संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : सिलबट्टे की चटनी जिन्हें बेहतर लगती है, उनके लिए
सुनील कुमार ने लिखा है
29-Nov-2025 5:23 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : सिलबट्टे की चटनी जिन्हें बेहतर लगती है, उनके लिए

सोशल मीडिया पर कई बार बड़ी दिलचस्प बहस देखने मिलती है। अभी कुछ लोग चर्चा कर रहे हैं कि बिजली से चलने वाली मिक्सी पर चटनी पीसने के बजाय सिलबट्टे पर उसे पीसना बेहतर होता है। कई लोग यह भी मानकर चलते हैं कि रात को खाना बचना नहीं चाहिए, और अगली सुबह फ्रिज से निकालकर किसी भी चीज को गर्म करने से बचना चाहिए। इनमें से कुछ बातें तो सेहत के लिए, कुछ बातें बिजली बचाने के लिए अच्छी हो सकती हैं, लेकिन इनमें से कौन सी बातें गृहिणी के लिए भी अच्छी हैं, वह बात चर्चा की प्राथमिकता में नहीं रहती। हर दिन आटा गूंथकर ताजी रोटियां बनाना, यह क्यों जरूरी होना चाहिए? क्या महज इसलिए कि घर पर एक महिला की यह जिम्मेदारी है कि वह इस काम को करे? या फिर इसका सहूलियत से भी कोई लेना-देना है? जब फ्रिज की तकनीक इस्तेमाल में आ रही है, तो दो वक्त की दाल, दो वक्त की कढ़ी, दो वक्त की सब्जी, और दो वक्त का चावल भी एक साथ बनाकर बचे हुए फ्रिज में क्यों नहीं रखे जा सकते? मां के हाथ के गर्म खाने की महिमा से इस देश की संस्कृति भरी हुई है, लेकिन मां के हाथ कितने होने चाहिए, इस पर कुछ नहीं कहा जाता, बल्कि बिना कहे हुए देवियों की प्रतिमाएं दिखा दी जाती हैं कि कम से कम आठ तो हाथ होने ही चाहिए ताकि वह चार महिलाओं जितना काम कर सके। खाड़ी के मुस्लिम देशों को देखें तो वहां घर पर रोटी बनाने की कोई परंपरा नहीं है। बाजार में तंदूर वाले बड़ी-बड़ी रोटियां बेचते हैं, जिनमें से एक-एक रोटी से दो-तीन लोगों के पेट भर जाएं। लोग बाजार जाते हैं रोटियों का ग_ा खरीद लाते हैं, और घर पर उसके साथ खाने लायक कुछ बन जाता है। हर दिन आटा गूंथना, और रोटी बनाना यह उन महिलाओं पर भी लागू नहीं होता जिन पर बुरका लदे होता है, नकाब या हिजाब लदे होता है।

अब खाने से परे एक दूसरी बात पर आ जाएं, तो हिंदुस्तान में पिछले बरसों में हर घर में शौचालय बन गए हैं। आने वाले बरसों में हो सकता है कि हर घर तक नल भी पहुंच जाए, लेकिन शौचालय बने बरसों हो गए, और उनमें हर इस्तेमाल के बाद डलने वाला आधा बाल्टी पानी ढोकर लाना आमतौर पर महिला की ही जिम्मेदारी रहती है, कई बार तो पानी कुछ मील दूर से भी लाना पड़ता है। ग्रामीण जीवन की ऐसी एक भी तस्वीर देखने नहीं मिलती जिसमें कोई मर्द पानी ढोते दिखता हो। अब सरकार की तरफ से खुले में शौच को अपमान साबित किया गया है, कई जगहों पर तो अधिकारी-कर्मचारी मुंहअंधेरे टॉर्च लेकर निकलते थे, और खुले में शौच करते लोगों पर रौशनी फेंककर उन्हें शर्मिंदा करते थे। अब सरकारी आंकड़ों में, या जमीन पर, जैसा भी हो शौचालय बने, तो सचमुच के शौचालयों में तो पानी लगता ही है, और वह औरत ही लाती है। लोगों को अपने आसपास के लोगों से यह भी पूछना चाहिए कि सरकारी मदद से बने हुए शौचालयों को, या कि बाकी घरों के शौचालयों को साफ करने की जिम्मेदारी किसकी रहती है? इस्तेमाल तो सभी लोग करते हैं, लेकिन सफाई करना शायद महिला का एकाधिकार रहता है।

