संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : भगवा से लेकर लाल रंग तक से छपे अखबार बच्चों के पढऩे लायक रहेंगे?
27-Dec-2025 5:37 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय :  भगवा से लेकर लाल रंग तक से छपे अखबार बच्चों के पढऩे लायक रहेंगे?

देश के एक सबसे प्रमुख हिंदी साहित्यकार विनोद कुमार शुक्ल के गुजरने पर अब उनकी कही बातें चारों तरफ गूंज रही हैं। एक खबर बताती है कि विनोदजी ने किस तरह अखबार पढऩे के महत्व को बताया था और बच्चों के लिए भी अखबार पढऩा जरूरी कहा था उनका कहना था कि अखबार पढऩे की आदत आगे चलकर सोचने को मजबूर करती है। उनका यह भी कहना था कि अखबार ज्ञान का बड़ा माध्यम है, और खबरों को पढऩा अगर दिलचस्प तरीके से सिखाया और बताया जाए तो बच्चे उसमें दिलचस्पी लेना शुरू कर देते हैं। यह भी दिलचस्प बात है कि उत्तरप्रदेश में योगी सरकार ने सरकारी स्कूलों के बच्चों के लिए दस मिनट अखबार पढऩा अनिवार्य कर दिया है। अब योगी तो घोर हिंदुत्ववादी भाजपाई मुख्यमंत्री हैं, लेकिन दूसरी तरफ वामपंथी शासन वाले केरल में जाने एक सदी से, या उसके भी पहले से अखबार पढऩे की कई अलग-अलग किस्म की परंपराएं हैं। एक वक्त सार्वजनिक जगहों पर कुछ छांटी गई दीवारों पर अखबार के पन्ने चिपका दिए जाते थे, और लोग वहां खड़े होकर खबरों को पढ़ते थे। जाहिर है कि ऐसे लोग आपस में खबरों पर बात भी करते रहे होंगे। हो सकता है कि देश के कुछ और प्रदेशों में भी ऐसा रहा हो, लेकिन केरल की एक खूबी यह भी थी कि जिस जगह पर बहुत से मजदूर बैठकर काम करते हैं, वहां पर एक मजदूर एक ऊंची कुर्सी पर बैठकर अखबार पढक़र उसमें से जरूरी और महत्वपूर्ण बातें बाकी मजदूरों को सुनाता है, और इस अखबार पढऩे वाले मजदूर को भी कारखानेदार को रोजी देनी पड़ती है। इस तरह बिना पढ़े हुए, काम करते हुए भी केरल के मजदूर देश और दुनिया से वाकिफ रहते आए हैं। शायद यह भी एक वजह है कि केरल में देश की सबसे बड़ी साक्षरता है, लैंगिक अनुपात देश में केरल में सबसे अधिक है, महिलाओं के कामकाजी होने का अनुपात भी केरल में देश के किसी भी दूसरे प्रदेश के मुकाबले अधिक है।

विनोद कुमार शुक्ल किसी वामपंथी, या दक्षिणपंथी सोच के हिमायती नहीं रहे, लेकिन उनकी अखबार पढऩे और पढ़वाने की सोच दक्षिणपंथी यूपी से लेकर वामपंथी केरल तक आज अमल में आ रही है, यह कैसी गजब की बात है। फिर बहुत से लोगों को यह भी शिकायत रहते आई है कि विनोद कुमारजी राजनीतिक, या जनसरोकार के मुद्दों पर कभी बोलते नहीं थे। यह संपादकीय लिख रहे संपादक ने 25 बरस पहले एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म बनाते हुए विनोद कुमारजी को लोकतंत्र से जुड़े हुए जलते-सुलगते मुद्दों पर लंबा इंटरव्यू किया था, और इस वीडियो रिकॉर्डेड इंटरव्यू में उन्होंने आदिवासियों के हक से लेकर नक्सलियों तक, और मानवाधिकार से लेकर दूसरे राजनीतिक मुद्दों तक खुलकर टिप्पणी की थी। अब यह लगता है कि जो लोग विनोद कुमार शुक्ल को राजनीति और सरोकार के मुद्दों से अछूता मानते हैं, उन्होंने शायद कभी उनसे इन मुद्दों पर ठोस चर्चा की कोशिश नहीं की थी।

खैर, विनोद कुमार शुक्ल पर चर्चा आज का मकसद नहीं है, बल्कि मकसद यह है कि क्या स्कूल के बच्चों को अखबार पढ़वाना चाहिए? क्या अखबारों में आज हिंसा की जितनी खबरें रहती हैं, जितनी नकारात्मक खबरें रहती हैं, चारों तरफ भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी पन्नों पर छाए रहते हैं, क्या वह सबकुछ बच्चों के लिए स्कूल की उम्र में पढऩे लायक बातें हैं? यह सवाल कुछ मुश्किल इसलिए है क्योंकि घरों में अखबार आते हैं, और उन्हें कोई छुपाकर तो रखा नहीं जाता, वे बच्चों की नजरों में आते ही हैं, और बच्चे अगर दिलचस्पी लें, तो बहुत से बच्चों के घरों में अखबार पढऩे का माहौल हो सकता है, और वहां पर तो मां-बाप उनके मन में उठते सवालों के जवाब देने के लिए रहते भी हैं। स्कूलों में तो बच्चे तो बहुत से रहते हैं, सवाल बहुत से हो सकते हैं, और हो सकता है कि शिक्षक उनमें से किसी सवाल का तथ्यपूर्ण, वैज्ञानिक, और सही ऐतिहासिक जानकारी वाले जवाब दे, तो कुछ ही देर में वे पिट भी सकते हैं। इसलिए स्कूलों में अखबार पढ़वाने की सोच पर योगी सरकार ने क्या सोचकर अमल किया है, लेकिन कोई भी अच्छा अखबार कई किस्म के सवाल खड़े करता है, और आज का माहौल सवालों का तो है नहीं। अगर कंटीली झाडिय़ां सामने आएं, और सवालों की फसल सामने आए, तो अभी पहले तो सवाल ही काटे जाएंगे, कांटे तो फिर भी बर्दाश्त करने लायक माने जाएंगे।

