राजपथ - जनपथ
जंगल में प्रमोशन
आईएफएस अफसर एसएस बजाज को 6 माह का एक्सटेंशन मिल गया है। वो लघु वनोपज संघ में एडिशनल एमडी के पद पर यथावत काम करते रहेंगे। वैसे तो बजाज जून में ही रिटायर हो गए थे, लेकिन उनका एक्सटेंशन ऑर्डर निकलने में विलंब हुआ। बजाज पीसीसीएफ हैं, और एडिशनल एमडी के पद को पीसीसीएफ के समकक्ष घोषित किया गया।
बजाज को एक्सटेंशन मिलने से जयसिंह मस्के पीसीसीएफ बनने से रह गए। वो अब सितंबर में हेड ऑफ फॉरेस्ट फोर्स राकेश चतुर्वेदी के रिटायर होने के बाद ही पीसीसीएफ हो पाएंगे। चतुर्वेदी के रिटायर होने के बाद वन विभाग में एक बड़ा फेरबदल होगा। ऐसे में पीसीसीएफ स्तर के तमाम अफसरों को इधर से उधर किया जा सकता है। फिर भी पीसीसीएफ (प्रशासन) कौन होगा, इसको लेकर ही अभी अटकलें लगाई जा रही है। चर्चा है कि जो भी प्रशासन संभालेगा, उनका चुनावी अंकगणित में फिट बैठना जरूरी है। देखना है आगे क्या होता है।
पहली बार तिरंगा देखने वाले लोग...
बस्तर के कई इलाके ऐसे हैं जहां राष्ट्रीय पर्वों पर तिरंगा नहीं फहराया जाता। माओवादी इन स्थानों पर काला झंडा फहराकर स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस का विरोध करते हैं। छह साल पहले सन् 2016 में सामाजिक कार्यकर्ता सोनी सोरी ने ऐसे इलाकों में पहुंचने के लिए दंतेवाड़ा से गोमपाड़ तक करीब 180 किलोमीटर की तिरंगा यात्रा की थी। उन्होंने तब के आईजीपी एसआरपी कल्लुरी को चुनौती दी थी कि वे आदिवासियों के हिमायती हैं तो गोमपाड़ पहुंचकर तिरंगा फहरायें। सोरी ने यात्रा के दौरान जगह-जगह कहा कि ऐसा ठीक नहीं कि आप सोनी सोरी का समर्थन करें और तिरंगा फहराने से मना करें। उनकी तिरंगा यात्रा पहले रोकने की कोशिश की गई, फिर उनकी यात्रा को सुरक्षा मुहैया कराई गई, जो उन्होंने मांगी नहीं थी। आजादी के 75 साल होने के बावजूद बस्तर के अनेक गांव अब भी तिरंगे से अछूते हैं। इस बार हर घर तिरंगा का अभियान चलाया जा रहा है। शहर, शांत इलाकों में तिरंगा बांटना और फहराना तो आसान है पर क्या इस अभियान का हिस्सा बस्तर के इन दूर-दराजों के लोग बनेंगे? बस्तर में तैनात सीआरपीएफ ने यह बीड़ा इस बार उठाया है। वे धुर नक्सल प्रभावित इलाकों में घुस रहे हैं। ग्रामीणों की छोटी-छोटी सभाएं ले रहे हैं। तिरंगा और आजादी के महत्व पर उनसे बात कर रहे हैं और तिरंगा भी बांट रहे हैं। 14 अगस्त तक यह लक्ष्य रखा गया था कि कम से कम ऐसे गांवों तक तो पहुंचा जाए, जो थानों और कैंप से 8-10 किलोमीटर के दायरे में हैं। ये जवान अपना अनुभव बता रहे हैं कि कई गांवों में तो लोगों ने पहली बार तिरंगा देखा। वे यह भी नहीं जानते थे कि तिरंगा क्या है। ग्रामीण इसे पाकर खुश भी हुए और इसे अपने घरों में तुरंत फहराने के लिए भी तैयार हो गए।
अध्यक्ष और पुनिया का बयान
कांग्रेस में संगठन चुनाव चल रहा है। इस कड़ी में प्रदेश अध्यक्ष का औपचारिक निर्वाचन अक्टूबर में होगा। चुनाव से पहले ही प्रदेश प्रभारी पीएल पुनिया के उस बयान की काफी चर्चा हो रही है, जिसमें उन्होंने कह दिया कि प्रदेश अध्यक्ष नहीं बदले जाएंगे। पुनिया के बयान से मोहन मरकाम के विरोधियों को झटका लगा है, जो यह मानकर चल रहे थे कि मरकाम की जगह नए अध्यक्ष की नियुक्ति हो सकती है। हालांकि विरोधियों ने अभी आस नहीं छोड़ी है। लेकिन मरकाम-समर्थक तो राहत की सांस ले रहे हैं। देखना है आगे क्या होता है।
चेहरे पर मायूसी झलक रही थी
अरूण साव रायपुर पहुंचे, तो भाजपा के तमाम छोटे-बड़े नेता स्वागत सत्कार के लिए एयरपोर्ट पहुंचे थे। नए अध्यक्ष के स्वागत के लिए कार्यकर्ताओं ने पलक-पावड़े बिछा दिए। स्वागतकर्ताओं में नेता प्रतिपक्ष धरमलाल कौशिक भी थे। वैसे तो कौशिक हर पल साव के साथ थे, लेकिन उनके चेहरे पर मायूसी साफ झलक रही थी।
चर्चा है कि राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने उन्हें बता दिया है कि उनकी जगह किसी और को नेता प्रतिपक्ष बनाया जाएगा। ऐसे में उनका मायूस दिखना स्वाभाविक था। भाजपा के मीडिया सेल ने अरूण साव के साथ बैठे धरम कौशिक की बहुत सारी तस्वीरें जारी की। लेकिन एक में भी वो हंसते-मुस्कुराते नहीं दिख रहे हैं। ऐसी ही एक तस्वीर एक भाजपा कार्यकर्ता ने फेसबुक पर पोस्ट करते हुए लिखा कि वो किनारे देखो... फूफाजी मुंंह फुलाए खड़े हैं।
अफसरों से भाजपाई परेशान
सरकार के कई पूर्व, और वर्तमान अफसर विधानसभा चुनाव लडऩे की तैयारी कर रहे हैं। गोविंदराम चुरेंद्र को सरगुजा कमिश्नर के पद से हटाने के पीछे भी एक प्रमुख वजह यही रही है। चुरेंद्र से परे पूर्व जनसंपर्क संचालक सुखदेव कोरेटी भी काफी सक्रिय दिख रहे हैं। कोरेटी तो विधिवत भाजपा में शामिल हो चुके हैं, और वो अरूण साव के स्वागत के लिए एकात्म परिसर में मौजूद थे। चुरेंद्र, कोरैटी हो या पूर्व सहकारिता अफसर पीआर नाईक, इन सभी की नजर डौंडी-लोहारा सीट पर है। यहां पिछले दो चुनाव से भाजपा को हार का सामना करना पड़ रहा है। लिहाजा, अफसर यहां काफी सक्रिय हैं। सरकारी सेवा में इतना कुछ बना लिया है कि उन्हें खर्च की कोई ज्यादा चिंता नहीं है। ये अलग बात है कि अफसरों की सक्रियता से स्थानीय भाजपा के लोग परेशान हैं।
दखलंदाजी नहीं मजबूरी...
कांग्रेस की तिरंगा यात्रा हर विधानसभा क्षेत्र में 75 किलोमीटर की दूरी तय करेगी। विधायक या हारे हुए विधायक प्रत्याशी-जिन्हें पार्टी के लोग सम्मान से छाया विधायक कहते हैं, वे संगठन के साथ मिलकर इसका रूट चार्ट भी बना रहे हैं। कोई राजनीतिक यात्रा निकले और भीड़ न हो तो दस तरह के सवाल खड़े होते हैं। खासकर ऐसे विधानसभा क्षेत्र जो दूरस्थ इलाकों में हैं। आपस में दो गांव दूर-दूर हैं। इन दिनों बारिश के कारण नदी-नालों में पानी है। सडक़ों की हालत तो पैदल चलने के लायक भी कई जगह पर नहीं है। ऐसी स्थिति में क्या किया जाए? मरवाही विधानसभा क्षेत्र के विधायक डॉ. केके ध्रुव ने इसका हल यह निकाला है कि उन्होंने मरवाही की जगह बगल के कोटा विधानसभा क्षेत्र का रूट चार्ट तैयार किया है। मरवाही अब तक अपने आप में गांव सरीखा ही है। कांग्रेस ने जीतने के बाद इसे नगर पंचायत बनाने की घोषणा की थी। इसके पहले यह ग्राम पंचायत ही था। मरवाही के अनेक गांवों तक आज भी आसानी से पहुंचा नहीं जा सकता। कोटा विधानसभा क्षेत्र में तिरंगा यात्रा निकालने का लाभ यह है कि एक तो यहां सडक़, पुल-पुलिया कुछ अच्छी स्थिति में हैं। साथ चलने के लिए कार्यकर्ता भी आसानी से मिल रहे हैं। यह क्षेत्र वैसे भई कांग्रेस का नहीं, छत्तीसगढ़ जनता कांग्रेस की विधायक डॉ. रेणु जोगी का है। अब विरोधी पार्टी आरोप लगा रहे हैं कि डॉ. ध्रुव अपने क्षेत्र के लोगों को विकास और वादों से संबंधित जवाब देने से बचने के लिए कोटा क्षेत्र में तिरंगा यात्रा निकाल रहे हैं।
झंडे की एक फोटो पर बहस...
जिस तरह भारतीय संसद भवन के ऊपर बनाए गए विशाल और विकराल राजचिन्ह को लेकर यह विवाद चल रहा है कि उसके शेर असली अशोक स्तंभ के शेरों से अधिक हिंसक बनाए गए हैं क्या, ठीक उसी तरह आज जगह-जगह यह विवाद चल रहा है कि देश भर में चलाए जा रहे तिरंगा अभियान के झंडे सही बने हैं या गलत? सरकार डाकघरों से झंडे बेच रही है, और सोशल मीडिया पर जब बहुत से लोगों ने यह लिखा कि ये झंडे गलत बने हुए हैं, तो इस अखबार ने भी काउंटर से एक झंडा खरीदकर मंगवाया। इसे छांटकर खराब वाला नहीं खरीदा गया था, जो मिला था वही लिया गया, और इसमें अशोक चक्र बीच में होने के बजाय एक किनारे पर था, जो कि झंडा नियमों के बहुत ही खिलाफ है। अब देश के एक प्रमुख उद्योगपति, और ट्विटर पर भारी सक्रिय आनंद महिन्द्रा ने अपनी एक फोटो पोस्ट की है जिसमें मुम्बई की पोस्ट मास्टर जनरल जाकर उन्हें तिरंगा भेंट कर रही हैं। अगर यह तस्वीर झंडे को सही बतला रही है, तो इसमें केसरिया रंग हरे के मुकाबले करीब डेढ़ गुना चौड़ा दिख रहा है। हो सकता है कि कैमरे के एंगल की वजह से भी तस्वीर ऐसी आई हो, लेकिन तुरंत ही सैकड़ों लोगों ने आनंद महिन्द्रा की इस फोटो पर उन्हें झंडा कानून बताना शुरू कर दिया, झंडे के आकार का अनुपात भी गलत होने की बात गिनाई। लोगों ने कहा कि झंडे का असली आकार आयताकार होता है, जो कि इस झंडे में उस अनुपात में नहीं दिख रहा है। जागरूक लोगों ने संविधान सभा की झंडा-बहस तक को पोस्ट कर दिया, और इस झंडे को राष्ट्रीय प्रतीक के साथ खिलवाड़ बताया गया।
सीतानदी में बाघ हैं भी या नहीं?
उदंती सीतानदी के मैनपुर में पिछले दिनों अतर्राष्ट्रीय बाघ दिवस मनाया गया था। सीतानदी क्षेत्र में बाघ हैं या नहीं, इस पर कई बार सवाल उठाए जा चुके हैं। अब एक संस्था प्रकृति एवं संस्कृति रिसर्च सोसाइटी ने दावा किया है कि यहां बाघ ही नहीं है। इसके बावजूद बीते 12 वर्षों से करीब 40 करोड़ रुपये बाघ संरक्षण के नाम पर फूंक दिए गए। संस्था ने कई तथ्यों के साथ प्रधानमंत्री ही नहीं, सीजेआई को भी शिकायत भेजी है। इसमें बताया गया है कि बाघ अभयारण्य के बाहर गरियाबंद जिले में और ओडिशा से सोनाबेड़ा अभयारण्य में है, पर सीतानदी में जिस इलाके को टाइगर रिजर्व घोषित किया गया है, उसमें तो एक भी नहीं।
बाघ संरक्षण के नाम पर जब भारी बजट और संसाधन खर्च किए जाते हैं तो ऐसी शिकायतों की जांच जरूर करनी चाहिए। बहुत सालों से अचानकमार अभयारण्य को लेकर भी यही कहा जाता है कि यहां बांधवगढ़ और कान्हा नेशनल पार्क से बाघ विचरण करने जरूर आते हैं, पर बाघों का यह स्थायी ठिकाना नहीं।
प्रकृति के सफेद सफाई कर्मी...
दुनिया भर में गिद्धों के विलुप्त होने पर चिंता बढ़ रही है। इसे प्रकृति का स्वाभाविक सफाई कर्मी माना जाता है। शव और मृत पशु इनका आहार होता है। आम तौर पर ये काले रंग के होते हैं। सफेद गिद्ध का दिखना दुर्लभ है। यह तस्वीर अचानकमार अभयारण्य के समीप कोटा की है। माना जाता है कि ये सफेद गिद्ध इजिप्त से प्रवास कर यहां पहुंचते हैं। इनका नाम ही इजिप्शियन वल्चर है।
एक और कोचिंग चलाने का मौका
राज्य प्रशासनिक सेवा के विभिन्न पदों पर भर्ती परीक्षा लेने वाला छत्तीसगढ़ लोक सेवा आयोग अब भृत्य के लिए भी एग्ज़ाम लेने जा रहा है। सबसे कम बेरोजगारी दर वाले अपने प्रदेश में हालत यह है कि करीब 90 पदों पर भर्ती होनी है और इसके लिए 2 लाख से ज्यादा आवेदन आ चुके हैं। समझा जा सकता है कि भृत्य जैसे चतुर्थ श्रेणी पद के लिए भी कितनी कठिन परीक्षा का सामना करना पड़ेगा। जगह-जगह अलग-अलग परीक्षाओं के लिए कोचिंग सेंटर्स खुले हुए हैं। अब जिन कोचिंग संचालकों के पास बड़े पदों के लिए जानकार शिक्षक नहीं हैं, उनके लिए एक नया रास्ता खुला है। वे भृत्य परीक्षा के लिए कोचिंग देना शुरू कर सकते हैं। इधर निजी प्रकाशकों ने भी मौका नहीं गंवाया है। उनकी किताबें बाजार में उतर चुकी हैं।
तिरंगा दफ्तर में ही बंद...
हर घर तिरंगा फहराने की अपील को केंद्र सरकार ने वैसे तो शासकीय कार्यक्रम घोषित कर रखा है। पर भाजपा-कांग्रेस दोनों ही दल इसके सियासी फायदे को भी देख रहे हैं। छत्तीसगढ़ में अमृत महोत्सव पर एक सप्ताह का कांग्रेस ने पदयात्रा सहित अन्य कार्यक्रम तय कर रखे हैं तो भाजपा भी 13 अगस्त से 15 अगस्त तक घरों में फहराने के लिए तिरंगा लोगों के बीच जाकर बांट रही है। रायपुर में विधायक व पूर्व मंत्री बृजमोहन अग्रवाल ने लोगों को तिरंगा वितरित करने के साथ-साथ करीब 200 जरूरतमंद लोगों को गैस सिलेंडर, रेगुलेटर और चूल्हा नि:शुल्क वितरित किया। पर जब वे तिरंगा अभियान की तैयारी देखने बिलासपुर पहुंचे तो वहां की ढीली तैयारी को देखकर नाराज हो गए। उन्होंने पाया कि अब तक दो तीन सौ तिरंगे ही वितरित हो पाए हैं, बाकी कार्यालय में ही रखे हुए हैं। अग्रवाल ने संगठन के पदाधिकारियों की खूब खबर ली और मंच से ही नाराजगी जताई। जिला अध्यक्ष सफाई देने की कोशिश कर रहे थे पर स्थिति की नजाकत को देखते हुए बाकी लोगों ने उनको चुप करा दिया। यह एक उदाहरण है कि राजधानी से बाहर भाजपा कार्यकर्ताओं में पहले जैसा जोश दिखाई ही नहीं दे रहा है। शायद नए प्रदेश अध्यक्ष के एक्शन में आने के बाद यह खालीपन भरे।
जेल वालों ने अच्छे से मनाया त्यौहार..
स्कूल, कॉलेज, बाजार, बस-स्टैंड, रेलवे स्टेशन, सब्जी मार्केट, शराब दुकान सब जगह कोविड से पहले की तरह भीड़ दिखाई दे रही है। कोविड प्रोटोकाल का पालन करने का निर्देश अब भी अस्तित्व में है, पर पालन कहीं नहीं हो रहा है। इधर लगातार तीसरे साल जेल में राखी पहनाने की इजाजत बंदियों की बहनों को नहीं मिली। बीते दो वर्षों में कोविड-19 का संक्रमण फैलने की चिंता में यही निर्णय लिया गया था। तब संक्रमण दर अधिक था। जेल में भी कई कैदी बीमार हुए, एक दो मौतें भी हो गई थीं। पर इस समय संक्रमण का फैलाव बहुत कम है। राखी लेकर जेल के दरवाजे पहुंची महिलाओं से गेट पर राखियां जमा करा ली गई। वे घर से लाई गई मिठाई भी देना चाहती थीं, उसकी इजाजत नहीं मिली। जेल के कैंटीन की मिठाई दे सकीं। वे मायूस लौटीं। जेल जहां वैसे भी बैरकों में तय से ज्यादा कैदियों को भरकर रखा गया है, यदि बहनों को रक्षाबंधन मनाने का मौका मिल जाता तो क्या बुरा होता? कोविड को देखते हुए कुछ अतिरिक्त सावधानी, सोशल डिस्टेंस, मास्क आदि की अनिवार्यता रखी जा सकती थी। 24-48 घंटे पुरानी टेस्ट रिपोर्ट मांग ली जाती, लेकिन ऐसा नहीं किया गया। मामला कैदियों का था, इसलिये उनके समर्थन में भी किसी ने बात करने की जरूरत महसूस नहीं की। इस फैसले से कैदियों का कोविड से कितना बचाव हुआ कह नहीं सकते लेकिन जेलों के अधिकारी कर्मचारी इंतजाम करने की मेहनत से जरूर बच गए।
बारिश के बाद की सडक़..
