बहुत से समाचार चैनलों ने बहिष्कार कर दिया है क्योंकि वह नाजायज तौर-तरीके इस्तेमाल करके कुछ खास लोगों को बढ़ावा देने की एक मशीन बन गई है। फिर मानो मीडिया को तबाह करने के लिए यह भी काफी नहीं था, तो ऑनलाईन मीडिया विकसित हुआ, और उस पर पहुंचने वाले दर्शकों या पाठकों की गिनती के तरीके निकले। यहां से मीडिया मालिकों के हाथ एक हथियार भी लगा कि किस तरह किसी समाचार, फोटो, विचार, या वीडियो तक पहुंचने वाले लोगों को गिना जाए, वहां पर उनका कितना वक्त गुजरता है इसे जोड़ा जाए। यह औजार मीडिया मालिकों के हाथ भी है, और इंटरनेट-तकनीक की मेहरबानी से यह बाजार के हाथ भी है। अब सरकारी या कारोबारी इश्तहारों के लिए यह एक पैमाना बना दिया गया है कि अलग-अलग कितने लोग किसी वेबसाईट पर रोज पहुंचते हैं, या उस पर कितना वक्त गुजारते हैं। किसी समाचार पर आधा मिनट अगर लोग नहीं गुजारते हैं, तो कुछ पैमाने उन्हें उस समाचार का पाठक ही नहीं मानते। ऐसे पैमानों से अब सरकारी इश्तहार तय होते हैं, और ऑनलाईन मीडिया, पत्रकारिता की पुरानी परंपराओं को कचरे की टोकरी में डालकर इन्हीं पैमानों के मुताबिक काम करने लगा है। अब वेबसाईट पर हिट्स बढ़ाने के लिए लोग वहां पर दस-दस किस्म के भविष्यफल देने लगे हैं, पूरे देश और दुनिया के सेक्स और जुर्म की खबरों से वेबसाईट पाट दी गई हैं, और तरह-तरह की नग्न या अश्लील तस्वीरों से लोगों को वहां खींचा जाता है। दिलचस्प बात यह है कि सरकारी पैमाने भी ऐसी तमाम हिट्स को गिनते हैं, और उसी के मुताबिक इश्तहार के रेट और इश्तहार तय करते हैं। जाहिर है कि गांवों मेें सौर ऊर्जा से चलने वाले सिंचाई पम्प के समाचार के मुकाबले उर्फी जावेद के कपड़े न पहनने के समाचार और फोटो को हजार गुना लोग देखेंगे, और लोगों को धोखा देने वाले भविष्यफल को हजारों लोग रोजाना ही नशे की तरह इस्तेमाल करेंगे। फिर मानो इतना भी काफी नहीं हो, तो अब यह पैमाना तय कर दिया गया है कि जिस समाचार पर लोग तीस सेकेंड नहीं रूकेंगे, उसे पढ़ा हुआ भी नहीं गिना जाएगा। नतीजा यह है कि तीस सेकेंड से कम में पूरा पढ़ लिए जाने लायक समाचार को वेबसाईटें अब तरह-तरह से पानी मिलाकर लंबा बनाती हैं, बीच-बीच में इश्तहार डालकर समाचार के वाक्य दूर तक खींचती हैं, और यह गारंटी करती हैं कि लोगों के तीस सेकेंड उस पर लग ही जाएं। मतलब यह कि लोगों का वक्त बर्बाद करने, काम की जानकारी को छुपाने, प्रदेश या शहर का नाम शुरू में न बताने, और लोगों को गैरजरूरी कचरा पढ़वाने से अब अधिक सरकारी कमाई हो सकती है। नतीजा यह हुआ है कि पत्रकारिता की जिस तकनीक और परंपरा में कम से कम शब्दों में जानकारी देने को बेहतर समझा जाता था, सबसे शुरू में ही बुनियादी जानकारी देना जरूरी समझा जाता था, आज सरकारें इसका ठीक उल्टा करने पर अधिक भुगतान कर रही हैं। जिन लोगों ने बेहतर अखबारनवीसी की हुई हैं, उनका तजुर्बा और उनका तौर-तरीका आज के कारोबारी और सरकारी पैमानों पर नुकसान का सौदा हो गया है। समाचार लिखने के जो तरीके सदियों से चले आ रहे थे, उन्हें दशकों में खत्म कर दिया गया है। जैसे भविष्यफल को छापना नाजायज माना जाता था, वह आज वेबसाईटों की हिट्स बढ़ाने का हथियार हो गया है, जैसी अश्लीलता किसी वक्त लोगों को कोर्ट पहुंचा सकती थी, वह आज कारोबारी कामयाबी तक पहुंचा रही है। बाजार के तो कोई उसूल होते नहीं हैं, लेकिन अब सरकारें भी टेक्नालॉजी के औजारों की सहूलियत से खुश हैं, और उन्होंने भी मीडिया से किसी भी उसूल की उम्मीद रखना बंद कर दिया है।
अखबारों के फर्जी आंकड़ों से होते हुए, टीवी समाचार चैनलों की फर्जी दर्शक संख्या के बाद अब वेबसाईटों के फर्जी हिट्स तक, मीडिया-कारोबार ने काफी तरक्की कर ली है। और अब आगे सोशल मीडिया पर, ट्विटर और फेसबुक पर, इंस्टाग्राम पर फर्जी बोट्स के सहारे अपने कारोबार को अधिक दिखाने का एक नया फर्जीवाड़ा चल रहा है, और वह भी उजागर होना शुरू हो गया है। लेकिन जिस तरह जुर्म की दुनिया नकली नोटों पर चलती है, उसी तरह आज का मीडिया कारोबार सरकारों की मेहरबानी से नकली आंकड़ों पर चल रहा है, ऐसे में पाठक और दर्शक को पत्रकारिता के किन्हीं सिद्धांतों की उम्मीद नहीं करना चाहिए। इन दिनों कुछ समाचार वेबसाईटें बिना इश्तहारों के चल रही हैं, और वे अपने पाठकों से एक भुगतान लेती हैं, या दान मांगती हैं। मीडिया में शायद यही एक हिस्सा अभी ईमानदार रह गया दिखता है जो कि सिर्फ पाठकों के प्रति जवाबदेह है, किसी फर्जीवाड़े के प्रति नहीं।
