संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : फ्रांस ने द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद बनी, और बंद पड़ी योजना-संस्था फिर जिंदा की...
08-Sep-2020 7:08 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : फ्रांस ने द्वितीय विश्वयुद्ध के  बाद बनी, और बंद पड़ी  योजना-संस्था फिर जिंदा की...

फ्रांस की सरकार ने अपने देश के इतिहास से पौन सदी पहले का एक पन्ना निकाला है, और कोरोना-महामारी से देश पर पड़े फर्क, अर्थव्यवस्था की बर्बादी से उबरने की तैयारी शुरू की है। जब फ्रांस द्वितीय विश्वयुद्ध से उबरकर आगे बढऩा चाह रहा था तब वहां 1946 में इसी तरह से पांच बरस की एक योजना बनाई गई थी जिससे जंग से तबाह देश उठकर खड़ा हो सके। वैसा ही कुछ-कुछ अभी फिर किया जा रहा है। सरकार ने सत्तारूढ़ गठबंधन के एक बड़े समर्थक को ऐसी योजना का मुखिया बनाया है। सरकार का मानना है कि 2006 में औपचारिक रूप से भंग कर दिए गए इस योजना मंडल को गैरजरूरी मान लिया गया था, और इसके पहले के 30 बरस तक कोई पंचवर्षीय योजना नहीं बनाई गई थी। लेकिन अब राष्ट्रपति ने इसे जिंदा करने के पीछे की वजह बताई है कि दीर्घकालीन शब्द के मायने एक बार फिर ढूंढने की जरूरत है। सरकार का यह संगठन कोरोना के बाद की दुनिया के मुताबिक फ्रांस के लिए नई योजना बनाएगा, और यह तय करेगा कि वर्ष 2030 में फ्रांस कहां पहुंचना चाहिए। 

पंचवर्षीय योजना, दीर्घकालीन योजना, योजना आयोग, या योजना मंडल एक तमाम शब्द भारत में आज अवांछित हो चुके हैं। अब रात के 8 बजते हैं, और हिन्दुस्तान को हिला देने वाले फैसलों की मुनादी होती है जिन्हें खुद केन्द्रीय मंत्रिमंडल ने पहले कभी सुना हुआ नहीं रहता। ऐसी सरकार को किसी दीर्घकालीन योजना, या किसी योजना मंडल की कोई जरूरत नहीं है। हालांकि हमारे पाठक यह बात इसी जगह पढ़ते आ रहे हैं कि तमाम सरकारों को यह तय करना चाहिए कि कोरोना के बाद की दुनिया में वे किसी तरह रहेंगे, इसके लिए योजनाएं बनानी चाहिए, इसके लिए कल्पनाशील भविष्य वैज्ञानिकों को लगाना चाहिए जो कि बदले हुए हालात, बदली हुई अर्थव्यवस्था, और नए खतरों को देखते हुए एक नई तैयारी करें। 

हिन्दुस्तान में नेहरू के वक्त के बनाए हुए योजना आयोग, और उस वक्त की दीर्घकालीन योजनाओं का सिलसिला देश का एक बहुत ही गंभीर और महत्वपूर्ण पहलू था, लेकिन वह दो चीजों में आज बेकार साबित हो रहा था। आज किसी महत्वपूर्ण गंभीरता की कोई जरूरत नहीं थी, और योजना आयोग का यह पहलू पुरातत्व का सामान मान लेना बेहतर समझा गया। दूसरा पहलू यह कि कोई गंभीर दीर्घकालीन योजना कभी लुभावनी मुनादी नहीं हो सकती, उसमें नाटकीयता नहीं होती, और इसलिए भी योजना आयोग या किसी और किस्म की दीर्घकालीन योजना घर के पीछे के कमरे में बिस्तर पर पड़े खांसते मां-बाप की तरह अवांछित बातें हो चुकी थीं। मोदी सरकार ने उनसे हाथ धो लिया। इसलिए आज देश में सिवाय मौजूदा मुसीबत के और किसी बात की चर्चा नहीं है, अगले कुछ महीनों की भी नहीं है, अगले कुछ बरसों की तो बात ही छोड़ दें। जबकि यह बात जाहिर है कि लोगों की सेहत पर जिस किस्म का खतरा कोरोना है, और आज सुबह ही विश्व स्वास्थ्य संगठन ने सावधान किया है कि कोरोना जब कभी भी खत्म होगा, वह मुसीबतों का खात्मा नहीं होगा, और न ही वह आखिरी महामारी होगा। दूसरी तरफ दुनिया के अनेक अर्थशास्त्री यह बात लगातार कह रहे हैं कि दुनिया एक बहुत बड़ी आर्थिक मुसीबत में है, और बिना भेदभाव के इनमें से अधिकतर अर्थशास्त्री हिन्दुस्तान की हालत को दूसरे देशों के मुकाबले बहुत अधिक खराब है। यह नौबत देश के भविष्य को लेकर योजनाशास्त्रियों, भविष्यवैज्ञानिकों, अर्थशास्त्रियों और समाजवैज्ञानिकों के गंभीर विचार-विमर्श और कम से कम दस-बीस बरस लंबी योजनाओं के बारे में एक दस्तावेज तैयार करने की है। नेहरू के दस्तखत वाला योजना आयोग तो अब रद्दी में जा चुका है, मौजूदा सरकार का यह हक है कि वो जो भी नया नाम चाहे उसके इस्तेमाल करे, लेकिन ऐसे लोगों को साथ ले जो दस-बीस बरस बाद की दुनिया के बारे में सोच सकते हैं, कैलेंडर के उस बरस में हिन्दुस्तान की एक कल्पना कर सकते हैं, और एक बेहतर भारत की तैयारी कर सकते हैं। आज बेहतर शब्द बड़ा ही अटपटा है क्योंकि जहां पर हैं वहीं पर अगर रह जाएं, तो भी वह अयोध्यापुत्र राम की मेहरबानी से ही हो पाएगा। 

