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सबकी मौत का दिन मुअय्यन है!
18-Aug-2025 10:47 PM
सबकी मौत का दिन मुअय्यन है!

-कनक तिवारी

लाश को खुद के खेत में गडऩे की हैसियत नहीं है। वर्ष 2025 की जनवरी में ही छत्तीसगढ़ के बस्तर के गांव छिंदवड़ा तहसील डबरा से पेचीदा, मर्मांतक और इंसानियत को तार-तारकर देने वाला एक मामला सुप्रीम कोर्ट में भी जाकर औंधे मुंह गिर पड़ा। हमारे संविधान को भी अब न्यायपालिका से शत-प्रतिशत उम्मीद नहीं होनी चाहिए। सुभाष बघेल नामक एक व्यक्ति जन्म से महार या महरा दलित जाति में पैदा होकर ईसाई धर्म में परिवर्तित हो गया था। वर्ष 1986-1987 से उसने पास्टर या पादरी का काम भी किया। लंबी बीमारी के कारण बघेल की मृत्यु 7 जनवरी 2025 को हो गई। बेटे और परिवार ने अपने ही गांव छिंदवड़ा में ईसाई प्रथा के मुताबिक पिता के षव को दफनाना चाहा। लेकिन गांव के अन्य व्यक्तियों के समूह द्वारा उन्मादित विरोध के कारण दफनाना नहीं हो सका। बेटे ने उसी दिन डबरा के थानेदार और टोकापाल के अनुविभागीय अधिकारी को लिखित शिकायत कर उनसे संरक्षण मांगा। कोई मदद नहीं मिली। तो उसने छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट में तत्काल रिट याचिका दायर की कि अपने पिता को गांव में कब्रिस्तान के अब तक की नियत जगह पर दफनाना चाहता है। वहीं उसके कुछ पूर्वजों को दफनाया जा चुका है।

छिदवड़ा तथा अन्य निकट ग्राम पंचायतों ने जवाब में लिखा कि उनके गांव में ईसाइयों को दफनाने के लिए कोई जगह पंचायत द्वारा पंचायत अधिनियम के तहत अधिसूचित नहीं की गई है। याचिकाकार ने कहा कि ग्र्राम पंचायत द्वारा वर्षों से उसी जगह कब्रिस्तान में ईसाई शवों को दफनाने की मौखिक मंजूरी दी जाती रही है। उसने कई पिछले उदाहरण और फोटोग्राफ भी पेश किए। जवाब में राज्य ने फिर कहा कि कभी भी पंचायत ने लिखित में ऐसी अनुमति नहीं दी है। आसपास के चार गांवों छिंदवड़ा, मुंगा, तीरथगढ़ और दरभा को मिलाकर छिंदवड़ा से बीस पच्चीस किलोमीटर दूर ग्राम करकापार में ईसाइयों के लिए निर्धारित कब्रिस्तान में शव को दफनाया जा सकता है। ज्यादा दिमागपच्ची नहीं करते हुए हाईकोर्ट ने बस इतने से ही संतुष्ट होकर याचिका खारिज कर दी। यह भी कह दिया शव छिंदवड़ा में ही दफनाने की कोशिश भी की जाएगी तो आम जनता में असंतोष और लोक व्यवस्था के भडक़ने की संभावना होगी। बल्कि सुझाव दे दिया कि शव को ग्राम करकापाल में ही दफनाना बेहतर होगा।

सरकार की ओर से अतिरिक्त पुलिस सुपरिंटेंडेंट ने शपथ पत्र में बताया कि छिंदवड़ा की कुल आबादी 6450 है। उनमें 6000 आदिवासी तथा 450 महरा जाति के दलित हैं। उनमें 350 हिन्दू महरा दलित हैं। केवल 100 लोग महरा ईसाई हैं। रमेश बघेल के दादा लखेश्वर बघेल और अन्य रिश्तेदार शांति बघेल को वहीं शव दफनाने की इजाजत दी गई थी क्योंकि वे ईसाई नहीं हिन्दू थे। हालांकि सरकार ने इसका कोई सबूत नहीं दिया। शपथ में कहा जन्म, मृत्यु, विवाह आदि कर्मकांड परंपराओं से चलते हैं। जिसने भी ये परंपराएं छोड़ दीं। उन्हें इनसे वंचित होना पड़ेगा। इसलिए भी हिन्दू से ईसाई बने व्यक्ति के शव को वहीं दफनाने की इजाजत नहीं मिल सकती। मृतक परिवार ने विकल्प नहीं होने पर षव को जगदलपुर के मेडिकल कॉलेज के सरकारी अस्पताल के शव गृह में भेज दिया।

सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस नागरत्ना ने फैसले में लिखा कि छत्तीसगढ़ पंचायत राज अधिनियम 1993 की धारा 49 (12) के अनुसार शवों, पशु शवों, पशुओं और अन्य घृणोत्पादक पदार्थों के (डिस्पोजल) के लिए स्थानों का रेगुलेशन पंचायतों को करना है। अधिनियम के तहत नियम 3 के मुताबिक किसी व्यक्ति की मृत्यु होने के 24 घंटे के अंदर उसके शव को गाडऩे, जलाने या अन्यथा डिस्पोजल करने के लिए संबंधित व्यक्तियों और ग्राम पंचायतों के अधिकारियों को कार्यवाही करनी होगी। नियम 5 के तहत ग्राम पंचायतों द्वारा सम्यक रूप से ग्राम में प्रशिक्षित, लिखित आदेश द्वारा अनुमोदित स्थान से भिन्न स्थान जो श्मशान घाट हो, या जो कब्रिस्तान हो, या सरकार द्वारा अवधारित हो, या शासकीय अभिलेखों में स्थान हो से भिन्न स्थान में शव को जलाकर, गाडक़र या उसे अन्यथा डिस्पोजल के लिए उपयोग में नहीं लाया जाएगा। पिछले वर्षों में जब भी कोई विवादित मृत्यु हुई है। बार-बार पुलिस को हस्तक्षेप करना पड़ा है। सरकार ने कहा कि यदि पहले ईसाई मृतकों के शव को दफनाने के लिए कोई मौखिक अनुमति दी भी गई होगी, तो उससे किसी मृतक के पक्ष मेंं कोई अधिकार पैदा नहीं होता। सरकार ने मृतक के शव को करकापाल के कब्रिस्तान तक ले जाने के लिए एम्बुलेन्स और न्यायिक सुरक्षा का प्रबंध करने का आश्वासन दिया।

बेटे रमेश बघेल ने छिंदवड़ा के पटवारी द्वारा बनाया गया एक नजरी नक्शा भी पेश किया क्योंकि गांव मेंं भूमि का सेटलमेन्ट नहीं हुआ है। उस नक्शे में ईसाईयों को शवों को दफनाने की व्यवस्था दर्शाई गई है। याचिकाकार के वकील कॉलिन गोंजाल्वीज ने दो टूक कहा कि संविधान में है कि रमेश बघेल पिता का शव अपने ही खेत में दफना सकता है। चतुर सुजान  सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने संवैधानिक बहस से बचते हुए केवल व्यावहारिक सुझाव दिया कि मृत्यु तिथि से 20 दिन हो चुके हैं।

इसलिए षव को करकापाल के शव गृह में ले जाकर दफनाने का आदेश दिया जाए। गोंसालवीज ने पटवारी द्वारा बनाए नक्शे का भी हवाला दिया कि उसी जगह पर ईसाईयों के शवों को दफनाया जाता रहा है। हिन्दुओं के लिए अलग अलग स्थान का निर्धारण किया जा चुका है। उन्हें कुछ कब्रों के फोटो तक पेश किए गए। 14 उन ईसाइयोंं के शपथ पत्र भी पेश किए गए जिनके रिश्तेदारों को भी उसी जगह दफनाया गया था। सरकार ने भी माना कि पहले 20 ईसाई व्यक्तियों को उसी जगह दफनाने की मौखिक इजाजत दी गई थी।

सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि मामले को अनावश्यक रूप से भडक़ाया जा रहा है। जस्टिस नागरत्ना ने कहा पिछले व्यवहार से साफ  नजर आता है कि ईसाई महरा समुदाय के षवों को दफनाने की अनुमति मिलती रही है। कोर्ट ने आपत्ति की नियम 3 के अनुसार शव को दफनाने का निराकण 24 घंटे में हो जाना चाहिए। लेकिन ग्राम पंचायतों और अधिकारियों की उपेक्षा के कारण मामले को उलझाया गया। ग्राम पंचायत ने कब्रिस्तान और श्मशान के संबंध में अधिसूचना प्रकाशित करने में चूक तो की है। खमियाजा दूसरा क्यों भुगते? करकापाल गांव में ही ईसाईयों को दफनाने को लेकर कोई विश्वसनीय दस्तावेज सरकार द्वारा पेश नहीं किया जा सका। कुल मिलाकर कोर्ट ने माना कि सरकार के तर्कों में कोई दम नहीं है। कोर्ट ने कहा हाईकोर्ट को यह देखना चाहिए था कि यदि रमेश बघेल द्वारा अपनी ही कृषि भूमि में पिता के शव को दफनाने की अनुमति मांगी गई। तो उस पर आपत्ति के बावजूद विचार क्योंं नहीं किया गया।

जस्टिस नागरत्ना ने अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक के षपथ पत्र पर कड़ी टिप्पणी की कि यदि कोई परंपरा से अलग हो जाता है। तो उसे षव को दफनाने का अधिकार नहीं मिलेगा। इससे तो सीधे सीधे अनुच्छेद 14 और 15 का उल्लंघन हुआ है। अचरज है एक जिम्मेदार पुलिस अधिकारी ने इस तरह की बेतुकी बात की। उन्होंने इस प्रकरण में संविधान के मकसद ‘धर्मनिरपेक्षता’ और बंधुत्व (स्नह्म्ड्डह्लद्गह्म्ठ्ठद्बह्ल4)  का भी अपमान हुआ लगता है। मृतक को सम्मानजनक ढंग से दफना दिया जाता, तो संवैधानिक मर्यादा में अनुकूल गरिमामय स्थिति हो सकती थी।

जस्टिस नागरत्ना समझदार, तर्कशील, विवेकशील जज और भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश ई. एस. वेेंकटरमैया की सुपुत्री हैं। उन्होंने शत-प्रतिशत संवैधानिक लेकिन व्यावहारिक फैसला भी दिया, जिससे पीडि़त परिवार की प्रतिष्ठा और मृतक को अंतिम रूप से दफनाना सम्मानजनक हो तथा गांव में किसी तरह की दुश्मनी भी नहीं पनपे। हालांकि उन्होंने दोयम दर्जे का विकल्प चुना। उन्होंने माना भी कि मृतक के परिवार के साथ संवैधानिक अन्याय हुआ है।

बेहतर होता कनिष्ठ सहयोगी जज सतीश चंद्र शर्मा फैसले को जस का तस कबूल कर लेते। तो बतंगड़ नहीं बनता। अचरज है जस्टिस षर्मा         जस्टिस नागरत्ना के समाधानकारक सुझाव से सहमत नहीं हो पाए। सुप्रीम कोर्ट को अनुच्छेद 142 में आदेश देने के असाधारण अधिकार हैं। जब लगे कि विषय में पूर्ण न्याय करना है। अन्यथा पूर्ण न्याय नहीं किया जा सकता। जस्टिस शर्मा का तर्क अचरज पैदा करता है और अटपटा भी लगता है।

उन्होंने माना कि किसी व्यक्ति को दफनाना मृतक व्यक्ति के भी मूल अधिकार में शामिल है। लेकिन दावा नहीं किया जा सकता कि उसे दफनाने का स्थान चुनने की भी आजादी है। तर्क किया कि हर मृतक क्यों न हो मूल अधिकार अनुच्छेद 21 में हैं। अनुच्छेद 21 कहता है किसी व्यक्ति को उसके प्राण या दैहिक स्वतंत्रता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही वंचित किया जाएगा अन्यथा नहीं। ग्राम पंचायत अंतिम क्रियाकर्म के लिए स्थान तय करने का अधिनियम में अधिकार रखती है।

 

जो उसने घोषित नहीं किया। ईसाई व्यक्ति के निधन के लिए ग्राम छिंदवड़ा में दफनाए जाने का स्थान ही नहीं, अन्य धर्मों के लिए भी तो घोषित नहीं किया।

