राजपथ - जनपथ

राजपथ-जनपथ : देखना है आगे क्या होता है
07-Nov-2025 6:11 PM
राजपथ-जनपथ : देखना है आगे क्या होता है

देखना है आगे क्या होता है

प्रदेश के जिला सहकारी बैंकों के अफसरों-कर्मियों की वार्षिक वेतन वृद्धि पिछले चार साल से रूकी है। इसको लेकर कर्मचारी आंदोलित है, और गुरुवार को सामूहिक अवकाश पर चले गए। हाईकोर्ट ने भी कर्मचारी संगठन के हक में फैसला दिया है। बावजूद इसके उन्हें वेतन वृद्धि नहीं मिल पा रही है। कुछ कर्मी वेतन वृद्धि के अड़ंगे के पीछे नौकरशाहों को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं।

बताते हैं कि पिछली सरकार में विशेष सचिव स्तर के एक अफसर बैंक के प्राधिकृत अफसर के अतिरिक्त प्रभार पर थे। एक बैठक में उन्होंने बैंक के ओएसडी से उनके वेतन को लेकर सामान्य पूछताछ की। वो ये जानकर हैरान रह गए,कि बैंक के ओएसडी का वेतन उनके वेतन के बराबर है। फिर क्या था विशेष सचिव ने बैंक कर्मियों के वेतन भत्ते की समीक्षा करनी शुरू कर दी।

विशेष सचिव तो कुछ समय बाद हट गए, लेकिन उनकी जगह आए आईएएस ने भी अपने पूर्ववर्ती द्वारा की गई समीक्षा को आगे बढ़ाया, और एक आदेश जारी किया कि स्थापना व्यय का डेढ़ फीसदी से कम प्रबंधकीय व्यय होने पर ही वेतन वृद्धि दी जा सकती है। कुछ और भी शर्तें लगाई। इस वजह से बैंक कर्मियों को वेतन वृद्धि का फायदा नहीं मिल पा रहा है।

कुछ ऐसा ही वाक्या ऊर्जा विभाग में हुआ था। कुछ साल पहले विभाग के नए सचिव ने अपने कॉलेज के दिनों के सहपाठी, जो कि ईई के पद पर थे, उन्हें विभागीय गतिविधियों को समझने के लिए बुलाया। सहपाठी से उनके वेतन को लेकर पूछताछ की, तो पता चला कि सहपाठी का वेतन मुख्य सचिव के वेतन के बराबर है। सचिव को थोड़ा बुरा तो लगा कि उनके मातहत अधिकारियों का वेतन अधिक है, लेकिन काम की प्रकृति को समझा, और अफसर-कर्मचारी विरोधी कोई फैसले नहीं लिए।

कोरोना काल में जब राष्ट्रीयकृत बैंकों में कामकाज ठप था, तब जिला सहकारी बैंकों में पूरी रफ्तार से काम चला, और धान खरीदी व्यवस्था में किसी तरह की रुकावट नहीं आने दिया। अब जब वेतन वृद्धि रोकी गई है, तो कर्मचारी संगठन आर-पार की लड़ाई के मूड में हैं। देखना है आगे क्या होता है।

डेपुटेशन से बेरूखी, और कारण...

चाहे केंद्रीय विभाग हो या राज्य, डेपुटेशन पर जाने को लेकर ऐसी बेरुखी पूर्व में कभी भी देखने को नहीं मिली। हो सकता है कि अफसरों को पता नहीं चला हो। यह भी सही है कि इस पद के लिए जो अधिसूचना जारी हुई है वह केवल डीओपीटी के ही वेबसाइट में कर दी गई। लेकिन इसकी सूचना राज्यों को भी भेजी जाती है। उसके बाद भी बीते छमाह में एक भी अफसर ने आवेदन नहीं दिया। केंद्र ने ट्राइबल कोऑपरेटिव मार्केटिंग फेडरेशन ऑफ इंडिया (ट्राईफेड) के दिल्ली- एनसीआर, अहमदाबाद, रांची, कोलकाता, भुवनेश्वर और रायपुर में सीनियर मैनेजर के पदों के लिए पे मैट्रिक्स लेवल 12 यानी डिप्टी कलेक्टर रैंक के अफसरों से आवेदन आमंत्रित किए हैं। पहली बार ये अधिसूचना 12 जून को जारी की गई थी। उसके बाद से अब तक छह माह से लगातार डेट-पर-डेट बढ़ाई जा रही लेकिन किसी ने भी आवेदन नहीं दिया।

अब एक बार और डेट 3 दिसंबर तक बढ़ा दी गई है। ऐसा नहीं है कि केवल सहकारिता या आदिम जाति कल्याण विभाग के ही अफसर हो।कोई भी अफसर आवेदन कर सकता है। सहकारिता वह भी केन्द्रीय सहकारिता विभाग का उपक्रम है- ट्राईफेड । यहां कुछ कर लो दिल्ली दूर है पता नहीं चलेगा। इसी ध्येय से पूर्व में कई अफसरों ने अपने वाले न्यारे किए हैं।

इस बार एक बात है इस विभाग के केंद्रीय मंत्री अमित शाह हैं। शायद इसी घबराहट में अहमदाबाद समेत सभी किसी भी राज्य के लिए आवेदन न किए जा रहे हों।  यही हाल रहा तो दिसंबर के बाद विभाग विज्ञापन ही वापस ले ले।

क्या मानसिक फिटनेस की अनदेखी हुई?

