संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : नक्सलियों को हिफाजत के साथ इलाज का हक़ क्यों नहीं हो ?
26-Jun-2021 4:50 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : नक्सलियों को हिफाजत के साथ इलाज का हक़ क्यों नहीं हो ?

बस्तर पुलिस की बार-बार एक अपील आ रही है कि माओवादी आत्मसमर्पण करें और कोरोना का इलाज कराएं, अपनी, अपने साथियों की, और ग्रामीणों की जान बचाएं। इसके साथ ही पुलिस यह भी बता रही है कि किस तरह आत्मसमर्पण करने वाले नक्सलियों को कोरोना की वैक्सीन लगाई जा रही है। बात सही है कि जंगलों में जो माओवादी हैं, जो इलाज के लिए शहरों तक नहीं आ पाते हैं, उनके लिए कोरोना का इलाज जंगल में मुमकिन भी नहीं है, और न ही कोरोना की वैक्सीन उन्हें हासिल हो सकती है। नतीजा यह है कि अभी 2 दिन पहले ही दो प्रमुख नक्सलियों की मौत की खबर आई है। जंगल में जहां वे पुलिस और बाकी सुरक्षा बलों के खिलाफ लगातार हथियारबंद लड़ाई लड़ रहे हैं वहां पर उनके पास मामूली बीमारियों का इलाज तो है, मामूली जख्मों का इलाज भी है, लेकिन खतरनाक संक्रामक रोग से बचाव का उनके पास कोई जरिया नहीं है।

अभी यहां पर एक सवाल यह उठता है कि सरकार की तरफ से बस्तर के नक्सल मोर्चे पर तकरीबन सारे ही बयान देने वाली पुलिस का यह ताजा बयान कहता है कि वे आत्मसमर्पण करें और फिर कोरोना का इलाज करवाएं। सवाल यह है कि अगर वे आत्मसमर्पण ना करें तो क्या वे भारतीय नागरिक के रूप में या भारतीय जमीन पर मौजूद इंसान के रूप में किसी इलाज के हकदार हैं, या नहीं है? यह सवाल जरूरी इसलिए है कि कुछ बरस पहले तक बस्तर में एक अंतरराष्ट्रीय संगठन, एमएसएफ,  काम कर रहा था और इस संगठन की यह घोषित नीति थी कि दुनिया में वह आमतौर पर हथियारबंद संघर्ष वाले इलाकों में ही स्वास्थ्य सुविधा उपलब्ध कराता था, और ऐसा करते हुए वह यह भेदभाव नहीं करता था कि इलाज के लिए आने वाले लोग कौन हैं, वे हथियारबंद गोरिल्ला हैं, या वे सुरक्षाबलों के लोग हैं, वे कानूनी हैं या गैरकानूनी हैं, या कोई मुजरिम हैं. ऐसा कोई भी फर्क वह इलाज के लिए नहीं करता था, उसकी एक ही शर्त पूरी दुनिया में रहती है कि उसके अहाते में इलाज के लिए आने वाले लोग अपने हथियार बाहर छोडक़र आएं. हथियार लेकर भीतर आने वाले लोगों के इलाज से यह संगठन मना कर देता था। छत्तीसगढ़ में 2007 के करीब इस संगठन को बस्तर से निकाल बाहर किया गया क्योंकि इसने इलाज के लिए आने वाले सुरक्षाबलों के लिए भी यह शर्त रखी थी कि वे हथियार बाहर छोडक़र आएं, और हथियार बाहर छोडक़र आने वाले नक्सलियों को भी यह इलाज के लिए मना नहीं करता था। राज्य सरकार की पुलिस और दूसरी एजेंसियों को इस बात की शिकायत थी कि यह अंतरराष्ट्रीय संगठन नक्सलियों का भी इलाज करता है। इसलिए इसे चेतावनी दी गई, इसने बार-बार छत्तीसगढ़ की रमन सिंह सरकार के सामने अपनी बात को रखने की कोशिश की, अपनी अंतरराष्ट्रीय नीति बतलाई, और यह बताया कि दुनियाभर के संघर्षग्रस्त इलाकों में काम करते हुए वह इसी नीति पर चलता है, और वह आने वाले किसी को भी इलाज के लिए मना नहीं करता है. लेकिन राज्य सरकार इस बात से सहमत नहीं हुई और इस अंतरराष्ट्रीय संगठन को प्रदेश से बाहर निकाल दिया गया था।

अब सवाल यह उठता है कि देश में जो मौजूद हैं, वे चाहे दूसरे देशों से गैरकानूनी तरीके से आए हुए शरणार्थी हैं, घुसपैठिए हैं, या कि इस देश के भीतर ही कानून से टकराव मोल लेने वाले, और गैरकानूनी हरकत करने वाले हिंसक, हथियारबंद लोग हैं, क्या सरकार इनमें से किसी के इलाज को मना कर सकती है, और क्या यह बात यह देश के कानून के मुताबिक जायज है, या क्या यह बात अंतरराष्ट्रीय कानून के मुताबिक सही है कि किसी को इलाज के लिए मना किया जाए? लोगों को एक ताजा घटना शायद याद हो कि अभी कुछ हफ्ते पहले ही उत्तर पूर्व के एक राज्य मणिपुर में म्यांमार से गैर कानूनी रूप से भारत आने वाले लोगों के बारे में वहां की मणिपुर की भाजपा सरकार ने यह नोटिस जारी कर दिया था कि कोई भी व्यक्ति म्यांमार के ऐसे लोगों को ना शरण दे, ना खाना दे, ना उन्हें किसी तरह का इलाज दे। हमने इसके खिलाफ तुरंत लिखा भी था, और बाकी चारों तरफ से मणिपुर सरकार पर इतना दबाव पड़ा, खुद भारत सरकार ने शायद उसके खिलाफ राज्य सरकार को निर्देश दिया और राज्य का वह आदेश वापस लेना पड़ा।