रायगढ़ से धरमजयगढ़ जाने वाली स्टेट सडक़ वर्षों से खराब है। इसकी मरम्मत वर्षों से चल रही है, पर हालत नहीं सुधरी। इस बारिश में सडक़ की ऐसी दुर्दशा हो गई है कि गाडिय़ां मार्ग बदलकर कुनकुरी, रांची की ओर जा रही हैं। लोगों को यह जानने का हक जरूर होना चाहिए कि जब वे रोड टैक्स, टोल टैक्स, पेट्रोल डीजल में टैक्स दे रहे हैं तो फिर सडक़ क्यों जर्जर है?
विदाई की यह तारीख चुनी किसने?
भारतीय जनता पार्टी में बड़े संगठनात्मक बदलाव की पिछले 6 माह से चल रही चर्चा पर अरुण साव की प्रदेश अध्यक्ष पद पर नियुक्ति के साथ ही विराम लग गया लेकिन इस फेरबदल की तारीख को कांग्रेस मुद्दा बना लेगी, इसका अंदाजा शायद संगठन में ऊपर बैठे लोगों को नहीं था। वरना नियुक्ति का दिन कुछ आगे-पीछे जरूर कर दिया जाता। हालांकि भाजपा की तरफ से आदिवासी समाज से राष्ट्रपति, राज्यपाल आदि प्रतिनिधित्व देने का उदाहरण रखकर मैनेज करने की कोशिश की जा रही है, पर पार्टी के कई नेता, विशेषकर आदिवासी वर्ग के नेता मान रहे हैं कि घोषणा कुछ ठहरकर या फिर कुछ पहले होनी थी। सन् 2018 में भाजपा को अनुसूचित जनजाति सीटों पर कांग्रेस से भारी शिकस्त मिली थी। बस्तर, जशपुर और सरगुजा-सब जगह मिलाकर कुल 2 सीट ही उनके पास रह गईं। अब विपक्ष में रहते हुए दोनों महत्वपूर्ण पद प्रदेशाध्यक्ष और नेता प्रतिपक्ष पिछड़ा वर्ग के पास आ गए हैं। केंद्रीय राज्य मंत्री रेणुका सिंह के अलावा आदिवासी प्रतिनिधित्व छूट गया है। भाजपा को अपनी खोई हुई आदिवासी सीटों को वापस लेना है तो इस वर्ग से कुछ और नाम आगे लाने होंगे। एक चर्चा नेता प्रतिपक्ष पद में फेरबदल की हो रही है। यह चर्चा इसलिये भी है क्योंकि साव और धरमलाल कौशिक दोनों ही बिलासपुर से हैं। लेकिन एक दूसरी चर्चा यह भी चलने लगी है कि केंद्र में केबिनेट स्तर का एक पद और किसी आदिवासी नेता को दिया जा सकता है। यह काम जल्दी नहीं किया गया तो कांग्रेस बार-बार 9 अगस्त की तारीख को याद दिलाती रहेगी।
कॉमनवेल्थ गेम्स में हम कहां?
कॉमनवेल्थ गेम्स की पदक तालिका देखते हैं तो भारत चौथे नंबर पर है। आस्ट्रेलिया, इंग्लैंड, कनाडा पहले दूसरे और तीसरे स्थान पर हैं, जो भारत के मुकाबले काफी कम आबादी वाले देश हैं। भारत की राज्यवार सूची पर नजर डालें तो सबसे ऊपर हरियाणा फिर पंजाब का नाम आता है। दिल्ली, झारखंड, महाराष्ट्र से भी पदक जीतने वाले खिलाड़ी हैं। छत्तीसगढ़ से छोटे राज्य तेलंगाना, केरल, मणिपुर, उत्तराखंड, केंद्र शासित चंडीगढ़ जैसे राज्यों से भी कॉमनवेल्थ गेम्स में प्रतिनिधित्व करने वाले प्रतियोगियों ने मेडल हासिल किए। छत्तीसगढ़ का इस सूची में नाम ही नहीं है, क्योंकि किसी को यहां से जाने का मौका ही नहीं मिला। छत्तीसगढ़ में खेल प्रतिभाओं को तराशने का काम बहुत पीछे है। हाल ही में अनेक पर्वतारोहियों ने ऊंची चोटियों पर तिरंगा फहराया है, पर यह एथेलेटिक्स नहीं है। एक समय था जब हॉकी खिलाड़ी क्लाडियस को ओलंपिक में खेलने का मौका मिला था, वह भी हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद की टीम में। अचानकमार, बस्तर, जशपुर में कई खिलाड़ी हैं जो कुश्ती, तीरंदाजी, वालीबॉल, फुटबॉल में अपनी श्रेष्ठता साबित कर चुके हैं। फिर भी राज्य में ओलंपिक, एशियाड या कॉमनवेल्थ का लक्ष्य लेकर खिलाडिय़ों पर मेहनत नहीं की जा रही है।
बागों में बहार है...
सन् 2020-21 में देश के 31 राज्यों में 415.97 लाख पौधे रोपे गए, इनमें से 336.95 लाख पौधे जीवित हैं। पौधारोपण और पौधों को सुरक्षित रखने के मामले में सबसे आगे बिहार है जहां 24.21 लाख पौधे रोपे गए और सब सुरक्षित हैं। दूसरे नंबर पर कर्नाटक है, जहां 2.7 लाख पौधे लगाए गए, यहां भी 99 प्रतिशत पौधे सुरक्षित हैं। तीसरे नंबर पर हमारा छत्तीसगढ़ है, जहां 31.74 लाख रोपे गए पौधों में से 30.47 लाख सुरक्षित हैं। ये प्रतिपूरक पौधे हैं जो सरकारी योजनाओं के कारण काटे गए पेड़ों के बदले लगाए जाते हैं। केंद्रीय वन, पर्यावरण एवं जलवायु मंत्रालय ने राज्यसभा के बीते सत्र में एक सवाल के जवाब में ये सब जानकारी दी है। छत्तीसगढ़ में नेशलन हाईवे, एसईसीएल, निजी कोयला खदानों, पावर प्लांट्स के लिए काटे जाने वाले पेड़ों के बदले नियम के अनुसार 10 गुना पेड़ होने चाहिए। पर्यावरण को लेकर चिंतित लोगों का कहना है कि सरकारी और निजी उपक्रम विकास के नाम पर छत्तीसगढ़ की हरियाली खत्म कर रहे हैं। पौधे लगाए भी जाते हैं, तो नष्ट हो जाते हैं। जीवित पेड़ों की संख्या बहुत कम है। ऐसे में संसद में दिया गया जवाब धरातल पर कितना सच है, इस पर सवाल उठ सकते हैं।
सबसे सुंदर राखी..
कोरबा जिले की प्राथमिक शाला गढक़टरा के बच्चों ने अपने हाथों से राखियां बनाई है। स्कूल में एक दूसरे को बांधेंगे, टीचर्स को भी पहनाएंगे और घर में भी। बच्चों की इस मेहनत का महत्व इसलिए भी है क्योंकि यह सिर्फ 34 बच्चों और दो शिक्षकों वाला पहाड़ी इलाके का स्कूल है, जहां कोई अधिकारी यह जानने के लिए नहीं पहुंचता कि वहां पढ़ाई हो भी रही है या नहीं। पर ये बच्चे न केवल पढ़ रहे हैं, बल्कि अतिरिक्त समय देकर अपना कौशल भी निखार रहे हैं।
नियुक्ति से ज्यादा हटाने की चर्चा
आखिरकार बिलासपुर सांसद अरूण साव को प्रदेश भाजपा की कमान सौंप दी गई। विष्णुदेव साय का हटना तो तय था, लेकिन उन्हें हटाने के लिए जो दिन चुना गया वह पार्टी के लोगों को झटका देने जैसा साबित हुआ। विश्व आदिवासी दिवस के मौके पर आदिवासी प्रदेश अध्यक्ष को हटाने पर पार्टी के भीतर नाराजगी देखी गई।
देश-प्रदेश में भाजपा में कोई बड़ी नियुक्तियां होती है, अथवा किसी राज्य में पार्टी-गठबंधन की सरकार बनती हैं, तो कम से कम 8-10 छोटे-बड़े नेता ऐसे हैं जो पार्टी दफ्तर एकात्म परिसर में जाकर मिठाई बांटकर खुशियां मनाते हैं। मगर अरूण साव की नियुक्ति पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। पार्टी के नेताओं ने खामोशी ओढ़ ली थी। और जब सीएम भूपेश बघेल की प्रतिक्रिया आई, तब कहीं जाकर भाजपा नेता सक्रिय हुए। इसके बाद पूर्व सीएम रमन सिंह, और अजय चंद्राकर ने ट्विटर पर अरूण साव को बधाई दी।
आदिवासी दिवस पर प्रदेश में कई जगहों पर आदिवासी समाज की रैली निकल रही थी। तकरीबन सभी जगहों पर साय को हटाने की चर्चा होती रही। सुनते हैं कि आदिवासी नेताओं-कार्यकर्ताओं की नाराजगी को भांपते हुए भाजपा के रणनीतिकारों ने डैमेज कंट्रोल की कोशिश शुरू की, और सोशल मीडिया में खबर चलवाई कि विष्णुदेव साय को अनुसूचित जनजाति आयोग में अहम जिम्मेदारी दी जा रही है।
पार्टी के कुछ आदिवासी नेता दबी जुबान में सवाल उठा रहे हैं कि यदि ऐसा है, तो आदिवासी दिवस के दिन नियुक्ति आदेश जारी होना चाहिए था। इससे एक अच्छा संदेश भी जाता। पिछले 22 साल में भाजपा दर्जनभर अध्यक्ष बदल चुकी है, ज्यादातर तो अपना कार्यकाल भी पूरा नहीं कर पाए। मगर इस बार साव की नियुक्ति से ज्यादा साय के हटाने की चर्चा हो रही है।
निष्ठा का ईनाम जरूर मिलेगा
चर्चा है कि आदिवासी नेता विष्णुदेव साय को कोई अहम जिम्मेदारी दी जा सकती है। वजह यह है कि वो हाईकमान के पसंदीदा हैं। साय को हाईकमान ने संकेत भी दिए हैं कि उनका ध्यान रखा जाएगा।
बहुत कम लोगों को जानकारी है कि लोकसभा चुनाव में प्रदेश के सभी सांसदों की टिकट काटकर नए चेहरों को टिकट दी गई थी, उस पर सबसे पहले रजामंदी विष्णुदेव साय ने दी थी। हुआ यूं कि प्रत्याशियों के नाम पर चर्चा के लिए अमित शाह के घर में बैठक हुई थी। इसमें रमन सिंह, तत्कालीन प्रदेश प्रभारी डॉ. अनिल जैन, सौदान सिंह, पवन साय, और केंद्रीय मंत्री के रूप में विष्णुदेव साय भी थे।
सुनते हैं कि अमित शाह ने बैठक में दिल्ली के नगर निगम और एक-दो अन्य जगहों पर सारी टिकट बदलने के प्रयोग के बारे में बताया था, और कहा कि इसके अच्छे नतीजे आए थे। चंूकि विधानसभा चुनाव में छत्तीसगढ़ में पार्टी का प्रदर्शन बहुत खराब रहा है। ऐसे में निवर्तमान सांसदों की जगह नए चेहरों को उतरना फायदेमंद रहेगा, बाकी सब तो चुप रहे, लेकिन विष्णुदेव साय ने कहा कि भाई साहब अच्छा विचार है नए चेहरों को मौका दिया जा सकता है।
ये जानते हुए कि इस फ़ॉर्मूले से साय की खुद की टिकट कट सकती है, अमित शाह के रूख पर सहमति जताई और आखिरकार साय समेत सभी सांसदों की टिकट काटकर नए को मौका दिया गया। नतीजे अच्छे आए। विष्णुदेव साय हाईकमान की नजर में आ गए। और फिर उन्हें प्रदेश अध्यक्ष का दायित्व सौंपा गया। ये अलग बात है कि डेढ़ साल के भीतर उन्हें हटा दिया गया। मगर उन्हें पार्टी के प्रति निष्ठा का ईनाम जरूर मिलेगा, ऐसा पार्टी के प्रमुख लोगों का मानना है।
उफनती नदी को चीरते जवान...
बस्तर के कई हिस्सों में लगातार बारिश के बीच सुरक्षा बल के जवानों के सामने भी मोर्चे पर तैनात रहने के लिए चुनौती सामने आ रही है। तेज बहाव के बीच उन्हें नदी कैसे पार करनी है, यह उन्होंने सीखा है। इस तस्वीर में दिखाई दे रहा है कि उनका प्रशिक्षण काम आ रहा है।
पूरक छात्रों की टेंशन बढ़ी
रविशंकर विश्वविद्यालय रायपुर ने पूरक परीक्षाओं का टाइम टेबल जारी कर दिया है, जो 25 अगस्त से शुरू हो रही है। मुख्य परीक्षा ऑनलाइन रखी गई थी, जिसमें प्रश्न हल करने के लिए कई तरह की रियायत मिली। कुछ छात्रों को इसके बावजूद सफलता नहीं मिली। पर अब संकट यह है कि पूरक परीक्षाएं ऑनलाइन की जगह ऑफलाइन होगी। यानि परीक्षा केंद्रों में बैठकर जवाब लिखना होगा। विश्वविद्यालय प्रबंधन का कहना है कि कोविड-19 का वैसा असर इस समय नहीं है जैसा बीते 3 साल की परीक्षाओं के दौरान था, जो ऑनलाइन ली गईं। पूरक छात्रों की संख्या भी कम होती है। इसलिये कोविड प्रोटोकॉल का पालन करते हुए ऑफलाइन एग्ज़ाम लेने में कोई दिक्कत नहीं है। मगर, दिक्कत तो परीक्षा देने वाले छात्र महसूस कर रहे हैं। जवाब देखने के लिए किताबें उलटने-पलटने का मौका नहीं मिलेगा। ऑफलाइन तरीका तो उस ऑनलाइन से भी कठिन ही होगा, जिसमें वे पास होने के लायक नंबर नहीं ला पाए थे। पास होने के लिए कड़ी मेहनत करनी होगी।
अफसर गुप्ता प्रकरण से सीख लें
पूर्व कोयला सचिव एचसी गुप्ता को कोयला घोटाले के एक अन्य प्रकरण में दिल्ली की अदालत ने तीन साल कैद की सजा सुना दी। दो अन्य प्रकरण में पहले ही उन्हें सजा हो चुकी है। आप सोच रहे होंगे कि गुप्ता का जिक्र यहां क्यों किया जा रहा है? दरअसल, गुप्ता के कार्यकाल में छत्तीसगढ़ में कई उद्योगों को कोयला खदान आबंटित किया गया था, लेकिन बाद में सभी निरस्त भी हो गए।
गुप्ता को यूपीए सरकार में सबसे ईमानदार, और अच्छी साख वाला अफसर माना जाता रहा है। और जब उनके खिलाफ सीबीआई ने प्रकरण भी दर्ज किए, तो भी आईएएस अफसरों ने उनका साथ नहीं छोड़ा। सब जानते थे कि पीएमओ के दबाव में आकर उन्होंने खदान आबंटित किए हैं। उनका अपना कोई एजेंडा नहीं था। यूपी कैडर के अफसर गुप्ता का पूरा कैरियर बेदाग रहा है। बावजूद उन्हें प्रक्रिया त्रुटि के चलते खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ा। छत्तीसगढ़ के तत्कालीन सीएस शिवराज सिंह, और कई अन्य अफसरों ने गुप्ता के पक्ष में गवाही भी दी थी, लेकिन वह भी कोई काम नहीं आ पाई।
बताते हैं कि गुप्ता को अदालती लड़ाई लडऩे के लिए उनके साथी आईएएस अफसरों ने व्यक्तिगत तौर पर एक से पांच हजार रुपए एसोसिएशन में जमा किए थे, और गुप्ता को वकील की फीस के लिए दिए गए। छत्तीसगढ़ के कई अफसरों ने भी एसोसिएशन के माध्यम से उन्हें सहयोग किया। गुप्ता ऑटो से रोजाना कोर्ट जाते थे, और घंटों कटघरे में खड़ा रहते थे। जांच एजेंसी सीबीआई के अफसरों को भी उनसे व्यक्तिगत सहानुभूति रही, लेकिन वो कोई मदद नहीं कर पाए। नियम कायदों को ताक पर रखकर सरकारी धन-योजनाओं के जरिए गुलछर्रे उड़ा रहे अफसरों को गुप्ता प्रकरण से सीख लेनी चाहिए। क्योंकि उन्हें कम से कम गुप्ता जैसी सहानुभूति तो नहीं मिल सकती है।
घोषणा होते-होते रह गई
प्रदेश के सरकारी अफसर-कर्मी डीए बढ़ाने की मांग पर अड़े हुए हैं। वो पांच दिन के सामूहिक अवकाश पर गए थे, और अब बेमुद्दत हड़ताल पर जाने का ऐलान कर चुके हैं। ऐसा नहीं है कि दाऊजी को सरकारी सेवकों की चिंता नहीं है। वे 9 से 10 फीसदी डीए एक साथ बढ़ाने पर विचार कर रहे थे कि उत्साही कर्मचारी नेताओं ने अपने मांगों के समर्थन में राजनीतिक दलों के नेताओं को मंच पर बुलाना शुरू कर दिया।
विष्णुदेव साय कर्मचारियों के साथ धरने पर बैठे, और आंदोलन को पार्टी की तरफ से समर्थन की घोषणा कर दी। सामूहिक अवकाश के बाद कर्मचारी नेता दाऊजी से मिलने की कोशिश की, तो उन्हें समय नहीं मिला। सुनते हैं कि दाऊजी कर्मचारी नेताओं के विपक्ष के नेताओं के साथ मंच साझा करने से नाराज हैं। यही वजह है कि डीए की घोषणा होते-होते रह गई।
किसानों ने की फसल बीमा से तौबा....
