संपादकीय
भारत जोड़ो यात्रा के दौरान कर्नाटक पहुंचे राहुल गांधी की एक आमसभा चल रही थी, और बारिश होने लगी। उन्होंने बिना रूके भाषण देना जारी रखा। इसकी तस्वीर कुछ फोटोग्राफरों ने कैद कीं, और सोशल मीडिया पर वे तस्वीरें छा गईं। यह बात भी खबर में नहीं आई कि राहुल गांधी ने उस मौके पर भाषण में क्या कहा, बस बारिश की परवाह किए बिना भाषण देना लोगों को छू गया। कुछ लोगों ने यह भी याद किया कि अभी साल-दो साल के भीतर ही शरद पवार भी महाराष्ट्र में इसी तरह भीगते हुए भाषण देते दिखे थे। कुछ लोगों ने दोनों तस्वीरों को जोडक़र एक कार्टून भी बनाया। हालांकि बारिश में कुछ देर भीग जाना सरहद पर गोलियां खाने सरीखा नहीं है, इसमें कोई बहुत बड़ी बहादुरी नहीं है, लेकिन आज देश की आबादी का एक हिस्सा नफरत से इतना थका हुआ है, उसकी वजह से इतनी दहशत में है कि उसने राहुल की इस पदयात्रा को हाथोंहाथ लिया है क्योंकि यह नफरत की बात नहीं कर रही है। लोगों के लिए हिन्दुस्तान में आज यह बात कुछ अटपटी है कि कोई नेता लगातार जनता के बीच चले, रोज कई भाषण दे, फिर भी नफरत की कोई बात न करे। इसलिए राहुल एक ठंडी और ताजी हवा के झोंके की तरह हैं जो कि नफरत से झुलसे हुए देश को राहत दे रहे हैं। उनकी एक तस्वीर ने लोगों को इतना छू लिया है कि मानो लोग किसी भली चीज को छूने के लिए तरसे हुए थे। जिस तरह रेगिस्तान में ठूंठ की तरह सूखा हुआ खजूर का पेड़ भी हरियाली लगता है, उसी तरह आज हिन्दुस्तान में गैरनफरती बातें राहुल को एक नायक की तरह पेश कर रही हैं।
यह मौका राहुल की चर्चा का कम है, यह देश के हालात पर चर्चा का अधिक है। नफरत इस हद तक बढ़ाई जा रही है कि यहां सामाजिक संस्कृति पर हमला करके धार्मिक कट्टरता उसे लहूलुहान कर दे रही है। आज की ही खबर है कि मध्यप्रदेश और गुजरात में बजरंग दल सरीखे निगरानी दस्तों ने नवरात्रि के गरबा कार्यक्रमों में पहुंचे गैरहिन्दुओं को ढूंढ-ढूंढकर निकालकर पीटा, और इन दोनों प्रदेशों में कई जगहों पर इसे लेकर तनाव खड़ा हो गया है। यह बहुत नई बात भी नहीं है, और पिछले कई बरस से ऐसा ही तनाव हर नवरात्रि पर होते आया है। जो बात हमारी समझ से परे है वह यह कि अगर किसी एक धर्म के आयोजक दूसरे धर्मों के लोगों को कट्टरता से बाहर रखना चाहते हैं, उसके लिए कानून भी अपने हाथ में लेने से नहीं हिचक रहे हैं, तो फिर दूसरे धर्मों के लोगों को ऐसे आयोजनों में शामिल होकर तनाव और टकराव क्यों बढ़ाना चाहिए? अगर आयोजकों ने जगह-जगह गैरहिन्दुओं के दाखिले पर रोक के नोटिस लगा रखे हैं, तो ऐसे आयोजनों में गैरहिन्दुओं को जाना क्यों चाहिए? इन लोगों को यह बात समझनी चाहिए कि हिन्दू धर्म के जो अधिक कट्टर और अधिक हिंसक लोग हैं, वे तो अपने ही धर्म के दलितों को किसी भी सवर्ण धार्मिक कार्यक्रम में नहीं घुसने देते, गांवों में आज भी सडक़ किनारे के चाय ठेलों पर दलितों के लिए अलग कप-गिलास रहते हैं, जिन्हें इस्तेमाल के बाद धोकर रखना भी उन्हीं की जिम्मेदारी रहती है। जो समाज अपने भीतर इतना हिंसक भेदभाव करता है, उस समाज में, उसके कट्टर धार्मिक कार्यक्रमों में घुसने की कोशिश दूसरे धर्म के लोगों को क्यों करनी चाहिए? इसलिए अब जब सामाजिक संस्कृति मारी गई है, और एक हिंसक धर्मान्धता राज कर रही है, तो किसी तबके को इस टकराव को बढ़ाना नहीं चाहिए, क्योंकि हर टकराव हवा में और अधिक जहर घोलते चलेगा।
जैसे ही राहुल गांधी की भारत जोड़ो पदयात्रा की चर्चा की, तो तुरंत ही यह दिखने लगा कि इस देश को जोडऩे की जरूरत कितनी है, क्यों है, और किस तरह इस देश को टुकड़ों में तोड़ दिया गया है। आज राहुल सरीखे नेता की जरूरत इसलिए है कि देश के अलग-अलग धर्मों के, अलग-अलग जातियों के लोगों को एक साथ रखना नामुमकिन सा हो गया है क्योंकि उन्हें बहुत बड़ी योजना और साजिश के तहत एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा किया गया है। अब तक राहुल गांधी जितना पैदल चले हैं, उन्हें भारत के मीडिया में कोई कवरेज चाहे न मिला हो, उन्हें जनसमर्थन भरपूर मिल रहा है। कदम-कदम पर घरेलू लोग भी सामने आकर उनसे लिपट रहे हैं, उनके साथ चल रहे हैं, जबकि रोजाना लंबा सफर तय करते हुए वे धीरे नहीं चल पा रहे हैं। फिर भी लोग हैं कि अपने बच्चों के साथ आ रहे हैं, बच्चे हैं कि राहुल से लिपट रहे हैं, और उनके साथ चल रहे हैं। जो एक बहुत ही साधारण बात होनी चाहिए थी, वह बात आज अनोखी सी लग रही है, क्योंकि बाकी देश की हवा बहुत जहरीली हो चुकी है। आज देश के सुप्रीम कोर्ट को भी देखें तो उसमें अलग-अलग कई अदालतों में धार्मिक नफरत के मामले इतने अधिक दिख रहे हैं कि ऐसा लगता है कि इस देश का सबसे बड़ा काम ही आज नफरत करना हो गया है, और अदालतों का काम ऐसी नफरत से जूझना रह गया है। ऐसे माहौल में भारत जोड़ो के शब्द ही लोगों को एक किस्म से राहत दे रहे हैं कि राजनीति में रहते हुए भी कोई व्यक्ति किस तरह जोडऩे की बात कर सकते हैं।
एक बार फिर नवरात्रि के गरबा को लेकर हो रहे तनाव की बात पर लौटें तो यह समझने की जरूरत है कि कोई भी धर्म अपने आम मिजाज की तरह, और अपने बनाए जाने के मकसद के मुताबिक, अपने सबसे कट्टर लोगों के कब्जे में जाता ही है। जो सांस्कृतिक आयोजन धर्म का सामाजिक विस्तार रहते थे, वे भी अब धीरे-धीरे कट्टर बना दिए गए हैं, और ऐसे में किसी भी धर्म को दूसरे धर्म के आयोजनों में दाखिल होने के बारे में सोचना नहीं चाहिए। इसी हिन्दुस्तान में अभी एक दशक पहले तक जो सामाजिक समरसता बची हुई थी, वह इन कुछ बरसों में ही पूरी तरह खत्म हो चुकी है, और यह खात्मा एक हकीकत बन चुका है। इसलिए यहां पर अभी आदर्श की अधिक बातों की कोई गुंजाइश उन आयोजनों में नहीं है जिनके पीछे कट्टर आयोजक हैं। इसलिए न सिर्फ दूसरे धर्मों के लोगों को ऐसे आयोजनों से दूर रहना चाहिए, बल्कि इन धर्मों के समझदार और सद्भावना वाले लोगों को यह सोचना चाहिए कि क्या वे ऐसे कट्टर आयोजनों में शामिल होना चाहते हैं?
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
कोलकाता के अंग्रेजी अखबार टेलीग्राफ ने पहले पन्ने पर एक बड़ी सी तस्वीर छापी है जो कि एक दुर्गोत्सव की है। यह दुर्गा पूजा का ही सालाना वक्त चल रहा है, इसलिए इसमें अटपटा कुछ नहीं है सिवाय दुर्गा प्रतिमा में दुर्गा के हाथों मारे जाते महिषासुर के। महिषासुर की जगह गांधी जैसे दिखने वाले एक व्यक्ति की प्रतिमा बनाई गई है, और इसके पीछे हिन्दू महासभा का यह आयोजन है जिसमें गांधी को दानव की तरह पेश किया गया है। कहने को कल ही देश भर में गांधी जयंती मनाई गई, और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सहित तमाम लोगों ने गांधी को याद किया। लेकिन इस देश में गोडसे के भक्त हैं कि वे कहीं गांधी की तस्वीर को गोलियां मारते हैं, तो मध्यप्रदेश से गोडसे की भक्त, भाजपा की सांसद साध्वी प्रज्ञा ठाकुर गांधी को गालियां देती हैं, और गोडसे की स्तुति करती हैं। इस बीच ऐसे संगठनों के लोग भी गांधी की स्तुति करते दिखते हैं जो कि जाहिर तौर पर गांधी-हत्या के पीछे शामिल थे, लेकिन आज हिन्दुस्तान में किसी भी तरह की सामाजिक मान्यता पाने के लिए गांधी स्तुति जरूरी रहती है, इसलिए वे भी मन मारकर गांधी जयंती पर श्रद्धांजलि देते दिखते हैं। अब ममता बैनर्जी के राज पश्चिम बंगाल में दुर्गा के हाथों गांधी का एक बार फिर कत्ल करवाते हुए हिन्दू महासभा के लोगों का कलेजा ठंडा पड़ा होगा क्योंकि पौन सदी पहले वे गांधी के शरीर को ही मार पाए थे, गांधी की सोच अब भी जिंदा है।
कुछ लोग हैरान हो सकते हैं कि गांधी के इस देश में यह हत्यारी सोच किस तरह आज भी चली आ रही है। ऐसे हैरान-परेशान लोगों को यह बात अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि जो लोग छोटे-मोटे हिंसक संगठनों की तरह हमलावर तेवरों के साथ गांधी पर आज भी गोलियां चलाते हैं, उनके संगठन उतने छोटे भी नहीं हैं जितने छोटे वे दिखते हैं। आज भी जो एक हत्यारी सोच गोडसे को स्थापित करने में लगी है, वह बढ़ते-बढ़ते गांधी स्मृति संस्थानों तक पहुंच चुकी है, और गांधी-हत्या में कटघरे तक पहुंचने वाले, और सुबूत न होने से छूटने वाले सावरकर को गांधी के समानांतर खड़ा करने की कोशिश में लगी हुई है। गांधी स्मृति संग्रहालय के ट्रस्टी केन्द्र सरकार तय करती है, और इस समिति की पत्रिका ‘अंतिम जन’ के कवर पेज पर सावरकर को लेकर भीतर सावरकर की स्तुति छपी है और उनका लिखा हुआ छपा है। इस समिति के अध्यक्ष प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी खुद हैं, और इसका औपचारिक प्रकाशन गांधी के मुकाबले सावरकर को खड़ा करने में लगा है। इस तरह की कोशिशें सरकार के कई अलग-अलग संगठन कर रहे हैं, और इन कोशिशों की नीयत समझना मुश्किल भी नहीं है।
हिन्दू महासभा जैसे छोटे दिखने वाले संगठनों के मार्फत जिस तरह गोडसे-पूजा हो रही है वह हिन्दुस्तानी जनता के बर्दाश्त का इम्तिहान है जो कि हर बरस कई बार कई तरह से लिया जाता है। जिस तरह किसी बीमारी से बचाव का टीका उसी बीमारी के वायरस की छोटी-छोटी मात्रा देकर लगाया जाता है, उसी तरह हिन्दुस्तान में गांधी के हत्यारों का महिमामंडन धीरे-धीरे करके इस हत्यारी सोच को मान्यता दिलाई जा रही है। जब किसी झूठ को हजार बार दुहराया जाता है, तो वह काफी लोगों द्वारा सच मान लिया जाता है। सावरकर से लेकर गोडसे तक का महिमामंडन तरह-तरह से किया जा रहा है, और गांधी के साथ जुड़े हुए राष्ट्रपिता नाम के शब्द को चुनौती भी लगातार दी जा रही है। आने वाले वक्त में जल्द ही सावरकर को भारतरत्न की उपाधि भी दी जा सकती है, और गांधी से राष्ट्रपिता की उपाधि हटाने की मांग तो चल ही रही है। यह भी समझने की जरूरत है कि भाजपा से जुड़े हुए संगठनों के लोग लगातार जिस तरह यह कोशिश करते हैं, और बीच-बीच में खुद भाजपा के औपचारिक नेता जिस तरह गांधी पर हमला करते हैं, और गोडसे-सावरकर की स्तुति करते हैं, इन सबको कतरा-कतरा मनमानी मानना गलत होगा। यह सब हिन्दुत्व की उस हमलावर सोच का हिस्सा हैं जो कि गांधी को मार डालने की वकालत करती है। देश में आज कई मुद्दों पर जनता का बर्दाश्त बढ़ाया जा रहा है। मुस्लिमों और दूसरे अल्पसंख्यकों के खिलाफ एक माहौल खड़ा करके बहुसंख्यक हिन्दू तबके के अधिक से अधिक लोगों के बीच ऐसे हिंसक बर्दाश्त को बढ़ाया जा रहा है। इसी तरह कहीं मांसाहार के खिलाफ, तो कहीं लोगों की गैरहिन्दू उपासना पद्धति के खिलाफ, तो कहीं उनके पहरावे के खिलाफ माहौल बनाया जा रहा है। तमाम मुस्लिमों को आतंकी साबित करने के लिए दुनिया भर के मुस्लिम देशों की मिसालें ढूंढ-ढूंढकर लाई जा रही हंै, और उन्हें बढ़ावा दिया जा रहा है। यह सिलसिला लगातार चल रहा है, और यह सिर्फ हिन्दू महासभा जैसे छोटे दिखते संगठन की अकेले की सोच हो, यह सोचना भी नासमझी होगी।
कोलकाता में दुर्गा पूजा जैसे धार्मिक, और जागरूकता से भरे हुए त्यौहार का ऐसा हिंसक, हत्यारा, और साम्प्रदायिक इस्तेमाल भी अगर इस देश के प्रधानमंत्री और बंगाल की मुख्यमंत्री को कानूनी कार्रवाई के लिए तैयार नहीं कर सकता, तो फिर यही मानना होगा कि उनके मन में हिन्दू महासभा की इस प्रतिमा को लेकर कोई शिकायत ही नहीं है। एक तरफ तो बंगाल की इस बार की ही साज-सज्जा में कहीं पर किसी विदेशी कलाकार की पेंटिंग्स दिखती हैं तो कहीं ईसाईयों के सबसे बड़े तीर्थस्थान वेटिकन को दिखाते हुए दुर्गा पूजा की साज-सज्जा की गई है। बंगाल ऐसे उदार राजनीतिक विचार वाले धार्मिक समारोहों का प्रदेश है, लेकिन वहां पर हिन्दू महासभा जैसे नफरतजीवी लोगों ने गांधी की हत्या का ऐसा धार्मिक बेजा इस्तेमाल किया है। क्या इस देश में किसी हिन्दू की धार्मिक भावनाओं को इससे ठेस पहुंचती है?
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
उत्तरप्रदेश के कानुपुर में एक मंदिर से मुंडन कराकर लौट रहे लोगों की ट्रैक्टर-ट्रॉली एक तालाब में जा गिरी, और 27 लोग मारे गए। ट्रैक्टर चला रहे आदमी के बेटे का ही मुंडन था, और तमाम लोग रिश्तेदार और करीबी लोग थे। मुंडन से लौटते हुए रास्ते में सभी ने शराब पी थी, और ड्राइवर खुद नशे में अंधाधुंध रफ्तार से ट्रैक्टर-ट्रॉली दौड़ा रहा था। अब जब हादसा हो ही गया है तो मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा है कि ट्रैक्टर-ट्रॉली का इस्तेमाल सिर्फ सामान ढोने के लिए होना चाहिए, और अगर इसमें लोगों को ढोया गया तो उस पर कड़ी कार्रवाई होगी।
यह हादसा उत्तरप्रदेश में जरूर हुआ है, लेकिन देश के अधिकतर हिस्सों में ट्रैफिक नियमों का यही हाल है। ट्रैक्टर-ट्रॉली के अलावा ट्रक और दूसरे मालवाहक इंसानों को ढोकर चलते हैं। इनमें किसी तरह की कोई हिफाजत तो हो नहीं सकती है, और ऐसा भी नहीं कि ये किसी धार्मिक या पारिवारिक कार्यक्रम में आने-जाने वाले लोग ही हों, कारोबारी गाडिय़ों में मुसाफिरों को ले जाने का काम ग्रामीण भारत में जगह-जगह देखने मिलता है। और अभी जब एक बड़े कारोबारी की कार हादसे में मौत हुई, और केन्द्र सरकार ने कारों में पीछे की सीट पर बैठे हुए लोगों के लिए भी सीट बेल्ट जरूरी करने की बात कही, तो लोगों ने देश भर से गाडिय़ों की छतों पर लबालब सवार लोगों की तस्वीरें पोस्ट कीं कि ये कौन सा सीट बेल्ट लगाएंगे? इंसान की जिंदगी इस कदर सस्ती मान ली गई है कि उसे बचाने की कोई भी कोशिश न की जाए, तो भी सरकार की साख पर अब सवाल नहीं उठते। एक वक्त था जब राजनीतिक सभाओं के लिए लोगों को इसी तरह ट्रैक्टर-ट्रॉली और ट्रकों में ढोया जाता था। अब लोग खुद अपने हक की मांग करने लगे हैं, और वे बसों या दूसरी मुसाफिर गाडिय़ों के बिना किसी सभा की भीड़ बढ़ाने नहीं जाते। नतीजा यह है कि रेत-गिट्टी की तरह इंसानों को ढोना कुछ घटा है। लेकिन यह सिर्फ राजनीतिक सभाओं में घटा है, देश के शहरों में खुद सरकारी गाडिय़ां और मशीनें मजदूरोंं को ढोकर चलती हैं, बुलडोजरों पर मजदूरों को ढोया जाता है, और मौत होने पर मुख्यमंत्रियों के पास राहत देने के लिए तो अपार ताकत है ही।
अब हिन्दुस्तान में किसी भी तरह का सरकारी सुधार अदालती दखल के बिना होना मुमकिन नहीं रह गया है। और तो और हिंसक कोलाहल करते हुए जुलूस और बारात भी अदालती दखल के बिना रोकने की कल्पना सरकार नहीं करती, बल्कि अदालती हुक्म के बाद भी नहीं रोकती। ऐसे में अगर मुसाफिर ढोने वाले ऑटोरिक्शा तीन सवारियों के बजाय एक मिनी बस की तरह डेढ़-दो दर्जन सवारियां लेकर चलते हैं, तो इन्हें न रोकने के सरकारी फैसले के खिलाफ अदालत जाने के अलावा लोगों के पास और रास्ता क्या है? ऐसी गाडिय़ां सडक़ों पर अपने मुसाफिरों के अलावा भी दूसरों के लिए भी खतरनाक होती हैं, और इन पर रोक लगाने का काम जनता की भीड़ अगर करेगी, तो उस पर वही अफसर तरह-तरह के जुर्म लगा देंगे जिन पर ऐसी गाडिय़ों को रोकने की कानूनी जिम्मेदारी बनती है। लोगों के बीच यह जागरूकता आना जरूरी है कि सडक़ों पर ट्रैफिक नियम तोडऩे देना सरकार का हक नहीं है, बल्कि इन नियमों को लागू करवाना जनता का हक है।
अब ऐसा लगता है कि सुप्रीम कोर्ट और देश के अलग-अलग हाईकोर्ट को अपनी वेबसाईट बनानी चाहिए, और सोशल मीडिया पेज बनाने चाहिए जहां पर लोग कानून तोड़े जाने के खिलाफ सुबूत पोस्ट कर सकें। यह बात अदालतें बरसों से मान रही हैं कि उन तक दौड़ लगा पाना आम लोगों के बस के बाहर की बात है। अब जरिया यही हो सकता है कि लोग अदालतों के सोशल मीडिया पेज पर कानून तोडऩे के वीडियो पोस्ट करें, और अदालतें अपना सोशल मीडिया-मित्र तैनात करके ऐसे मामलों पर सरकार से जवाब-तलब करे। किसी हाईकोर्ट को तो ऐसी पहल करनी पड़ेगी, और आज जब मोबाइल फोन और इंटरनेट का वक्त आ चुका है, तब जनता से यह उम्मीद करना कि वह सरकार से शिकायतों को लेकर कोई वकील तय करके अदालत तक जाए। अब लोगों को अदालत तक एक आसान और मुफ्त की पहल मुहैया कराना जरूरी है। कायदे की बात तो यह होती कि जिलों में पुलिस और प्रशासन ने ही ऐसी पहल की होती क्योंकि कानून तोड़े जाने की शिकायत तो सरकार के काम में मदद के अलावा कुछ नहीं है, लेकिन सरकारों में संगठित भ्रष्टाचार इतना अधिक है कि कानून तोडऩे वालों से माहवारी वसूलना एक बेहतर काम है, आसान काम है, बजाय कानून लागू करने के। उत्तरप्रदेश का यह ताजा हादसा ऐसे ही संगठित भ्रष्टाचार का एक सुबूत है, और यह बात पूरे देश में इसी एक प्रदेश में कोई अनोखी बात नहीं है, अधिकतर राज्यों में हाल ऐसा ही है, और जहां हादसा हो गया है वहां की बात सिर चढक़र दिख रही है। बाकी राज्यों को भी अपना-अपना घर सुधारना चाहिए, और इंसानी जिंदगियों को भ्रष्टाचार के लिए खत्म करना बंद करना चाहिए। किसी भी सरकार को कानून तोडऩे वालों को ऐसी छूट देने का कोई हक नहीं है, और अगर सरकारें अपनी जिम्मेदारी पूरी नहीं करती हैं, तो फिर जनता को सोशल मीडिया पर इसके सुबूत लगातार पेश करना चाहिए, हो सकता है कि किसी हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट के जज को इस पर कार्रवाई करना जरूरी लगे।
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
उत्तरप्रदेश के वाराणसी में महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ के एक अतिथि व्याख्याता मिथिलेश गौतम को विश्वविद्यालय ने उनकी एक फेसबुक पोस्ट पर खड़े-खड़े बर्खास्त कर दिया है, और विश्वविद्यालय के अहाते में उनके घुसने पर रोक लगा दी है। मिथिलेश गौतम ने लिखा था- महिलाओं को नौ दिन के नवरात्र व्रत से अच्छा है कि नौ दिन भारतीय संविधान और हिन्दू कोड बिल पढ़ लें, उनका जीवन गुलामी और भय से मुक्त हो जाएगा, जय भीम।
नाम और जय भीम इन दोनों से यह जाहिर है कि मिथिलेश गौतम दलित समाज के दिखते हैं, और उन्होंने हिन्दू धर्म की मान्यताओं के मुकाबले भारतीय संविधान का गुणगान करते हुए हिन्दू महिलाओं को संविधान पढऩे की एक साधारण और पूरी तरह कानूनी सलाह दी थी। लेकिन इस सलाह पर विश्वविद्यालय की कुलसचिव डॉ. सुनीता पांडेय के दस्तखत से जारी बर्खास्तगी की चिट्ठी में कहा गया है कि विश्वविद्यालय के छात्रों ने 29 सितंबर को सोशल मीडिया पर डॉ. गौतम की पोस्ट के खिलाफ शिकायती पत्र दिया। डॉ. गौतम की इस हरकत से विश्वविद्यालय के छात्रों में आक्रोश फैलने, माहौल खराब होने, और इम्तिहान और दाखिला बाधित होने की वजह से राजनीति शास्त्र के अतिथि प्रवक्ता डॉ. गौतम को तुरंत ही बर्खास्त करते हुए विश्वविद्यालय परिसर में उनके आने पर रोक लगाई जाती है। 29 सितंबर को ही छात्रों ने यह शिकायत की, और उसी दिन यह बर्खास्तगी हो गई। इस रफ्तार से ही यह जाहिर है कि यह इंसाफ किस तरह का हुआ होगा। और यह बात तो समझ से परे है ही कि हिन्दू महिलाओं को भारतीय संविधान और हिन्दू कोड बिल पढऩे की सलाह देना किस तरह एक दलित का जुर्म करार दिया जा सकता है?