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तमिलनाडु में दक्षिण भारत की एक मशहूर अभिनेत्री नयनतारा और उनके पति विग्नेश शिवन ने जुड़वां बच्चों के होने की घोषणा की है। अभी चार महीने पहले ही इनकी शादी हुई थी, और ये बच्चे सरोगेसी से होने की खबर है। तमिलनाडु सरकार इस मामले में जांच करवा रही है कि शादी के तुरंत बाद सरोगेसी से बच्चे होना सरोगेसी कानून के खिलाफ है, और यह कैसे हुआ? आज हिन्दुस्तान के कानून के मुताबिक शादी के पांच साल बाद ही बच्चे न होने पर कोई जोड़ा सरोगेसी से बच्चे पाने की कानूनी औपचारिकता पूरी करके उसकी कोशिश कर सकते हैं। दूसरी तरफ बच्चों को गोद लेने के कानून भी बहुत कड़े हैं, और उसके लिए भी बड़ी लंबी-चौड़ी प्रतीक्षा सूची हमेशा ही रहती है, महीनों की कानूनी औपचारिकता पूरी करनी पड़ती है। इसलिए यह भी आसान नहीं है कि कोई इस तरह जुड़वां बच्चे ले लें। इसलिए ऐसा लगता है कि सरोगेसी कानून को तोडक़र उस तकनीक से ये बच्चे हासिल किए गए हैं। इसके पहले भी बॉलीवुड के कुछ सबसे चर्चित लोगों ने बिना शादी के भी सरोगेसी से बच्चे पैदा किए, और शाहरूख खान जैसे बड़े कलाकार ने स्वाभाविक तरीके से हुए दो बच्चों के बाद सरोगेसी से तीसरा बच्चा पाया था। बाद में केन्द्र सरकार ने सरोगेसी के कानून को बड़ा कड़ा बनाया ताकि गरीब महिलाओं की कोख किराये पर लेकर लोग मनचाहे या मनमाने बच्चे पैदा न करें। अब यह मामला दक्षिण के मशहूर फिल्म कलाकारों से जुड़ा होने की वजह से इस नये कानून के बारे में एक नई जागरूकता भी लाएगा। तमिलनाडु सरकार की यह भी एक साहसी पहल है कि वह मशहूर लोगों के मामले में भी जांच करवाने की घोषणा कर रही है।
भारत में अभी एक-दो बरस पहले तक निजी चिकित्सा उद्योग के भीतर कृत्रिम गर्भाधान या इस तरह की दूसरी तकनीक बेचने वाले बड़े अस्पतालों ने यह सिलसिला चला रखा था कि वे गरीब महिलाओं को अपनी कोख किराये पर देने के लिए तैयार करते थे, और संपन्न जोड़ों के शुक्राणु और अंडे से ऐसी महिलाओं को गर्भवती करके सरोगेसी से बच्चे पैदा करवाते थे। ऐसे एक-एक मामले में अस्पताल लाखों रूपये लेते थे, और गरीब महिलाओं को भी इसमें लाख-दो लाख रूपये मिल जाते थे। लेकिन इंसानी जिस्म के ऐसे इस्तेमाल के खिलाफ जब आवाज उठने लगी तो केन्द्र सरकार ने एक कड़ा कानून बनाया और अमीर जोड़ों की गर्भाधान और संतान जन्म की तकलीफ से बचने के लिए सरोगेसी तकनीक के इस्तेमाल पर रोक लगाई। अब शादीशुदा जोड़े कुछ दूसरी तकनीकों को आजमाने के पहले, शादी के पांच बरस हो जाने के पहले सरोगेसी के लिए नहीं जा सकते। फिर कोई कोख कानूनी रूप से किराये पर नहीं ली जा सकती, और इसके लिए अंग प्रत्यारोपण की तरह कई किस्म की और रोक भी लगाई गई है। उन सबकी यहां पर चर्चा प्रासंगिक नहीं होगी, लेकिन इस एक मामले से खड़े हुए विवाद से देश भर में लोगों के चौकन्ना हो जाने की जरूरत है। सरोगेसी की कानूनी शर्तें पूरी हो जाने के बाद भी बहुत सी कागजी कार्रवाई करनी पड़ती है, इसलिए कोई भी व्यक्ति इस रास्ते से बच्चे पाने की बात को आसानी से छुपा नहीं पाएंगे। फिर जब चर्चित लोग खुद होकर ऐसी घोषणा करते हैं, तो उन्हें और भी सावधान रहने की जरूरत है कि उनके खिलाफ कानूनी जांच शुरू हो सकती है। कुछ ऐसा ही कानून बच्चों को गोद लेने का भी है, और चर्चित लोग भी रातों-रात बच्चों को गोद नहीं ले सकते।
यह एक अलग बहस का मुद्दा हो सकता है कि क्या सचमुच ही सरोगेसी या अंग प्रत्यारोपण कानून को इतना कड़ा बनाए जाने की जरूरत है। दरअसल इस देश का तजुर्बा इस मामले में बहुत खराब रहा है, और जब जरूरतमंद किडनी मरीजों को भी दान में किडनी लेने की जरूरत पड़ती है, तब भी कानूनी औपचारिकताओं को पूरा करते हुए एक-दो बरस तक लग जाते हैं, और कई मरीजों की मौत भी हो जाती है। लेकिन सरकार को कानून कड़े इसलिए बनाने पड़े क्योंकि देश के कुछ महानगरों में ऐसी बस्तियां हैं जिनके हर घर से लोग किडनी बेच चुके हैं। जब गरीबी इतनी रहती है कि लोग अपने बदन का एक हिस्सा बेचकर बाकी परिवार को जिंदा रखने को बेबस रहते हैं, तब ऐसी बेबसी के बाजार को रोकने के लिए सरकार को कानून तो कड़ा बनाना ही पड़ता है। यह एक अलग बात है कि देश के बाकी तमाम कानूनों में जिस तरह छेद ढूंढकर लोग रास्ता निकाल लेते हैं, ठीक उसी तरह आज भी किडनी ट्रांसप्लांट जैसे बाजार चल रहे हैं जिनमें खरीदी हुई किडनी से जिंदगी बचाई जा रही है। अगर सरोगेसी का कानून नहीं बनता, तो बहुत धड़ल्ले से गरीब महिलाओं के बदन कारखानों की तरह इस्तेमाल होते रहते, जिसका खतरा अब कुछ कम हुआ है। लेकिन इसके साथ-साथ सोचने की एक बात यह भी है कि सरोगेसी से दूसरों के लिए बच्चे पैदा करने वाली मां अगर इस काम के एवज में अपने परिवार के लिए कुछ कमाई कर सकती है, तो क्या उसे किडनी बेचने की तरह का प्रतिबंधित काम मानना ठीक है? यह एक लंबी और अलग बहस हो सकती है, लेकिन सामाजिक हकीकत यही है कि अगर एक गरीब महिला दूसरों के लिए एक बच्चा पैदा करके अपने बच्चों की कुछ बरस की जिंदगी बेहतर बना सकती है, तो इस बारे में बहस जरूर होनी चाहिए, हम अभी इस बारे में अपनी कोई राय नहीं दे रहे हैं। भुगतान करके सरोगेट-मां पाने की ताकत रखने वाले लोगों की जरूरत, और उस जरूरत को पूरा करके अपनी पारिवारिक जरूरत पूरा करने वाली महिला की बेबसी को एकदम से खारिज करना ठीक नहीं है, और इस पर आगे बहस होनी चाहिए। फिलहाल दक्षिण भारत के फिल्म उद्योग से यह जो नया बखेड़ा सामने आया है, इसकी रौशनी में सरोगेसी कानून की बाकी बारीकियों पर भी चर्चा होनी चाहिए।
