विचार / लेख
Shambhavi Thakur
देश के लोकतंत्र की लाश अभी घसीटी जा रही है। हाथरस की पीडि़ता के उलट, अभी इसका दाह संस्कार नहीं हुआ है।
(This article was first published on Newslaundry. You can read the original piece on www.newslaundry.com )
जब दीवाली करीब आ रही है, और हिंदू लोग अपने राज्य में (और उस नए भव्य मंदिर में, जो अयोध्या में उनके लिए बनाया जा रहा है) भगवान राम की सफल वापसी का उत्सव मनाने की तैयारियां कर रहे हैं, हम बाकी लोगों को बस भारतीय लोकतंत्र की सिलसिलेवार सफलताओं के जश्न से ही तसल्ली करनी पड़ेगी। एक बेचैन कर देने वाले दाह संस्कार की, एक महान साजिश को दफनाने और एक दूसरी साजिश की कहानी बनाने की जो खबरें आ रही हैं, उसमें हम खुद पर, अपनी संस्कृति पर, अपनी सभ्यता के मूल्यों पर नाज किए बिना कैसे रह सकते हैं, जो प्राचीन भी हैं और आधुनिक भी?
सितंबर के बीच में खबर आई कि उत्तर प्रदेश के हाथरस में, प्रभुत्वशाली जाति के मर्दों ने 19 साल की एक दलित लडक़ी का सामूहिक बलात्कार करके उसे मरने के लिए छोड़ दिया था। उसका परिवार गांव के 15 दलित परिवारों में से एक था, जहां 600 परिवारों की बहुसंख्यक आबादी ब्राह्मणों और ठाकुरों की है। भगवाधारी और खुद को योगी आदित्यनाथ कहने वाले प्रदेश के मुख्यमंत्री अजय सिंह बिष्ट इसी ठाकुर जाति से आते हैं। (सारे इशारे यही बताते हैं कि वे आने वाले समय में प्रधानमंत्री पद पर नरेंद्र मोदी की जगह लेने वाले हैं)। हमलावर कुछ समय से इस लडक़ी का पीछा कर रहे थे और उसे आतंकित कर रखा था। कोई नहीं था, जिससे वह मदद मांगती। कोई नहीं था जो उसकी हिफाजत करता। इसलिए वह अपने घर में छुप कर रहती और बहुत कम बाहर जाया करती। उसे और उसके परिवार को पता था कि हालात कैसे खतरनाक रुख ले सकते हैं। लेकिन इस पता रहने का भी कोई फायदा नहीं हुआ। उस दिन, खून से लथपथ उसका शरीर उसकी मां को खेत में पड़ा मिला, जहां वह गायों को चराने ले जाया करती थी। उसकी जीभ करीब-करीब काट ली गई थी, उसकी गर्दन की हड्डी टूट गई थी, जिसके चलते उसके शरीर का एक हिस्सा काम नहीं कर रहा था।
लडक़ी दो हफ्तों तक जिंदा रही, पहले अलीगढ़ अस्पताल में, और इसके बाद जब उसकी हालत बहुत बिगड़ गई तो दिल्ली के एक अस्पताल में. 29 सितंबर की रात उसकी मौत हो गई। उत्तर प्रदेश पुलिस, जो पिछले साल हिरासत में 400 लोगों की हत्याएं करने के लिए जानी जाती है (देश भर में 1700 ऐसी हत्याओं का यह एक चौथाई है1), रात के सन्नाटे में लडक़ी की लाश को लेकर उसके गांव के बाहर पहुंची। उसने सदमे में डूबे परिवार को घर में कैद कर दिया, लडक़ी की मां को इसकी इजाजत तक नहीं दी कि वह अपनी बेटी को आखिरी बार विदा कह पाती, एक बार उसका चेहरा देख पाती। उसने एक पूरे समुदाय को इससे वंचित किया कि वो अपनी एक प्यारी सदस्य के अंतिम संस्कार को सम्मान के साथ अंजाम दे पाते।