कुछ साल पहले यह खबर राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियों में थी, जिसमें बताया गया था कि धमतरी जिले के एक ढाई एकड़ खेत के मालिक को फसल सूखने पर 2.83 रुपए का मुआवजा मिला। इसी जिले में कुछ और किसानों को 4 या 5 रुपये ही मुआवजा मिला। बाद में भी यही सिलसिला चलता रहा। बिलासपुर जिले के मस्तूरी के किसान को तो सिर्फ 90 पैसे का भुगतान किया गया। छत्तीसगढ़ के दूसरे कुछ जिलों से भी ऐसी खबरें आईं।
जनवरी 2016 में केंद्र ने बड़े जोर-शोर से प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना की घोषणा की थी और इसे ऐतिहासिक कदम बताया था। प्राय: सभी लघु और मध्यम श्रेणी के किसान सहकारी बैंकों से खाद-बीज के लिए कर्ज लेकर ही खेती कर पाते हैं। इन सभी के लिए फसल बीमा योजना में पंजीयन कराना जरूरी था। प्रीमियम राशि का 5 प्रतिशत कर्ज लेते समय ही काट लेने का नियम बनाया गया था।
लोगों ने आंकड़े निकालकर बताया कि बीमा कंपनियां कैसे मालामाल हो गईं और किसान किस तरह लुट गया। चौतरफा विरोध का नतीजा यह निकला इस साल बीमा कराने की अनिवार्यता खत्म कर दी गई है। इसका असर भी देखने को मिल रहा है। बीमा कराने में किसान रुचि नहीं ले रहे हैं। पहले 15 जुलाई फिर 31 जुलाई बीमा की आखिरी तारीख तय की गई। अब 16 अगस्त तक बढ़ा दी गई है। अभी अंतिम आंकड़े नहीं आए हैं पर हर जिले से खबर आ रही है कि बीमा कराने वाले किसानों की संख्या कम हो रही है। यानि किसान मानकर चल रहे हैं कि बीमा कराने से उनका फायदा नहीं है।
नए बस-स्टैंड में अवैध वसूली
रायपुर के भाठागांव में नया बस स्टैंड शुरू होने के बाद एक नई व्यवस्था शुरू हो गई, जो शायद प्रदेश के दूसरे और किसी बस-स्टैंड में नहीं है। यहां गेट के पहले बैरियर लगाकर पार्किंग के नाम पर राशि वसूली शुरू हो गई है। मालूम हुआ कि अधिकारिक रूप से नगर-निगम ने ऐसा कोई नियम नहीं बनाया है, किसी को ठेका नहीं दिया गया है, पर वसूली जारी है। क्या नगर निगम के अधिकारी और जनता के प्रतिनिधि इस बात को नहीं जानते? पिछले दिनों रायपुर पुलिस ने बस स्टैंड में काम करने वाले एजेंटों को बुलाया। यात्रियों की ओर से लगातार आ रही शिकायत पर चर्चा करते हुए उनसे कहा कि वे असामाजिक तत्वों से काम न लें और उनसे दुर्व्यवहार न करें। इस समस्या पर बात नहीं हुई। पुलिस के पास भी क्या इसकी खबर नहीं है कि टिकट कटाने या परिजनों, दोस्तों को बस-स्टैंड छोडऩे के लिए जा रहे लोगों की जेब काटी जा रही है?
क्या खाक डूब मरेंगे...
निर्माण कार्यों में कई बार ठेकेदार जानबूझकर देरी करते हैं। बहुत से अफसर भी ऐसा चाहते हैं। अलग-अलग कारण बताकर देरी को जायज ठहरा दिया जाता है, पर योजना की लागत बढ़ जाती है। मुंगेली जिले के कलेक्टर राहुल देव लोरमी दौरे पर गए तो देखा कि वहां प्रस्तावित स्वामी आत्मानंद स्कूल भवन का काम पूरा ही नहीं हुआ है। चार छह महीने के भीतर इसके पूरा होने की संभावना भी नहीं है, जबकि स्कूल का सत्र शुरू हो चुका है। देरी को लेकर उन्होंने आरईएस के अधिकारियों और ठेकेदारों पर जमकर नाराजगी जताई और कहा- समय पर काम पूरा नहीं कर पाने वालों को तो डूबकर मर जाना चाहिए। बात अफसरों और ठेकेदार की कितनी बुरी लगी होगी, यह तो पता नहीं पर उनके लौटने के बाद भी काम ने गति नहीं पकड़ी है।
एडीजी पहुंचे भाजपा मुख्यालय
विधानसभा चुनाव में 14 महीने बाकी रह गए हैं। ऐसे में प्रमुख दलों के नेताओं को बिना मांगे सलाह मिलने लगी है। सरकार से असंतुष्ट कई अफसर भी अब सलाहकार की भूमिका में आ गए हैं। पिछले दिनों एक एडीजी रैंक के आईपीएस अफसर दिल्ली में भाजपा मुख्यालय में भी देखे गए।
सुनते हैं कि आईपीएस अफसर की पार्टी की महिला नेत्री के साथ करीब पौन घंटे चर्चा हुई है। महिला नेत्री छत्तीसगढ़ में पार्टी संगठन का काम भी देख रही हैं। ऐसे में दोनों के बीच मुलाकात की काफी चर्चा है। कहा जा रहा है कि आईपीएस अफसर जिलेवार राजनीतिक समीकरण की जानकारी जुटाकर ले गए थे। मास्क, और अन्य सावधानी बरतने के बाद भी इस गोपनीय बैठक की चर्चा कई लोगों तक पहुंच ही गई।
मरकाम जमीन विवाद में
प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष मोहन मरकाम देर सवेर जमीन खरीदी-बिक्री विवादों से घिर सकते हैं। मरकाम के खिलाफ उनके अपने विधानसभा क्षेत्र कोंडागांव में निर्माणाधीन कॉलोनी की जमीन में गलत तरीके से बेचने का आरोप लगा है। कुछ लोगों ने इसकी शिकायत कलेक्टर से की है।
मरकाम की कॉलोनी के जमीन लफड़े में सीधी भूमिका है अथवा नहीं, यह तो अब तक साफ नहीं हो पाया है, लेकिन शिकायतकर्ताओं का दावा है कि मरकाम ने जमीन गैर आदिवासियों को बेची है, और इसके लिए जरूरी परमिशन भी नहीं ली है। सुनते हैं कि कलेक्टर ने शिकायत के बाद जानकारी बुलाई है। पार्टी के कुछ लोगों का कहना है कि यदि थोड़ी बहुत भी अनियमितता पाई गई, तो मरकाम की कांग्रेस अध्यक्ष पद पर दोबारा ताजपोशी में दिक्कत आ सकती है। फिलहाल तो कलेक्टर की रिपोर्ट का इंतजार किया जा रहा है।
प्रचार की लालसा सिर्फ नेताओं में नहीं...
किसी आईएएस के करियर का सबसे सुनहरा दौर होता है, जब वह कलेक्टर का ओहदा संभालते हैं। वैसे ही जैसे आईपीएस के लिए पुलिस कप्तान का होना सबसे बढिय़ा वक्त होता है। इसके बाद तो प्रमोशन मिलता रहता है, वेतन बढ़ता रहता है। मुख्य सचिव या डीजीपी तक पहुंचने का अवसर तो बहुत कम ही लोगों को मिल पाता है। राजनीति में आने के लिए जब राजधानी कलेक्टर रहते हुए ओपी चौधरी ने इस्तीफा दिया, तब कहा था कि कलेक्टर के बाद करने के लिए रह क्या जाता है? कई आईएएस जब कलेक्टरी संभाल रहे होते हैं तो जिले के राजा की तरह बर्ताव करते हैं। फरियादी बड़े उम्मीद के साथ उनके पास पहुंचते हैं। पूरे जिले के अधिकारी उनके नियंत्रण में होते हैं। कभी निरीक्षण तो कभी बैठक के दौरान इनको ऐसी डांट पिलाते हैं कि उनको पसीना आने लगता है।
हाल के दिनों में तो कई ऐसी घटनाएं हुई हैं जब कलेक्टर पर विधायकों और जनप्रतिनिधियों ने सीधे आरोप लगाया कि वे फोन नहीं उठाते, सरकारी कार्यक्रमों में बुलाते नहीं। बताया हुआ काम तो खैर करते ही नहीं। कलेक्टर अपनी छवि बनाने के लिए पर्यावरण, स्वास्थ्य, आवागमन जैसी आम जनता के सरोकार वाली कोई योजना हाथ में लेते हैं और अपनी पूरी ताकत झोंक देते हैं। शोर ऐसा होता है कि यह काम इतिहास में दर्ज किया जाएगा। बाद में पता चलता है कि इस तरह के कैंपेन के लिए किस-किस तरह से सरकारी फंड फूंक दिए गए। प्रदेश में पौधारोपण के दो बड़े अभियान चले थे। एक कवर्धा में, उसके कुछ साल बाद बिलासपुर में। लाखों पौधे रोपे गए। जिले के मुखिया के आदेश पर सारा महकमा अभियान सफल बनाने में लग गया। सामाजिक संगठन जुड़ गए। रोज तस्वीरें, खूब वाहवाही। बिलासपुर में तो डीएमएफ की अच्छी-खासी रकम डुबा दी गई। आज उन पौधों के ठूंठ भी नहीं दिखते।
इन अफसरों की चाहत सिर्फ जिले के नागरिकों तक अपनी इमेज बनाने की नहीं होती, राजधानी तक भी सीमित नहीं होती- बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चा में आना चाहते हैं। कई सुने-अनसुने अंतर्राष्ट्रीय संगठनों से उन्हें अवार्ड, सर्टिफिकेट मिलता रहता है। जनता से संपर्क चाहे जैसा हो पर प्रचार का रोग कई बार ऊपर बैठे लोगों की नजर में चढ़ जाता है।
एक आईएएस को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मिला कोई अवार्ड लेने के लिए विदेश यात्रा करनी थी। तब के सीएम डॉ. रमन सिंह ने उन्हें जाने की अनुमति यह कहते हुए नहीं दी कि अफसर तो सरकार के लिए काम करते हैं, खुद के लिए नहीं, अच्छा काम किया है तो शाबाशी भी हम ही देंगे। बीते साल एक कलेक्टर की फोटो रोजाना, अखबार और सोशल मीडिया प्लेटफार्म्स पर दिखने लगे। खबरों में कहीं भी सरकार या सीएम का जिक्र ही नहीं। मंत्रालय में उनकी रिपोर्ट पहुंची। फोन पर ही फटकार लगाई गई, फिर एक नेता भी रायपुर से पहुंचे। अगले ही दिन से साहब ने खुद को सुधार लिया। फिर जब खबरें बनने लगीं, उनसे पता चलने लगा कि कार्यक्रम सरकार की योजनाओं का हिस्सा है, कलेक्टर सिर्फ उसे लागू करा रहे हैं।
उपरोक्त घटनाएं इसलिए जेहन में आईं क्योंकि सरगुजा जिले के जनसंपर्क अधिकारियों ने वहां के कलेक्टर कुंदन कुमार पर दुर्व्यवहार का आरोप लगाया है। अधिकारी संघ ने इसके समर्थन में जो बयान जारी किया है उसमें एक आरोप यह भी है कि कलेक्टर अपना प्रचार-प्रसार करने के लिए दबाव बनाते हैं, जबकि हमारा काम सरकारी योजना और मुख्यमंत्री की घोषणाओं पर खबरें लिखना है। कलेक्टर और जनसंपर्क अधिकारियों के बीच टकराव की खबर हाल के दिनों में पहली बार सामने आई है, क्योंकि खबर बनाने वाले लोग खुद खबर बनने से परहेज करते हैं। कलेक्टर का कहना है कि उन्होंने दुव्र्यवहार नहीं किया, सामान्य समझाइश दी है। देखें, इस विवाद का हल कैसे निकलेगा?
17 साल में डॉन के रसूख में कमी नहीं
सूबे के ताकतवर अपराधी में गिने जाने वाले कुख्यात डॉन तपन सरकार के रसूख में 17 साल बाद भी कमी नहीं आई है। महादेव महार हत्याकांड में सजायाफ्ता तपन पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट से जमानत मिलने के बाद जैसे ही जेल की चारदीवारी से बाहर आया, उसका स्वागत चुनावी फतह करने वाले नेताओं की तरह किया गया। बताते हैं कि जेल से बाहर निकलते ही तपन ने मां बम्लेश्वरी का दर्शन करने की इच्छा जाहिर की। जैसे ही तपन गैंग के बड़े-छोटे बदमाशों को पता चला कि डॉन मां के दर के लिए रवाना हो रहे हैं, उसका काफिले लंबा होता चला गया। बम्लेश्वरी दर्शन के बाद डोंगरगढ़ के नामचीन बदमाशों ने तपन की खातिरदारी में कोई कसर नहीं छोड़ी। सुनते हैं कि तपन ने राजधानी रायपुर के बाहर एक ढाबे पर राज्यभर के अपराधियों के साथ डिनर भी किया। तपन से मिलने के लिए बस्तर से लेकर सरगुजा और भिलाई तथा बिलासपुर के गुर्गों और सरगनाओं ने रात्रि भोज का लुत्फ उठाया। तपन से मेल-मुलाकात करने के लिए ढ़ाबे के बाहर दर्जनों लक्जरी कारें देखकर ढ़ाबा मालिक भी हैरान दिखा।
तपन सरकार को कुछ अरसा पहले मुठभेड़ में मारने की कथित पुलिस योजना काफी सुर्खियों में रही। उसकी पत्नी ने बकायदा हाईकोर्ट में तपन को फर्जी मुठभेड़ में मारने का डर दिखाते एक याचिका भी दायर की। इसके बाद से तपन को करीब डेढ़ दशक तक छत्तीसगढ़ के लगभग सभी बड़े केंद्रीय जेल में हर छह माह के अंतराल में शिफ्ट किया जाता रहा। जमानत पर बाहर निकलते ही तपन ने अपनी पुरानी धाक को खुलकर जाहिर किया है। तपन का राज्य की आपराधिक दुनिया के अलावा पड़ोसी राज्य झारखंड और उड़ीसा में भी नेटवर्क है। दुर्ग-भिलाई में उसके गुर्गों ने तपन के इशारे पर कई कारोबारियों के पसीने छुड़ा दिए। कहा जाता है कि जेल में रहते हुए भी इसकी वसूली तगड़ी रही। अब बाहर आए तपन का रुआब बरकरार दिखा है।
नो बैग डे की रचनात्मकता
सरकारी स्कूलों में शनिवार के दिन को नो बैग डे घोषित कर बच्चों के भीतर छिपी हुई प्रतिभा को सामने लाने का अच्छा मौका दिया गया है। कोरबा जिले की सुदूर पहाड़ी में बसे गढक़टरा के प्राथमिक स्कूल में श्रीकांत सिंह सहायक शिक्षक हैं। वे पहले ही बच्चों को अनेक तरह की क्रियेटिव गतिविधियों से जोड़ चुके हैं। पहले पढ़ाई के बाद बचने वाले समय में ऐसा किया जाता था, पर अब शनिवार का पूरा वक्त भी उनके साथ है। इसी कड़ी में उन्होंने जींस के कपड़ों का गमला तैयार किया है। पहले एक जींस खुद अपने घर से लेकर आए, फिर बच्चों ने भी घर गांव में ढूंढकर कई इस्तेमाल की जा चुकी जींस ले आए। सबमें मिट्टी भरी गई और पौधे लगा दिए गए। इन पौधों की देखभाल बच्चे खुद ही करते हैं। जींस से गमले तैयार करने का लाभ यह है कि पौधों को अच्छी खुराक मिल जाती है। यहां की कुछ जमीन बंजर, पथरीली भी है। पानी भी बेकार नहीं जाता। स्कूल प्रांगण पर काफी हरियाली हो चुकी है। अब गांव के दूसरे हिस्सों में, सडक़ों के किनारे भी पौधे रोपे जा रहे हैं। स्कूल परिसर की जमीन पर ही बच्चे मध्यान्ह भोजन के लिए जरूरी कुछ साग-सब्जियां भी उगा रहे हैं। पौधों के साथ बच्चों की आत्मीयता बढ़े, इसके लिए वे इनके समीप ही बैठकर दोपहर का भोजन करते हैं। मतलब यह है कि यदि शनिवार के नो बैग डे का सही तरीके से इस्तेमाल किया जाए तो यह बहुत उपयोगी है। वरना, कई स्कूलों में तो इसे छुट्टी का एक और दिन मान लिया गया है। बच्चों को तराशने में शिक्षकों की रुचि कितनी है, इस पर बात निर्भर है।
जालसाजों की पहली पसंद अफसर
महीने, दो महीने में एक दो केस छत्तीसगढ़ से ही आने लगे हैं। जालसाज फेसबुक या वाट्सएप पर किसी आईएएस, आईपीएस के नाम का इस्तेमाल कर एकाउंट बनाते हैं और लोगों से संपर्क कर पैसे मांगते हैं। इस बार दंतेवाड़ा कलेक्टर विनीत नंदनवार के नाम का इस्तेमाल कर अधिकारियों से पैसे मांगे जा रहे हैं। कलेक्टर ने एफआईआर दर्ज कराई है, पुलिस जांच कर रही है। कलेक्टर को अपने वाट्सएप स्टेटस पर लिखना पड़ा है कि कोई अज्ञात व्यक्ति उनके नाम से जालसाजी कर रुपये मांग रहा है। ऐसे संदेश आते हैं तो उस पर ध्यान न दें।
सामान्य धारणा है कि कोई आईएएस या आईपीएस पैसे की ऐसी खुलेआम डिमांड क्यों करेगा। वैसे भी सक्षम हैं। बहुत जरूरी हुआ तो दोस्तों, परिवारों के दायरे में व्यक्तिगत रूप से संपर्क कर लेंगे। पर जालसाज मनोविज्ञान की अच्छी समझ रखते हैं। किसी अनजान, अपरिचित चेहरे का फर्जी एकाउंट बनाकर मांगेंगे तो उन्हें देगा कौन? इसलिए उनके सेलिब्रिटी तो ये बड़े अफसर ही हैं।
कभी भी अकेले में मिल सकते हैं...
सौदान सिंह के उत्तराधिकारी अजय जामवाल ने मोर्चा संभाल लिया है। वे विनम्र, और मिलनसार माने जाते हैं। जामवाल ने प्रदेश में भाजपा की कमजोर स्थिति को भांप लिया है। उन्होंने संगठन को मजबूत बनाने की दिशा में पहल शुरू कर दी है। वैसे तो जामवाल के पास मध्यप्रदेश का प्रभार भी है। लेकिन उन्होंने खुले तौर पर कह दिया है कि वो ज्यादातर समय छत्तीसगढ़ में ही रहेंगे। सांसदों, और पदाधिकारियों की अलग-अलग बैठक में जामवाल ने यह भी कहा कि वो कभी भी उनसे अकेले में मिल सकते हैं, और अपनी बात रख सकते हैं।
जामवाल ने भरोसा दिलाया है कि उनकी कही हुई बातें गोपनीय रहेगी। उनके कथन से पार्टी में उपेक्षित, और हाशिए पर चल रहे नेताओं को उम्मीद जगी है, और शिकवा-शिकायतों का पुलिंदा तैयार कर रहे हैं। जामवाल की सक्रियता से दिग्गज परेशान भी दिख रहे हैं। शुक्रवार को उनके दिल्ली दौरे के बीच हल्ला उड़ा कि प्रदेश अध्यक्ष विष्णुदेव साय अथवा नेता प्रतिपक्ष धरमलाल कौशिक में से किसी एक को बदला जा सकता है।
जामवाल ने दिल्ली में रेणुका सिंह के निवास पर सांसदों को चर्चा के लिए बुलाया था। सुनते हैं कि रेणुका सिंह को खुद नहीं मालूम था कि बैठक का एजेंडा क्या है? वो खुद पार्टी के कई दूसरे नेताओं से इस पर पूछताछ करती रहीं। इससे परे भाजपा के सीनियर विधायक नारायण चंदेल भी दिल्ली में थे। यह भी चर्चा रही कि चंदेल को कोई अहम दायित्व मिल सकता है। पार्टी के कई नेता उनसे पूछताछ करते रहे। चंदेल ने सफाई दी कि वो केंद्रीय रेलमंत्री से मिलने आए हैं, उनका और कोई दूसरा एजेंडा नहीं है। बाद में रेणुका निवास में हुई बैठक में जामवाल ने स्पष्ट किया कि वो सिर्फ सांसदों से रायशुमारी करने के लिए आए हैं। चुनाव में 14 महीने बाकी रह गए हैं, ऐसे में उन्हें पूरी ताकत से अपने क्षेत्र में जुटना होगा। कुल मिलाकर जामवाल के दौरे से पार्टी में खदबदाहट मची रही।
कुर्सी ही ऐसी है...