ऐसी बहुत सी सामाजिक परंपराएं हैं जिन्हें लोगों के बचपन से ही संस्कृति की तरह पेश किया गया है। घरों में पकाने और परोसने का काम महिलाएं और बच्चियां ही करती हैं, और यह सोच धीरे-धीरे लडक़े-लड़कियों सभी में कई पीढिय़ों के लिए पैठ जाती है। और सुबह से रात तक खटने वाली, काम करने वाली महिला के बारे में जब बाहर कोई पूछते हैं कि वह क्या करती है, तो आमतौर पर जवाब मिलता है कि वह कुछ नहीं करती, गृहिणी है। अब अगर एक गृहिणी के घर संभालने, खाना खिलाने, बुजुर्गों की सेहत का ख्याल रखने, गर्भधारण करने, बच्चे पैदा करने, बच्चों को बड़ा करने तक की मेहनत को अलग-अलग घरेलू कामगारों से करवाया जाए, तो पता लगेगा कि घर का पूरा बजट ही कम पड़ रहा है। जिम्मेदारियों का बोझ गिनते हुए भारत जैसे समाज में महिला पारदर्शी हो जाती है, उसे गिना ही नहीं जाता, उसे बस घर पर रहती है, कह दिया जाता है, मानो वह घर पर आरामकुर्सी पर बैठकर धूप सेंकती हो। भारत जैसे आम समाज में महिला के सम्मान के लिए जरूरी यह है कि उसके किए गए अधिकतर काम को मर्द भी करके देखें कि उनमें कितनी मेहनत लगती है, कितना वक्त लगता है।

जिस तरह पैडल रिक्शा चलाने वाले की मेहनत और तकलीफ का जरा सा अंदाज उन लोगों को लग सकता है जो कि साइकिल चलाते हैं। एक साइकिल चलाने में जितनी ताकत लगती है, उससे कई गुना अधिक ताकत रिक्शा चलाने में लगती है। लेकिन रिक्शे वाले की मेहनत का अंदाज मोपेड या स्कूटर जैसे पेट्रोल-वाहनों को चलाने वाले को नहीं हो सकता जो कि सडक़ से पैडल रिक्शा को हटाने के लिए हॉर्न का हमला कर देते हैं। किसी ने बहुत पहले यह कहा भी था कि जाके पांव न पड़े बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई। मतलब यह कि जिसके पांवों की एडिय़ां फटी नहीं हैं, वे दूसरों के दर्द को क्या जानें। घर में महिला के साथ रहने वाले पुरूषों को ही जब उसके दर्द का अहसास नहीं रहता, तो बाकी दुनिया से भला क्या उम्मीद की जा सकती है? एक पति को पत्नी दिन में घरेलू बंधुआ मजदूर की तरह पसंद रहती है, और रात में वह उससे पेशेवर बदचलन जैसी मस्ती की उम्मीद करता है। ऐसा देहसुख देने वाली पेशेवर कामगार अपने बदन को घरेलू कामकाज के बोझ से बचाकर रखती है, तभी वह कोई सुख देने की हालत में रहती है।

लोगों को देहसुख, या किसी और तरह का सुख, उसकी उम्मीद करने के पहले महिला के तन-मन के दुख की भी परवाह करना सीखना चाहिए। खाना पकाने से लेकर घर चलाने तक उसका जो अपार दुख है, मेहनत और तकलीफों का जो पहाड़ वह रोज चढ़ती है, कभी उसका भी अंदाज लगाना चाहिए। कभी महिला की जिंदगी सरीखी साइकिल चलाकर देखें कि उसे घर के रिक्शा खींचने में कितनी ताकत लगती होगी। इसके बाद ही उससे रोटी गरम-गरम, और चटनी सिलबट्टे पर पीसी हुई मांगना चाहिए।  (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)


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