-अनंत प्रकाश
साल 2019 में वायु प्रदूषण की वजह से भारत में 16.7 लाख लोगों की मौत हुई है. इतना ही नहीं, वायु प्रदूषण के कारण देश को 260,000 करोड़ रुपये से ज़्यादा का आर्थिक नुकसान हुआ है.
यह जानकारी केंद्र सरकार की संस्था आईसीएमआर की एक रिपोर्ट में सामने आई है. लेकिन क्या ये आँकड़े आपके लिए कुछ मायने रखते हैं?
दिल्ली से लेकर उत्तर प्रदेश और बिहार समेत भारत का एक बड़ा हिस्सा एक लंबे समय से लगातार वायु प्रदूषण की चपेट में है.
बारिश के महीनों को छोड़ दिया जाए तो हरियाणा, उत्तर प्रदेश, दिल्ली और बिहार जैसे राज्यों में रहने वाले लोग लगभग पूरे साल प्रदूषण की मार झेलते हैं.
ये ख़बर लिखे जाते समय दिल्ली में बेहद बारीक प्रदूषक पीएम 2.5 का सूचकांक 462 था जो कि 50 से भी कम होना चाहिए.
ब्रिटेन की राजधानी लंदन में इसी पीएम 2.5 का स्तर 17 है, न्यू यॉर्क में 38 है, बर्लिन में 20 है, और बीजिंग में 59 है.
सरल शब्दों में कहें तो दिल्ली से लेकर लखनऊ (पीएम 2.5 - 440) में रहने वाले लोग इस समय जिस हवा में साँस ले रहे हैं वो स्वस्थ लोगों को भी बीमार बना सकती है और पहले से बीमार लोगों के लिए गंभीर ख़तरे पैदा कर सकती है.
प्रदूषण से हुई मौत...मतलब क्या है?
इंडियन काउंसिल फ़ॉर मेडिकल रिसर्च ने अपनी हालिया रिपोर्ट में बताया है कि भारत में साल 2019 में 16.7 लाख लोगों की मौत के लिए वायु प्रदूषण को ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है.
इस रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि घरेलू वायु प्रदूषण की वजह से होने वाली मौतों में 1990 से 2019 तक 64 फ़ीसदी की कमी आई है लेकिन इसी बीच हवा में मौजूद प्रदूषण की वजह से होने वाली मौतों में 115 फ़ीसदी का इज़ाफा हुआ है.
शोधकर्ताओं ने इस रिपोर्ट में लोगों की मृत्यु, उनकी बीमारियों और उनके प्रदूषित वातावरण में रहने की अवधि का अध्ययन किया है.
अंग्रेजी अख़बार द हिंदू में प्रकाशित ख़बरके मुताबिक़, आईसीएमआर के महानिदेशक बलराम भार्गव ने बताया है कि इस अध्ययन के नतीजे बताते हैं कि वायु प्रदूषण फेंफड़ों से जुड़ी बीमारियों के चालीस फीसदी मामलों के लिए ज़िम्मेदार है. वहीं, इस्केमिक हार्ट डिज़ीज, स्ट्रोक, डायबिटीज़ और समय से पहले पैदा होने वाले नवजात बच्चों की मौत के लिए वायु प्रदूषण 60 फ़ीसदी तक ज़िम्मेदार है.
यह पहला मौका नहीं है जब किसी रिपोर्ट में ये बताया गया हो कि वायु प्रदूषण हानिकारक और जानलेवा है. लेकिन यह पहली बार है जब सरकार ने वायु प्रदूषण से होने वाली मौतों और आर्थिक नुकसान के सटीक आँकड़े जनता के सामने रखे हैं.
रिपोर्ट यह भी बताती है कि अगर कुछ न किया गया तो वायु प्रदूषण से होने वाली मौतें, बीमारियां और आर्थिक नुकसान की वजह से भारत का साल 2024 तक पाँच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने का सपना टूट सकता है.
ऐसे में सवाल उठता है कि क्या ये रिपोर्ट एक जनआंदोलन को जन्म देगी या दूसरी अन्य रिपोर्ट्स की तरह भुला दी जाएगी?
दिल्ली के सर गंगाराम अस्पताल में लंग कैंसर विशेषज्ञ डॉक्टर अरविंद कुमार मानते हैं कि अब वो वक़्त आ गया है जब लोगों को वायु प्रदूषण के ख़तरों के प्रति अवश्य ही सचेत हो जाना चाहिए.