 

अखबार, अगर सरोकार से भरे हुए, जिम्मेदार और अच्छे अखबार हैं, तो वे बच्चों के मन में बहुत तरह के जायज सवाल भी खड़े करेंगे। और इन सवालों के साथ जब बच्चे क्लासरूम में खड़े होंगे और टीचर से पूछेंगे, तो टीचर के लिए यह बड़ा सा धर्मसंकट, या अधर्मसंकट, रहेगा कि सच कहें और गिरफ्तारी झेलें, या झूठ बोलकर गुरू की जिम्मेदारी से मुंह चुराएं?

अगर अखबारों के नाम पर खराब अखबार पढ़ाना नीयत हो, तो उससे स्कूली बच्चे झूठे इतिहास के साथ-साथ झूठे वर्तमान को भी पढऩे के खतरे में आ जाएंगे। फिर यह भी रहेगा कि आज बाकी मीडिया की तरह कई अखबारों का एक बड़ा हिस्सा नफरती खबरों का रहता है, उनका बच्चों पर क्या असर होगा? अगर यह सोचें कि स्कूली बच्चों के पढऩे के लिए अलग से अखबार निकाले जाएं, तो वह एक अलग किस्म का खतरा रहेगा जहां उनकी समझ को सत्ता अपनी राजनीतिक और सांस्कृतिक पसंद से रंगने के लिए उसी रंग का अखबार निकालने लगेगी। केरल के अखबार लाल, और यूपी जैसे प्रदेशों के अखबार केसरिया स्याही से छपकर निकलने लगेंगे। इसलिए किसी भी तरह के अखबार की बात करें उसके साथ किसी न किसी किस्म के खतरे जुड़े रहेंगे।

विनोद कुमार शुक्ल किसी पंथी सोच से जुड़े हुए नहीं रहे, बल्कि कल ही विख्यात कवि-लेखक और विनोद कुमारजी के अत्यंत करीबी अशोक वाजपेयी ने अपने एक लेख में लिखा है कि इतिहास, जाति-स्मृति, और विचारधारा से लगभग दूर रहना विनोद कुमारजी की रणनीति या विवशता नहीं नैतिकता थी। अब सवाल यह भी उठता है कि किसी विचारधारा से दूर रहकर विनोद कुमारजी बच्चों के बीच कोई प्रोपेगैंडा तो करवाना नहीं चाहते रहे होंगे, और अगर कोई भी जिम्मेदार सरकार है, तो उन्हें बच्चों के स्कूलों का इस्तेमाल प्रोपेगैंडा के लिए करना भी नहीं चाहिए। ऐसे में स्कूल और अखबार, हमारा मतलब है आम और साधारण अखबार, ये साथ-साथ रखने पर कुछ गड़बड़ लगते हैं। हम बच्चों के अखबार पढऩे के खिलाफ नहीं हैं, बल्कि एक वक्त तो हम अपने अखबार का एक पूरा पन्ना सामान्य ज्ञान की जानकारियों का हर दिन रखते थे, और वह बच्चों के साथ-साथ उनके मां-बाप के बीच भी बड़ा लोकप्रिय था। अभी भी सरकार से परे कोई निजी प्रकाशक बच्चों के लिए एक दैनिक अखबार अगर निकाले, और जिम्मेदार मां-बाप इस तर्क से सहमत हो जाएं कि बच्चों के लिए तैयार किया गया अखबार उनके लिए रोज खरीदा जाना चाहिए, तो हो सकता है कि वह एक कामयाब प्रकाशन भी हो जाए। सरकारों के लिए ऐसे किसी प्रकाशन की सोचना और उसमें दखल देना कुछ दिक्कत की बात रहेगी क्योंकि सत्तारुढ़ पार्टियों की अपनी राजनीतिक विचारधाराएं रहती हैं, अपनी धार्मिक और सांस्कृतिक प्रतिबद्धताएं रहती हैं, और वे उससे मुक्त होकर कोई प्रकाशन कर नहीं सकतीं।

बच्चों के अखबार पढऩे की सोच बड़ी अच्छी है, लेकिन आज अखबार उतने अच्छे नहीं हैं। अखबारों में खबरों की हालत जब यह रहे कि अखबार को निचोड़ो तो लहू टपकने लगे, तो वैसा खून सना अखबार बच्चों के बीच कैसे रखा जाए? फिर भी मां-बाप या स्कूल, यह जरूर सोच सकते हैं कि क्या अलग-अलग खबरों को काट-काटकर उन चुनिंदा कतरनों से एक ऐसा अखबार तैयार किया जा सकता है जो कि बच्चों के पढऩे के लायक हो? या फिर इसे लेकर झंडे-डंडे लेकर स्कूल पहुंच जाने वाले और टीचर की पिटाई करने वाले लोगों का खतरा बना रहेगा?

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