अंतरराष्ट्रीय

-आबिद हुसैन
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान अपने सियासी करियर की सबसे बड़ी चुनौती का सामना कर रहे हैं. अविश्वास प्रस्ताव लाकर विपक्ष उन्हें पद से हटाना चाहता है.
हाल के दिनों में पाकिस्तान के सियासत में एक के बाद एक कई गतिविधियां देखने को मिलीं. कुछ लोग तर्क देते हैं कि ऐसी रणनीति बनाई गई थी जिसके बाद इमरान ख़ान के सहयोगी उनकी पाकिस्तान तहरीक़-ए-इंसाफ (पीटीआई) को छोड़कर विपक्ष की तरफ़ जाने लगे.
पीटीआई का सहयोगी संगठन मुत्ताहिदा क़ौमी मूवमेंट-पाकिस्तान (एमक्यूएम) बुधवार को उनसे अलग हो गया और विपक्ष में शामिल हो गया. ऐसे में पेपर पर विपक्ष के पास 175 वोट और सरकार के पास घटकर 164 वोट हो गए. 342 सीटों वाली नेशनल असेंबली में बहुमत के लिए 172 सीटें चाहिए.
जुलाई, 2018 में भ्रष्टाचार से निपटने और अर्थव्यवस्था को ठीक करने की कसम खाकर चुनाव जीतने वाले इमरान खान अब चुपचाप नहीं जा रहे हैं. इमरान ख़ान ने पिछले रविवार को इस्लामाबाद में एक विशाल रैली की थी इमरान ये दिखाना चाह रहे थे कि वो अब भी उनकी पॉपुलैरिटी बरकरार है.
इस रैली में वो अपने कट्टर प्रतिद्वंद्वियों नवाज शरीफ़ और आसिफ़ अली ज़रदारी के ख़िलाफ़ जमकर बरसते नज़र आए. ख़ान ने भीड़ के सामने एक लेटर भी लहराया, जिसमें आरोप लगाया गया था कि इसमें ''विदेशी साजिश" के सबूत हैं. उन्होंने आरोप लगाया कि "विदेशी धन के सहारे सरकार गिराने की कोशिश की जा रही है."
गुरुवार को राष्ट्र के नाम संबोधन में उन्होंने आरोप लगाया था कि इस साजिश को अमेरिका निर्देशित कर रहा है. इमरान ख़ान का कहना है कि उनकी विदेश नीतियों से अमेरिका ख़फा है और विपक्षियों से मिलकर उनकी सरकार गिराने का काम किया जा रहा है.
विश्लेषक इस दावे को संदेह की निगाह से देखते हैं और अमेरिकी विदेश मंत्रालय का कहना है कि ये आरोप सही नहीं है.
सेना के साथ अनबन?
इमरान ख़ान की सरकार को अपनी दिक्कतों को समझने के लिए दूर तक सोचने की ज़रूरत नहीं है. बढ़ती मंहगाई, विदेशी कर्ज़ के भार की वजह से सरकार ने लोगों का समर्थन खो दिया.
वाशिंगटन स्थित अटलांटिक काउंसिल में पाकिस्तान इनिशिएटिव के निदेशक उज़ैर यूनुस बताते हैं, "उदाहरण के लिए, जनवरी 2020 से मार्च 2022 तक, भारत की खाद्य मुद्रास्फीति लगभग 7% रही है, जबकि पाकिस्तान में ये लगभग 23% रही."
सेना के साथ इमरान ख़ान के तेजी से बिगड़ते रिश्ते देखने को मिले. हालांकि, दोनों ही पक्ष इससे इनक़ार करते हैं.
सेना की रेड लाइन
कई पर्यवेक्षक ये मानते हैं कि मौजूदा संकट की शुरुआत का पता अक्टूबर की उस घटना से लगाया जा सकता है जब इमरान ख़ान ने ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई के नए चीफ़ की नियुक्ति पर हस्ताक्षर करने से इनक़ार कर दिया था.
विश्लेषक आरिफ़ा नूर मानती हैं कि पाकिस्तान में नागरिकों और सेना के बीच के संबंधों में संघर्ष "स्वाभाविक" है. पाकिस्तान की सेना ने देश पर बरसों सीधा शासन किया है. वो कहती हैं कि ख़ुफ़िया एजेंसी के चीफ़ जनरल फैज़ हमीद को बदलने के मुद्दे ने एक दरार पैदा कर दी थी.
सिंगापुर स्थित रिसर्चर अब्दुल बासित इससे सहमत दिखते हैं, वो कहते हैं कि ये गतिरोध इमरान ख़ान के "अहंकार" और "अड़ियल" रवैये की वजह से पैदा हुआ था. इसकी वजह से एक ऐसा मुद्दा सार्वजनिक नज़रों में आ गया जिसकी चर्चा हमेशा बंद दरवाजों के पीछे की जाती थी.
बासित कहते हैं, "इमरान ख़ान ने सेना की रेड लाइन को क्रॉस किया है, आख़िरकार उन्होंने इस नियुक्ति को मंज़ूरी देनी पड़ी और यहीं से उनका पतन शुरू हो गया."
सेना और इमरान ख़ान दोनों ही किसी भी तरह के विवाद से इनकार करते हैं.
ये तीसरा मौका होगा?
पाकिस्तान के सियासत में केवल दो ऐसे उदाहरण हैं जब उस वक्त के प्रधानमंत्रियों को अविश्वास प्रस्ताव में वोटिंग का सामना करना पड़ा.
दोनों ही मौके पर सरकार बच गई. पहली बार 1989 में बेनज़ीर भुट्टो को और दूसरी बार 2006 में शौकत अज़ीज़ को इसका सामना करना पड़ा था.