वो कहते हैं, “जब आईसीएमआर की रिपोर्ट में वायु प्रदूषण के ख़तरे स्पष्ट हो गए हैं तो लोगों को ये माँग ज़रूर करनी चाहिए कि सरकार उनके लिए बेहतर शहर बनाए. लेकिन अगर आप पूछें कि क्या लोग ऐसा करेंगे तो मुझे अभी भी पूरा यकीन नहीं है. क्योंकि यह एक रिपोर्ट है. बहुत सारी अन्य रिपोर्ट्स की तरह कुछ दिन तक इस पर अख़बारों में लेख आएंगे, विचार-विमर्श होंगे, कुछ समय के बाद कुछ नयी चीज़ आ जाएगी. कहीं कोई दुर्घटना हो जाएगी और ये रिपोर्ट भी इतिहास के पन्नों में दर्ज हो जाएगी.''
''यहाँ पर मैं डॉक्टर्स का बहुत अहम रोल मानता हूँ. मैंने हमारे 'डॉक्टर्स फ़ॉर क्लीन एयर मूवमेंट' से जुड़े डॉक्टरों में ये रिपोर्ट शेयर की है और कहा है कि वे इसे बेहद गंभीरता से लें और लोगों को वायु प्रदूषण के ख़तरों के बारे में रोज सचेत कर सकें.”
वायु प्रदूषण का ख़तरा कितना संगीन?
भारत में वायु प्रदूषण का ख़तरा कितना संगीन है, इस बात का अंदाज़ा इससे लगाया जा सकता है कि साल 2019 में जितनी मौतें प्रदूषण की वजह से हुईं, उतनी मौतें सड़क दुर्घटनाओं, आत्महत्या और आतंकवाद जैसे कारणों को मिलाकर भी नहीं हुईं.
आईसीएमआर की रिपोर्ट बताती है कि साल 2019 में हुई 18 फ़ीसदी मौतों के लिए वायु प्रदूषण को ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है.
ऐसे में सवाल उठता है कि अगर इस स्तर पर आकर भी सरकार और समाज की ओर से सही कदम नहीं उठाए गए तो क्या होगा?
डॉक्टर अरविंद का मानना है कि वायु प्रदूषण आने वाले सालों में एक व्यापक समस्या बनकर उभरने जा रहा है.
वो कहते हैं, “हमारे पास सख़्त कदम उठाकर वायु प्रदूषण को नियंत्रित करने के सिवा कोई और रास्ता नहीं है. मैं ये मानता हूँ कि अगर हम ज़मीनी स्तर पर ही कुछ कदम उठाएं तो एक हद तक समाधान निकल सकता है.''
''हमारे नगर निगमों को अपने काम करने के ढंग में मूलभूत बदलाव करना होगा. जिस तरह सड़कें खोदकर छोड़ दी जाती हैं और धूल का अंबार उठता है, वो पार्टिकुलेट मैटर यानी प्रदूषक को हवा में लाने में एक बड़ी भूमिका निभाता है.''
''समस्या का ग्राफ़ धीरे धीरे बढ़ रहा है. मैं बार-बार इस बात को कह रहा हूँ कि पहले मैं लंग कैंसर 50-60 बरस की उम्र वाले मरीज़ों में देखता था. 30 साल पहले जब एम्स में मेरे पास 45 साल की उम्र का लंग कैंसर मरीज आ जाए तो डुगडुगी बज जाती थी कि ये क्या हो रहा है, इतनी कम उम्र के व्यक्ति को लंग कैंसर कैसे हो रहा है. अब गंगाराम हॉस्पिटल में मेरी सबसे युवा लंग कैंसर पेशेंट की उम्र मात्र 28 साल थी.''
डॉक्टर अरविंद कहते हैं, ''सोचने की बात है कि किसी लड़की को 28 साल की उम्र में लंग कैंसर कैसे हो गया? क्योंकि वो जहाँ पर पैदा हुई थी, वो एक प्रदूषित जगह थी. तो उन्होंने अपनी ज़िंदगी के पहले दिन से प्रदूषण झेला. सिगरेट को लंग कैंसर के लिए ज़िम्मेदार ठहराया जाता है.''
वायु प्रदूषण के ख़तरे को इस तरह समझा जा सकता है कि अगर आज दिल्ली में पीएम 2.5 सूचकांक 300 पर है तो दिल्ली में रहने वाले प्रति व्यक्ति ने 15 सिगरेट पीने के बराबर नुकसान झेला है. इसमें नवजात बच्चे भी शामिल हैं.
ऐसे में जब ऐसे बच्चे अपनी ज़िंदगी के 25 से 30 साल दिल्ली में गुजार लेंगे तो वे 25-30 साल के स्मोकर हो जाएंगे और उनके टिश्यूज़ कैंसरस होने के लिए तैयार हो जाएंगे.
