संपादकीय
भारत की 140 करोड़ से अधिक की आबादी में करीब 97 करोड़ वोटर चुनाव आयोग की लिस्ट में दर्ज हैं। अभी मतदाता सूची पुनरीक्षण का काम किस्तों में अलग-अलग राज्यों में चल रहा है, और पहले दौर में कई प्रदेशों में वोटरों का एक बड़ा हिस्सा लिस्ट में नहीं आ पा रहा है। इसके पीछे 2003 की मतदाता सूची में वोटरों, या उनके मां-बाप के नाम न मिलना भी एक वजह है। एक दूसरी वजह नामों के अँग्रेजी या हिन्दी के हिज्जों का फर्क है, या वोटर लिस्ट बनाने वालों के लिखने के तौर-तरीकों का फर्क है। महिलाओं के नाम के साथ पति का नाम जुड़ जाना, पुरूष मतदाता के नाम के साथ उनके पिता के नाम के आधे हिस्से का जुड़ जाना, जैसी कई बातें सामने आ रही हैं। यह भी है कि 2003 के बाद जिन वोटरों ने अपने नाम, पते, या जन्म तारीख को सुधरवाया है, उनके भी नाम दुबारा ढूंढने में खासी मशक्कत करनी पड़ रही है। सरकार ने अपने कई विभागों, और स्थानीय संस्थाओं के लोगों को इस काम में झोंक दिया है, जिससे सरकार का रोजमर्रा का काम थम सा गया है। लेकिन मतदाता सूची में ऐसे वोटरों के नाम जुड़वाने में राजनीतिक दल अधिक सक्रियता दिखा सकते हैं जिनके जात-धरम, या इलाके को लेकर उन्हें समर्थन की अधिक उम्मीद है। अब यह खेल भी सभी राजनीतिक दलों के लिए खुला हुआ है, और जिन लोगों के नाम छूट गए हैं, उन्हें जुड़वाने के लिए वोटरों को खुद भी कोशिश करनी चाहिए, या उनके इलाके में सक्रिय नेता और उनकी पार्टी को भी।
लेकिन आज की यह बात हम सिर्फ मतदाता सूची पुनरीक्षण (एसआईआर) तक सीमित रखना नहीं चाहते। भारत में तरह-तरह के बहुत से दस्तावेज सरकारी दफ्तरों से बनते हैं। इनमें एक-एक करके कई कागजात हासिल करने के लिए ऑनलाईन सहूलियत भी होती चल रही है। लेकिन जब असल जिंदगी में इसकी कोशिश की जाती है, तो पता चलता है कि सरकारी विभागों के सर्वर डाउन है, इंटरनेट कनेक्शन जुड़ नहीं रहा है, या वेबसाइट ठीक से काम नहीं कर रही है। कभी-कभी यह भी लगता है कि इन दफ्तरों का सरकारी अमला ऑनलाईन सिस्टम को पसंद नहीं करता, और इसीलिए ऑनलाईन प्रणाली को ठप्प कर देता है। सरकारी दफ्तरों में फाइल को आगे बढ़ाने के लिए उस पर वजन रखने का जो चलन है, वह ऑनलाईन से कमजोर हो जाता है, और हो सकता है कि तकनीकी गड़बड़ी मानवनिर्मित भी हो।
दूसरी बात यह भी है कि भारत में अब दर्जन भर से अधिक किस्म के पहचान पत्र, और दर्जनों किस्म के प्रमाणपत्र कम्प्यूटरों से बनने लगे हैं, और ये ऑनलाईन हों, या सरकारी दफ्तरों में जाकर बनवाने पड़ें, उनमें भाषा और हिज्जे की कई तरह की दिक्कतें आती हैं। अंग्रेजी में तो अधिकतर हिज्जे एक ही तरह के रहते हैं, लेकिन हिन्दी या दूसरी क्षेत्रीय भाषाओं के हिज्जे कई तरह से लिखे जाते हैं। अभी तक सरकारी कम्प्यूटरों में ऐसे फेरबदल को मिलाने के लिए एआई जैसे किसी औजार का इस्तेमाल तो शुरू हुआ नहीं है, इसलिए रिकॉर्ड बनाने में, ढूंढने में, और उन्हें किसी दूसरे विभाग के कम्प्यूटर पर भरने में एक मामूली सी चूक भी गड़बड़ कर सकती है। इसके साथ-साथ पता और जन्म तारीख जैसी जानकारी में किसी एक अंक का भी फेरबदल होने से रिकॉर्ड आपस में नहीं मिलते। भारत अभी डिजिटलीकरण के दौर में तेजी से आगे बढ़ रहा है, और अब तक इस काम में नागरिक के स्तर पर एआई का उपयोग नहीं हुआ है। आने वाले बरसों में यह दिक्कत दूर होना तय है, लेकिन तब तक लोगों को परेशानी जारी है, और एक खतरा यह है कि जो लोग सारी जानकारी ठीक-ठीक दुरूस्त नहीं करवा पाएं, वे लोग वोट देने का हक और मौका चूक सकते हैं।
