राजपथ - जनपथ
छठे आयोग की तरह आठवें की देरी
आज की तारीख में 8 वें वेतन आयोग को लेकर दिल्ली में जो कुछ भी प्रक्रियागत उहापोह चल रही है, वह हूबहू छठे वेतन आयोग जैसी ही है। इस बार केवल गठन समय से पहले कर दिया गया। हालांकि अभी अध्यक्ष सदस्यों की नियुक्ति सात महीने से नहीं हो पाई है। इसे गठन को भी देरी में गिना जा सकता है। इसलिए सब कुछ वैसा ही है। 6वां वेतन आयोग 1 जनवरी, 2006 से लागू होना था। लेकिन गठन हुआ जुलाई 2006 में।
इसकी वजह से आयोग को रिपोर्ट तैयार करने में लगभग डेढ़ साल का समय लगा और इसे मार्च 2008 में सरकार को सौंपा। इसे लागू करने सरकार ने 14 अगस्त, 2008 को मंजूरी दी। हालांकि, इसे दो साल पहले की डेट 1 जनवरी 2006 से लागू किया गया। इसका फायदा कर्मचारियों को मिला। उनके हर कर्मचारी के हाथ में 32 महीने का एरियर आया। उस समय कहावत चलती थी हर कोई बोरा भर भरकर ले गया।
बहरहाल अब 8वां वेतन आयोग 1 जनवरी, 2026 से लागू होना है। सरकार ने इसके गठन को तो मंजूरी 16 जनवरी 2025 में ही दे दी, लेकिन अभी तक अध्यक्ष सदस्यों की कोई आधिकारिक घोषणा नहीं हुई है। चर्चा है कि साल के अंत तक इनकी नियुक्ति हो सकती है। अगर आयोग 2025 के अंत या 2026 की शुरुआत में भी बनता है, तो उसे रिपोर्ट देने में डेढ़ साल लग सकते हैं, यानी मार्च 2027 तक तो सिर्फ सिफारिशें आएंगी। तब सरकार को 30-32 महीने का एरियर देना पड़ सकता है। और वह समय भी आम चुनाव का होगा।
शायद सरकार को उम्मीद हो कि अच्छा वेतन पैकेज वोट में तब्दील हो। वैसे वेतन आयोग की रिपोर्ट तैयार करना एक लंबी और जटिल प्रक्रिया है, जिसमें स्वाभाविक रूप से 2-3 साल का समय लगता है। वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए, किसी भी ठोस घोषणा के लिए 2025 के अंत या 2026 की शुरुआत तक इंतजार करना पड़ सकता है।
सरकारी छोड़ निजी नौकरी में
आईएफएस के वर्ष-2006 बैच के आईएफएस अफसर अरुण प्रसाद पी अपने पद से इस्तीफे के बाद मद्रास की एक मल्टीनेशनल कंपनी जॉइन करने वाले हैं। सीसीएफ स्तर के अफसर अरुण प्रसाद पर्यावरण संरक्षण मंडल के सदस्य सचिव थे। पिछले महीने ही केन्द्र सरकार ने प्रसाद का इस्तीफा मंजूर किया था।
प्रसाद आईएफएस के पहले अफसर हैं, जो कि ऑल इंडिया सर्विस से इस्तीफे के बाद निजी कंपनी में सेवाएं देने जा रहे हैं। हालांकि आईएएस के दो अफसर शैलेश पाठक, और राजकमल ने भी नौकरी छोडक़र निजी कंपनी जॉइन की थी। आईएएस के वर्ष-88 बैच के अफसर शैलेश पाठक ने भी राज्यपाल के सचिव रहते नौकरी छोड़ दी थी, और वो बहुराष्ट्रीय कंपनी में चले गए थे। इसी तरह 94 बैच के अफसर राजकमल भी कोरबा कलेक्टर थे, और फिर बाद में उन्होंने नौकरी छोड़ दी। वे वर्तमान में दुबई में मैकेंजी कंपनी में सेवाएं दे रहे हैं। उनकी पत्नी रिचा शर्मा एसीएस हैं। फिर भी प्रसाद के इस्तीफे की काफी चर्चा है। वजह यह है कि उनकी सेवा मात्र 19 साल की ही रही। ये अलग बात है कि वो हमेशा मलाईदार पदों पर रहे हैं। प्रसाद को लेकर यह कहा जा रहा है कि वो निजी कारणों से अपने गृह राज्य तमिलनाडु में रहना चाहते हैं।
परंपरा, आस्था हो तो पशु प्रेम..?

