संपादकीय
इंटरनेट और सोशल मीडिया ने औरत-मर्द, और दूसरे तमाम किस्म की यौन-प्राथमिकताओं वाले लोगों को भी एक बराबरी का मौका दिया, तो यह लगने लगा था कि सामाजिक जमीन पर जो भेदभाव है, वह ऑनलाइन पर कुछ कम होगा। और यह बात तकनीकी रूप से सही भी है कि महिलाओं को सोशल मीडिया पर बराबरी से लिखने की आजादी है। लेकिन जब इसे बारीकी से देखें, तो इसका एक दूसरा पहलू भी दिखता है कि महिलाओं के खिलाफ ढेर सारे मर्द अपनी सदियों की भड़ास और यौनकुंठा लेकर टूट पड़े हैं। अभी तक मर्दों को यौनकुंठा निकालने के लिए किसी सार्वजनिक शौचालय के दरवाजे के भीतर कुरेदकर कुछ लिखने की जहमत उठानी पड़ती थी। अब यह काम आसान हो गया है, और किसी फर्जी नाम से भी बनाए गए सोशल मीडिया अकाउंट पर मनचाही हिंसक बातें लिखी जा सकती हैं, लिखी जा रही हैं, और अब तो फर्जी नाम भी जरूरी नहीं रह गया, अब तो लोग अपने असली नामों से भी गंदी बातें लिखने लगे हैं। किसी महिला के लिए सोशल मीडिया एक बहुत ही खतरनाक, नाजुक, और नुकसानदेह जगह भी हो सकती है जहां उसके रूप-रंग, उसकी कद-काठी, उसके जात-धरम जैसे तमाम पहलुओं पर बड़ा संगठित हमला हो सकता है। यह हमला किसी मर्द पर भी हो सकता है, लेकिन महिलाओं पर यह खतरा ठीक उसी तरह अधिक लागू होता है जिस तरह असल जमीन पर, असल समाज के बीच महिलाएं अधिक निशाना बनती हैं।
अभी बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने एक मुस्लिम महिला के चेहरे से नकाब खींचकर एक अलग ही किस्म की मर्दानगी, और सत्तारूढ़ बद्दिमागी की नुमाइश की है। फिर मानो यह काफी नहीं था, चारों तरफ से आते धिक्कार के बीच भी नीतीश कुमार परले दर्जे के बेशरम बने हुए अपने होंठ सिलकर सो गए हैं। दूसरी तरफ उनके हिमायती इस बारे में पूछे गए सवाल पर खी-खी कर रहे हैं, और नीतीश के बर्ताव को महिला के साथ बड़ी रियायत बता रहे हैं कि उन्होंने नकाब भर तो छुआ, कहीं और तो नहीं छुआ। एक दूसरा नेता कल सामने आया कि यह मुस्लिम महिला दिल्ली में हुए आतंकी विस्फोट से जुड़ी हुई हो सकती है। झारखंड का यह भाजपा नेता इस महिला के मुस्लिम होने से उसे आतंकी विस्फोट से जोड़ रहा है, तो इस तर्क से तो हिंदुस्तान के 20 करोड़ तमाम मुस्लिमों को कुसूरवार ठहराया जा सकता है। अब ये दो बातें बिना डिजिटल दुनिया के तो सीमित रह गई रहतीं, लेकिन अब सोशल मीडिया और डिजिटल मैसेंजरों की मेहरबानी से एक-दो मिनट के ऐसे वीडियो चारों तरफ तैर रहे हैं, वह महिला अगर नौकरी पर आने की हिम्मत जुटा भी पाती, तो इस तरह के ओछे, घटिया, महिला-विरोधी, और सांप्रदायिक हमलों के चलते वह इसकी हिम्मत भी नहीं कर सकेगी।
डिजिटल दुनिया में महिलाओं पर होने वाले हमले हमलावर लोगों के देशों की संस्कृति पर आधारित रहते हैं। वहां की संस्कृति अगर महिलाओं को कुचलने की है, महिला विरोधी है, तो वहां के मर्द सोशल मीडिया और इंटरनेट पर महिलाओं की मौजूदगी को ही अपने एकाधिकार पर हमला मान लेते हैं। उनमें बहुत बड़ी संख्या में ऐसे लोग रहते हैं जिनके दिल-दिमाग में यौन-कुंठाएं लबालब रहती हैं, और ओवरफ्लो होती रहती हैं। ऐसे लोग पहला मौका मिलते ही किसी महिला का जिक्र करते हुए, उसकी असली या नकली फोटो लगाते हुए उस पर इस तरह हमले करने लगते हैं कि मानो अंधेरी रात के सुनसान जंगल में उस महिला के देह पर हाथ फेरने का मौका मिल गया। किसी महिला से वैचारिक असहमति होने पर लोग उसके दिमाग का सामना करने के बजाय उसके बदन में घुस जाने पर आमादा हो जाते हैं। उसके साथ-साथ उसके परिवार की और लड़कियों और महिलाओं के नाम लेकर जिस तरह से यौनकुंठा की गालियां पोस्ट की जाती हैं, वे किसी भी संवेदनशील महिला को मानसिक अवसाद का शिकार बना देने के लिए काफी रहती हैं। और यही शायद उनका मकसद भी रहता है।
