विचार / लेख

आज मेरी गली के रुस्तम की बात!
13-Aug-2025 7:50 PM
आज मेरी गली के रुस्तम की बात!

-श्रुति व्यास
सन्नाटा और आसमान भारी और हवा नमी से लदी हुई। इन दिनों सुबह भी ठहरी सी होती है। न अखबार के हॉकर का इंतजार होता है और न दूधवाले की या ब्रेड-अंडा बेचने वाले की घंटी या टनटनाहट!  अब तो ब्लिंकिट के ईवी साईकिल की घर्राहट होती है। डिलीवरी बॉय उतरता है, हाथ में झूलता कागज का थैला-दूध, ब्रेड, अंडे जैसे सुबह के जरूरी सामान। वह दो कदम भी नहीं चला होता कि रुस्तम आ टपकता है! कहाँ से? जैसे परछाईं से निकला हो। अचानक झपट, तेज, गूँजती भौंक जो कॉलोनी की दीवारों से टकराकर लौटती हैं। ब्लिंकिट का डिलीवरी बॉय घबरा जाता है, थैले की पकड़ ढीली पडऩे लगती है। वह पीछे हटता है, हाथ हिलाकर रुस्तम को भगाने की कोशिश करता है, पर इससे कुत्ते की गुर्राहट और सख्त हो जाती है-अब और तेज भौंकने लगता है। लडक़ा जोखिम नहीं लेता-ग्राहक को फ़ोन करता है, सीढिय़ों पर सामान छोडऩे की बात कहता है, और अपनी ईवी पर जितनी जल्दी हो सके वापस लौट जाता है।

दिल्ली ही नहीं, देश रुस्तमों से भरा हुआ है। सालों पहले मैंने भी एक आवारा कुत्ते से दोस्ती की थी-उसे बिस्कुट खिलाए, कान के पीछे खुजलाया, पार्क में उसका इंतज़ार किया। उस साथ में एक सीधी-सादी ख़ुशी होती है। पर मैं डर भी जानती हूँ-जब पार्क में कुत्तों का कोई अनजाना झुंड रास्ता रोक ले, जब जॉगिंग याकि दौड़ में पीछे आए कुत्ते से पीछा छुड़ाने की जद्दोजहद होती है। तब रास्ता बदलना होता है, दूर से ही खतरा बूझकर, लंबा चक्कर लगा कर, कुछ गेट्स से बचकर रास्ता बनाना पड़ता है।

मेरी गली का रुस्तम हमेशा ऐसा नहीं था। कुछ महीने पहले वह हमारी कॉलोनी में आया—पतला, धूल-धूसरित, बड़ी बादामी आँखों वाला एक आवारा, हल्की-सी पूँछ हिलाता, इतना विनम्र कि किसी के साथ चुपचाप चल पडता था। फिर ‘डॉग लवर्स’ ने उसे नोटिस किया-कभी बिस्कुट, कभी बचे-खुचे खाने के टुकड़े, सिर पर हाथ फेरना, उसकी आज्ञाकारी प्रकृति पर दुलार। पर थाली खाली होते ही, प्यार के पल बीतते ही, उस कुत्ते को वहीं सडक पर लावारिश छोड़ दिया जाता।

कुछ समय बाद उसका एक घर का दरवाज़ा ठिकाना बन गया। वह वहीं सोने लगा, वहीं से दुनिया देखने लगा। और इसी ‘इलाके’ में, कहीं न कहीं, वह नरमदिल आवारा चौकन्ना चौकीदार बन गया—पहचाने चेहरों के प्रति वफ़ादार, अजनबियों के लिए आक्रामक। पड़ोसियों के लिए मुफ़्त सुरक्षा; दूसरों के लिए-एक साया, तेज़ दाँतों के साथ।

इस एक आवारा कुत्ते की कहानी को लाखों में गुणा कीजिए-आपको दिल्ली की हर गली, हर कोने में रूस्तम मिल जाएगे। गली के शेर। जब चाहे तब शौर मचाते हुए। दिल्ली अब वह महानगर है जहां यहां तो राजनीति का शौर है या आवारा कुत्तों की भौं-भौं है। और वैसे ही राजधानी की सडक़ें और अदालतें अब आवारा कुत्तों के भविष्य पर भी बँटी हुई हैं। शहर के कई हिस्सों में, कुत्ते ढांचे का हिस्सा बन गए हैं-चाय की दुकानों के नीचे लेटे, फलों की रेहडिय़ों के बीच से निकलते हुए। कुछ जगहों पर वे इलाकाई बैरिकेड हैं-जहाँ पैर रखना मतलब पीछा कराए बिना नहीं लौटना।

