विचार / लेख
फोटो : ऊपर से clockwise * पुणे (नारायण पेठ) का श्रीराम बाड़ा * जटार क्लब वर्तमान स्थिति में * जटार क्लब जिस घर में शुरू हुआ था * लोकमान्य तिलक के निवास के लिए साईन बोर्ड बीच में: क्लब का फाउंडेशन स्टोन
डॉ. परिवेश मिश्रा बता रहे हैं उसका दुर्ग के जटार क्लब से रिश्ता !
यदि आप स्वाभिमानी हैं, आपकी रीढ़ की हड्डी मज़बूत है, आप उसूलों से समझौता नहीं करते हैं, तो आप किसी न किसी वजह से इतिहास में याद किये जाएं यह संभावना तो बन ही जाती है।
जटार परिवार की तीन पीढ़ियों को ही लीजिए।
महाराष्ट्र के सतारा ज़िले में एक बस्ती है वाई। बात हो रही है उन्नीसवीं शताब्दी की।
यहां रहने वाले महाराष्ट्रियन कराड़ ब्राह्मण भीकाजी जटार का दूसरा विवाह उनके बेटे श्रीराम की प्रताड़ना का कारण बन गया। श्रीराम ने विद्रोह कर दिया और घर त्याग कर पुणे पंहुच गये। परिश्रम कर अपने को खड़ा किया और ऐल्फिन्स्टन काॅलेज में पढ़ कर भारत के शुरुआती ग्रेजुएट्स में से एक हो गये।
देश में अंग्रेज़ों की इच्छा वाली शिक्षा व्यवस्था पैर पसार रही थी और अंग्रेजी जानने वाले अच्छे शिक्षकों की बहुत मांग थी। श्रीराम जटार को न केवल नौकरी मिली बल्कि अपनी योग्यता के दम पर वे शीघ्र ही सी.पी. बरार राज्य के डायरेक्टर पब्लिक इन्स्ट्रक्शन (राज्य में स्कूली शिक्षा विभाग के मुखिया) नियुक्त हो गये। नागपुर में एक शानदार बड़ा बंगला भी मिल गया।
लेकिन पहला वेतन हाथ आते ही श्रीराम जटार का आत्मसम्मान आहत हो गया। वे इस पद पर नियुक्त होने वाले पहले भारतीय थे। उनसे पहले जो अंग्रेज़ इस पद पर थे उन्हें वेतन के रूप में एक हज़ार रुपये दिये जाते थे। श्रीराम जी को कम दिये गये थे। बस क्या था, पत्र में अपने विरोध को बयां किया, सामान बांधा और पूरे परिवार को लेकर श्रीराम जी पुणे आ गये। पूरे एक साल इनके और राज्य के अंग्रेज़ अधिकारियों के बीच मान-मनौवल और पत्राचार चला और अंत में इन्हें एक हज़ार के वेतन पर वापस लाया गया। और किसी ने याद किया हो न हो, इनके बाद इस पद पर नियुक्त होने वाले अधिकारियों ने अवश्य इनका धन्यवाद ज्ञापित किया होगा। इस किस्से के बाद दूसरे विभागों में भारतीयों के वेतन निर्धारण करते समय भी अंग्रेज़ सतर्क रहने लगे।
श्रीराम जटार ने सेवानिवृत्त होने से पहले ही सन् 1890 के आसपास अपनी अर्जित सम्पत्ति से पुणे के नारायण पेठ में एक विशाल भवन खरीद कर नामकरण किया : श्रीराम बाड़ा। तीन मंजिले भवन में अनेक कमरे थे जिन्हें किराये पर दे कर श्रीराम जटार अपने परिवार का पालन पोषण करते थे।
इनमें से एक किरायेदार थे लोकमान्य तिलक। "श्रीराम बाड़ा" अब भी पुणे में सुरक्षित है और तिलक का कक्ष देखने अनेक लोग पंहुचते हैं।
भारत में उन दिनों पढ़े लिखे लोगों के लिए सरकारी नौकरी का विकल्प नहीं था और नौकरियां थीं कम। बड़ा बेटा काशीनाथ काॅलेज में था। उन्ही दिनों नौकरी की स्थिति में एक बड़ा परिवर्तन आया।