सरगुजा कलेक्टर कुंदन कुमार एक बार फिर सुर्खियों में है। कहा जा रहा है कि उन्होंने खुद के कार्यों का प्रचार कम होने पर जिले के जनसंपर्क अफसरों को खूब लताड़ लगाई। उन्होंने कथित तौर पर यह भी कह दिया कि तुम लोग सिर्फ सीएम का प्रचार करते हो, और मेरे खिलाफ साजिश रचते हो। कुंदन कुमार के व्यवहार से जनसंपर्क अफसर नाराज हैं, और उन्होंने मोर्चा खोल दिया है। इसको लेकर जनसंपर्क अफसरों के संगठन की बैठक भी चल रही है। कुंदन कुमार जब बलरामपुर-रामानुजगंज कलेक्टर थे तब भी इससे मिलती-जुलती शिकायत आई थी। चर्चा है कि उस वक्त उन्होंने सरकारी बंगले पर काम करने वाले एक चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी से किसी बात पर नाराज होकर काफी कुछ कह दिया था। तब भी जिले के कर्मचारी उनके खिलाफ हो गए थे, लेकिन कुछ घंटों के भीतर उन्होंने सुलह-सफाई कर मामले को बढऩे से बचा लिया था। मगर जनसंपर्क अफसरों के संगठन को काफी ताकतवर माना जाता है। अब देखना है कि कुंदन कुमार इससे कैसे निपटते हैं।
माओवादी रैली का इशारा...
बीजापुर-सुकमा जिले के दुर्गम इलाकों में माओवादियों ने अपनी ताकत दिखाई। इस ताकत को मीडिया के सामने वे लेकर आए। मकसद शायद यह रहा हो कि मुख्यधारा में उनकी स्वीकार्यता बढ़े, सहानुभूति पैदा हो। साथ ही, सरकार इस के दावे को झुठलाने में मदद मिले कि उनकी ताकत घट रही है। रैली में शामिल लोगों से बातचीत शायद किसी की नहीं हो पाई। ऐसा उनके सुप्रीम कमांडरों की ओर से निर्देश रहा होगा। पर कवरेज का पूरा मौका दिया गया। दावा किया जा रहा है कि उनके शहीदी सप्ताह के आखिरी दिन करीब 10 हजार लोग शामिल हुए। इसके कई वीडियो और फोटोग्रॉफ्स सामने आ गए हैं। हथियारबंद टीम ने तो चेहरों को ढंक रखा है, पर बाकी ग्रामीणों ने नहीं। अब आने वाले दिनों में सुरक्षा बल इन चेहरों की पहचान कर इन्हें नक्सलियों का मददगार बताने लगे तो फिर टकराव की नौबत आएगी। सीधी सी बात है कि प्रशासन की पहुंच वहां तक नहीं, जहां तक माओवादी पहुंच चुके हैं। प्रशासन की पहुंच हो भी गई हो तो विश्वास हासिल करने के लिए अभी और मेहनत करनी होगी। जो ग्रामीण शामिल हुए, उनसे माओवादी सहज संपर्क में हैं, उनके इशारों पर चल रहे हैं- उनकी बातों को सही मान रहे हैं। ग्रामीण मन से जाएं या मजबूरी से..रैलियों में इतनी बड़ी संख्या में दिखना हैरान करने वाली बात तो है नहीं।
अब आराम से हो सकेगी तैयारी...
सन् 2023 में प्रस्तावित विधानसभा चुनाव की जो गर्माहट कांग्रेस-भाजपा के नेता नहीं ला पाए, वह आईएएस गोविंद राम चुरेंद्र ने ला दी। उनकी चुनाव लडऩे की चर्चा ने इतनी जोर पकड़ ली कि सरकार के कान खड़े हुए और मिनटों में उन्हें सरगुजा संभागायुक्त के पद से अलग कर मंत्रालय में ज्वाइनिंग देने कहा गया। सन् 2003 बैच के आईएएस चुरेंद्र दिसंबर 2024 में रिटायर होंगे। वे बालोद जिले से आते हैं, जहां उनकी हलबा जनजाति की काफी संख्या है। यदि उनका चुनाव लडऩा हो तो कुछ खोने के लिए नहीं होगा। एक साल पहले वे वीआरएस ले सकते हैं। यानि जोखिम जैसी कोई बात नहीं। अधिकारी चाहते हैं कि 20 साल की नौकरी के बाद ही कोई फैसला करें ताकि चुनाव हारने, टिकट न मिलने की दशा में ठीक-ठाक पेंशन तो कम से कम मिलती रहे। राज्य व अखिल भारतीय सेवा से आने वाले कई अधिकारियों में विधानसभा चुनाव लडऩे की ललक बनी रहती है। बड़ी पार्टियों में उनका प्रवेश और टिकट मिलना बहुत बार आसान भी हो जाता है, कई बार मुश्किल स्थिति भी खड़ी हो जाती है। पिछले चुनाव में तीन राज्य पुलिस सेवा के अधिकारी चुनाव लडऩे के इच्छुक थे। इनमें से सिर्फ विभोर सिंह कांग्रेस की टिकट हासिल कर पाए। हालांकि वे तीसरे स्थान पर रहे। डॉ. रेणु जोगी इस चुनाव में विजयी हुईं। आईएएस अवार्ड हो चुके शिशुपाल शौरी ने जब इस्तीफा दिया तो उनका कार्यकाल दो साल बाकी था। वे कांग्रेस से विधायक बन गए। रायपुर कलेक्टर रहते हुए ओपी चौधरी ने त्यागपत्र दिया था। सरकारी सेवा में उनका लंबा कार्यकाल बाकी था। तब उस समय स्व अजीत जोगी ने फैसले का स्वागत करते हुए हिदायत दी थी कि सोच समझकर जोखिम उठाएं। अपना उदाहरण भी दिया था कि जिस दिन कलेक्टर पद से इस्तीफा दिया उसके अगले ही दिन उन्हें राज्यसभा के लिए नामांकन भरने का मौका मिल गया। इसमें जीत सुनिश्चित थी। खरसिया चुनाव में चौधरी को हार का सामना करना पड़ा। इसके बाद भाजपा ने उन्हें संगठन में पद दे रखा है। भाजपा में किसी की अगली टिकट का कुछ भी पक्का नहीं। चुरेंद्र को नहीं मिली तो उनका कुछ नहीं बिगड़ेगा, पर अगर चौधरी को मिली करारी शिकस्त को देखते हुए अगली बार टिकट नहीं दी गई तो?
सोशल मीडिया पर मनमाफिक तिरंगा
इस बात की आशंका तो थी कि सोशल मीडिया पर तिरंगा की डीपी लगाने की होड़ के कई अलग-अलग नजारे देखने को मिलेंगे, जिन पर विवाद उठ सकते हैं। प्रोफाइल पर डीपी लगाने की जगह गोलाकार होती है। यदि वह गोलाई पूरी तरह भरी जाएगी, तो तिरंगा गोल ही दिखेगा। इधर छत्तीसगढ़ के रोजगार सहायकों ने तो सोशल मीडिया के केसरिया और हरे वाले हिस्से पर अपनी मांगों को ही लिखकर पोस्ट डाल दी है। कुछ पोस्ट ऐसे चल रहे हैं, जिसमें चेतावनी दी जा रही है कि फ्लैग के लिए जो कोड बने हैं, उसका पालन करें। तिरंगे पर कुछ भी न लिखें। तस्वीर भले ही छोटी करनी पड़े पर वह आयताकार ही प्रदर्शित की जानी चाहिए। फ्लैग कोड के उल्लंघन पर सजा का प्रावधान होने की चेतावनी भी दी जा रही है। एक दूसरा अभिमत यह भी कि झंडा संहिता का पालन तो केवल ध्वज फहराने के दौरान करना है। उसकी इमेज का इस्तेमाल करने के दौरान जरूरी नहीं।
इस 15 अगस्त को कौन सी घोषणा?
प्रदेश के भानुप्रतापपुर, कांकेर इलाके में इस समय जिला बनाने के लिए आंदोलन चल रहा है। संघर्ष समिति ने कल स्टेट हाइवे को जाम कर प्रदर्शन किया। समिति यह धरना प्रदर्शन 15 अगस्त तक जारी रखने का इरादा रखती है। 15 अगस्त तारीख इसलिए खास है क्योंकि इस दिन मौजूदा सरकार से महत्वपूर्ण, बड़ी घोषणाओं की उम्मीद की जाने लगी है। इसी तारीख को मुख्यमंत्री ने गौरेला-पेंड्रा-मरवाही जिले की घोषणा सन् 2019 में की थी। सन् 2021 में भी चार नए जिले मोहला-मानपुर, सक्ती, सारंगढ़-बिलाईगढ़ और मनेंद्रगढ़ बनाने की घोषणा हुई। नये जिलों के गठन के मामले में मुख्यमंत्री ने अब तक उदारता ही दिखाई है। उपचुनाव जीतने के बाद खैरागढ़ को जिले का दर्जा दे दिया गया। अब और कई जिलों की मांगें सामने आती जा रही है। भानुप्रतापपुर के लिए आंदोलनरत नागरिकों का कहना है कि वे 12 साल से मांग करते आ रहे हैं। यहां रेल लाइन है, सडक़ है जो सब तरफ से जुड़ा हुआ है। माइंस और व्यापारिक गतिविधियां भी हैं। कई जिला स्तरीय कार्यालय पहले से भानुप्रतापपुर में हैं। विधायक मनोज मंडावी का आंदोलन को साथ मिल रहा है। वे जिला बनाने की मांग लेकर सीएम से चर्चा भी कर चुके हैं। अब 15 अगस्त को सीएम के पिटारे से क्या निकलेगा, यह देखना होगा।
मुनाफे में हिस्सेदारी, तो हल्ला बंद
रेत खनन पर अब ज्यादा कोई बात नहीं हो रही है। वैसे तो बारिश की वजह से खनन बंद है। ठेकेदारों ने पहले से कहीं ज्यादा भंडारण कर रखा है, और अच्छा खासा मुनाफा भी कमा रहे हैं। कुछ समय पहले तक अवैध रेत खनन-भंडारण को लेकर विधायकों ने काफी हो हल्ला मचाया था। धमतरी जिले में ठेकेदारों के खिलाफ धमकाने-चमकाने का मुकदमा भी दर्ज हुआ था, लेकिन अब सब कुछ शांत हो गया है। रेत कारोबार में शांति के पीछे ठेकेदारों की रणनीति भी काम आई है। सुनते हैं कि विपक्ष के महिला विधायक के करीबी को ठेकेदार ने हिस्सेदार बना दिया है। अब मुनाफे में हिस्सेदारी हो गई है, तो हल्ला मचाने का सवाल ही पैदा नहीं होता।
आईजी अध्याय बंद नहीं
ओपी पाल के तबादले के बाद आईजी रेंज के प्रभारी बदले जा सकते हैं। फिलहाल तो रायपुर रेंज का अतिरिक्त प्रभार दुर्ग आईजी बद्री नारायण मीणा संभाल रहे हैं, लेकिन जल्द ही रायपुर में नए आईजी की पोस्टिंग हो सकती है। चर्चा है कि फेरबदल में बिलासपुर, और बस्तर आईजी भी प्रभावित हो सकते हैं। बस्तर आईजी पी.सुंदर राज को बस्तर में डीआईजी, और आईजी रहते करीब 4 साल हो चुके हैं। उनका कामकाज भी बेहतर माना जाता है। ऐसे में संभावना जताई जा रही है कि उनकी मैदानी इलाके में पोस्टिंग हो सकती है। बिलासपुर आईजी रतनलाल डांगी को भी इधर से उधर किया जा सकता है। फेरबदल की चर्चाओं के बीच एक नया आईजी रेंज बनाने का सुझाव भी आया है। फिलहाल ज्यादा कुछ नहीं हुआ है।
डिलिवरी बॉय का ईंधन
इस तस्वीर को देखकर आप अलग-अलग अंदाजा लगाने के लिए स्वतंत्र हैं। क्या गैस कंपनियों ने अपनी सेवाओं का विस्तार कर दिया है? जो उपभोक्ता महंगी घरेलू गैस लेने की हालत में नहीं हैं, उन्हें ईंधन के लिए जलाऊ लकड़ी बेचने लगी है? दूसरी बात जो ज्यादा सही लगती है। वह यह हो सकती है कि गैस एजेंसी का यह डिलिवरी बॉय रोज दर्जनों घरों में गैस सिलेंडर तो पहुंचाता होगा, पर उसकी खुद की रसोई में चूल्हा लकडिय़ों से जलता होगा, क्योंकि मार महंगाई की उस पर भी पड़ गई।
गोबर बिक्री से रिकॉर्ड कमाई
गोबर बेचने वालों को सरकार बीते दो सालों में 153 करोड़ रुपये का भुगतान कर चुकी है। योजना की कांग्रेस सरकार सराहना करती है तो भाजपा इसमें घोटाले का आरोप लगाती है। आरोप पूरी तरह गलत भी नहीं है। राजनांदगांव के प्रभारी मंत्री अमरजीत भगत से शिकायत हुई है कि एक महिला हितग्राही ने एक ही दिन में 230 क्विंटल गोबर की बिक्री की है। न केवल खरीदी की गई बल्कि उसे 46 हजार रुपये का भुगतान भी कर दिया गया। घोटाले में सरपंच, सचिव और हितग्राही का मिला जुला खेल बताया गया है। गोबर की बिक्री कर कई लोगों ने बाइक खरीदने का शौक पूरा किया है, पर कई महीनों की बिक्री से। अब एक दिन में 230 क्विंटल गोबर कोई बेचने लगे तो एक दिन वह बढिय़ा सा बंगला बनवाकर, लग्जरी कार या बीएमडब्ल्यू में तो घूम ही सकता है।
उपहास, चुनौती और अवसाद...
छत्तीसगढ़ के मीडियाकर्मियों से जुड़ी तीन खबरें पिछले 24 घंटे के दौरान चर्चा में रहीं। भिलाई के दो पत्रकारों ने एसपी को आवेदन देकर मांग की है कि उन्हें भी अपनी आजीविका चलाने के लिए सट्टा-पट्टी लिखने की अनुमति दी जाए। भी, का मतलब यह है कि यहां जगह-जगह लोग दफ्तर खोलकर बैठे हैं। बकायदा उनके कर्मचारी सट्टा-पट्टी लिख रहे हैं। पूछने पर कहते हैं कि पुलिस से उन्हें अनुमति मिली है। जब उन्हें ऐसा करने दे रहे हैं तो हमें भी मौका मिले। ये पत्रकार गैर कानूनी धंधों में पुलिस की मिलीभगत को अलग तरीके से उजागर कर रहे हैं।
दूसरी घटना कोरबा की है जहां दो कथित पत्रकारों ने कबाड़ भरी ट्रक रोकी और उसके मालिक से दो लाख रुपये की डिमांड की। उनका कहना है कि कबाड़ में अवैध और चोरी का सामान भरा है, इसलिए हिस्सा दो। कबाड़ी ने पुलिस में शिकायत की। अब दोनों मीडियाकर्मी पुलिस गिरफ्त में हैं।
तीसरी खबर उक्त दोनों से ज्यादा अप्रिय है। वह यह कि बिलासपुर के एक निजी चैनल के एंकर ने खुदकुशी कर ली, आर्थिक तंगी की वजह बताई जा रही है। कुछ माह पहले ही उसका विवाह हुआ था।
इन तीनों घटनाओं के स्वरूप अलग-अलग है। कोई इतनी हिम्मत रखता है कि वह प्रशासन पर नकेल डाल सके, कोई काली कमाई में हिस्सा मांग रहा है। तो, कोई अपनी परेशानियों से लडऩे की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है और अपनों की परवाह किए बिना जीवन से भाग खड़ा हो रहा है। इस आखिरी घटना में उपहास, चुनौती और अवसाद तीनों शामिल हैं।
समझदार पूँजी निवेश
आईटी-ईडी की धमक से सरकारी सेवकों, और कारोबारियों में दहशत है। कुछ लोगों ने इसका तोड़ भी निकाल लिया है, वो ऐसी जगह निवेश कर रहे हैं, जो कि केंद्र सरकार में अच्छी दखल रखते हैं।
सुनते हैं कि ऐसे ही एक चतुर आईएएस भाजपा के पूर्व मंत्री से जुड़े प्रतिष्ठान में करीब 20 सीआर निवेश किए हैं। अफसर पिछली सरकार में पूर्व मंत्री के आंखों के तारे रहे हैं।
कारोबारी घराना भी पूर्व मंत्री, और अफसर के रिश्तों से भली-भांति परिचित है। ऐसे में अफसर को रकम डुबने का अंदेशा नहीं है। यदि जांच एजेंसियां धोखे से घर-दफ्तर पहुंच भी गई, तो दामन साफ दिखेंगे ही।
स्वागत में भी साजिश!
सौदान सिंह की जगह आए अजय जामवाल के स्वागत के लिए ऐसी भीड़ उमड़ी कि वो खुद अचकचा गए। भाजपा में संगठन मंत्रियों की हैसियत प्रदेश अध्यक्ष से ऊंची होती है। ऐसे में हर कोई उन्हें चेहरा दिखाना चाहता था।
अजय जामवाल एयरपोर्ट पहुंचे, तो कुछ लोगों ने यह सुनिश्चित करने की कोशिश की, कि वो ज्यादा लोगों से न मिल पाए। इन्हीं में से एक प्रीतेश गांधी ने तो एयरपोर्ट में अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर एंट्री टिकट का काउंटर ही दो घंटे के लिए बंद करवा दिया।
गांधी के खिलाफ कार्यकर्ताओं का गुस्सा फट पड़ा है, और पार्टी नेताओं के वॉटसएप ग्रुप में उन्हें काफी कोसा जा रहा है। कुछ ने तो उनका बायोडाटा निकलवाया तो पता चला कि प्रीतेश रायपुर के एयरपोर्ट सलाहकार समिति में है ही नहीं। वो इंदौर एयरपोर्ट सलाहकार समिति के सदस्य हैं। प्रीतेश पर पीएमओ में पकड़ होने का धौंस दिखाकर अफसरों का प्रभाव दिखाने की कोशिश का आरोप लग रहा है। एक-दो ने तो उनकी शिकायत अजय जामवाल से करने की तैयारी की है। देखना है आगे क्या होता है।
ईडी के रहते सीबीआई की मांग
छत्तीसगढ़ के बीजेपी नेताओं ने मांग की है कि सरकार सीबीआई को जांच करने की अनुमति दे। उनका कहना है कि सीबीआई के पास 7 शिकायतें पड़ी हैं, जिनमें करीब 80 करोड़ रुपये का घोटाला बताया गया है। सीबीआई इन सबकी जांच नहीं कर पा रही है क्योंकि राज्य सरकार से सहमति नहीं मिल रही। दूसरी ओर कांग्रेस का कहना है कि इस जांच की मांग विकास कार्यों को अवरुद्ध करने और सरकार को अस्थिर करने के लिए की जा रही है। कांग्रेस नान घोटाला, पनामा पेपर घोटाला और चिटफंड घोटाले की भी याद दिला रही है।
वैसे सीबीआई जांच में एफआईआर दर्ज होने से जमानत मिलने तक ही परेशानी है। पीछे मुडक़र देखें तो छत्तीसगढ़ के ही ऐसे कई मामले हैं जो वर्षों से लटके हैं। इन दिनों चर्चा में है तो आईटी और खासकर प्रवर्तन निदेशालय या ईडी। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने ईडी की सन् 2018 में बढ़ाई गई शक्तियों पर मुहर भी लगा दी है। आईटी छापे छत्तीसगढ़ में पड़ चुके हैं, ईडी को काम पर लगाना बाकी है।
यह बराबरी की बात है...