पिछले साल, एक कश्मीरी दोस्त पहली बार दिल्ली आया-साथ में ले गया एक अनचाही याद: ग़लत शॉर्टकट लेने के बाद घिरकर काटे जाने का सदमा। और यह सिफऱ् कुत्तों की बात नहीं—बंदर, गाय, लफ़ंगे, जेबकतरे, सभी से दिल्ली भरी पड़ी है। हमारी सडक़ें केवल अव्यवस्थित नहीं, असुरक्षित भी हो गई हैं। तभी मैं अक्सर सोचती हूँ—कितना बोझ एक शहर के नागरिक को सिफऱ् अपने ही रास्तों पर सुरक्षित चलने के लिए उठाना पडता है या उठाना चाहिए?

सो सोमवार को कुत्तों पर सुप्रीम कोर्ट का आदेश आया तो राहत थी तो सवाल भी? आदेश के मुताबिक क्या आठ हफ़्तों में सार्वजनिक जगहों से सभी आवारा कुत्तों को हटाना, नसबंदी और टीकाकरण करना, सीसीटीवी निगरानी वाले शेल्टर बनाना संभव है?  स्वभाविक है जो शहर बँट गया। कुत्तों ने जिनको काटा, दौड़ाया या डराया उनके लिए तो यह देर से मिला न्याय है। जबकि पशु-अधिकार समूहों के एक्टिविस्ट लोगों के लिए-यह नागरिक व्यवस्था के खोल में लिपटी एक क्रूरता है।

पीटा इंडिया जैसी संस्थाएँ कहती हैं कि कुत्तों का इस तरह विस्थापन अमानवीय ही नहीं, बेअसर भी है—कुत्ते लौट आएँगे या उनकी जगह दूसरे ले लेंगे, जब तक मूल कारणों पर काम नहीं होता: अनियंत्रित प्रजनन, फेंका हुआ खाद्य अपशिष्ट, अवैध ब्रीडर और अनियमित पालतू दुकानों पर लगाम। और सबसे बड़ी बात हाल के सालों में कुत्तों को राहु, केतु का पर्याय मान उनकों भक्तों द्वारा बिस्कुट, दूध, खाना खिलाने का धर्म-कर्म है।

मैं सोचती हूँ कि कुत्तों को हटाने का विरोध करने में कार्यकर्ताओं की आवाज तेज़ है लेकिन ज़्यादा शेल्टर बनाने की माँग पर लोग क्यों नहीं ज्यादा बोल रहे है? कुत्तों को गोद लेने, उन्हे घर में पालने के कार्यक्रमों के लिए, सुरक्षित स्थानों के लिए, जहाँ आवारा सार्वजनिक सुरक्षा को खतरा बने बिना रह सकें-इसके लिए उतनी ही मुखर मुहिम क्यों नहीं है? क्या सडक़ पर कुत्तों का रहना सचमुच एक अच्छे शेल्टर से ज़्यादा मानवीय है? और सबसे अहम-जब बच्चों को आवारा कुत्तों ने मार डाला, तब नैतिक आक्रोश कहाँ था?

पश्चिम के कई देशों में आवारा कुत्ता दुर्लभ है-क्योंकि वहाँ व्यवस्था नाम की एक प्रणाली है। माइक्रोचिप से कुत्तों के मालिकों का पता लगाया जाता है। शेल्टर होते हैं। नसबंदी होती है। अनक्लेम्ड कुत्तों को नया घर मिलता है-कुछ को इच्छामृत्यु दी जाती है। मतलब सडक़ कोई विकल्प नहीं। मगर भारत में तो, सडक़ ही वह स्थान, वह व्यवस्था है-जिसे कार्यकर्ता, डॉग लवर्स, मेनका गांधी जैसे राजनीतिक संरक्षक और वे लोग इसलिए पसंद करते है क्योंकि सभी तो बिना जि़म्मेदारी के मुफ्त सुरक्षा चाहते हैं। यह वफ़ादारी भी पालती है और खतरा भी। आपके गेट के बाहर बैठा कुत्ता उसे चोरों से बचा सकता है, पर दूधवाले से या आपके ही मेहमानों, राहगीरों को डराने, काटने का आंतकी भी हो सकता है।