आज के आय.ए.एस. की तरह अंग्रेजों के समय आय.सी.एस. सेवा हुआ करती थी। अक्सर डिस्ट्रिक्ट जज और कभी कभी पुलिस कप्तान की भूमिका भी इनमें समाहित होती थी। 1860 के बाद कुछ भारतीयों को इस सेवा में प्रवेश दे दिया गया था। किन्तु यह कदम सांकेतिक अधिक था। इने गिने भारतीय थे और उन्हें भी महत्वपूर्ण पद नहीं दिया जाता था।
1914 में पहला विश्व युद्ध शुरू हुआ और स्थिति रातों रात बदल गयी। अंग्रेजों को ICS में भर्ती करने के लिये इंग्लैंड में योग्य कैंडिडेट मिलना लगभग बंद हो गये। अंग्रेज़ युवा फौज में भी जा रहे थे और युद्ध के कारण खड़ी हो रही औद्योगिक इकाइयों में भी।
अंग्रेजों ने तत्काल भारतीयों के लिये ICS के दरवाजे थोड़ा अधिक खोल दिये। सिविल सर्विस में उन दिनों दो स्तर होते थे। पहली थी 'काॅविनेन्टेड सिविल सर्विस'- इसमें सिर्फ अंग्रेज़ अफसरों होते थे। दूसरी 'अन-काॅविनेन्टेड सिविल सर्विस' भारतीयों के लिए थी। ICS के स्थान पर अधिकारी अपने नाम के आगे या तो CCS लिखते थे या UCS.
दुनियादारी में समझदार पिता ने अवसर का महत्व आंका और बेटे काशीनाथ को इक्कीस वर्ष की उम्र में इस UCS सेवा में प्रवेश दिला दिया। हैदराबाद स्टेट के अंग्रेज़ रेसिडेन्ट का दफ्तर अमरावती में था। काशीनाथ की पहली नियुक्ति रेसिडेन्ट के ट्रेनी सहायक के रूप में हुई। यही काशीनाथ श्रीराम जटार U.C.S. थे जो 1925 में छत्तीसगढ़ के कमिश्नर के रूप में रायपुर में पदस्थ हुए।
बीसवीं सदी के प्रारंभ तक छत्तीसगढ़ मोटे तौर पर दो बड़े हिस्सों में बंटा था। पहला हिस्सा अंग्रेज़ों के प्रशासन वाला इलाका था जो खालसा भी कहलाता था। यह रायपुर और बिलासपुर के नाम के दो ज़िलों में फैला था। छत्तीसगढ़ का बाकी सारा हिस्सा राजाओं के अधीन था। अंग्रेज़ों के हिस्से वाले दोनों ज़िलों के मुख्य अधिकारी कहलाते थे डिप्टी कमिश्नर। सन् 1906 में अंग्रेज़ों ने रायपुर और बिलासपुर ज़िलों में से कुछ इलाके निकाल कर एक नया ज़िला बनाया - दुर्ग।
जिन दिनों रायपुर में इन तीनों ज़िलों के कमिश्नर के रूप में काशीनाथ जटार रायपुर में पदस्थ थे उन दिनों दुर्ग में डिप्टी कमिश्नर थे खान बहादुर हाफिज़ मोहम्मद विलायतुल्ला। (इन्हीं के बेटे का आगे चल कर भारतीय इतिहास के एकमात्र ऐसे व्यक्ति के रूप में नाम दर्ज हुआ जो अपने जीवनकाल में भारत का मुख्य न्यायाधीश, उपराष्ट्रपति और राष्ट्रपति, तीनों पद पर रहा। यह ज़िक्र मोहम्मद हिदायतुल्ला जी का है)।
ब्रिटिश राज के दिनों में भारत में अफसरों के लिए ज़िलों में पोस्टिंग बहुत खुशदायी नहीं होती थी। एक बड़ी समस्या थी "सोशलाईज़िंग" की। फिल्में, टीवी, बाज़ार जैसे विकल्प नहीं थे। सड़कें नहीं थीं (आय.सी.एस. की परीक्षा में घुड़सवारी का टेस्ट भी पास करना ज़रूरी।होता था)। सर्विस कोड आम जनों से घुलने मिलने से भी रोकता था।
