‘छत्तीसगढ़’ संवाददाता
रायपुर, 26 अक्टूबर। सरगुजा जिले के घाटबर्रा ग्राम पंचायत के सामुदायिक वन अधिकार (सीएफआर) रद्द होने के खिलाफ दायर याचिका को छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट द्वारा खारिज कर दिए जाने के बाद छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन (सीबीए) ने इसे वन अधिकार अधिनियम 2006 (एफआरए) की भावना के खिलाफ करार दिया है। आंदोलन ने इस फैसले को वनवासियों के संवैधानिक अधिकारों पर गहरा प्रहार बताया है और कहा है कि यह पूरे देश के आदिवासी समुदायों के लिए एक खतरनाक मिसाल बन सकता है।
घाटबर्रा देश का पहला सीएफआर प्राप्त ग्राम
घाटबर्रा गाँव हसदेव अरण्य क्षेत्र में स्थित है, जो जैव विविधता से भरपूर और कोयला खदानों से घिरे इलाकों में गिना जाता है। वर्ष 2013 में इस ग्राम को 810 हेक्टेयर वनभूमि पर सामुदायिक वन अधिकार शीर्षक प्रदान किया गया था, जिससे ग्रामीणों को परंपरागत रूप से जंगल के संरक्षण, उपयोग और प्रबंधन का अधिकार मिला।
लेकिन यह वही क्षेत्र है जहाँ परसा ईस्ट केते बासेन (पीईकेबी) कोल ब्लॉक स्थित है, जिसे राजस्थान राज्य विद्युत उत्पादन निगम और अडानी एंटरप्राइजेज के संयुक्त संचालन में विकसित किया जा रहा है।
ग्रामीणों और पर्यावरण कार्यकर्ताओं का आरोप है कि वर्ष 2012 में ही बिना ग्रामसभा की अनुमति और बिना वन अधिकार अधिनियम के तहत अधिकारों के निपटान के, इस खदान को मंजूरी दे दी गई थी। इसके विरोध में स्थानीय आदिवासी समुदाय ने वर्षों तक आंदोलन किया।
सीएफआर रद्द करने की प्रक्रिया और न्यायालय में मामला
वर्ष 2016 में जिला वन अधिकार समिति (डीएलसी), सरगुजा ने खदान कंपनी की शिकायत पर घाटबर्रा ग्राम का सीएफआर शीर्षक निरस्त कर दिया। समिति ने तर्क दिया कि ग्राम ने अपने अधिकारों का दुरुपयोग किया है। ग्रामीणों ने इसे मनमाना और असंवैधानिक कदम बताया तथा हसदेव अरण्य बचाओ संघर्ष समिति ने इस रद्दीकरण को चुनौती देते हुए छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय में याचिका दायर की।
लगभग नौ वर्षों की सुनवाई के बाद उच्च न्यायालय ने हाल ही में याचिका को खारिज करते हुए कहा कि याचिकाकर्ता समिति यह साबित नहीं कर सकी कि वह घाटबर्रा ग्राम के सभी निवासियों का प्रतिनिधित्व करती है। न्यायालय ने यह भी माना कि चूंकि अब क्षेत्र का अधिकांश जंगल कट चुका है और खदान परिचालन शुरू हो चुका है, इसलिए ग्रामीणों को मुआवजा देना ही उचित समाधान होगा।
छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन की तीखी प्रतिक्रिया
छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन (सीबीए) ने इस निर्णय की कड़ी आलोचना की है। संगठन के नेताओं- विजय भाई, मनीष कुंजाम, सुदेश टेकाम, रमाकांत बंजारे, लखन सुबोध और आलोक शुक्ला ने संयुक्त बयान जारी कर कहा कि यह आदेश न केवल वन अधिकार अधिनियम की आत्मा के विरुद्ध है, बल्कि यह इस बात का संकेत है कि अदालतें भी अब खनन कंपनियों के पक्ष में खड़ी नजर आ रही हैं।
आंदोलन का कहना है कि वन अधिकार अधिनियम 2006 का मूल उद्देश्य आदिवासियों को उनके परंपरागत जंगलों, जल और जमीन पर स्वामित्व व प्रबंधन का अधिकार देना था। लेकिन यह फैसला उस पूरी व्यवस्था को कमजोर कर देता है।
संगठन ने कहा कि वन अधिकार कोई आर्थिक संपत्ति नहीं, बल्कि यह आदिवासियों की संस्कृति, आजीविका और अस्तित्व से जुड़ा अधिकार है। अदालत द्वारा मुआवजे को समाधान बताना इस अधिकार की अवमानना है।
अडानी की खदान और पर्यावरणीय खतरा
हसदेव अरण्य क्षेत्र को ‘छत्तीसगढ़ का अमेज़न’ कहा जाता है। यहां के घने साल जंगल, हसदेव नदी की पारिस्थितिकी और सैकड़ों वन्यजीवों का निवास क्षेत्र हैं। परसा ईस्ट केते बासेन (पीईकेबी) खदान के पहले चरण में 841 हेक्टेयर से अधिक वन क्षेत्र को साफ किया जा चुका है। पर्यावरणविदों के अनुसार, इससे न केवल स्थानीय जलस्रोत सूख रहे हैं बल्कि आसपास के 30 से अधिक गांवों की आजीविका पर असर पड़ा है।
संघर्ष समिति की अगली रणनीति
सीबीए ने कहा है कि हसदेव अरण्य बचाओ संघर्ष समिति अब इस आदेश के खिलाफ उच्च न्यायालय की खंडपीठ में अपील दायर करेगी। संगठन का कहना है कि वे सुप्रीम कोर्ट तक भी जाने को तैयार हैं। समिति के अनुसार यह सिर्फ घाटबर्रा या हसदेव का मामला नहीं है, यह पूरे भारत के वन समुदायों की लड़ाई है। अगर यह फैसला कायम रहा, तो आगे किसी भी ग्राम का सीएफआर अधिकार आसानी से खत्म किया जा सकेगा।
संगठन ने राज्य और केंद्र सरकार से यह भी मांग की है कि हसदेव क्षेत्र को नो-माइनिंग ज़ोन घोषित किया जाए, ताकि शेष बचे जंगल और पारंपरिक ग्राम संरचनाएं सुरक्षित रह सकें।