संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : सरकारी कॉलेज हो या दफ्तर, निकम्मों को क्यों पाला जाए?
सुनील कुमार ने लिखा है
05-Dec-2025 5:37 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : सरकारी कॉलेज हो या दफ्तर, निकम्मों को क्यों पाला जाए?

छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से लगे हुए गरियाबंद जिले में एक पटवारी को गिरफ्तारी का डर दिखाकर ब्लैकमेल करने वाले दो ऐसे मेडिकल छात्र पुलिस के हाथ लगे हैं जो जगदलपुर के सरकारी मेडिकल कॉलेज में 17 साल से एमबीबीएस में पढ़ रहे हैं। अभी कुछ बरस पहले एमबीबीएस के पांच साल के कोर्स को दस साल में पूरा कर लेने की समय सीमा तय की गई है, लेकिन ये दोनों छात्र उसके पहले से पढ़ते हुए आ रहे हैं, और उन पर शायद यह सीमा लागू नहीं हो रही है। फिलहाल खबर इनके मुजरिम होने की है, इनके 17 बरस तक एमबीबीएस में पढ़ाई जारी रखने की नहीं है जो कि पांच साल में इन्हें कर लेना था। अब जब इस मामले में गिरफ्तारी हुई है तो पता लगा है कि धमकी और ब्लैकमेलिंग से परे ये दोनों पहले पीएमटी के इम्तिहान में दूसरे लोगों को बिठाकर परीक्षा पास करवाने का ठेका ले चुके थे, और उसमें भी इनकी गिरफ्तारी हो चुकी थी। इनके खिलाफ नौकरी लगवाने के नाम पर ठगने के भी केस दर्ज हैं, और कुछ दूसरे मामले भी। निखिल राज और चन्द्रशेखर सेन नाम के ये दो छात्र बड़े ही हरफनमौला दिख रहे हैं, और ठगी, जालसाजी, धोखाधड़ी, ब्लैकमेलिंग जैसी कई हरकतों के बड़े जानकार हैं।

सरकारी कॉलेजों में जहां एक डॉक्टर की पढ़ाई पर सरकार के करोड़ों रूपए खर्च होते हैं, वहां अगर कोई पांच बरस का कोर्स 17 बरस में भी पूरा न करे, तो उस पर सरकार के साढ़े तीन गुना तो खर्च हो ही चुके हैं, और उनके डॉक्टर बनने का भी कोई आसार दिख नहीं रहा है। सरकार के नियम चाहे जो हों, सरकारी कॉलेजों की क्षमता तो बड़ी सीमित रहती है, और वहां बहुत मामूली फीस पर सरकारी खर्च से पढ़ाई होती है तो वहां के छात्र-छात्राओं से एक ईमानदार मेहनत की उम्मीद करना गलत नहीं होगा। जिन लोगों की दिलचस्पी एमबीबीएस की पढ़ाई में नहीं है, उनके लिए अभी जो दस साल की समय सीमा तय की गई है, वह तो जायज है ही, जरूरत से अधिक ही है। सीमा से दोगुना वक्त किसी को क्यों दिया जाना चाहिए? और सरकारी कॉलेज में भी यह देखना चाहिए कि अगर आर्थिक रूप से संपन्न परिवारों के बच्चे बार-बार फेल होते हैं, तो उनसे अतिरिक्त फीस लेनी चाहिए। देश में मेडिकल कॉलेज जरूरत से बहुत कम हैं, उनमें सीटें भी आबादी के अनुपात में बहुत कम हैं, और ऐसे में कॉलेजों की क्षमता को इस तरह बर्बाद नहीं करना चाहिए।

किसी भी कॉलेज में पढ़ाई, और उसके साथ-साथ जुर्म भी करने वाले लोगों के लिए अलग से कोई कानून तो नहीं बनाया जा सकता है, लेकिन कॉलेज यह तो देख ही सकता है कि उसके छात्र-छात्रा नियमित रूप से पढ़ाई कर रहे हैं या नहीं, और अगर वे क्लास में नहीं आते हैं, तो उन्हें निकालकर बाकी लोगों के सामने एक मिसाल पेश करनी चाहिए। बोलचाल में कहा जाता है कि एक गंदी मछली पूरे तालाब को गंदा कर देती है, असल जिंदगी में हम देखते हैं कि किसी दफ्तर में एक कामचोर की वजह से बाकी लोगों को भी कामचोरी का संक्रमण होने लगता है, एक-दो छात्र-छात्राओं की अराजकता से बाकी भी अराजक होने लगते हैं, नशा एक-दो से शुरू होता है, और फिर बाकी लोगों तक फैलने लगता है। एमबीबीएस के पांच साल के कोर्स में 17 साल लगा चुके इन अधेड़ हो चुके आदमियों को अगर जुर्म में ही दिलचस्पी है, तो उन्हें चिकित्सा शिक्षा पर बोझ क्यों बनने दिया जाए?