खाकी वर्दी की एक दीवार के घेरे के बीच, आनन फानन में सजाई गई चिता पर उस मार दी गई लडक़ी की लाश रखी गई, और धुआं अंधेरे आसमान में उठता रहा. दहशत में डूबा लडक़ी का परिवार मीडिया में उठे शोर से सहमा हुआ था. क्योंकि वे अच्छी तरह जानते थे कि रोशनियों के बुझने के बाद, उन्हें इस शोर के लिए भी सजा मिलने वाली है।
अगर वे बच पाने में कामयाब रहे तो वे अपनी उस जिंदगी में लौट जाएंगे, जिसके वे आदी बना दिए गए हैं जाति की गलाजत में डूबे उन मध्ययुगीन गांवों में जहां वे मध्ययुगीन क्रूरता और अपमान का शिकार बनते हैं, जहां उन्हें अछूत, और इंसानों से कमतर माना जाता है।
दाह संस्कार के एक दिन बाद, पुलिस को जब यह हौसला हो गया कि लाश को सुरक्षित रूप से मिटा दिया गया है, उसने ऐलान किया कि लडक़ी का बलात्कार नहीं हुआ था। उसकी सिर्फ हत्या हुई थी। सिर्फ यही वह आजमाया हुआ तरीका है, जिसके जरिए जातीय अत्याचारों में से जाति के पहलू को काट कर अलग कर दिया जाता है। उम्मीद की जा सकती है कि अदालतें, अस्पताल के रेकॉर्ड, और मुख्यधारा का मीडिया इस प्रक्रिया में साथ देंगे, जिसमें हर कदम पर, नफरत से भरे जातीय अत्याचार को एक बदकिस्मत, लेकिन महज एक मामूली अपराध में बदल दिया जाता है. दूसरे शब्दों में, हमारे समाज के सिर से कसूरवार होने का बोझ हट जाता है, संस्कृति और सामाजिक रस्में बरी हो जाती हैं. हमने बार-बार यही होते हुए देखा है, और 2006 में खैरलांजी में सुरेखा भोटमांगे और उनके दो बच्चों के कत्लेआम और उनके साथ बरती गई बेरहमी में यह बहुत खौफनाक रूप में दिखाई पड़ी थी।

अरुंधति रॉय
हम अपने मुल्क को इसके गौरवशाली अतीत में वापस ले जाने की कोशिश कर रहे हैं, जिसको पूरा करने का वादा भारतीय जनता पार्टी ने किया है। अगर कर सकें तो कृपया आप अजय सिंह बिष्ट को वोट देना न भूलें। अगर उन्हें नहीं, तो मुसलमानों की ताक में रहने वाला, दलितों से नफरत करने वाला, उनके जैसा कोई भी राजनेता चलेगा या चलेगी। अपलोड किए गए अगले लिंचिंग वीडियो को लाइक करना न भूलें। और अपने पसंदीदा, जहर उगलने वाले टीवी एंकर को देखते रहें, क्योंकि हमारे सामूहिक विवेक के पहरेदार वही हैं। और कृपया इसके लिए शुक्रिया कहना नहीं भूलें कि हम अभी भी वोट डाल सकते हैं, कि हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में रहते हैं, कि हम अपने जिन पड़ोसियों को ‘नाकाम राज्य’ कहना पसंद करते हैं, उनसे उलट भारत में निष्पक्ष अदालतें कानून की व्यवस्था बनाए रखती हैं।
हाथरस में गांव के बाहर शर्मनाक तरीके से, आतंक के माहौल में किए गए इस दाह संस्कार के महज कुछ ही घंटों के बाद, 30 सितंबर की सुबह, एक विशेष सीबीआई अदालत ने हमारे सामने ऐसी निष्पक्षता और ईमानदारी का एक ज़ोरदार प्रदर्शन किया।