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दिल्ली में आम आदमी पार्टी सरकार के अनुसूचित जाति और जनजाति कल्याण मंत्री राजेंद्र पाल गौतम ने इस्तीफा दे दिया है। पिछली दिनों वे बौद्ध धर्म के एक बड़े कार्यक्रम में शामिल हुए थे जिसमें करीब दस हजार लोगों ने डॉ. भीमराव अंबेडकर की बताई हुई 22 प्रतिज्ञााओं को दुहराया था। इसमें एक प्रतिज्ञा में हिंदू देवी-देवताओं की पूजा न करने की शपथ भी शामिल है। इस बात को हिंदू देवी-देवताओं का अपमान करार देते हुए भाजपा ने आम आदमी पार्टी पर हमला किया था और इस मंत्री से लेकर केजरीवाल तक से इस्तीफा मांगा था। सोशल मीडिया पर केजरीवाल को हिंदू विरोधी करार देते हुए गुजरात चुनाव में उनकी सक्रियता को घेरने की कोशिश भी की गई थी। ऐसे ही सारे विवाद के बीच मंत्री राजेंद्र पाल गौतम ने कल पद से इस्तीफा दे दिया। उन्होंने यह साफ किया कि वे अंबेडकरवादी हैं, और अपनी धार्मिक मान्यताओं के मुताबिक वे इस कार्यक्रम में और दस हजार लोगों के साथ शामिल हुए थे जिसमें बाबा साहब की दिलवाई गई 22 प्रतिज्ञाएं दुहराई गई थीं। उन्होंने इस इस्तीफे में खुलासे से लिखा कि ये प्रतिज्ञाएं केंद्र की भाजपा सरकार ने भी बाबा साहब की किताबों में छपवाई है और ये प्रतिज्ञाएं हर वर्ष देश में हजारों जगहों पर करोड़ों लोग दुहराते हैं। भाजपा इस कार्यक्रम और उनकी मौजूदगी को लेकर आम आदमी पार्टी और अरविन्द केजरीवाल पर नाजायज हमला कर रही और इस गंदी राजनीति के खिलाफ वे (राजेंद्र पाल गौतम) मंत्री पद से इस्तीफा दे रहे हैं।
एक तरफ भाजपा और दूसरी तरफ केजरीवाल, इन दोनों के साथ दिक्कत यह हो गई है कि इन दोनों ने देश की आजादी के ऐसे प्रतीकों को गोद लेने का काम किया है जिन्हें वे प्रतीक से अधिक पसंद नहीं करते। भाजपा और केजरीवाल दोनों ही भगत सिंह और अंबेडकर को बड़ा आदर्श मानकर अपने मंचों पर पेश करते हैं, केजरीवाल ने तो सरकारी दफ्तरों से गांधी तक की तस्वीरें हटवा दीं, और सिर्फ भगत सिंह और अंबेडकर की तस्वीरें लगवाई हैं। यही काम गांधी की तस्वीर के साथ-साथ भाजपा ने किया है। उसने सरदार पटेल की दुनिया की सबसे ऊंची प्रतिमाओं में से एक प्रतिमा बनवाई है, और पटेल को कांगे्रस पार्टी की तरफ से इतिहास में तिरस्कृत साबित करते हुए पटेल को अपना आदर्श बनाया है, जबकि पटेल ने गांधी हत्या के बाद लगातार आरएसएस की नीतियों का विरोध करते हुए इस संगठन पर प्रतिबंध लगाया था और इसे गांधी की हत्या के लिए जिम्मेदार विचारधारा ठहराया था। लेकिन पटेल की तमाम धर्मनिपरेक्ष बातों को अलग रखते हुए भाजपा उनके संघ-विरोधी लिखे हुए को अनदेखा करते हुए पटेल के नाम का इस्तेमाल करती है। ठीक इसी तरह भाजपा अंबेडकर की बुनियादी नसीहतों को आज दिल्ली सरकार के इस मंत्री के संदर्भ में अनदेखा कर रही है, मंत्री पर हमला कर रही है, और अंबेडकर का नाम भी जप रही है। अगर बौद्ध धर्म में आने वाले लोगों को अंबेडकर ने हिंदू देवी-देवताओं की पूजा न करने के लिए कहा था, तो उसमें क्या गलत कहा था? और अगर वह प्रतिज्ञा हिंदू धर्म छोडक़र बौद्ध धर्म में जाने वाले लोग हर बरस दुहराते हैं तो उसमें हिंदू देवी-देवताओं का अपमान कहां है? आज कुछ मुस्लिमों को भाजपा ने हिंदू बनाया है, तो क्या वे अब भी पांच वक्त नमाज पढ़ते रहेंगे? भाजपा का इस मामले को लेकर इस मंत्री का विरोध एक बहुत बड़ा पाखंड है जो कि गुजरात चुनाव के हिसाब से खड़ा किया हुआ दिखता है, वरना भाजपा को यह बात साफ करना चाहिए कि अंबेडकर की तैयार की हुई प्रतिज्ञाओं से वह सहमत है या असहमत है? ऐसा भी नहीं कि उनसे भाजपा के असहमत होने से बौद्ध हो चुके कल के हिंदू दलितों की सेहत पर कोई फर्क पड़ रहा है। जैसे आक्रामक हिंदुत्व तेवरों की वजह से दलितों ने करोड़ों की संख्या में बौद्ध बनना बेहतर समझा, ठीक वैसे ही आज आम आदमी पार्टी के इस मंत्री ने इस मुद्दे पर मंत्री पद छोड़ देना बेहतर समझा है। अब गेंद अरविंद केजरीवाल और भाजपा दोनों के पाले में है। अंबेडकर की फोटो टांगने वाली केजरीवाल की पार्टी को अब यह साबित करना है कि अंबेडकर की प्रतिज्ञा को दुहराने की वजह से अगर वे अपने मंत्री का इस्तीफा ले रहे हैं, या मंजूर कर रहे हैं, तो इसके बाद उन्हें अंबेडकर का नाम लेने का भी हक है क्या? अगर उनमें इतना नैतिक साहस भी नहीं है कि अपने एक बौद्ध मंत्री को वे अंबेडकर की दिलवाई प्रतिज्ञा दुहराने का हक दे सकें, तो उन्हें भारतीय लोकतंत्र में राजनीति करने का क्या हक है? ठीक इसी तरह भाजपा को भी आज यह साबित करना होगा कि एक बौद्ध राजनेता के इस प्रतिज्ञा के दुहराने से अगर उसे यह हिंदू देवी-देवताओं का अपमान लग रहा है, तो फिर उसे अंबेडकर का नाम लेकर राजनीति क्यों करनी चाहिए क्योंकि अंबेडकर की तो बुनियादी सोच ही यही थी। और अगर इस सोच पर चलने की वजह से अंबेडकर के एक धार्मिक अनुयाई को अपनी धार्मिक मान्यता दुहराने का भी हक भाजपा नहीं देती, तो फिर उसे अंबेडकर की फोटो का अगला कोई इस्तेमाल नहीं करना चाहिए।