ऐसे में ज़िला मुख्यालयों में क्लबों का प्रचलन शुरू हुआ था। गिने चुने परिवार इकट्ठा होते, ब्रिज, रमी, बैडमिंटन आदि में शामें कट जाया करतीं। इच्छा हुई तो ड्रिंक्स और स्नैक्स भी जुड़ जाते थे। अंग्रेज़ों ने सभी जगह इस तरह के क्लब स्थापित किये थे।
यह पहला अवसर था जब रायपुर और दुर्ग, दोनों स्थानों पर भारतीय अधिकारी नियुक्त हुए थे। इन दो अधिकारियों का दुर्ग में जब भी मिलना होता तो क्लब की ज़रूरत सामने आती। दोनों को एक बात बहुत कष्ट देती थी। दुर्ग के क्लब में, इनके वहां पंहुचने से पहले तक, भारतीयों का प्रवेश मना था। हालांकि अब ये दोनों इलाके के मालिक थे और यह प्रतिबंध अपने मायने खो चुका था।
लेकिन यहाँ फिर एक बार आत्मसम्मान सामने आ गया। अंग्रेज़ रोकटोक करने के लिये मौजूद नहीं हैं इस बात का फायदा उठा कर क्लब का उपयोग करना इन दोनों अधिकारियों को गवारा नहीं था। दोनों अड़ गये। जाएंगे तो अपने क्लब में ही।
बस क्या था। दोनों ने खपरैल वाले एक छोटे से घर में (फोटो देखें) भारतीयों का अपना एक क्लब शुरू कर दिया। कुछ ही दिनों में पास की भूमि पर नये भवन का शिलान्यास कर दिया।
तारीख थी 4 जनवरी 1926.
और तब से दुर्ग में जटार क्लब ज़िले के अधिकारियों के क्लब के रूप में स्थापित है। कालांतर में खैरागढ़ के राजा वीरेन्द्र बहादुर सिंह जी ने एक बिलियर्ड्स की टेबल दान में दे दी। स्विमिंग पूल बन गया। गैर अधिकारी भी अब यहाँ सदस्य बनते हैं। हालांकि क्लब के मुखिया ज़िला कलेक्टर ही होते हैं।
किन्तु काशीनाथ जटार की कहानी यहाँ खत्म नहीं होती। कुछ समय पहले (22 तथा 24 जुलाई 2020 को) मैंने दो हिस्सों में कश्मीर प्रिन्सेज़ नामक विमान की ऐतिहासिक दुर्घटना के बारे में लिखा था। बम विस्फोट के बाद यह विमान डूब कर समुद्र तल पर पंहुच गया था। पायलट का शव अनेक प्रयासों के बाद दुर्घटना के इक्कीसवें दिन मिला था। इतना समय इसलिए लगा क्योंकि पायलट की सीट झटके से टूटकर काॅकपिट के कोने में घुस गयी थी। पायलट का शरीर बेल्ट के साथ सीट से बंधा था। उन्होंने अंतिम समय तक अपनी सीट नहीं छोड़ी थी। उसूल से बंधे ये वीर पायलट थे उसूलों वाले श्रीराम जटार ने पौत्र और काशीनाथ के पुत्र दामोदर काशीनाथ जटार।
उत्तर काण्ड:
* काशीनाथ जटार एक सक्षम अधिकारी के रूप में सी.पी. एन्ड बरार राज्य में अनेक स्थानो में पदस्थ रहे। अकोला (महाराष्ट्र) में एक मोहल्ला उनके नाम से जटार पेठ कहलाता है। 1951 में उनका निधन हुआ। उसके बाद परिवार ने श्रीराम बाड़ा भी बेच दिया।
* आगे चलकर 1971 के भारत-पाक युद्ध में कैप्टन दामोदर जटार जैसा उदाहरण कैप्टन महेन्द्र नाथ मुल्ला ने पेश किया। पाकिस्तानी नौसेना ने भारतीय INS खुखरी को नुकसान पंहुचाया था। जहाज डूबने लगा तो कप्तान ने मौत को गले लगा लिया किन्तु जहाज छोड़ कर भागे नहीं। मरणोपरांत कैप्टन जटार को अशोक चक्र (और आगे चल कर कैप्टन मुल्ला को महावीर चक्र) प्रदान किया गया था।
-डॉ परिवेश मिश्रा,
गिरिविलास पैलेस,
सारंगढ़