बड़ी सावधानी से 28 साल तक गौर करने के बाद अदालत ने उन 32 लोगों को बरी कर दिया, जिन पर 1992 में बाबरी मस्जिद गिराने की साजिश का इलजाम था। यह एक ऐसी घटना थी, जिसने आधुनिक भारत के इतिहास की धारा को बदल दिया था। बरी किए गए लोगों में एक पूर्व गृह मंत्री, एक पूर्व कैबिनेट मंत्री और एक पूर्व मुख्यमंत्री शामिल हैं। ऐसा लगता है कि असल में किसी ने बाबरी मस्जिद नहीं गिराई। कम से कम कानून का ऐसा ही मानना है। शायद मस्जिद ने खुद को गिरा लिया। शायद यह अपने ऊपर गेती और हथौड़े चला कर खुद ही मिट्टी में मिल गई। शायद उस दिन खुद को श्रद्धालु कहने वाले, अपने चारों ओर जमा, भगवा गमछा बांधे हुए गुंडों की सामूहिक इच्छाशक्ति के आगे वह खुद ही बिखर गई। इन सबके लिए इतने साल पहले 6 दिसंबर का दिन भी शायद इसने खुद चुना था जो बाबासाहेब आंबेडकर की पुण्यतिथि भी है।
पता चला कि उस पुरानी मस्जिद के गुंबद को औजारों से तोड़ कर गिराने वाले आदमियों के जो वीडियो और तस्वीरें हमने देखीं, गवाहों के जो बयान हमने पढ़े और सुने, इसके बाद के महीनों में मीडिया में जो खबरें छाई रही थीं, वे सब हमारे मन की कल्पनाएं थीं. एलके आडवाणी की रथयात्रा, जिसके दौरान उन्होंने भारत के एक कोने से दूसरे कोने तक एक खुले हुए ट्रक में यात्रा की थी, भारी भीड़ के सामने भाषण दिए थे, शहरों में चक्का जाम कर दिया था, सच्चे हिंदुओं को ललकारा था कि वे अयोध्या में ठीक उस जगह पर जमा हों जहां मस्जिद खड़ी थी, और राम मंदिर निर्माण में भागीदारी करें।
यह सब कुछ भी नहीं हुआ था. न ही यात्रा के पीछे-पीछे होने वाली वह मौत और तबाही ही कभी असल में हुई. किसी ने एक धक्का और दो, बाबरी मसजिद तोड़ दो का नारा नहीं लगाया। हम सभी एक सामूहिक, राष्ट्रव्यापी मदहोशी के शिकार हो गए थे. किस चीज़ का नशा कर रहे थे हम? हम तक एनसीबी का परवाना क्यों नहीं पहुंचा? सिर्फ बॉलीवुड के लोगों को ही क्यों बुलाया जा रहा है? कानून की नजऱ में हम सभी बराबर हैं कि नहीं?
विशेष अदालत के जज ने 2,300 पन्नों के अपने ब्योरेवार फैसले में बताया है कैसे मस्जिद को गिराने की कोई योजना नहीं थी। मानना पड़ेगा कि यह कमाल का ही एक काम है एक योजना की गैरमौजूदगी के बारे में 2,300 पन्ने. वे लिखते हैं कि कैसे इसके बारे में कोई भी सबूत नहीं हैं जिससे यह पता चलता आरोपित लोग मस्जिद गिराने की योजना बनाने के लिए ‘एक कमरे में’ मिले हों। शायद इसलिए कि यह एक कमरे के बाहर, हमारी सडक़ों पर, आम सभाओं में, हमारे टीवी के पर्दों पर हुआ, जिसे हम सबने देखा और उसमें भागीदारी की? या फिर, उफ, कहीं यह वही ‘माल’ तो नहीं है जिसके दम से हमारे मन में ऐसे विचार पनप रहे हैं?