कोल्हापुर के नंदनी गांव में जैन मठ की वर्षों पुरानी परंपरा का हिस्सा रही 36 वर्षीय हथिनी महादेवी वहां के लोगों के लिए केवल एक पशु नहीं थी। वह पूजनीय थी, परिवार जैसी थी। गांववासियों ने उसे अपने पर्वों, अनुष्ठानों और जीवन के हर महत्वपूर्ण क्षण में शामिल किया था। ऐसे में जब बॉम्बे हाई कोर्ट और फिर सुप्रीम कोर्ट ने उसके स्वास्थ्य को प्राथमिकता देते हुए उसे जामनगर के वंतारा पुनर्वास केंद्र भेजने का आदेश दिया, तो यह फैसला गांव के लोगों के लिए गहरा भावनात्मक आघात बन गया।
महादेवी गठिया, नाखूनों की बीमारी, पैरों में संक्रमण और मानसिक तनाव से पीडि़त थी। ‘पेटा’ संस्था ने लगातार यह बात उठाई कि वह बीमार और दुखी है। संस्था का कहना था कि महादेवी को बेहतर इलाज, खुला वातावरण और अन्य हाथियों का साथ मिलना चाहिए ,जो वंतारा जैसे आधुनिक पुनर्वास केंद्र में संभव है।
स्पेशल एंबुलेंस से उसे जामनगर के वंतारा केंद्र पहुंचा दिया गया। इस फैसले के विरोध में हजारों लोगों ने मौन पदयात्रा निकाली। वंतारा अभयारण्य अंबानी समूह द्वारा संचालित है। स्थानीय लोगों को यह महसूस हुआ कि जिस देवी हथिनी से उनकी आस्था जुड़ी है, उस पर अब एक कॉरपोरेट का हस्तक्षेप हो रहा है। नाराजगी के चलते लोगों ने जियो सिम का बहिष्कार शुरू कर दिया। सोशल मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक करीब 1.5 लाख लोगों ने जियो सिम पोर्ट कराने के लिए आवेदन कर दिया है।
विवाद बढ़ता देख वंतारा प्रबंधन ने महादेवी की देखभाल का वीडियो जारी किया और सफाई दी कि उन्होंने महादेवी को नहीं मांगा था, बल्कि वे केवल अदालत के आदेश का पालन कर रहे हैं। जनभावनाओं के दबाव में महाराष्ट्र सरकार भी हरकत में आ गई। मंत्रिपरिषद की आपात बैठक हुई, जिसमें निर्णय लिया गया कि सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका दायर की जाएगी। साथ ही यह भी आश्वासन दिया गया कि यदि महादेवी को नंदनी मठ में वापस लाया गया, तो वहां वंतारा जैसी चिकित्सा और देखभाल की व्यवस्था की जाएगी।
फिलहाल महादेवी जामनगर में है और इलाज जारी है। लेकिन इस पूरे घटनाक्रम ने कुछ जरूरी सवाल खड़े कर दिए हैं। क्या हम किसी पशु को तभी प्रेम करते हैं जब वह हमारी धार्मिक परंपराओं का हिस्सा हो? और जब उसकी स्वतंत्रता, स्वास्थ्य और सुरक्षा की बात आती है, तो क्या करते हैं? छत्तीसगढ़ की तरफ भी एक नजर डालिए। यहां हाईवे पर दम तोड़ते बेसहारा गायों और जंगलों में सुकून के लिए जख्मी हालत में भटकते, करंट से मारे जाते, हाथियों की दशा देखकर हम कितने भावुक होते हैं? क्या हमारा पशु प्रेम और हमारी आस्था, वास्तव में पशुओं के हित के लिए कुछ कर पाने लायक है?
लमसेना और देवता बनने की कहानी

क्या आप जानते हैं कि छत्तीसगढ़ की धरती पर एक अनोखी परंपरा है-लमसेना।
आमतौर पर इसका अर्थ होता है-घरजमाई। लेकिन कांकेर और नगरी जैसे अंचलों में यह शब्द सिर्फ एक सामाजिक भूमिका नहीं, बल्कि सम्मान और आस्था की मिसाल है। परंपरा ये है कि जिनके पास बेटा नहीं होता, वे किसी मेहनती और ईमानदार युवक को अपने घर में रहने की जगह देते हैं। वह युवक परिवार के साथ रहकर खेत-खलिहान संभालता है, घर की जि़म्मेदारियां निभाता है। यह एक तरह की परीक्षा होती है, जिसे वहां खटना कहा जाता है। सालों की परीक्षा के बाद जब परिवार को लगता है कि यह युवक सच्चा, कर्मठ और भरोसेमंद है, तब उसे बेटी से विवाह की अनुमति दी जाती है। तब वह युवक लमसेना कहलाता है। उसे जो संपत्ति दी जाती है, वह सिर्फ उसी की होती है। न उसमें किसी बहन-भाई का हिस्सा होता है, न कोई झगड़े का सवाल उठता है।
लमसेना को खुद पर गर्व होता है। वह कहता है-मैं यहां खटा हूं, पसीना बहाया है, भरोसा कमाया है। तभी इस परिवार का हिस्सा बना हूं।
अब सोचिए, इस सामाजिक परंपरा को देवत्व मिल जाए तो? कांकेर जिले में, दुधावा बांध से विश्रामपुरी की ओर जाने वाले रास्ते में एक तिराहा है। वहां लमसेना डोकरा देवता खुले आकाश के नीचे विराजमान हैं। न मंदिर, न छत। फिर भी ऐसी गहराई से बसी हुई आस्था कि हर गुजरता मुसाफिर सिर झुकाता है। लोग नारियल चढ़ाते हैं, मन्नत मांगते हैं, और पूरी होने पर आकर कृतज्ञता जताते हैं। यह रास्ता अब भारतमाला परियोजना के तहत चौड़ी सडक़ में बदल रहा है। आगे केशकाल का पहाड़ी इलाका है, जहां सुरंग निर्माण जारी है। सुरक्षा कारणों से अभी प्रवेश सीमित है, लेकिन जल्द ही यह पूरा क्षेत्र पर्यटन और विकास का बड़ा केंद्र बनने वाला है। सोचिए, क्या आपने कभी ऐसा देवता देखा है, जो मेहनत, ईमानदारी और अपनेपन का प्रतीक हो? ( फोटो व टिप्पणी- गोकुल सोनी)