आज बस्तर में नक्सलियों को कोरोना के इलाज से, या कोरोना का टीका लगाने से मना करना शायद देश के कानून के हिसाब से ठीक बात नहीं है, इंसानियत के हिसाब से तो बिल्कुल ही ठीक नहीं है। सरकार की यह जिम्मेदारी हो जाएगी कि इलाज के लिए आने वाले ऐसे लोगों को उनके गैरकानूनी कामों के लिए गिरफ्तार किया जाए, और यह बात ही नक्सलियों को किसी सरकारी इलाज तक आने से रोकती है। ऐसे में ही वहां से निकाले गए अंतरराष्ट्रीय संगठन एमएसएफ  की जरूरत महसूस होती है। इस संगठन को डॉक्टर्स विदाउट बॉर्डर्स कहां जाता है और यह संगठन सरकार या दूसरे हथियारबंद उग्रवादियों के मामले में इलाज के लिए कोई फर्क नहीं करता। बस्तर से इस संगठन को निकाल तो दिया गया लेकिन आज कोरोना की नौबत में ऐसे संगठन की जरूरत महसूस हो रही है क्योंकि उग्रवादियों को भी इलाज उपलब्ध न कराना राज्य सरकार या देश की सरकार की लोकतांत्रिक नाकामयाबी ही होगी। जिस तरह देश में किसी मुजरिम को भी एक वकील करने का हक रहता है, अपने वकील से जाकर मिलने का हक रहता है, उससे बात करने का हक रहता है, और वकील का यह विशेषाधिकार रहता है कि वह अपने मुवक्किल से की गई किसी भी बातचीत को अदालत को भी बताने से मना कर सकता है, ऐसा ही डॉक्टरी के पेशे के साथ भी होना चाहिए और ऐसा ना होना लोकतंत्र की एक नाकामयाबी है। 

छत्तीसगढ़ में कई बरस पहले पिछली भाजपा सरकार के दौरान एक विशेष जन सुरक्षा अधिनियम बनाया था जिसमें नक्सलियों की खबरें छापने या उनके बयान छापने को लेकर अखबारों को भी घेरे में लेने की बात थी। यह एक अलग बात है कि रमन सरकार ने कभी उसका इस्तेमाल मीडिया के खिलाफ नहीं किया, लेकिन वह एक अलग से कानून बनाकर नक्सलियों की मीडिया तक की पहुंच को रोकने की कोशिश की गई थी, जो रोक कभी कामयाब नहीं हो सकी। देश के भीतर गैरकानूनी काम करने वाले लोग भी कानून के तहत नागरिकों को मिलने वाले आम अधिकारों के हकदार होते हैं। 

बस्तर को एक पुलिस समस्या मानकर पुलिस के भरोसे छोड़ देना बड़ी गैर जिम्मेदारी का काम है। राज्य सरकार और बस्तर की राजनीतिक ताकतें अगर कोरोनाग्रस्त नक्सलियों को लेकर कोई भी बात नहीं सोच रही हैं, और इसे महज एक जिले के एसपी के तय करने का मामला मान लिया गया है, तो यह एक लोकतांत्रिक राजनीति की विफलता है। पुलिस से इतनी लोकतांत्रिक परिपच्ता की उम्मीद नहीं की जाती कि वह नक्सलियों के मानवाधिकारों और बुनियादी अधिकारों के बारे में भी सोचे, लेकिन बस्तर के साथ यह दिक्कत लंबे समय से चली आ रही है कि वहां के नक्सल मोर्चे को सिर्फ पुलिस अफसरों के लायक मानकर उन्हीं के भरोसे छोड़ दिया गया है। यह बात छोटी है और कोरोना के इलाज या वैक्सीन के लिए जरूरतमंद नक्सलियों की गिनती बहुत बड़ी नहीं होगी और आम शहरी लोगों को यह बात अटपटी लगेगी कि जो नक्सली बेकसूर लोगों को मारते हैं उनकी जान भी बचाने की बात हो रही है। लेकिन खुद पुलिस के बीच से ऐसी मिसालें सामने आई हैं कि जब कोई जख्मी नक्सली पुलिस के हाथ लगा है, और उसे खून देने की नौबत आई है, तो पुलिस वालों ने ही उसे खून दिया है। हम इसे राज्य सरकार की जिम्मेदारी मानते हैं कि वह नक्सलियों के लिए कोरोना के इलाज या वैक्सीन के कैंप लगाए और उन्हें खुला न्यौता दे कि वे वहां आकर अपना इलाज करवा सकते हैं, या वैक्सीन लगवा सकते हैं, और इस दौरान सुरक्षाबल उनके खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं करेंगे। नक्सलियों के मन में न तो लोकतंत्र के लिए सम्मान है, और न ही माननीय मुद्दों को लेकर वे नरम दिल हैं। लेकिन एक लोकतांत्रिक सरकार को नक्सलियों के मुकाबले अधिक जिम्मेदार रहना चाहिए, अपने पर हमले करने वाले नक्सलियों को भी इलाज उपलब्ध कराना चाहिए। ऐसा ना होने पर नक्सलियों की आवाजाही वाले गांव के बेकसूर लोग भी संक्रामक रोग के शिकार हो सकते हैं। इस मामले को लेकर राज्य सरकार को एक नीतिगत फैसला लेना चाहिए, न कि इसे पुलिस के तय करने का मुद्दा मान लिया जाए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)


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