अंतरराष्ट्रीय

बच्चे जिंदगी को दिशा देते हैं, पर खुशी घट जाती है : रिपोर्ट
25-May-2025 8:38 PM
बच्चे जिंदगी को दिशा देते हैं, पर खुशी घट जाती है : रिपोर्ट

यूरोप के 30 देशों में किए गए एक नए अध्ययन से सामने आया है कि माता-पिता अपने जीवन को भले ही अधिक अर्थपूर्ण और मूल्यवान मानते हैं, लेकिन वे अक्सर जीवन से कम संतुष्ट होते हैं।

 डॉयचे वैले पर विवेक कुमार  की रिपोर्ट- 

क्या बच्चों का होना जीवन को बेहतर बनाता है? इस सवाल का जवाब शायद पहले जितना सरल नहीं रहा। जर्मनी के कोलोन विश्वविद्यालय द्वारा पूरे यूरोप में किए गए अध्ययन से पता चला है कि जिन लोगों के बच्चे हैं, वे अपने जीवन को ज्यादा अर्थपूर्ण और मूल्यवान तो मानते हैं, लेकिन उनके जीवन की कुल संतुष्टि अपेक्षाकृत कम है। यह अध्ययन यूरोप के 30 देशों में 43,000 से अधिक प्रतिभागियों पर आधारित है। इसे ‘जर्नल ऑफ मैरिज एंड फैमिली’ में प्रकाशित किया गया है।

जरूरी नहीं कि संतोष मिले

शोधकर्ता डॉ. आंसगार हुडे कहते हैं कि जिनके बच्चे होते हैं, वे अपने जीवन को अधिक उद्देश्यपूर्ण मानते हैं, लेकिन यह जरूरी नहीं कि वे ज्यादा खुश या संतुष्ट हों। उन्होंने अपने अध्ययन में पाया कि कई बार माता-पिता बिना बच्चों वाले लोगों की तुलना में कम संतुष्ट पाए गए। यह विरोधाभास समाजशास्त्रियों के लिए महत्वपूर्ण और चौंकाने वाला है, क्योंकि पारंपरिक रूप से माना जाता रहा है कि संतान जीवन में स्थायित्व और प्रसन्नता लाती है।

यह अध्ययन दो पहलुओं को केंद्र में रखकर किया गया। जीवन से संतुष्टि और जीवन में अर्थ का अहसास। शोध में पाया गया कि हालांकि माता-पिता अपने जीवन को अधिक सार्थक मानते हैं, लेकिन वे अपने दैनिक जीवन से उतने संतुष्ट नहीं होते। यह असंतोष विशेष रूप से महिलाओं में अधिक देखा गया, खासकर उन महिलाओं में जो अकेली मां हैं, कम उम्र की हैं, जिनकी शिक्षा कम है या जो उन देशों में रहती हैं जहां चाइल्डकेयर की सुविधाएं कमजोर हैं। डॉ। हुड्डे के अनुसार, ‘जहां भी पैरेंटिंग अधिक कठिन होती है, वहां संतुष्टि की कीमत पर जीवन में अर्थ जुड़ता है।’

जर्मनी पीछे छूट रहा है

इस अध्ययन का एक दिलचस्प पहलू यह था कि स्कैंडिनेवियाई देशों जैसे स्वीडन, नॉर्वे और डेनमार्क में माता-पिता दोनों ही मोर्चों पर बेहतर महसूस करते हैं। वहां ना केवल जीवन अधिक अर्थपूर्ण लगता है, बल्कि माता-पिता अपने जीवन से संतुष्ट भी हैं। इसका मुख्य कारण है कि इन देशों में सरकारी नीतियों के जरिए माता-पिता को समय, पैसे और संस्थागत समर्थन के स्तर पर बड़ी राहतें दी जाती हैं। डे-केयर की उपलब्धता, पेरेंटल लीव और आर्थिक सहायता जैसी योजनाएं वहां माता-पिता के लिए जीवन को आसान बनाती हैं। डॉ। हुड्डे कहते हैं, ‘स्कैंडिनेवियाई देशों ने बच्चों की परवरिश को एक सामाजिक जिम्मेदारी के रूप में लिया है, ना कि केवल निजी बोझ के रूप में।’

इसके उलट, जर्मनी में पारिवारिक नीतियों की प्रगति पिछले कुछ वर्षों में धीमी पड़ी है। 2000 के दशक के अंत में जर्मनी ने डे-केयर सुविधाओं के विस्तार और स्वीडन की तरह पेरेंटल बेनिफिट्स जैसी योजनाएं अपनाकर दुनियाभर में प्रशंसा पाई थी। लेकिन डॉ। हुड्डे मानते हैं कि आज उस सुधार की गति थम चुकी है। उनका मानना है कि इस अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि जर्मनी सहित कई देशों को अब दोबारा पारिवारिक नीतियों को गति देने की जरूरत है।

अब उद्देश्य की तलाश

शोध यह भी दिखाता है कि आज की पीढ़ी केवल मनोरंजन या जीवन की सुख-सुविधाएं नहीं चाहती, बल्कि वे ऐसे उद्देश्यों की तलाश में हैं जो उन्हें आत्मिक संतोष दे। डॉ। हुड्डे कहते हैं, ‘लोग चाहते हैं कि उनका जीवन सिर्फ मौज-मस्ती में न बीते, बल्कि किसी बड़े उद्देश्य से जुड़ा हो। और कई लोग उस उद्देश्य को मातृत्व या पितृत्व में पाते हैं।’ यही कारण है कि भले ही बच्चे पालना कठिन हो, लेकिन वे जीवन को एक गहराई और दिशा देते हैं।

इस अस्पताल में बच्चे वीडियो गेम खेलकर ठीक हो जाते हैं

यह अध्ययन एक जटिल लेकिन महत्वपूर्ण सच्चाई की ओर इशारा करता है कि बच्चे जीवन को उद्देश्य दे सकते हैं, लेकिन अगर समाज उन्हें पालने के लिए पर्याप्त समर्थन न दे, तो वही उद्देश्य बोझ भी बन सकता है। इस शोध के जरिए नीति-निर्माताओं को यह समझने का अवसर मिलता है कि अगर वे समाज को खुशहाल देखना चाहते हैं, तो उन्हें माता-पिता को सिर्फ नैतिक नहीं, बल्कि आर्थिक और संस्थागत सहारा भी देना होगा। (dw.com/hi)


अन्य पोस्ट