यह बहुत अच्छी नौबत है कि आम आदमी पार्टी के एक मंत्री ने तो अपनी धार्मिक, सामाजिक, और राजनैतिक प्रतिबद्धता साफ करते हुए मंत्री पद छोड़ देना बेहतर समझा है। राजेंद्र पाल गौतम ने अपने इस्तीफे में लिखा है- पिछले कुछ वर्र्षाें से मैं लगातार देख रहा हूं कि मेरे समाज की बहन-बेटियों की इज्जत लूटकर उनका कत्ल किया जा रहा है, कहीं मूंछ रखने पर हत्याएं हो रही हैं, कहीं-कहीं मंदिर में प्रवेश करने पर और मूर्ति छूने पर अपमान के साथ पीट-पीटकर हत्या की जा रही है, यहां तक कि पानी का घड़ा छू लेने पर बच्चों तक की दर्दनाक हत्याएं की जा रही हैं, ऐसे जातिगत भेदभाव की घटनाओं से मेरा दिल हर दिन छलनी होता है। दशहरे के दिन आयोजित बौद्ध कार्यक्रम में तो इस मंत्री ने देश की आज की दलितों की हालत पर कुछ नहीं कहा था, और बौद्ध समाज की एक प्रचलित प्रतिज्ञा को ही दुहराया था। लेकिन अब भाजपा के हमलों के बाद इस्तीफा देते हुए उन्होंने जो कहा है, उस पर केजरीवाल और भाजपा दोनों को अपना रूख साफ करना होगा। वोटों के लिए अंबेडकर की फोटो, और उनके अनुयाईयों का तिरस्कार साथ-साथ नहीं चल सकता। ऐसा ही काम देश में कुछ राजनीतिक दल सरदार पटेल को लेकर, नेताजी सुभाषचंद्र बोस को लेकर, विवेकानंद और सावरकर को लेकर कर रहे हैं। सावरकर को गांधी से ऊपर साबित करने की कोशिश करते हुए भाजपा और उसकी सोच के संगठन यह बात पूरी तरह से अनदेखी कर देते हैं कि गाय खाने के बारे में सावरकर की सोच कैसी वैज्ञानिक थी, और उसके ठीक खिलाफ अभियान चलाते हुए आज की हिंदुत्ववादी ताकतें सावरकर की तस्वीर पर दांव भी लगाते चलती हैं।
आखिर में यह बात साफ होनी चाहिए कि इस मुद्दे पर अपने मंत्री से लिए हुए, या मंत्री के दिए हुए इस्तीफे पर आम आदमी पार्टी अपना रूख बताए, और अंबेडकर की फोटो रखे या हटाए। ठीक यही सवाल भाजपा के भी सामने है कि अगर वह अंबेडकर से असहमत है, इस हद तक असहमत है कि वह अंबेडकर की नसीहत की वजह से अगर किसी दलित मंत्री का जीना हराम कर रही है, तो फिर उसे भी अंबेडकर का नाम लेकर वोट नहीं मांगने चाहिए। देश के अंबेडकरवादी दलितों के सामने यह परखने का एक मौका है कि केजरीवाल और भाजपा की असलियत क्या है।
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उत्तरप्रदेश के मेरठ का एक पर्चा किसी ने सोशल मीडिया पर पोस्ट किया है जिसमें प्रशांत कबाड़ी नाम का आदमी सभी पुराने सामानों का कबाड़ खरीदने के लिए अपने फोन नंबर के साथ प्रचार कर रहा है। ऐसे दूसरे पर्चों से यह पर्चा इस मामले में अलग है कि इसके ऊपर बड़े-बड़े अक्षरों में हिन्दू कबाड़ी छपा हुआ है। कबाड़ के काम में बहुत से इलाकों में मुस्लिम अधिक लगे रहते हैं, क्योंकि उनकी पढ़ाई-लिखाई कम रहती है, किसी काम में पैसा लगाने की उनकी क्षमता कम रहती है, और कबाड़ा का काम वे बिना किसी ट्रेनिंग के भी कर सकते हैं। शायद मुस्लिम कबाडिय़ों की बहुतायत के बीच यह हिन्दू कबाड़ी अपने हिन्दू होने की घोषणा करते हुए हिन्दुओं के बीच एक प्राथमिकता पाने की उम्मीद कर रहा है। देश की आज की हालत का यह एक नमूना है कि लोगों से उम्मीद की जा रही है कि वे अपना कबाड़ा भी किसी दूसरे धर्म के खरीददार को न बेचें।
हिन्दुस्तान में यह जहर बहुत बुरी तरह फैला है, और जिन लोगों को यह लगता था कि यह और अधिक नहीं फैल सकता, उन्हें यह आए दिन हैरान करता है। अब जगह-जगह लोग किसी मुस्लिम ड्राइवर के आने पर टैक्सी को वापिस भेज देने के फतवे दे रहे हैं, तो कहीं मुस्लिम या दलित डिलीवरी मैन के आने पर उससे खाना लेने से मना कर रहे हैं। जब शहरों में यह हो रहा है तो जाहिर है कि गांवों में स्कूलों में अगर दलित महिला का पकाया दोपहर का खाना खाने से दूसरी जातियों के बच्चे और उनके मां-बाप तो मना कर ही सकते हैं। यह भी जगह-जगह हो रहा है, और जहां कहीं ऐसे बहिष्कार की वीडियो रिकॉर्डिंग हो पाती है, वहीं पर यह बात खबर बन पाती है, बाकी जगहों पर इसे भुला दिया जाता है, अनदेखा कर दिया जाता है। और हालत यह है कि अभी एक कार्यक्रम में आरएसएस के मुखिया ने यह भाषण दिया है कि वर्ण और जाति व्यवस्था जैसी चीजें अतीत की बातें हैं, और इसे भुला दिया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि जाति व्यवस्था की अब कोई प्रासंगिकता नहीं है, और वर्ण और जाति जैसी अवधारणाओं को पूरी तरह त्याग देना चाहिए।
जो लोग आरएसएस की, या दूसरे हिन्दूवादी संगठनों की सोच को जानते हैं वे मोहन भागवत के बयान का एक और मतलब भी समझ सकते हैं। आज हिन्दुस्तान में दलित, आदिवासी, और ओबीसी आरक्षण जाति व्यवस्था के आधार पर ही है। जाति व्यवस्था को भुला देने को कहने का एक मतलब यह भी निकलता है कि आरक्षण को भी भुला दिया जाए। देश के कुछ दूसरे नेताओं ने भागवत के इस बयान में छुपे हुए खतरों को तुरंत ही पहचान लिया। लोगों को याद होगा कि जब विश्वनाथ प्रताप सिंह हिन्दुस्तान के प्रधानमंत्री थे, तो उन्होंने मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू करने पर पूछे गए एक आलोचनात्मक सवाल के जवाब में कहा था कि सिर्फ ऊंची जातियों के लोगों को यह लग सकता है कि आज जाति व्यवस्था खत्म हो गई है, यह ठीक वैसे ही है जैसे कि जूते पहने हुए पांवों को यह पता नहीं चलता कि उनके जूतोंतले कौन से नंगे पांव कुचले जा रहे हैं, जूतोंतले कुचलने का दर्द नंगे पांव वालों को ही होता है। ठीक यही नौबत आज आरएसएस के मुखिया के बयान के साथ है। दशहरे पर संघप्रमुख के बयान पर कांग्रेस के एक सबसे मुखर नेता दिग्विजय सिंह ने तुरंत ही यह सवाल उठाया है कि क्या अगला सरसंघचालक कोई गैरब्राम्हण होगा? उन्होंने पूछा है कि क्या कोई एससी-एसटी, या ओबीसी व्यक्ति सरसंघचालक पद के लिए मंजूर किया जाएगा? क्या आरएसएस अल्पसंख्यकों को भी सदस्य बनाएगा?