वर्षों से जिन गतिविधियों में पुरुषों का वर्चस्व रहा है, उनमें महिलाओं को बराबरी पर लाने के प्रयोग किए जाते हैं। आस्था से जुड़े विषयों में भी यह देखा जाता है। इसी तस्वीर को देखिए। ये बस्तर की आदिवासी लड़कियां हैं, जो कांवड़ यात्रा पर सडक़ में पैदल निकली हैं। सोशल मीडिया पर यह पोस्ट इस टिप्पणी के साथ की गई है कि- जब इन बहनों के कदम स्कूल, कॉलेज और यूनिवर्सिटी की ओर बढ़ेंगे तब स्थानीय बस्तरिया सचमुच विकास के नए आयाम गढ़ेंगे। एक ने लिखा है-काश, शिक्षा के लिए भी इतना इंतजाम किया गया होता, जितना शिक्षा से दूर रखने के लिए किया जा रहा है।
वैसे यह नहीं मालूम है कि ये श्रद्धालु लड़कियां स्कूल-कॉलेज जाती हैं या नहीं। इसलिए आप अपनी राय अपने हिसाब से बनाएं।
सरगुजा सूखे की चपेट में क्यों?
प्रदेश के जिन हिस्सों में सूखे के हालात हैं, उनमें से सर्वाधिक सरगुजा संभाग से हैं। सरगुजा जिले के प्रतापपुर, बिहार पुर, बतौली, बलरामपुर जिले के शंकरगढ़, कुसमी, वाड्रफनगर और जशपुर जिले के दुलदुला, पत्थलगांव, कुनकुरी, कांसाबेल सहित प्राय: सभी ब्लॉक ऐसे हैं जहां बारिश कम हुई। अधिकांश जगहों पर तो औसत 60 प्रतिशत से भी कम पानी गिरा है। बलरामपुर जिले का जो आंकड़ा सामने आया है उसके अनुसार यहां केवल 209.1 मिलीमीटर वर्षा हुई है। कई इलाकों में फसल पूरी तरह सूख चुकी है। सरगुजा यानि आदिवासी बाहुल्य इलाका। इसका मतलब जंगल का होना और जंगल के होने का मतलब है बारिश के लिए अनुकूल माहौल। फिर स्थिति चिंताजनक क्यों बनी? सरगुजा जिले के हसदेव से 2.5 लाख पेड़ जब कोयला खदानों के लिए काट दिए जाएंगे, भविष्य में तब क्या स्थिति बनेगी?
रबर का मैदान
सरगुजा जिले के मैनपाट के समीप दलदली में एक जगह है जहां जमीन रबर की तरह है। आप इसमें कूदने, लोटने का रोमांच महसूस कर सकते हैं। पर जगदलपुर के इंदिरा स्टेडियम का एक हिस्सा कृत्रिम रूप से बनाया गया है। इसमें करीब 7.5 करोड़ रुपये की लागत आई है। स्टेडियम में प्रवेश का मासिक शुल्क 200 रुपये प्रतिमाह है। खिलाडिय़ों के लिए 100 रुपये। दोनों ही बातें हैरान करने वाली है। एक यह कि क्या इतना खर्च कर स्पंजी मैदान बनाना जरूरी था, जो सिर्फ मनोरंजन के काम आएगा। क्या बस्तर में खेलों को बढ़ावा देने का कोई दूसरा उपाय इस रकम से नहीं किया जा सकता था? हालांकि स्टेडियम में कुछ और कार्य भी कराए गए हैं। खिलाडिय़ों से किसी सरकारी फंड से तैयार किए गए कार्य के लिए कोई फीस वसूल करना ठीक है नहीं, इस पर भी सवाल है।
बस पर सवार बाइक..
बाइक ने अपने मालिक से कहा होगा कि मुझ पर हमेशा सवारी करते हो, एक मौका मुझे भी दो।
टिकट कंफर्म न हो तो भी प्रतीक्षा कर लें
रेलवे का हाल इन दिनों गज़ब है। यात्री ट्रेनों को जनता के दबाव में धीरे-धीरे दौड़ाना शुरू तो कर दिया गया है, पर समय का कोई ठिकाना नहीं है। प्राय: सभी ट्रेनों की लेटलतीफी इतनी ज्यादा हो गई है कि समय-सारिणी पर ध्यान देने की जरूरत ही नहीं रह गई है। लोग एप की मदद लेकर पता कर रहे हैं तो उसमें भी जितना विलंब बताया जाता है, उससे कहीं अधिक देर पर ट्रेनें प्लेटफॉर्म पर आ रही है।
इसका रेलवे को भी बड़ा नुकसान हो रहा है। लोग रिजर्वेशन करा रहे हैं फिर कैंसिल भी करा रहे हैं। स्थिति यह बन गई है कि कई बार किसी एक ट्रेन में स्टेटस वेटिंग दिखाई देता है, अगले दिन उसी में आपको सीट उपलब्ध की स्थिति बता दी जा रही है। इसलिए यदि देरी बर्दाश्त कर सकते हैं तो ट्रेनों की वेटिंग सूची को देखकर निराश होने की जरूरत नहीं है, प्रयास जारी रखें, कंफर्म टिकट मिल सकती है।
कार्यकर्ताओं का अस्तित्व खतरे में !
भाजपा हाईकमान नए-नए कार्यक्रम भेजकर कार्यकर्ताओं को चार्ज करने की कोशिश कर रही है, लेकिन बड़ी संख्या में कार्यकर्ता अब भी निराश हैं। विधानसभा चुनाव में बड़ी हार के बाद पार्टी संगठन में बड़े बदलाव की उम्मीद थी, लेकिन ऐसा न होने पर विशेषकर दूर दराज इलाकों के भाजपा कार्यकर्ताओं ने पार्टी कार्यक्रमों से दूरी बना ली है। पिछले दिनों द्रौपदी मुर्मू के राष्ट्रपति चुनाव जितने पर बस्तर के सभी मंडलों को कार्यक्रम आयोजित करने के लिए कहा गया था। उन्हें पटाखे फोडकऱ और मिठाई बंटवाने के लिए कहा गया था, लेकिन ज्यादातर जगहों पर तो कार्यक्रम ही नहीं हो पाए।
प्रदेश भाजपा के किसान मोर्चा के पदाधिकारी रहे अनूप मसंद ने वॉट्सअप ग्रुप मेंं मैसेज किया कि कार्यकर्ताओं का अस्तित्व खतरे में हैं। शब्दों ने दम तोड़ दिया है। किसी को कोई असर नहीं हो रहा है। सुधार असंभव है। सिर्फ कार्यकर्ता ही कुछ कर पाए। श्रीलंका के समान कार्यकर्ताओं को बागडोर संभालनी पड़ेगी। इन लोगों के सेवन स्टार राजमहल में घुसना बस बाकी रह गया है। जल्द ही वो समय आने वाला है।
एक-एक लाख रुपये लेकर...
कांगे्रस में ब्लॉक अध्यक्षों के चुनाव को लेकर विवाद चल रहा है। दो दिन पहले प्रदेश प्रभारी पीएल पुनिया यहां पहुंचे, तो अलग-अलग इलाकों से पार्टी नेता उनसे मिले, और चुनाव में धांधली की शिकायत की। उन्होंने बताया कि एक-एक लाख रुपये लेकर ब्लॉक अध्यक्षों के नाम तय किए जा रहे हैं, और किसी से चर्चा किए बिना नाम सीधे पीआरओ हुसैन दलवई को दे दिए गए हैं।
बताते हैं कि लेनदेन की शिकायतों को पुनिया ने गंभीरता से लिया, और इस तरह के मामलों को प्रदेश अध्यक्ष मोहन मरकाम को देखने के लिए कहा है। यही नहीं, आबकारी मंत्री कवासी लखमा भी करीब आधा दर्जन विधायकों के साथ पुनिया से मिलने पहुंचे थे। लखमा के साथ आए विधायकों का कहना था कि ब्लॉक अध्यक्ष विधायकों की पसंद से तय होना चाहिए। पुनिया तैयार नहीं हुए, और कहा कि नियमों के अनुसार चुनाव होते हैं। व्यक्ति विशेष की पसंद को महत्व नहीं दिया जा सकता है।
गरीबों की रसोई इतनी महंगी हो चुकी...
घरेलू गैस, पेट्रोल और डीजल के दाम को लेकर अब तक लोग दुखी और परेशान दिखते हैं। इसका इस्तेमाल करने वाले वे लोग हैं जिनका मीडिया और सोशल मीडिया से लगातार नाता रहता है। इसलिए इस पर चर्चा हो जाती है। पर, केरोसिन यानि मिट्टी तेल का इस्तेमाल करने वालों के पास न गाडिय़ां हैं न गैस सिलेंडर। इसके लाभार्थी प्राथमिकता कार्ड, अंत्योदय और अन्नपूर्णा या उससे मिलते-जुलने नाम वाले कार्ड के धारक होते हैं।
शहरी और मैदानी इलाकों में एक परिवार को हर माह दो लीटर और अनुसूचित क्षेत्रों में तीन लीटर केरोसिन दिया जाता है। खबर यह है कि इसकी कीमत डीजल से भी करीब 3 रुपये ज्यादा है, करीब 99 रुपये लीटर। लोगों को पहले यह 15-16 रुपये में ही मिल जाता था। गरीबों का चूल्हा जलने का अभी कोई साधन किफायती नहीं। घरेलू गैस करीब 1150 रुपये और लकड़ी 1000 रुपये क्विंवटल। केंद्र सरकार का कहना है कि मिट्टी तेल की डीजल गाडिय़ों के लिए कालाबाजारी की जाती थी, इसलिए सब्सिडी खत्म कर दी गई है। यानि, सिस्टम को सुधारने, कड़ाई बरतने की जगह बोझ गरीबों पर ही डाल दिया गया है। समझ में एक बात नहीं आ रही है कि जब सब्सिडी है ही नहीं तो इसे खुले बाजार में डीजल, पेट्रोल की तरह बिकने के लिए क्यों नहीं दे दिया जाता? अब भी इसे फूड विभाग के कंट्रोल में क्यों रखा गया है? इनकी ऊपरी कमाई घटी है, पर चल रही है, क्योंकि बहुत से परिवारों का काम 2 लीटर महीने में नहीं चलता। अभी भी उन्हें ब्लैक में ही अतिरिक्त खरीदना पड़ रहा है।
अस्थिर होगी छत्तीसगढ़ सरकार?
झारखंड में कांग्रेस विधायकों के कथित खरीद-फरोख्त की घटना के बाद झारखंड के कांग्रेस प्रभारी अविनाश पांडे ने सनसनीखेज आरोप लगाया है कि छत्तीसगढ़ सरकार को भी अस्थिर करने का खेल चल रहा है। इसकी पूरी जानकारी पार्टी के पास है। हाल के इनकम टैक्स और ईडी के छापों की वजह भी यही है। कांग्रेस विधायकों को आतंकित करने की कोशिश हो रही है। पांडे के इस बयान के बाद बहुत से लोग एक बार फिर इस गुणा-भाग में लग गए हैं कि क्या वाकई छत्तीसगढ़ में सरकार गिराना मुमकिन है? इस समय सदन में कांग्रेस के 71 विधायक हैं। छत्तीसगढ़ के दो छोटे दलों के पांच विधायक बिना कोई सौदा किए सैद्धांतिक असहमति के चलते ही यदि मौजूदा सरकार के किसी विकल्प को समर्थन देने के लिए राजी हो जाते हैं तब भी कांग्रेस के लगभग दो दर्जन विधायकों को तोडऩा होगा, जिसकी संभावना फिलहाल दिख नहीं रही है। बहुत खामोशी से कुछ पक रहा हो तो अलग बात। वैसे फिक्र 2023 के चुनाव परिणामों के बाद की जरूर करनी चाहिए। कई लोगों का आकलन है कि अगली बार भी कांग्रेस के बहुमत की संभावना है, पर सीटों की संख्या घट जाएगी। तब मध्यप्रदेश की तरह तोड़-फोड़ आसान होगी। आखिर बचे ही कितने दिन हैं?
तिरंगे पर भी राजनीति...
आम लोगों को अपने घरों और कार्यालयों में ध्वज फहराने का अधिकार सुप्रीम कोर्ट में लड़ी गई एक कानूनी लड़ाई के बाद सात साल पहले मिला था। इसके पहले लोग सिर्फ 15 अगस्त और 26 जनवरी पर घर-दफ्तर में झंडा फहरा सकते थे। इस बार आजादी के अमृत महोत्सव पर आपके देश-प्रेम को तौलने के लिए केंद्र सरकार ने एक अपील जारी की है। 13 से 15 अगस्त तक हर घर में ध्वज फहराया जाएगा। अनेक लोग इन दोनों राष्ट्रीय पर्वों पर घरों में ध्वज फहराते हैं। बिलासपुर में तो एक परिवार ऐसा भी है जो साल के हर दिन की शुरुआत ही घर में तिरंगा फहराने से करता है और शाम को उतारता है। अब झंडा संहिता में बदलाव के बाद इसे रात में उतारने की जरूरत भी नहीं रह गई है। भाजपा पहले भी लोगों में देशभक्ति जगाने पिछले वर्षों में तिरंगा यात्रा निकाल चुकी है। कुछ इसी तरह की यात्रा इस बार 9 अगस्त से कांग्रेस निकाल रही है। भाजपा के हर घर तिरंगा कार्यक्रम को भाजपा नहीं, सरकार की योजना कही जाएगी और कांग्रेस की योजना को पार्टी की। पर दोनों कार्यक्रमों के राजनीतिक फायदे तो हैं ही। उम्मीद करनी चाहिए कि हर घर तिरंगा को सरकारी कार्यक्रम ही समझा जाएगा। किसी वजह से कोई अपने घर पर ध्वज नहीं फहरा सके तो उसके राष्ट्रप्रेम पर सवाल खड़ा न किया जाए। वैसे हमारे सीएम ने केंद्र सरकार के कार्यक्रम को कल ही कांग्रेस की बैठक में पाखंड बता दिया था।
युद्ध प्रभावित मेडिकल छात्र मंझधार में
कोरोना महामारी के चलते चीन में मेडिकल की पढ़ाई कर रहे बच्चे दो साल पहले भारत आए थे। इसके बाद रूस के साथ युद्ध शुरू होने के बाद यूक्रेन से मेडिकल की पढ़ाई कर रहे करीब 40 हजार छात्रों को वापस लौटना पड़ा। छत्तीसगढ़ में चीन से लौटे छात्रों की संख्या कुछ कम है पर यूक्रेन से 207 छात्रों के वापस आने का सरकार के पास आंकड़ा है। राज्य सरकारें इन छात्रों के भविष्य को लेकर चिंतित रही है। जैसी खबर है कि पश्चिम बंगाल लौटे करीब 400 छात्रों को वहां की मेडिकल कॉलेजों में दाखिला देने की प्रक्रिया शुरू की गई है। कर्नाटक सरकार ने भी इसके लिए एक समिति बनाई है, जो यह तय करेगी कि इन छात्रों के लिए क्या विकल्प हो। छत्तीसगढ़ के स्वास्थ्य मंत्री टीएस सिंहदेव ने केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री को बीते मार्च माह में पत्र लिखा था कि मेडिकल सीटें बढ़ाकर इन्हें एडमिशन देना चाहिए। पर बीते सप्ताह लोकसभा में केंद्रीय स्वास्थ्य राज्य मंत्री भारती पवार का इस मसले पर लोकसभा में जवाब आ गया। उन्होंने कहा कि नेशनल मेडिकल कमीशन एक्ट में सीधे दाखिले का कोई प्रावधान नहीं है। कर्नाटक, पश्चिम बंगाल में चल रही दाखिले की प्रक्रिया के बारे में उन्होंने जानकारी नहीं होने की बात कही। यह तय है कि किसी भी राज्य में मेडिकल सीटें एनएमसी की मंजूरी पर ही बढ़ेगी और दाखिले में उसके ही मापदंड का पालन करना होगा। छत्तीसगढ़ सरकार चाहती थी कि हाल ही में अधिग्रहित चंदूलाल चंद्राकर स्मृति मेडिकल कॉलेज में इन छात्रों को समायोजित कर दिया जाए, पर एनएमसी की मंजूरी के बिना यह भी नहीं हो पाएगा। अभिभावकों ने देश में मेडिकल की महंगी पढ़ाई और तगड़ी प्रतियोगिता के चलते अपने बच्चों को विदेश भेजा था। पर अब पैसे भी गए और उनका भविष्य भी अधर में झूल रहा है। कुछ दो चार अभिभावक ही ऐसे होंगे जो पेमेंट सीट पर निजी मेडिकल कॉलेजों में दाखिला करा पाने की क्षमता रखते हों। यह खर्च एक करोड़ रुपये या उससे अधिक हो सकता है।
31 मार्च 2019 के एक आंकड़े को राज्यसभा में रखा गया था कि देश में 1800 लोगों पर एक चिकित्सक हैं, जबकि डब्ल्यूएचओ के मुताबिक कम से कम 1 हजार के बीच एक का होना जरूरी है। देशभर में अलग-अलग फेकल्टी के लाखों डॉक्टरों की कमी है।
ऐसे में छत्तीसगढ़ के प्रथम मुख्यमंत्री स्व. अजीत जोगी याद आते हैं, जिन्होंने सहायक चिकित्सक पाठ्यक्रम शुरू किया था। इस योजना में दाखिला आसान था और फीस भी कम थी। ग्रामीण क्षेत्रों की बीमारियों की पहचान कर छात्रों को इलाज के लिए तैयार किया जाता था। इंडियन मेडिकल काउंसिल की आपत्ति के बाद यह कोर्स बंद करना पड़ा। कोर्ट में भी सरकार यह लड़ाई हार गई। फिलहाल सात समुंदर पार से लौटे छात्रों को अपने करियर की चिंता महसूस हो रही है।
वैक्सीन दीदी...
