महासमुन्द

रोटियां जुटाने हर सुबह 7 किमी की जद्दोजहद, नंगे पैर सिर पर लकडिय़ों के गट्ठे का बोझ भी
08-Jan-2022 1:43 PM
रोटियां जुटाने हर सुबह 7 किमी की जद्दोजहद, नंगे पैर सिर पर लकडिय़ों के गट्ठे का बोझ भी

   मिले पैसे से राशन खरीदकर खाना बनाती हैं और दोपहर कुल्हाड़ी लेकर फिर से जंगल की ओर...  
‘छत्तीसगढ़’ विशेष रिपोर्ट
उत्तरा विदानी

महासमुंद, 8 जनवरी (‘छत्तीसगढ़’ संवाददाता)। महासमुंद जिला मुख्यालय से लगभग 7 किलो मीटर दूर स्थित चोरभट्ठी, बनशिवनी, घोंघीबाहरा गांवों की सैकड़ों महिलाएं जंगल से लकड़ी काटकर पैदल ही शहर तक लाकर बेचती हैं। कल ‘छत्तीसगढ़’ से उनकी मुलाकात हुई, तब इसकी जानकारी मिली। महिलाएं सुबह 5 बजे सिर में लकडिय़ों का भारी गट्ठा लेकर पैदल ही घरों से निकलती हैं और शहर में लकडिय़ां बेचकर 9 बजे तक वापस 10 किलोमीटर की दूरी तय कर अपने घरों को लौट आती हैं। लकडिय़ां बेचकर मिले पैसे से घर के लिए राशन खरीदकर बच्चों के लिए खाना तैयार करती हैं और दोपहर कुल्हाड़ी लेकर फिर से जंगल की ओर निकल जाती हैं। दोपहर 3 बजे तक यह सिलसिला जारी रहता है। शाम ढलते गांव के तालाब में नहा धोकर ये आंगन में रखी लकडिय़ों का गट््ठा तैयार करती हैं ताकि दूसरे दिन भिनसारे ही उसे शहर तक पहुंचाया जा सके।

बरसत सीजन खत्म होते ही महासमुंद शहर में लकडिय़ों का भारी भरकम गट्ठा लेकर महिलाओं को हर सुबह पहुंचते देख कल मैं उनका पीछा करने लगी। लगभग सौ महिलाएं लकडिय़ों का गट्ठा अलग-अलग बस्तियों में बेच उससे मिले पैसे लेकर पैदल ही बगैर चप्पल घरों को लौटने लगीं। उनके साथ-साथ धीरे-धीरे मैं भी अपनी वाहन से महासमुंद से 7 किलोमीटर दूर चोरभट्ठी, बनशिवनी, घोंघीबारहा की ओर निकल गई। चोरभट्ठी के आसपास एक किलोमीटर के दायरे में छोटे-छोटे गांव हैं। अपने घर पहुंचने से पहले महिलाओं ने दुकान से राशन खरीदा, घर पहुंचकर बच्चों के लिए खाना तैयार किया। खा पीकर रस्सी और कुल्हाड़ी के साथ बोतल में पानी लेकर 11 बजे के आसपास जंगल की ओर निकलीं। सभी अलग-अलग दिशाओं में। वहां झाडिय़ों में से सूखी लकडिय़ां एकत्र कर गट्ठा तैयार कीं। उनके साथ एक-दो पुरुष भी थे। तैयार वजनी गट्ठे को पेड़ के सहारे खड़ा कर बल लगाकर सिर में रख महिलाएं घरों को लौटीं। तब तक घड़ी दोपहर तीन बजा रही थी। आंगन में गट्ठे को को लेकर लकडिय़ां अलग-अलग सुखाने के बाद तालाब में नहा धोकर वापस घरों को लौटीं। यह सिलसिला शाम 4 बजे तक चला।

चोरभट्ठी के आंगनबाड़ी के सामने खड़ी होकर मैं (‘छत्तीसगढ़’)आसपास की महिलाओं से बात करना चाह रही थी, लेकिन उन्होनें साफ मना कर दिया। सिर्फ यही कहती रहीं कि जंगल वाले अफसरों को मत बताना वरना बच्चों को भूखा रहना पड़ेगा।

यहां आंगनबाड़ी कार्यकर्ता सुरेखा ध्रुव ने जानकारी दी कि चोरभट्ठी सहित आसपास गांवों में रोजगार नहीं हैं। बारिश का मौसम खेतों में काम करके गुजरता है। जैसे ही बरसात समाप्त होती है, महिलाएं जंगल से लकडिय़ा लाकर बेचना शुरू कर देती हैं। अधिकांश पुरुष निठल्ले ही हैं। बच्चे स्कूल जाते हैं। महिलाएं हर सुबह लकडिय़ों का गट्ठा लेकर पैदल महासमुंद जाती हैं। शहर में चूल्हा जलाने वाले लोग लकडिय़ां खरीद लेते हैं। इससे मिले पैसे से घर लौटते वक्त महिलाएं राशन खरीद लेती हैं और घर लौटकर बच्चों के लिए खाना बनाती हैं। बच्चों के साथ खुद भी खाना खाकर बच्चों को स्कूल भेज देती हैं और खुद हाथ में कुल्हाड़ी और रस्सी लेकर जंगल चली जाती हैं। वहां से लकडिय़ां लाकर आंगन में सुखाने रख देती हैं और सूखी लकडिय़ों का गट्ठा तैयार कर लेती हैं ताकि दूसरी सुबह शहर जाने में देरी न हो।

इस संबंध में ‘छत्तीसगढ़’ से बातचीत के दौरान विधायक एवं संसदीय सचिव विनोद सेवनलाल चंद्राकर ने कहा कि शीघ्र ही इन गांवों की महिलाओं का समूह तैयार कर उन्हें कौशल प्रशिक्षण देकर किसी काम में महारत किया जाएगा और फिर उन्हें रोजगार दिया जाएगा।

ज्ञात हो कि चोरभट्ठी में पत्थर का खदान है। उन खदानों में अब काम बंद हैं। पहले जब उन खदानों में से पत्थर निकालने का काम होता था, तब चोरभट्ठी समेत आसपास गांवों के  महिला-पुरुष उसमें काम करते थे। जब से खदानें बंद हैं, पुरुषों का काम भी बंद है। महिलाएं किसी तरह परिवार पाल रहीं हैं।


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