हाँ, कुत्तों को दोष देना गलत है-समस्या तंत्र में है। पर जब खतरा रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा बन जाए, तो कार्रवाई ज़रूरी हो जाती है। अदालत आगे भी जा सकती थी-क्यों सिर्फ कुत्ते? क्यों नहीं बंदरों और गायों पर भी, जिनकी सडक़ पर मौजूदगी उतनी ही ख़तरनाक है, पर जो धार्मिक-राजनीतिक रूप से अछूते हैं? गौमाता है, उनके लिए गौशालाओं का धर्मादा है बावजूद वे सडकों पर (बारिस में तो खासकर) घूमती या बैठी रहती है। ऐसे ही नील गाय हो या बंदर। बंदरों के कैले खिलाकर तीर्थस्थान से लेकर खेत-खलिहान तक इनकी आबादी इतनी बढ़वा दी गई है कि वह दिन दूर नही है जब भारत का किसान खेती से तौबा कर कह बैठे कि अमेरिका से ही अनाज मंगा कर खा लो।

बहराहल, दिल्ली में यह देखना है कि आठ हफ़्तों में कुत्तों को हटाने और उनके विस्थापन का काम हो पाएगा या नहीं? हटाए गए कुत्ते भीड़भाड़ वाले शेल्टरों में बंद होंगे या कहीं और छोड़ दिए जाएँगे। पर खाली सडक़ खाली नहीं रहेगी-कोई और आ जाएगा। और यह रखने या मारने की बहस नहीं है। असली हल वही धीमा, अनाकर्षक काम है जिसे दिल्ली ने दशकों से टाला है-लगातार इनकी नसबंदी, माइक्रोचिप, ब्रीडर पर नियंत्रण, कचरे का प्रबंधन, परित्याग पर सज़ा, व्यस्त सडक़ों से दूर सुरक्षित फ़ीडिंग ज़ोन, और नकली, पाखंडी एक्टिविज़्म का अंत।

पता है भारत दुनिया का सबसे बड़ा रेबीज़ बोझ ढोता है-आधिकारिक तौर पर सालाना 5,700 मौतें, डब्ल्यूएचओ के अनुसार शायद 20,000। फिर भी, हम रुस्तम जैसे जीवों को अधर में छोड़ते रहते हैं—न पूरी तरह पालतू, न पूरी तरह जंगली, देखभाल भी और परित्याग भी।

जहाँ तक मेरी गली के रुस्तम की बात है—वह अपने पोस्ट पर खड़ा रहेगा, पूँछ तनी, आँखें चौकस। उसे न अदालत के आदेश का पता है, न याचिकाओं का। उसे बस पता है कि यह फुटपाथ उसका है, यह गली उसका इलाका। जब अफ़सर आएँगे, वह नहीं समझेगा। और जब उसकी जगह कोई और ले लेगा, चक्र फिर शुरू हो जाएगा।

क्योंकि आखिर में, समस्या रुस्तम नहीं है। हम हैं। और शायद असली आक्रोश सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर नहीं, बल्कि उस लंबे सिलसिले पर होना चाहिए-अदालतों से लेकर नेताओं तक, कार्यकर्ताओं से लेकर नगर निकायों तक—जिन्होंने इस गड़बड़ी को पनपने और सडऩे दिया। अगर हम सच में इन जानवरों की परवाह करते हैं, तो प्यार सडक़ पर खाना खिलाने पर ख़त्म नहीं होना चाहिए; इसका मतलब होना चाहिए एक ऐसा शहर बनाना—जहाँ बच्चा बिना डर पार्क में खेल सके, जॉगर सुबह बिना साए टटोलते दौड़ सके, और आवारा न तो खतरा बने, न हमारी उपेक्षा का शिकार। (नया इंडिया)


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