तृतीय लिंग को मुख्य धारा से जोडऩे में बहुत वक्त लगेगा। अमूमन समाज उनको हाशिये पर रखता है। ऐसे में कुछ अलग हटकर काम हो तो उसकी चर्चा हो जाती है। दुर्ग की कंचन, जो स्वयं ट्रांसजेंडर हैं, वह अपने समुदाय की बेहतरी के लिए फिक्रमंद हैं। कोविड वैक्सीन के दोनों डोज के दौरान भी वे सक्रिय रहीं और अब जब बूस्टर डोज दिया जा रहा है तो फिर वे अपने लोगों को तैयार कर वैक्सीनेशन सेंटर ला रही हैं। केवल ट्रांसजेंडर ही नहीं, बल्कि ऐसे दूसरे लोगों को भी जिनके बारे में उन्हें पता चलता है कि बूस्टर डोज नहीं लगा है, ला रही हैं। इनका नाम ही लोगों ने वैक्सीन दीदी रख दिया है। ([email protected])
ताकि लंबी न खिंचे हड़ताल
पांच दिनी हड़ताल पर सरकार के सख्त रवैये ने कर्मचारी संगठनों को हैरान कर दिया है। कर्मचारियों को कोई सरकार नाराज नहीं करना चाहती है। पर, हर, 4.5 लाख कर्मचारियों का वेतन काटने का आदेश जीएडी ने निकाला है। क्या सचमुच कटेगा? कर्मचारी संगठनों से बात करने पर मालूम हुआ कि फेडरेशन ने तो फिलहाल कलम बंद आंदोलन आगे बढ़ाने के लिए मना कर दिया है। आंदोलन का तीसरा चरण पूरा हो गया, चौथे चरण की हड़ताल बाद में की जाएगी। फेडरेशन और शिक्षक संगठनों के बीच मतभेद भी उभरा है। शिक्षक संगठन तालाबंदी आगे जारी रखने की घोषणा कर चुके हैं। यानि बाकी अधिकारी-कर्मचारी सोमवार से काम पर लौटेंगे, पर शिक्षक संगठन से जुड़े लोग नहीं। फेडरेशन के साथ समस्या यह है कि हड़ताल पर जाने वाले कर्मचारियों का वेतन यदि काट दिया जाता है तो चौथे चरण के लिए लोगों को साथ लेने में दिक्कत जाएगी। कुछ कर्मचारी नेताओं को भरोसा है कि वेतन काटने की बात केवल धमकी है। अभी अगर काट भी दिया गया तो आगे समझौते के दौरान इसे वापस ले लिया जाएगा। ऐसी सुगबुगाहट थी कि आंदोलन जारी रखा जाएगा, इसलिए आदेश निकाला गया है।
पत्थलगढ़ी और राष्ट्रपति
चार साल पहले जब झारखंड और छत्तीसगढ़ दोनों ही जगह भाजपा की सरकार थी, पत्थलगढ़ी आंदोलन ने जोर पकड़ा था। इसकी शुरुआत तो झारखंड के खूंटी इलाके से हुआ था पर धीरे-धीरे जशपुर जिले के छोटे-छोटे गांवों तक फैल गया। भारत के संविधान का हवाला देते हुए गांवों में सरकारी अधिकारी, कर्मचारी ही नहीं, किसी भी बाहरी व्यक्ति के प्रवेश पर रोक लगा दी गई। यह चेतावनी गांव की सीमा पर पत्थरों के जरिये लगाई गई। मामला विचित्र हो गया था। सामने चुनाव था। न तो छत्तीसगढ़ और न ही झारखंड की सरकार इसे संभाल पा रही थी। छत्तीसगढ़ में पूर्व आईएएस एचपी किंडो और ओएनजीसी के पूर्व अधिकारी जोसेफ मिंज सहित बारी-बारी डेढ़ दो सौ लोग गिरफ्तार कर लिए गए। आंदोलनकारी संविधान का हवाला दे रहे थे। सरकार कह रही थी कि संविधान की गलत व्याख्या कर धर्मांतरण को बढ़ाने के लिए यह सब किया जा रहा है। तनाव के इस दौर में झारखंड की राज्यपाल थीं, अब की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू। ऐतिहासिक मौका था जब एक साथ 500 लोगों ने राजभवन में उनके बुलावे पर प्रवेश किया। इनमें छत्तीसगढ़ और झारखंड दोनों स्थानों से प्रतिनिधि थे। मुर्मू ने उनसे खुला संवाद किया और समझाया कि इस आंदोलन के क्या दुष्परिणाम हो सकते हैं, अंतहीन संघर्ष की स्थिति बन सकती है। उन्होंने सबको संविधान की शपथ दिलाई। इसके बाद आंदोलन खत्म हुआ। इस समय बहुत से सवाल उठ रहे हैं कि अतीत में बड़े-बड़े पदों पर रहने के दौरान मुर्मू का योगदान रहा?, पर पत्थलगढ़ी आंदोलन खत्म करने में उनकी भूमिका को तो स्मरण में रखना ही चाहिए।
आपके लिए गुड न्यूज..
नमस्कार, आपके लिए गुड न्यूज है। 25 लाख की लॉटरी लगी है। केबीसी जिओ विभाग ने लकी ड्रा से निकाला है। अमिताभ बच्चन, मुकेश अंबानी, नरेंद्र मोदी की तरफ लगा है। कृपया कंपनी के फलां नंबर पर संपर्क करें। मिस्टर राणा प्रताप सिंह से।
ठग ने हजारों लोगों को यह मेसैज भेजा होगा। कोई एक भी अगर इसमें फंसा तो उसका काम तो बन जाएगा।
ऐसा धोती-कुर्ता यहां चलेगा?
थाईलैंड के बैंकाक से एक नये फैशन की तस्वीरें सामने आई हैं। फेसबुक पर कौशल किशोर ने वहां की ऐसी तस्वीरें पोस्ट की हैं जिनमें आदमी आधी लंबाई की धोती के ऊपर कम लंबाई का कुर्ता पहने और कमरबंद बांधे दिख रहा है। दिखने में यह फैशन हिन्दुस्तानी कपड़ों सरीखा दिख रहा है। लेकिन खुद हिन्दुस्तान में यहां के परंपरागत कपड़ों का हाल यह है कि अभी उत्तर भारत में किसी जगह हिन्दुस्तानी कुर्ता पहने हुए एक स्कूली शिक्षक की वहां के कलेक्टर ने फटकार-फटकार कर मानो खाल ही खींच ली थी। परंपरागत भारतीय पोशाक पहनने पर अगर किसी शिक्षक को उसके ही बच्चों के सामने स्कूल में ऐसी गालियां सुननी पड़ सकती हैं, तो इस देश में भारतीय पोशाक के लिए सम्मान किसी दूसरे देश से घूमकर ही आ सकता है।
अब जरूरत आत्मानंद यूनिवर्सिटी की...
नेशनल इंस्टीट्यूशनल रैंकिंग फ्रेमवर्क के नतीजे आ गए हैं। इनमें अपेक्षाकृत पीछे समझे जाने वाले पड़ोसी झारखंड, बिहार, ओडिशा आदि सभी राज्यों के किसी न किसी विश्वविद्यालय को टॉप 100 में स्थान मिला है, मगर छत्तीसगढ़ से किसी को नहीं। छत्तीसगढ़ के अलावा कुछ पूर्वोत्तर राज्य जैसे त्रिपुरा, नागालैंड, मिजोरम, मणिपुर, गोवा, अरुणाचल प्रदेश जैसे राज्य हैं, जिन्हें भी इस सूची में जगह नहीं मिली, मगर बाकी राज्यों का कोई न कोई विश्वविद्यालय ऐसा तो है जो प्रथम 100 में जगह बना सका है। यह सूची छोटी नहीं कही जा सकती। अपने प्रदेश में यूनिवर्सिटी की संख्या भी कम नहीं है। एक केंद्रीय विश्वविद्यालय, 13 राज्य विश्वविद्यालय और 11 प्राइवेट यूनिवर्सिटी। इनमें सभी तरह की स्पेशलाइजेशन वाले विश्वविद्यालय हैं- टेक्नॉलॉजी, कानून, आईटी, हेल्थ, जर्नलिज्म, एग्रिकल्चर। और तो और संगीत का भी अनूठा विश्वविद्यालय स्थापित है जो शायद देश में इकलौता है। पर इन सभी में शिक्षा का स्तर कैसा है, इसका अंदाजा सूची बता रही है। कुछ एक निजी विश्वविद्यालयों की चर्चा तो सिर्फ डिग्रियां बांटने के नाम पर ही होती हैं। सरकार की फंडिंग वाले विश्वविद्यालयों में कुलपति अपने इलाके के लोगों की, या फिर अयोग्य लोगों की भर्ती का रिकॉर्ड रखते हैं। कुलपतियों की नियुक्ति में ही भारी राजनीति हो जाती है। हाल में हुए कुलाधिपति और सरकार के बीच का टकराव लोगों को याद ही है। यूनिवर्सिटी के इंफ्रास्ट्रक्चर और वेतन पर भारी खर्च होता है। इसके बावजूद कई संकाय वर्षों से तदर्थ नियुक्त प्राध्यापकों के भरोसे है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से भी भारी मदद मिलती है, फिर भी ऐसी हालत। मालूम नहीं उच्च शिक्षा विभाग और राज्य सरकार इस सूची से छत्तीसगढ़ का नाम गायब देखकर चिंतित है नहीं, पर शिक्षा के क्षेत्र से जुड़े लोगों में निराशा है। एक सुझाव तो यह भी आ रहा है कि जिस तरह आत्मानंद स्कूल खोले जा रहे हैं, उसी तरह कुछ कॉलेज और विश्वविद्यालय खोलकर देखा जाए, शायद कुछ अच्छा हो जाए।
इतने नामी लोगों ने लगाई बेंच...
बड़ी सौगात...। मोहल्ले के लोगों को एक सार्वजनिक स्थल पर एक बेंच की सुविधा दी गई। इसमें महापौर, विधायक और पार्षद सबका योगदान रहा। लोग पूछ रहे हैं कि बाकी नेताओं, मंत्रियों का नाम भी क्यों नहीं लिखा गया। चेयर की पट्टी में जगह तो अभी भी बची है।
विष्णु भोग की जीआई टैगिंग
यह तो साफ हो चुका है कि छत्तीसगढ़ के किसानों को धान उगाने में महारत हासिल है। धान की जगह दूसरी फसल लेने के लिए उन्हें तैयार करना मुश्किल हो जाता है। ऐसे में चावल पर ही नये प्रयोग कर बिना किसी सरकारी बोनस के कैसे फायदा लिया सकता है, इसका उदाहरण देखने को मिला है। मस्तूरी के कुछ किसानों ने विष्णु भोग चावल उगाया। देशभर में इस चावल की दुबराज और जवाफूल की तरह मांग है। दूसरे राज्यों के व्यापारियों को उन्होंने बेचा तो उन्हें कीमत 70 से 80 रुपये मिली। फिर किसी ने रास्ता बताया इसकी सप्लाई वे खाड़ी देशों में करने लगे। इससे उन्हें 100 से 120 रुपये किलो का भाव मिलने लगा। पर तीन माह में ही आपत्ति आ गई। गुणवत्ता को लेकर नहीं, गुणवत्ता को प्रमाणित करने वाली जीआई टैगिंग को लेकर। जीआई टैगिंग केन्द्र सरकार की संस्था देती है। अभी छत्तीसगढ़ के दुबराज और जवाफूल की ही टैगिंग हो पाई है। ये सभी चावल मुलायम और सुगंधित होते हैं। जीआई टैगिंग के लिए विष्णु भोग उगाने वाले मस्तूरी के किसानों ने भी अब आवेदन कर दिया है, पर इसमें एक साल लग जाएंगे। शायद ऐसे उत्साही किसानों को सरकार प्रोत्साहित करे तो छत्तीसगढ़ की तस्वीर बदल सकती है और उन्हें बोनस आदि देने की जरूरत भी न पड़े।
लंबी हड़ताल के बाद अब क्या?
बीते सोमवार से सरकारी अधिकारी कर्मचारियों का फेडरेशन कलम बंद हड़ताल पर है। शिक्षक भी स्कूल नहीं जा रहे, बच्चों का मध्यान्ह भोजन भी बंद है, दफ्तरों में ताला लगा है। गुरुवार हरेली की छुट्टी है। अब शुक्रवार को इस आंदोलन का आखिरी दिन होगा। सरकारी कामकाज पर बुरा असर जरूर पड़ा पर सरकार पर कोई असर पड़ा हो यह दिखाई नहीं दे रहा। यहां तक कि बातचीत के लिए किसी प्रतिनिधिमंडल को बुलाने की जरूरत भी मंत्रालय ने नहीं समझी। सोमवार से जब वे ड्यूटी पर आएंगे तो रुके काम निपटने लगेंगे। फिर क्या होगा? चक्का जाम, पुतला फूंकने, उग्र प्रदर्शन के रास्ते पर चलना तो मुश्किल है। नौकरी पक्की है, आंगनबाड़ी, रोजगार सहायकों, स्कूलों के सफाई कर्मियों की तरह मामूली और असुरक्षित नहीं। फिर क्या रास्ता बच जाता है? कुछ कर्मचारी यह सोचने लगे हैं कि यह कलम बंद हड़ताल को ही आगे बढ़ा दी जाए। लंबे समय तक दफ्तर बंद रहेंगे तो शायद सरकार पर दबाव बने और उन्हें बातचीत के लिए बुलाया जाए।
कहना अभी मुश्किल है...
भाजपा के बड़े कार्यक्रमों में नेताओं के बीच आपसी टकराहट दिख ही जाती है। दो दिन पहले शहर जिला भाजपा के विधानसभा घेराव कार्यक्रम में पूर्व मंत्री बृजमोहन अग्रवाल, और राजेश मूणत के बीच विवाद की स्थिति निर्मित हो गई थी। हुआ यंू कि कार्यकर्ताओं के विधानसभा जाने से पहले लोधी पारा चौक के पास रोक दिया गया था। तभी बृजमोहन अग्रवाल वहां पहुंचे, और कार्यकर्ताओं को संबोधित किया। उन्हें सदन की कार्रवाई में हिस्सा लेने विधानसभा पहुंचना था। उन्होंने कार्यकर्ताओं की औपचारिक गिरफ्तारी, और फिर रिहाई के बाद कार्यक्रम समाप्ति की घोषणा कर दी। इससे पूर्व मंत्री राजेश मूणत नाराज हो गए, और उन्होंने कह दिया कि वो विधानसभा जाएंगे ही।
मूणत के तेवर देखकर बृजमोहन थोड़े नरम पड़े, और कहा कि मूणत जी विधानसभा जाना चाहते हैं। जिन्हें जाना हैं, वो साथ जा सकते हैं। फिर क्या था, भाजपा कार्यकर्ता दो गुटों में बंट गए। भाजपा का एक धड़ा बृजमोहन के कार्यक्रम समाप्ति की घोषणा के बाद वहां से निकल गया, लेकिन मूणत और उनके कुछ समर्थक वहां डटे रहे। जिन्हें बाद में पुलिस गिरफ्तार कर ले गई, और फिर बाद में छोड़ दिया गया। यह पहला मौका नहीं है जब नेताओं के बीच आपसी मतभेद सामने आए हैं। पहले भी बड़े नेताओं के बीच इस तरह का विवाद हो चुका है। कुछ लोग मानते हैं कि सौदान सिंह की जगह पर नियुक्त किए गए क्षेत्रीय महामंत्री (संगठन) अजय जामवाल के आने से गुटबाजी पर लगाम लगेगी। मगर वाकई ऐसा होगा, यह कहना अभी मुश्किल है।
संख्या बल से अधिक प्रभावी
शोर शराबे और हंगामे के बीच विधानसभा का पावस सत्र देर रात खत्म हो गया। सत्र के आखिरी दिन अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा के दौरान दो-तीन विधायकों का परफॉरमेंस काफी बेहतर रहा। इन्हीं में एक पहली बार की भाजपा विधायक रंजना साहू ने तथ्यों के साथ सरकार पर तीखे हमले किए।
कई बार उनके भाषण के दौरान शोर-शराबा भी हुआ, लेकिन वो विचलित नहीं हुई। उनके भाषण की सरकार के मंत्री अमरजीत भगत, और सभापति सत्यनारायण शर्मा भी तारीफ किए बिना नहीं रह सके।
रंजना साहू की तरह देवेंद्र यादव और शकुंतला साहू ने भी टोकाटाकी के दौरान आक्रामक रूख दिखाया। इसी उत्तेजना में विपक्षी सदस्यों पर आपत्तिजनक नारे लगाने पर देवेंद्र यादव को खेद भी प्रकट करना पड़ा। बाबा प्रकरण की वजह से पहले दिन से ही सत्ता पक्ष थोड़ी असहज स्थिति में थी। कुल मिलाकर यह पहला सत्र था जब विपक्ष अपनी संख्या बल से अधिक प्रभावी नजर आया।
लाल बत्ती का विकल्प...
पिछले कुछ सालों से नियम बन चुका है कि शोरूम से निकलने के पहले आरटीओ से नंबर अलॉट कराना जरूरी है। इसके बगैर आप गाड़ी सडक़ पर दौड़ा नहीं सकते। मगर यह आम लोगों के लिए है, साहबों के लिए नहीं। इनकी गाड़ी पर कोई नंबर प्लेट नहीं लगाई है। बस खतरनाक लाल रंग की पट्टी के ऊपर चमकीले बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा गया है- तहसीलदार। तेवर दिखाने के लिए काफी है। नाहक लाल बत्ती बंद करने पर रोक लगाई सरकार ने। जैसा कि फोटो में दिखाई दे रहा है, यह तस्वीर कोटा, बिलासपुर तहसीलदार की नई कार की है।
चकमा देने से चूके नक्सली..
नक्सलियों ने आज से बस्तर में शहीदी सप्ताह मनाना शुरू किया है। वे प्राय: गोरिल्ला वार करते हैं। चकमा देकर सुरक्षा बलों को अपने पास आने का रास्ता बनाते हैं और चारों ओर से घेरकर फायरिंग या ब्लास्टिंग करते हैं। इसके लिए नये-नये तरीके निकाले जाते हैं। यह तस्वीर भी ऐसी ही है। पेड़ पर टिका हुआ नक्सली वास्तव में एक बुत है और जो बंदूक दिखाई दे रहा है वह लकड़ी का है। एकबारगी ऐसा लगेगा कि सचमुच कोई नक्सली हमले के लिए तैयार खड़ा है। बारसूर से पल्ली जाने वाली सडक़ पर सुरक्षा बल के गश्ती दल को यह दिखा और वे सतर्क हो गए। माजरा समझ में आ गया कि यह जाल क्यों बिछाई गई है। नक्सली सप्ताह 3 अगस्त तक चलेगा। तब तक पुलिस व वहां तैनात केंद्रीय बलों को कुछ अधिक सावधान रहने कहा गया है।
इसने बच्चों को क्या पढ़ाया होगा?
