संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : अमरीका और नाटो क्या यूक्रेन का भला कर रहे?
22-Apr-2022 4:23 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : अमरीका और नाटो क्या यूक्रेन का भला कर रहे?

फरवरी के आखिरी हफ्ते में यूक्रेन पर हुए रूसी हमले को दो महीने होने जा रहे हैं, और अब तक हजारों यूक्रेनी नागरिक भी रूसी सैनिकों के हाथों और रूसी बमबारी से, टैंक के हमलों से मारे गए हैं। दसियों लाख लोग यूक्रेन छोडक़र जाने मजबूर हुए हैं जिन्हें अड़ोस-पड़ोस के देशों से लेकर अमरीका तक में शरण दी जा रही है। यूक्रेन का ढांचा बहुत बुरी तबाह हो चुका है, वहां की कलादीर्घाएं, संग्रहालय, वहां की इमारतें, विश्वविद्यालय तबाह हो चुके हैं। और दुबारा यह देश कैसे खड़ा हो सकेगा, इसकी कल्पना भी आसान नहीं है। जो लोग वहां बच गए हैं, उनमें अधिकतर बुजुर्ग लोग हैं जो कि लंबा सफर करके किसी दूसरे देश जाने की हालत में भी नहीं हैं, और जिन्हें अब बाकी जिंदगी अपने पुराने घर से परे रहने की हिम्मत भी नहीं है। ऐसी नौबत में योरप के देश और अमरीका रूस के खिलाफ यूक्रेन की मदद करने में कम या अधिक हद तक लगे हुए हैं, और इस मदद का अधिकतर हिस्सा हथियारों की शक्ल में है ताकि यूक्रेन रूसी हमले का सामना कर सके। अधिक बारीक जुबान में अगर बात करें तो ये देश यूक्रेन को ऐसे हथियार अधिक दे रहे हैं जिनसे वह अपने को बचा सके, वह रूस पर हमला कर सके ऐसे हथियार देने से योरप के नाटो-सदस्य देश भी कतरा रहे हैं, और अमरीका भी। ये मददगार देश इस तोहमत से बचना चाहते हैं कि उन्होंने रूस-यूक्रेन की जंग को बढ़ाने का काम किया, और वह जंग बढक़र तीसरे विश्वयुद्ध तक, या कि परमाणु युद्ध तक पहुंच गई।

हम इसी जगह पर पहले भी लिख चुके हैं कि अंतरराष्ट्रीय सैनिक संगठन, नाटो के सदस्य देशों के सामने रूस का फौजी खतरा हमेशा ही खड़ा रहता है। और अमरीका तो रूस का परंपरागत प्रतिद्वंद्वी देश है ही, जो कि कुछ मायनों में एक दुश्मन देश सरीखा भी है। अब ऐसे में योरप के देशों, या नाटो-सदस्यों, और अमरीका का मिलाजुला निजी हित इसमें है कि रूस का अधिक से अधिक फौजी और कारोबारी नुकसान हो सके। अगर रूस कमजोर होता है, तो पश्चिमी ताकतें अधिक मजबूत होती हैं। ऐसे समीकरण के बीच यूक्रेन की शक्ल में अमरीका और नाटो-सदस्यों को एक ऐसा लड़ाकू देश मिल गया है जो कि किसी भी कीमत पर रूसी हमले का मुकाबला करने के लिए तैयार है। दुनिया के इतिहास में शायद ही ऐसा कोई दूसरा राष्ट्रपति रहा हो जो कि एक टी-शर्ट में महीनों गुजार रहा है, बंकरों में जी रहा है, और रूसी हमले से निपटने की जिसकी हसरत अपार बनी हुई है। अपने देश के नागरिकों और फौजियों की अनगिनत मौतों की कीमत पर भी यूक्रेनी राष्ट्रपति वोलोदिमिर जेलेंस्की रूस का मुकाबला करने को तैयार है, और हर दिन वह वीडियो कांफ्रेंस पर दुनिया के किसी न किसी देश की संसद से अपील करता है कि यूक्रेन को फौजी साज-सामान की मदद करें। यह मदद आ रही है, इसकी वजह से रूस का फौजी नुकसान भी हो रहा है, लेकिन इस मदद का इस्तेमाल करते हुए खुद यूक्रेन के फौजी मारे जा रहे हैं, या फिर वे रूस के युद्धबंदी होकर एक अनिश्चित और खतरनाक भविष्य की तरफ बढ़ रहे हैं। यूक्रेन में रूसी हमले, और बाद की चल रही जंग के दौरान दसियों हजार नागरिकों की मौत तय है, पूरे देश की तबाही तो हो ही चुकी है, दसियों लाख नागरिक शरणार्थी होकर दूसरे देशों में चले गए हैं।

