संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : जब सीएम बना ठेकेदार, तो बेईमानी को डर काहे का?
सुनील कुमार ने लिखा है
03-Dec-2025 6:04 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : जब सीएम बना ठेकेदार, तो बेईमानी को डर काहे का?

भारत के उत्तर-पूर्वी राज्य बहुत संवेदनशील अंतरराष्ट्रीय सरहद पर भी बसे हुए हैं। वे भौगोलिक रूप से बाकी भारत से थोड़े से अलग भी हैं, और उनमें से कई राज्यों की राजनीति एक अलग और अजीब किस्म की अस्थिरता का शिकार रहती है। इनमें से एक अरूणाचल प्रदेश भी है जहां पर फौजी टकराव वाले चीन के साथ सरहद सैकड़ों किलोमीटर लंबी है, 890 किलोमीटर। जाहिर है कि यह प्रदेश जिस पर कि चीन अपना होने का दावा करता है, भारत सरकार की नजरों में अधिक संवेदनशील रहता है। ऐसे में यहां की स्थानीय राजनीति को भी देश की राष्ट्रीय पार्टियां कई तरह से प्रभावित करने की कोशिश करती हैं। फिलहाल मुद्दे की बात करें, तो अभी वहां भाजपा की अगुवाई वाली राज्य सरकार है जिसके मुख्यमंत्री पेमा खांडू कुछ और पार्टियां बदल-बदलकर भी मुख्यमंत्री बने हुए हैं। जब उनकी कुर्सी डगमगाती है, वे पार्टी या गठबंधन बदल लेते हैं, और सीएम बने रहते हैं। उन पर और उनके परिवार पर भ्रष्टाचार के असाधारण आरोप लगते आए हैं, लेकिन जिस तरह उत्तर-पूर्वी राज्यों में कई बातों को अनदेखा करके उन्हें देश की मूलधारा में बनाए रखने की कोशिश होती है, अरूणाचल में भी पेमा खांडू के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों से आगे जनहित याचिका भी लगी हुई है, लेकिन वे डंके की चोट पर अपना सिलसिला जारी रखे हुए हैं।

उनके खिलाफ अदालत में लगी एक जनहित याचिका में कहा गया है कि उनकी सरकार हर तरह के बड़े ठेके अपने परिवार, या बहुत करीबी लोगों की कंपनियों को देती है। ठेके देने के लिए जो मान्य प्रक्रिया है, उसे कूड़े की टोकरी में डालकर मुख्यमंत्री मनमाने तरीके से जनता का खजाना अपने घर की तरफ लगातार मोड़े रहते हैं। अदालत ने इस याचिका पर केन्द्र और राज्य सरकारों को नोटिस भेजे हैं, और पिछले दस बरस के सारे सरकारी ठेकों की जानकारी मांगी है। इसी से खबरें निकलकर सामने आई हैं कि बिना किसी मुकाबले के आपस में ही मिलीभगत (या मिलेमौलाना कहा जाए?) करके  मनमाने रेट पर सारा माल घर में लाने का काम मुख्यमंत्री लगातार करते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने कल इस बात पर भारी हैरानी जाहिर की कि दस साल में एक जिले में 31 ठेके सीएम के परिवार को मिले हैं। याचिकाकर्ताओं के वकील प्रशांत भूषण ने राज्य सरकार के पिछले हलफनामों की जानकारी गिनाते हुए दावा किया कि सभी मामलों में कुल दो कंपनियों ने टेंडर भरे, और सीएम से जुड़ी कंपनियों ने 0.01 फीसदी कम रेट भरा, और उसे सब काम मिल गए। अदालत में ही यह जानकारी सामने आई कि पेमा खांडू देश के दूसरे सबसे अमीर सीएम हैं, उनके पास 332 करोड़ की संपत्ति बताई गई है। परिवार के सारे के सारे लोग ठेकेदार हैं, और कंस्ट्रक्शन कंपनियां चलाते हैं। लेकिन इस सीएम के भ्रष्टाचार को सिर्फ भाजपा से जोडऩा ठीक नहीं है क्योंकि वे कांग्रेस के भी सीएम रहे हैं, और फिर किसी दूसरी क्षेत्रीय पार्टी की भी। कभी वे निर्दलीय चुनाव जीतते हैं, तो कभी निर्विरोध।