बाबरी मस्जिद
खैर, बाबरी मस्जिद गिराने की साजिश का मामला तो अब खत्म हुआ. लेकिन अब एक दूसरी साजिश है जो अभी ‘गर्म’ है और आजकल ‘ट्रेंड’ में है. 2020 के दिल्ली कत्लेआम की साजिश, जिसमें उत्तर पूर्व दिल्ली के मजदूर मुहल्लों में 53 लोग (जिनमें से 40 मुसलमान थे) मार दिए गए और 581 लोग जख्मी हुए। मस्जिदों, कब्रिस्तानों और मदरसों को खास कर निशाना बनाया गया। घर, दुकानों और कारोबारों को आग लगाई गई और तबाह कर दिया गया, जिनमें से ज्यादातर मुसलमानों के थे।
साजिश के इस मामले में, दिल्ली पुलिस की हजारों पन्नों की चार्जशीट में, एक पैराग्राफ एक टेबल के चारों ओर बैठकर साजिश बनाने वाले कुछेक लोगों के बारे में भी है हां! एक कमरे के भीतर, जो एक किस्म का ऑफिस बेसमेंट था। उनके भावों से ही आप साफ बता सकते हैं कि वे साजिश रच रहे थे। फिर वहां तो तीर से निशान भी लगाए गए हैं, जो उनकी पहचान कराते हैं, उनके नाम बताते हैं। यह खौफनाक है। बाबरी मस्जिद के गुंबद पर खड़े हथौड़ों-गेतियों वाले आदमियों से कहीं अधिक चिंताजनक। उस टेबल के चारों ओर बैठे लोगों में कुछ तो जेल पहुंचा भी दिए गए हैं। बाकी शायद जल्दी ही पहुंचा दिए जाएंगे। गिरफ्तारियों में कुछ ही महीने लगे। बरी होने में बरसों लग जाएंगे अगर बाबरी मसजिद के फैसले की मिसाल लें, तो शायद 28 बरस। किसे मालूम।
उन लोगों पर जिस यूएपीए (गैरकानूनी गतिविधियां रोकथाम अधिनियम) के तहत आरोप लगाए गए हैं, उसमें करीब-करीब हर चीज़ ही अपराध है, राष्ट्र-विरोधी विचार सोचना भी अपराध है। और अपनी बेगुनाही साबित करने का जिम्मा भी आपके सिर पर आता है. जितना ज्यादा मैं इसके बारे में पढ़ती हूं, और इस पर अमल करने के पुलिस के तरीके को देखती हूं, उतना ज्यादा लगता है कि यह ऐसा है मानो किसी होशमंद इंसान से यह कहा जाए कि वह पागलों की एक कमेटी के सामने अपनी होशमंदी साबित करे।
हमें हुक्म है कि हम इस पर भरोसा कर लें कि दिल्ली साजिश मुसलमान छात्रों और एक्टिविस्टों, गांधीवादियों, अर्बन नक्सलियों और वामपंथियों ने रची थी, जो नेशनल पॉपुलेशन रजिस्टर (एनपीआर), नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजंस (एनआरसी) और सिटीजनशिप अमेंडमेंट एक्ट (सीएए) को लागू करने का विरोध कर रहे थे। उनका मानना था एक साथ मिल कर ये सब कदम भारत के मुसलमान समुदाय और उन गरीब लोगों को बेसहारा कर देंगे, जिनके पास कोई लीगेसी पेपर्स यानि विरासत के दस्तावेज नहीं हैं। मेरा भी यही मानना है। और मैं मानती हूं कि अगर सरकार इस परियोजना को जबरदस्ती आगे बढ़ाने का फैसला करती है, तो आंदोलन फिर से शुरू होंगे। उन्हें होना ही चाहिए।
