संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : जांच से पहले एक खुफिया निगरानी एजेंसी भी जरूरी है ठगी-जालसाजी रोकने को..
02-Jan-2025 5:22 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : जांच से पहले एक खुफिया निगरानी एजेंसी भी जरूरी है ठगी-जालसाजी रोकने को..

इन दिनों पूरे हिन्दुस्तान में जिस बड़े पैमाने पर साइबर-ठगी और जालसाजी चल रही है, और जिस तरह से गांव-गांव तक घुसकर कहीं चिटफंड, कहीं फाइनेंस कंपनी, कहीं क्रिप्टोकरेंसी, कहीं चेन मार्केटिंग का जाल बिछाया जा रहा है, वह भयानक है। अब ऐसा लगता है कि डकैती और लूट करने की किसी को जरूरत नहीं रह गई है, और बिना हथियार, बिना खून बहाए लोग करोड़पति और अरबपति हो रहे हैं। नमूने के लिए हम छत्तीसगढ़ की घटनाओं को लेते हैं जो कि बरसों से अखबारों में सुर्खियां बनी हुई हैं, और इनमें कोई भी ऐसी बात नहीं है जो कि देश के दूसरे प्रदेशों में न हो रही हों। गांव-गांव तक जालसाजों के जाल फैल गए हैं, और सरकारी स्कूलों के शिक्षक भी फर्जी फाइनेंस योजनाओं की मार्केटिंग में जुट गए हैं क्योंकि उसमें कमाई अधिक है। राज्य सरकार के बहुत से दूसरे कर्मचारी, और कई अधिकारी अपने परिवार के दूसरे लोगों के नाम से कुछ नामी-गिरामी अंतरराष्ट्रीय कंपनियों के सामानों की मार्केटिंग का नेटवर्क बढ़ाने में लगे हैं, और सरकार के पास पूरी जानकारी होने के बावजूद ऐसे लोगों पर कोई कार्रवाई नहीं हो रही है। नेटवर्क मार्केटिंग तो सरकारी कुर्सी के असर का इस्तेमाल करके कमाई का एक जाल फैलाने का काम है, लेकिन बहुत तरह के ऐसे चिटफंड और फर्जी योजनाओं की खबरें लगातार आती हैं जिनमें एक-एक में हजारों लोग जिंदगी भर की कमाई डूबा चुके हैं, और कर्ज लेकर भी शेयर बाजार या क्रिप्टोकरेंसी के झांसे में पैसे लगा रहे हैं। ऐसी फर्जी योजनाओं में पैसा लगाने के लिए लोग ऑनलाईन कर्ज देने वाले देसी-विदेशी साहूकारों से पैसे ले रहे हैं, और वहां पर अलग लुट रहे हैं। आज इस तरह की साजिश का चमकता हुआ रंगीन बुलबुला जब फूटता है, तो इनमें पैसे फंसा चुके लोगों की आंखों में मानो बुलबुले के साबुन के छींटों से आंसू निकलने लगते हैं। उनका पैसा पंख लगाकर कई बैंक खातों से उड़ते हुए जाने कहां पहुंच चुका रहता है।

चूंकि राज्यों में केन्द्र सरकार की जांच और निगरानी एजेंसियों से कई गुना अधिक बड़ी मशीनरी अपनी खुद की है, इसलिए अगर राज्य सरकारें जागरूक रहें, तो वे समय रहते जालसाजी की ऐसी योजनाओं, उनकी कंपनियों, और उनके एजेंटों को पकड़ सकती हैं। हमने पहले भी इस बात का सुझाव दिया था कि राज्य सरकार को एक आर्थिक अपराध निगरानी ब्यूरो बनाना चाहिए। आज सरकार के पास आर्थिक अपराधों की जांच के लिए तो ब्यूरो है, सरकारी विभागों के भीतर भ्रष्टाचार पकडऩे के लिए भी छापामार दस्ते हैं, राज्य सरकार का अपना खुफिया विभाग भी है जो कि मोटेतौर पर राजनीतिक और सामाजिक हलचलों पर नजर रखता है, और इससे परे नक्सल इलाकों में खुफिया निगरानी के लिए सरकारी मशीनरी है। लेकिन सरकारी कामकाज से परे खुले बाजार में अगर फाइनेंस कंपनियां, चिटफंड कंपनियां, वॉट्सऐप जैसे मैसेंजरों पर पूंजीनिवेश के लिए फैलाए गए जाल काम कर रहे हैं, तो सरकार के पास इन पर खुफिया निगरानी रखने के लिए और समय रहते इनको दबोचने के लिए आज कोई ढांचा नहीं है, कोई एजेंसी नहीं है। इनमें सरकार का पैसा तो सीधे-सीधे नहीं डूब रहा है, लेकिन राज्य की जनता का जितना भी पैसा धोखाधड़ी और जालसाजी में डूब जाता है, वह पैसा तो राज्य की अर्थव्यवस्था से बाहर चले जाता है, और पुलिस रिपोर्ट होने के बाद इन पर कार्रवाई करने का भारी-भरकम काम राज्य सरकार पर ही आता है। इसलिए राज्य सरकार को अपने नागरिकों को बचाने के लिए, और अपने खुद पर भविष्य में आने वाले विकराल बोझ को टालने के लिए एक आर्थिक अपराध निगरानी ब्यूरो बनाना चाहिए।