जो हिन्दू धर्म हिन्दुस्तान में अपनी आबादी के आंकड़े बढ़ा-चढ़ाकर बताने में लगे रहता है, वह हिन्दू धर्म जनगणना निपट जाने के बाद अपने तथाकथित लोगों के भीतर से दलितों और आदिवासियों को कुचलने और काटने में जुट जाता है। दलितों को हिन्दुओं की संख्या बढ़ाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है, ठीक उसी तरह जिस तरह कि जब भारत सरकार से कमेटी मेडिकल कॉलेज की जांच के लिए आती है तो घर बैठे रिटायर्ड चिकित्सा-प्राध्यापक को भी मेहनताने पर ला-लाकर मेडिकल कॉलेज के शिक्षकों की गिनती बढ़ाकर दिखाई जाती है ताकि मान्यता मिल जाए। उसी तरह देश में सबसे अधिक हिन्दू आबादी साबित करने के वक्त हिन्दू समाज के सबसे आक्रामक शुद्धतावादी लोगों को भी दलित और आदिवासी हिन्दू लगने लगते हैं, और जनगणना के तुरंत बाद ये अवांछित लोग उन्हें सरकारी दामाद लगने लगते हैं, और तुलसी दास के शब्दों में ताडऩ के अधिकारी लगने लगते हैं, यानी मार खाने लायक। अब एक दलित ने अगर हिन्दू धर्म के पूजा-पाठ के किसी रिवाज के मुकाबले देश के संविधान को पढऩा बेहतर बताया है, तो इसे जुर्म करार देते हुए उसकी नौकरी खत्म कर दी गई। और बात सही भी है कि किसी भी धर्म के अस्तित्व को सबसे बड़ा खतरा किसी संविधान से ही हो सकता है, और खासकर तब जब वह संविधान समाज सुधार की बात भी करता हो, और धर्म के सबसे कट्टरपंथी शुद्धतावादी ऐसे किसी संभावित सुधार के खिलाफ लगे रहते हों। अभी महात्मा गांधी के नाम पर बनाए गए इस विश्वविद्यालय ने मेहरबानी यही की है कि इस दलित के मुंह और कान में पिघला हुआ सीसा भर देने की सजा नहीं सुनाई है, महज नौकरी से निकाला है।
हिन्दुस्तान के विश्वविद्यालयों के चाल-चलन को देखें, तो हैरानी होती है कि इनका विश्व से क्या लेना-देना हो सकता है? इनका तो अपने देश से, अपने ही प्रदेश से कोई लेना-देना नहीं है, देश के संविधान से कोई लेना-देना नहीं है, संविधान की चर्चा जहां एक जुर्म है, वैसे संस्थान भला क्या खाकर विश्व की बात कर सकता है? दुनिया के महान विश्वविद्यालय खुले शास्त्रार्थ से ही पनप सकते हैं, पनपते हैं। गहरे अंधेरे कुएं, या लंबी अंधेरी सुरंग जैसे दिमाग वाले लोग विश्व शब्द इस्तेमाल करने का भी हक नहीं रखते। जिनको संकुचित धार्मिक मान्यताओं के मुकाबले एक धर्मनिरपेक्ष संविधान के प्रावधानों की चर्चा भी बर्दाश्त नहीं है, वे विश्व से कौन सा ज्ञान ले सकते हैं, और कौन सा ज्ञान विश्व को दे सकते हैं? अगर एक दलित की दी गई सलाह कट्टरपंथी, तंगदिमाग, शुद्धतावादी हिन्दू पुरूषप्रधान लोगों को इतनी खटक रही है, तो उन्हें कार्रवाई के कोड़े मारकर एक सवालिया दलित की नौकरी खाने से अधिक हौसले का कुछ करके दिखाना चाहिए। उन्हें आत्ममंथन करना चाहिए कि वे अपने धर्म की मान्यताओं को बेहतर कैसे बना सकते हैं। सवाल को विश्वविद्यालय के अहाते में घुसने से रोक देना यह बताता है कि यह संस्थान विश्वविद्यालय बनने के लायक नहीं है। जहां सवालों पर रोक लगे वह जगह समझदारी की किसी भी बात के लायक नहीं है।
आज हिन्दुस्तान में हिन्दू धर्म या हिन्दू समाज के नाम पर एक शुद्धतावादी-कट्टरपंथी हमलावर सोच हावी है, और वह अपने आपको मानो इस विशाल समाज का सरगना मान चुकी है। इस स्वघोषित अगुवाई को आज की सत्ता से भी बेहिसाब ताकत हासिल है, और ऐसे ही हमलावर हिन्दुत्व की वजह से दलितों और आदिवासियों को इस धर्म-समाज से परे दूसरे रास्ते सूझते हैं। जो दलित अपने को एक वक्त हिन्दू मानते थे, वे बीती पौन सदी में लगातार ऐसे हिन्दुत्व को छोड़-छोडक़र दूसरे धर्मों में गए। दूसरी तरफ जिन आदिवासियों ने अपने को कभी हिन्दू नहीं माना, उन्होंने भी अपने आदिवासी-धर्म को छोडक़र अगर कोई दूसरा धर्म अपनाया है, तो उन्होंने हिन्दुत्व नहीं अपनाया। यह बात जाहिर है कि हिन्दू धर्म के भीतर वर्ण व्यवस्था के पांवों के भी नीचे की जगह पाने से बेहतर यह है कि दलित और आदिवासी ऐसे दूसरे धर्म में रहें जहां उन्हें कम से कम इंसान तो माना जाता है। महात्मा गांधी के नाम पर बनाए गए इस विश्वविद्यालय से गांधी का नाम तो पहले हटा देना चाहिए, और फिर वहां बेधडक़ दलितविरोधी काम करना चाहिए, कम से कम गांधी का नाम बदनाम न हो।
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
किसी भी विकसित लोकतंत्र में सुप्रीम कोर्ट को आम लोग एक अदालत मान लेते हैं। दरअसल यह बहुत से जजों की अलग-अलग, और मिलीजुली कई किस्म की अदालतें का एक समूह होता है जिसका फैसला वैसा ही हो सकता है जैसा कि उसे लिखने वाले जज हों। किसी एक वक्त में एक मामला एक जज से एक किस्म का फैसला पा सकता है, और अगर वह किसी दूसरे जज के सामने पड़ा होता, तो हो सकता है कि फैसला उसका ठीक उल्टा भी होता। और हर मामले में ऐसी पुनर्विचार याचिका की गुंजाइश नहीं होती कि एक जज के फैसले से असहमति के बाद दूसरे अलग जज उस मामले को सुने ही सुनें। फिर यह भी रहता है कि सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की सोच क्या है, वे खुद अपनी निजी विचारधारा के चलते किन मामलों को सुनना चाहते हैं, या किन मामलों को किन जजों की बेंच में भेजना चाहते हैं। ऐसे कई मुद्दे रहते हैं जिनकी वजह से देश में सुप्रीम कोर्ट के फैसले अलग-अलग किस्म के आते हैं, फिर भी हिन्दुस्तान इस मायने में अमरीका जैसे देश से बिल्कुल अलग है जहां पर जजों की निजी विचारधारा, उनकी पसंद और नापसंद सार्वजनिक रूप से अच्छी तरह दर्ज होती है, और फैसला आने के पहले ही लोग यह विश्लेषण कर लेते हैं कि जजों के कितने बहुमत से कैसा फैसला आएगा। वहां के जजों के मुकाबले हिन्दुस्तानी जजों के पूर्वाग्रहों की पहचान उतनी मजबूत नहीं रहती है, और यहां पर फैसले कई बार चौंकाने वाले भी रहते हैं। यह एक अलग बात है कि भारत में भी अब बहुत से जजों को लेकर पहले से यह शिनाख्त बन जाती है कि वे किस विचारधारा के हैं, और उनसे किसके पक्ष में फैसले की उम्मीद की जानी चाहिए।
ऐसे में सुप्रीम कोर्ट ने अभी एक शानदार फैसला दिया है जिसमें भारत की महिलाओं के हक एक बार फिर से, कुछ अधिक दूर तक परिभाषित किए गए हैं। जस्टिस डी.वाई.चन्द्रचूड़ की अगुवाई में जस्टिस ए.एस. बोपन्ना, और जस्टिस जे.बी.पारदीवाला ने अभी गर्भपात के अधिकार पर फैसला देते हुए महिलाओं के गर्भवती होने को उनके शादीशुदा होने से अलग कर दिया है, और यह साफ मान लिया है कि अविवाहित महिला भी सेक्स-संबंधों का उतना ही बुनियादी अधिकार रखती है जितना कि एक शादीशुदा महिला, और इस तरह से एक अविवाहित महिला भी गर्भपात की बराबरी की हकदार है, और वह उन्हीं पैमानों की हकदार है जो कि एक शादीशुदा महिला के गर्भपात के मामले में लागू होते हैं। यह एक संयोग ही रहा कि सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला सुरक्षित गर्भपात दिवस के दिन आया। एक दिलचस्प बात यह है कि अदालत ने इस मामले पर फैसला देते हुए यह माना है कि शादीशुदा जिंदगी में भी एक महिला पति की सेक्सहिंसा का शिकार हो सकती है, और अगर उसकी सहमति के बिना, उसकी मर्जी के खिलाफ अगर ऐसा सेक्स हुआ है, तो इसके बाद के गर्भपात का हक उसे है। अदालत ने यह भी साफ किया है कि महिला को ऐसे गर्भपात के लिए सेक्स उसकी मर्जी के खिलाफ हुआ होने को साबित करने की जरूरत नहीं होगी। यहां यह याद रखने की जरूरत है कि भारत सरकार ने संसद और सुप्रीम कोर्ट में अपना यह पक्ष रखा है कि वह शादीशुदा जिंदगी के भीतर मर्द द्वारा जबर्दस्ती किए गए सेक्स को भी बलात्कार मानने के खिलाफ है। अब सुप्रीम कोर्ट ने आज गर्भपात के इस मामले में इस स्थापित कानून के खिलाफ फैसला दिया है जो कि पत्नी से जबर्दस्ती सेक्स को भी रेप नहीं मानता। सुप्रीम कोर्ट ने कल के इस फैसले में मैरिटल रेप पर तल्ख टिप्पणियां की हैं, और कहा है कि सेक्सहिंसा के लिए यह मान लेना लापरवाही होगी कि केवल अजनबी ऐसा करते हैं, परिवारों के भीतर महिलाएं लंबे समय से ऐसी हिंसा झेलती हैं, और अगर कानून इसे अनदेखा करेगा तो यह रेप की शक्ल भी ले लेता है। अदालत ने यह साफ किया कि चाहे मौजूदा कानून के तहत मैरिटल रेप अपराध नहीं है, लेकिन गर्भपात कानून के तहत पत्नी के साथ जबरिया संबंध बनाना रेप माना जाएगा, और ऐसे रेप से होने वाली संतान को जन्म देना और पालना महिला को सजा देने सरीखा होगा।
एक तरफ जब दुनिया का सबसे विकसित और संपन्न देश अमरीका आज गर्भपात के मुद्दे पर दो फांक हो चुका है। वहां के दो प्रमुख राजनीतिक दल तो इस बंट ही गए हैं, इन दोनों दलों के परंपरागत समर्थक भी इस पर बुरी तरह बंट गए हैं, और अब अमरीका के अधिकतर राज्य इसे लेकर अपने अलग कानून बना रहे हैं क्योंकि वहां के सुप्रीम कोर्ट ने महिलाओं से गर्भपात के फैसले का अधिकार छीन लिया है। वहां के सुप्रीम कोर्ट जजों के बारे में पहले से यह आशंका चली आ रही थी कि उनमें पिछले दकियानूसी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप के मनोनीत किए गए जजों की बहुतायत है, और वे गर्भपात के खिलाफ फैसला देंगे, और वैसा ही हुआ। दिलचस्प बात यह है कि अमरीका में गर्भपात के खिलाफ वही सोच काम करती है जो सोच चर्च से निकली है। धर्म को मानने वाले लोगों का एक बड़ा हिस्सा महिलाओं से इस अधिकार को छीन लेने का हिमायती रहा है। दूसरी तरफ भारत किसी भी मायने में अमरीका के मुकाबले कम धर्मालु देश नहीं है, और यहां के कई धर्मों में तो किसी जीव-जंतु को भी नुकसान पहुंचाने के खिलाफ नसीहतें हैं। लेकिन गर्भपात के मामले में हिन्दुस्तान एकदम से उदारवादी हो जाता है, क्योंकि अनचाही लड़कियों के बीच लडक़ों की चाहत पूरी करने का यही एक जरिया रहता है। खैर, अभी हम उस मुद्दे पर जाना नहीं चाहते क्योंकि आज मामला महिला की निजी पसंद का है, उसके अपने फैसले का है। सुप्रीम कोर्ट ने एक अच्छा फैसला दिया है जिसमें शादीशुदा और गैरशादीशुदा महिलाओं के सेक्स, मां बनने, या गर्भपात के फैसलों को बराबर माना है। दूसरी बात यह कि शादीशुदा जिंदगी में पति के हाथों बलात्कार की शिकार होने वाली महिला को भी यह हक दिया है कि वह चाहे तो गर्भपात करवा सकती है। इस फैसले से अमरीकी सुप्रीम कोर्ट जैसी अदालतों को भी कुछ सीखना चाहिए। फिलहाल भारतीय महिला का एक और अधिकार कम से कम कानूनी रूप से मजबूत स्थापित हुआ है, जो कि कम राहत की बात नहीं है। इस फैसले से यह भी साबित होता है कि सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश से जैसे भी निजी पूर्वाग्रहों की आशंका देश को हो, उनके मातहत काम करने वाले जजों की बेंच उन पूर्वाग्रहों की फिक्र किए बिना अपने अलग सोच के फैसले दे सकती हैं।
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
पिछले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का जन्मदिन अभी गुजरा, तो बिना हो-हल्ले के चले गया। उनके प्रशंसकों में से कुछ लोगों ने सोशल मीडिया पर उनकी कही यह बात याद दिलाई कि उन्हें उम्मीद है कि इतिहास उनके साथ अधिक रहमदिल रहेगा। यह बात मनमोहन सिंह ने अपने कटु आलोचकों की बातों के जवाब में कही थीं। ऐसे आलोचकों का अधिकांश हिस्सा इस बात के लिए उनका सबसे बड़ा आलोचक रहता था कि वे कम बोलते थे, धीमा बोलते थे, साधारण जुबान बोलते थे, दावे नहीं करते थे, और सपने तो बिल्कुल ही नहीं दिखाते थे। इन बातों की वजह से उनकी खिल्ली उड़ाने वाले लोगों की कमी नहीं थी, और ऐसे लोग उन्हें मौनमोहन सिंह कहा करते थे। आज पता नहीं लोगों को वह काम और सिर्फ काम करने वाला, और तकरीबन मौन रहने वाला प्रधानमंत्री याद पड़ रहा है। शायद इसलिए भी ऐसा हो रहा है कि वे बोलते कम थे, लेकिन उनके वक्त डॉलर की कीमत 62 रूपये ही थी, जो कि आज 82 रूपये की करीब हो गई है। उनके वक्त पेट्रोल 71 रूपये था, और डीजल 55 रूपये, अब आज तो इनके सौ-सौ रूपये पार करने के बाद लोग इस बारे में सोचना भी बंद कर चुके हैं कि आज क्या रेट है। गैस का सिलेंडर चुप रहने वाले प्रधानमंत्री के वक्त 410 रूपये का था, जो कि अब 11 सौ रूपये के पार है। देश की कमाई और नौकरियों के आंकड़े भी उस वक्त बहुत ऊपर थे, और आज मटियामेट हैं। लेकिन फिर भी इस देश की आबादी के एक बड़े हिस्से को मलाल इस बात का है कि मनमोहन सिंह के वीडियो पर्याप्त संख्या में यूट्यूब पर नहीं हैं, और यही हिन्दुस्तानी वोटरों के एक तबके का सबसे बड़ा मलाल है।
लेकिन ऐसा मलाल उस वक्त और देखने लायक हो जाता है जब आज सोशल मीडिया पर मौजूद पुरानी तस्वीरें, पुराने ट्वीट, पुराने फेसबुक पोस्ट, पुराने बैनर-पोस्टर, और पुराने वीडियो देखने मिलते हैं। उस वक्त मनमोहन सिंह के खिलाफ सबसे अधिक बोलने वाले, उनकी सबसे अधिक खिल्ली उड़ाने वाले बहुत दमदार भाषण देने वाले लोगों के जो वीडियो आज सोशल मीडिया पर तैर रहे हैं, वे यह भी याद दिलाते हैं कि लोगों को क्या-क्या नहीं करना चाहिए। जिस तरह के भाषण उस समय, 2014 के पहले तक प्रधानमंत्री पद की दौड़ में उतर चुके नरेन्द्र मोदी ने दिए, वे आज कब्र फाडक़र उनका पीछा कर रहे हैं। उस वक्त स्मृति ईरानी ने 410 रूपये की गैस के खिलाफ सिलेंडर लेकर जिस तरह के प्रदर्शन किए थे, उसके पोस्टर आज उनका भी पीछा कर रहे हैं। लोगों को खासकर एक वीडियो बार-बार देखने में बड़ा मजा आ रहा है जिसमें 62 रूपये के डॉलर वाले वक्त के मनमोहन सिंह की खिल्ली उड़ाते हुए मोदी कहते दिखते हैं कि जिस देश का रूपया गिरता है, उस देश का प्रधानमंत्री गिरा हुआ रहता है। रूपये के गिरते हुए दाम को लेकर मोदी की कही हुई और भी कई बातें आज उनका पीछा कर रही हैं। और लोगों के मन में, सोशल मीडिया पर उनकी जुबान से बार-बार यह सवाल उठ रहा है कि जब रूपया एक डॉलर में 82 जितना गिर जाता है, तब प्रधानमंत्री कहां रहता है? क्या ऐसे रेट वाले रूपये वाला प्रधानमंत्री गिरा हुआ रहता है या उठा हुआ रहता है?