पुलिस के मुताबिक, दिल्ली साजिश के पीछे विचार यह था कि फरवरी में संयुक्त राज्य के राष्ट्रपति डोनॉल्ड ट्रंप की सरकारी यात्रा के दौरान हिंसा भडक़ा कर और एक खूनी, सांप्रदायिक झगड़ा खड़ा करके भारत सरकार को शर्मिंदा किया जाए। इस चार्जशीट में जिन गैर-मुस्लिम नामों को शामिल किया गया है, उन पर इन आंदोलनों को एक ‘सेक्युलर रंग’ देने की साजिश करने का आरोप लगाया गया है. धरने और आंदोलन की रहनुमाई करने वाली हजारों मुसलमान औरतों पर आरोप लगाया गया है कि वे ‘जुटाई गई थीं’ ताकि आंदोलन को एक ‘जेंडर कवर’ (‘औरतों की ढाल’) मिल जाए। झंडे लहराने और अवाम द्वारा भारतीय संविधान की प्रस्तावना पढऩे को, और इन आंदोलनों की पहचान बन गई सारी शायरी और संगीत और प्यार को एक किस्म की बेईमान जालसाजी बता कर खारिज कर दिया गया है, जिनका मकसद असली बदनीयती को छुपाना भर था। दूसरे शब्दों में, आंदोलन असल में जिहादी था (और मर्दों का काम था), बाकी सब ऊपरी सजावट और तडक़-भडक़ थी।

उमर खालिद
नौजवान स्कॉलर डॉ. उमर खालिद को, जिनको मैं अच्छे से जानती हूं, बरसों से मीडिया परेशान करता रहा है, उनके पीछे पड़ा हुआ है और झूठी खबरें फैलाता रहा है। अब पुलिस कहती है कि वे दिल्ली की साजिश रचने वालों में अहम शख्स हैं। उनके खिलाफ जुटाई गई जिन चीजों को पुलिस सबूत बता रही है, वे दस लाख से अधिक पन्नों में हैं.2 (यह वही सरकार है जिसने कहा था कि एक करोड़ मजदूरों के बारे में इसके पास कोई आंकड़ा नहीं है, जो मार्च में सैकड़ों और कुछ तो हज़ारों मील पैदल चल कर अपने-अपने घरों को पहुंचे थे, जब मोदी ने दुनिया के सबसे बेरहम कोविड लॉकडाउन का ऐलान किया था। सरकार ने कहा कि इसे कुछ पता नहीं है कि कितने मजदूर रास्ते में मारे गए, कितने भुखमरी का शिकार बने, कितने बीमार पड़े।)
उमर खालिद के खिलाफ जुटाए गए इन दस लाख पन्नों में जाफराबाद मेट्रो स्टेशन का सीसीटीवी फुटेज शामिल नहीं है, जहां आरोप है कि उन्होंने यह गलत साजिशें रचीं और भडक़ाऊ बातें कीं. 25 फरवरी को, जब हिंसा चल ही रही थी, एक्टिविस्टों ने दिल्ली हाईकोर्ट से अपील की थी कि इस फुटेज को सुरक्षित रखा जाए. लेकिन यह फुटेज डिलीट कर दी गई है, और इसकी वजह किसी को नहीं मालूम.3 उमर अब हाल में गिरफ्तार उन सैकड़ों मुसलमानों के साथ जेल में हैं, जिन पर यूएपीए के तहत हत्या, हत्या की कोशिश और दंगे करने का आरोप है. दस लाख पन्नों का ‘सबूत’ देखने में अदालतों और वकीलों को कितना समय लगेगा?
जिस तरह जाहिर हुआ कि बाबरी मसजिद ने खुद को तबाह कर लिया था, उसी तरह 2020 दिल्ली कत्लेआम की पुलिस की कहानी में, मुसलमानों ने खुद अपनी हत्या की साजिशें रचीं, खुद अपनी मसजिदें जलाईं, खुद अपने घर तबाह किए, अपने बच्चों को यतीम बनाया. और यह सब किया डोनॉल्ड ट्रंप को दिखाने के लिए कि भारत में उनके दिन कितनी मुसीबत में गुजर रहे हैं।
