विचार / लेख
नवीन अग्रवाल
कोरोना के कारण अर्थव्यवस्था परास्त और हताश है, आखिर इसका जिम्मेदार कौन है, सरकार या अफसर। सरकार को लगता है कि कोरोना सडक़ पर घूमने वाली बीमारी है, जिसे बेरिकेड्स लगाकर रोका जा सकता है। हालांकि कुछ लोग इससे भी सहमत मिलेंगे, दरअसल उनके पेट भरे हुए है। दो महीने तक लगे देशव्यापी लॉक डाउन ने लोगो ने देशभर मे तमाशा देख लिया, कुछ हासिल हुआ क्या। याद करिये उस समय का कोई दृश्य जब एक लाठीधारी पुलिस वाला किसी निरीह को बुरी तरह मार रहा था, क्या हुआ। नहीं मारता तो कोरोना और बढ़ जाता क्या, या उसने मारपीट करके दस पांच लाख लोगों को कोरोना होने से बचा लिया। याद करो वो दृश्य जब कुछ लोग पटरी पर थक कर सो गए थे और उनके ऊपर से ट्रेन गुजर गई, उनको सडक़ किनारे सोने दे दिया जाता तो कोरोना के कितने पेशेंट बढ़ जाते ? ऐसे अनगिनत दृश्य है जिन्हें याद किया जाये तो समझ आएगा कि ये सब कोरोना के नाम पर क्रूरता थी।
पुलिस सडक़ पर उठक-बैठक करा रही थी, हेलमेट नहीं पहनने पर चालान काट रही थी, इस सबसे कोरोना रुक गया क्या गलती केवल पुलिस की नहीं थी, सरकार और अधिकारी सब ये देख रहे थे। कोई जनता के साथ नही था । जिस समय सरकार को फ्रंट फुट में होना था वो कोरोना के डर से घर मे दुबकी पड़ी थी। श्रमिक स्पेशल ट्रेन के पैसे के लिए रेलवे विभाग अड़ा हुआ था, कितना पैसा कमा लिया रेलवे ने, नहीं कमाती तो क्या जीडीपी 2-4 परसेंट गिर जाती ? कितने ही लोग भूखे-प्यासे मर गए इन ट्रेनों में, क्या कोरोना उससे कंट्रोल में आ गया। दरअसल सरकार की आत्मा मर चुकी है।
इतना बुरा बर्ताव तो आजादी के बाद देश भर में एक साथ कभी नहीं हुआ, पर सरकार टस से मस नही हुई। सरकार के पास मुख्य रुप से कमी थी मास्क की, पीपीई किट की, सेनेटाईजर की, ये कमी किसने दूर किया ,ये कमी भी व्यापारियों ने ही पूरी की, जिसे डंडा मार कर पुलिस घर मे बैठने कह रही थी। क्या आपको याद पड़ता है कि किसी विधानसभा क्षेत्र में कोई विधायक मौजूद हो और जागरूकता या मदद की बात कर रहा हो, वैसे विधायक आपका क्या भला करेंगे जो इस कठिन समय मे निकलकर नहीं आए। ये तो सरकार के लिए कठिन परीक्षा का दौर था हर विधायक अपने अपने इलाके के प्रशासन के साथ खड़ा दिखना था। लेकिन पूरे देश ने पुलिस और प्रशासन का तांडव देखा, और चुने हुए जन प्रतिनिधि तमाशा देखते रहे क्योंकि उन्हें सिर्फ अपनी सेहत की चिंता थी।
देश भर में गिनेचुने जनप्रतिनिधि भी केवल फोटो खिंचाऊ मुद्रा में नजऱ आए। हकीकत यह थी कि पूरे कोरोना प्रबंधन में जनप्रतिनिधियों की कोई भूमिका ही नहीं थी। हकीकत यह है कि कोरोना तंत्र इस तरह डिज़ाइन किया गया कि जनप्रतिनिधि बाहर हो जाएं और निरंकुश नौकरशाही सब कुछ अपने हाथों में ले ले।दरअसल यह चुनौती लोकतंत्र के लिए है। आज का दौर तो निकल जायेगा,लेकिन भविष्य में जब मजबूत नौकरशाही होगी और कमज़ोर जनप्रतिनिधि होंगे तब क्या होगा?जब लॉक डाउन के एंट्री पास के लिए आज जिन अफसरों के सामने जनप्रतिनिधि लगभग गिड़गिड़ाने की मुद्रा में थे,भविष्य में भी वो नौकरशाह अपने आपको जनप्रतिनिधियों से ऊपर ही समझेंगे। यकीन मानिए नया वर्ल्ड आर्डर अब यही है। कोरोना प्रबंधन ने जनप्रतिधियों को, राजनीतिज्ञों को और अछूत बना दिया! जनता को लगता है कि माई-बाप कलेक्टर है या एसपी या वो अच्छा वाला पुलिस अंकल जो गाना गा कर लॉक डाउन में मन बहला रहा था।
लॉक डाउन में जब लाखों मजदूर सडक़ों पर थे तब जिस चीज़ की कमी थी वो थे जनप्रतिनिधि।शायद इसीलिए भी तब श्रमिकों को प्रबंधन का मानवीय चेहरा नहीं दिखा।जनप्रतिनिधि हमेशा जनहित में काम करता है ऐसा नहीं है, पर वो जानता है कि उसे लौट कर इस जनता के सामने जाना है। किसी अफसर को कभी भी जनता का सामना नहीं करना होगा। इस कोरोना प्रबंधन ने जनता और जन प्रतिनिधि के बीच की खाई भी और चौड़ी कर दी। यह है नया वल्र्ड आर्डर। तैयार रहिए- एक निरंकुश व्यवस्था आपका इंतजार कर रही है।
रेड ग्रीन और ऑरेंज जोन इसी में उलझ कर रह गया देश, समझ में नहीं आता था कब हमारा जिला हरा से लाल हो गया, मतलब कोरोना के नाम पर ऐसा तमाशा मचाया गया है कि दस बीस साल बाद जब इस पर किताब लिखी जाएगी तो कोरोना की चर्चा कम होगी, सरकार की चर्चा ज्यादा होगी। याद रखना वोट देने जाओ जब... आप दूध फल सब्जी के लिए कैसे भटके थे, किराया पटाने के लिए मकान मालिक से कितनी मिन्नत किए थे। कैसे पुलिस ने आपसे बात की थी, कोरोना तो चले जाएगा एक न एक दिन पर क्रूरता के इस दौर को हमेशा याद रखना ।