दरअसल चुनाव और राजनीति की गर्मी में अकेले मोदी ही नहीं, कुछ और नेता भी ओछी बातें कहते हैं, और इन्हीं बातों का इतिहास लोगों को औसत दर्जे का नेता, या बड़ा नेता बनाता है। और मोदी तो केन्द्र सरकार या अपनी पार्टी के केन्द्रीय संगठन में एक दिन भी काम किए बिना सीधे प्रधानमंत्री की दौड़ में पहुंचे हुए एक प्रादेशिक नेता थे, जिनका पेट्रोलियम और डॉलर से सीधे कोई वास्ता नहीं पड़ा था, इसलिए उनसे तो बोलने में कई तरह के गलत काम हुए, लेकिन श्रीश्री रविशंकर और रामदेव जैसे तथाकथित आध्यात्मिक लोग भी उस वक्त डॉलर और पेट्रोल के दाम तय कर रहे थे, और टीवी स्टूडियो में बैठकर नौजवान पीढ़ी को बरगला रहे थे कि उन्हें 70 रूपये लीटर का पेट्रोल अच्छा लगेगा या 35 रूपये लीटर का? यही दोनों डॉलर भी 35 रूपये में दिला रहे थे, और विदेशों से कालाधन लाकर हर हिन्दुस्तानी के खाते में 15-15 लाख रूपये भी डाल रहे थे, जैसा कि नरेन्द्र मोदी ने उस वक्त कहा था। लोगों की कही हुई कुतर्क की बातें दूर तक उनका पीछा करती हैं, और यूट्यब, इंटरनेट, सोशल मीडिया, और वॉट्सऐप की मेहरबानी से अब यह पीछा कभी खत्म ही नहीं होता है। यह अलग बात है कि अपने करोड़ों भक्त होने का दावा करने वाले ऐसे स्वघोषित आध्यात्मिक दुकानदार पूरी बेशर्मी से अब नये दावे करने में जुटे रहते हैं क्योंकि उनका इस बात पर अपार भरोसा है कि दुनिया में जब तक बेवकूफ जिंदा हैं, तब तक धूर्त भूखे नहीं मर सकते।
लेकिन राजनीति, आध्यात्म या सामाजिक जीवन के कुछ कामयाब और मशहूर लोग अगर सचमुच में महानता हासिल करना चाहते हैं, तो जिंदगी और चाल-चलन की बुनियादी ईमानदारी के अलावा उन्हें ऐसे झूठे दावे करने से भी बचना चाहिए। देश के प्रधानमंत्री के बड़े-बड़े दावों वाले वीडियो कुछ बरस के भीतर ही खुद उनकी बेइज्जती करते नजर आएं, यह बात किसी को भी महानता तक नहीं ले जा सकती। आज ऐसे वक्त कम बोलने की ताकत और खूबी समझ पड़ती है कि बड़बोलापन महानता तक पहुंचाने का एक्सप्रेस-हाईवे नहीं है, वह राह का रोड़ा भर है। बहुत से लोगों को इस नौबत को देखकर नसीहत लेना चाहिए। भक्तिभाव से परे जब किसी नेता का ईमानदार मूल्यांकन होता है, तो इनमें से कोई भी बात अनदेखी नहीं की जाती, यह याद रखते हुए ही लोगों को बोलना चाहिए। लेकिन लोगों को यह भी याद रखना चाहिए कि जब उनकी पार्टी के लोग बलात्कार करते पकड़ाएं, हत्या करते पकड़ाएं, और वे उस पर भी मुंह न खोलें, उनकी पार्टी की सरकारें मुजरिमों की तरह काम करें, फिर भी उस पर उनका मुंह न खुले, तो ऐसी चुप्पी की गूंज भी इतिहास से जाती नहीं है। और अब फेसबुक और ट्विटर जैसी मुफ्त की डायरियों की शक्ल में लोगों के पुराने कहे हुए, और न कहे हुए, सभी का रिकॉर्ड अच्छी तरह दर्ज रहता है।
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
जापान के पूर्व प्रधानमंत्री शिंजो आबे का राजकीय सम्मान से अंतिम संस्कार किया गया तो खुद जापान में इस पर की गई फिजूलखर्ची का जमकर विरोध हो रहा है। इस पर करीब सौ करोड़ रूपये खर्च होने का अंदाज है, और इस सरकारी खर्च से परे उन 217 देशों का खर्च अलग है जिनके प्रतिनिधि इस अंतिम संस्कार के लिए पहुंचे थे। जापानी और बौद्ध परंपरा के अनुसार 8 जुलाई को हुई इस हत्या के बाद 15 जुलाई को ही उनका अंतिम संस्कार कर दिया गया था, और अब महीनों बाद यह प्रतीकात्मक राजकीय अंतिम संस्कार हुआ है जिसमें उनकी अस्थियों को श्रद्धांजलि दी गई है, और इसमें भारतीय प्रधानमंत्री सहित दर्जनों देशों के मुखिया पहुंचे हैं। यह कुछ दिनों के भीतर दुनिया का एक दूसरा बड़ा अंतिम संस्कार है, इसके ठीक पहले ब्रिटिश महारानी एलिजाबेथ के अंतिम संस्कार में भी ऐसे ही दुनिया भर से लोग जुटे थे। जापान में अभी इस अंतिम संस्कार पर खर्च को लेकर कई सर्वे हुए जिनमें पता लगा कि देश की आधी से ज्यादा आबादी इसे गलत खर्च मान रही है। राजधानी टोक्यो में दस हजार लोगों ने दो दिन पहले इस अंतिम संस्कार को रद्द करने की मांग करते हुए जुलूस निकाला, और प्रधानमंत्री कार्यालय के बाहर एक व्यक्ति ने विरोध करते हुए खुद को आग लगा ली।
जापान बहुत गरीब देश नहीं है, लेकिन अंतिम संस्कार पर जनता के पैसों से एक बड़ा खर्च करने का वहां विरोध हो रहा है। जहां सरकारी फिजूलखर्ची के खिलाफ एक भूतपूर्व प्रधानमंत्री के राजकीय अंतिम संस्कार का विरोध करते हुए हजारों लोग जुलूस निकाल रहे हैं, उस समाज की जागरूकता को समझने की जरूरत है। हिन्दुस्तान में सत्ता पर बैठे हुए नेता अपनी पसंद और नापसंद पर, अपनी सनक पर, और अपने शौक पर सैकड़ों-हजारों करोड़ रूपये खर्च कर देते हैं। जिस देश की आधी आबादी सरकारी रियायती या मुफ्त के अनाज की वजह से जिंदा है, उस देश में एक-एक प्रतिमा पर तीन-तीन हजार करोड़ रूपये खर्च कर दिए जाते हैं। उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री रहते हुए मायावती ने अंबेडकर और कांशीराम के साथ अपनी प्रतिमाएं खड़ी करने के लिए, और अपनी पार्टी के चुनाव चिन्ह के चट्टानी बुत बनवाने के लिए शायद हजार करोड़ से अधिक खर्च किए थे, और अब हर चुनाव के वक्त उन हाथियों को ढांकने के लिए दसियों लाख रूपये और खर्च होते हैं। जनता के बीच यह जागरूकता होनी चाहिए कि वह नेताओं की फिजूलखर्ची पर सवाल उठा सके। ऐसे सवाल उठाने के लिए हिम्मत भी लगती है, और सरकारों में बर्दाश्त भी लगता है। आज एक असुविधाजनक सवाल के जवाब में अगर बुलडोजर निकल पड़ते हैं, तो कोई क्या खाकर ऐसे सवाल उठा सकते हैं? लेकिन ऐसी चुप्पी का भुगतान लोकतंत्र को करना होता है जिसमें जनता के खजाने को पांच बरस के निर्वाचित नेता इस अंदाज से लुटाते हैं कि सौ-दो सौ बरस पहले के कोई हिन्दुस्तानी राजा अपने गले की माला लुटा रहे हों। वैसे राजाओं के दिन लद गए, सामंत भी अब नहीं रहे, लेकिन जनता के पैसों पर मनमानी करने की आदत नहीं गई, बल्कि यह ऐसे लोगों को भी लग गई है जो कि सादगी का दावा करते थकते नहीं हैं।
अब यहां पर एक सवाल और उठता है कि किसी के गुजरने पर उसके शरीर को मेडिकल कॉलेज को दान करके एक सामाजिक जिम्मेदारी भी पूरी की जाती है, और फिजूल के अंतिम संस्कार से भी बचा जाता है। लेकन हम सिर्फ आम लोगों को ही ऐसा त्याग करते देखते हैं, किसी भी चर्चित और बड़े व्यक्ति, खासकर सत्तारूढ़ या सत्ता से जुड़े हुए नेता का शरीर कभी चिकित्सा शिक्षा के लिए पहुंचते नहीं दिखता। जबकि हालत यह है कि जिंदा रहते हुए ये नेता खुद को समाज की प्रेरणा मानकर चलते हैं, और उनकी गुजर जाने पर उनकी स्मृतियों को उनके साथी या अनुयायी प्रात:स्मरणीय बताते हैं, यानी दिन की शुरुआत उनकी स्मृतियों से की जानी चाहिए। ऐसे लोग अपना शरीर मेडिकल साईंस को देने की घोषणा क्यों नहीं कर जाते? इससे तो अंतिम संस्कार पर होने वाला अंधाधुंध खर्च भी बचेगा, लकडिय़ां या जमीन पर जगह भी बचेगी, और वे किसी काम भी आ सकेंगे। जब अमरीका में 15-20 बरस पहले भूतपूर्व राष्ट्रपति रोनल्ड रीगन का निधन हुआ, तो अमरीकी सरकार में छुट्टी रखी गई थी। उस दिन का हर कर्मचारी-अधिकारी का वेतन रीगन के राजकीय अंतिम संस्कार के खर्च में जोड़ दिया गया था, और इस तरह यह खर्च तीन हजार करोड़ रूपये से अधिक आंका गया था। खर्च का यह भयानक आंकड़ा देखने के बाद अमरीका में इस तरह की छुट्टी देना शायद बंद कर दिया गया था।
हम घूम-फिरकर फिर जनता के पैसों की बर्बादी की अपनी फिक्र पर आते हैं, तो सत्तारूढ़ नेता मरने के बाद तो जनता पर जितना भी बड़ा बोझ बनते हों, वे जीते-जी भी कम बड़ा बोझ नहीं रहते हैं। जिन नेताओं को गली के कुत्ते भी न काटें, वे भी सरकारी खर्च पर बंदूकबाज साथ लिए चलते हैं। सत्ता से जुड़े लोग अपने घर-दफ्तर में न सिर्फ हिफाजत बल्कि बाकी बातों के लिए भी सरकारी खर्च करवाते हैं। इन सबका जमकर विरोध होना चाहिए। आज सूचना के अधिकार के तहत यह जानकारी निकालना आसान है कि किन कर्मचारियों की तैनाती कहां हैं, कितनी गाडिय़ां कहां तैनात हैं, और सत्तारूढ़ नेताओं पर जनता का कितना पैसा खर्च हो रहा है। लोकतंत्र में पारदर्शिता की उम्मीद करने वाली संस्थाओं को यह चाहिए कि न सिर्फ सूचना के अधिकार के तहत, बल्कि तरह-तरह के फोटो और वीडियो से भी यह जानकारी जुटाते चलें कि कहां-कहां पर जनता के पैसों की बर्बादी हो रही है। और ऐसे सुबूत लेकर उन जजों के सामने भी जाना चाहिए जो कि राजनेताओं से कहीं अधिक बढक़र ऐसी बर्बादी करते हैं, और जनता को सडक़ों पर से दूर धकेलते हुए सायरनों के साये में सडक़ों का सफर तय करते हैं। कम से कम कुछ ऐसे छोटे राजनीतिक दल हो सकते हैं जो कि ऐसी अय्याशी में नहीं लगे रहते, और उन्हें तरह-तरह से ऐसे असुविधाजनक सवाल उठाने चाहिए। लगातार सवाल उठाए बिना लोकतंत्र में और कोई जरिया तो है नहीं कि लोगों को कटघरे में खड़ा किया जा सके। जनता के पैसों की फिजूलखर्ची के इस हमाम में तो नेता, अफसर, जज, सभी बिना तौलियों के हैं, इसलिए इनमें से किसी को कोई शर्म तो आनी नहीं है, जनता के बीच से ही मतदाताओं की जागरूकता के लिए ऐसे सवाल उठाने होंगे।
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
सुप्रीम कोर्ट में आज एक नया इतिहास गढ़ा जा रहा है जब संवैधानिक मामलों की सुनवाई का जीवंत प्रसारण होगा। इनके ऑडियो-वीडियो की लाईव स्ट्रीमिंग इंटरनेट पर की जाएगी, और जिन्हें दिलचस्पी हो वे उन्हें देख-सुन सकेंगे। सुप्रीम कोर्ट के सभी जजों की बैठक में यह फैसला लिया गया। इसकी बुनियाद 2018 में कानून के एक छात्र की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट का एक फैसला था, और उसमें संवैधानिक और राष्ट्रीय महत्व के मामलों की अदालती कार्रवाई की लाईव स्ट्रीमिंग की इजाजत दी गई थी, और कहा गया था कि यह खुलापन सूरज की रौशनी की तरह है जो कि सर्वश्रेष्ठ कीटाणुनाशक रहता है। अब अदालत में आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लिए आरक्षण, महाराष्ट्र का शिवसेना विवाद, दिल्ली और केन्द्र सरकारों के बीच के विवाद जो कि संविधानपीठ के सामने है, उनकी लाईव स्ट्रीमिंग की जाएगी। आम जनता को यह देखने मिलेगा कि देश की सबसे बड़ी अदालत किस तरह काम करती है, और बहस में कौन से वकील क्या कहते हैं। हो सकता है कि इसका अधिकतर हिस्सा आम लोगोंं की समझ से परे हो, लेकिन जिस तरह सूचना के अधिकार के तहत हासिल की जा सकने वाली फाईलों का भी अधिकतर हिस्सा लोगों की समझ से परे होता है, फिर भी वहां तक लोगों की पहुंच ही एक हक रहती है, इसी तरह सुप्रीम कोर्ट पर से रहस्य का यह पर्दा हटना एक बड़ी बात रहेगी। आज तो लोग मीडिया के मोहताज रहते हैं जिनके मार्फत मीडिया की पसंद के तथ्य खबरों में सिर चढक़र बोलते हैं, और लोगों को पूरी तस्वीर जानने-समझने का कोई मौका हासिल नहीं रहता। एक ही अदालती कार्रवाई पर अलग-अलग मीडिया अलग-अलग किस्म से खबरें पेश करते हैं, और उन्हें मिलाकर ही जागरूक लोग यह समझ पाते हैं कि पूरी खबर क्या है। इन्हें सुप्रीम कोर्ट की ही वेबसाइट पर बिना किसी खर्च के देखा जा सकेगा। आज सुप्रीम कोर्ट में तीन अलग-अलग संविधानपीठें सुनवाई करने वाली हैं, और इन सबकी कार्रवाई को देखना एक अनोखा लोकतांत्रिक मौका है।
जब सूचना का अधिकार कानून आया था, तब भी हमने इस बात को बार-बार लिखा था कि यह मांगकर सूचना पाने का अधिकार नहीं होना चाहिए, यह सूचना देने की जिम्मेदारी का अधिकार रहना चाहिए। यह सरकारों की और जन-संस्थानों की जवाबदेही होनी चाहिए कि वे खुद होकर अपने से जुड़ी हर सूचना को पारदर्शी तरीके से इंटरनेट पर लगातार डालते रहें, ताकि किसी को सूचना मांगने के लिए उन्हीं दफ्तरों के धक्के न खाने पड़ें, और महीनों बाद जाकर फिर अपील के रास्ते पर जाना पड़े। होना तो यह चाहिए कि सूचना के अधिकार में आने वाले हर कागज को सरकारी विभाग खुद होकर अपनी वेबसाइट पर डालें, ताकि लोगों को पता चलता रहे कि उनका मामला कहां तक पहुंचा है, दूसरों के मामले कहां तक पहुंचे हैं, कैसे किसी एक टेबिल पर कोई फाईल महीनों अटकाई गई है, और कैसे कोई फाईल पहियों वाले जूते पहनकर नीचे से ऊपर तक सरपट दौड़ लगा रही है। सूचना के अधिकार कानून के शब्दों को सरकारी अमले ने पकड़ लिया है, और निचले दर्जे के बाबू से लेकर प्रधानमंत्री कार्यालय तक लगातार इसी में लगे रहते हैं कि कैसे किसी सूचना को न देने से काम चल सकता है। अभी ऐसा ही एक मामला सुप्रीम कोर्ट में चल रहा है जिसमें अखिल भारतीय वनसेवा के एक अफसर की भ्रष्ट लोगों पर मांगी गई जानकारी देने से पीएमओ कतरा रहा है, और तरह-तरह के तर्क दे रहा है। ऐसा भी नहीं कि जो सुप्रीम कोर्ट आज अपनी संविधानपीठों की कार्रवाई का जीवंत प्रसारण करने जा रहा है, वह खुद अपनी बातों को उजागर करने में दिलचस्पी रखता है। देश की इस सबसे बड़ी अदालत ने बहुत ही अलोकतांत्रिक तरीके से जजों के बारे में जानकारियों को गोपनीय बना रखा है, और कुछ बरस पहले तो हालत यह थी कि इसे अपने इस प्रशासनिक निर्णय के खिलाफ लगी याचिका पर दिल्ली हाईकोर्ट में ही अपना बचाव करना पड़ा था। इसलिए यह मान लेना गलत होगा कि देश की सबसे बड़ी अदालत का अपना घरेलू चालचलन पारदर्शी और लोकतांत्रिक है। फिर भी यह बात कुछ तो मायने रखेगी कि देश के लिए सबसे महत्वपूर्ण कुछ बुनियादी मुद्दों वाले मामलों पर अदालत में मौजूद वकीलों और पत्रकारों से परे भी लोग इन्हें देख-समझ पाएंगे। और कुछ नहीं तो इससे कम से कम देश के दसियों लाख वकीलों, और लाखों जजों को सीखने का एक मौका भी मिलेगा। आम जनता को भी बिना अधिक समझे हुए भी यह समझने मिलेगा कि सुप्रीम कोर्ट किस तरह हिन्दी फिल्मों की अदालत से अलग होती है।
अभी कानूनी समाचारों की कुछ वेबसाइटें लगातार महत्वपूर्ण मुकदमों की सुनवाई की रिपोर्टिंग में हर वकील की कही बात, जज की हर टिप्पणी, इन्हें एक-एक शब्द पोस्ट करती हैं। सुप्रीम कोर्ट को यह भी सोचना चाहिए कि जिस तरह विधानसभाओं और संसद की कार्रवाई में एक-एक शब्द टाईप होते चलता है, और फिर उसे जारी कर दिया जाता है, वैसा ही सुप्रीम कोर्ट क्यों नहीं कर सकती? आज जजों की जुबानी कही बातें अदालत के आदेश या फैसले में नहीं आती हैं, और उन्हें लेकर कई बार विवाद भी खड़ा होता है कि जज को ऐसा कहना चाहिए था या नहीं, और कई बार तो यह भी साफ नहीं हो पाता कि जज ने ठीक-ठीक क्या कहा था। इसलिए अगर अदालत खुद ही अपनी कार्रवाई को सार्वजनिक करते चलेगी, तो सिर्फ जुबानी कई बातें कहने वाले जजों की जवाबदेही भी बढ़ेगी, और वे अधिक चौकन्ने होकर बोलेंगे। लोकतंत्र धीरे-धीरे, लेकिन लगातार विकसित होने वाली व्यवस्था का नाम है। जहां तक लोकतंत्र पहुंच चुका है, उसके और आगे बढऩा ही लोकतंत्र होता है। इसलिए सुप्रीम कोर्ट अब तक जितना खुला है, उससे अधिक खुलना ही उसके लिए जिम्मेदारी की बात होगी। आज से देखें कि यह नया प्रयोग देश की जनता में कितनी उत्सुकता जगाता है, और उनकी कितनी कानूनी समझ बढ़ाता है। लेकिन धीरे-धीरे लोग हिन्दुस्तानी अदालती कार्रवाई को ठीक उसी तरह देखने लगेंगे, जिस तरह कि वे संसद की कार्रवाई को देखते हैं, और यह सब लोगों की लोकतांत्रिक परिपक्वता बढ़ाने वाले काम होंगे।
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
ठीक उस वक्त जब सोशल मीडिया पर राहुल गांधी की पदयात्रा की दिल को छू लेने वाली तस्वीरें हर कुछ घंटों में सामने आ रही थीं, और भारत जोड़ो यात्रा से राहुल विरोधियों में एक बेचैनी फैल रही थी, कांग्रेस पार्टी के भीतर से भी पार्टी की इस मुहिम को आग लग गई। अभी कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए नामांकन भरा भी नहीं गया है, और राजस्थान में नए मुख्यमंत्री बनाने के लिए सोनिया गांधी की ओर से भेजे गए पर्यवेक्षक पहुंचे, और वहां कांग्रेस विधायकों में बगावत हो गई। शायद कांग्रेस के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ होगा कि राज्य के विधायकों ने हाईकमान के भेजे पर्यवेक्षकों से मिलने भी इंकार कर दिया। अभी तक की ताजा खबर के मुताबिक पार्टी के दो बड़े पदाधिकारी और वे पर्यवेक्षक दिल्ली लौट जा रहे हैं। कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए नामांकन भरने वाले, सोनिया परिवार के भरोसेमंद अशोक गहलोत ने भी राज्य के कांग्रेस विधायकों के बागी तेवरों को अपने से बेकाबू बता दिया है, और राज्य के 107 कांग्रेस विधायकों में से 90 ने अपने इस्तीफे विधानसभा अध्यक्ष को दे दिए हैं। इन सबका कहना है कि किसी ऐसे व्यक्ति को मुख्यमंत्री नहीं बनाया जा सकता जिसने पहले भाजपा के साथ मिलकर सरकार गिराने की कोशिश की थी। जाहिर है कि उनका निशाना मुख्यमंत्री पद के दावेदार सचिन पायलट हैं जिन्होंने 2020 में एक बार अपने कुछ विधायकों को लेकर राज्य के बाहर डेरा डाला था, और मुख्यमंत्री गहलोत को हटाने या उनकी सरकार गिराने की कोशिश की थी। तब किसी तरह हफ्तों की मशक्कत के बाद उन्हें शांत किया गया था, और ऐसा माना जा रहा था कि कांग्रेस हाईकमान गहलोत के पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद उनकी जगह पर सचिन पायलट को मुख्यमंत्री बनवा सकेगी। लेकिन अब ऐसा लगता है कि राजस्थान कांग्रेस में सचिन पायलट का समर्थन दर्जन भर कांग्रेस विधायकों तक ही सीमित रह गया है, यह एक और बात है कि उनकी बगावत की बिना पर हो सकता है कि भाजपा राज्य में सत्ता पलट की कोशिश कर सके। कांग्रेस हाईकमान से पहली बगावत तो तब नजर आई जब दिल्ली से गए दो बड़े पर्यवेक्षक मुख्यमंत्री निवास पर कांग्रेस विधायकों का इंतजार करते रहे, और उन्होंने वहां जाने से इंकार कर दिया, एक दूसरी जगह मिले, और विधानसभा अध्यक्ष को अपने इस्तीफे दे दिए।