भारतीय रेलवे को दुनिया का सबसे बड़ा रेल नेटवर्क माना जाता है। इस समय यह लोको पायलटों की भारी कमी से जूझ रहा है। रेल यूनियनों की मार्च 2024 की स्थिति में जारी एक रिपोर्ट में बताया गया था कि रेलवे में 1 लाख 24 हजार लोको पायलटों के पद स्वीकृत हैं, मगर इनमें से 33 हजार 174 पद खाली पड़े हैं। यह कभी वैसे तो 23 प्रतिशत है, पर कुछ जोन में 40 से 45 प्रतिशत तक पहुंच जाती है। एसईसीआर, बिलासपुर में 25 प्रतिशत पद खाली हैं। यह स्थिति न केवल संचालन को प्रभावित कर रही है, बल्कि यात्रियों की सुरक्षा को भी खतरे में डाल रही है। गतौरा और बिलासपुर के बीच मालगाड़ी से एक मेमू पैसेंजर ट्रेन की टक्कर में 11 यात्रियों की जान चली गई, 20 से अधिक लोग घायल हो गए। इस दुर्घटना का संबंध कहीं इन रिक्तियों से नहीं है?

रेलवे अधिकारिक रूप से यह बताने को तैयार नहीं है कि मेमू के चालक विद्यासागर से मानसिक फिटनेस की परीक्षा पास की थी या नहीं। मगर, रेलवे में यह चर्चा है कि जून 2025 में विद्यासागर साइकोलॉजिकल टेस्ट पास नहीं कर पाए थे। उनकी परीक्षा फिर ली जानी थी। विद्यासागर मालगाड़ी के चालक थे और एक माह पहले ही पदोन्नत कर यात्री ट्रेन चलाने की जिम्मेदारी दी गई थी। मगर, यह साइको टेस्ट पास किए बिना ही दे दी गई। रेलवे के अफसरों का अनऑफिशियली यह कहना है कि विद्यासागर के साथ एक सहायक लोको पायलट को इसीलिए रखा गया था।

दुर्घटना नियंत्रण के लिए 1962 में बनी एक कमेटी की सिफारिश पर साइकोलॉजिकल परीक्षा रेलवे में सन् 1964 से अनिवार्य है। पायलट का एक गलत निर्णय सैकड़ों जिंदगियों को संकट में डाल सकता है। इसलिए चालक को यात्री ट्रेन देने से पहले देखा जाता है कि वह फिट व सतर्क है या नहीं, आपात स्थिति में निर्णायक क्षमता कैसी है? चालक की एकाग्रता, निर्णय-क्षमता, स्मृति, तनाव सहने की शक्ति, दृश्य-श्रव्य प्रतिक्रिया कैसी है? पर एक तो गुड्स परिवहन का टारगेट पूरा करने का दबाव है, दूसरा यात्री सेवाओं में कमी होने पर लोगों को रोष से बचना है। ऐसी स्थिति में जब लोको पायलट की संख्या, जो बिलासपुर जोन में 25 प्रतिशत तक कम हैं- उन चालकों को भी यात्री ट्रेन चलाने की जिम्मेदारी दी जा रही है, जिन्होंने साइको फिटनेस का टेस्ट पास नहीं किया। रेलवे की ओर से प्रारंभिक जांच में यह कहा गया है कि घुमावदार ट्रैक पर सही सिग्नल को पायलट नहीं समझ नहीं पाया। उसने दूसरे ट्रैक के ग्रीन सिग्नल को अपने ट्रैक का सिग्नल समझ लिया होगा। रेलवे का यही अनुमान इशारा करता है कि साइको फिटनेस टेस्ट कितना जरूरी होता है। दुर्घटना की उच्चस्तरीय जांच हो रही है, पर शायद ही उन अफसरों पर कार्रवाई होगी, जिन्होंने विद्यासागर यात्री ट्रेन की टेस्ट ड्राइव में झोंक दिया। फिलहाल तो विद्यासागर को ही जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। जो अपनी सफाई देने के लिए इस दुनिया में नहीं हैं। खुद उनकी तीन बेटियों के सिर से पिता का साया उठ चुका है।


अन्य पोस्ट