अब रूसी हमले को पूरी तरह नाजायज और गुंडागर्दी मानते हुए भी हम आज की इस नौबत पर जब सोचते हैं तो लगता है कि अमरीका और नाटो-सदस्य देश किस कीमत पर इस लड़ाई को जारी रखे हुए हैं? इन तमाम देशों से अरबों डॉलर की फौजी मदद तो यूक्रेन जा रही है, लेकिन इनमें से किसी का भी एक सैनिक भी वहां लडऩे नहीं गया है। किसी देश के लिए सबसे खतरनाक नौबत यही रहती है कि किसी दूसरे और तीसरे देश की लड़ाई में  उसके अपने सैनिकों के ताबूत घर लौटें। इराक और अफगानिस्तान के भी पहले वियतनाम में अमरीका यह भुगत चुका है, और अभी-अभी अफगानिस्तान से मुंह काला कराकर लौटा हुआ अमरीका दुनिया के किसी मोर्चे पर अपनी फौज को झोंकना नहीं चाहता है, शायद उसकी औकात और हिम्मत भी नहीं रह गई है। ऐसी नौबत में रूस को नुकसान पहुंचाने की पश्चिमी नीयत पश्चिम के पैसों से तो पूरी हो रही है, लेकिन उसमें जिंदगियां यूक्रेन की जा रही है। वहां के सैनिक भी मारे जा रहे हैं, वहां के नागरिक भी मारे जा रहे हैं, और वह पूरे का पूरा देश दुनिया का सबसे बड़ा खंडहर बनने जा रहा है। रूस की संपन्नता तो इतनी है कि वह अपने तेल, गैस, और खनिज बेचकर आने वाले बरसों में किसी तरह खड़ा रहेगा, लेकिन यूक्रेन रहेगा भी या नहीं, इसी का कोई ठिकाना नहीं है। रूस के खिलाफ उसे उकसाकर मोर्चे पर डटाए रखने वाले देश शायद ही इस युद्ध को तीसरे विश्वयुद्ध में बदलने की नौबत खड़ी करेंगे। जिस जंग को किसी तर्कसंगत अंत तक ले जाना पश्चिमी देशों के हाथ में नहीं हैं, उसे इस तरह जारी रखवाना एक खतरनाक खेल है। अपने निजी स्वार्थों के चलते इन देशों को यूक्रेन को जंग में खड़े रखना अच्छा लग रहा है, लेकिन यह एक ऐसी मदद है जिसमें यूक्रेन की जिंदगी और उस देश को बचाने की कोई योजना नहीं है। यह मदद तब तक जारी है जब तक यूक्रेन रूस के खिलाफ डटा हुआ है, और रूस को कोई नुकसान पहुंचा पा रहा है। इसके बाद अगर यूक्रेन नाम का देश बचता है, तो उसके पुनर्निर्माण के लिए इनमेें से कौन से देश कितनी मदद करेंगे, और उससे कितनी जरूरतें पूरी होगी यह आने वाला वक्त बताएगा। फिलहाल तो यूक्रेन को घोड़े पर सवार करके पश्चिम के देश एक खेल खेलते दिख रहे हैं।

लोगों को याद होगा कि 1971 में पूर्वी पाकिस्तान और पश्चिमी पाकिस्तान के बीच एक तनाव और संघर्ष चल रहा था, और पूर्वी पाकिस्तान के लोगों ने पश्चिम में बसी हुई राजधानी और सरकार के खिलाफ एक मोर्चा खोल रखा था। उस वक्त भारत ने पूर्वी पाकिस्तान का साथ दिया था, और पाकिस्तान की फौज को भारत के सामने आत्मसमर्पण करना पड़ा था, बांग्लादेश बना था, और पाकिस्तान के हाथ से पूरब का अपना पूरा हिस्सा चले ही गया। लेकिन उस नौबत में अगर आत्मसमर्पण नहीं हुआ रहता, तो बहुत खून-खराबा होता। अब अगर उस वक्त अमरीका पाकिस्तान की फौजी मदद को उतरा रहता, और पाकिस्तान की फौज उस झांसे में आकर उस जंग को जारी रखती, तो क्या पाकिस्तान का सचमुच कोई भला हुआ रहता? इतिहास को लेकर कल्पना ठीक नहीं है, लेकिन बिना किसी विदेशी मदद के पाकिस्तान ने उस वक्त हिन्दुस्तान के सामने आत्मसमर्पण किया, और अपने देश का विभाजन होने दिया। अब आज अगर यूक्रेन बिना पश्चिमी मदद के अब तक आत्मसमर्पण करने के बारे में सोच भी पाया होता, तो आज पश्चिमी देशों ने वह संभावना उसके सामने से छीन ली है। आज उसे इतना फौजी सामान भेजा जा रहा है कि वह कहीं रूस के सामने आत्मसमर्पण न करे दे, और रूस योरप के और भीतर तक अपने टैंक न पहुंचा दे। दुनिया के फौजी ताकत वाले देश न तो यूक्रेन को अपनी फौजी-औकात में जीने दे रहे, और न ही इस लड़ाई को खत्म होने दे रहे। जिस जंग में शामिल होने के लिए ये देश तैयार नहीं हैं, क्या उस जंग को बड़ी मौतों और बड़ी तबाही की कीमत पर भी जारी रखवाना एक नैतिक काम है? कुछ लोग ऐसा भी मानते हैं कि यूक्रेन में अमरीका और नाटो रूस के खिलाफ एक प्रॉक्सी युद्ध लड़ रहे हैं। यानी दूसरे के कंधे पर रखकर बंदूक चला रहे हैं, और यूक्रेन ने लड़ाई की अपनी क्षमता के बाहर जाकर भी अपना कंधा मुहैया कराया है। अब सोचने की बात यह है कि यूक्रेन को चने के झाड़ पर चढ़ाकर क्या उसका साथ दिया जा रहा है, या उसका इस्तेमाल किया जा रहा है? यह सवाल छोटा नहीं है, और यूक्रेनी लोगों के भले के लिए इस सवाल का जवाब ढूंढना जरूरी है।
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