इंटरनेट और सोशल मीडिया की तकनीक जब बढ़ते-बढ़ते एआई और उससे बने हुए एक औजार डीप-फेक तक पहुंच गई, तो लोगों की कुंठाओं को पंख लग गए। जिन देशों और समाजों में उन्मुक्त जीवन की वजह से ऐसी कुंठाओं की कोई जगह नहीं होनी चाहिए थी, वैसे गोरे देशों में भी स्कूलों के बच्चे अपनी सहपाठी लड़कियों के डीप-फेक अश्लील वीडियो बनाकर उन्हें चारों तरफ फैला रहे हैं, और इंटरनेट, डिजिटल मीडिया, और सोशल मीडिया के बिना लड़कियां जितनी ऊंचाई तक पहुंच चुकी थीं, वहां से भी उन्हें नीचे घसीटा जा रहा है। फिर जब महिला को नीचे घसीटने का मौका हो, तो फिर नीच हो जाने से कोई परहेज तो हो नहीं सकता।
दिक्कत यह है कि हिंदुस्तान जैसे देश में महिला सुरक्षा के लिए कानून तो बड़े-बड़े और कड़े-कड़े हैं, लेकिन उन पर अमल के मामले में सरकारें उसी तरह काम करती हैं जिस तरह मर्दों से हावी कोई संस्था काम कर सकती है। आज सरकार, राजनीति, अदालत, और मीडिया, इन तमाम जगहों पर जिस तरह महिलाएं बहुत कमजोर हालत में हैं, और मर्दों का बोलबाला है, उसी तरह सोशल मीडिया पर अश्लील और हिंसक हमले करने वाले, पहली नजर में ही जुर्म करने वाले लोगों का बोलबाला है, और वे जब किसी के पीछे पड़ते हैं, तो उसका जीना हराम कर देते हैं। यह नौबत खासकर हिंदुस्तान जैसे देश में महिलाओं के दिल-दिमाग के सुख-चैन को खत्म कर देती हैं अगर मर्दों की टोली अपने पर आ जाती है।
यह देखना भी बड़ा ही विचित्र और बेहूदा है कि बिना डिजिटल दुनिया के इस देश में महिलाओं के हिफाजत के जो मजबूत कानून बने हुए थे, उन्हें डिजिटल मीडिया पर भी लागू करने की जहमत कोई सरकार या अदालत उठाना नहीं चाहती। नतीजा यह निकल रहा है कि लोगों की यौन कुंठाओं को एक पूरा आसमान मिल गया है। अभी तक उनके पास सिर्फ एक जमीन थी, अब एक डिजिटल आसमान भी उनके हवाले है, उनके कब्जे में है।
दुनिया के सबसे पढ़े-लिखे, विकसित और संपन्न देशों में भी महिलाओं के साथ भेदभाव कुछ या अधिक हद तक जारी ही रहते आया है, लेकिन अब जिस तरह डिजिटल दुनिया में, सोशल मीडिया पर जात-धरम, रंग और राष्ट्रीयता को लेकर भेदभाव चलता है, उससे कहीं अधिक हद तक जेंडर भेदभाव चलता है क्योंकि औरत और मर्द का फर्क तो पाषाण युग से लेकर आज तक जारी है, बाकी बातें तो बाद की सदियों की हैं। दरअसल डिजिटल दुनिया लोगो के हाथों में जिस तरह का अराजक हथियार दे चुकी हैं, उससे बेकसूर लोगों को बचाने के लिए दुनिया आज तैयार नहीं है। शायद दुनिया को हांकने वाले मर्दों की नीयत ही तैयार नहीं है कि महिलाओं पर हमले करने वाले लोगों पर कार्रवाई की जाए। यह अनमनापन हिंदुस्तान जैसे लोकतंत्र की बड़ी-बड़ी अदालतों में भी दिखता है जब हाईकोर्ट के जज महिला के पजामे के नाड़े तोड़ने को भी बलात्कार की कोशिश नहीं मानते, या किसी महिला के किसी के साथ चले जाने को सेक्स की सहमति देना मान लेते हैं। असल जिंदगी की जो जमीन बेइंसाफी चले आ रही है, वह डिजिटल अराजकता के युग में कम तो हो नहीं सकती थी, उससे अराजकता को एक खुली छूट और मिल गई है। सिर्फ महिलाओं की हिफाजत के नजरिए से इंटरनेट और तमाम किस्म की डिजिटल तकनीक से जुर्म खत्म करने के तरीकों पर सोचने की बड़ी जरूरत है, और अभी जरूरत है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)