एक हाइपोथीसिस जस्टिस शर्मा ने बना दी कि किसी भी व्यक्ति को अनुच्छेद 25 के तहत धार्मिक कार्यों के प्रबंध की स्वतंत्रता, अंत:करण की और धर्म के अबाध रूप से मानने, आचरण और प्रचार करने की स्वतंत्रता, लोक व्यवस्था संबंधी प्रावधानों के तहत ही होगी। ग्रामीणों के उत्तेजक विरोध के या शांति भंग होने तथा हिंसक गतिविधियों के भी हो जाने की संभावना को जज ने लोक व्यवस्था भंग होना क्यों समझा? लोक व्यवस्था को बनाए रखने की जवाबदेही जिस राज्य की है। उसने सुझा दिया है कि ग्राम करकापाल के ईसाई कब्रिस्तान में मृतक को दफनाया जा सकता है। शर्मा ने कहा कि इस तरह मृतक और उसके परिवार को अबाधित अधिकार नहीं मिलता कि उसे कहां दफनाया जाए। अचरज है जज ने कहा कि यह नहीं कहा जा सकता कि राज्य ने लोक व्यवस्था के भंग होने की आशंका का कोई बहाना बनाया है। छ: हजार लोगों के एक गांव में इसके पहले 30, 35 पुलिस वाले पहुंचकर लोक व्यवस्था सम्हाल लेते थे। तब क्या अजूबा हो जाता? लोक व्यवस्था की परिभाषा इतनी कामचलाऊ नहीं होती। जिस बस्तर में नक्सलियों के उन्मूलन के नाम पर हज़ारों लाखों पुलिसकर्मी मौजूद हैं, और कत्लेआम और हत्याएं सैकड़ों, हजारों में हो रही हैं, एक गांव के कुछ ग्रामीण संविधानिक प्रावधानों का विरोध करें तो लोकव्यवस्था भंग होने का खतरा मान लिया जाए।

दो जजों की बेंच में मतभेद हो गया। सुप्रीम कोर्ट की परंपरा है कि जो जज फैसला लिखे। साथी जज को अवलोकन के लिए भेजे। जस्टिस शर्मा की असहमति ने एक समाधानकारक फैसले में उलझन पैदा कर दी। 7 जनवरी से मृत व्यक्ति के शव को कब्रिस्तान के चयन के लिए बीस दिनों तक अस्पताल/मेडिकल कॉलेज की निगरानी में पड़ा रहना पड़ा। मृतक के साथ कैसा हादसा हुआ। अपमान हुआ। अन्याय हुआ।

मामला तीसरे जज के पास जाता। तो हफ्तों, महीनों भी लग सकते थे। शायद जस्टिस नागरत्ना को मन मसोसकर अपने साथी जज सतीषचंद्र षर्मा की बात को मानने में उदार होकर अपने फैसले के विरुद्ध व्यावहारिक दृष्टि अपनानी पड़ी। कानूनी पेचीदगियों से परे फैसला किया कि सुप्रीम कोर्ट अनुच्छेद 142 के अपने असाधारण क्षेत्राधिकार का उपयोग करेगा क्योंकि विषय के संबंध में पूर्ण न्याय करना चाहता है। केवल 100 क्रिश्चियन परिवार उस गांव में हैं। तो भी संविधान अंकगणित के आधार पर अन्याय नहीं कर सकता था। जस्टिस नागरत्ना ने अपने फैसले के अंत में राष्ट्रपिता गांधी को भी याद किया कि हमारा जीवन तो क्षणिक है। सौ बरस भी जिएं तो अनंत काल में उसका क्या महत्व। लेकिन यदि हम इंसानियत के समुद्र में डूब जाते हैं। तो हम उसकी गरिमा के साथ जीते हैं।