इस मामले को कुछ बारीकी से देखने की जरूरत है। अभी तो अशोक गहलोत ने कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव का फार्म भी नहीं भरा है। और उनकी जगह नया मुख्यमंत्री बनाने के लिए पर्यवेक्षक राजस्थान भेज दिए गए। अभी कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव नतीजा निकलने में कई हफ्ते लग सकते हैं, और राजस्थान विधायक दल के भीतर ऐसा बवाल खुद पार्टी हाईकमान ने खड़ा कर दिया। अब अगर यह सोची-समझी रणनीतिक-धुंध नहीं है, तो फिर यह बड़ी चूक है। और अगर यह एक सोचा-समझा काम है, तो भी यह खासा बड़ा दांव है क्योंकि राजस्थान में कांग्रेस और भाजपा विधायकों के बीच संख्या का इतना बड़ा फासला नहीं है कि कांग्रेस इतना बड़ा खतरा उठा सके। और आज जब देश में माहौल यह है कि जनता किसी भी निशान पर वोट डाले, उसके चुने विधायक कमल छाप पर ही वोट डालते हैं, तो कांग्रेस के लिए अपने शासन के दो राज्यों में से एक में इतनी बड़ी अस्थिरता खासा खतरनाक काम है। राजनीतिक पर्यवेक्षकों को यह भी समझ नहीं पड़ रहा है कि कांग्रेस को नया मुख्यमंत्री चुनवाने की इतनी क्या हड़बड़ी थी। अभी तो गहलोत न तो कांग्रेस अध्यक्ष का फॉर्म भर पाए थे, न ही अध्यक्ष का चुनाव हो पाया था। ऐसे में मुख्यमंत्री की कुर्सी तो खाली हुई भी नहीं थी। गहलोत राजस्थान में ही बैठे हैं, और उनका वारिस तय करने दिल्ली से पार्टी पर्यवेक्षक पहुंच गए। यह मामला किसी मरणासन्न आदमी की मिजाज कुर्सी के लिए जाने वाले के हाथों होने वाली विधवा के लिए रिश्ता भेजने जैसा है। और इसका तर्क कांग्रेस के लोग ही बेहतर बता सकते हैं जिन्हें अपनी पार्टी को नुकसान पहुंचाने का कोई बड़ा मौका हाल ही में नहीं मिला था। कोई पार्टी किस तरह अपनी फजीहत कराने में इतनी समर्पित हो सकती है, यह देखना हो तो कांग्रेस को देखना चाहिए। भाजपा पिछले कुछ दिनों से लगातार कांग्रेस के बारे में यह कहती आ रही थी कि कांग्रेस पहले अपनी पार्टी को तो जोड़ ले, फिर देश को जोडऩे की बात करे, और आज वह नौबत आ ही गई। राजस्थान से बैरंग रवाना होने के पहले केन्द्रीय पर्यवेक्षक अजय माकन को यह कहते हुए निकलना पड़ा कि गहलोत गुट के विधायकों ने अनुशासनहीनता की है। अब अगर 102 विधायकों में से 90 को अनुशासनहीन कहने की नौबत आ रही है, तो यह कांग्रेस के लिए या तो शर्मिंदगी की बात है, या फिर बड़े खतरे की।
राजस्थान में कांग्रेस विधायकों के बीच बगावत नई नहीं है, दो बरस पहले भी सचिन पायलट की अगुवाई में एक बगावत हो चुकी है, जिसके बाद यह चर्चा थी कि कांग्रेस ने अपने ही कुछ विधायकों को खरीदकर मामला ठंडा किया था। अब पार्टी के बहुसंख्यक विधायकों के ये बागी तेवर उन अशोक गहलोत की अगुवाई में सामने आए हैं जो कि कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए सोनिया परिवार की पसंद बताए जा रहे हैं। अगर पार्टी अध्यक्ष बनने के पहले गहलोत के ये तेवर हैं, तो पार्टी अध्यक्ष बनने के बाद क्या वे पूरी तरह बेकाबू, बागी, या अपनी मर्जी के अध्यक्ष नहीं हो जाएंगे? और दूसरी बात यह भी है कि आज जब पार्टी उन्हें पूरे देश का अपना संगठन दे रही है, तब क्या उनकी यह जिम्मेदारी नहीं बनती कि वे अपने ही राज्य में अपने ही विधायकों के बीच सार्वजनिक बगावत की ऐसी नौबत न आने देते? यह पूरा सिलसिला कांग्रेस लीडरशिप से बेकाबू संगठन का सुबूत है, और आने वाले दिनों में यह देखना है कि यह राहुल गांधी की पदयात्रा से बनते अच्छे माहौल को किस तरह बर्बाद करेगा।
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
दुनिया भर की पुलिस और साइबर जांच एजेंसियों से मिली जानकारी के आधार पर कल हिन्दुस्तान में सीबीआई ने 21 राज्यों में करीब पांच दर्जन जगह तलाशी ली, और कई लोगों को बच्चों से जुड़ी हुई सेक्स सामग्री रखने के जुर्म में गिरफ्तार किया। कुछ अंतरराष्ट्रीय एजेंसियां लगातार चाइल्ड-सेक्स सामग्री पर नजर रखती हैं, और जो लोग इन्हें इंटरनेट पर किसी जगह रखते हैं, एक-दूसरे को भेजते हैं, डाउनलोड करते हैं, या अपलोड करते हैं, उन पर लगातार नजर रखी जाती है, और उसी के तहत हर कुछ महीनों में भारत में दर्जनों लोग गिरफ्तार भी होते हैं। बच्चों से जुड़ी सेक्स सामग्री कुछ खास दिमागी हालत के लोग पसंद करते हैं, और ऐसे लोग दुनिया के कई पर्यटन केन्द्रों पर भी जाते हैं जहां पर बच्चों को सेक्स के धंधे में उतारा जाता है। कई देश इस बात के लिए खासे बदनाम हैं, और बच्चों से सेक्स में दिलचस्पी रखने वाले, पीडोफाइल, इन जगहों पर चक्कर लगाते रहते हैं।
मनोविज्ञान ऐसे लोगों को मानसिक रूप से बीमार मानता है, और कानून इन लोगों को मुजरिम मानता है। लेकिन समाज में घर-परिवार के भीतर, या जान-पहचान की जगहों पर, स्कूल और खेल के मैदानों पर, और अनाथाश्रमों से लेकर बच्चों को रखने की दूसरी कई किस्म की जगहों पर ऐसे शौक रखने वाले मुजरिम मंडराते रहते हैं। यह खासकर ऐसी जगहों पर अधिक होता है जहां पर परेशानी में फंसे हुए बच्चों को रखा जाता है। ऐसे बच्चों की मानसिक हालत अधिक नाजुक रहती है, और उन्हें मानसिक और शारीरिक रूप से जीतना अधिक आसान समझा जाता है। दुनिया में कई जगहों पर सरकारों और जांच एजेंसियों का यह तजुर्बा रहा है कि परेशानहाल बच्चों को रखने की ऐसी जगहों पर स्वयंसेवक और समाजसेवी बनकर पहुंचने वाले लोगों में भी बहुत से लोग बच्चों से सेक्स की मानसिकता वाले होते हैं, और वे सोच-समझकर आसान निशाना पाकर इन बच्चों तक पहुंचते हैं।
दुनिया के अधिकतर देशों में बच्चों से सेक्स, या उनकी सेक्स सामग्री बनाना जुर्म है, लेकिन विकसित देशों से परे बहुत से देशों में जांच एजेंसियां इस बारे में खासी लापरवाह रहती हैं, और उनकी नजर में यह जुर्म बहुत प्राथमिकता में नहीं आता। लेकिन अब अंतरराष्ट्रीय जांच एजेंसियों के दबाव से, उनकी निगरानी में पकड़ में आने वाले लोग आज कम्प्यूटर, मोबाइल, और इंटरनेट की वजह से तुरंत ही शिनाख्त के घेरे में आ जाते हैं, और उन पर गिरफ्तारी जैसी कार्रवाई भी तुरंत हो जाती है। हिन्दुस्तान में जिस तरह के आम लोग इस जुर्म में पकड़ा रहे हैं, उससे यह भी लगता है कि उन्हें इसकी गंभीरता का अहसास नहीं रहता, और अपनी सेक्स-प्राथमिकताओं की वजह से, या किसी सनसनी के लिए वे ऐसे वीडियो आगे बढ़ाते चलते हैं। इन लोगों को देखकर यह भी लगता है कि लोगों में एक साइबर-जागरूकता की जरूरत है ताकि वे ऐसे जुर्म से बच सकें। आज कम्प्यूटर और फोन की वजह से लोगों की पहुंच ऐसी मैसेंजर सर्विसों तक है जिनसे वे एक पल में कोई ऑडियो या वीडियो दसियों हजार लोगों तक भेज सकते हैं। जब संचार के औजार इतने सहज सुलभ हो गए हैं, तो लोगों को ही कानून और सही-गलत की जानकारी देना जरूरी है। सोशल मीडिया के बड़े विकराल कारोबार में अरबों डॉलर कमाने वाले फेसबुक और ट्विटर जैसे कारोबार भी हैं, जो कि अपने प्लेटफॉर्म पर कई तरह की नग्न और अश्लील सामग्री रोकते हैं। लेकिन ये प्लेटफॉर्म भी लोगों को चाइल्ड-पोर्नोग्राफी जैसी बातों के लिए जागरूक नहीं करते हैं, किसी के पोस्ट करने के बाद उसकी सामग्री को हटा भर देते हैं। इनकी एक सामाजिक जवाबदेही यह भी है कि वे अपने सदस्यों को जागरूक करते चलें, अभी ऐसा कोई अभियान फेसबुक और ट्विटर की तरफ से दिखाई नहीं पड़ता है।
हिन्दुस्तान में लोगों में जितनी साइबर-जागरूकता आई है, उससे कई गुना अधिक रफ्तार से साइबर-औजार आ गए हैं। लोग इनके खतरों को समझ सकें, उसके पहले वे खुद खतरे में पड़ जाते हैं। आज सोशल मीडिया पर बड़े नामी-गिरामी लोग भी यह नहीं समझ पाते कि कौन सी चीजें पोस्ट करना गलत हो सकता है, और वे कानून के घेरे में आ सकते हैं। चूंकि चाइल्ड-पोर्नोग्राफी के शिकार बच्चे जिंदगी भर के लिए जख्म पाते हैं, इसलिए समाज को इस बारे में अधिक सावधान रहना चाहिए। बच्चों के साथ सेक्स-जुर्म करने वाले लोग उनकी पूरी जिंदगी के लिए उनकी मानसिकता को घायल कर जाते हैं, इसलिए इस बारे में हर देश-प्रदेश को बहुत सावधानी से और तुरंत कार्रवाई करनी चाहिए। अभी हिन्दुस्तान में बीच-बीच में जो कार्रवाई होती है, वह दुनिया के दूसरे देशों के संगठनों से मिली हुई जानकारी और सुबूत के आधार पर होती है। ऐसी कार्रवाई का दायरा बढऩा चाहिए, और ऐसे मुजरिमों पर की गई कार्रवाई का प्रचार भी होना चाहिए, ताकि दूसरे लोग सावधान हो जाएं, और सुधर जाएं।
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
उत्तराखंड में भाजपा सरकार एक नई फजीहत में फंसी हुई है, राज्य के एक पूर्व भाजपा मंत्री का बेटा अपने दो साथियों के साथ अपनी एक कर्मचारी युवती की हत्या में गिरफ्तार हुआ है। और इसे लेकर वहां खड़े हुए भारी जनाक्रोश को देखते हुए सरकार ने इस मंत्री-पुत्र के एक पर्यटक-रिसॉर्ट को बुलडोजर से तोड़ा-फोड़ा है। राज्य के भाजपा नेता और पूर्व मंत्री विनोद आर्य के नौजवान बेटे ने अपने दो साथियों के साथ मिलकर रिसॉर्ट की एक कर्मचारी को पहाड़ी से धक्का देकर गंगा में गिराकर मार डाला। ऐसी खबरें हैं कि मंत्री-पुत्र पुलकित आर्य अंकिता नाम की इस युवती पर दबाव डालता था कि वह रिसॉर्ट में ठहरे ग्राहकों के साथ देह संबंध बनाए, और ऐसा न करने पर उसने 19 बरस की इस कर्मचारी को मार डाला। आसपास के गांवों के लोगों ने रिसॉर्ट में भी तोडफ़ोड़ की है, और पुलिस गाड़ी से निकालकर इन गिरफ्तार आरोपियों को भी पीटा है। जनाक्रोश को देखते हुए मुख्यमंत्री के निर्देश पर इस रिसॉर्ट में बुलडोजर से तोडफ़ोड़ की गई है।
ऐसा लगता है कि आजकल कुछ राज्य सरकारें भारी जनाक्रोश खड़ा हो जाने पर बुलडोजर को एक हथियार की तरह इस्तेमाल कर रही हैं, या फिर वे किसी तबके में दहशत पैदा करने के लिए भी ऐसा कर रही हैं। उत्तराखंड में पार्टी के ही एक भूतपूर्व हिन्दू मंत्री को दहशत में लाने की तो कोई वजह नहीं दिखती, लेकिन यह जरूर दिखता है कि बुलडोजर से तोडफ़ोड़ लोगों को एक बड़ी कार्रवाई लगती है, और जनधारणा प्रबंधन के तहत कुछ राज्य सरकारें हाल के महीनों में कई जगह ऐसा कर रही हैं। सवाल यह उठता है कि किसी हत्या के आरोपी की संपत्ति को बुलडोजर से गिराने का कोई कानून देश में नहीं है, और दूसरी तरफ अगर कोई निर्माण अवैध था, तो ऐसे जुर्म और उसके खिलाफ खड़े हुए जनाक्रोश के बिना भी उसे गिरा दिया जाना चाहिए था। ऐसी सरकारी कार्रवाई चाहे वह यूपी में हो, एमपी में, या कहीं और, यह सरकार की कोई अच्छी नीयत नहीं बताती है। या तो सरकार लोगों में दहशत पैदा करने के लिए किसी तबके के खिलाफ ऐसी मुहिम छेड़ती है, या फिर जब वह खुद जनाक्रोश से दहशत में आ जाती है, तो ऐसा करती है। दोनों ही मामलों में यह कानून को हाथ में लेने की बात है, लेकिन हैरानी यह है कि देश की बड़ी-बड़ी अदालतों तक जब ऐसे मामले पहुंचे, तो अदालतों ने उन्हें दखल देने के लायक नहीं पाया।
अब इस मामले के एक दूसरे पहलू को देखें, तो सत्ता से जुड़े हुए लोग, सत्ता की ताकत से बलात्कार और कत्ल जैसे जुर्म करते हैं, और बहुत से मामलों में वे सुबूतों और गवाहों की कमजोरी से, या बिक जाने से, बच भी जाते हैं। जब तक कोई वीडियो-सुबूत न हो, या जनआंदोलन खड़ा न हो गया हो, सत्ता अपने पसंदीदा लोगों को बचाती चलती है, और नापसंद लोगों को फंसाते चलती है। देश भर के अधिकतर राज्यों में केन्द्र और राज्यों की पुलिस और दूसरी जांच एजेंसियों का ऐसा ही रूख नेताओं से जुड़े अधिकतर मामलों में दिखता है। इससे एक तरफ तो लोगों के बीच अदालती इंसाफ को लेकर भरोसा खत्म होता है, और दूसरी तरफ मुजरिमों के हौसले बढ़ते हैं। एक वजह कि सत्ता से जुड़े हुए लोग कहीं किसानों के आंदोलन को अपनी गाड़ी से कुचलते हैं, कहीं कत्ल और रेप करते हैं, और कहीं सरकारी जमीनों पर अवैध कब्जा करके अवैध निर्माण करते हैं। इन सब बातों से ऐसा लगता है कि देश में कानून का राज इतना कमजोर पड़ गया है कि वह सत्ता का चेहरा देखकर काम करता है, और इंसाफ की जगह चापलूसी ने ले ली है।
ऐसे देश में भी भूले-भटके कभी-कभी मनु शर्मा जैसे सत्तारूढ़ परिवार के कातिल को सजा मिलती है, लेकिन उससे भी सत्ता की बाकी बिगड़ैल औलादों को कोई सबक नहीं मिलता। सत्ता की ताकत लोगों को इस हद तक बददिमाग कर देती है कि वे कानूनी खतरों की परवाह छोड़ देते हैं। हमने छत्तीसगढ़ से लेकर देश के बहुत से दूसरे राज्यों में देखा है कि बड़े-बड़े नेताओं की तमाम संभावनाओं को उन्हीं की बिगड़ैल औलादों ने खत्म कर दिया। आज चूंकि अधिकतर राज्यों में भाजपा की सरकार है, इसलिए इस किस्म के अधिकतर जुर्म भाजपा से जुड़े नेताओं के ही सामने आ रहे हैं, लेकिन दूसरी पार्टियों का भी राज जहां पर है, या पहले जब कभी था, वे पार्टियां भी ऐसे जुर्म से परे नहीं रही हैं। हिन्दुस्तानी राजनीति में शायद वामपंथी दल ही अकेले ऐसे अपवाद रहे जिन्होंने ऐसे पारिवारिक जुर्म को बढ़ावा नहीं दिया। हाल के महीनों में बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी के परिवार के लोगों की जिस तरह की अंधाधुंध कमाई की जानकारी सामने आ रही है वह भी हक्का-बक्का करने वाली है, और वह ममता की निजी सादगी को, गरीबी और बिना तनख्वाह काम करने के तथाकथित त्याग को पाखंड साबित करती है। ऐसा भला कैसे हो सकता है कि ममता के आधा दर्जन भाई-भतीजे अरबपति हो जाएं, और ममता को खबर न हो। सस्ती साड़ी और रबर की चप्पल एक मुखौटा अधिक लगती है, और शायद परिवार के ऐसे धंधों की वजह से ही ममता की बोलती भी बंद है।
देश के राजनीतिक दलों को चाहिए कि वे अपने नेताओं और कार्यकर्ताओं के जुर्म के ऐसे कारोबार पर शुरू से नजर रखें, और उन्हें काबू में रखें। जब सार्वजनिक रूप से भांडाफोड़ हो जाए, उसके बाद इस तरह की कार्रवाई, बुलडोजर चलाना भला किस काम का। ऐसे लोग कितने बलात्कार कर चुके हैं, कितने कत्ल कर चुके हंै, कितनी लड़कियों के बदन बेच चुके हैं, इसका क्या पता लगेगा। और ऐसी बात भी नहीं कि किसी राजनीतिक दल के नेताओं के बारे में सत्ता और संगठन तक जानकारी न पहुंचती हो। हर पार्टी में हर स्तर के नेता के विरोधी और प्रतिद्वंद्वी भी होते हैं, और उनकी बातों को अनसुना करके ही कोई पार्टी अपने भीतर मुजरिमों को और बड़ा मुजरिम बनने देती है। सार्वजनिक जीवन का यह तकाजा होना चाहिए कि सुबूत इक_े हो जाने पर मजबूरी में कार्रवाई करने वाली पुलिस से परे, ऐसे मुजरिमों के राजनीतिक संगठनों को भी ऐसे जुर्म पर मुंह खोलना चाहिए।
ईरान में हिजाब के खिलाफ महिलाओं का आंदोलन एक अभूतपूर्व आक्रामकता पर पहुंच गया है। देश के लोगों पर बड़ी कड़ाई से काबू और कब्जा रखने वाली ईरानी सरकारी के लिए यह फिक्र और परेशानी की नौबत है, लेकिन दूसरी तरफ ईरानी महिलाओं के लिए यह अस्तित्व की लड़ाई भी है। एक युवती को ईरान की नैतिकता-पुलिस ने हिजाब न लगाने, या ठीक से न लगाने के लिए गिरफ्तार किया, बाद में उसे अस्पताल में भर्ती करना पड़ा, और उसकी मौत हो गई। इसे पुलिस ज्यादती करार देते हुए ईरानी महिलाएं वहां के कई शहरों में सरकार की लादी हुई पोशाक की रोकटोक, और उसे लागू करवाते ज्यादती करने वाली नैतिकता-पुलिस के खिलाफ सडक़ों पर उतर आईं, उन्होंने चौराहों पर अपने हिजाब की होली जलाना शुरू कर दिया, विरोध-प्रदर्शन करते हुए सडक़ों पर उन्होंने अपने बाल काटने शुरू कर दिए, और वीडियो कैमरों के सामने उन्होंने तानाशाह की मौत के नारे लगाए। तानाशाह का सीधा-सीधा मतलब ईरान के धार्मिक प्रमुख, सुप्रीम लीडर कहे जाने वाले अली खमैनी से है।
ईरान इस्लाम की अपनी व्याख्या को कड़ाई से लागू करने वाला देश है, और वहां महिलाओं की पोशाक पर कई तरह की रोक है। अभी कल ही अमरीकी टीवी चैनल सीएनएन की एक सबसे सीनियर महिला जर्नलिस्ट का न्यूयार्क में पहुंचे ईरानी राष्ट्रपति इब्राहिम रईसी के साथ इंटरव्यू तय था। लेकिन उन्होंने इंटरव्यू के दौरान सिर पर स्कार्फ बांधने से मना कर दिया, और राष्ट्रपति ने उनसे मिलने से इंकार कर दिया। इस पत्रकार का तर्क था कि वह पहले भी ईरानी राष्ट्रपतियों से ईरान के बाहर इंटरव्यू कर चुकी हैं, और अमरीका में चूंकि महिलाओं के स्कार्फ बांधने का कोई नियम नहीं है, इसलिए किसी ने कभी इस बात पर जोर भी नहीं डाला था। लेकिन शायद अभी ईरान में हिजाब को लेकर चल रहे आंदोलन को देखते हुए ईरानी राष्ट्रपति इस पर अड़ गए, और यह इंटरव्यू नहीं हो सका।
ईरान में बरसों बाद यह नौबत देखने में आ रही है जब सार्वजनिक रूप से महिलाएं न सिर्फ हिजाब जला रही हैं बल्कि वे तानाशाह की मौत भी मांग रही हैं। यह आंदोलन छोटे-बड़े कई शहरों में फैला हुआ है, और सरकार ने पूरे देश में इंटरनेट बंद कर दिया है ताकि सोशल मीडिया और मैंसेजर सर्विसों से जुड़ा हुआ यह आंदोलन कुछ पोस्ट न कर सके। बाईस बरस की महसा अमीनी की पुलिस हिरासत में मौत से भडक़ी हुई महिलाएं अब अपना हक पाने के लिए सरकार के खिलाफ एक अभूतपूर्व आंदोलन कर रही हैं, और तमाम पश्चिमी दुनिया तो उनके इस आंदोलन के साथ है ही। आसपास के जो देश ईरान के खिलाफ रहते हैं, वहां पर भी इस आंदोलन के लिए एक हमदर्दी है। दुनिया में अब ऐसे कम ही मुस्लिम देश बचे हैं जहां महिलाओं पर पोशाक की पाबंदी को ऐसी कड़ाई से लादा जाता है, और इससे ढील चाहने वाली महिलाओं को सजा दी जाती है। लोगों को याद होगा कि एक वक्त ईरान भी आजाद खयालों का देश था, और महिलाओं की पोशाक पर कोई पाबंदी नहीं थी, लेकिन तब तत्कालीन शाह के खिलाफ एक इस्लामिक आंदोलन हुआ, और शाह को बेदखल करके इस्लामिक सरकार बनाई गई, और तब से अब तक ईरान लगातार शरीयत की अपनी व्याख्या को लागू करते आया है जिसमें सऊदी अरब की तरह महिलाओं पर कई तरह की रोक लगाई गई है।
ईरान अपने परमाणु कार्यक्रम को लेकर पश्चिमी देशों और अमरीका के निशाने पर रहते आया है जिन्हें यह लगता है कि दुनिया के उस हिस्से में बसे इजराईल को ईरान से खतरा हो सकता है। इसलिए ईरान पश्चिम के आर्थिक प्रतिबंध भी झेलते आया है, और उससे पश्चिमी दुनिया का लेन-देन, आवाजाही, सब कुछ बहुत सीमित है। इस तरह घरेलू और अंतरराष्ट्रीय, दोनों तरह के प्रतिबंधों से घिरा हुआ ईरान एक कट्टर मुस्लिम देश बना हुआ महिलाओं की पोशाक पर बहुत कड़ी रोकटोक लगाने वाला देश है। ईरान और सऊदी अरब, और अब तालिबान के कब्जे वाले अफगानिस्तान में महिलाओं पर लगाई गई तरह-तरह की रोकटोक को लेकर दुनिया भर में महिला-अधिकारों की वकालत करने वाले फिक्रमंद हैं। संयुक्त राष्ट्र से लेकर महिला संगठनों तक इस पर बोलते आए हैं, लेकिन धार्मिक कट्टरता हर वकालत को अनसुनी कर देती है।