आरएसएस के मुखिया के जाति व्यवस्था के बयान को मेरठ के एक कबाड़ी के पर्चे के साथ जोडक़र देखने की जरूरत है। जब बिना पर्चों के भी जगह-जगह जुबानी बातचीत में अल्पसंख्यक समुदाय के बीच यह बात चलती है कि लोगों को अपने धर्म के लोगों से ही लेन-देन करना चाहिए, तो फिर जाति व्यवस्था या धर्म व्यवस्था के कमजोर होने की सोच खोखली लगती है। हालांकि मोहन भागवत ने धर्म व्यवस्था के बारे में कुछ नहीं कहा है, और केवल हिन्दुओं के बीच की जाति व्यवस्था या वर्ण व्यवस्था के बारे में ही कहा है, लेकिन यह जाति व्यवस्था कहीं से भी कमजोर पड़ी हो, कहीं पर भी अप्रासंगिक हो, ऐसा नहीं है। इसे परखने के लिए आरएसएस के मुखिया अपने कार्यकर्ताओं के लिए यह निर्देश जारी कर सकते हैं कि देश में कहीं भी कोई दलित दूल्हा घोड़ी पर चढक़र बारात ले जाना चाहे, तो आरएसएस के स्वयंसेवक लाठियों के घेरे में उसे हिफाजत मुहैया कराते हुए ले जाएं। जहां कहीं जाति व्यवस्था की हिंसा सिर उठा रही है, वहां आरएसएस अपने स्वयंसेवक झोंके, तो उसे हकीकत का सामना करना पड़ेगा, हकीकत की जानकारी तो उसे पहले से है। अगर जाति व्यवस्था को खत्म करना है, तो इस व्यवस्था के तहत सैकड़ों-हजारों बरस से चले आ रहे ढांचे को तोडऩा होगा, और दलित-आदिवासी, या दूसरी जातियों के लोगों की खानपान की आजादी को मान्यता देनी होगी। जाति व्यवस्था इस तरह से खत्म नहीं हो सकती कि हर कोई खानपान, आचार-व्यवहार, पोशाक और बोलचाल पर ब्राम्हणवादी, शुद्धतावादी नियमों को मानने लगे। वह जाति व्यवस्था का खात्मा नहीं होगा, वह ब्राम्हणवाद को लागू करना ही होगा। इसलिए जाति व्यवस्था को गैरजरूरी और खत्म हो चुकी मानने वाले लोगों को इन सब बातों के जवाब भी देने होंगे कि अगर तमाम हिन्दू एक ही जाति के गिने जाएंगे, तो उनके भीतर संस्कारों और पसंद की कैसी आजादी रहेगी? ऐसे असुविधाजनक सवालों के जवाब दिए बिना आरएसएस प्रमुख केवल बयान देकर काम नहीं चला सकते। उन्हें मेरठ के इस हिन्दू कबाड़ी के पर्चे पर भी बयान देना चाहिए।
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हर दिन अपने आसपास से आ रही ऐसी खबरों से सामना हो रहा है जिनमें नाबालिग लड़कियों को बरगला कर बालिग नौजवान या आदमी घर से भगाकर ले जा रहे हैं, उनके साथ बलात्कार कर रहे हंै, और जल्द ही गिरफ्तार भी हो जा रहे हैं। अभी कल ही छत्तीसगढ़ में एक जिला युवक कांग्रेस अध्यक्ष को गैंगरेप में तीन दूसरे नौजवानों के साथ गिरफ्तार किया गया, और पन्द्रह साल की नाबालिग लडक़ी को साथ ले जाकर, कोल्डड्रिंक में नशा मिलाकर बलात्कार करवाने वाली उसकी सहेली को भी गिरफ्तार किया गया है। एक दूसरे मामले में दो-तीन नाबालिग लड़कियों को गुजरात ले जाने वाले बालिग और शादीशुदा लोगों को गिरफ्तार किया गया है। मोबाइल फोन की मेहरबानी से लोगों की लोकेशन पुलिस को आसानी से मिल जाती है, और लोग तेजी से गिरफ्तार भी कर लिए जाते हैं। ऐसे में एक हैरानी यह होती है कि रोजाना छपने वाली इन खबरों के बावजूद लोग बलात्कार भी कर रहे हैं, और नाबालिग लड़कियों को लेकर भाग भी रहे हैं। यह बात भी तय है कि ऐसे लोगों को कई बरस की कैद होना एक तय सी बात रहती है, फिर भी न तो नाबालिग लड़कियों का ऐसे झांसे में फंसना कम हो रहा है, और न ही बालिग लोगों का ऐसा जुर्म करना घट रहा है।
अब सवाल यह उठता है कि ऐसी घटनाएं हर दिन क्यों हो रही हैं? क्या किशोरियों में अपनी हिफाजत, अपने बदन की हिफाजत को लेकर समझ विकसित नहीं हो पा रही है? या उनका देहशोषण करने वाले लोगों को यह खतरा समझ क्यों नहीं आ रहा है कि कुछ मिनटों का मजा पाने के बाद उनके लिए सजा इंतजार कर रही है? सबसे पहली बात तो यह कि ऐसे देहशोषण या बलात्कार से जिन लड़कियों का सबसे अधिक नुकसान होता है, उनके भीतर समझ और जागरूकता क्यों पैदा नहीं की जा रही है? एक तरफ तो हिन्दुस्तान के बड़े हिस्से में लड़कियों को अधिक आजादी देने के सभी दुश्मन रहते हैं। और दूसरी तरफ आजादी के लायक समझ देने में दिलचस्पी किसी की नहीं रहती। यह पीढ़ी मोबाइल और मोबाइक की है, और कमउम्र लड़कियों को भी पढ़ाई और खेलकूद के लिए दूर-दूर तक अकेले जाना ही होता है। ऐसे में अगर अपने खुद के लिए उनमें समझ नहीं है, तो वे कई वजहों से किसी भी तरह के झांसे में फंस सकती हैं, और बरसों के लिए तकलीफ और बदनामी की शिकार हो सकती हैं। दूसरी तरफ हम विकसित देशों में इसी उम्र की लड़कियों को देखते हैं जो कि अपने पसंद के लडक़ों के साथ उठती-बैठती हैं, अपने बराबरी के लोगों से रिश्ता रखती हैं, और जैसे जुर्म का शिकार वे हिन्दुस्तान में होती हैं, वैसे जुर्म विकसित देशों में सुनाई नहीं पड़ते। इसलिए लड़कियों को आजादी मिलने से वे अधिक खतरे में पड़ती हैं, यह सोच गलत है। लड़कियां उन समाजों में अधिक खतरे में पड़ती हैं, जहां पर लोग अधिक खतरनाक हैं, और जहां पर ऐसे लोग कानून के खतरे की तरफ से बेफिक्र भी हैं।