लोक व्यवस्था की आड़ में सांप्रदायिकता ने अपने पैर तो पसारे। अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक ने धार्मिकता की कमान शपथ पत्र में सम्हाली। एंबुलेंस और पुलिस की व्यवस्था जले में नमक छिडक़ने जैसी है। अनुच्छेद 14, 15, 25 तथा अनुच्छेद 21 में मनुष्य के अस्तित्व की गरिमा को ध्यान में रखते हुए जस्टिस नागरत्ना का फैसला लागू हो सकता था। हालांकि वह बस एक व्यावाहारिक हल ही था। यह प्रकरण ह्म्द्गश्चशह्म्ह्लड्डड्ढद्यद्ग लिखा गया है लेकिन एक उत्कृष्ट न्यायिक नजीर का उदाहण तो है ही नहीं। एक आदर्श फैसला वर्गों, जातियों और संप्रदायों के बीच एकता और सहिष्णुता की समझ की भावना को कायम कर सकता था। हालांकि सुप्रीम कोर्ट के जजों की नीयत और समझ नकारात्मक नहीं ही होगी। अचरज है 100 ईसाई और 6 हजार व्यक्ति छिंदवड़ा ग्राम में एक साथ रहते आ रहे हैं लेकिन उनमें से एक भी मृत व्यक्ति को वहां दफनाने पर परहेज़ है। यही तो 99 का भी फेर है।

अब मैं आपको संविधान निर्माण की सुरंग में ले चलता हूं। इसका खुलासा सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट की बेंचों में भी नहीं हुआ और न वकीलों ने ही यह मुद्दा उजागर किया। केन्द्र और राज्य सरकार को संसद और विधानसभाओं द्वारा कानून बनाने का अधिकार संविधान की सातवीं अनुसूची में है। सातवीं अनुसूची की राज्य सूची के क्रमांक 5 में राज्य सरकार पंचायतों का भी गठन कर सकती है जो मौजूदा मामले के लिए 1993 में किया गया माना जा रहा है।  

29 नवंबर 1948 को संविधान सभा के सदस्य एस. नागप्पा ने साफ -साफ  पूछा था कि मैं कहना चाहता हूं कि देश की अभागी संतानों के लिए क्या अलग-अलग कब्रिस्तान या श्मशान बनेंगे। या इस अनुच्छेद की भाषा में ये सभी बातें आ जाती हैं। डॉ. अंबेडकर को जवाब देना मुश्किल था कि कैसे अलग अलग धर्मों की सदियों से चली आ रही अलग अलग व्यवस्थाओं को संविधान के एक अनुच्छेद में शामिल कर लिया जाए। अंबेडकर ने दो टूक कहा मैं कहना चाहता हूं कि लोक समागम या पब्लिक रिसोर्ट शब्द के तहत श्मशान और कब्रिस्तान भी शामिल होंगे। यदि राज्य किसी कब्रिस्तान या श्मशान का रख-रखाव करता है। तो प्रत्येक व्यक्ति को यह अधिकार है कि वह अपने षरीर को वहां दफनाए या दाहकर्म कराए। यह देखने में सुप्रीम कोर्ट से चूक तो हो गई। नागप्पा की आपत्ति के कारण ही संविधान के अनुच्छेद 15 को इस तरह पढ़ा जाएगा कि राज्य किसी नागरिक से केवल धर्म, मूल, वंश, जाति लिंग, जन्मस्थान या इनमें से किसी के आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा जिनमें सार्वजनिक समागम के स्थानों का उपयोग शामिल है। उसे लेकर किसी भी व्यक्ति के खिलाफ  अयोग्यता, दायित्व, निर्बंंधन या शर्त के अधीन नहीं होगा। सार्वजनिक समागम या पब्लिक रिसोर्ट में जाहिर है कब्रिस्तान और श्मशान एक साथ शामिल हैं। लेकिन छत्ताीसगढ़ में पंचायत ने ऐसा अधिसूचित करने में साफ -साफ  लापरवाही की है। जिस पर जस्टिस नागरत्ना ने भी कड़ी टिप्पणी की है। इसी कारण सरकार को अधिकार नहीं है कि छिंदवड़ा गांव के श्मशान और कब्रिस्तान में रमेश बघेल के पिता को दफनाया नहीं जा सकता। यह बड़ी संवैधानिक चूक हुई। अनुभव सिन्हा की प्रसिद्ध फिल्म आर्टिकल 15 इसी तरह के विरोधों का स्पर्श करते हुए बनाई गई है।


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