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180 मिलियन टन कोयला उत्पादन के अनुमान के बीच न सिर्फ पेड़-पौधे, बल्कि स्थानीय जीवनशैली और पर्यावरण भी संकट में
'छत्तीसगढ़' संवाददाता
रायपुर, 21 जुलाई। छत्तीसगढ़ का कोरबा जिला देश में कोयला और बिजली उत्पादन का सबसे बड़ा केंद्र बन गया है, लेकिन इसकी भारी कीमत पर्यावरण चुका रहा है। एक नई शोध रिपोर्ट में खुलासा हुआ है कि कोरबा जिले की हरियाली पिछले 30 वर्षों में खतरनाक स्तर तक घट चुकी है।
1995 में जहां कोरबा के 35.56 प्रतिशत हिस्से पर घना जंगल था, वहीं अब 2024 में यह घटकर महज 14 प्रतिशत रह गया है। शोधकर्ताओं का कहना है कि बेतहाशा खुले कोयला खनन (ओपनकास्ट माइनिंग) और कमज़ोर पुनर्स्थापन (रिक्लेमेशन) नीतियों की वजह से यह हालात बने हैं।
संत गहिरा गुरु विश्वविद्यालय अंबिकापुर के पर्यावरण विज्ञान विभाग के असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. जोयस्तु दत्ता के अनुसार कोरबा में भूमि उपयोग और आवरण ( लैंड यूज एंड लैंड कवर-एलयूएलसी) के बदलाव को लेकर समग्र समझ की कमी थी। हमने 1995 से 2024 के बीच हुए नुकसान का आंकलन किया और पाया कि रिक्लेमेशन की रणनीतियां बेहद कमजोर रही हैं।
रिपोर्ट में कहा गया है कि खनन के चलते केवल पेड़ नहीं कटे, बल्कि कृषि भूमि भी नष्ट हुई और कई जगहों पर अब बंजर भूमि बन चुकी है। इससे मृदा क्षरण, जल संधारण क्षमता में कमी और जैव विविधता पर भी बुरा असर पड़ा है।
यह भी पाया गया है कि खनन क्षेत्रों के आस-पास रहने वाले लोग, विशेष रूप से आदिवासी समुदाय (जो कोरबा की जनसंख्या का 40% से अधिक हैं), सबसे ज़्यादा प्रभावित हुए हैं। स्वच्छ हवा, पानी और खेती के संसाधन तेजी से खत्म हो रहे हैं। कोरबा देश के आकांक्षी जिलों में शामिल है, लेकिन यहां की हालत चिंता जनक है।
वैज्ञानिकों ने यह कहा है कि कोरबा में अभी 13 कोयला खदानें चल रही हैं, 4 और आने वाली हैं। 2025 तक कोयला उत्पादन 180 मिलियन टन तक पहुंच सकता है। उन्होंने चेतावनी दी है किकेवल वृक्षारोपण जैसे कदम अब काफी नहीं हैं, एक मजबूत नीतिगत बदलाव जरूरी है।
रिपोर्ट में देशव्यापी चेतावनी दी गई है कि भारत की 44 प्रतिशत भूमि पर अब तक क्षरण हो चुका है, जो वैश्विक औसत (23 प्रतिशत) से काफी ज़्यादा है। कारण हैं – वनों की कटाई, अत्यधिक खनन, और अस्थायी औद्योगिक मॉडल। यह रिसर्च छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, उत्तराखंड और ताइवान के शोध संस्थानों ने मिलकर किया है।