अपने मामले को मजबूत बनाने के लिए पुलिस ने अपनी चार्जशीट में व्हाट्सऐप पर हुई बातचीत के हज़ारों पन्ने जोड़े हैं. यह बातचीत छात्रों और एक्टिविस्टों और एक्टिविस्टों के सहायता समूहों के बीच चली थी, जो दिल्ली में शुरू हुए आंदोलनों और शांतिपूर्ण धरने वाली अनगिनत जगहों को मदद पहुंचाने और उनके बीच तालमेल बिठाने की कोशिश कर रहे थे. इस बातचीत और उन व्हाट्सऐप ग्रुपों में होने वाली बातचीत में ज़मीन-आसमान का अंतर है, जो ‘कट्टर हिंदू एकता’ नाम से चलते हैं. इन दूसरे किस्म के ग्रुपों में लोग सचमुच में मुसलमानों को मारने के बारे में बढ़-चढ़ कर बातें करते हैं, और खुलेआम भाजपा नेताओं की तारीफ करते हैं। वो एक अलग चार्जशीट का हिस्सा है।

दिल्ली दंगा
छात्रों-एक्टिविस्टों की बातचीत, ज्यादातर, जोशो-खरोश और मकसद से भरी हुई है, जैसा कि एक जायज गुस्से के अहसास से भरे हुए नौजवान लोगों में हुआ करती है। उन्हें पढऩा ऊर्जा देने वाला है। यह आपको कोविड से पहले के उन तूफानी दिनों में लौटा ले जाता है, जब एक नौजवान पीढ़ी को अपने पैरों पर आगे बढ़ते देखना कितना उत्साह से भर देने वाला था. इस बातचीत में हम पाते हैं कि कई बार, अधिक अनुभव वाले एक्टिविस्टों ने दखल देकर उन्हें आगाह किया कि उन्हें शांति और सब्र से काम लेने की जरूरत है। वे बहसें करते, मामूली तरीकों से झगड़ते लेकिन लोकतांत्रिक होने का मतलब यह भी तो होता है। इसलिए हैरानी की बात नहीं है कि इन सारी बातों में विवाद का मुद्दा यह था कि शाहीन बाग की हजारों औरतों के आंदोलन की शानदार कामयाबी को और जगहों पर दोहराया जाए कि नहीं।
इन औरतों ने ठिठुरती हुई सर्दियों में हफ्तों तक मुख्य सडक़ पर धरना देकर आवाजाही ठप कर दी थी, जिससे उथल-पुथल तो हुई थी, लेकिन जिसके चलते उन पर और उनके मकसद पर लोगों का ध्यान भी गया था. शाहीन बाग की दादी बिलकिस बानो को टाइम पत्रिका की 2020 के सबसे प्रभावशाली लोगों की फेहरिश्त में जगह मिली है. (किसी ग़लतफहमी में न पड़ें, 19 साल की वह दूसरी बिलकिस बानो गुजरात की थीं जो 2002 में हुए मुसलमानों के कत्लेआम में बच रही थीं, जब नरेंद्र मोदी राज्य के मुख्यमंत्री हुआ करते थे. बिलकिस ने अपने परिवार के 14 लोगों बेस्ट बेकरी कत्लेआम में मारे जाते हुए देखा, जिसमें उनकी तीन साल की बेटी को हथियारबंद हिंदुओं की एक बलवाई भीड़ ने मार डाला था. वह गर्भवती थीं और उनका सामूहिक बलात्कार हुआ था.4)
दिल्ली में एक्टिविस्टों की व्हाट्सऐप बातचीत में लोगों में इस बात पर मतभेद था कि पूर्वोत्तर दिल्ली में चक्का जाम किया जाए कि नहीं. चक्का जाम की योजना बनाने में ऐसी कोई नई बात नहीं है– किसानों ने कितनी बार चक्का जाम किया है. आज की तारीख में भी, पंजाब और हरियाणा में किसानों ने चक्का जाम कर रखा है. वे हाल में मंजूर किए गए बिलों का विरोध कर रहे हैं, जिनसे भारतीय खेती का कारपोरेटीकरण हो जाएगा, और छोटे किसानों का वजूद संकट में पड़ जाएगा।
दिल्ली आंदोलन के मामले में इन चैट ग्रुपों में कुछ एक्टिविस्टों ने दलील दी कि चक्का जाम का उल्टा असर पड़ेगा. कुछ ही हफ्ते पहले दिल्ली चुनावों में हार के अपमान से उबल रहे भाजपा नेताओं की खुली धमकियों के माहौल में, कुछ स्थानीय एक्टिविस्टों को डर था कि चक्का जाम करने से गुस्सा भडक़ सकता है, जिसमें हिंसा का रुख उनके समुदायों की तरफ मुड़ सकता है. वे जानते थे किसानों, गुज्जरों या यहां तक कि दलितों द्वारा चक्का जाम करना एक बात है। लेकिन मुसलमानों द्वारा चक्का जाम करना एकदम दूसरी बात है।