इस बार का यह हिजाब विरोधी आंदोलन इतना आक्रामक हो गया है कि उस पर पुलिस कार्रवाई से 31 महिलाओं की मौत भी हो चुकी है, और 30 से अधिक शहरों में आंदोलन फैल चुका है, और आंदोलनकारियों को देश भर में गिरफ्तार किया जा रहा है। बराबरी के हक पाने के लिए महिलाओं का यह आंदोलन बहुत ही महत्वपूर्ण है, और यह धर्म की कट्टरता को एक चुनौती भी है। हम यह तो नहीं कहते कि ये शहादत तुरंत ही सुधार ले आएंगी, लेकिन ये धार्मिक-कट्टर सरकार को कुछ सोचने को मजबूर जरूर कर सकती है। यह एक ऐसा मौका है कि दुनिया के लोगों को आगे आकर ईरानी महिलाओं के हक का साथ देना चाहिए। दुनिया की कई सरकारें ईरान के साथ अपने संबंधों को देखते हुए इस मुद्दे पर चुप रहेंगी, सोशल मीडिया पर यह भी सवाल उठाया गया है कि हिन्दुस्तान जैसे देश में सरकार तो सरकार, कोई राजनीतिक दल भी इस पर बोलने के लिए तैयार नहीं हैं। ऐसे में दुनिया भर के आजादी के हिमायती लोगों को खुलकर सामने आना चाहिए, और महिलाओं से भेदभाव के इस इस्लामिक माहौल का विरोध करना चाहिए। जो लोग भारत में मुस्लिम महिला के अधिकारों को लेकर फिक्र कर रहे हैं, उनके मुंह भी ईरानी महिलाओं के इस महत्वपूर्ण आंदोलन को लेकर खुल नहीं रहे हैं। महिलाएं तकरीबन तमाम दुनिया में दबी-कुचली रहती हैं, और जब वे एक अलोकतांत्रिक और बर्बर सरकार के खिलाफ सडक़ों पर उतरी हैं, तो दुनिया को उनका साथ देना चाहिए।
कांग्रेस अध्यक्ष के लिए होने जा रहे चुनाव को लेकर यह चर्चा है कि राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत सोनिया परिवार के पसंदीदा हैं। ऐसा इसलिए भी हो सकता है कि वे उम्रदराज हैं, और एक या दो कार्यकाल के बाद उनकी अधिक महत्वाकांक्षा या उम्र नहीं रह जाएगी, और अगर राहुल गांधी को दुबारा कोई ओहदा देने की नौबत आएगी तो गहलोत कोई जवान रोड़ा नहीं रहेंगे। यह एक अच्छी बात है कि कांग्रेस के भीतर एक औपचारिक चुनाव की औपचारिकता हो रही है, और एक से अधिक लोगों के अध्यक्ष चुनाव में उतरने की चर्चा है। इस मुद्दे पर अभी लिखने को कुछ खास नहीं है, लेकिन चुनाव के सवालों के बीच जब गहलोत से पूछा गया कि अगर वे कांग्रेस अध्यक्ष बनते हैं तो क्या वे ‘एक व्यक्ति एक पद’ के नियम के मुताबिक मुख्यमंत्री पद छोड़ देंगे? तो उनका जवाब था कि अध्यक्ष का चुनाव तो खुला चुनाव है, और इसे कोई भी लड़ सकता है, पार्टी का यह नियम मनोनीत पदों के लिए है। उन्होंने बड़े खुलासे से यह बात साफ कर दी कि वे पार्टी के अध्यक्ष रहते हुए भी मुख्यमंत्री तो बने ही रहेंगे।
कांग्रेस पार्टी की बर्बादी के लिए कुछ लोग शौकिया तौर पर सोनिया-परिवार पर तोहमत लगाते हैं, लेकिन गहलोत का यह ताजा बयान बताता है कि पार्टी के बहुत से नेताओं के अहंकार, और उनकी मतलबपरस्ती पार्टी के आज के बदहाल के लिए बराबरी से जिम्मेदार हैं। अब देश भर में फैली हुई कांग्रेस पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष रहते हुए, मिट्टी में मिली हुई दिखती पार्टी को उठाकर खड़े करने की एक बड़ी जिम्मेदारी को गंभीरता से लेने के बजाय गहलोत साथ-साथ मुख्यमंत्री भी बने रहना चाहते हैं। यह बात उन लोगों को हक्का-बक्का करती है जिन्हें लगता है कि एक पूर्णकालिक पार्टी अध्यक्ष होने के बाद शायद कांग्रेस की हालत सुधर जाए। पार्टटाईम पार्टी अध्यक्ष तो सोनिया गांधी भी हैं, और अगर राजस्थान का मुख्यमंत्री पार्टटाईम पार्टी अध्यक्ष रहना चाहता है, तो उसकी बात कौन सुनेगा? कांग्रेस के सिर पर छाए गहरे काले बादल छंटने का आसार नहीं दिखता। इस ऐतिहासिक पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद भी किसी की हसरत अपने प्रदेश का मुख्यमंत्री भी साथ-साथ बने रहने की है, तो वह हसरत पार्टी के लिए जानलेवा रहेगी। अदालत के कटघरे में घिरा हुआ कोई मुजरिम जिस तरह अपने बचाव के लिए तरह-तरह के तर्क ढूंढता है, कुछ उसी तरह के तर्क गहलोत दो कुर्सियों पर बैठे रहने के लिए जुटा रहे हैं कि ‘एक व्यक्ति, एक पद’ का नियम सिर्फ मनोनीत लोगों के लिए है।
आज देश में कांग्रेस के कुल दो मुख्यमंत्री बचे हैं, उनमें से एक का लालच आज अगर इतना है कि राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद भी वह एक राज्य का सीएम बने रहना चाहता है, तो फिर ऐसे लोगों को पार्टी के लिए त्याग करने के दावे नहीं करने चाहिए। यह बात हम वैसे तो कांग्रेस को लेकर लिख रहे हैं, और गहलोत के बयान के बाद लिख रहे हैं, लेकिन भारतीय राजनीति को देखते हुए यह बात साफ है कि पार्टियों के अध्यक्ष पद पर, या प्रधानमंत्री-मुख्यमंत्री जैसे पदों पर लोगों का आना सीमित समय के लिए होना चाहिए। दुनिया के सबसे ताकतवर देश अमरीका में राष्ट्रपति कुल चार बरस का कार्यकाल लेकर आते हैं, और वे अधिक से अधिक दो ऐसे कार्यकाल पा सकते हैं, और उसके बाद बाकी तमाम जिंदगी किसी सरकारी ओहदे पर नहीं जा सकते। आज हिन्दुस्तान में पीएम और सीएम की कुर्सी पर लोग तमाम जिंदगी बने रह सकते हैं, उस पर कोई रोक नहीं है। और फिर इस कुर्सी पर लगातार बने रहने के लिए लोग तरह-तरह के जायज और नाजायज तरीकों से ताकत जुटाते हैं, समर्थन जुटाते हैं, और विरोधियों को शांत करने के लिए तरह-तरह की जांच एजेंसियों का इस्तेमाल करते हैं। ऐसे में अगर पार्टियां यह तय नहीं करती हैं कि उनके पीएम और सीएम दो कार्यकाल से अधिक नहीं रहेंगे, तो फिर चुनाव आयोग को ही इस तरह की बात उठानी चाहिए, और कहीं न कहीं से इस पर बहस शुरू होनी चाहिए। लोकतंत्र में हर बीमारी का इलाज कानून से नहीं निकल सकता, दुनिया के बहुत से गौरवशाली और विकसित लोकतंत्र परंपराओं पर चलते हैं, और इन परपंराओं को कानून बनाकर नहीं बनाया जा सकता। जो राहुल गांधी कांग्रेस अध्यक्ष का पद छोडऩे के बाद परिवार से बाहर के किसी अध्यक्ष के लिए दो बरस से जिद पर अड़े हैं, उन्हें ही पार्टी के पिछले शिविर में इस बात को उठाना था कि पार्टी अध्यक्ष, प्रदेश अध्यक्ष, सीएम और पीएम जैसे पदों पर दो बार से अधिक कोई लगातार नहीं रहेंगे। अगर जिंदगी में कभी दुबारा किसी को उसी कुर्सी पर आना भी है, तो भी कार्यकाल के बराबरी का फासला बीच में होना जरूरी रहना चाहिए।
जब पार्टियों के भीतर किसी भी तरह का लोकतंत्र न रह जाए, तब उन पार्टियों के तय किए हुए उम्मीदवार मनमाने होंगे, और उनसे बनी हुई सरकारें भी मनमानी करती रहेंगी। देश की मजबूत लोकतांत्रिक व्यवस्था देश की पार्टियों की मजबूत आंतरिक लोकतांत्रिक व्यवस्था के बिना नहीं बन सकती। एक-एक कुनबे में कैद पार्टी लीडरशिप, और उनके लड़े गए चुनावों से लोकतंत्र मजबूत नहीं हो सकता। जिन अशोक गहलोत की बात से आज की यह चर्चा शुरू हुई है, उसे सार्वजनिक रूप से खारिज करने की जरूरत है। आज देश में कांग्रेस के पास गिने-चुने ओहदे रह गए हैं, और उनमें से दो सबसे बड़े ओहदे अगर कोई एक आदमी कब्जाना चाहता है, तो यह बहुत ही नाजायज सोच है।
उत्तरप्रदेश के सहारनपुर से निकला हुआ एक वीडियो चारों तरफ फैल रहा है जिसमें राज्य कबड्डी प्रतियोगिता में आई महिलाओं को शौचालय में खाना परोसा दिखाया गया है। यह खुलेआम दिन की रौशनी में हो रहा है, और शौचालय के फर्श पर से सबको खाना दिया जा रहा है। शौचालय को देखकर बताया जा सकता है कि यह पुरूषों के लिए बना हुआ है, और मूत्रालयों के सामने ही फर्श से लड़कियां खाना ले रही हैं। हिन्दुस्तान में गरीब खिलाडिय़ों को आमतौर पर ऐसे ही दौर से गुजरना होता है। जो निजी मुकाबलों वाले खेल रहते हैं, वहां तो कुछ खिलाडिय़ों के मां-बाप संपन्न होने की वजह से उनके साथ सफर कर लेते हैं, उन्हें ठीक से ठहरा लेते हैं। लेकिन तमाम किस्म के मुकाबलों के तकरीबन तमाम खिलाडिय़ों को ऐसी ही बदहाली में सफर करना होता है, काम चलाऊ जगह पर नहाना-सोना होता है, और शौचालय में खाना पकाने और खिलाने का यह मामला तो भारत में खेलों के प्रति सरकारी रूख का एक नया रिकॉर्ड है। और सरकार से परे भी इस देश में जितने खेल संगठन हैं, उनमें से अधिकतर का यही हाल है। इसी उत्तरप्रदेश के खेलों से जुड़े एक नेता का एक अश्लील वीडियो अभी कुछ दिन पहले ही सामने आया था जिसमें वे एक महिला के साथ अंतरंग हालत में दिख रहे थे। यह बात भी भारतीय खेलों में कई जगह सुनाई पड़ती है कि खिलाडिय़ों को टीम में चुने जाने के लिए कई तरह के समझौते करने पड़ते हैं।
एक तरफ कुछ चुनिंदा खेलों, और चुनिंदा प्रदेशों से निकलकर खिलाड़ी दुनिया भर में लगातार देश का नाम रौशन करते हैं, लेकिन हरियाणा, पंजाब, मणिपुर जैसे कुछ गिने-चुने राज्यों को छोड़ दें, तो अधिकतर राज्यों से कोई खिलाड़ी निकलकर आगे बढ़ते नहीं दिखते हैं, जबकि वहां आबादी बहुत है, और वहां राज्यों में सौ तरह की सरकारी फिजूलखर्ची भी दिखती है। और हम खेलों को किसी अंतरराष्ट्रीय मुकाबले में मैडल के हिसाब से भी नहीं देखते। हम खेलों को टीम भावना और खिलाड़ी भावना विकसित करने के लिए जरूरी समझते हैं, लोगों को जिंदगी भर फिटनेस और अच्छी सेहत की तरफ ले जाने के लिए भी कमउम्र से खेल जरूरी समझते हैं। लेकिन अधिकतर राज्यों में स्कूल शिक्षा विभाग आमतौर पर भ्रष्ट रहता है, और उसी के चलते खेलों के सामान से लेकर खेल के आयोजनों तक सब कुछ बर्बाद रहता है। फिर स्कूलों से ही बच्चों पर पढ़ाई-लिखाई का दबाव इतना बढ़ा दिया जाता है कि खेलों में दिलचस्पी को अधिकतर मां-बाप वक्त की बर्बादी मानकर चलते हैं, और हम आधी सदी पहले से यह नारा सुनते आए हैं- खेलोगे-कूदोगे बनोगे खराब, पढ़ोगे-लिखोगे बनोगे नवाब।
अब स्कूलों की किताबी शिक्षा को हिन्दुस्तान में इतना महत्व दे दिया गया है कि बच्चों के मां-बाप अपने बच्चों को उससे परे कुछ करने ही देना नहीं चाहते। ऐसे माहौल के बीच अगर कुछ बच्चे अपने मां-बाप की सहमति, अनुमति, या उनके दिए हौसले से खेलों में आगे बढऩा चाहते हैं, तो न उनके खानपान का इंतजाम रहता, न उनके पास जूते और सामान रहते, और न ही उनके लिए सफर या रहने-खाने का ठीकठाक इंतजाम रहता। हालत यह है कि अंतरराष्ट्रीय मैडल लाने वाले अधिकतर खिलाड़ी किसी निजी कारोबार से मदद पाकर तैयारी किए हुए रहते हैं, वे रवानगी के आखिरी पल तक सरकार या खेल संघों की तानाशाही से जूझते रहते हैं, जो मैडल लेने के करीब पहुंचे रहते हैं, उनके कोच को बदलने में खेल संघों की राजनीति जुट जाती है, और क्वार्टर फाइनल के पहले का मुकाबला तो ये खिलाड़ी अपने खेल संघों और अपनी सरकारों से जीतकर ही टूर्नामेंट में पहुंच पाते हैं।
आज देश भर में खेलों को राजनीति से अलग करने की बात चलते रहती है, खेल संघों में सिर्फ खिलाड़ी-पदाधिकारी रहें, यह बात भी लंबे वक्त से कही जा रही है, लेकिन हम बीसीसीआई से लेकर राज्यों के क्रिकेट संघों तक, और भारतीय ओलंपिक एसोसिएशन से राज्यों के ओलंपिक संघ तक देखते हैं कि अधिकतर जगहों पर गैरखिलाड़ी नेता, अफसर, कारोबारी काबिज हैं, और वे इन खेलों पर कब्जा करके अपना सार्वजनिक अस्तित्व बनाए रखते हैं, शायद मोटी कमाई भी करते हैं। खेल संघों के लोग और सरकार के खेल विभागों के लोग खिलाडिय़ों का सौ तरह से शोषण भी करते हैं, और उस बारे में अधिक लिखने का मतलब कई मां-बाप का हौसला पस्त करना होगा।
उत्तरप्रदेश के जिस जिले में लड़कियों के लिए पुरूष शौचालय में खाना पकाकर वहां खिलाया गया है, फर्श पर धरा खाना दिखता है, उनकी टीम में अगर एक भी नेता या अफसर के बच्चे होते, तो पूरा माहौल बदल गया होता। गरीब बच्चों के खेल में खिलाडिय़ों का यही हाल देखने मिलता है। दुनिया के न सिर्फ विकसित देश, बल्कि कई गरीब देश भी अपने खिलाडिय़ों को सहूलियत, अच्छा माहौल, और हिफाजत देकर उन्हें आगे बढ़ाते हैं। हिन्दुस्तान में बचपन से ही खिलाड़ी जिस गंदी राजनीति, भ्रष्ट सरकारी कामकाज, और तानाशाह खेल संघ देखते हुए आगे बढ़ते हैं, उनके मन में इन सबके लिए हिकारत पनपती होगी। खिलाडिय़ों के बीच से इन सबके खिलाफ आवाज उठनी चाहिए। अभी यह एक वीडियो सामने आया, तो देश भर में इससे खबरें बनीं, और हमें भी यह लिखना सूझा। ऐसे अधिक से अधिक भांडाफोड़ होने चाहिए, और उसके बाद ही किसी तरह के सुधार का रास्ता खुल सकेगा
मध्यप्रदेश के झाबुआ में कॉलेज छात्रों को उनके सीनियर छात्र परेशान कर रहे थे, पीट रहे थे तो उन्हें यह खतरा था कि वे हॉस्टल लौटेंगे तो और मार खाएंगे। उन्होंने पुलिस से हिफाजत मांगी तो वह नहीं मिली। इस पर उन्होंने जिले के पुलिस अधीक्षक को फोन किया, और मदद मांगी कि वहां से उन्हें और बुरी गंदी-गंदी गालियां सुनने मिलीं, और गिरफ्तारी की धमकी भी। यह बातचीत फोन पर रिकॉर्ड कर ली गई थी, और मामला मुख्यमंत्री तक पहुंचा। आवाज की जांच करने के बाद एसपी को सस्पेंड कर दिया गया है। इस घटना में नया कुछ भी नहीं है, सिवाय इसके कि एक बड़े अफसर से फोन पर की गई बातचीत रिकॉर्ड कर लिए जाने से जो सुबूत जुटा, उसकी बिना पर अफसर पर यह कार्रवाई हो सकी, अगर यह रिकॉर्डिंग नहीं होती, तो जिले के पुलिस कप्तान का कुछ भी नहीं बिगड़ा होता। आज चारों तरफ इस तरह की कॉल रिकॉर्ड करने की बात सामने आती है, और उसके बाद भी अगर लोग टेलीफोन पर धमकी देने, हिंसक और अश्लील बात करने से नहीं कतराते हैं, तो यह उनकी समझ की कमी भी है। आज वक्त ऐसा है कि हर किसी को यह मानकर चलना चाहिए कि उनकी बातचीत रिकॉर्ड तो हो ही रही है, और इसके लिए किसी खुफिया एजेंसी की जरूरत नहीं है, जिससे बात हो रही है वे भी इसकी रिकॉर्डिंग कर सकते हैं।
लेकिन बात रिकॉर्डिंग से परे की है, और पुलिस की बददिमागी की है। किसी भी जिले का पुलिस अधीक्षक बनना एक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी पाना होता है। अफसर के हाथ में सरकार बहुत से घोषित और अघोषित अधिकार देती है, और उससे कई तरह की जायज और नाजायज उम्मीद भी करती है। अंग्रेजों के समय में जिस तरह जिला कलेक्टर अंग्रेज सरकार के एजेंट रहते थे, उसी तरह आज देश के अधिकतर प्रदेशों में कलेक्टर और एसपी सरकार के ऐसे ही एजेंट रहते हैं। और इसी हैसियत की वजह से वे करोड़ों-अरबों कमाते हैं, सरकार की राजनीतिक पसंद और नापसंद के मुताबिक कानून को हांकते हैं, और यह करते हुए वे बड़े बददिमाग भी हो जाते हैं। मध्यप्रदेश कोई अकेला ऐसा राज्य नहीं है, देश के अधिकतर राज्यों में जिलों के कलेक्टर और एसपी का यही हाल रहता है। और उनका यह मिजाज मातहत लोगों पर भी उतरते चलता है। इन दोनों दफ्तरों की जवाबदेही बहुत कम कर दी जाती है, और नतीजा यह होता है कि वे सामंती अंदाज में काम करने लगते हैं। हिन्दुस्तान में यह बात कही भी जाती है कि असली ताकत पीएम, सीएम, और डीएम में होती है। डीएम की देखादेखी जिलों के एसपी भी तानाशाह हो जाते हैं, और एक मामूली सी एफआईआर होने या न होने का फैसला भी पुलिस कप्तान की मर्जी से होता है। अभी लगातार यह देखने में आता है कि सत्ता से जुड़े हुए बड़े-बड़े कारोबारी अपनी कारोबारी दिलचस्पी के मामले पुलिस की दखल से निपटाने लगते हैं।
अब मध्यप्रदेश में तो पुलिस कप्तान ने सिर्फ गालियां दी हैं, और गिरफ्तारी की धमकी दी है, लेकिन देश भर से ऐसे वीडियो आते ही रहते हैं जिनमें बहुत बुरी तरह बर्ताव करते हुए पुलिस शिकायतकर्ताओं को ही पीटती दिखती है। अभी कल ही उत्तर भारत का कोई वीडियो सामने आया है जिसमें परिवार की लडक़ी से बलात्कार की शिकायत करने पहुंचे परिवार को पुलिस अफसर ही बहुत बुरी तरह पीटते दिख रहा है। हमारा अपना आम जिंदगी का तजुर्बा यही रहा है कि पुलिस को किसी मामले में दखल देने के लिए बुलाया जाए, तो वह आते ही गालियां देना, और पीटना शुरू कर देती है। ऐसे में शरीफ लोगों को धीरे-धीरे यह लगने लगता है कि मामूली गाली-गलौज और पिटाई की शिकायत करके पुलिस को बुलाने का उल्टा ही नतीजा होता है, और यही दोनों बातें और अधिक होने लगती हैं।
यह सोचा जाए कि पुलिस का ऐसा हिंसक बर्ताव क्यों रहता है, तो अलग-अलग समय पर बने हुए पुलिस आयोगों की रिपोर्ट सरकारों के पास धूल खाते पड़ी हैं जिनमें पुलिस के काम करने के हालात सुधारने की सिफारिश की गई है। यह बात बड़ी आम है कि अगर ऊपरी कमाई की गुंजाइश न रहे, तो पुलिस की नौकरी में किसी भी दूसरे सरकारी महकमे के मुकाबले काम के घंटे अधिक रहते हैं, रात-दिन का ठिकाना नहीं रहता है, कई किस्म के खतरे रहते हैं, और छुट्टियां नहीं मिलती हैं। फिर भी लोग पुलिस की नौकरी पाने के लिए लगे रहते हैं। ऊपरी कमाई की सहूलियत को अगर छोड़ दें, तो पुलिस की नौकरी में आमतौर पर नेताओं की जी-हजूरी करने, और सत्ता के पसंदीदा मुजरिमों को छोडऩे, सत्ता के खिलाफ बागी तेवर रखने वाले बेकसूरों के खिलाफ झूठे केस बनाने का काम पुलिस में रात-दिन चलता है। नतीजा यह होता है कि पुलिस की सोच से इंसाफ पूरी तरह खत्म हो चुका रहता है, और उसे यही लगता है कि या तो उसे ऊपर के लोगों की मर्जी का काम करना है, या अपने स्तर पर कोई फैसला लेना है तो अपनी मर्जी चलाना ही उसका अधिकार है। जहां जिम्मेदारी की सोच खत्म हो जाती है, जहां रिश्वत देकर कुर्सी पाई जाती है, जहां पर कुर्सी पाकर कमाई करना ही मकसद रह जाता है, वहां पर नैतिकता, लोकतंत्र, जवाबदेही जैसे शब्द निरर्थक हो जाते हैं। इसलिए पुलिस की बदसलूकी, उसकी हिंसा का सीधा रिश्ता राजनीतिक दखल और दबाव से टूटे हुए मनोबल से रहता है। फिर यह भी है कि जब एक बार राजनीतिक दबाव की वजह से माफिया को बचाना है, और शरीफ को फंसाना है, तो ऐसे जुर्म से सने हुए अपने हाथों से पुलिस अपने लिए भी कमाने लगती है।
पुलिस सरकार का एक कोई दूसरा आम महकमा नहीं है, वह न्याय व्यवस्था का एक हिस्सा भी है। पुलिस से ही न्याय व्यवस्था शुरू होती है, और वही अदालत में फैसला होने तक जांच, सुबूत, गवाह, निष्कर्ष, और अदालती बहस का सामान जुटाती है। जब पुलिस ही टूटे मनोबल की भ्रष्ट संस्था हो जाती है, तो इंसाफ का पूरा सिलसिला ही पहले स्टेशन पर ही पटरी से उतर जाता है, और फैसले तक का लंबा सफर कदम-कदम पर एक भ्रष्ट और निकम्मी पुलिस के साथ तय होता है। लेकिन हमारी लिखी बहुत सी बातें, खासकर काम की अमानवीय परिस्थितियों की बात छोटे पुलिस कर्मचारियों पर तो लागू होती है, लेकिन बड़े अफसरों पर नहीं। किसी जिले के एसपी किसी अमानवीय स्थिति में काम नहीं करते, वे सहूलियतों से घिरे रहते हैं, और मातहत कर्मचारियों की फौज उनकी मालिश-पॉलिश करने को तैनात रहती है। इसलिए उनकी गाली-गलौज को काम के किसी बोझ से जोडक़र नहीं देखा जा सकता। अगर वे कमजोर आम लोगों के साथ ऐसा बर्ताव करते हैं, तो वे मिजाज से हिंसक और अराजक हैं। हमने मध्यप्रदेश के एक मामले को महज मिसाल बनाकर यह बात यहां लिखी है, देश भर में अगर लोग पुलिस अफसरों से फोन पर बात करते हुए, या मिलते हुए बातचीत रिकॉर्ड करने लगें, तो आधे अफसरों के सस्पेंड होने की नौबत आ जाएगी। फिलहाल इस मामले से यह सबक तो मिलता ही है कि लोगों को जहां भी हो सके बातचीत रिकॉर्ड करना चाहिए ताकि ऐसी कार्रवाई हो सके।