हम कुछ देर के लिए इस एक प्रदेश के इस एक सीएम को छोड़ दें, तो देश में कई ऐसे और मंत्री-मुख्यमंत्री रहे हैं जिनकी दौलत का कोई थाह नहीं लगता। महाराष्ट्र में शरद पवार और उनके भतीजे अजीत पवार के बीच सत्ता में बने रहने के लिए जिस तरह की नूरा-कुश्ती चलती रहती है, उससे परे इन दोनों की दौलत बेहिसाब मानी जाती है। अजीत पवार पर भ्रष्टाचार के अनगिनत आरोप लगते रहते हैं, और उनके दलबदल के साथ वे आरोप कचरे की टोकरी में जाते रहते हैं। कर्नाटक के बेल्लारी के रेड्डी भाईयों की वह तस्वीर लोगों को याद होगी जिसमें उन दोनों के सिर पर हाथ रखकर सुषमा स्वराज खड़ी थीं जो कि कर्नाटक से इनके इलाके से चुनाव भी लडक़र आई थीं। लालू यादव जेल में पड़े हुए ही हैं, फिर चाहे वे जमानत पर बाहर हैं। छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल की सरकार के कार्यकाल के हजारों करोड़ के मामले अदालत में चल रहे हैं, और उनके इर्द-गिर्द के तकरीबन तमाम ताकतवर अफसर जेल में हैं, और बेटा भी जमानत नहीं पा सक रहा है। अलग-अलग प्रदेशों में भ्रष्टाचार आसमान छूता दिखता है, लेकिन वामपंथियों के अलावा किसी राजनीतिक दल को भ्रष्टाचार से परहेज नहीं दिखता। वामपंथियों से सांप-नेवले जैसे मधुर संबंध रखने वाली ममता बैनर्जी भी अपने कई कार्यकाल में वामपंथियों के कार्यकाल को लेकर किसी को जेल नहीं भेज पाई हैं, यह अलग बात है कि उन्हीं के मंत्री रहे लोग अपनी प्रेमिका वगैरह के साथ भी जेल में हैं, या बेल पर हैं।

कहने के लिए तो देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ कई तरह की संवैधानिक संस्थाएं बनाई गई हैं, और राज्यों के भीतर भी लोकायुक्त जैसे संगठन बने हुए हैं। लेकिन किसी भी तरह का भ्रष्टाचार अगर हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में उजागर हो पाया, तो ही वह सामने आ पाता है, वरना सूचना के अधिकार से कुछ जानकारियां सामने आती हैं जो कि अदालत में भी खड़ी रहती हैं। अलग-अलग मौकों पर राजनीतिक दल तरह-तरह से ईमानदारी के दावे करते हैं, लेकिन जब उनकी सरकार बनती है तो वे भ्रष्टाचार को अनदेखा करने को ही सहूलियत का सामान पाते हैं। संवैधानिक संस्थाओं के साथ सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि उन पर सरकारें अपनी मर्जी से लोगों को मनोनीत करती हैं, और देश में इक्का-दुक्का ओहदों को छोड़ दें, तो बाकी तमाम जगहों पर सत्ता के पिट्ठू बैठे हुए मिट्ठू की तरह सत्ता की बात को दोहराते हैं। मिट्टू का अपमान करना हमें ठीक नहीं लग रहा है, लेकिन मिसाल और तुकबंदी के लिए उसे गिनाया गया है। अब हर किस्म की संवैधानिक संस्था पर सत्ता के पसंदीदा लोग इस हद तक सवार हैं कि भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग लडऩे के लिए जिन्हें ओहदे दिए गए हैं, वे सत्ता के घुड़सवार अंगरक्षक दस्ते की तरह सत्ता के साथ कदमताल करते हुए चलते हैं जैसे कि राष्ट्रपति की बग्गी के साथ उनके अंगरक्षक चलते हैं। वामपंथी सरकारों से बाहर हैं, इसलिए भ्रष्टाचार की इस चर्चा में वे अप्रासंगिक भी हैं। लेकिन बाकी पार्टियां एक-दूसरे की कालिख के मुकाबले अपने को गोरा साबित करने में लगी रहती हैं, और लोकतंत्र का मुंह काला करती रहती हैं। क्या किसी भी समझदार इंसान को देश की हालत आजादी की सदी पूरी होने पर भी सुधरते दिखती है?

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