हिन्दुस्तान में आईआईटी और आईआईएम से निकले हुए नौजवान आज दुनिया की ऐसी बड़ी-बड़ी कंपनियों के  मुखिया हैं जो कि दस-बीस बरस बाद के बाजार, समाज, और दुनिया की कल्पना करके अपने कारोबार को लगातार बदल रहे हैं। ऐसे काबिल लोग हिन्दुस्तान के बाहर जाकर ही अधिक कामयाब शायद इसलिए हो पाते हैं कि वहां कारोबार में सरकार की दखल हिन्दुस्तान जितनी, और जैसी नहीं रहती है। इस देश को यह भी सोचना चाहिए कि सचमुच ही काबिल लोगों से अगले दस-बीस बरस के सफर का एक नक्शा क्यों न बनवाया जाए? काबिल और महान नेता वे नहीं होते जो कि खुद तमाम फैसले लेते हैं, काबिल और महान वे होते हैं जो जानकार लोगों को तैयारी करने देते हैं, उनकी योजनाओं को परखते हैं, अपने तजुर्बे को जोड़ते हैं, और सामूहिक फैसले से रास्ता तय करते हैं। इनमें से कई बातें आज के माहौल में बड़ी ही अटपटी लग सकती हैं, कि इनमें से तो कोई सी भी बात चुनाव जीतने में मदद नहीं कर सकती, और चुनाव में तो ऐसे लीडर की अगुवाई लगती है जो तमाम फैसले खुद, और आनन-फानन, मौके पर, और अकेले ही लेने की ताकत रखते हों। ऐसे माहौल में ऐसे नेता से भविष्य की कल्पना, योजना, और फैसलों की अनोखी ताकत को दूसरों के साथ साझा करने की कल्पना नहीं की जा सकती, और आज देश में वही हो रहा है। यह देश आज उस तस्वीर सरीखा दिख रहा है जिसमें बहुत ही तंग एक गली में दो दीवारों के बीच जाकर एक सांड फंस गया है, न वह आगे बढ़ पा रहा है, न पीछे हट पा रहा है, और उसके पास कोई विकल्प नहीं रह गया है। 

लेकिन आज फ्रांस की किनारे कर दी गई ऐसी ही योजना की परंपरा को फिर से जिंदा होते देखकर यह लगा कि दुनिया में कम से कम कुछ जगहों पर ऐसा चल रहा है जैसा कि हम पिछले कुछ महीनों में इसी जगह लगातार लिखते आ रहे हैं। यह एक बहुत ही असाधारण, और अभूतपूर्व नौबत है, और ऐसे में कुछ असाधारण फैसले लेने चाहिए, जिनमें से आज सबसे अधिक जरूरत अगले दस-बीस बरस की कल्पना करके उनके लिए तैयारी करने की लग रही है। 

आज देश की जो हालत है उसमें केन्द्र सरकार के हाथ कुछ रह गया दिखता नहीं है। सब कुछ बेकाबू है, अगर कोरोना के मामले बढ़ रहे हैं, तो वे सरकार की मेहनत के बिना बढ़ रहे हैं, या सरकार के रहने के बावजूद बढ़ रहे हैं। अगर घट रहे हैं, तो भी यही दोनों बातें लागू हो रही हैं। और तो और अब राज्यों ने भी इस नौबत में अपने हाथ खींच लिए हैं, कोरोना की जांच घटाई जा रही है, पॉजिटिव आ रहे मरीजों को उनके हाल पर, उनके घर पर छोड़ देने का काम हो रहा है। यह नौबत तो आज की मुसीबत में आज कुछ न कर पाने की है। लेकिन साल-छह महीने में जब भी, और अगर, कोरोना से निपटा जा सका, तो भी उसके बाद देशों के सामने, प्रदेशों के सामने बहुत लंबा वक्त बाकी रहेगा, हजारों या लाखों बरस की जिंदगी बाकी रहेगी, और वह वक्त हो सकता है कि इस महामारी कोरोना से भी अधिक मुसीबत का हो। लोगों को याद है कि किस तरह अमरीका में 1930 के दशक में भयानक मंदी आई थी, और हालत यह हो गई थी कि समाज का एक तबका वेश्यावृत्ति को मजबूर हो गया था। लोग सरकारी खाने के लिए कतारों में लगे रहते थे, और एक पूरी पीढ़ी तबाह हो गई थी। आज हालत उससे जरा भी बेहतर नहीं है। भारत सरकार को, प्रदेश सरकारों को भी कोरोना-मोर्चे से परे आगे की जिंदगी के बारे में सोचना चाहिए, और तैयारी करनी चाहिए।   (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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