संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : बुढ़ापा खराब करने के नीतीशियापन की बातें...
सुनील कुमार ने लिखा है
23-Dec-2025 1:05 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : बुढ़ापा खराब करने के नीतीशियापन की बातें...

बुढ़ापा खराब कैसे किया जाए इसमें किसी को पीएचडी करनी हो, तो वे नीतीश कुमार को गाइड बना सकते हैं। अपने खुद के बुढ़ापे में जिस तरह की हरकत उन्होंने एक मुस्लिम महिला डॉक्टर का हिजाब खींचकर की है, वह हरकत अब भी जारी है। अभी जब मीडिया ने उनसे यह सवाल किया कि क्या वे उस महिला से माफी मांगेगे तो वे एक गजल की लाइन की तरह मुस्कुराकर चल दिए। किसी बच्चे को भी यह सिखाया जाता है कि अगर गलती हो जाए तो उस पर अफसोस जाहिर करते हुए माफी मांग लेना चाहिए। उर्दू तो जुबान ही ऐसी है जिसमें बात शुरू करने के पहले ही, मुआफ कीजिएगा कह दिया जाता है। अंग्रेजी में बोलचाल में जिस शब्द का दिनभर में सबसे अधिक इस्तेमाल होता है, वह सॉरी है। लेकिन हिंदी के मिजाज में, खासकर बोलचाल में न तो धन्यवाद है, और न ही सॉरी है। फिर राजनीति में आने के बाद तो लोग शिष्टाचार के गिने-चुने शब्द भी भूल जाते हैं, और बद्जुबानी करने को अपना हक मान लेते हैं। जिस नीतीश को उनके समर्थक सुशासन बाबू कहते थकते नहीं हैं, उनका हाल यह है कि सरकारी कार्यक्रम के मंच से एक मुस्लिम महिला डॉक्टर को नियुक्तिपत्र देते हुए वे लोगों के सामने ही उसके चेहरे से हिजाब खींच लेते हैं, और आम हिंदुस्तानी मर्दानगी की शान बढ़ाते हुए मुख्यमंत्री का सारा आभामंडल इस पर एक हैवानी हँसी हँसने लगता है। ऐसी सार्वजनिक घटना का चारों तरफ धिक्कार होने के बाद भी यह बेहया आदमी मीडिया के सवालों पर मुस्कुराकर चले जा रहा है। उसने यह खबर अब तक सौ जगह पढ़ ली होगी कि उसकी अश्लील हिंसा की शिकार महिला ने यह तय किया है कि इस बर्ताव के बाद वह अब इस नौकरी को करेगी ही नहीं। एक महिला, एक अल्पसंख्यक महिला, सरकारी नौकरी में आने जा रही एक महिला की जिंदगी को इस तरह और इस हद तक बर्बाद करने के बाद भी जिस सुशासन बाबू के मुंह पर मुस्कुराहट अभी बाकी है, वह बेशर्मी, और बुढ़ापा बर्बाद करने पर औरों को पीएचडी करवा ही सकता है।

अब नीतीश से उबरें और आम बात करें, तो आम हिंदुस्तानी लोगों में अपने अधिकारों के लिए जिस दर्जे का स्वाभिमान रहता है, और दूसरों के प्रति अपनी जिम्मेदारी को लेकर जिस दर्जे की हिकारत रहती है, वह देखने लायक रहती है। सार्वजनिक जगहों पर लोग अधिक से अधिक बद्तमीजी की नुमाइश इस तरह करते हैं कि अपने मां-बाप की सिखाई बातों की ट्रॉफी सामने रख रहे हों। लोग दूसरों के प्रति इतना खराब व्यवहार करते हैं कि उनकी अपनी मां-बहनों को हिचकियां आने लगती हैं क्योंकि बद्तमीजी के शिकार लोग जुबान से न सही, मन से तो गालियां देने ही लगते हैं। एक बुढ़ऊ एक मुस्लिम महिला का हिजाब खींचते हुए यह भी नहीं सोचता कि उसके दिल से निकली हुआ आह वह कैसे झेलेगा? कबीर तो कह गए हैं कि मरे चाम की आह से लौह भस्म हो जाए, यहां तो जिंदा मुस्लिम महिला का चाम है, उसकी आह को एक अदना सा मिस्टर पलटू कितना झेलेगा? लेकिन अभी ऊपर के पैरा में ही हमने तय किया था कि हमको बात इस आदमी से परे करना है।