हमारा मानना है कि जितने भी किस्म की आर्थिक धोखाधड़ी की योजनाएं बाजार में फैलाई जाती हैं, वे किसी अंधेरी गली में बिकने वाले नशे की तरह नहीं रहतीं। इन योजनाओं को लोगों के बीच फैलाना पड़ता है, तभी जाकर लोग इसके झांसे में आते हैं। इस धोखाधड़ी को फुटपाथ पर किसी ताबीज बेचने वाले की तरह सपने दिखाकर ही कामयाब किया जा सकता है, और इसी वजह से यह एक संभावना बनती है कि अगर सरकार का कोई निगरानीतंत्र जनता के बीच लगातार काम करता रहे, तो बाजार में ऐसी बिछाई गई योजनाओं के बारे में समय रहते खबर लग जाएगी, और अधिक लोग डूबने से बच जाएंगे। आज तो हालत यह हो रही है कि धोखा खाए हुए लोगों में से कुछ लोग खुदकुशी कर चुके हैं, कई लोग जिंदगी भर की कमाई गंवा चुके हैं, और कई लोग कर्ज ले-लेकर ऐसी धोखाधड़ी में पूंजीनिवेश कर चुके हैं।

देश-प्रदेश में जुर्म किसी भी तरह का हो, उस पर कार्रवाई करने की जिम्मेदारी पुलिस या किसी सरकारी एजेंसी की आती है, और उसका कुल जमा कानूनी बोझ अदालत तक भी पहुंचता है। इन दोनों चीजों पर जनता का पैसा खर्च होता है, और यह बात जाहिर है कि देश की अदालतों पर करोड़ों मुकदमों का बोझ लदा हुआ है, और पुलिस की गिनती बढ़ती चली जाने के बावजूद बड़े पैमाने पर हो रही ऐसी जालसाजी और ठगी के लिए पुलिस हमेशा कम ही साबित होगी। आज नई टेक्नॉलॉजी की वजह से पुलिस और दूसरी जांच या निगरानी एजेंसियों के लिए यह बात कुछ आसान हो गई है कि समय पर जालसाजों की शिनाख्त होने से उनके फोन निगरानी में रखे जा सकते हैं, और उनके बैंक खातों को खाली होने के पहले जब्त किया जा सकता है। इन दिनों लगातार यह लग रहा है कि ठगी और जालसाजी भारत में एक सबसे बड़ा कारोबार बन चुके हैं, और लोगों को इससे कोई झिझक भी नहीं दिखती। जब आसपास के लोग ही अपने परिचित, दोस्त, और रिश्तेदारों को झांसा देने में लग जाते हैं, तो फिर ठगी-जालसाजी से लोगों का बचना बड़ा मुश्किल हो जाता है।

राज्य सरकारों को अपने बंधे-बंधाए दायरे से परे भी कुछ सोचने की जरूरत है। अंग्रेजी में कहा जाता है कि सोच के बक्से से बाहर निकलकर कुछ सोचना चाहिए। ऐसी आऊट ऑफ बॉक्स थिंकिंग से ही कोई राज्य सरकार एक निगरानी तंत्र विकसित कर सकती है जो कि डूब जाने के पहले जनता को बचा सके। यह एजेंसी एक लाईफ बेल्ट की तरह रहेगी जो कि किसी मोटरबोट के मुसाफिरों के लिए जरूरी रहती है, और डूबने से बचाती है। अगर यह न रहे तो सरकार को डूब चुकी लाशों को निकालने में सैकड़ों गुना अधिक मेहनत करनी पड़ती है। इसलिए हमारी यह कड़ी सिफारिश है कि सरकार को एक नई एजेंसी बनाकर जनता के बीच आर्थिक ठगी और जालसाजी पर निगरानी रखने, और समय रहते उसे पकडक़र सरकार की दूसरी एजेंसियों को कार्रवाई के लिए दे देने का काम करना चाहिए। यह एजेंसी तरह-तरह की साइबर-क्षमता वाली भी होनी चाहिए, जो कि जनता तक पहुंचने वाले झांसों को ऑनलाईन भी पकड़ सके। देखते हैं कि किस प्रदेश की सरकार ऐसी पहल करती है, और यह भी हो सकता है कि देश के किसी प्रदेश में ऐसा किया भी गया हो।

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