यही आज के भारत की हकीकत है। दूसरों ने दलील दी कि जब तक चक्का जाम नहीं किया जाएगा, और शहर को अपने हालात पर गौर करने के लिए मजबूर नहीं किया जाएगा तब तक लोग आंदोलनकारियों की अनदेखी करते रहेंगे. जैसा कि पता लगा, कुछ जगहों पर सडक़ें जाम की गईं. और जैसा कि अंदेशा जाहिर किया गया था, हिंसक नारे लगाती हथियारबंद हिंदू भीड़ को वह मौका मिल गया, जिसकी वह ताक में थी।
अगले कुछ दिनों तक, उन्होंने जिस किस्म की क्रूरता दिखाई, उससे हम सब सन्न रह गए। वीडियो में देखा गया कि उन्हें पुलिस का खुला समर्थन हासिल था। मुसलमानों ने जवाब दिया। दोनों तरफ से जान और माल का नुकसान हुआ। लेकिन इसमें कोई बराबरी नहीं थी। हिंसा को भडक़ने और फैलने की इजाजत दी गई। हमने अविश्वास के साथ देखा कि पुलिस ने सडक़ पर पड़े गंभीर रूप से जख्मी नौजवान मुसलमानों को घेर कर उन्हें राष्ट्रगान गाने पर मजबूर किया। उनमें से एक युवक फैजान की जल्दी ही मौत हो गई। संकट में घिरे, डरे हुए लोगों की सैकड़ों कॉलों को पुलिस ने नजरअंदाज किया।
जब आगजनी और हत्या का सिलसिला थमा, और आखिरकार जब सैकड़ों शिकायतों को सुनने की बारी आई, तब पीडि़तों का बयान है कि पुलिस ने उन्हें मजबूर किया कि वे अपनी शिकायतों से अपने हमलावरों के नाम और उनकी पहचान को हटा दें, और बंदूकें और तलवारें लहराने वाली भीड़ के सांप्रदायिक नारों को निकाल दें। अलग-अलग लोगों की अपनी खास शिकायतों को सबकी आम शिकायतों में बदल दिया गया, जिसमें सब कुछ आधा-अधूरा था, और कसूरवारों को बचाने वाला था। (नफरत में अंजाम दिए गए अपराधों में से नफरत की बात काट कर हटा दी गई)।
एक व्हाट्सऐप चैट में पूर्वोत्तर दिल्ली में रहने वाले एक खास मुसलमान एक्टिविस्ट ने चक्का जाम के खिलाफ बार-बार अपनी राय जाहिर की थी. आखिर में ग्रुप छोडऩे से पहले उन्होंने अपना आखिरी, कड़वाहट में डूबा हुआ एक संदेश ग्रुप में भेजा। यही वह मैसेज है, जिसको उठा कर पुलिस और मीडिया ने अपना गंदा खेल खेलना शुरू किया, और पूरे ग्रुप को बदनाम करने लगी। इस ग्रुप को, जिसमें भारत के सबसे सम्मानित एक्टिविस्ट, टीचर, फिल्मकार शामिल हैं, उन्हें जानलेवा इरादों वाले हिंसक साजिशकर्ताओं के रूप में पेश किया गया. इससे बेतुकी बात और कुछ हो सकती है? लेकिन यह साबित करने में उन्हें बरसों लग जाएंगे कि वे बेगुनाह हैं. तब तक मुमकिन है उन्हें जेल में रहना पड़े, उनकी जिंदगियां पूरी तरह तबाह हो जाएं, जबकि असली हत्यारे और हिंसा भडक़ाने वाले सडक़ों पर आजादी से घूमते रहेंगे, और चुनाव जीतते जाएंग। यह पूरी प्रक्रिया ही एक सजा है।
