संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : ऑटोमेटिक हथियारों से लैस, धुत्त सिपाहियों पर लगाम सरकार का काम
08-May-2024 5:32 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : ऑटोमेटिक हथियारों से लैस, धुत्त सिपाहियों पर  लगाम सरकार का काम

फोटो : सोशल मीडिया

छत्तीसगढ़ के कवर्धा जिले में बोर्ड इम्तिहान की उत्तर पुस्तिकाओं की हिफाजत की ड्यूटी पर लगाए गए राज्य पुलिस के एक हथियारबंद जवान ने नशे की हालत में जगह-जगह गोलियां चलाईं, इसके बाद उसे निलंबित कर दिया गया है। ऐसा कुछ अरसा पहले राजधानी रायपुर के पुलिस मुख्यालय में तैनात एक पुलिस जवान ने भी किया था जो बस्तर के नक्सल मोर्चे को लेकर चिल्लाए जा रहा था, और गोलियां चलाए जा रहा था। इन दोनों ही मामलों में किसी की मौत नहीं हुई है, लेकिन लोगों के मरने में कोई कसर भी नहीं रह गई थी। किसी तरह के तनाव या नशे की हालत में ऐसी गोलीबारी से बहुत से साथियों या दूसरे लोगों को मार डालने के मामले दुनिया भर में सामने आते हैं। खासकर अपने नागरिकों की संख्या से अधिक निजी हथियारों वाले अमरीका में तो स्कूल, कॉलेज, और मॉल जैसी सार्वजनिक जगहों पर अंधाधुंध गोलीबारी से लोगों को मारने की वारदात होती ही रहती है। हिन्दुस्तान में निजी हथियारों का वैसा जमावड़ा नहीं है, और यहां सुरक्षा बलों के जवान ही मानसिक तनाव या नशे में ऐसा करते मिलते हैं। चूंकि चुनाव से लेकर नेताओं की हिफाजत तक, और इम्तिहानों से लेकर बड़े अफसरों की सुरक्षा तक कई किस्म की ड्यूटी ऐसे हथियारबंद लोग करते हैं, इसलिए इनके बारे में सरकारों को समय रहते कोई नीति बनाना चाहिए, ताकि नशा या तनाव हथियार के साथ मिलकर एक जानलेवा मेल न बन जाए। 

एक तो पुलिस और दूसरे सुरक्षा बलों में तनाव की घटनाएं बहुत होती हैं, और खासकर अपने शहर और प्रदेश से दूर रहने वाले केन्द्रीय सुरक्षा बलों के जवानों में खुदकुशी की भी बहुत सी घटनाएं होती हैं, और उनके पीछे सबसे बड़ी वजह पारिवारिक जरूरत के समय उन्हें छुट्टी न मिलना बताया जाता है। एक वजह कई खबरों में यह भी आती है कि लंबे समय तक परिवार से दूर रहने के बाद जब वे घर लौटते हैं तो उन्हें स्थानीय सरकार से अपने मामले सुलझते नहीं दिखते, और वे उसे लेकर भी तनाव में रहते हैं। इन दिनों हर हथियारबंद सुरक्षाकर्मी के पास लगातार कई गोलियां दागने वाले ऑटोमेटिक हथियार रहते हैं, और ऐसे में हर हथियार एक खतरा रहता है, उस जवान के लिए भी, उसके आसपास के लोगों के लिए भी। इंदिरा गांधी को जिस तरह उनके हथियारबंद निजी अंगरक्षकों ने ही धार्मिक आधार पर मार डाला था, वैसा एक भयानक खतरा तो देश में हर बड़े नेता पर मंडरा सकता है जिससे किसी धर्म के लोगों को शिकायत हो, और धार्मिक प्रताडऩा के वैसे मामले किसी सुरक्षाकर्मी के सिर चढक़र बोलने लगें। यह नौबत बहुत भयानक हो सकती है, और सिर्फ सरकारें इस आखिरी नौबत को काबू में नहीं कर सकतीं, देश में सद्भावना का माहौल अगर रहेगा, तो ही ऐसे खतरे टल सकते हैं, वरना ये किसी भी दिन जानलेवा साबित हो सकते हैं। 

