विचार / लेख

शब्द, ठोस, और खोखले
07-Oct-2020 7:20 PM
शब्द, ठोस, और खोखले

कनुप्रिया

एक गुण जो मैं तेजी से खत्म होते देखती हूँ लोगों में, वो है जब आप वास्तव में इसका मतलब है की बातें कह रहे हैं।

लोग बेहद लापरवाह होते हैं अपने कहे-लिखे शब्दों के प्रति, जबकि दुनिया का व्यवहार शब्दों पर ही टिका है। शब्दों को खोलकर उसके भीतर उसके मायने हैं या नहीं इसे जानने का कोई तरीका नहीं है। व्यवहार के लेन-देन का, हर भरोसे का कोई बहीखाता नहीं होता, वो जुबान पर, शब्दों पर ही चलता है और जैसे-जैसे शब्दों पर भरोसा खत्म होता जाता है, एक बिना भरोसे की दुनिया बनती है, यह भी एक किस्म की अराजक स्थिति है जिसमें नुकसान अक्सर कमजोर भुगतते हैं।

आम लोगों में तो अपने कहे के प्रति लापरवाही की प्रवृति देखने में मिलती ही रहती है और उससे कोई भी निर्णय लेने में बहुत दिक्कत होती है। घर की कामवाली भी अगर शाम को आउंगी लापरवाही से कह दे तो शाम तक काम बढ़ जाता है। असल मजबूरियों की बात नहीं यहाँ।

आजकल मीडिया भी जो कभी अपने कहे के लिए जिम्मेदार महसूस करता था, वहाँ भी यह प्रवृत्ति खत्म है। सुशांत सिंह राजपूत पर क्या नहीं कहा गया, तमाम बेसिर-पैर की बातें, और जब एम्स के डॉक्टर्स ने आत्महत्या की पुष्टि कर दी तो कहीं कोई शर्म, कोई गलती का बोध, अपने कहे की जवाबदेही नहीं, उसी गैरजिम्मेदारी से आगे भी बोलना, कहना चालू है।

सोचिये कि आपके आसपास के हर व्यक्ति डॉक्टर, बैंक वाले, दफ्तर वाले, या उन जिन सबसे आपका रोज साबका पड़ता है, यदि अपने कहे के लिए इतने ही गैरजिम्मेदार हों तो आप कितने अनिश्चय की स्थिति में रहेंगे।

कल गौर से राहुल गाँधी को सुन रही थी, क्या वो ऐसे वादे कर रहे हैं जो पूरे नहीं कर सकते? आखिर वो इस कॉरपोरेट सिस्टम के परे नहीं, उन्हें भी पता है कि सत्ता में आने के बाद क्या-क्या सीमाएँ हैं, विपक्ष में रहकर बोलना आसान है, मगर मैंने पाया कि वो अपने कहे के लिए अब तक तो ठीक-ठाक सावधान हैं, थोड़ा बहुत भी जिम्मेदारी जवाबदेही का बोध हो तो विश्वनीयता बढ़ती है। बाकी का पता तो सत्ता में आने पर ही लगेगा।

वहीं मोदीजी के लिए उनके शब्दों के कोई मायने नहीं, वो लापरवाही से अपने शब्द बाजार में फेंकते हैं, और इस तरह से फेंकते हैं जैसे उन पर यकीन करते हों, इससे सामने भी यकीन का भ्रम बनता है, मगर उसके बाद उनके लिए मायने खत्म हो जाते हैं, फिर वो अपने शब्दों के लिए न जवाबदेह हंै, न जिम्मेदार हैं। आप उन्हें उनका कोई भी पुराना वीडियो वापस नहीं दिखा सकते, पिछले महीने तक का नहीं। इससे देश में कितने अनिश्चय का माहौल है, वो साफ है। आप यकीन से कह नहीं सकते कि यह व्यक्ति बोलेगा क्या और करेगा क्या। ऐसे व्यक्ति पर भरोसे के लिए अंधभक्ति जरूरी है, वरना भरोसे का दर्द गहरा होगा।

कहना यही है कि कौन कितना अच्छा कह रहे हैं उससे भी ज्यादा जरूरी है यह जानना कि वे जो कह रहे हैं वास्तव में उसके लिए मायने रखते हैं या नहीं। अपने कहे-लिखे के प्रति जिम्मेदारी का बोध भी एक कसौटी है और यह हर तरफ खत्म हो जा रहा है, राजनीति में तो खैर एकदम ही।


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