जशपुर जिले में एक वृद्ध महिला की सुपारी किलिंग हुई है। शूटर तो वारदात के बाद झारखंड वापस भाग गए, पर स्थानीय तीन लोगों को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया है। महिला की हत्या जिस व्यक्ति ने कराई वह रिटायर्ड शिक्षक है। उसे महिला पर टोनही होने का शक था और अपने परिवार में हो रही बीमारियों के लिए उसे जिम्मेदार मानता था। ग्रामीण क्षेत्र, खासकर आदिवासी बाहुल्य इलाकों में जहां स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति खराब है, साक्षरता दर भी अच्छी नहीं है, वहां बीमार होने पर जादू-टोना, झाड़-फूंक पर भरोसा कर लेना स्वाभाविक है। पर एक शिक्षक को तो डॉक्टर के पास जाना चाहिए, खासकर तब जब बच्चे लंबे समय से बीमार चल रहे हैं और जान पर तत्काल कोई खतरा नहीं है। इस शिक्षक ने अपनी नौकरी के 30-35 सालों में सैकड़ों बच्चों को पढ़ाया होगा। यह सहज सवाल है कि क्या उसने बच्चों के बीच वैज्ञानिक चेतना को प्रोत्साहित करने का कोई काम किया होगा? क्या बच्चों को यह बताया होगा कि टोनही जैसी कोई प्रजाति नहीं होती, बीमारी अस्पताल में ही ठीक हो पाती है। दूसरी ओर, कई बार सरल सी दिखाई देने वाली चीजें वैसी होती नहीं है। ऐसे मामले सामने आ चुके हैं जब महिला की संपत्ति हड़पने के लिए दुष्प्रचार कर दिया जाता है कि वह टोनही है। खासकर ऐसी महिलाएं जिनके आगे पीछे कोई देखभाल करने वाला नहीं होता। यह महिला भी विधवा ही थीं। पुलिस गहराई से जांच करे तो कुछ नए तथ्य जरूर सामने आ जाएंगे।
सारे के सारे पुरुष!
सोशल मीडिया की मेहरबानी से इन दिनों बहुत से मुद्दे उठाए जाना मुमकिन हो गया है। अब बिना किसी खर्च के किसी आयोजन का प्रचार भी आसानी से हो सकता है। छत्तीसगढ़ सरकार, रविशंकर विश्वविद्यालय, और अजीम प्रेमजी फाउंडेशन, साहित्य अकादमी, इन सबने मिलकर प्रेमचंद पर एक दिन की विचार गोष्ठी का आयोजन किया है. इस आयोजन से जुड़े हुए लोगों ने अपने सोशल मीडिया पेज पर जब यह निमंत्रण डाला तो रायपुर की एक सामाजिक कार्यकर्ता मनजीत कौर बल ने इस पर आपत्ति उठाई कि न तो वक्ताओं में, और न ही आयोजकों में एक भी महिला का नाम पढऩे मिल रहा है। जिन दस लोगों के नाम कार्ड पर अलग-अलग जिक्र के साथ पढऩे मिल रहे हैं, वे सारे के सारे पुरुष नाम हैं। अब यह सोशल मीडिया ही है जिस पर इस बात को उठाया जा सकता है, और उठाया जाना चाहिए। कुछ और लोग अगर होंगे तो वे इस बात को भी तलाश सकते हैं कि इन नामों में से कोई भी नाम अल्पसंख्यक, या आदिवासी, या दलित है या नहीं है!
सत्र, सोनिया और सिंहदेव
विधानसभा सत्र के दौरान लगभग यह तय है कि मंत्री टीएस सिंहदेव आगे के दिनों में भी भाग नहीं ले रहे हैं। वे अहमदाबाद से दिल्ली और फिर भोपाल आ गए थे। पर सत्र के लिए लौटे नहीं, अब फिर दिल्ली में है। वे एक बार फिर हाईकमान के सामने अपनी बात रखना चाहते हैं। पर, इस समय दिल्ली में सोनिया गांधी से ईडी की पूछताछ हो रही है। राहुल गांधी सहित तमाम कार्यकर्ता इसके खिलाफ धरना प्रदर्शन ही नहीं कर रहे बल्कि गिरफ्तारियां भी दे रहे हैं। ऐसे में हाईकमान से छत्तीसगढ़ और उनकी अपनी स्थिति पर बात हो ही नहीं पा रही है। इधर छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के विधायक सत्र में व्यस्त हैं। उनके करने के लिए कुछ बाकी नहीं है। बहुत से विधायकों का हस्ताक्षरयुक्त बयान वैसे भी हाईकमान के पास चला गया है, जिसमें सिंहदेव पर कार्रवाई की मांग की गई है। इस एपिसोड की अगली कड़ी सिंहदेव के साथ दिल्ली में पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व से मुलाकात के बाद ही दिखाई देगी।
मशरूम की यह नई वेरायटी..
बरसात में तरह-तरह के खाद्य पदार्थ अपने आप धरती पर उग आते हैं। जो पौष्टिक और औषधीय गुणों वाले भी होते हैं। इन दिनों प्राकृतिक मशरूम यानि पुटु भी जगह-जगह उगे दिखाई देती है। पर यहां जिसकी बात हो रही है वह एक नई वेरायटी है। इसे मोहनभाठा (कोटा) के सागौन प्लांट पर कुछ खेतिहर महिलाएं चुन रही थीं। छोटे-छोटे इन सफेद पौधों को कनकी पुटु कहा जाता है। कनकी यानि चावल के छोटे दाने। इन्होंने बताया कि इसकी सब्जी बहुत अच्छी बनती है। जैसे झींगा मछली को बनाते हैं। कनकी पुटु भिंगोकर रख दें। प्याज, नमक, मिर्च और हल्दी को तलकर हल्का लाल कर लें और कनकी पुटु को उसमें डाल दें। बस थोड़ी ही देर में स्वादिष्ट सब्जी तैयार।
छत्तीसगढ़ में धान की अलग-अलग वेरायटी पर काफी शोध हुए हैं। सैकड़ो नये किस्म वैज्ञानिकों ने ईजाद भी किए हैं, पर जंगल, खेत, बाड़ी में अपने-आप उग आने वाली सब्जियों, पौधों पर शोध बाकी है। बारिश की दिनों में जो सैकड़ों तरह की ऐसी प्रजातियां दिखाई पड़ती हैं, उनका सेवन करने के लिए ग्रामीण अपने पूर्वजों से मिले ज्ञान का इस्तेमाल करते हैं। विश्वविद्यालयों के वैज्ञानिकों को इसे सूचीबद्ध करना चाहिए। साथ ही शोध करके बताना चाहिए कि कौन सा पौधा गुणकारी है और कौन सा जहरीला। पौष्टिक और विटामिन से भरे पौधे ग्रामीण बिना खर्च एकत्र कर सकेंगे और कुपोषण से भी लड़ सकेंगे।
दो कलेक्टरों के नाम पर ठगी
फेसबुक पर फर्जी प्रोफाइल बनाकर पैसे मांगने के केस बढ़ते जा रहे हैं। छत्तीसगढ़ के कई पुलिस अधिकारी इसका शिकार हो चुके हैं। इस बार एक साथ दो जिलों के कलेक्टरों के नाम पर प्रोफाइल बनाए गए हैं। सरगुजा कलेक्टर कुंदन कुमार और बलरामपुर कलेक्टर विजय दयाराम के नाम। पर ये प्रोफाइल फेसबुक नहीं, वाट्सएप पर बनाए गए हैं। जो नंबर दिए गए हैं, वे अफसरों के हैं नहीं। लोग कलेक्टर समझकर चैट करते हैं और सामने वाला कुछ देर बाद पैसे की जरूरत बताने लगता है। दोनों कलेक्टरों ने खास तौर पर, एक मोबाइल नंबर को लेकर सावधान किया है। पुलिस इस नंबर को रखने वाले की तलाश रही है। जब आईएएस, आईपीएस का नाम इस्तेमाल करके फर्जीवाड़ा हो, तो ठगों के दुस्साहस का अंदाजा लगाया जा सकता है।
ऐसे मेहरबान होंगे इंद्रदेव?
बलरामपुर जिले के कुछ गांवों में इन दिनों महिलाएं बर्तन लेकर घर-घर जा रही हैं। लोग उन्हें चना, चावल और पानी दान कर रहे हैं। प्रदेश के अधिकांश जिलों में अभी तक ठीक बारिश हो चुकी है। बस्तर में तो बाढ़ भी आई। पर 7-8 जिलों में पानी कम गिरा है। इनमें उत्तरी छत्तीसगढ़ का बलरामपुर जिला भी है। पूरे सरगुजा संभाग में सिंचाई सुविधा प्रदेश के 38 के मुकाबले काफी कम, 11 प्रतिशत है। बलरामपुर जिले में फसल वर्षा पर ही निर्भर है। इस बार कम पानी गिरने के कारण धान के पौधे झुलसने लगे हैं। इस हालत में छोटे किसानों को भय है कि खाने लायक अनाज भी पैदा होगा या उनकी मेहनत पर पानी फिर जाएगा? ज्यादा रकबा वालों की चिंता है कि वे बैंक और साहूकार का कर्ज कैसे चुकाएंगे, जो उन्होंने फसल के लिए ले रखा है। इन सबके चलते पैदा हुए भय ने लोगों को टोटके या कहें अंधविश्वास की तरफ धकेल दिया है। यह बरसों से होता आ रहा है। लोग यज्ञ हवन कर, मेंढक-मेंढकी की शादी रचाकर भी उम्मीद रखते हैं कि इंद्रदेव प्रसन्न होंगे और बारिश होगी। पर, वास्तविकता यही है कि दुनिया सहित देशभर में पर्यावरणीय संतुलन बिगड़ता जा रहा है। कहीं बाढ़ तो कहीं सूखा के हालात पहले से कहीं ज्यादा दिखाई दे रहे हैं।
कांग्रेस विधायक को भाजपा की बधाई
छत्तीसगढ़ से दो कांग्रेस विधायकों ने विपक्ष के उम्मीदवार की जगह राष्ट्रपति पद के लिए द्रौपदी मुर्मू को वोट दिया। तुरंत बाद खबर तैरने लगी कि दोनों क्रास वोटिंग करने वाले विधायक आदिवासी वर्ग से हैं। इधर, पत्थलगांव विधायक रामपुकार सिंह को भाजपा के पदाधिकारियों ने सोशल मीडिया पर धन्यवाद दे दिया। कहा- आपने अपनी अंतरात्मा की आवाज सुनी और पार्टी लाइन से बाहर जाकर वोट डाला।
विधायक रामपुकार सिंह ने तुरंत पत्रकारों से बात की और साफ किया कि मैंने पार्टी के निर्देश के मुताबिक यशवंत सिन्हा को ही वोट डाला। प्रतिक्रिया आते ही भाजपा फिर हमला करने में लग गई। देखा, विधायक ने प्रथम आदिवासी महिला प्रत्याशी को खुद आदिवासी होते हुए भी वोट नहीं दिया। 8 बार के विधायक रामपुकार सिंह की अपने समाज में बड़ी पकड़ है। वे तो नंदकुमार साय के परिवार के लोगों को भी स्थानीय चुनावों में पराजित कर चुके हैं। अब उन्हें लग रहा होगा कि भाजपा ने उसका मुंह खुलवा कर अगले चुनाव में उनके वोटों पर सेंध मारने के लिए कोई दांव तो नहीं खेला है?
कोरवा, बिरहोर स्कूल क्यों नहीं जाते?
कई दशक पहले देश के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद जब सरगुजा दौरे पर आए थे तो पहाड़ी कोरवा, बिरहोर जैसी विलुप्त होती जनजातियों के उत्थान की उम्मीद में उन्होंने अपना दत्तक पुत्र कहा था। आज यह सम्मान तो उन्हें मिला हुआ है पर दशा में खास बदलाव नहीं आया है। कोरबा में पहाड़ी कोरवा जनजाति की संख्या 2464 है, इनमें से 251 ही शिक्षित हैं, यानि करीब 10 प्रतिशत। बिरहोर 1584 हैं इनमें शिक्षित 71 ही हैं। जो पांच प्रतिशत भी नहीं। आंकड़े यह भी हैं कि इनमें से कॉलेज की पढ़ाई किसी ने पूरी नहीं की। कोरवा में 12वीं पास 2 तो बिरहोर में एक ही है, केवल 6 और 4 लोग दसवीं पास हैं। बाकी सब शिक्षित प्राइमरी और मिडिल तक ही पढ़ पाए।
यह हैरानी की बात है कि जिस कोरबा जिले में सीएसआर का बड़ा फंड हो, डीएमएफ में भरपूर राशि खर्च की जाती हो, विशेष प्राधिकरण भी है, तब इतनी ऐसी हालत क्यों है? इनकी संख्या इतनी कम है कि इन्हें कभी नेताओं ने वोट बैंक के रूप में नहीं देखा, शिक्षित हैं नहीं इसलिए प्रशासन पर दबाव भी नहीं बना पाए। यह भी एक पक्ष हो सकता है कि इन दोनों जनजातियों ने शिक्षा को जरूरी भी नहीं समझा हो। जंगल में पहाडिय़ों के बीच काफी भीतर उनके पारा-टोला होते हैं। स्कूल उनके घरों के पास नहीं होंगे, क्योंकि सरकार ने इनके लिए अलग कोई नीति बनाई नहीं। कम दाखिला वाले स्कूलों को तो बंद कर दिया जाता है, नये क्यों खुलेंगे। अब कोरबा में एक अभियान उन्होंने शुरू कराया गया है कि पहाड़ी कोरवा, बिरहोर बच्चों को स्कूलों में दाखिला दिया जाए। जो कभी स्कूल नहीं गए या पढ़ाई शुरू करने के बाद छोड़ दी, ऐसे 9 बच्चों को अब तक छात्रावासों में दाखिला दिलाया गया है, जिनमें एक बालिका है। कलेक्टर संजीव झा यहां सरगुजा से स्थानांतरित होकर आए हैं। वहां भी विशेष संरक्षित जातियों की स्थिति कमोबेश ऐसी ही है। अब स्थिति कुछ बदलने की उम्मीद है।
पोस्ट बॉक्स पर गाजर घास...
तकनीक ने संप्रेषण और संवाद के माध्यम को इतना विकसित कर दिया है कि धीरे-धीरे इन लाल डिब्बों की अहमियत ही घटती जा रही है। कुछ सरकारी चि_ियां, बैंक के कागजात जरूर अब भी भारतीय डाक सेवा से ही मिलते हैं, पर अब मेसैज, वाट्सएप, कॉल, वीडियो कॉल जैसी क्रांति आने के बाद कोई पोस्टकार्ड, अंतर्देशीय पत्र और पीले रंग के लिफाफे की जरूरत ही नहीं समझता। पर कुछ दिन बाद एक खास मौका आ रहा है जब इस लाल डिब्बे के आसपास उगे गाजर घास की सफाई हो जाएगी-वह है रक्षाबंधन।
डॉ. बांधी ने कोई नई बात नहीं कही
मस्तूरी विधायक डॉ. कृष्णमूर्ति बांधी का बयान दो दिनों से चर्चा में है। उन्होंने कहा कि सरकार को शराब की जगह गांजा-भांग के सेवन को विकल्प के रूप में लाना चाहिए। उनका यह कहना है कि हत्या, चोरी, लूट, बलात्कार के मामले शराब के साथ जुड़े होते हैं।
छत्तीसगढ़ में भांग की बिक्री पर रोक नहीं है। अनेक त्यौहारों व धार्मिक आयोजनों में भी इसे जगह मिलती है। पर गांजा प्रतिबंधित है। सांसद शशि थरूर, मेनका गांधी, केटीएस तुलसी जैसे अनेक नेता गांजे के उत्पादन को मान्यता देने का पक्ष लेते रहे हैं। तुलसी ने तो सुप्रीम कोर्ट में इसे लेकर एक याचिका भी दायर कर रखी है। गांजा अपने यहां प्रतिबंधित होते हुए भी इसकी खपत में कोई कमी नहीं है। पुलिस आंध्रप्रदेश और ओडिशा से हो रही तस्करी को रोज पकड़ रही है। यह यूपी बिहार भेजने के लिए रूट भी है। पुलिस की अवैध कमाई का यह जरिया भी है।
वैसे तो किसी भी तरह के नशे की पैरवी करना जायज नहीं, पर शायद डॉ. बांधी कहना चाह रहे हों कि नशाखोरी रुक नहीं सकती तो शराबबंदी के विकल्प के रूप में गांजा और भांग ज्यादा सही है। शराबबंदी छत्तीसगढ़ सरकार के संकल्प पत्र में था। अब तक नहीं की जा सकी तो इसकी वजह यह नहीं है कि वह इसे नशे का बेहतर जरिया मानती है, बल्कि इसलिये है क्योंकि इससे सरकार के राजस्व पर असर पड़ेगा। यह तो गांजा से कई गुना अधिक अवैध कमाई का जरिया है। ओवररेट, तस्करी, कोचिये के जरिये अवैध बिक्री और मिलावट की शिकायतें आती रहती है। परिवार, दोस्तों के बीच हत्या, चाकूबाजी की घटनाओं को देखें तो हर दूसरे मामले में शराब शामिल मिलेगी। इसलिये डॉ. बांधी की बातों को अजीबोगरीब या विवादित कैसे कह सकते हैं? पर सरकार मानेगी नहीं क्योंकि गांजा-भांग इतना सस्ता नशा है कि इससे सरकारी कोष में कुछ भी नहीं आएगा।
आला अफसरों का जमावड़ा
पिछले दिनों राजनांदगांव शहर के एक तेंदूपत्ता व्यापारी के घर की शादी में राज्यभर के आला आईपीएस अफसरों के जमावड़े पर पुलिस महकमे में चटकारे लिए खूब बातें हो रही हैं। शादी में तेंदूपत्ता व्यापारी ने उन इलाकों के पुलिस अफसरों को खास न्यौता दिया था, जहां घने जंगल से उसका कारोबार पुलिस निगरानी में चलता रहा है। बताते हंै कि नांदगांव के एक आलीशान होटल में तेंदूपत्ता व्यापारी ने अपनी बहन के वैवाहिक कार्यक्रम में आईजी स्तर से लेकर एसडीओपी और थानेदारों से शादी में शामिल होने की गुजारिश की थी। सुनते हैं कि तेंदूपत्ता के कारोबार में नक्सल इलाकों में अफसर, व्यापारी के जान-माल को लेकर बेहद संजीदा रहे हैं। व्यापारी का सुकमा से लेकर राजनांदगांव के कई फड़ों पर एकाधिकार रहा है। हर साल तेंदूपत्ता तोड़ाई से लेकर ढुलाई तक पुलिस की इस कारोबारी पर नजरें इनायत रहती हैं। इस गहरे लगाव के पीछे पुलिस अफसरों की निजी रूचि के मायने कोई भी निकाल सकता है।
चर्चा है कि व्यापारी की बहन की शादी में कुछ अफसरों ने आने के लिए 300 किमी की लंबी दूरी तय करने से गुरेज नहीं किया। वैवाहिक समारोह में राज्य के आईजी और एसपी से लेकर एसडीओपी भी पहुंचे। थानेदारों ने भी अफसरों की मौजूदगी के चलते शादी में शिरकत की। व्यापारी ने पुलिस के साथ बनाए सालों के रिश्ते के दम पर शादी समारोह में एक तरह से अपनी प्रशासनिक धाक का नमूना दीगर कारोबारियों के सामने पेश किया।
प्रदीप गांधी सब पर भारी
पैसे लेकर संसद में सवाल पूछने के केस में फंसे प्रदीप गांधी भले ही भाजपा की मुख्य धारा से बाहर है, लेकिन वो पार्टी के शीर्ष नेताओं के हमेशा संपर्क में रहते हैं। संसद सत्र के दौरान वो हमेशा संसद भवन में देखे जा सकते हैं। पूर्व सांसदों को प्रवेश की अनुमति तो रहती ही है, और वो सेंट्रल हॉल में भी जा सकते हैं। प्रदीप गांधी की संसद की सदस्यता खत्म हुए 17 साल हो गए हैं, लेकिन उनकी सक्रियता मौजूदा सांसदों से ज्यादा दिखती है। शनिवार की शाम निवर्तमान राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को संसद के दोनों सदनों के सदस्यों ने उन्हें औपचारिक बिदाई दी। कोविंद सेंट्रल हॉल से बाहर निकले, तो प्रदीप गांधी भी उनके साथ हो लिए, और कुछ देर राष्ट्रपति के साथ फुसफुससाते नजर आए। दिलचस्प बात यह है कि प्रदेश के किसी भी सांसद को राष्ट्रपति के आसपास फटकने का मौका नहीं मिला। प्रदीप गांधी सब पर भारी दिखे।
सिंहदेव का क्या होगा?
