विचार / लेख
हेमंत कुमार झा
अखबारों में छपी खबरों के अनुसार रेलवे ने स्पष्ट किया है कि निजी रेलगाडिय़ों की अपनी मर्जी होगी कि वे किस स्टेशन पर रुकें, कहां न रुकें। वैसे ही, जैसे भाड़ा के निर्धारण में उनकी अपनी मर्जी ही चलेगी। जाहिर है, अब वे दिन लदने वाले हैं जब अपने शहर के स्टेशन पर किसी ट्रेन के ठहराव के लिए पब्लिक आंदोलित होती थी, नेताओं पर दबाव बनाती थी और नेताजी लोग रेलवे बोर्ड या मंत्रालय में जाकर गुहार लगाते थे।
यह रेलवे पर जनता के अधिकारों के सिकुडऩे का अगला अध्याय होगा। जनता की जरूरतें एक तरफ, निजी ट्रेन के मालिकों के व्यावसायिक हित दूसरी तरफ। दोनों में कोई सामंजस्य नहीं। अब जब, निजी ट्रेन और स्टेशनों के मालिकान अपनी मर्जी के मालिक होंगे, जो कि स्वाभाविक भी है, तो भाड़ा के निर्धारण या ठहराव आदि में ही नहीं, नियुक्तियों में भी उनकी मर्जी ही चलेगी।आप आरक्षण के झुनझुने को बजाते रहिये, नियुक्तियों में विकलांग या कमजोर वर्गों के अन्य कोटे के गीत गाते रहिये, मालिक लोग अपनी मर्जी चलाएंगे।
‘रेलवे आपकी अपनी संपत्ति है, इसकी रक्षा आपकी जिम्मेदारी है।’...बचपन से ही इस तरह के बोर्ड हम रेलवे स्टेशनों पर देखते रहे हैं। यह रेलवे के साथ जनता के रागात्मक संबंधों के लंबे अध्याय का एक खास पन्ना हुआ करता था। समय आ रहा है कि अब धीरे-धीरे ये बोर्ड उखड़ते जाएंगे और उनकी जगह स्टेशनों पर हमें जल्दी ही ऐसे बोर्ड नजर आने वाले हैं, ‘...यह रेलवे स्टेशन छंगामल भुजियावाले की निजी संपत्ति है, कृपया उपयोग में सतर्कता बरतें...’
यह रेलवे का सरकारी ढांचा था जो जनता की जरूरतों के अनुसार और जनता की मांगों के अनुसार उन क्षेत्रों में भी पसरता गया जो व्यावसायिक हितों के बहुत अनुकूल नहीं थे। अब व्यावसायिक हित प्रधान होंगे और जनता की जरूरतें गौण होंगीं। मुनाफा की संस्कृति जनता के व्यापक हितों के साथ तालमेल बिठा ही नहीं सकती। यह संभव ही नहीं है।
इसलिये, विचारकों का बड़ा वर्ग शिक्षा, स्वास्थ्य और सार्वजनिक परिवहन के क्षेत्रों को व्यायसायिक हितों के लिए बंधक बनाने का विरोधी बना रहा। किन्तु, हमारी पतनशील राजनीतिक संस्कृति कुछ खास वर्गों के व्यावसायिक हितों की बंधक बनती गई, जिसका एक नतीजा रेलवे के निजीकरण के रूप में सामने आ रहा है। स्कूल और अस्पताल तो कब के निजी क्षेत्र के चारागाह बन चुके हैं। बहुत सारे लोग अभी यह सोचने-समझने को तैयार नहीं कि रेलवे का क्रमश: निजीकरण हमारी संस्कृति और सामूहिक चेतना को किस हद तक नकारात्मक अर्थों में प्रभावित करने वाला है।
रेलवे की ही क्या बात करें, लोग तो कुछ भी सोचने-समझने के लिए तैयार नहीं और एक-एक कर हमारी तमाम राष्ट्रीय संपत्तियों को निजी हाथों में सौंपने का सिलसिला जारी है। विविधता में एकता और राष्ट्र के सामूहिक मानस का प्रतीक भारतीय रेलवे आने वाले समय में निजी हाथों का एक उपकरण होगा, जो जनता के हित की जगह मुनाफा की संस्कृति से संचालित होगा। पता नहीं यह राष्ट्रवाद का कौन सा अध्याय है जिसके तमाम हर्फों में अंध निजीकरण अपना अर्थ ग्रहण करता जा रहा है।
यहीं आकर स्पष्ट होता है कि राष्ट्रवाद का यह विशिष्ट स्वरूप दरअसल लोगों की मति को भरमा कर कारपोरेट राज का घोषणा पत्र जारी कर रहा है और बेहद चतुराई से इसके एक-एक लफ्ज़़ को हकीकत में बदल रहा है।