फिलहाल सुरक्षा बलों के मुखिया देश का माहौल तो नहीं बदल सकते, लेकिन कुछ बुनियादी सुधार जरूर कर सकते हैं जिससे कि खतरे कम हो सकें। पहली बात तो यह कि हथियारबंद पुलिस या दूसरे सुरक्षाकर्मियों की एक निश्चित संख्या के अनुपात में मनोवैज्ञानिक परामर्शदाता नियुक्त होने चाहिए जो कि तैनाती की जगह पर ही साथ में रहें। खून-खराबा होने के पहले भी तनाव कई और किस्म से नुकसान पहुंचाता है, और ऐसे परामर्शदाता उस नुकसान को कम कर सकते हैं, और खूनी मंजर को टाल सकते हैं। हर हथियारबंद कर्मी को खुद के लिए और दूसरों के लिए एक खतरा मानते हुए इस बात पर बड़ी गंभीरता से विचार करना चाहिए, और मानसिक रूप से सेहतमंद हथियारबंद लोग ही आसपास के लोगों के लिए बिना खतरे के हो सकते हैं। दूसरी बात यह कि हथियारबंद सुरक्षा कर्मचारियों के नशे की आदत को लेकर सरकार को गंभीरता से कुछ करना चाहिए। ऐसे कर्मचारी दूसरे सरकारी कर्मचारियों की तरह नशा करने की छूट नहीं पा सकते। और अगर सरकार को भर्ती नियमों में फेरबदल भी करना पड़े, तो भी जिसके पास जब तक हथियार है, तब तक उसके नशे पर रोक का एक सिद्धांत बनाकर उसे कड़ाई से लागू करना चाहिए। कुछ सुरक्षा एजेंसियों में संस्था की तरफ से ही कर्मचारियों को रियायती शराब मुहैया कराई जाती है, यह सिलसिला भी काबू में रखना चाहिए, या बेहतर हो कि इसे बंद कर देना चाहिए। आज देश में बेरोजगारी इतनी अधिक है कि ऐसे संवेदनशील और हथियारबंद मोर्चों के लिए शराब पीने वालों के मुकाबले शराब न पीने वालों को नौकरी में प्राथमिकता देकर इन जगहों से नशाखोरी खत्म की जा सकती है। बड़े-बड़े जानलेवा ऑटोमेटिक हथियार नौकरी के तनाव के साथ जब नशे से भी जुड़ जाते हैं, तो फिर बहुत बड़ा खतरा बन जाते हैं। हमारे हिसाब से यह खतरा खत्म किया जाना चाहिए, और अगर हथियारबंद ड्यूटी वालों के लिए नशा न करने की शर्त जोडऩा पड़े, तो वह भी किसी के मानवाधिकार के खिलाफ नहीं होगी, उसे कड़ाई से बनाना चाहिए, और लागू करना चाहिए। जब नशे में कोई व्यक्ति कहीं पर भी हथियार या गोलियां छोडक़र चले जा रहा है, या सार्वजनिक जगहों पर अंधाधुंध फायरिंग कर रहा है, तो ऐसे खतरों को बढऩे से तुरंत ही रोकना चाहिए। 

शराब पीना किसी व्यक्ति का मौलिक अधिकार हो सकता है, लेकिन सरकार अपनी नौकरियों के लिए ऐसी शर्तें जोड़ सकती है कि नौकरी देने के पहले ही यह बात साफ रहे कि इस नौकरी में नशे की गुंजाइश नहीं रहेगी। आज भी फौज से लेकर पुलिस तक, और अर्धसैनिक बलों तक यूनियन न बनाने, हड़ताल न करने जैसी कई शर्तें जुड़ी ही रहती हैं। हम देश में खतरनाक हथियारों की बढ़ती मौजूदगी के साथ ऐसी किसी हिफाजत को न जोडऩे को आम और खास, हर किस्म के लोगों पर खतरा मानते हैं, और इससे बचाव का इंतजाम सरकार की ही जिम्मेदारी है। 

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