उत्तरप्रदेश के योगीराज का एक दिलचस्प मामला सामने आया है। पिछले पांच दिनों से देश के कई उत्साही, समर्पित, राष्ट्रवादी, और हिन्दुत्व-रक्षक टीवी चैनल यूपी के एक डॉक्टर के आंसुओं के साथ बहकर निकलते बयान को देश भर के घरों में पहुंचा रहे थे, और घरों का फर्श गीला कर रहे थे। यह डॉक्टर रोते-रोते बता रहा था कि किस तरह उसे एक अंतरराष्ट्रीय कॉल पर धमकी दी गई है कि उदयपुर और अमरावती के बाद अब सर तन से जुदा की बारी उसकी है। मतलब यह कि हिन्दू होने की वजह से उसका सिर कलम कर दिया जाएगा। मामला भयानक बतलाते हुए बड़े-बड़े टीवी चैनल टूट पड़े थे, और यह डॉक्टर रोते-रोते ही मशहूर हो गया था। इसके आंसुओं के साथ स्क्रीन पर मुस्लिमों के पहले के किसी प्रदर्शन के वीडियो जोडक़र एक बहुत ही भयानक माहौल बना दिया गया था। और फिर यह सब मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के राज में हो रहा था, और एक ऐसे व्यक्ति के साथ हो रहा था जो कि भाजपा का पश्चिमी उत्तरप्रदेश का क्षेत्रीय मीडिया प्रभारी भी था। डॉ. अरविंद वत्स च्अकेलाज् नाम के इस नेता-डॉक्टर का फेसबुक भाजपा की तस्वीरों से भरा हुआ है। उसकी पुलिस शिकायत के बाद देश का नफरती मीडिया इस शिकायत को दुहने में लग गया था, और इस आदमी को देश का अगला हिन्दू शहीद साबित करने में लग गया था। लेकिन साइबर-जुर्म अधिक लंबे नहीं चलते, और इस मामले के गुब्बारे की हवा चार-पांच दिन में ही निकल गई।
यूपी के गाजियाबाद की पुलिस ने एक प्रेस नोट जारी करके कल दोपहर बाद यह बताया है कि डॉ. अरविंद की रिपोर्ट की जांच करने पर पता लगा कि उसने वॉट्सऐप पर धमकी की एक फर्जी घटना गढ़ी थी ताकि उसे लोकप्रियता मिल जाए। जिस नंबर से इस डॉक्टर ने धमकी की कॉल आना बताया वह नंबर डॉक्टर के ही एक पुराने परिचित का निकला जिससे इलाज के बारे में डॉक्टर की बात होते रहती थी। उसे सिर तन से जुदा करने की धमकी वाला कॉल बताने की उसने कोशिश की थी, लेकिन इस झूठ का भांडाफोड़ हो गया। उस नंबर वाले ने बताया कि वह इस डॉक्टर से मिल भी चुका है, और उनसे इलाज भी करवाता है। उसने अपनी बीमारी की तस्वीरें पहले भेजी हुई हैं, और डॉक्टर ने दवाईयां भी लिखर भेजी हुई हैं। अब झूठी शोहरत पाने के चक्कर ने इस डॉक्टर ने अपने को सिर कलम करने की धमकी मिलने की रिपोर्ट लिखाई थी। योगी की पुलिस ने ही यह प्रेस नोट जारी किया है कि यह फर्जी रिपोर्ट लिखाने वाले इस डॉक्टर के खिलाफ अब कार्रवाई की जा रही है।
अब एक सवाल यह खड़ा हो रहा है कि देश के बड़े-बड़े विख्यात और कुख्यात टीवी चैनलों ने इस एक रिपोर्ट की जांच भी होने के पहले इसके साथ जोडक़र जिस तरह से मुस्लिमों के किसी प्रदर्शन के वीडियो दिखाए, और इस डॉक्टर को एक हिन्दू शहीद की तरह पेश किया, उस उगले हुए इलेक्ट्रॉनिक जहर को अब कौन निगलेगा? लोगों के बीच तो वह जहर फैलाया जा चुका है, उससे जितने लोगों के मन में नफरत का सैलाब पैदा होना है वह हो चुका है, ऐसे टीवी चैनलों के समाचार बुलेटिनों के वीडियो क्लिप वॉट्सऐप पर इतने फैल चुके हैं कि वे अनंतकाल तक तैरते ही रहेंगे। तो अब यह पूरा मामला झूठा साबित होने के बाद टीवी चैनलों पर इसे लेकर जुटे हुए दो-दो, चार-चार स्टार-एंकर अब कहां जाएंगे? जिन हिन्दूवादी कथित संतों ने इस डॉक्टर के आंसू पोंछते हुए मुस्लिमों के खिलाफ नफरत फैलाई थी, वे अब कहां मुंह छिपाएंगे? वैसे आज हिन्दुस्तान में नफरत की बात करने वालों को मुंह छिपाने की जरूरत नहीं रहती क्योंकि उनके जहर के खरीददार बहुत हैं। जहर जितना अधिक जानलेवा हो, उसकी उतनी ही बड़ी जगह भी टीवी चैनलों पर बन जाती है। और फिर हिन्दुस्तान में आज तक किस टीवी चैनल ने लोगों को मुंह छिपाने को मजबूर किया है? अभी तो वे सारे टीवी एंकर शोहरत के (या बदनामी के?) आसमान पर पहुंचे हुए हैं जिन्होंने दो हजार के नोट में एक चिप रहने का रहस्य खोला था, और बताया था कि जमीन की कितनी गहराई में यह नोट रहने पर भी मोदी का उपग्रह उसकी लोकेशन ढूंढ निकालेगा, और आकर दबोच लेगा। इस तरह की बहुत सारी शानदार मिसालें हाल के बरसों में टीवी समाचार चैनलों ने पेश की हैं, और इनमें से किसी को भी मुंह नहीं छिपाना पड़ा, क्योंकि जब झूठ का भांडाफोड़ होने की नौबत आती है, तो कभी कंगना छा जाती है, तो कभी चीता आ जाता है।
आज इस देश में प्रेस कौंसिल से लेकर ब्रॉडकास्टिंग पर काबू रखने वाले एक संगठन का भी अस्तित्व है। लेकिन मजे की बात यह है कि बड़े-बड़े नामी-गिरामी लोगों की अगुवाई वाले ये संगठन मीडिया के किसी भी तरह के जुर्म के दर्जे के कारनामों पर भी कुछ नहीं करते। नतीजा यह है कि मीडिया एक गंदा शब्द हो गया है, और उसके साथ तरह-तरह के विशेषण इस्तेमाल होने लगे हैं, जो कि असल में गालियां हैं। आज हिन्दुस्तान में यह सोचने की जरूरत है कि भोपाल के यूनियन कार्बाइड के कारखाने से निकली जहरीली गैस सरीखी जो खबरें ये टीवी चैनल पेश कर रहे हैं, और इस देश के लोगों को एक-दूसरे के खिलाफ नफरत से भर रहे हैं, उनका क्या इलाज हो सकता है? आज तो हिन्दुस्तानी समुदाय इनके किए हुए इतना बीमार हो चुका है कि उसकी नफरती सोच का इलाज भी अगले दो-चार चुनावों के गुजर जाने तक मुमकिन नहीं दिख रहा है। जब बात-बात में देश के गद्दार होने के तमगे लोगों को बांटे जाते हैं, तो यूपी के इस डॉक्टर के बारे में तो कानून को तय करना चाहिए कि नफरत फैलाने, साम्प्रदायिकता भडक़ाने, और उसकी शोहरत पाने की यह हरकत कितने बरस कैद के लायक है।
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
चंडीगढ़ के एक निजी विश्वविद्यालय में कल से भूचाल आया हुआ है। वहां लड़कियों के हॉस्टल में एक लडक़ी ने साठ लड़कियों के नहाते हुए वीडियो बना लिए, और उन्हें अपने एक दोस्त को भेज दिया। उस दोस्त ने ये वीडियो फैला दिए। कल जब यह मामला उजागर हुआ तो आठ छात्राओं की खुदकुशी की कोशिश करने की खबर है। इनमें से कुछ की हालत गंभीर है, कुछ बेहोश हैं। हालांकि कुछ खबरों में पुलिस का यह बयान भी है कि आत्महत्या की कोशिश किसी ने नहीं की है, लड़कियां महज बेहोश हैं। विश्वविद्यालय में देर रात से छात्रों का प्रदर्शन चल रहा है। शुरुआती खबरों में बताया गया है कि वीडियो बनाने वाली छात्रा के दोस्त ने ये वीडियो इंटरनेट पर भी डाल दिए, और सामाजिक शर्मिंदगी के खतरे में शायद लड़कियों ने आत्महत्या की कोशिश की है।
इस मामले के कई पहलू हैं, जिन्हें समझने की जरूरत है। एक गल्र्स हॉस्टल के भीतर ऐसी नौबत कैसे आई कि कोई लडक़ी अपने साथ की साठ छात्राओं का नहाते हुए वीडियो बना सके? दूसरी बात यह कि चाहे इससे निजता खत्म होती है, नहाना कोई जुर्म नहीं है, और नहाते हुए वीडियो फैल जाने से अगर कई छात्राओं को आत्महत्या करना जरूरी लग रहा है, तो यह समाज के भी सोचने की बात है कि उसने अश्लीलता के कैसे पैमाने बना रखे हैं कि महज नहाने के वीडियो से लड़कियों को आत्महत्या को मजबूर होना पड़े। फिर एक बड़ी बात यह भी है कि किसी यूनिवर्सिटी की छात्रा और उसके दोस्त को यह काम करते हुए यह नहीं सूझा कि आज टेक्नालॉजी की मेहरबानी से किसी भी किस्म का साइबर क्राईम शिनाख्त से परे नहीं रह पाता। रोजाना अखबारों में साइबर-जुर्म के मुजरिमों की गिरफ्तारी की खबरें आती हैं, उसके बाद भी लोग ऐसा जुर्म करने का खतरा नहीं समझ पाते हैं। सिर्फ यही एक घटना नहीं है, हिन्दुस्तान में हर कुछ हफ्तों में लोग गिरफ्तार होते हैं कि उन्होंने बच्चों के सेक्स-वीडियो इंटरनेट पर पोस्ट किए हैं। हर दिन दर्जन-दो दर्जन लोग साइबर-ठगी में गिरफ्तार होते हैं। इन सबकी खबरें भी छपती हैं। मामूली जानकारी रखने वाले लोगों को भी पता है कि किसी भी तरह के जुर्म में, साइबर-जुर्म की शिनाख्त सबसे तेज और सबसे आसान रहती है, और उसके सुबूत भी अदालतों में खड़े रहते हैं। यह सब होने के बाद भी आज लोग अगर दूसरों के नग्न वीडियो पोस्ट करने का खतरा उठा रहे हैं, तो ऐसे लोगों की साइबर-समझ पर भी तरस आता है, और यह साफ लगता है कि हिन्दुस्तान के लोगों को साइबर-जुर्म, करने से, और उसका शिकार बनने से बचाने के लिए अधिक जनजागरण की जरूरत है।
अब दो बहुत ही मामूली औजारों के बारे में बात करना जरूरी है। आज हिन्दुस्तान के अधिकतर हाथों मेें ऐसे मोबाइल फोन हैं जिनसे तस्वीरें खींची जा सकती हैं, वीडियो बनाए जा सकते हैं, और बातचीत रिकॉर्ड की जा सकती है। जिंदगी की निजता को खत्म करने का यह एक बड़ा हथियार है, जो कि दिखता एक मासूम औजार है। लोगों को अपने फोन के ऐसे इस्तेमाल से बचना चाहिए जिसके खिलाफ कोई शिकायत होने पर उनके फोन और कम्प्यूटर सबसे पहले जब्त हो जाएं। आईटी एक्ट के तहत शिकायत होने पर पहली नजर में जुर्म दिखने पर तुरंत ही लोगों के ये उपकरण जब्त होते हैं, और शिकायतकर्ता से परे भी दर्जनों लोगों की निजी जानकारी किसी भी फोन या कम्प्यूटर पर हो सकती है। जांच एजेंसियों में भी लोगों के हाथ दूसरे लोगों की ऐसी जानकारी पहुंचना ठीक नहीं है। इसलिए ऐसी किसी भी नौबत के बारे में सोचकर लोगों को यह चाहिए कि वे अपने फोन, कम्प्यूटर, सोशल मीडिया अकाऊंट, ईमेल का इस्तेमाल सावधानी से करें क्योंकि कोई दूसरे लोग भी इनका बेजा इस्तेमाल करते हैं, तो सबसे पहले आप खुद फंसते हैं। और जिसकी शिकायत होगी उससे परे भी बहुत सारे लोगों की जिंदगी इससे मुश्किल हो सकती है।
हिन्दुस्तान में आज हालत यह है कि झारखंड के जामताड़ा नाम के गांव या कस्बे में रहने वाले सैकड़ों नौजवान रात-दिन मोबाइल फोन से लोगों को ठगने का काम कर रहे हैं। और इनमें से कोई नौजवान मामूली से अधिक पढ़े-लिखे नहीं हैं। दूसरी तरफ खासे पढ़े-लिखे लोग जिनमें कामयाब कारोबारी भी हैं, और बड़े-बड़े सरकारी ओहदों पर बैठे हुए लोग भी झांसे में आ रहे हैं, धोखा खा रहे हैं, और अपनी रकम लुटा दे रहे हैं। इससे पता लगता है कि साइबर-औजारों की समझ रखने वाले लोग, जनता के मनोविज्ञान को समझकर किस तरह जुर्म का कारोबार चला सकते हैं, और पढ़े-लिखे लोग अपना सब कुछ गंवा सकते हैं। इसलिए हिन्दुस्तान में निजी जीवन की निजता को सम्हालकर रखने से लेकर, अपने बैंक खातों की जानकारी को भी सम्हालकर रखने की ट्रेनिंग देने की बहुत जरूरत है। टेक्नालॉजी छलांगें लगाकर आगे बढ़ रही है, मुजरिमों की कल्पनाएं उन पर सवार होकर दूर-दूर का सफर कर रही है, बस लोग ही, पढ़े-लिखे लोग भी, अज्ञानी बने बैठे हैं जिन्हें खतरे समझ ही नहीं आ रहे। इन सब बातों के बारे में लोगों को जागरूक करना सिर्फ सरकार की जिम्मेदारी नहीं है, सोशल मीडिया पर सक्रिय या जानकार लोग भी इसका अभियान चला सकते हैं।
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
चारों तरफ से बुरी खबरों के बीच चंडीगढ़ से एक अच्छी खबर आई है कि वहां पीजीआई से पहले जुड़े रहे किसी एक व्यक्ति ने अपना नाम उजागर किए बिना इस मेडिकल इंस्टीट्यूट को दस करोड़ रूपये दान किए हैं। समाचारों में बताया गया है कि इस पोस्ट ग्रेजुएट इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल एजुकेशन के रीनल ट्रांसप्लांट सेंटर में अगस्त में 24 किडनी ट्रांसप्लांट हुए थे, और इनमें से एक मरीज इस दानदाता का रिश्तेदार था। आज हिन्दुस्तान में किडनी ट्रांसप्लांट के लिए लोगों को दानदाता ढूंढते बरसों इंतजार करना पड़ता है, एक-एक, दो-दो बरस तक कानूनी कागज पूरे नहीं होते, और कई महीनों की जांच के बाद अस्पताल में उनकी बारी आती है। ऐसे में चंडीगढ़ के इस सबसे बड़े सरकारी अस्पताल को बिना किसी शोहरत की उम्मीद के मिला इतना बड़ा दान बाकी लोगों के लिए भी एक मिसाल बन सकता है।
दुनिया में दान की परंपरा कई देशों में धर्म के साथ जुड़ी रही है। चर्च में लोगों के सदस्य बनने और दान देने का रिवाज हिन्दू मंदिरों के मुकाबले अधिक औपचारिक है, और वह पैसा दुनिया के बहुत से देशों में जाता भी है। दूसरी तरफ कई धर्मों में लोग दान तो करते हैं, लेकिन उनका पैसा या तो मंदिरों और मठों में कैद रह जाता है, वहां सोने की शक्ल में तिजौरियों में बंद रहता है, और उनका किसी भी तरह का सामाजिक इस्तेमाल नहीं हो पाता। हिन्दुस्तान में धर्म से परे दान की परंपरा बड़ी सीमित है। देश के कुछ बड़े कारोबारियों ने अपनी सारी दौलत का एक बड़ा हिस्सा समाजसेवा के लिए देने की घोषणा की है, और अजीम प्रेमजी जैसे अरबपति लगातार खर्च कर भी रहे हैं। अजीम प्रेमजी और नारायण मूर्ति जैसे लोग आम मुसाफिर विमानों में इकॉनॉमी क्लास का सस्ता सफर करते हैं, और अपनी कमाई का बड़ा हिस्सा जनसेवा में लगाते हैं। दूसरी तरफ इस देश को लूटने के अंदाज में काम करने वाले कई चर्चित और विवादास्पद कारोबारी दान के नाम पर दो-चार दाने समाज की तरफ फेंक देते हैं, और अपनी दौलत दिन दूनी रात चौगनी बढ़ाते रहते हैं।
हिन्दुस्तान में ढेर सारे जनसंगठन, धार्मिक और सामाजिक संस्थाएं, तरह-तरह के अंतरराष्ट्रीय क्लबों के भारतीय यूनिट दान के नाम पर जो कुछ करते हैं, उससे कई गुना अधिक प्रचार अपने लिए जुटाते हैं। बहुत से धार्मिक और सामाजिक संस्थानों के लोग अस्पतालों में जाकर मरीजों को एक-एक फल देकर साथ में दर्जन-दर्जन भर लोग फोटो खिंचवाते हैं, और उसे अखबारों में छपवाते हैं। अधिकतर संगठन अपने बैनर तैयार रखते हैं, और आधा दर्जन घड़े लेकर कोई प्याऊ भी शुरू किया जाता है, तो उसके पीछे बैनर लेकर एक दर्जन लोग फोटो खिंचवाने लगते हैं, और फिर उसे सोशल मीडिया पर फैलाते हैं। दान का आकार प्रचार के आकार से किसी तरह भी अनुपात में नहीं रहता। फिर दान तो वह होना चाहिए जो अपनी जरूरतों में कटौती करके, अपने साधनों को निचोडक़र दूसरे लोगों की जरूरत के लिए दिया जाए। यहां तो लोग अपने जेब खर्च जितना दान देते हैं, और किसी महान दानदाता जितनी शोहरत जुटाते हैं। सोशल मीडिया पर ऐसे दानदाताओं की नीयत का मखौल भी उड़ते रहता है, और उनकी तस्वीरों की लोग खिल्ली भी उड़ाते हैं। लेकिन दानदाताओं की अपार सहनशक्ति होती है, जो वे फिर कुछ दिनों में बाजार में सबसे सस्ता मिलने वाला फल लेकर और फोटोग्राफर लेकर अस्पताल रवाना हो जाते हैं, और घंटे भर में दान की संतुष्टि पाकर प्रचार में जुट जाते हैं।
दान के प्रचार में हम बहुत बुराई भी नहीं मानते क्योंकि बिलगेट्स जैसे बड़े कारोबारी ने जब अपनी दौलत का आधा हिस्सा समाजसेवा में देने का फैसला लिया, उस बारे में दुनिया को बताया, तो उनकी देखादेखी, और उनकी प्रेरणा से दुनिया के बहुत सारे दूसरे कारोबारियों ने भी इस तरह का संकल्प लिया, और समाज को वापिस देना शुरू किया। इसलिए नेक काम का प्रचार दूसरे लोगों को नेक काम के लिए प्रेरित भी करता है। लेकिन इसका एक अनुपात रहना चाहिए। हिन्दुस्तान में बहुत ही सीमित दान और असीमित प्रचार दिखता है, और खटकता भी है।
हाल ही के बरसों में जब देश में कोरोना फैला, और सरकार ने कारोबारियों से दान की उम्मीद की, तो देश के दो सबसे बड़े कारोबारियों ने अपनी एक-एक घंटे की कमाई भी शायद दान में नहीं दी। दूसरी तरफ टाटा एक ऐसा उद्योग समूह था जिसने डेढ़ हजार करोड़ रूपये से अधिक दान दिया था। इस तरह की बातों को समाज के बीच चर्चा का सामान भी बनाना चाहिए, जब तक सोशल मीडिया पर, और जनता के बीच इस तरह की तुलना करके बातचीत नहीं होगी, तब तक तो घंटे भर की कमाई देने वाले लोग भी अपने प्रचारतंत्र से अपनी महानता दिखाते रहेंगे। दान और समाजसेवा को लेकर इस देश में जागरूकता की जरूरत है, और इससे जुड़े सवाल उठाने के लिए जनता में जनजागरण की जरूरत है।
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हिन्दुस्तान की राजनीति बड़ी दिलचस्प है। पहले लोग कई काम आत्मा की आवाज पर करते थे। जब कभी विधानसभा या संसद में पार्टी के फैसले के खिलाफ वोट देना होता था, तो लोग कहते थे कि अंतरात्मा की आवाज पर वोट दिया। लेकिन फिर यह बात जब बहुत खुलकर सामने आई कि अंतरात्मा की आवाज गांधी की तस्वीरों वाले बड़े नोटों से निकलती है, तो दलबदल का कानून बना, और अंतरात्मा को कुछ आराम दिया गया। अब दलबदल कानून के तहत विधायकों या सांसदों की अंतरात्मा जब सामूहिक रूप से जागती है, तभी जाकर इस कानून से रियायत मिलती है। नतीजा यह निकला कि पहले जो जागना या जगाना सस्ते में हो जाता था, अब वह थोक में होता है, और काफी बड़ी खरीदी एक साथ करनी पड़ती है। विधायक दल या सांसद दल के लोग जब थोक में आत्मा बेचते हैं, जीते जी स्वर्ग जैसा अहसास होता है तो निर्वाचित जनप्रतिनिधियों का दूसरी पार्टी में परकाया प्रवेश हो पाता है।
अब इसका सबसे ताजा मामला गोवा में सामने आया जहां पर कांग्रेस के 11 विधायकों में से 8 भाजपा में चले गए। जाहिर है कि पिछला चुनाव इन लोगों ने भाजपा के खिलाफ ही लड़ा था, लेकिन अब अंतरात्मा अगर परकाया प्रवेश पर उतारू हो गई है, तो इसमें भला विधायकों की काया कोई रोड़ा कैसे बन सकती है? नतीजा यह हुआ कि करीब पांच बरस कांग्रेस के मुख्यमंत्री रहे दिगम्बर कामत भी भाजपा में चले गए। बाकी लोगों के मुकाबले दिगम्बर कामत का मामला सच में ही कुछ अलौकिक किस्म का रहा। उन्होंने न्यूज कैमरों के सामने कहा कि वे एक मंदिर गए, और वहां देवी-देवताओं से पूछा कि उनके दिमाग में भाजपा में जाने की बात उठ रही है, उन्हें क्या करना चाहिए? इस पर ईश्वर ने कहा कि बिल्कुल जाओ, फिक्र मत करो। अब यह बात तो बहुत साफ है कि जब ईश्वर ही किसी बात की इजाजत दे दें, तो फिर फिक्र की क्या बात है, और किसी नैतिकता या दलबदल कानून की, जनता के प्रति जवाबदेही की बात रह भी कहां जाती है?