लेकिन मौजूदा वक्त में पाकिस्तान की संसद के समीकरण को देखते हुए इमरान ख़ान की भारी हार के संकेत मिलते हैं.
अगर इमरान ख़ान की पार्टी के असंतुष्ट नेता इसमें हिस्सा नहीं लेते हैं तो भी उन्हें हार का सामना करना पड़ सकता है.
सरकार, सुप्रीम कोर्ट से ऐसे फ़ैसले की मांग कर रही है जो न केवल पीटीआई के असंतुष्ट नेताओं को दलबदल विरोधी कानून के तहत मतदान से रोकेगा बल्कि उन्हें आजीवन संसद से अयोग्य करार देगा.
सरकार बचने की संभावना
इस बीच, प्रधानमंत्री ख़ान और उनके कैबिनेट सदस्य ऐसा दिखाने की कोशिश कर रहे हैं और सहयोगियों से मिल रहे हैं कि जीत उन्हें ही मिलने वाली है.
उज़ैर यूनुस का मानना है कि इमरान ख़ान ने अपने सहयोगियों को छूट देने का मौका गंवा दिया है. यहां तक कि अगर वो इस तूफ़ान को झेल भी लेते हैं तो भी वो बड़ी ही अनिश्चितता वाली स्थिति में होंगे.
युनूस कहते हैं, "मुझे लगता है कि उन्हें जल्दी चुनाव कराना चाहिए. अगर किसी तरह वो इस संकट से बच जाते हैं तो वो जितनी देर सत्ता में रहेंगे, अर्थव्यवस्था को ठीक करने के लिए उनपर उतना ही दबाव होगा."
अब्दुल बासित भी ये मानते हैं कि इमरान ख़ान के पद पर बने रहने की संभावना क़रीब-क़रीब न के बराबर है. अगर वो किसी तरह से संकट से बच जाते हैं तो उनकी राह बेहद मुश्किल होगी.
वो कहते हैं, "ज़िंदगी बेहद कठिन होगी और अभी की स्थिति में तो कानून बना पाना एक बुरे सपने की तरह होगा, यही वजह है कि मैं अगले छह महीनों में चुनाव की उम्मीद करता हूं."
विपक्ष के पास कोई योजना है?
इमरान ख़ान के प्रतिद्वंदी जैसे-जैसे उनसे छुटकारा पाने के लिए संघर्ष करते हैं, ख़ान को ये महसूस होता है कि उन्होंने अपने कार्यकाल में जो कुछ किया है उसके लिए उन्हें अधिक तवज्जो मिलनी चाहिए.
पर्यवेक्षकों का मानना है कि महामारी की चुनौतियों के बीच, पीटीआई ने गरीबों को सहायता के लिए पर्याप्त काम किया है.
पाकिस्तान के कोरोना संक्रमण के आंकड़ों पर एक नज़र डालें तो 22 करोड़ की आबादी वाले देश में सिर्फ़ 15 लाख मामले सामने आए और 30,000 मौतें दर्ज़ की गईं, जो भारत में हुई तबाही की तुलना में बेहद कम है.
विश्लेषक आरिफ़ा नूर मानती हैं कि सरकार का ख़ैबर पख़्तूनख़्वाह और पंजाब में शुरू किया गया यूनिवर्सल हेल्थकेयर प्रोग्राम उसकी सबसे बड़ी सफलता थी.
वो कहती हैं, "आने वाले चुनाव में लोगों को आकर्षित करने के लिए ये उनका नारा हो सकता है. कुछ लोगों ने कोरोना से जुड़ी त्रासदी का अनुभव नहीं किया है लेकिन हेल्थ कार्ड जैसे कार्यक्रम वर्तमान और भविष्य के लिए बड़े प्रभावी साबित हो सकते हैं."
तो ऐसे में विपक्ष अगर सरकार को गिराने में कामयाब रहता है तो वो अपनी तरफ़ से क्या पेश कर सकता है? क्या जल्दबाज़ी में बना ये गठबंधन पाकिस्तान के गहरे आर्थिक, सामाजिक और संरचनात्मक मुद्दों का समाधान दे सकता है?
आरिफ़ा नूर का कहना है, "विपक्ष अवसरवादी लगता है. क्योंकि दुर्भाग्य से हमारे देश में सरकारों में बदलाव के नियम निर्धारित नहीं हैं. हर बार जब कोई सत्ता में होता है तो जो बाहर बैठे लोग होते हैं वो सत्ता को अस्थिर करना सही समझते हैं."
अब्दुल बासित का मानना है कि विपक्ष के पास केवल सरकार गिराने भर की योजना है लेकिन आगे क्या-क्या हो सकता है इसके बारे में विपक्ष ने होमवर्क नहीं किया है और न ही वो इसके बारे में परेशान हैं. वो कहते हैं, "पाकिस्तान कम से कम डेढ़ साल के लिए राजनीतिक अस्थिरता की ओर बढ़ रहा है."
उज़ैर यूनुस भी ये मानते हैं कि विपक्ष के पास इमरान खान को हटाने के अलावा कोई योजना नहीं है. वो कहते हैं, "उन्हें अलोकप्रिय फ़ैसले लेने को मजबूर किया जाएगा, जिसकी उन्हें राजनीतिक क़ीमत चुकानी होगी."
युनूस कहते हैं, "हालांकि, कोई फ़र्क नहीं पड़ता है कि कौन जीतता है, आख़िरकार हार पाकिस्तान नागरिकों की ही होगी. अगला पूरा चुनावी चक्र अस्थिर और ध्रुवीकरण से भरा होगा, चुनावों के बाद भी हमारे पास स्थिरता नहीं होगी." (bbc.com)