भारत में जब आधार कार्ड शुरू हुआ था, तो उसका बड़ा विरोध भी हुआ था। लेकिन आज वह भारत में सबसे अधिक इस्तेमाल होने वाला पहचानपत्र बन गया है। दुनिया के बहुत से दूसरे देश भी भारत की आधार कार्ड परियोजना पर अपने देश में अमल कर रहे हैं, और भारत उनकी मदद भी कर रहा है। अपनी आबादी की वजह से ही भारत की यह परियोजना दुनिया की अपने किस्म की सबसे बड़ी परियोजना है। लेकिन इस बार मतदाता सूची पुनरीक्षण में चुनाव आयोग ने जाने क्या सोचकर आधार कार्ड को दर्जन भर पहचानपत्रों में से एक मानने से इंकार कर दिया था, और लोगों को आयोग के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट जाकर वहां से इस फैसले के खिलाफ हुक्म लाना पड़ा था। लेकिन हम यहां अभी चुनाव आयोग और उसके राजनीतिक झगड़ों पर बात करना नहीं चाहते, हमारा मकसद आम नागरिक के सरकारी दस्तावेजों और पहचानपत्रों के कामकाज को आसान बनाना है।
आज एआई दुनिया भर से किसी भी जानकारी को ढूंढकर पल भर में सामने धर देता है। सरकार और चुनाव आयोग के पास लोगों की पहचान के जो रिकॉर्ड हैं, उन्हें जोडक़र एक साथ देखने का काम एआई बड़ी आसानी से पल भर में कर सकता है। आधार कार्ड, मतदाता कार्ड, पैन कार्ड, ड्राइविंग लाइसेंस जैसे बहुत से पहचानपत्र और दस्तावेज हैं जिनमें बड़ा मामूली फेरबदल होने पर भी कई सरकारी, अदालती, या चुनावी कामकाज में उन्हें रोक दिया जाता है। आज जिस तरह वोटर लिस्ट का पुनरीक्षण हो रहा है, सरकार को हर नागरिक के सभी तरह के दस्तावेजों को एक-दूसरे से जोडऩे, और उनके बीच अगर कोई विसंगति है, तो उसे निकालकर लोगों को दिखाने का एक अभियान छेडऩा चाहिए। लोग यह तय कर सकें कि उनकी अलग-अलग जगह पर दर्ज जानकारियों में से सबसे सही कौन सी हैं, सही हिज्जे क्या हैं, या तारीख और पता सही है या नहीं। इसके लिए सरकार को मतदाता सूची पुनरीक्षण जैसा घर-घर जाने वाला अभियान छेडऩे की जरूरत भी नहीं है, और इसे अनिवार्य बनाने की जरूरत भी नहीं है जिसमें से किसी को निजता भंग होने का अंदेशा हो। सरकार ऐसे ऑनलाईन विकल्प दे सकती है, या सरकारी कम्प्यूटर सेंटरों से ऐसी मामूली फीस वाली सुविधा मुहैया करा सकती है।
आज भी सरकार का डिजिलॉकर नाम का एक एप्लीकेशन ऐसे कई दस्तावेजों को वहां डालने पर एक साथ रखता है, और नागरिक की इजाजत से जरूरत के मुताबिक उससे जांच भी कर लेता है। लेकिन अभी तक इस व्यवस्था में अलग-अलग कागजात की जानकारियों को एक जैसा करने का कोई अभियान नहीं चला है। हमारा सुझाव यही है कि जिन लोगों को अपनी निजता खत्म होने का खतरा न लगे, उन लोगों के लिए ऐसी सरकारी सुविधा रहनी चाहिए कि वे जन्म-मृत्यु प्रमाणपत्र से लेकर राशन कार्ड, जाति प्रमाणपत्र, आय प्रमाणपत्र, निवास प्रमाणपत्र जैसे दर्जनों दस्तावेज सरकारी ऑनलाईन रिकॉर्ड में एक साथ रखवा सकें, और इनके साथ-साथ वे चाहें तो अपने हर तरह के पहचानपत्र भी अपने ऐसे डिजिलॉकर जैसे अकाउंट में डलवा सकें। आज भी सरकार की बहुत सी योजनाएं जातियों से जुड़ी रहती हैं, जेंडर या उम्र से जुड़ी रहती हैं, आय सीमा का भी एक पैमाना कई योजनाओं में रहता है। अभी लगातार यह बात सामने आती है कि देश में दसियों करोड़ लोग सरकार की अलग-अलग कई तरह की योजनाओं का गलत फायदा उठा रहे हैं, उसे रोकने के लिए भी इस तरह का राष्ट्रीय रिकॉर्ड काम आ सकता है। लोग अपनी आय कम बताकर, उम्र अधिक बताकर, अपने को विधवा या विधुर बताकर, जाति गलत बताकर जो फायदा उठाते हैं, वह सरकार के मार्फत आखिर जाता तो जनता की जेब से ही है। इसलिए राष्ट्रीय नागरिक सूचनातंत्र जैसी एक प्रणाली विकसित करनी चाहिए, और कम से कम शुरू में तो इसे अनिवार्य नहीं करना चाहिए, और धीरे-धीरे जब लोगों को इसके फायदे दिखने लगेंगे, तो लोगों को निजता का खतरा उतना नहीं सताएगा, और लोग खुद होकर भी सामने आएंगे। वैसे भी सरकार 140 करोड़ से अधिक आबादी के ऐसे रिकॉर्ड दुरूस्तीकरण, और दस्तावेजीकरण को एक दिन में तो कर भी नहीं सकेगी। आने वाले एक-दो बरस में ही जनगणना जैसा बड़ा अभियान भी पूरा हो जाएगा, और उसके साथ-साथ एआई की मदद से नागरिकों के सारे रिकॉर्ड की एकरूपता करने, और उन्हें जोडऩे का काम करना चाहिए, जिस तरह कि आज छत्तीसगढ़ के जमीन रिकॉर्ड के एप्लीकेशन पर किसी एक भूस्वामी का नाम छूने पर उसके नाम से उस पटवारी हल्का में दर्ज सारे टुकड़े एक साथ दिख जाते हैं। सूचनातंत्र में एआई सरकार का जादुई मददगार साबित होगा।