लेकिन सरकार के हाथ-पैर बहुत धीरे-धीरे हिलते हैं। उसके कई कर्मचारी और अधिकारी सालों तक गायब रहते हैं, न छुट्टी ली हुई रहती, न काम पर आते। इसके बाद भी सरकार उन्हें हटाने में बरसों लगा देती है। अदालतें भी मानो उन्हें राहत देने में यकीन रखती हैं। सरकार को अपने गायब रहने वाले, काम न करने वाले, शराब पीकर आने वाले अधिकारियों और कर्मचारियों को बहुत तेजी से बर्खास्त करना चाहिए। देश में बेरोजगारी इतनी है कि एक सरकारी दफ्तर में चपरासी बनने के लिए सैकड़ों पोस्ट ग्रेजुएट, पीएचडीधारी, और एमबीए या बीटेक जैसी पढ़ाई किए हुए लोग कतार में लग जाते हैं। ऐसे में औसत से घटिया दर्जे के कर्मचारी-अधिकारी को हरामखोरी के बावजूद बनाए रखना जनता के पैसों की बर्बादी है, और जनता के कामकाज की हेठी भी है। सरकार के फैसले जब किसी नेता या बड़े अफसर की नापसंदगी की वजह से लेना होता है, तो वे रातोंरात ले लिए जाते हैं, और कुछ घंटों में ही आदेश निकल जाते हैं। दूसरी तरफ अगर किसी नेता-अफसर की नाराजगी नहीं है, तो लोग बरसों तक हरामखोरी करते हुए गायब रह सकते हैं। किसी सरकारी कॉलेज में पढऩे वाले लोग हों, या स्कूल में पढ़ाने वाले, किसी और सरकारी दफ्तर में काम करने वाले, उनकी सेवा शर्तों में यह फेरबदल होना चाहिए कि वे काम के प्रति लापरवाही और गैरजिम्मेदारी दिखाकर जनता के पैसों से लंबे समय तक तनख्वाह नहीं पा सकते, या पढऩे के नाम पर बिना पढ़ाई किए हुए कॉलेज में बने नहीं रह सकते। जिन लोगों पर पुराने और मौजूदा सेवा नियम लागू होते हैं, उनसे परे जिन नए लोगों को काम पर रखा जा रहा है, उनके लिए अधिक कड़े नियम पहले दिन से बना देने चाहिए।

हमारे नियमित पाठकों को याद होगा कि हम पहले से सरकारी अमले में से काम न करने वालों को हटाने की बात कहते आए हैं। सरकारी नौकरी पूरी जिंदगी के लिए, रिटायर होने तक के लिए मिल गई है, ऐसी सुरक्षा लोगों को निकम्मा भी बना देती है। सरकार को चाहिए कि हर पांच-दस बरस में अपने अमले के कामकाज का मूल्यांकन करे, और जिनके खिलाफ बहुत ही गंभीर शिकायतें हैं उन्हें तुरंत ही बर्खास्त करे। जनता के पैसों पर सरकारी अमले की मनमानी जारी नहीं रहने देनी चाहिए, इससे पैसों की बर्बादी के अलावा जनता के सरकारी कामकाज पर भी फर्क पड़ता है। जब हर विभाग या दफ्तर से वहां के कुछ सबसे निकम्मे, भ्रष्ट, और खराब व्यवहार वाले लोगों को हटाया जाएगा, तो बाकी लोगों में काम के प्रति दिलचस्पी भी पैदा होगी। आज तो हालत यह है कि बहुत से सरकारी विभागों में लोग एक ही शहर या जिले में तकरीबन पूरी जिंदगी गुजार देेते हैं, और वे सरकारी काम जिम्मेदारी से पूरा करने के बजाय अपने आसपास सहूलियत और सुरक्षा का एक घेरा बना लेते हैं। ऐसी सुरक्षा न नेताओं के लिए ठीक रहती है, और न ही अधिकारियों के लिए। नेताओं का तो फिर भी पांच-पांच बरस में जनता के बीच मूल्यांकन हो जाता है, लेकिन सरकारी अमला मानो अमरबूटी खाकर आया हुआ रहता है, वह रिटायरमेंट की उम्र के बाद भी पेंशन और कुछ दूसरी सहूलियतें पाते रहता है, इसलिए उसके भीतर अच्छा काम करने, मेहनत करने, और लोगों से अच्छा बर्ताव करने की इच्छा नौकरी पक्की होने के अगले दिन ही खत्म हो जाती है। यह सिलसिला खत्म करने की जरूरत है, जनता के पैसों से किसी को बाराती या दामाद बनाकर रखना ठीक नहीं है।

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