टीएस सिंहदेव दिल्ली में है। वो पिछले दो दिन गुजरात में रहकर पार्टी की विधानसभा चुनाव तैयारियों की समीक्षा कर रहे थे। सिंहदेव का मसला हाईकमान के संज्ञान में है, लेकिन तत्काल कुछ होने की संभावना नहीं दिख रही है। चर्चा है कि सिंहदेव ने कई विधायकों से चर्चा भी की है। कहा जा रहा है कि उन्होंने अपनी स्थिति स्पष्ट की है, और उन्हें बताया है कि किन कारणों से पंचायत विभाग से अलग होना पड़ा है। जिन विधायकों से चर्चा हुई है, उनमें से कई ने सिंहदेव के खिलाफ चले हस्ताक्षर अभियान का हिस्सा थे। सिंहदेव के पद छोडऩे के फैसले से सदन में सरकार की काफी किरकिरी हुई थी। यह मामला आगे क्या रुख लेता है, यह देखना है। सुना है कि कुछ विधायकों ने उन्हें लिखकर भी दिया है कि उन्होंने ग़लतफ़हमी में दस्तख़त किए थे।
छुपा रुस्तम वाटरकॉक
बारिश के दिनों में धरती पर हरियाली की चादर बिखर जाती है। पशु-पक्षियों को इस मौसम में भरपूर आहार और पानी मिलता है। कई दुर्लभ पक्षी भी इस दौरान दिखाई देने लग जाते हैं। इनमें से एक है वाटरकॉक। इसे प्रवासी पक्षी बताया जाता है जो बारिश के दिनों में, खासकर धान की बोनी के वक्त दिखते हैं। इससे काफी लोग परिचित नहीं है। यह दलदल में झाडिय़ों के बीच प्राय: रहता है और फिर धीरे से फसलों के बीच चला जाता है। शर्मिला है, छिपकर रहता है। कोयल से अलग लेकिन उसी की तरह नर वाटरकॉक मादा को बुलाने के लिए कू-कू की आवाज निकालता है। पिछले कुछ सालों से इसे जगदलपुर के दलपत सागर में भी देखा जा रहा है। यह तस्वीर मोहनभाठा (कोटा) से हाल ही में ली गई है।
नौ दिन ऑफ मगर किस काम के
प्रदेश के सरकारी अधिकारी-कर्मचारी सोमवार से पांच दिन की हड़ताल पर होंगे, पर दफ्तरों में कुल छुट्टियां 9 दिनों की होगी, जिसकी शुरूआत शनिवार से हो गई। धरना देने के लिए कर्मचारी संगठनों के पदाधिकारी, सदस्य तो बैठेंगे पर बाकी सैर पर निकलना चाहते हैं। एक कर्मचारी ने अपना दर्द बयान किया, क्या करें, लगातार बारिश हो रही है। दूसरा ट्रेनों में भी रिजर्वेशन नहीं मिल रहा है। इन सबके चलते कहीं भी घूम आना मुश्किल है। काश बारिश नहीं होती तो अपने ही साधन से कहीं निकल पड़ते।
एक ओर किसान हैं जो अच्छी बारिश के चलते अच्छी फसल आने की उम्मीद में खुश दिखाई दे रहे हैं, दूसरी ओर कई कर्मचारी हैं जो मना रहे हैं कि मौसम खुले तो निकल पडऩे का माहौल बने।
फ्राड करने वाले का ज्ञान बढ़ा...
हर कोई परेशान है, मोबाइल फोन पर धोखाधड़ी के लिए आने वाले मेसैजेस को लेकर। ज्यादातर लोग कोई जवाब दिए बिना ऐसे एसएमएस डिलीट कर देते हैं। पर कभी-कभी कोई फुरसतिया या जागरूक व्यक्ति उसका जवाब भी दे देता है। इस मामले में भी ऐसा ही हुआ। फ्रॉड करने वाले को मेसैज भेजकर उसकी गलतियों के बारे में ध्यान दिलाया गया। गलत अंग्रेजी को सुधारने कहा, अपना असली नाम बताया और नसीहत दी कि थोड़ी पढ़ाई और कर लेता तो दो नंबर का काम करने की जरूरत नहीं पड़ती। जवाबी मैसेज क्या भेजा गया उसे भी पढिय़े-
मुझे खेद है सर, अगली बार फ्राड करते समय मैं इसका ध्यान रखूंगा। गाइड करने के लिए आभार...।
121 आदिवासियों को रिहा किसने कराया?
बुरकापाल में हुई 25 जवानों की हत्या के मामले में पांच साल से जेल में बंद सभी 121 आदिवासियों को पिछले दिनों कोर्ट ने बरी कर दिया और सबके सब रिहा हो गए। रिहाई के बाद जिला पंचायत के अध्यक्ष हरीश कवासी ने जो बयान जारी किया, उससे विवाद खड़ा हो गया है। कवासी का कहना है कि यह प्रदेश सरकार द्वारा प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष रूप से निर्दोष आदिवासियों को रिहा कराने के लिए किए गए प्रयासों का नतीजा है। कांग्रेस ने चुनाव में यह वायदा किया भी था। अब तक 1200 आदिवासी रिहा कराए जा चुके हैं। बयान आते ही आदिवासी महासभा के अध्यक्ष पूर्व विधायक मनीष कुंजाम ने कहा कि ऐसा दावा करने वालों को कानून का ज्ञान नहीं। इस रिहाई में कोई भूमिका सरकार की नहीं रही। सभी कोर्ट से केस जीतकर बाहर आए हैं। मुकदमा चला, गवाही और जिरह हुई। रिहा करना ही था तो चार साल तक सरकार क्या कर रही थी? कुंजाम ने यह भी जोड़ दिया कि जिन 1200 लोगों की रिहाई की बात की जा रही है, वे सब शराब के मामले में पकड़ गए थे और कांग्रेस कार्यकर्ता थे। अभी भी कई निर्दोष जेलों में बंद हैं, उन्हें क्यों रिहा नहीं कराया जा रहा है?
यह तथ्य तो सामने है कि सरकार ने मामला वापस नहीं लिया, कोर्ट ने सुनवाई की प्रक्रिया अपनाई, इसके बाद रिहाई हुई। पर कवासी ने अप्रत्यक्ष प्रयास का भी जिक्र किया है। क्या इसका यह मतलब है कि सरकार की ओर से दलीलें कमजोर रखी गईं, जिसके चलते केस कमजोर हो गया? या फिर कोर्ट को सरकार की ओर से कोई संदेश दिया गया था? दोनों ही बातें न्याय व्यवस्था के लिए गंभीर है। कवासी को यह तो बताना चाहिए कि यह अप्रत्यक्ष सहयोग किस तरह का था? जो 1200 लोग पहले रिहा हुए उनके मामले तो सरकार ने वापस लिए हैं, पर इस मामले में ऐसा करना शायद मुमकिन नहीं था क्योंकि 25 जवानों की हत्या का आरोप लगा था। अब इन आदिवासियों के रिहा हो जाने के बाद यह तो साफ हो गया कि वे निर्दोष थे, पर यह जवानों की हत्या किसने की, क्या मारे गए जवानों के परिवारों को न्याय मिला? यह सवाल अपनी जगह पर तो मौजूद ही है।
दोनों का अस्तित्व खतरे में
पावस सत्र शुरू होने के चार दिन पहले पंचायत विभाग छोडक़र बाबा ने हलचल मचा दी। खुद विधानसभा से अवकाश लेकर पार्टी के काम से गुजरात चले गए हैं। विपक्ष को बैठे बिठाए मुद्दा मिल गया है, और सदन में रोज घुम फिरकर बाबा के मसले पर बहस हो जाती है। सरकार ने एक आदेश जारी कर पंचायत विभाग का प्रभार रविन्द्र चौबे को दे दिया है, बावजूद इसके विपक्ष सरकार को घेरने का कोई मौका नहीं छोड़ रही है। जोगी पार्टी के विधायक धर्मजीत सिंह ने तो चुटकी ली कि हसदेव और सिंहदेव, दोनों का अस्तित्व खतरे में पड़ गया है। बाबा की सदन में गैर मौजूदगी सत्तापक्ष को भारी पड़ रही है।
देवव्रत के जाने के बाद
पावस सत्र में सरकार के खिलाफ पूरा विपक्ष एकजुट दिख रहा है। राष्ट्रपति चुनाव में भी भाजपा के साथ बसपा, और जोगी पार्टी साथ थी, और एक राय होकर एनडीए प्रत्याशी द्रोपदी मुर्मू का समर्थन किया था। सदन में पहले जोगी पार्टी के सदस्य देवव्रत सिंह, और प्रमोद शर्मा एक तरह से सरकार के साथ दिखते थे। दोनों ने जोगी पार्टी से अलग होने का मन भी बना लिया था, लेकिन देवव्रत सिंह के गुजरने के बाद परिस्थिति बदल गई है। प्रमोद शर्मा अब पार्टी की मुख्य धारा में लौट आए हैं। और जब बसपा सदस्य केशव चंद्रा ने अपने क्षेत्र में बजट प्रावधान होने के बावजूद काम न होने का मुद्दा उठाया, तो उन्हें भाजपा और जोगी पार्टी का भरपूर साथ मिला। धर्मजीत सिंह ने इस मुद्दे पर सदन से वॉकऑउट किया, तो भाजपा और बसपा सदस्य भी उनके पीछे-पीछे निकल गए।
10 बार पीएससी फेल आईएएस
पिछले दिनों आईएएस अविनाश शरण ने एक पोस्ट डालकर बताया था कि उन्होंने 10वीं परीक्षा थर्ड डिवीजन में पास की थी। अब प्रतियोगी परीक्षाओं में कितनी बार वे विफल हुए इसका भी खुलासा उन्होंने कर दिया है। 10वीं में उन्हें 44.7 प्रतिशत अंक मिले थे तो 12वीं और ग्रेजुएशन भी औसत ही था। 12वीं में 65 प्रतिशत तथा स्नातक में 60 प्रतिशत अंक ही मिले थे। कॉमन डिफेन्स सर्विस (सीडीएस) की परीक्षा में फेल हो गए। फिर सेंट्रल आर्म्स पुलिस फोर्स (सीपीएफ) परीक्षा में भी फेल हो गए। यही नहीं राज्य लोक सेवा आयोग की प्रारंभिक परीक्षा में ही 10 से अधिक बार आउट हो गए। मगर, यूपीएससी की परीक्षा दी तो पहली बार में ही साक्षात्कार के लिए बुला लिया गया। दूसरे प्रयास में उन्होंने ऑल इंडिया रैंक 77 हासिल किया।
बच्चन के शब्दों में कहें तो नन्हीं चींटी दाना लेकर चढ़ती है, दीवारों पर सौ बार फिसलती है।
उन्होंने यह पोस्ट ठीक ऐसे वक्त डाली है जब सीबीएसई के नतीजे आए हैं। जो छात्र नंबर की रेस में पिछड़ गए हैं, यह उनको दिलासा देने के लिए है।
सडक़ बनी गौठान...
यह जगदलपुर के मुख्य चौराहे की तस्वीर है। किसी ने सोशल मीडिया पर इसे डाला और लिखा- यह शहर के बीच बनाया गया गोठान हैं, जहां बिना खलल के गाय-भैंस आराम फरमाते हैं।
अंतरात्मा से निकली आवाज...
राष्ट्रपति पद के लिए मतदान गोपनीय होता है और इसके लिए व्हिप भी जारी नहीं किया गया है। दूसरे कुछ राज्यों की तरह छत्तीसगढ़ से भी क्रास वोटिंग की पुष्टि एनडीए उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू को मिले मतों से हो गई है। पहले खबर आई कि 6 कांग्रेस विधायकों ने क्रास वोट डाले हैं पर बात में वोटों की गिनती का हिसाब कर लोगों ने बताया कि सिर्फ दो ने ऐसा किया है। सवाल यह है कि क्या यह सचमुच अंतरात्मा से निकली आवाज थी, भावुकता थी, रोष था, बगावत थी, क्या था? या फिर भाजपा की ओर से की गई अपील की वजह से था? सिर्फ दो ने ही किया, 71 में से बाकी तो पार्टी के ही साथ हैं। दूसरे कुछ राज्यों में अंतरात्मा की सुनकर वोट डालने वालों की संख्या छत्तीसगढ़ से अधिक है। हाल में राजनीतिक गलियारे में मचे घमासान के बीच जब हुए मतदान में इतनी एकजुटता भी आलाकमान को सुकून दे सकता है। फि़लहाल जिन दो विधायकों पर लोगों को क्रॉस वोटिंग का शक है, वे दोनों ही आदिवासी हैं।
जंगल में फोटोग्रॉफी का सलीका
गांवों में रहने वाले ग्रामीण कहलाते हैं, शहर में रहने वाले शहरी। वनों में रहने वाले जीवों को वन्य प्राणी कहा जाता है। जो जहां रहता हैस वहां उसके अधिकार सुरक्षित होने चाहिए। पर मनुष्य तो जंगल पर भी अपना ही हक समझता है, जो नहीं होना चाहिए। इस व्यवहार से प्रकृति का संतुलन बिगड़ रहा है। अमरकंटक के लिए एक सडक़ अचानकमार टाइगर रिजर्व के बीच से गुजरती है। यहां अक्सर चीतलों का झुंड सडक़ पर दिखाई देता है। वन्यजीवों के साथ कई बार इन लोगों को शोर करते, पीछा करते, परेशान करते देखा जा चुका है। समझदार पर्यटक जितने करीब से वन्यजीवों को गुजरते हुए देख लें, उनकी तस्वीर निकाल लें, पर उनकी स्वच्छंद विचरण पर व्यवधान नहीं डालते। चीतलों का यह झुंड वाहन पर सवार पर्यटकों के बहुत करीब से गुजरा। उन्होंने ऐसी ही कुछ शानदार तस्वीरें लीं, पर खामोशी के साथ।
सवाल करते ही पकड़ी मिलावटी शराब
विधानसभा में सवाल-जवाब होने से गड़बड़ी रुक जाती है क्या? विपक्ष ने आबकारी मंत्री से चालू सत्र में मिलावटी और नकली शराब पर सवाल किया, पड़ोसी राज्यों से हो रही तस्करी पर जवाब मांगा। अधिकारियों ने जो जवाब बनाया, मंत्री जी ने पढ़ दिया। पर, कारोबार रुक तो नहीं गया? जिस दिन यह सवाल-जवाब हो रहा था, उसी दिन सरगुजा जिले के बतौली इलाके में एक शराब दुकान के मैनेजर और सेल्समैन को शराब में पानी मिलाते और सस्ती शराब को ऊंची कीमत की खाली बोतल में भरते हुए पकड़ लिया गया। ये काम वे लोग दुकान में नहीं, घर पर कर रहे थे, क्योंकि वहां सीसीटीवी लगा है। आबकारी विभाग के सहायक आयुक्त को किसी ने खबर कर दी। कार्रवाई हुई और दो लोग जेल भेज दिए गए। इस गिरफ्तारी के बाद से आगे गोरखधंधा रुक जाएगा, इसकी कोई गारंटी नहीं, शायद यह कार्रवाई विधानसभा में पूछे गए सवाल की वजह से की गई थी?
खिलाडिय़ों के आगे आने पर रोक...
रेल मंत्री ने संसद में साफ कर दिया है कि बुजुर्गों और खिलाडिय़ों को सफर में अब रियायत नहीं मिलने वाली है। लोग बहुत दिनों से इंतजार कर रहे थे कि कोरोना के कारण जो सुविधा छीनी गई, वह धीरे से अब बहाल हो जाएगी। कुछ दिन पहले ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि रेवड़ी बांटना बंद करो। रेलवे ने तत्काल अमल में ला दिया। इस फैसले को जायज बताते हुए मंत्री ने बताया कि अभी भी यात्री परिवहन का 50 प्रतिशत रेलवे वहन करता है। बुजुर्गों को रियायत देने से बीते वित्तीय वर्ष में 1600 करोड़ रुपये खर्च हो गए। इस खबर में यह नहीं बताया गया कि खिलाडिय़ों को कितनी छूट मिली। मान लेते हैं कि यह राशि भी इसके आसपास ही होगी। पर, रेल मंत्री ने यह नहीं बताया कि माल परिवहन से कितना मुनाफा हो रहा है। बिलासपुर रेल मंडल और बिलासपुर रेलवे जोन प्राय: हर साल आमदनी में टॉप पर होते हैं। मंडल की आमदनी 8 हजार करोड़ तो जोन की 20-22 हजार करोड़ रुपये तक पहुंच जाती है। इस तथ्य का जिक्र किए बिना ऐसे बताया गया मानों यात्रियों को खैरात बांटी जा रही है। छत्तीसगढ़ के जनप्रतिनिधियों को तो सवाल करना चाहिए कि हमें इस आय के एवज में अतिरिक्त कौन सी सुविधा रेलवे दे रहा है।
बहुत से खिलाड़ी सरकार के फैसले से नाराज हैं। यूनिवर्सिटी, कॉलेज के अलावा उनकी अपनी टीम देश के अलग-अलग हिस्सों में खेलों का प्रदर्शन करने जाती है। ज्यादातर खिलाड़ी बेरोजगार छात्र होते हैं। इन्हें तो जूते मोजे तक खरीदने के लिए ही भारी मशक्कत करनी पड़ती है। खेल के सामान भी महंगे हैं। एक तरफ सरकार खिलाडिय़ों को आगे लाने के लिए खेलो इंडिया खेलो स्कीम चला रही है, दूसरी तरफ कई दशकों से मिली रियायती टिकट की सुविधा उनसे छीन ली गई।