ऐसा लगता है कि अब स्कूल की बड़ी कक्षाओं में लड़कियों को उनके शरीर के बारे में अधिक पढ़ाने की जरूरत है, और समाज में जो खतरे हैं उनसे परिचय कराने की भी। फिर आज जिस तरह मोबाइल फोन और कैमरों के मार्फत ब्लैकमेल करने लायक तस्वीरें और वीडियो आसानी से बना लिए जाते हैं, उनके बारे में भी लड़कियों को सावधानी सिखाने की जरूरत है। आज न स्कूल इस बारे में कुछ करते, और न ही घर के लोग कोई स्वस्थ बातचीत इस बारे में करना चाहते हैं। घरवालों को लगता है कि महज प्रतिबंध लगा देने से सब ठीक हो जाएगा, जबकि ऐसा होता नहीं है। इस बात को भी अनदेखा नहीं करना चाहिए कि बालिग होने के पहले के कई बरस लड़कियों के तन-मन ऐसे बदलाव से गुजरते हैं कि उन्हें कई किस्म की नई जरूरतें पैदा होती हैं। इन जरूरतों के वक्त उनका किसी धोखे में फंस जाना एक आसान बात रहती है, और किशोरियों के लिए मनोवैज्ञानिक और कानूनी परामर्श का इंतजाम अनिवार्य रूप से होना चाहिए।
जिस तरह स्कूलों में पढ़ाने की तकनीक के लिए अब तमाम शिक्षक-शिक्षिकाओं का बीएड या एमएड करना जरूरी है, उसी तरह ऐसे तमाम शिक्षकों को मनोवैज्ञानिक परामर्श की एक सीमित और बुनियादी ट्रेनिंग दी जानी चाहिए ताकि वे स्कूल के बच्चों की मदद कर सकें। इस देश में पेशेवर मनोचिकित्सकों और परामर्शदाताओं की बहुत अधिक कमी है, इसलिए समाज यह उम्मीद नहीं कर सकता कि बच्चों की नई पीढ़ी को जरूरत के वक्त परामर्शदाता मिल जाएंगे। इसके लिए स्कूलों जैसी संगठित जगह का ही इस्तेमाल करना होगा, और वहां पर शिक्षक-शिक्षिकाओं को परामर्शदाता बनाना सबसे आसान और असरदार काम हो सकता है। उनकी ट्रेनिंग के लिए ऐसे वीडियो तैयार किए जा सकते हैं जिनमें पेशेवर प्रशिक्षक उन्हें बच्चों की समस्याएं सुलझाने के लायक तैयार कर सकें। सरकारों की अधिक दिलचस्पी इस काम में शायद इसलिए नहीं होती है कि नाबालिग लड़कियों का वोट नहीं होता, और सरकार और समाज यह मानकर चलते हैं कि ऐसी लड़कियों के लिए उनका परिवार ही जिम्मेदार है।
आए दिन सामने आ रही ऐसी घटनाओं को देखते हुए कुछ जनसंगठनों को यह पहल करनी चाहिए कि वे प्रयोग के तौर पर कुछ सरकारी या निजी स्कूलों में लड़कियों को अधिक जागरूक और जिम्मेदार बनाने का काम करें। यूनिसेफ जैसे अंतरराष्ट्रीय संगठन भी इसमें मदद कर सकते हैं, और लड़कियों को आत्मनिर्भर, आत्मविश्वासी, जागरूक और जिम्मेदार बनाना ही उन पर से खतरों को घटाने का एक तरीका हो सकता है। सरकार के कई विभाग और कई समाजसेवी संगठन इस काम में अपनी जिम्मेदारी ढूंढ सकते हैं।
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आज जब हिन्दुस्तान का सुप्रीम कोर्ट कई मामलों में यह कह चुका है कि सबसे गरीब तबके की इंसाफ तक पहुंच मुश्किल हो गई है, उस वक्त देश की बहुत सी अदालतों का रूख जाहिर तौर पर गरीबों के खिलाफ दिख रहा है। बहुत से मामलों में तो चुनाव लडक़र सरकार में आने वाले लोग गरीबों के लिए अधिक हमदर्दी दिखाते दिखते हैं क्योंकि गरीबों के वोट गिनती में अधिक होते हैं, और वे अधिक वोट भी देते हैं। लेकिन जिन जजों को कोई चुनाव नहीं लडऩा रहता, उन्हें अपनी सहूलियतें तो अच्छी लगती हैं, लेकिन गरीबों के हक की उन्हें परवाह नहीं दिखती है। ऐसा ही एक मामला सुप्रीम कोर्ट में अभी पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट के एक फैसले के खिलाफ दी गई चुनौती के दौरान सामने आया। वहां एक सडक़ हादसे में एक कामगार की मौत हुई थी, और उसे मोटर दुर्घटना दावा न्यायाधिकरण ने जो मुआवजा दिया था उसमें उसकी माहवारी कमाई 25 हजार रूपये जोड़ी गई थी। ट्रिब्यूनल ने यह हिसाब लगाया था कि यह कामगार हर महीने ट्रैक्टर के लिए लिए गए कर्ज का साढ़े 11 हजार रूपये महीना भुगतान मरने तक करते रहा। इससे ट्रिब्यूनल ने 25 हजार रूपये महीने की कमाई का अंदाज लगाया, और उस हिसाब से उसकी मौत का मुआवजा देने का आदेश दिया। लेकिन जब ट्रिब्यूनल के आदेश के खिलाफ हाईकोर्ट में मामला गया तो वहां जज ने उसकी मासिक आय 7 हजार रूपये मानी, और मुआवजे को घटा दिया। अभी सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के इस फैसले को खारिज किया और कहा कि ट्रिब्यूनल ने सही सोचा था, और हाईकोर्ट ने पता नहीं किस गोपनीय वजह से इस आदमी की कमाई घटाकर हिसाब बनाया है, जिसका कि कोई औचित्य नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट जज के खिलाफ काफी कड़ी टिप्पणी की है।
