विचार / लेख

हताशा में बैठा व्यक्ति
03-Apr-2025 3:08 PM
हताशा में बैठा व्यक्ति

-विष्णु नागर

विनोद कुमार शुक्ल को भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलने पर व्यापक रूप से अनेक तरह की प्रतिक्रियाएं सामने आई हैं,जो स्वाभाविक भी है। इन्हीं दिनों विनोद जी के स्वर में यह कविता फेसबुक पर सुनी तो मेरी इस प्रिय कविता पर लिखने का मन हुआ:-

हताशा से एक व्यक्ति बैठ गया था

व्यक्ति को मैं नहीं जानता था

हताशा को जानता था

इसलिए मैं उस व्यक्ति के पास गया

मैंने हाथ बढ़ाया

मेरा हाथ पकडक़र वह खड़ा हुआ

मुझे वह नहीं जानता था

मेरे हाथ बढ़ाने को जानता था

हम दोनों साथ चले

दोनों एक दूसरे को नहीं जानते थे

साथ चलने को जानते थे।

विनोद कुमार शुक्ल की यह कविता मुझे बार -बार अपनी ओर खींचती है, याद आती है। मैं इसे हिंदी की श्रेष्ठ कविताओं में से एक मानता हूं। यांत्रिक दृष्टि से देखें तो विनोद जी की कविता में जिस व्यक्ति की हताशा की बात की जा रही है और जो उस हताश व्यक्ति की ओर मदद का हाथ बढ़ाकर उसे खड़ा करने में मदद देता है, दोनों अमूर्त हैं।न उनका कोई नाम है, न वर्ग है। न उस हताशा का कोई नाम है। वह हताशा किन कारणों से उपजी है, किसकी है, इसका कोई सीधा संकेत कविता में नहीं है।

फिर भी थोड़ा ध्यान से देखने- सोचने पर जो व्यक्ति हताशा में बैठ गया है और जो उसकी ओर मदद का हाथ बढ़ा रहा है वे दोनों निम्नमध्यवर्गीय हैं। वे हताशा से गुजरते हैं मगर साथ चलने का मूल्य जानते हैं। साथ चलने में उनका विश्वास कायम है। कविता यह बात अधिक शब्दों में कहे, कहती है। इन ग्यारह पंक्तियों में कवि ने जो कह दिया है और जिस सहजता से कह दिया है, कविता को कविता न बनाने के अंदाज़ में कह दिया है, वह मामूली कवि का काम नहीं? है। ऐसी कविता रचने के लिए कविता में ही नहीं, जीवन में भी मनुष्य होना जरूरी है।

इस कविता में कविता बनाने की चिंता प्राथमिक नहीं दिखती। यहां किसी अनोखे सत्य को पा लेने का छुपा या प्रकट दंभ भी नहीं है। यह कविता एक साधारण सत्य को उसकी साधारणता में पकडक़र उसे असाधारण रूप देती है। अनोखे शब्द संयम के साथ और उसका किसी तरह का दिखावा किये बगैर, उसका शोर मचाये बिना यह काम करती है।

साधारण शब्दों में यह कविता कहती है कि हताश व्यक्ति कौन है, वह किसी का परिचित है या अपरिचित, इसे मत देखो, उसकी हताशा को देखो, उसे पहचानो और उसके साथ खड़े होओ। तुम खुद अपनी हताशा के क्षणों में किसी का हाथ पाकर खड़े हुए हो तो तुम्हारे अंदर वह माद्दा होना चाहिए कि तुम दूसरों की हताशा को भी पहचान कर, उनकी तरफ मदद का हाथ बढ़ाओ। जीवन के इस मामूली सत्य की यह कविता है। यह किसी की तरफ मदद का हाथ बढ़ाने की कविता है। यह कविता फिर बताती है कि जीवन के बेहद मामूली तथ्यों -सत्यों पर कविता लिखी जा सकती है, लिखी जानी चाहिए।

यह नहीं कह सकते कि इस सहज-सरल मार्मिकता में धंसी इस कविता में किसी तरह की निर्मित नहीं है मगर इसकी खूबी यह है कि कविता ऊंगली पकडक़र यह नहीं बताती। यह अपनी सादगी बनाए रखती है। उसका सारा प्रयास उस सत्य की ओर ले जाना है, किसी काव्यात्मक तामझाम से पाठक को प्रभावित करना नहीं। कवि यह कविता लिखकर स्वयं अनुपस्थित हो जाना चाहता है। अपने को ओट कर लेना चाहता है। इसके विपरीत कुंवर नारायण आदि की कविताओं में अतिरिक्त श्रम की बनावट साफ नजर आती है। वह कविता को कम, कवि को अधिक प्रकाशित करती हुई लगती है।

इन ग्यारह पंक्तियों में हर दो पंक्ति के बाद कवि ने पाठक के लिए स्पेस छोड़ा है ताकि वह उस स्पेस को अपने अनुभवजगत से भरे,उस स्थिति में स्वयं डूबे, जबकि आज अधिकांश कविता पाठक पर कुछ नहीं छोड़ती, जबकि कविता ही नहीं बल्कि किसी भी तरह की,किसी भी विधा में की गई रचना का बुनियादी काम अपने पाठक या श्रोता पर भरोसा करना है क्योंकि वह अंतत: उसके लिए है, उसकी है। जो कला अपने पाठक या श्रोता पर विश्वास नहीं करती, वह कला होने के मानक पूरे नहीं करती।


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