अब दिगम्बर कामत से सबक लेकर आज रूसी राष्ट्रपति ब्लादिमिर पुतिन भी यह कह सकते हैं कि वे चर्च गए थे, और वहां उन्होंने ईश्वर से कहा कि उनके मन में यूक्रेन पर हमले की बात आ रही है, क्या करें? और इस पर ईशु मसीह ने कहा कि बिल्कुल करो, फिक्र मत करो। अब ऐसी ईश्वरीय मंजूरी लेकर अगर कोई हमला किया गया है, तो संयुक्त राष्ट्र या पश्चिमी दुनिया का क्या हक बनता है कि वह इसे गलत करार दे? किसी भी धर्म के प्रति आस्था आमतौर पर कानून और संविधान से ऊपर मानी जाती है। अब दिगम्बर कामत पांच बरस कांग्रेस के मुख्यमंत्री थे, अभी वे कांग्रेस टिकट पर जीते थे, यह बात क्या ईश्वर को मालूम नहीं है? लेकिन इसके बाद भी अगर ईश्वर इजाजत दे रहा है, तो फिर किसी को इसे दलबदल नहीं कहना चाहिए, यही कहना चाहिए कि जो ऊपर वाले को मंजूर था।
धर्म, और ईश्वर की धारणा लोगों के लिए कई किस्म की सहूलियत मुहैया कराती हैं। कोई कत्ल हो जाए, जवान लडक़े हैं, किसी का रेप कर बैठें, महाकाल के प्रदेश में कुपोषित बच्चों का दलिया खा जाएं, काबिल बेरोजगारों को पीछे धकेलकर नौकरियों को बेच दें, या हजार किस्म के दूसरे जुर्म करें, तो भी कोई दिक्कत नहीं है। पकड़ाए जाने पर यही कहना चाहिए कि वे अपने उपासना स्थल गए थे, उन्होंने अपने ईश्वर से पूछा था, और ईश्वर ने कहा कि ठीक है कत्ल करने से मत झिझको, रेप करने से मत झिझको, जाओ और करो, तो फिर इसके खिलाफ कोई सजा कैसे हो सकती है? अभी-अभी सुप्रीम कोर्ट में धार्मिक मामलों की एक सुनवाई के दौरान एक वकील ने जजों को याद दिलाया कि देश की बड़ी अदालतों के बहुत सारे जज धार्मिक प्रतीक से लैस होकर कोर्ट में बैठते हैं। तो यह भी जाहिर है कि जब ईश्वर की इजाजत लेकर कोई जुर्म किया जाएगा, तो उन पर धार्मिक प्रतीक वाले जज कौन सा फैसला देंगे? इसलिए धर्म से मुजरिमों के दिल बड़े मजबूत होते हैं, और उनका हौसला टूट नहीं पाता है। और जब किसी धर्म के बलात्कारियों के किसी गैंगरेप से बचाने के लिए उस धर्म के झंडे-डंडे लेकर जुलूस निकलने लगते हैं, तो जाहिर है कि सर्वज्ञ, सर्वत्र, और सर्वशक्तिमान ईश्वर की उससे असहमति तो हो नहीं सकती है। अगर ईश्वर असहमत होता, तो उसके नाम पर निकाले जा रहे ऐसे जुलूसों पर बिजली तो गिरा ही सकता था, ऐसे तमाम लोगों को राख कर ही सकता था। लेकिन चूंकि बलात्कार समर्थक लोग ईश्वर की खुली निगाहों के नीचे जुलूस निकालते हैं, ईश्वर के नारे लगाते हैं, इसलिए यह मानने में कोई दिक्कत नहीं होना चाहिए कि उनमें ईश्वर की मौन सहमति रहती है। और यह भी जाहिर है कि दुनिया के तमाम धर्मों में जब ईश्वर को कण-कण में मौजूद बताया जाता है, तो जब छोटी बच्चियों से दर्जन भर लोग गैंगरेप करते हैं, तो उस वक्त भी वहां पर ईश्वर तो मौजूद रहा ही होगा, और हमने बहुत सारी धार्मिक फिल्मों में देखा है, और हर धार्मिक कहानी में पढ़ा है कि किस तरह ईश्वर दुष्टों का पल भर में नाश कर देता है। इसलिए जब बच्चियों के बलात्कारी गिरोह को लंबी जिंदगी मिलती है, तो उसका बड़ा साफ मतलब है कि ऐसा सर्वशक्तिमान उस गैंगरेप को रोकना नहीं चाहता था, वरना वह आसमानी बिजली गिराकर सबको भस्म कर सकता था।
ऐसी ही धार्मिक सहूलियत का फायदा अब विधायकों और सांसदों को मिल रहा है, और हम दिगम्बर कामत की उनके ईश्वर से बातचीत पर जरा भी शक नहीं करते क्योंकि वह ईशनिंदा जैसा काम हो जाएगा, और हमको भी अपनी जान प्यारी है। किसी होटल या रिसॉर्ट में हुए दलबदल की आलोचना करना तो ठीक हो सकता है, लेकिन किसी उपासना स्थल पर ईश्वर की सहमति और अनुमति लेकर किया गया दलबदल आलोचना के घेरे में नहीं लेना चाहिए, क्योंकि ऐसे आलोचकों को याद रखना चाहिए कि ईश्वर किस तरह भस्म कर सकता है। हरिइच्छा से ऊपर कोई राजनीतिक नैतिकता नहीं हो सकती, दलबदल कानून नहीं हो सकता, क्योंकि लोकतंत्र तो अभी ताजा-ताजा फसल है, ईश्वर तो अनंतकाल से रहते आए हैं, और वे अगर दिगम्बर कामत को किसी रंग का चोला पहनने को कह रहे हैं, तो इस पर कोई आलोचना नहीं होनी चाहिए। कांग्रेस को यह मानकर चुप बैठना चाहिए कि वह क्या लेकर आई थी, और क्या लेकर जाएगी।
हिन्दुस्तान के कुछ प्रदेशों में हर त्यौहार साम्प्रदायिक तनाव की आशंका और खतरे के साथ आता है, लेकिन छत्तीसगढ़ जैसे प्रदेश में त्यौहार लोगों का जीना हराम करने वाले रहते हैं। कई-कई दिन तक लाउडस्पीकर पर ऐसा शोर किया जाता है कि इस प्रदेश में कोई कानून ही नहीं है। अभी गणेश विसर्जन कई दिनों तक चला, और सडक़ों पर आवाजाही बर्बाद हुई, और शहरों का कोई हिस्सा ऐसा नहीं बचा जहां कान फाड़ देने वाले संगीत ने लोगों का जीना हराम न किया हो। हाईकोर्ट के कई तरह के आदेश सरकारी अफसरों की कचरे की टोकरी से होते हुए अब तक कागज कारखानों में लुग्दी बनकर दुबारा अखबारी कागज बन गए होंगे, लेकिन हाईकोर्ट की हस्ती पर नौकरशाही हॅंसती हुई दिखती है। किसी आदेश का कोई सम्मान नहीं है, और अगर कोई जज छत्तीसगढ़ के किसी भी बड़े शहर में विसर्जन-जुलूस के साथ कुछ घंटे चल ले, तो कई हफ्ते काम करने के लायक नहीं रह जाएंगे। यह एक अलग बात है कि हर शहर में अफसर इतने चतुर होते हैं कि वे राजभवन, मुख्यमंत्री निवास, जजों के बंगले, और बड़े अफसरों के रिहायशी इलाकों को लाउडस्पीकरों से दूर रखते हैं। हाईकोर्ट को कभी जिला प्रशासनों से फाइलें बुलाकर देखनी चाहिए कि जिला मुख्यालय की किन कॉलोनियों में ध्वनि विस्तारक यंत्रों का उपयोग रोकने के आदेश जारी किए जाते हैं, और यह भी पूछना चाहिए कि बाकी इलाकों के इंसान इस हिफाजत के हकदार क्यों नहीं माने जाते हैं?
इस बार गणेश विसर्जन के पहले से सोशल मीडिया पर सामाजिक कार्यकर्ता लगातार अफसरों को आगाह कर रहे थे। और बात सिर्फ गणेशोत्सव की नहीं है, दूसरे धार्मिक त्यौहारों का भी यही हाल रहता है, और शहर के बड़े-बड़े महंगे होटलों और शादीघरों का भी यही हाल रहता है कि उनके आसपास एक-दो किलोमीटर में बसे हुए लोग भी लगातार हल्ले के बीच ही जीते हैं। कहने के लिए पुलिस और प्रशासन हमेशा ही दो-चार आंकड़े दिखा सकते हैं कि उन्होंने लोगों के लाउडस्पीकर जब्त किए हैं, लेकिन हकीकत यह है कि शहरों में जब बवाल करते हुए ऐसे अराजक जुलूस निकलते हैं जिनसे आसपास रह पाना भी बर्दाश्त के बाहर हो जाता है, तो पुलिस उन जुलूसों का इंतजाम करते चलती है, न कि उन्हें रोकते हुए। अभी विसर्जन के जुलूस में ही छत्तीसगढ़ के एक छोटे जिले में पुलिस ने लाउडस्पीकर बंद करवा दिए, तो वहां के धार्मिक संगठन इसे धर्म पर हमले की तरह करार देते हुए एकजुट हो रहे हैं। यह नौबत इसलिए आई है कि बाकी तकरीबन तमाम जिलों में हर तरह की अराजकता को पूरी छूट दी जा रही है, और किसी एक जिले में कार्रवाई होती है तो वह खटकने लगती है।
जब हाईकोर्ट के आदेश पूरे प्रदेश के लिए हों, और आदेश से परे कोलाहल अधिनियम के तहत पहले से बने हुए नियम हों, उन्हें तोडऩे वालों के लिए सजा का प्रावधान हो, तब अगर इसे पूरे प्रदेश में धड़ल्ले से तोड़ा जाता है तो यह मामला जिला प्रशासन की अनदेखी से परे प्रदेश सरकार की अनदेखी का रहता है। प्रदेश सरकार चला रहे नेताओं और अफसरों की अनदेखी के बिना सारे के सारे जिला प्रशासन एक जैसे लापरवाह और गैरजिम्मेदार नहीं हो सकते। यह तो सरकार की तय की हुई प्राथमिकता दिखती है कि किसी भी धार्मिक अराजकता को न छुआ जाए, ताकि वोटरों का कोई भी एक तबका सरकार और सत्तारूढ़ पार्टी के खिलाफ संगठित न हो सके। नतीजा यह हो रहा है कि वोटों की यह फिक्र लोगों की जिंदगी हराम कर रही है, और धर्मान्ध लोगों को छोडक़र बाकी तमाम लोगों को यह लगता है कि क्या धर्म के लिए ऐसा सारा उत्पात जरूरी है? क्या बिना हंगामे के धार्मिक रीति-रिवाज पूरे नहीं हो सकते?
यह भी समझने की जरूरत है कि जब धर्म बने थे तब न तो बिजली थी और न ही लाउडस्पीकर। अपने-अपने इलाकों में दिन में पांच बार कुछ मिनटों के लिए बजने वाले मस्जिदों के लाउडस्पीकरों के खिलाफ तो कई प्रदेशों में हिन्दुत्ववादी संगठन सडक़ों पर प्रदर्शन कर रहे हैं, और अदालतों तक जा रहे हैं। दूसरी तरफ बर्दाश्त के बाहर का हल्ला करने वाले, शोर करने वाले लाउडस्पीकरों पर रोक की बात ये लोग नहीं करते। एक-एक त्यौहार पर कई-कई दिनों तक लाउडस्पीकरों पर जीना हराम किया जाता है, लेकिन उसे रोकना धर्म पर हमला करार दिया जाएगा या साम्प्रदायिक कहा जाएगा।
जो हाईकोर्ट छोटी-छोटी बातों को अपनी अवमानना से जोड़ता है, उसे छत्तीसगढ़ के तमाम बड़े शहरों से मीडिया और सोशल मीडिया पर पोस्ट की गई खबरों और वीडियो पर राज्य सरकार से एक रिपोर्ट मांगनी चाहिए ताकि सरकार हलफनामे पर अदालत को यह बताए कि उसके अब तक के दिए गए कई आदेश, और दी गई कई चेतावनियां किस तरह कचरे की टोकरी में हैं। जब प्रदेश में सरकार और अफसरों का ऐसा रूख हो, जब सभी पार्टियों के सारे नेता अपने-अपने इलाके में अराजकता बढ़ाने में लगे हों, तब जनता से यह उम्मीद बेकार है कि वह बार-बार जनहित याचिका लेकर अदालत जाए, या अवमानना याचिका लेकर जजों को याद दिलाए कि गली-गली उनकी बेइज्जती की जा रही है। आम जनता के पास न तो इतना वक्त है और न ही इतना पैसा, लेकिन अदालतों के पास बेहिसाब ताकत है। जनता की जिंदगी को बचाने के लिए न सही, कम से कम अपनी इज्जत बचाने के लिए हाईकोर्ट के जजों को अवमानना की कार्रवाई शुरू करनी चाहिए, और सरकार को कटघरे में खड़ा करना चाहिए। एक धर्म की अराजकता दूसरे धर्मों को भी बढ़ावा देती है, और इसे हम साल में कई बार देखते आ रहे हैं। अब तो जजों को देखना है कि उनकी कोई ताकत बची है या नहीं, और अपनी इज्जत का कोई अहसास उन्हें है या नहीं।
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
अंग्रेजों की लंबी गुलामी से थके हुए हिन्दुस्तान में जब राज की चर्चा होती है, तब अंग्रेजों की छोड़ी गई शिक्षा प्रणाली को कोसा जाता है कि वह बाबू बनाने वाली है, यह भी याद किया जाता है कि कोहिनूर हीरे सहित और कौन-कौन सी बेशकीमती हिन्दुस्तानी चीजें अंग्रेज यहां से लूटकर ले गए थे। अंग्रेजों ने जिस तरह बंगाल के अकाल में दसियों लाख लोगों को मरने दिया, और जिस तरह जलियांवाला बाग जैसा हत्याकांड किया, उनमें से कुछ भी भूलने लायक नहीं है, और उन्हें अक्सर ही याद भी किया जाता है। लेकिन इतिहास के जानकार इन बातों के साथ-साथ कुछ और बातों को भी याद करते हैं कि अंग्रेज अगर न आए होते, तो हिन्दुस्तान के हिन्दू समाज की बेरहम जाति व्यवस्था का क्या हाल हुआ होता, और इस देश में जो समाज सुधार कानूनों की वजह से हुए हैं, उनका क्या हाल हुआ होता।
खैर, अंग्रेजों की चर्चा करते हुए यह भी याद रखने की जरूरत है कि हिन्दुस्तान में अपने संविधान का बुनियादी ढांचा ब्रिटिश संसदीय व्यवस्था से लिया है, यह एक अलग बात है कि आज आजादी की पौन सदी के मौके पर इस देश में किसी भी तरह की संसदीय व्यवस्था की जरूरत महत्वहीन हो गई दिखती है। आज ब्रिटेन अपने इतिहास के एक बड़े फेरबदल से गुजर रहा है जब 70 बरस तक राज करने वाली महारानी एलिजाबेथ गुजर गई हैं, और उनके बेटे प्रिंस चाल्र्स अब किंग चाल्र्स तृतीय बनकर ब्रिटेन के संविधान प्रमुख हो गए हैं। इस फेरबदल के मौके पर ब्रिटेन के सार्वजनिक जीवन में जो हो रहा है, उसे भी हिन्दुस्तान को देखना चाहिए क्योंकि इससे भी आज के हिन्दुस्तान को कुछ सीखने की जरूरत है। कल ब्रिटिश पुलिस ने दो लोगों को गिरफ्तार किया क्योंकि उन्होंने महारानी के दर्शनार्थ रखे गए शरीर को देखने के लिए लगी हुई लंबी कतारों के बीच महारानी के खिलाफ नारे लगाए, चिल्लाकर यह सवाल किया कि इन्हें किसने चुना था? कुछ और लोगों को शाही परिवार के खिलाफ नारे लगाने पर पकड़ा गया, लेकिन इन तकरीबन तमाम लोगों को छोड़ भी दिया गया। जब दसियों लाख ब्रिटिश लोग शाही परिवार से अपने लगाव के चलते गमी में हैं, तब इस तरह के नारे लगाने वालों को पकडऩे पर भी वहां के कई संगठनों ने सवाल उठाए, और गिरफ्तारी का विरोध किया। खुद लंदन पुलिस ने कहा कि लोगों को विरोध करने का हक है। वहां के जनसंगठनों ने कहा कि गिरफ्तारी चिंता का विषय है क्योंकि अभिव्यक्ति की आजादी नागरिकों का अधिकार है। महारानी के अंतिम दर्शनों के लिए आ रहे लोगों के भी हक हैं, लेकिन इसके साथ-साथ दूसरे लोगों की अभिव्यक्ति की आजादी भी है। एक संस्था ने कहा कि विरोध करने का हक राष्ट्र की तरफ से लोगों को मिला तोहफा नहीं है, यह लोगों का बुनियादी हक है। पुलिस ने एक बयान जारी करके यह कहा कि हम अपने सभी अधिकारियों को यह बता रहे हैं कि विरोध करना जनता का हक है, और उसका सम्मान किया जाना चाहिए, और यह हक लोकतंत्र के लिए बहुत महत्वपूर्ण है।
आज जब हिन्दुस्तान में बात-बात पर लोगों के खिलाफ मुकदमे दर्ज हो रहे हैं, गिरफ्तारियां हो रही हैं, लोगों के एक-एक बयान को लेकर उन्हें बरसों तक जेल में बंद रखा जा रहा है, तब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का यह ब्रिटिश पैमाना देखने, और उससे सीखने लायक है। आज तो हिन्दुस्तान में केन्द्र और राज्य सरकारों की पुलिस थाने के स्तर पर ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तय कर रही है, लोगों का मान-अपमान तय कर रही है, यह तय कर रही है कि क्या अश्लील है, और क्या देशद्रोह है। ऐसे में देश को एक बार फिर यह सोचना चाहिए कि ब्रिटिश या अमरीकी लोकतंत्र की तारीफ करते हुए, या अपने आपको दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र बतलाते हुए यह देश खुद कैसी मिसाल पेश कर रहा है? यहां के पत्रकार, यहां के सोशल मीडिया आंदोलनकारी, और कार्टूनिस्ट से लेकर फिल्मकार तक जिस तरह के फर्जी मामलों में उलझाए जा रहे हैं, क्या कोई यह कल्पना भी कर सकते हैं कि इस देश के किसी संवैधानिक प्रमुख की मौत हो जाने पर उसके खिलाफ सार्वजनिक जगहों पर नारे लगाए जाएं, और जनसंगठनों से लेकर पुलिस तक इस बात का सम्मान करे कि यह लोगों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है। जिन लोगों को भी यह धोखा है कि लोकतंत्र कोई सस्ती शासन प्रणाली है, उन्हें अपनी समझ सुधार लेनी चाहिए। लोकतंत्र एक बहुत ही लचीली व्यवस्था है, और यह नियम-कानून के बेजा इस्तेमाल से नहीं चलती, यह गौरवशाली और उदार परंपराओं से चलती है। हिन्दुस्तान का लोकतंत्र बिगड़ते-बिगड़ते आज इस बदहाली में पहुंच गया है कि कायदे से तो 75वीं सालगिरह मनाने का इसे कोई हक नहीं होना चाहिए, पौन सदी पहले किसने यह सोचा होगा कि आज इस देश में लोकतांत्रिक अधिकार इस हद तक कुचल दिए जाएंगे।
अमरीका में जिस तरह वहां के शासन प्रमुख, अमरीकी राष्ट्रपति के खिलाफ बोलने, लिखने, चंदा देने, और चुनाव अभियान में शामिल होने की आजादी लोगों को रहती है, और किसी भी कारोबारी को यह डर नहीं रहता कि राष्ट्रपति का विरोधी होने की वजह से सरकारी एजेंसियां उन पर टूट पड़ेंगी। उससे भी हिन्दुस्तान को सीखने की जरूरत है, और ब्रिटेन के इस ताजा मामले से भी। लोकतंत्र में कोई भी सरकार अपने आपको लोगों की आलोचना से फौलादी जिरहबख्तर पहनकर नहीं बच सकती। अगर सरकारें इस तरह से बचती हैं, तो उसका मतलब यही है कि लोकतंत्र नहीं बचा। इसलिए एक परिपक्व लोकतंत्र को आलोचना की कई किस्म की आग से तपकर खरा साबित होना पड़ता है। चापलूसी से महज तानाशाही खरी साबित होती है, लोकतंत्र नहीं। हिन्दुस्तान में आज हर स्तर पर लोकतंत्र की इस बुनियादी समझ पर बात करने की जरूरत है, और यह देखने की जरूरत है कि किसी देश की करीब पौन सदी की महारानी गुजरने पर उसके शव के अंतिम दर्शनों में भी लोग उसके खिलाफ, राजपरिवार के खिलाफ किस तरह नारे लगा सकते हैं, और पुलिस को यह सिखाया जा रहा है कि यह लोगों का बुनियादी हक है।
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
किसी अच्छे-भले काम को तबाह कैसे किया जाए, यह सीखना हो तो कांग्रेस से बेहतर आज कोई शिक्षक नहीं है। राहुल गांधी की पदयात्रा कन्याकुमारी से शुरू होकर केरल पार करके आगे बढ़ रही है, डेढ़ सौ दिनों में पैंतीस सौ किलोमीटर का यह सफर दर्जन भर से अधिक राज्यों से गुजरते हुए पूरा होने वाला है, और राहुल गांधी के अभूतपूर्व उत्साह की और सडक़ पर जनता की ओर से अभूतपूर्व स्वागत की सकारात्मक तस्वीरें रोजाना ही आ रही हैं। सोशल मीडिया इन तस्वीरों से भरा हुआ है, और देश के प्रमुख मीडिया से कोई अधिक उम्मीद वैसे भी नहीं की जा सकती थी। जब चारों तरफ राहुल की मुस्कुराहट तैर रही है, और जब स्मृति ईरानी सरीखी गांधी परिवार से नफरत करने वाली बेकाबू नेता ऐसा खुला झूठ बोल रही है कि वह पल भर में पकड़ा जा रहा है, तब भी कांग्रेस शांत रहकर अपना काम नहीं कर पा रही है। कल ही कांग्रेस पार्टी ने इसी पदयात्रा को लेकर एक पोस्टर बनाया जिसमें आरएसएस के पुराने चले आ रहे प्रतीक चिन्ह, खाकी हाफपैंट को सुलगते हुए दिखाया है, और लिखा है कि अभी 145 दिन और बाकी हैं। कांग्रेस का निशाना इस बात पर है कि अगले 145 दिन में सुलग रहा यह हाफपैंट बचेगा भी नहीं। लेकिन सवाल यह है कि राहुल गांधी तमाम पार्टियों और जनसंगठनों के लोगों को जोडक़र जब यह पदयात्रा करना चाहते हैं, तो उस बीच कांग्रेस को आरएसएस पर हमले को इस यात्रा से क्यों जोडऩा चाहिए? क्या इस यात्रा से परे कांग्रेस के पास आरएसएस पर हमले का कोई सामान नहीं है? या फिर इस यात्रा को कांग्रेस अपनी डूबती हुई नाव के लिए एक तिनका मानकर उसका भी इस्तेमाल इस हमलावर तरीके से कर लेना चाहती है? जब राहुल गांधी भारत जोड़ो के नारे के साथ यह लंबी पदयात्रा कर रहे हैं, तो इस ऐतिहासिक मौके को बर्बाद करने के लिए इसे आरएसएस तोड़ो पदयात्रा में क्यों बदला जा रहा है?
