संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : संतान की मंगलकामना के पर्व पर महिलाएं संतानों में जिम्मेदारी की कामना भी करें
09-Aug-2020 1:36 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : संतान की मंगलकामना के  पर्व पर महिलाएं संतानों में  जिम्मेदारी की कामना भी करें

छत्तीसगढ़ में आज कमरछठ का त्यौहार मनाया जा रहा है। यह पर्व संतान प्राप्ति, और अपने बच्चों की लंबी जिंदगी की कामना के लिए किया जाता है, और जाहिर है कि नियमों के पालन और उपवास वाला पर्व है, तो इसे तो महिला को ही मानना पड़ता है, आदमी तो पैदा होने से लेकर मरने तक एक भी दिन भूखा रहे बिना जिंदगी गुजार सकता है, उस पर तो कोई बंदिश होती नहीं है। अपने बच्चों की मंगलकामना के लिए मनाए जाने वाले कमरछठ या हलषष्ठी के दिन एक बात याद आ रही है कि इसी छत्तीसगढ़ में बहुत से बूढ़े मां-बाप बेसहारा छोड़ दिए जाते हैं, ठीक बाकी हिन्दुस्तान की तरह, और ठीक बाकी दुनिया की भी तरह। लेकिन वृद्धाश्रम में रहते हुए भी बूढ़ी मां को अगर कमरछठ का यह त्यौहार याद होगा तो वह बिना चूके अपने बच्चों की लंबी और अच्छी जिंदगी के लिए पूजा भी कर रही होगी, और उपवास भी कर रही होगी। 

आज महिलाओं के पूजा के दिन इस मुद्दे पर लिखना थोड़ा सा अटपटा लग सकता है, लेकिन इस अटपटेपन के बीच यही सही मौका है जब लोगों को याद दिलाया जाए कि औलाद पर भरोसा, और उस पर निर्भर रहने की एक सीमा रहनी चाहिए। एक दूसरी सीमा रहनी चाहिए कि अपने बेटों और बेटियों के बीच फर्क न करने की। हिन्दुस्तान के अधिकतर हिस्से में कामना होती है तो पुत्र प्राप्ति की, कन्यारत्न की प्राप्ति के लिए कोई कामना नहीं होती, और हिन्दुस्तान के कम से कम, हिन्दुओं के बीच, कन्या को नवरात्रि के बाद के कन्यापूजन, देवी प्रतिमाओं के रूप में तो माना जाता है, लेकिन बाकी मामलों में कन्या की कोई जगह नहीं रहती। जब जमीन-जायदाद की वसीयत की बात आती है तो लोग लडक़ी को पराये घर की मानकर सब कुछ बेटों के नाम कर जाते हैं। इसलिए इस बात को कभी नहीं भूलना चाहिए कि वृद्धाश्रम में जितने मां-बाप हैं, अगर उनके पास कुछ छोडऩे लायक रहा होगा, तो यह साफ है कि वह बेटों के लिए ही छोड़ा गया होगा। और अगर वृद्धाश्रम जाने से लोग बचे हैं, तो उनमें से बहुत से ऐसे होंगे जो बेटियों की वजह से बचे हैं, और बेटियों के साथ हैं। 

लोगों की अपने बेटों के लिए सब कुछ छोड़ जाने की हसरत कभी खत्म भी नहीं होती। कारोबारी हिन्दू परिवारों में आमतौर पर यह मान लिया जाता है कि लडक़ी का जो हक बनता है, वह उसकी शादी के वक्त उसे दे दिया जाता है, और बाकी तो फिर लडक़ों के ही बीच बंटना रहता है। आज कमरछठ के दिन अपनी संतानों की मंगल कामना के लिए पूजा करने वाली तमाम महिलाओं को, और इस त्यौहार को न मानने वाले मां-बाप के लिए भी यह समझना जरूरी है कि सबसे पहले अपनी दौलत को अपने जीते-जी पूरी तरह से संतानों को नहीं दे देना चाहिए। सबसे पहले उन्हें अपने पैरों पर खड़ा होने का मौका देना चाहिए, जिंदगी के संघर्ष की आंच में तपने देना चाहिए, इसके बाद ही अपनी वसीयत में ऐसा इंतजाम करना चाहिए कि अपनी पूरी जिंदगी अपने दम पर पार करने के लायक पैसे अपने पास रखें, और बाकी को सारी संतानों में बराबर बांटना चाहिए, न कि सिर्फ बेटों में। 

भारत में उत्तराधिकार के कई कानून इस सोच के करीब हैं। हिन्दू उत्तराधिकार कानून शायद लड़कियों के हक को कुछ कम मान्यता देता है, लेकिन मान्यता देता तो है। और यह बात भी सच है कि हिन्दू लडक़ी को अपना हक पाने के लिए अक्सर ही अदालती लड़ाई तक जाना पड़ता है, उसे उसका हक न तो मां-बाप के रहते मिलता, और बाद में भाईयों से कुछ हासिल करना तो नामुमकिन सा रहता है।
 
लोगों के पास धन-दौलत कम हो, या अधिक हो, जिंदगी सबके पास बड़ी लंबी रहती है, उसकी कोई सीमा नहीं रहती। अभी-अभी छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में कोरोना से वहां की जेल की एक महिला कैदी एक बड़े निजी अस्पताल में गुजर गई। वह 90 बरस की थी। अब यह सोचें कि 90 बरस तक उसे जेल में रखकर देश और कानून को आखिर क्या हासिल हो रहा है? और मान लें कि ऐसा कोई कानून भी बने जो इस उम्र में कैदी को अनिवार्य रूप से रिहा कर दे, तो सोचें कि वह इस उम्र में बाहर निकलकर कहां जाएगी? बहुत से ऐसे परिवार हैं जिनमें इस बुढिय़ा को मंजूर नहीं किया जाएगा, और शायद वह जेल के मुकाबले भी अधिक बुरी हालत में आ जाएगी क्योंकि जेल में दो वक्त खाना तो मिल ही जाता है। अब यह बात हमारी कल्पना से परे की है कि इस उम्र की महिला ने अपने लिए कुछ बचाकर रखा होगा। यह भी मुमकिन नहीं है कि जेल के भीतर उसने रोज मजदूरी करके थोड़ी सी रकम जुटाकर रखी हो और छूटने पर वह उसके काम आती। अब तो खैर वह कोरोना की मेहरबानी से जेल, बदन, और दुनिया सबसे छूट गई है, लेकिन क्या ऐसे बुजुर्ग लोग कभी अपनी मौत तक का इंतजाम करके रखते हैं? 

लोगों को एक सामाजिक परामर्श की जरूरत है क्योंकि  जिन संतानों के लिए कमरछठ की जाती है, वे संतानें ही मां-बाप का भावनात्मक दोहन करके उन्हें जीते-जी इतना निचोड़ लेते हैं कि वे मरने तक महज एक गुठली की जिंदगी जीते रह जाते हैं, एक कप चाय या दो बिस्किट के लिए आल औलाद के मोहताज होने वाले मां-बाप हमने देखे हुए हैं। आज कमरछठ के मौके पर लोगों को न सिर्फ संतानों की लंबी और अच्छी जिंदगी की कामना करनी चाहिए, बल्कि यह कामना भी करनी चाहिए कि उनकी औलादें उनके प्रति भी जवाबदेह बनी रहें, जिम्मेदार बनी रहें, और समाज के प्रति भी। समाज के भीतर लोगों को एक-दूसरे को ऐसी जिम्मेदारी और सावधानी सुझानी चाहिए, जिम्मेदारी आल-औलाद को, और सावधानी बुजुर्ग मां-बाप को। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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