एक दूसरा मामला झारखंड का है जहां हाईकोर्ट के एक फैसले पर सुप्रीम कोर्ट ने फटकार लगाई है और कहा है कि क्या किसी के गरीब होने से उसे जमानत पाने का हक नहीं है? अदालत ने हाईकोर्ट के कई फैसलों को देखा जिनमें संपन्न आरोपियों से बड़ी रकम जमा कराकर हाईकोर्ट ने जमानत दे दी थी, और यह भी नहीं देखा था कि उन पर लगे आरोपों में जुर्म किस किस्म के थे। अभी सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे कई फैसले देखकर हाईकोर्ट को फटकारा है, और जमानत के लिए रकम जमा करने की ऐसी शर्तों को खारिज कर दिया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ऐसी शर्तें कानून के मुताबिक सही नहीं है। खबरें बताती हैं कि झारखंड हाईकोर्ट ने दहेज से लेकर धोखाधड़ी तक, और बलात्कार से लेकर पॉक्सो एक्ट तक के मामलों में बड़ी रकम जमा कराकर जमानत दे दी। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ऐसे सभी मामलों में जमानत को लेकर झारखंड हाईकोर्ट फिर से सुनवाई करे। सुप्रीम कोर्ट जजों ने कहा कि अगर कोई आरोपी बड़ी रकम जमा नहीं कर सकते, उनके पास पैसे नहीं है, तो इससे उन्हें जमानत देने से इंकार नहीं किया जा सकता, लेकिन यहां पर वही होते दिख रहा है, जज ने किस आधार पर ऐसा फैसला किया, यह हमारी समझ से परे है।
ये दो अलग-अलग मामले हाईकोर्ट जजों की एक संपन्न सोच का सुबूत हैं। एक तरफ एक कामगार की कमाई को मानने के लिए जज तैयार नहीं हैं, जबकि नीचे के ट्रिब्यूनल ने एक बड़ा ही न्यायसंगत हिसाब सामने रखा था। और दूसरी तरफ पैसे वालों को जमानत देना, गरीब को मना कर देना, यह भी न्याय व्यवस्था का एक भयानक पहलू है। हिन्दुस्तान में अदालत तक पहुंचने के पहले न्याय व्यवस्था जहां पुलिस के स्तर से शुरू होती है, वहां पर भी गरीब और अमीर का फर्क पहले दिन से दिखने लगता है। गरीब के खिलाफ आनन-फानन एफआईआर दर्ज हो जाती है, और पैसे वालों के खिलाफ एफआईआर करवाने के लिए गरीब को अदालत तक जाना पड़ता है, और वहां की मशक्कत के बाद कुछ मामलों में अदालती हुक्म से पुलिस को एफआईआर दर्ज करनी पड़ती है। तकरीबन पूरे हिन्दुस्तान में पुलिस का रूख गरीबविरोधी रहता है, अल्पसंख्यक और दलित-आदिवासीविरोधी रहता है, महिलाविरोधी रहता है। पुलिस की जांच के स्तर से ही सवर्ण, संपन्न, ताकतवर, और पुरूष के पक्ष में एक पूर्वाग्रह हावी रहता है। यह मामले के अदालत पहुंचने तक और मजबूत हो जाता है क्योंकि ऐसे ताकतवर तबकों के लोग अदालत तक अधिक रिश्वत देने की हालत में रहते हैं, अधिक महंगे वकील रख पाते हैं, और अधिक अदालती तिकड़मों को जुटा पाते हैं। नतीजा यह होता है कि गरीब के इंसाफ पाने की गुंजाइश बहुत ही कम रहती है। जिन दो अदालती मामलों को लेकर हम आज इस पर चर्चा कर रहे हैं, उन दोनों ही मामलों में गरीब लोग या उनके परिवार किस तरह हाईकोर्ट तक पहुंचे होंगे, इसका अंदाज लगाना मुश्किल नहीं है। जिला स्तर या उससे छोटी अदालतों तक भी किसी गरीब के पहुंचने की गुंजाइश बड़ी कम रहती है, और वे अदालत में मुकदमा भी लड़ते हैं, और अपने वकील की फीस की मांग और उम्मीद से भी लड़ते हैं। ऐसे में अगर हाईकोर्ट के जजों का रूख गरीबविरोधी रहता है, तो उनमें से कितने ऐसे होंगे जो कि ऐसे रूख के खिलाफ, ऐसे फैसलों के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट तक जा सकें?
हमारा खयाल है कि भारत के जजों को देश की सामाजिक हकीकत का एक कोर्स करवाना चाहिए, और उसके बाद ही उन्हें इंसाफ करने की कुर्सी पर बिठाना चाहिए। बिना सामाजिक असलियत जाने, और बिना सामाजिक सरोकार समझे कोई भी जज गरीब की तकलीफ को नहीं समझ सकते, और उन्हें फैसला देने का अधिकार उन्हें लोगों का भाग्य-विधाता बना देता है, और यह सिलसिला बहुत बेइंसाफी का है। भारतीय समाज में सत्ता के जितने ओहदे हैं, उन सबको सामाजिक सरोकार का पाठ पढ़ाने की जरूरत है। ऐसा लगता है कि आईएएस-आईपीएस जैसी ताकतवर नौकरियों में आने वाले लोगों को भी देश की आधी गरीब आबादी के प्रति सरकारी जिम्मेदारी नहीं पढ़ाई जाती है। अब जिस तरह से अरबपतियों को लोकसभा और विधानसभा में टिकटें मिल रही हैं, जिस तरह से वे जीतकर आ रहे हैं, उससे भी ऐसा लगता है कि उनमें सामाजिक सरोकार की कोई जगह नहीं रहती है। इसीलिए आज सत्ता पर बैठे अधिकतर लोग पूरी बेशर्मी से अपनी काली कमाई के महल बनाते हैं, और उन्हें किसी तरह की कोई शर्म-झिझक भी नहीं रहती। हिन्दुस्तान में ताकत की तमाम कुर्सियों को सामाजिक न्याय का पाठ पढ़ाने की जरूरत है। अगर सबसे बड़ी नौकरियों वाले लोगों को छांटने के बाद उन्हें इस हकीकत की ट्रेनिंग नहीं दी जाएगी, तो वे लोग काले अंग्रेजों की तरह राज करते रहेंगे। देश की बहुत सी अदालतों के जजों का भी यही हाल है कि वे जमीन से कट चुके हैं, और अपने हवाई महलों में रहते हुए मनमाने फैसले दे रहे हैं। यह सिलसिला खत्म करना चाहिए, और जनता को ऐसे सरकारी, संसदीय, राजनीतिक, और अदालती फैसलों के खिलाफ खुलकर लिखना चाहिए।