बहुत से लोगों को महानता और कामयाबी ठीक से पच नहीं पाती है। आज जब तमाम चीजें एक सद्भावना को लेकर चल रही हैं, आम जनता के साथ राहुल गांधी की अनगिनत तस्वीरें उनका एक बहुत ही मानवीय पहलू दिखा रही हैं, जब सोशल मीडिया पर ही लोग यह बात लिख रहे हैं कि यह सद्भावना और मुस्कुराहट राहुल के विरोधियों को परेशान कर रही है, तब फिर कांग्रेस पार्टी को आरएसएस की चड्डी में आग लगाकर सद्भावना को पटरी से क्यों उतारना चाहिए? आज तो शायद आरएसएस ने राहुल गांधी पर कोई ताजा हमला भी नहीं किया है, हमला भाजपा के कई लोगों ने किया है, और आदतन स्मृति ईरानी बिना सोचे-समझे इस आग में कूद पड़ी हैं, और अपने ही हाथ-पांव जला बैठी हैं। जब विरोधी और आलोचक खुद ही अपने हाथ-पांव जला रहे हैं, तो कांग्रेस पार्टी को आरएसएस की चड्डी में आग क्यों लगानी चाहिए? अपने आपको बहुत महान मानने वाले कांग्रेस के नेताओं को शायद इस बात का अहसास और अंदाज नहीं होगा कि यह आग सद्भावना को महान बनाने की संभावनाओं में लग रही है, आरएसएस की चड्डी में नहीं। इस एक पोस्टर ने राहुल गांधी की सारी मुस्कुराहट पर पानी फेर दिया है, और उनके चेहरे पर एक अलग किस्म की क्रूरता मल दी है।
कांग्रेस की यह भारत जोड़ो यात्रा दलगत राजनीति से परे होती दिख रही थी। इससे कांग्रेस के लोग जुड़े हुए जरूर थे, लेकिन कांग्रेस से परे के भी कई लोग इससे जुड़े हैं, और कांग्रेस और भी लोगों के जुडऩे की उम्मीद कर रही है। ऐसे में जब देश के एक व्यापक हित के लिए बिना किसी आक्रामक नारे के भारत जोडऩे की बात हो रही है, तब किसी को भी तोडऩे की बात क्यों होनी चाहिए? देश की जनता के सामने यह बात साफ है कि देश को कौन तोड़ रहे हैं। उनके पोस्टर बनाने की जरूरत भी नहीं है। ऐसा लगता है कि कांग्रेस संगठन इस पदयात्रा में राहुल गांधी की दिखती लोकप्रियता का नगदीकरण करवाने की हड़बड़ी में है, और कांग्रेस में जो लोग घोषित तौर पर आरएसएस के खिलाफ हैं, उन लोगों में इस लोकप्रियता का इस्तेमाल इस अभियान को आरएसएस के खिलाफ झोंकने में कर दिया है। यह सिलसिला कांग्रेस को फायदा तो दिलाने वाला है ही नहीं, बल्कि राहुल गांधी का नुकसान करने वाला है। जब सब कुछ अच्छा चल रहा हो, तब भी कुछ लोगों का मिजाज उसका फायदा पाने का नहीं रहता। उन्हें लगता है कि उनके हुनर के बिना ही यह फायदा हासिल हो जाए, तो उनका तो अस्तित्व ही खत्म हो जाएगा। कांग्रेस के अतिउत्साही लोग ऐसी ही कोशिशों में जुट गए हैं। अगर कांग्रेस में कोई सचमुच ही राहुल गांधी के शुभचिंतक हैं, तो उन्हें पार्टी के नेताओं के हाथों से माचिस छीन लेनी चाहिए, ताकि वे और कई जगहों पर आग न लगा सकें। कुछ अभियान बड़प्पन और महानता के साथ चलने चाहिए, इस बात को कांग्रेस के कुछ समझदार नेताओं को समझना चाहिए, और पदयात्रा पूरी होने तक ऐसी हमलावर पोस्टरबाजी किनारे रखनी चाहिए। अगर इस बीच कांग्रेस को भाजपा या आरएसएस, या किसी और पर भी हमले की जरूरत लगती है, तो वह इस पदयात्रा से परे अलग हमला करे। गांधी ने इस देश को पदयात्रा के साथ-साथ मौन रहना भी सिखाया था।
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
एक ब्रेक के बाद हिन्दुस्तान के सबसे मशहूर कॉमेडी शो, कपिल शर्मा का नया सीजन शुरू हो गया है, और इसके साथ ही गरीबों और महिलाओं की बेइज्जती का नया सैलाब भी इस कार्यक्रम में आ गया है जिस पर हिन्दुस्तानी परिवार में महिलाएं भी बैठकर हॅंस रही हैं। दरअसल यह देश ऐसा है कि किसी के नाली में गिरने पर, या केले के छिलके पर से फिसलकर सडक़ पर गिरने पर लोग पहले हॅंसते हैं, और फिर दिल करता है तो मदद करते हैं। दूसरे की तकलीफों पर हॅंसना, लोगों की शारीरिक दिक्कतों पर हॅंसना, और महिलाओं की खिल्ली उड़ाने वाली हर बात पर हॅंसना आम हिन्दुस्तानी मिजाज है।
अभी किसी ने फेसबुक पर एक ऐसे रियलिटी शो का वीडियो पोस्ट किया है जिसमें पांच-छह बरस के छोटे बच्चे किसी कॉमेडी मुकाबले में शामिल हैं, और वे महिलाओं के खिलाफ अपमानजनक लतीफे सुनाते जा रहे हैं, और फूहड़ बातें करने वाले जज उन पर जोरों से हॅंसते जा रहे हैं। इन बच्चों के, शायद, मां-बाप भी वहां बैठे हुए हॅंस रहे हैं, और जजों में शामिल महिलाएं भी। सोशल मीडिया पर अच्छे-खासे पढ़े-लिखे दिखने वाले लोग भी महिलाओं पर बनाए गए लतीफों पर हॅंसते हैं, जिनमें महिलाएं भी शामिल रहती हैं। इन दिनों वॉट्सऐप जैसे मैसेंजर की मेहरबानी से लोग अपनी एक-एक फूहड़ बात एक क्लिक से ढाई सौ से अधिक लोगों को भेज सकते हैं, और बहुत से लोग महिलाओं की बेइज्जती करने वाले कार्टून या लतीफे आगे बढ़ाते हुए थकते नहीं हैं। अभी दो-चार दिन पहले ही लोगों ने अंग्रेजी शब्द वाईफ के हिज्जों से एक नई परिभाषा बनाकर कई जगह पोस्ट करना शुरू किया- वरी इनवाइटेड फॉर एवर।
जब छोटे-छोटे बच्चे स्टेज पर यह लतीफा सुना रहे हैं कि दुनिया का सबसे पुराना एटीएम औरत की मांग का सिंदूर है, जिस पर हाथ फिराते ही वह अपने आदमी की जेब से कितना भी पैसा निकाल सकती है, तब यह आसानी से समझा जा सकता है कि बड़े होकर इन बच्चों की सोच किस तरह की रहेगी। लोगों को यह भी याद होगा कि अभी हाल फिलहाल तक स्कूली किताबों में किस तरह कमल घर चल, कमला नल पर जल भर पढ़ाया जाता था। हो सकता है अभी भी कई किताबों में यही सुझाया जाता हो कि घर में लडक़े और लडक़ी के दर्जे में मालिक और गुलाम जैसा फर्क रहता है। हकीकत भी यही है कि बहुत से हिन्दुस्तानी परिवारों में अगर साधन सीमित हैं, तो लडक़े को बेहतर पढ़ाई, बेहतर खाना, और बेहतर इलाज मिलता है। मुम्बई के टाटा मेमोरियल हॉस्पिटल के एक अध्ययन के बारे में इसी जगह पर हम पहले भी लिख चुके हैं कि वहां बच्चों में कैंसर होने की शिनाख्त हो जाने पर किस तरह लडक़ों को तो इलाज के लिए वापिस लाया जाता है, लेकिन लड़कियों को मां-बाप आमतौर पर इलाज के लिए लाते ही नहीं हैं। एक भयानक तस्वीर छत्तीसगढ़ के गांवों की स्कूलों की कई जगहों से आ चुकी है जिनमें दोपहर के भोजन के वक्त स्कूली लडक़े पालथी मारकर बैठकर खा रहे हैं, और लड़कियां ऊकड़ू बैठकर। यह पता चला कि कई गांवों में यह परंपरा है कि घर में भी लड़कियां ऊकड़ू बैठकर खाती हैं क्योंकि ऐसे बैठकर खाने पर खाना कम होता है। इस तरह हिन्दुस्तानी कॉमेडी से लेकर हिन्दुस्तानी जिंदगी की असल हकीकत तक लड़कियों और महिलाओं के खिलाफ जो हिंसक भेदभाव है, वह पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे बढ़ते जा रहा है।
जिस पति की मंगलकामना करते हुए, या जिसके नाम की तख्ती लगाने के नाम पर महिलाएं सिंदूर भरती हैं, बाकी दुनिया को यह बताते चलती हैं कि वे अब उपलब्ध नहीं हैं, उनका वह सिंदूर भी तरह-तरह से मखौल उड़ाने का सामान बना दिया जाता है। वे पति के लंबे जीवन के लिए करवाचौथ जैसा व्रत रखती हैं, और उस पर यह लतीफा बना दिया जाता है कि वे साल भर बाकी हर दिन पति का खून पीती हैं, और इस एक दिन उपवास करती हैं। इस देश में हिन्दी, और शायद कुछ और भाषाओं में भी, का बहुत सारा हास्य महिलाओं की बेइज्जती पर टिका होता है। राजस्थान के एक बड़े ही मशहूर मंच के कवि की पूरी जिंदगी ही अपनी बीवी पर तरह-तरह के अपमान के लतीफे बनाते हुए गुजर गई है, और उन्हें सुनकर हॅंसने वालों में महिलाएं भी रहती हैं। हिन्दी के कहावत-मुहावरों में सैकड़ों बरस से महिलाओं के अपमान का सिलसिला चले आ रहा है, उनके चाल-चलन के खिलाफ गंदी से गंदी बातें लिखी जाती हैं, उनके नि:संतान होने के खिलाफ, उनके पति खोने के खिलाफ दर्जनों कहावतों और मुहावरों को गढ़ा गया है। आज भी पुराने साहित्य को उठाकर देखें तो प्रेमचंद से लेकर गांधी तक हर महान लेखक की भाषा में औरत को बराबरी का दर्जा देने का व्याकरण ही नहीं है। मर्द में ही औरत को शामिल मान लिया गया है।
यह देश अपने साहित्य में, महान लोगों की सूक्तियों में, भाषाओं के व्याकरण में, कहावतों और मुहावरों में, स्कूली किताबों से लेकर कॉमेडी शो तक महिलाओं के अपमान की कलंकित परंपरा को जारी रखे हुए है। दिक्कत यह भी है कि इनकी शिकार महिलाओं को भी इस बात का अहसास नहीं होता है कि वे इस लैंगिक-हिंसा का निशाना हैं, उसका शिकार हैं। वे भी आए दिन किसी अफसर या नेता की नालायकी और निकम्मेपन का विरोध करने के लिए जुलूस लेकर उसे चूडिय़ां भेंट करने जाती हैं। भाषा और संस्कृति, रिवाज और सोच की यह हिंसा आसानी से खत्म नहीं होगी, क्योंकि अभी तो इसकी पहचान भी शुरू नहीं हो पाई है। लेकिन सोशल मीडिया एक ऐसी बड़ी सार्वजनिक जगह है जहां पर यह जागरूकता लाने का अभियान चल सकता है। इसके लिए लोगों को अपनी हिचक छोडक़र खुलकर लिखना होगा, इस भेदभाव का विरोध करना होगा, महिलाओं के अपमान के खिलाफ खड़े होना पड़ेगा। कुछ लोगों को ऐसा विरोध अप्रासंगिक लगेगा, और लगेगा कि इससे तो जिंदगी की खुशी छिन ही जाएगी। लेकिन लोगों को याद रखना होगा कि एक वक्त तो लोग अपनी खुशी के लिए एक गुलाम और एक शेर के बीच मुकाबला करवाकर उसका भी मजा लेते थे, जो कि आज के लोकतांत्रिक विकास के बाद संभव नहीं है। हिन्दुस्तान आज महिलाओं पर हिंसा के हास्य का मजा ले रहा है, लेकिन जागरूकता जैसे-जैसे बढ़ेगी, वैसे-वैसे यह साबित होगा कि यह ताजा इतिहास भी कितना बेइंसाफ था।
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्व शर्मा आमतौर पर मुस्लिम विरोधी नफरती बातों के लिए ही खबरों में आते हैं। लेकिन कल की एक खबर इससे कुछ अलग है, और उन्होंने कहा कि अदालती ढांचे को बेहतर बनाने के लिए केन्द्र सरकार पूरे देश को 9 हजार करोड़ रूपये दे रही है जिसमें से असम को तीन सौ करोड़ रूपये मिलने हैं, और राज्य सरकार निचली अदालत में नए जज नियुक्त करेगी ताकि लोगों को इंसाफ जल्दी मिल सके। उनकी बाकी बातों से परे, हम उन्हें भारत के एक राज्य के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे व्यक्ति मानकर उनकी इस बात को आगे बढ़ाना चाहते हैं कि अदालतों में अधिक नियुक्तियां की जाएंगी। अब उनके बयान के मुताबिक तो देश के हर राज्य को केन्द्र सरकार की तरफ से अदालत के बुनियादी ढांचे को सुधारने के लिए बजट मिलना है, और अधिकतर राज्यों के सामने निचली अदालतों की चुनौतियां भी कमोबेश एक सरीखी हैं, और संभावनाएं भी।
देश के किसी भी राज्य को देखें तो निचली अदालतें सिवाय पेशी बढ़ाते चलने के बहुत ही कम दूसरा काम कर पाती हैं। बहुत कम फैसले होते हैं, और अधिकतर लोग उन्हीं मामलों में कार्रवाई जरा भी आगे बढ़े बिना बार-बार अदालत जाते हैं, हर बार रिश्वत देकर अगली तारीख सुनकर लौटते हैं, और पूरी तरह, बुरी तरह भ्रष्टाचार पर टिका हुआ यह अदालती ढांचा इंसाफ करने का एक ढकोसला करते दिखता है। देश की अधिकतर आबादी जिला अदालत से ऊपर किसी अदालत में मुकदमा लडऩे के लायक नहीं हैं, बल्कि जिला अदालत में ही अधिकतर लोग कर्ज से लद जाते हैं, हरिशंकर परसाई की लिखी एक बात पिछले लंबे समय से बार-बार सोशल मीडिया पर दुहराई जाती है जिसका मतलब यह है कि गरीब एक बार अदालत पहुंच जाए, तो उसकी सबसे अधिक मेहनत अपने ही वकील से अपने को बचाने में लग जाती है। और केन्द्र सरकार ने अभी जो रकम मंजूर की है उसका कोई भी असर वकील और मुवक्किल के बीच के रिश्तों को बेहतर बनाने वाला नहीं है। जो राज्य इस रकम का बेहतर इस्तेमाल करेंगे, या अपने खुद के बजट से भी खर्च करेंगे, वहां इतना ही हो सकता है कि सबसे गरीब लोग अपने जीते जी फैसला पा सकें।
यह लोकतंत्र की एक सबसे बुरी शिकस्त है कि लोग कानून को अपने हाथ में न लेकर, कानून पर भरोसा करके अदालत जाते हैं, और वहां पर पूरी जिंदगी गलियारों में गुजार देते हैं। इंसाफ के नाम पर जो फैसले होते हैं, वे भी अक्सर ही महज फैसले होते हैं, उनका इंसाफ से कम ही लेना-देना होता है। बहुत से अदालती मामलों में तो यह होता है कि ताकतवर अपने हक में फैसले खरीद लेते हैं, और इंसाफ गलियारे में गरीब के साथ चुपचाप खड़े रह जाता है। यह नौबत तब और भयानक हो जाती है जब न्याय व्यवस्था अमानवीय हो जाती है, और वह बिना यह सोचे लोगों को पूरी जिंदगी अदालत बुलाते रहती है कि उनकी जिंदगी के उतने दिन बर्बाद होने का उन्हें कितना नुकसान होगा। हिन्दुस्तान सचमुच ही बहुत ही अमन-पसंद लोगों का देश है, वरना पूरी जिंदगी अदालतों में बर्बाद करने को मजबूर लोग कानून अपने हाथ में ही ले चुके होते, और अपने हिसाब से फैसला कर चुके होते।
इस देश के बड़े-बड़े तकनीकी और प्रबंधन संस्थानों से निकले हुए लोग दुनिया की सबसे बड़ी कंपनियां चलाते हैं, लेकिन इस देश के अदालती ढांचे को सुधारने का काम मानो किसी सरकार की दिलचस्पी का नहीं है। न तो टेक्नालॉजी से, और न ही मैनेजमेंट से अदालतों को सुधारा जाता है। कभी-कभी ऐसा भी लगता है कि कोई भी सत्तारूढ़ पार्टी अदालतों को अधिक उत्पादक और तेज रफ्तार बनाना नहीं चाहतीं क्योंकि ऐसा होने पर सत्ता के लोग ही सबसे पहले जेल जाएंगे। इसलिए अदालतों को निकम्मा बनाए रखने में सत्ता की निजी दिलचस्पी हो सकती है। दिक्कत यह है कि छोटी से छोटी अदालत भी अपने आपको अवमानना के ऐसे फौलादी कवच से ढांककर रखती है कि उससे कोई सवाल नहीं किया जा सकता। छोटे से जज के सामने उसी अदालत में बैठा बड़ा सा बाबू हर मुवक्किल और हर वकील से हर पेशी पर रिश्वत लेते हुए दराज में रखते चलता है, और जज-मजिस्ट्रेट कानून की देवी की तरह आंखों पर पट्टी बांधे इस दराज को अनदेखा करते चलते हैं। यह पूरा सिलसिला किसी नए खर्च का मोहताज नहीं है, बल्कि एक नई नीयत का मोहताज है कि अदालतों से भ्रष्टाचार खत्म करना है, और उनकी उत्पादकता बढ़ाना है। आज जिस ढर्रे पर हिन्दुस्तानी न्याय व्यवस्था की छोटी अदालतें काम करती हैं, उनमें सुधार के रास्ते कोई मामूली इंसान भी बता सकते हैं, लेकिन ये बातें अगर किसी को नहीं सूझती हैं, तो यह बड़े-बड़े जजों को नहीं सूझती हैं।
अदालतों के जज, बाबू, वकील, और पुलिस, इन सबके निजी फायदे में यही होता है कि मामले अंतहीन चलते रहें। दो लीटर दूध में मिलावट का मामला अगर 29 बरस के बजाय 29 दिनों में तय हो गया होता, तो इनमें से हर किसी को सौ-सौ पेशी पर होने वाले फायदे का नुकसान हो गया रहता। यह पूरा सिलसिला सुधारने की जरूरत है, और इसके लिए कई किस्म के आयोग भी बनते आए हैं, उनकी रिपोर्ट भी आती रही है, लेकिन हुआ कुछ नहीं है। अब जब यह खबर आई है कि केन्द्र सरकार 9 हजार करोड़ रूपये राज्यों को दे रही है, तो राज्यों के जनसंगठनों को सरकार के सामने यह मुद्दा उठाना चाहिए कि नए खर्च के साथ ही पुराने इंतजाम को भी सुधारा जाए, वरना नया खर्च सिर्फ भ्रष्ट लोगों को फायदा पहुंचाएगा, और पुरानी अदालतें बदहाल बनी रहेंगी। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
किसी भी बात की प्रतिक्रिया का अंदाज लगाए बिना उसे छेडऩा कई बार आत्मघाती हो सकता है। अभी राहुल गांधी ने एक भाषण देते हुए आटे को किलो के बजाय लीटर के साथ कह दिया, तो उनके आलोचक कुछ सेकेंड की इस वीडियो क्लिप को लेकर सोशल मीडिया पर टूट पड़े। राहुल गांधी को बेवकूफ साबित करने का एक मुकाबला सा चल निकला। और ट्विटर पर जो लोग भाड़े के भोंपुओं की तरह काम करते हैं, उनकी फौज को राहुल गांधी पर छोड़ दिया गया। लेकिन बिना किसी फौज के इस हमले का जवाब आम लोगों ने ही सोशल मीडिया पर दिया जब उन्होंने नरेन्द्र मोदी से लेकर अमित शाह तक दर्जन भर अलग-अलग भाजपा नेताओं के भाषणों के वीडियो निकालकर पोस्ट करना शुरू किए जिसमें
उन्होंने बोलने की वैसी ही चूक कर दी थी जैसी राहुल गांधी से हो गई थी, और राहुल ने तो तुरंत ही उसे सुधारने की भी कोशिश की थी। अब राहुल के विरोधी नेताओं की जिन चूक को लोग भूल चुके थे, वे सब एक बार फिर याद आ गईं। अब उसी तरह राहुल गांधी ने अभी अपनी पदयात्रा के दौरान एक टी-शर्ट पहना जिस पर एक कंपनी का निशान भी था, और लोगों ने उस टी-शर्ट को इंटरनेट पर ढूंढ निकाला कि वह 40 हजार रूपये का है। और इसके बाद भाजपा के अपने ट्विटर हैंडल से, और दूसरे मीडिया प्लेटफॉर्म पर भी राहुल गांधी की खिंचाई शुरू हुई कि वे 40 हजार का टी-शर्ट पहनते हैं, और जनता की फिक्र करने का नाटक करते हुए पदयात्रा करते हैं। अब इंटरनेट पर कोई सामान अलग-अलग दस किस्म के दामों पर मिलता है, इसलिए राहुल ने वह टी-शर्ट कितने में खरीदा, या ननिहाल जाने पर उसे किसी ने तोहफे में दिया, यह तो बात सामने नहीं आई है, लेकिन इससे दो अलग-अलग बातें सामने आईं। लोगों ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की बहुत सी तस्वीरें निकालकर यह बताया कि वे किस ब्रांड के जूते पहने हुए हैं जो कितने के हैं, किस ब्रांड का धूप का चश्मा लगाए हुए हैं, जो कितने का है, और किस तरह उनका नाम बुना हुआ सूट पहने हुए हैं जो कि 10 लाख रूपये का आता है। ऐसी तमाम बातों के साथ लोगों ने यह भी याद दिलाया कि राहुल गांधी जिस परिवार के हैं, उसके मोतीलाल नेहरू आजादी की लड़ाई के भी पहले कितने दौलतमंद थे, और इस परिवार ने देश को आज के भाव से किस तरह अरबों की दौलत भेंट की है। इसके साथ-साथ लोगों ने मोदी के बचपन की चाय बेचने की कहानियां भी याद दिलाईं जो कि मोदी ही कई बार सुना चुके हैं। किसी भी बात की एक प्रतिक्रिया होती है, और जब सार्वजनिक जीवन में या राजनीतिक हथियार की तरह किसी बात को इस्तेमाल किया जाता है, तो उसका उल्टा असर भी सोच लेना चाहिए।
अब अकेले राहुल के टी-शर्ट को लेकर आज इस मुद्दे पर लिखने की जरूरत नहीं होती अगर ब्रिटेन की राष्ट्रप्रमुख, महारानी एलिजाबेथ के गुजरने के बाद लगातार यह माहौल नहीं बनता कि उन्होंने कितने महान काम किए थे, और किस तरह पूरी दुनिया में लोग उन्हें चाहते थे। वे व्यक्ति के रूप में अच्छी महिला हो सकती हैं, लेकिन उनकी सरकार ने, उनके देश की सरकार ने दुनिया भर को जिस तरह से लुटा है, जितना जुल्म ढहाया है, उसे इतिहास से मिटाना मुमकिन नहीं है। हिन्दुस्तान में जलियांवाला बाग का जो मानवसंहार एक अंग्रेज अफसर ने किया था, जिस तरह अंग्रेजीराज में बंगाल में अकाल में 30 लाख से अधिक लोगों को मर जाने दिया था, वैसी कहानियां दर्जनों देशों में अलग-अलग किस्म के जुल्म की हैं, जो कि ब्रिटिश सिंहासन से जुड़ी हुई हैं। दर्जनों देशों को गुलाम बनाकर अंग्रेजों ने जिस तरह उन देशों को लूटा है, उसे भी कोई भूल नहीं पाए हैं। इसलिए जब एलिजाबेथ को श्रद्धांजलि देते हुए बार-बार यह बात दुहराई जाने लगी कि दुनिया के लोग उन्हें कितना चाहते थे, तो गुलामी के उन दिनों से लेकर अभी इराक पर अमरीका के साथ गिरोहबंदी करके हमला करने में ब्रिटेन की भूमिका सबके सामने है, और एलिजाबेथ ही इस वक्त देश की मुखिया थीं।
इस पर लिखते हुए इंटरनेट पर जरा सा ढूंढें तो 2012 की सोलोमन आईलैंड्स की यह तस्वीर सामने आती है जिसमें ब्रिटिश राजघराने की प्रतिनिधि होकर नौजवान प्रिंस विलियम वहां गए थे, और वहां स्थानीय अफ्रीकी आदिवासियों के कंधों पर ढोए जा रहे सिंहासन पर बैठकर वे खुशी-खुशी घूमे थे। गुलामी के उस इतिहास को अभी दस बरस पहले 2012 में इस तरह दुहराते हुए भी इस शाही घराने को कुछ नहीं लगा था। एलिजाबेथ की ऐसी तस्वीर भी अभी तैर रही है जिसमें उनके मुकुट, उसके हीरे, उनके राजदंड, उनके बाकी गहने, इन सबके साथ लिखा गया है कि उन्हें किस-किस देश से लूटकर ले जाया गया था। हिन्दुस्तान में अंतरराष्ट्रीय परंपराओं के अनुरूप देश में एक दिन का राजकीय शोक रखा गया है, लेकिन लोगों का एक तबका इस पर भडक़ा हुआ है, और यह सवाल किया जा रहा है कि जिन्होंने हिन्दुस्तान को दसियों लाख मौतें दी हैं, उनका ऐसा कोई भी सम्मान क्यों किया जाना चाहिए। यह बात अलग है कि दुनिया में कूटनीति और अंतरराष्ट्रीय संबंधों के चलते हुए हिरोशिमा और नागासाकी पर बम गिराकर लाखों लोगों को मार डालने वाले अमरीका के राष्ट्रपति के जापान पहुंचने पर भी शिष्टाचार की वजह से उनका स्वागत ही होता है, और उसी तरह ब्रिटिश राजघराने से किसी के हिन्दुस्तान आने पर उनका भी स्वागत होता है। लेकिन किसी का गुणगान उनके इतिहास के स्याह पन्नों को भी निकालकर सामने रख देता है। इसलिए चाहे टी-शर्ट की बात हो, चाहे किसी और चीज की, किसी महत्वहीन बात को अंधाधुंध महत्व देने के पहले यह भी सोचना चाहिए कि बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जाएगी, और लोग सौ किस्म की बातें याद करेंगे।