विचार / लेख
-अशोक पांडे
हमेशा साड़ी पहनने वाली वह मशहूर अंग्रेज महिला बीस साल की उम्र से हर रोज डायरी लिख रही थी। सत्तर साल बाद उनकी दोस्त और मशहूर फ्रेंच लेखिका अनाइस निन ने उनसे कहा कि उन्हें एक किताब लिखनी चाहिए।
दो साल बाद यानी बयानबे साल की आयु में वे अपनी पहली किताब के साथ हाजिर थीं-‘आई शॉक माइसेल्फ’। किताब के रिलीज के बाद एक युवा पत्रकार ने उनकी लम्बी उम्र का राज पूछा तो उन्होंने जवाब दिया- ‘किताबें, चॉकलेट और जवान लडक़े!’ यह उनकी आखिरी किताब नहीं थी। इसके बाद उन्होंने तीन किताबें और लिखीं। निन्यानबे साल की आयु में उन्होंने अपनी आखिरी किताब लिखी- ‘थर्टी थर्ड वाइफ ऑफ अ महाराज : लव अफेयर इन इण्डिया’। इस किताब को पढऩे के बाद साडिय़ों के प्रति उनका प्रेम समझ में आता है।
बीट्राइस वुड शुरुआती बीसवीं शताब्दी के सबसे महत्वपूर्ण कलाकारों में थीं। अपनी विद्रोही और चमकीली मेधा को जिस तरह उन्होंने अपनी सिरेमिक कला में ढाला, कोई दूसरा फिर वैसा न कर सका।
मार्सेल ड्यूशैम्प और हेनरी रोश जैसे कलाकारों के साथ उनके लम्बे रोमांस चले। उन्होंने दो शादियां भी कीं जिनके बारे में उन्होंने अपनी पहली किताब में लिखा-
‘एक तरह से मेरी जिन्दगी ऊबडख़ाबड़ किस्म का अनुभव रही है। जिन दो आदमियों से मैंने शादी की उनसे कभी मोहब्बत नहीं की और जिनसे मोहब्बत की उनसे शादी नहीं की। पता नहीं लोग मुझे क्या कहेंगे – एक अच्छी भली लडक़ी जो बिगड़ गई या एक बिगड़ी हुई लडक़ी जो सुधर गई!’
दुनिया के तमाम बड़े म्यूजियमों में उनके सेरामिक्स स्थाई रूप से प्रदर्शित हैं। चमकदार रंगों वाली इन कलाकृतियों में एक ख़ास तरह की सनक और एन्द्रिकता नजर आती है। वे अपनी बेधडक़ कला के माध्यम से सामाजिक ढाँचे, राजनीतिक दीवालियेपन और लिंगभेद का मखौल उड़ाती चलती हैं। उनकी एक कृति में एक औरत ने एक आदमी को अपने सर के ऊपर इस तरह उठाया हुआ है जैसे वह उसे घुमाकर दूर फेंकने वाली हो। एक दूसरी कृति में पार्क की बेंच पर बैठी एक औरत को रिझाने में लगे आधा दर्जन पुरुष बौनों की तरह दिखाए गए हैं।
सान फ्रांसिस्को के एक अमीर परिवार में 3 मार्च 1893 को जन्मी जन्मी बीट्राइस वुड ने परिवार की इच्छा के खिलाफ फ्रांस जाकर अभिनय और कला की पढ़ाई की। वहीं उन्होंने छिपकर क्लाउड मॉने को अपने बगीचे में पेंट करता हुआ देखा और रूसी कम्पोजर इगोर स्ट्राविन्स्की के सनसनीखेज ऑपेरा ‘द राइट ऑफ़ स्प्रिंग’ का प्रीमियर भी।
पहला विश्वयुद्ध शुरू होने पर वे न्यूयॉर्क लौट आईं। उन दिनों संसार की कला पर दादावाद का प्रभाव था। लुइ अरागां, पॉल एलुआर, आंद्रे ब्रेतों और साल्वाडोर डाली के अलावा मार्सेल ड्यूशैम्प भी इस आन्दोलन से जुड़े थे। बीट्राइस उनके साथ नाटक करने लगी। और थोड़ी बहुत चित्रकारी भी।
फ्रांस में रहते हुए वे एक दफा हॉलैंड गई थीं। उस यात्रा में उन्होंने वहां की मशहूर सिरेमिक कला के स्मृतिचिन्ह के तौर पर छह प्लेटें खरीदी थीं। अमेरिका आकर उन्हें महसूस हुआ उनके पास एक मैचिंग टीपॉट भी होना चाहिए था। टीपॉट बाजार में तो मिलना नहीं था था सो उन्होंने हॉलीवुड हाईस्कूल में सेरामिक की क्लासेज में दाखिला ले लिया। उनकी मंशा इतनी सी थी थी कि सिरेमिक कला सीख कर वे अपने लिए एक टीपॉट बनाएंगी और बस। यह उनके जीवन का सबसे बड़ा मरहला साबित हुआ। उन्होंने अमेरिका में आ बसे ऑस्ट्रियाई सिरेमिक उस्तादों – ऑटो और गरट्रूड नैट्सलर से आगे सीखना जारी रखा। उसके बाद जो हुआ वह सिरेमिक कला का नया इतिहास था।
चालीस साल की आयु में हासिल किये गए इस नए फन के चलते उनकी कला में अलग तरह का निखार आया और दादावाद का आन्दोलन अचानक उनके चारों तरफ सीमित हो गया। कोई अचरज नहीं कि उन्हें ‘मामा ऑफ दादा’ कहा जाने लगा और जब वे सौ की हुईं उन पर इसी शीर्षक से एक डॉक्यूमेंट्री बनी।
बीट्राइस वुड ने अकूत धन कमाया और दुनिया भर के गरीब कलाकारों की मदद की। भारत की अनेक महिला कलाकारों से लगातार संपर्क में रह वे उनकी आर्थिक मदद करती रहीं।
भारत से उनका गहरा अनुराग मशहूर दार्शनिक जिद्दू कृष्णमूर्ति के चलते हुआ जिनसे वे गहरे प्रभावित थीं। एनी बेसेंट की थियोसोफिकल सोसायटी की भी वे आजीवन सदस्य थीं।
खब्ती नजर आने वाली यह जांबाज़ औरत अक्सर कहती थीं- ‘मैंने जिन्दगी भर गलतियाँ कीं। ये गलतियां उन कंकड़-पत्थरों जैसी थीं जिनसे आखिरकार एक बढिय़ा सडक़ बन जाती है।’
बीट्राइस वुड ने एक सौ पांच साल की उम्र पाई। अपनी पिछली बात को बढ़ाते हुए वे आगे कहती थीं-‘इतनी सारी गलतियां सिर्फ बिगड़ी हुई, बहादुर औरतें ही कर पाती हैं।’