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अभी अमरीका में बसे हुए एक भारतवंशी ने इस बात पर अध्ययन किया कि बॉलीवुड की फिल्मों का बायकॉट करने के जो फतवे ट्विटर जैसे सोशल मीडिया पर संगठित तरीके से चलाए जाते हैं, उनके पीछे क्या नीयत रहती है, और उनका क्या असर होता है। मुम्बई फिल्म उद्योग को लेकर तरह-तरह के बहिष्कार के हैशटैग ट्विटर पर चलाए जाते हैं, और अब यह आम जानकारी है कि इनके पीछे कौन सी ताकतें होती हैं। इस अध्ययन में भी यह मिला कि बायकॉट के फतवे देने वाले ऐसे लोग एक खास धार्मिक विचारधारा से जुड़े हुए हैं, और ऐसे फतवों के अलावा उनका अभियान साम्प्रदायिक नफरत भी रहता है। इससे यह भी निकलकर सामने आया कि ऐसे बहिष्कार के फतवों से सिनेमाघरों में फिल्मों पर चाहे जो असर पड़ता हो, मोटेतौर पर मुस्लिम कलाकारों के बहिष्कार के अभियान से उन्हें आगे काम मिलने में परेशानी होती है क्योंकि फिल्म निर्माता यह सोचते हैं कि इतने विवाद में क्यों पड़ा जाए।
आज इंटरनेट पर टेक्नालॉजी की मदद से ऐसे एप्लीकेशन बनाए गए हैं जो कि एक साथ सैकड़ों ट्विटर हैंडल को चलाते हैं। बात की बात में कुछ दर्जन लोग इनकी मदद से ट्विटर पर एक अभियान शुरू कर सकते हैं, और हिन्दुस्तान जैसे कानून की मेहरबानी से जिसका विरोध करना हो उसके परिवार को हत्या और बलात्कार की धमकी भी दे सकते हैं, और उस पर कोई कार्रवाई न होने की गारंटी रहती है। देश की सबसे बड़ी अदालत के किसी जज के परिवार को इसी तरह की धमकी अगर मिली होती, तो अब तक केन्द्र सरकार से लेकर ट्विटर तक सभी कटघरे में होते, लेकिन लोकतंत्र में नौबत इतनी खराब होने के पहले भी कानून का राज कायम होने की गुंजाइश होनी चाहिए। अब जब तक देश का कानून जागता नहीं है, जब तक केन्द्र या राज्य सरकारों को सोशल मीडिया पर ऐसे जुर्म के खतरे समझ नहीं आते हैं, तब तक इन खतरों को आम जनता को ही समझना होगा।
आज सोशल मीडिया पर हालत यह है कि किसी विचारधारा के प्रति समर्पित भक्तमंडली या भाड़े के लोग मिलकर किसी का भी जीना हराम कर सकते हैं। कानून ऐसे हमलों से किसी को नहीं बचाता, बल्कि हमलावर-मुजरिमों को ही बचाता है। नतीजा यह होता है कि जिस तरह एक वक्त गांवों में जमींदारों के लठैत रहते थे, और वे जमींदार की मर्जी से जिसे चाहे उसे कूट आते थे, आज भी हिन्दुस्तान के सोशल मीडिया में ऐसे ही लठैत रात-दिन अतिसक्रिय हैं, और इस देश के साम्प्रदायिक सद्भाव को खत्म करने में जुटे हुए हैं। आज अगर अमरीका में बैठे हुए कोई व्यक्ति हिन्दुस्तान में ऐसे अभियान के खिलाफ नीयत की शिनाख्त कर सकता है, तो यह काम भारत सरकार क्यों नहीं कर सकती? जो सरकार बात-बात में ट्विटर के साथ इस बात को लेकर भिड़ जाती है कि उसे कौन-कौन से हैंडल बंद करने हैं, वह सरकार अपना घर क्यों नहीं देखती कि उसकी संवैधानिक जिम्मेदारी के तहत जो लाखों ट्विटर अकाऊंट रात-दिन नफरत फैला रहे हैं, उन पर रोक लगाए। और यह रोक लगाने के लिए ट्विटर पर उनके खाते बंद करवाना तो दूर रहा, भारत सरकार ऐसे खुले जुर्म के खिलाफ कोई कानूनी कार्रवाई भी नहीं कर रही है। यह सिलसिला देश की हवा को और जहरीला बनाते चल रहा है, और अब लोगों को यह लगने लगा है कि साम्प्रदायिकता, हिंसा, और तरह-तरह के दूसरे जुर्म की धमकियां फैलाना अब इस लोकतंत्र में कानूनसम्मत हो चुका है। मुजरिमों का ऐसा भरोसा किसी भी लोकतंत्र को तबाह करने के लिए बहुत है।
हमें इस बात को लेकर भी बहुत हैरानी होती है कि केन्द्र सरकार के संबंधित मंत्रालयों की जो सलाहकार समितियां हैं, और जिनमें कई पार्टियों के सांसद मेंबर हैं, वहां भी ऐसे जुर्म के खिलाफ कार्रवाई नहीं हो पा रही है। लोकतंत्र ने जनता को जो बराबरी का हक दिया था, आज उसे कोई विचारधारा, कोई संगठन अपने लठैतों को चुनिंदा निशानों के पीछे लगाकर उनका जीना हराम कर रहे हैं, और कानून उनकी मदद के लिए मौजूद नहीं है। इस ताजा अध्ययन ने यह पाया है कि बॉलीवुड में ऐसे मुस्लिम कलाकारों को अधिक निशाना बनाया जा रहा है जिनकी शादी हिन्दुओं से हुई है, ताकि आगे जाकर उन्हें काम मिलने में दिक्कत हो। इसके पीछे उस विचारधारा का सीधा-सीधा हाथ है जो कि अपनी पार्टी से बाहर की ऐसी शादियों को लव-जेहाद कहती है, और हिंसा की हद तक धमकियां देती है। यह भारत सरकार की संवैधानिक जिम्मेदारी है कि वह अंतरराष्ट्रीय सोशल मीडिया पर हिन्दुस्तानी नागरिकों के खिलाफ इसी जमीन से चल रहे ऐसे नफरती-हिंसक अभियान पर कार्रवाई करे। कहने के लिए तो भारत का आईटी एक्ट इतना कड़ा है कि उससे बचने की गुंजाइश नहीं रहती है, लेकिन खुले साइबर-सुबूतों के बाद भी सरकार का कार्रवाई न करना बहुत ही शर्मनाक है। यह लोकतंत्र के भीतर अपने से असहमत लोगों का जीना हराम करने का बहुत बड़ा जुर्म है, और जनता के बीच से सरकार की जिम्मेदारी और जवाबदेही को लेकर सवाल उठने चाहिए। जब तक अदालतों पर कोई सीधा हमला नहीं होता है, तब तक अदालतें आज की तारीख में आम जनता के हकों को लेकर बेपरवाह दिख रही हैं, और ऐसे में जनता के बीच ही एक जागरूकता उठ खड़ी होना जरूरी है, वही एक रास्ता दिखता है।