इस बीच अनेक स्वतंत्र मीडिया रिपोर्टों, सिटीजंस फैक्ट-फाइंडिंग रिपोर्टों और मानवाधिकार संगठनों ने दिल्ली पुलिस को पूर्वोत्तर दिल्ली में हुई हिंसा का भागीदार ठहराया है। एमनेस्टी इंटरनेशनल ने सबसे हिला देने वाले कुछ हिंसक वीडियो को देखने और उनकी फोरेंसिक जांच के बाद, अगस्त 2020 में जारी अपनी एक रिपोर्ट में कहा कि दिल्ली पुलिस आंदोलनकारियों को पीटने और यातना देने तथा भीड़ के साथ मिल कर काम करने की दोषी है। तब से एमनेस्टी पर वित्तीय गड़बड़ी का आरोप लगाया गया है, और इसके बैंक खाते सील कर दिए गए हैं। इसको भारत में अपना दफ्तर बंद कर देना पड़ा और यहां काम करने वाले सभी 150 लोगों को अपनी नौकरी गंवानी पड़ी।
जब हालात संगीन होने लगते हैं, तब अंतर्राष्ट्रीय पर्यवेक्षक सबसे पहले चले जाते हैं या जाने पर मजबूर कर दिए जाते हैं। किन मुल्कों में हमने यह पहले भी होते हुए देखा है? सोचिए। या फिर गूगल कर लीजिए।
भारत को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में जगह चाहिए, दुनिया के मामले तय करने के अधिकार में हिस्सा चाहिए। लेकिन यह दुनिया के उन देशों में से भी एक होना चाहता है, जो टॉर्चर के खिलाफ अंतर्राष्ट्रीय करारनामे पर दस्तखत नहीं करेंगे। यह एकदलीय लोकतंत्र (एक विडंबना या विरोधाभास) बनना चाहता है, सभी जवाबदेहियों से मुक्त।
पुलिस ने 2020 दिल्ली साजिश की जो बेतुकी कहानी तैयार की है, और उतनी ही बेतुकी 2018 भीमा कोरेगांव साजिश की कहानी है (बेतुका होना धमकियों और अपमान का हिस्सा है)। उसका इरादा एक्टिविस्टों, छात्रों, वकीलों, लेखकों, कवियों, प्रोफेसरों, मजदूर संघ के कार्यकर्ताओं और नाफरमानी करने वाले एनजीओ को गिरफ्त में लेना और जेल भेजना है। इसका इरादा सिर्फ अतीत और वर्तमान की दहशतों का नामोनिशान मिटाना भर नहीं है, बल्कि आने वाले समय के लिए रास्ता साफ करना भी है।
मेरा अंदाजा है कि हमसे उम्मीद की जाती है कि हम दस लाख पन्नों के सबूत जुटाने की कवायदों और 2000 पन्नों के अदालती फैसलों के लिए शुक्रगुजार बनें। क्योंकि ये इसके सबूत हैं कि लोकतंत्र की लाश अभी भी घसीटी जा रही है। हाथरस की उस मार दी गई लडक़ी के उलट, अभी इसका दाह संस्कार नहीं हुआ है. लाश के रूप में भी यह अपना जोर लगा रही है, इससे चीजों की रफ्तार धीमी पड़ रही है। वह दिन दूर नहीं है जब इसको ठिकाने लगा दिया जाएगा और फिर चीजें रफ्तार पकड़ेंगी। हम पर जो लोग हुकूमत कर रहे हैं, उनका अनकहा नारा शायद यह हो सकता है- एक धक्का और दो, लोकतंत्र को ध्वस्त करो।
जब वह दिन आएगा, तब हिरासत में सालाना 1700 हत्याएं हमारे हालिया, गौरवमय अतीत की एक खुशनुमा याद लगने लगेंगी। लेकिन हमें इस छोटी-सी बात पर डरने की जरूरत नहीं है। जरूरत है कि अवाम उन लोगों को वोट डालती रहे, जो हमें बदहाली और जंग की तरफ ले जा रहे हैं, जो हमारी धज्जियां उड़ा रहे हैं।
कम से कम वे हमारे लिए एक मंदिर तो बना रहे हैं। यही क्या कम है।
(अनुवाद-रेयाजुल हक)