हिंदुस्तानियों को व्यवहार सिखाने की खास जरूरत इसलिए नहीं पड़ती कि इस देश का माहौल बद्तमीजी का आदी है, और जब ये बद्तमीज किसी सभ्य देश जाते हैं, तो पलभर में सभ्यता और शालीनता की खाल ओढ़ लेते हैं। उन्हें मालूम है कि दूसरे देशों में बद्तमीजी का नतीजा जूते खाना होगा, और धकियाकर उस देश से निकाल दिया जाना होगा, और ट्रंप का देश हो तो फिर हथकड़ी और बेड़ियों में जकड़कर मालवाहक विमान में चढ़ाकर देश में कैदी की तरह उतरना होगा, इसलिए बाहर जाते ही लोग हर 50 कदम पर थूकना, और हर मोड़ पर मूतना बंद कर देते हैं। यही सुशासन बाबू किसी मुस्लिम देश में गए हुए होते, तो अब तक इस हरकत सरकार की तरफ से कानूनी रूप से सर तन से जुदा हो चुका रहता। इस बात को नीतीश से जोड़कर न देखा जाए, बल्कि हिंदुस्तानियों की बद्तमीजी की आम आदत, और संस्कृति से जोड़कर देखा जाए, जिससे मुक्त होने पर लोगों को हीनभावना होने लगती है कि वे कहीं पश्चिमी संस्कृति के बुरे प्रभाव का तो शिकार नहीं हो रहे हैं?

 

हिंदुस्तान के लोगों को अंग्रेजों के चले जाने के बाद भी कुछ अंग्रेजों, या दूसरे यूरोपीय लोगों के मातहत कई चीजें सीखने की जरूरत है। सार्वजनिक जगहों पर बर्ताव कैसा किया जाए, कैसे अपनी जिम्मेदारियों का बोझ उठाया जाए, कैसे दूसरों के अधिकारों का सम्मान किया जाए, कैसे महिलाओं, बच्चों, बूढ़ों, कमजोर और बीमारों का ख्याल रखा जाए, ऐसी बहुत सी बातें हिंदुस्तानियों को सीखने की जरूरत है। इस देश में विश्वगुरू बन चुके जो लोग हैं, उन्हें यह सलाह खटक सकती है कि उन्हें भी दुनिया में किसी और से कुछ सीखने की जरूरत है। फिर भी उन्हें यह ध्यान रखना चाहिए कि इस देश से करोड़ों विश्वगुरुओं को दुनिया के दूसरे देशों में जाकर रोजी-रोटी कमानी पड़ रही है, और उसके मुकाबले उन देशों से हिंदुस्तान में महज ताजमहल और कुतुब मीनार जैसे स्मारक देखने के लिए लोग आते हैं, यहां रोजी-रोटी कमाने नहीं। इसलिए रोजी-रोटी के लिए जिन देशों में जाना पड़ सकता है, उन देशों की तमीज-तहजीब की जानकारी ले लेने, और उसे मजबूरी में अपना भी लेने को सीख लेनना चाहिए। इससे हमारी बुनियादी नीतीशियापन की भावना पर चोट आ सकती है, फिर भी अंतरराष्ट्रीय संभावनाओं को देखते हुए पश्चिम की कुछ चीजों को जहर का घूंट पीते हुए भी सीख लेना चाहिए, जिसमें एक तो यह है कि जरा सी भी चूक होते ही मुंह से चार बार सॉरी निकलना चाहिए। लेकिन फिर भी जिन लोगों को बुढ़ापा आ जाने पर भी उसे खराब करने का जरिया न मिला हो, तरीका न सूझा हो, उन्हें इस मौके को छोड़ना नहीं चाहिए, सोशल मीडिया पर चारों तरफ तैर रहे बिहारी बुढ़ऊ के वीडियो देखने चाहिए, और अपना बुढ़ापा खराब करने की हसरत पूरी करने की एक आसान राह पा लेना चाहिए।

हम आज यहां पर नीतीश के जिक्र से बात सिर्फ शुरू करना चाहते थे, लेकिन उनका वीडियो है, उनकी जानलेवा और दिलकश-बेशरम मुस्कुराहट है कि बार-बार आंखों के सामने वही सब घूमने लगता है, और आंखें दिमाग पर असर डालती हैं, और आज की बातचीत घूम-फिरकर फिर बिहार के सुशासन पर आती रही। लेकिन इसे सिर्फ नीतीश पर केंद्रित न मानें, इसे देश के बाकी विश्वगुरुओं पर भी लागू मानें, और बुढ़ापा बिगाड़ने की एक और, सबसे ताजा, मौलिक, सबसे असरदार, और बंपर साइज की प्रो-मैक्स या अल्ट्रा तरकीब सीखें। 

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