पूरे देश में ज़्यादातर लंग कैंसर एक्सपर्ट ये बता रहे हैं कि उनके 50 फीसदी से ज़्यादा मरीज नॉन-स्मोकर हैं. इनमें महिलाओं की संख्या बढ़ रही है.
डॉक्टर अरविंद बताते हैं, ''युवाओं में लंग कैंसर बढ़ रहा है. मैं ये भी कहना चाहता हूँ कि अगले 10 साल में स्थिति न सुधरी तो भारत में लंग कैंसर का इपिडेमिक (महामारी) आने जा रहा है.”
डॉक्टर अरविंद समेत देश के कई विशेषज्ञ मानते हैं कि लोगों को वायु प्रदूषण के ख़तरे के प्रति ज़्यादा संजीदा होना चाहिए.
लेकिन क्या ये बात पूरी तरह सही है कि लोग वायु प्रदूषण को लेकर गंभीर नहीं हैं? क्योंकि बीते कुछ सालों में एयर प्यूरीफ़ायर की माँग जिस तेजी से बढ़ी है, वो लोगों में इस ख़तरे के प्रति संज़ीदगी को दिखाती है.
मगर प्यूरीफ़ायर की बात करते ही एक नया सवाल खड़ा होता है कि क्या इस समस्या का हल निजी स्तर पर निकाला जा सकता है?
क्या एयर प्यूरीफ़ायर एक समाधान है?
इस समय बाज़ार में 3,000 रुपये से लेकर एक लाख रुपये तक का एयर प्यूरीफ़ायर मौजूद है लेकिन एम्स के पल्म्नोलॉजी विभाग के प्रमुख डॉक्टर अनंत मोहन मानते हैं कि ये समस्या का हल नहीं है.
वो कहते हैं, “अगर लोग वायु प्रदूषण से बचना चाहते हैं तो उन्हें सबसे पहले तो इसके ख़िलाफ़ ही कदम उठाने चाहिए.”
वहीं, डॉक्टर अरविंद मानते हैं कि वायु प्रदूषण एक जन समस्या है और उसका हल निजी स्तर पर नहीं तलाशना चाहिए.
वो कहते हैं, “वायु प्रदूषण का समाधान एयर प्यूरीफ़ायर में तलाशना वैसा ही है, जैसा लोगों ने बिजली की कमी पूरी करने के लिए इनवर्टर का इस्तेमाल किया था. पर्याप्त बिजली देना सरकार की ज़िम्मेदारी थी.''
''सरकार को ये ज़िम्मेदारी पूरी करनी चाहिए थी. लेकिन सरकार ने ऐसा नहीं किया और लोगों ने इस समस्या का हल अपने स्तर पर निकाला. उन्होंने घरों में जेनरेटर और इनवर्टर रखना शुरू कर दिए.''
डॉक्टर अरविंद कहते हैं, ''समस्या का सही समाधान ये रहता कि ज़्यादा पावर प्लांट लगाकर सभी को बिजली दी जाती. क्योंकि लोगों ने इस पर बेतहाशा धन खर्च किया. अगर उसे पावर हाउस पर लगा दिया जाता तो संभवत: लोगों को कम दाम पर अच्छी बिजली मिल जाती. लेकिन ऐसा नहीं हुआ.''
''जनता की यही अप्रोच पानी के मामले में भी देखने को मिली. सरकार को साफ पानी देना था, सरकार नहीं दे पाई. ऐसे में शहर की जल आपूर्ति को साफ करने की बजाए लोगों ने वाटर प्यूरीफायर खरीदने शुरू कर दिए. बोतल बंद पानी पीना शुरू कर दिया.''
ये दो ऐसे उदाहरण हैं जब लोगों ने एक जन समस्या का हल निजी स्तर पर निकाला. और समाधान निकला भी. लेकिन इन दोनों जन समस्याओं का हल चुनाव आधारित था.
इसे ऐसे समझ सकते हैं. मान लीजिए कि आपको प्यास लगी है तो आप साफ पानी के लिए एक घंटे तक भी इंतज़ार कर सकते हैं.
ऐसा करने से आप मर नहीं जाएंगे. लेकिन हवा के मामले में ऐसा नहीं है. हम तीन मिनट से ज़्यादा साँस लिए बिना नहीं रह सकते हैं. ऐसे में इस समस्या का हल निजी स्तर पर नहीं निकल सकता है.”
लेकिन अगर जब इस समस्या का हल निजी स्तर पर नहीं निकल सकता है तो आम लोग क्या कर सकते हैं?
आम लोग आख़िर क्या कर सकते हैं?
सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वायरनमेंट से जुड़ीं पर्यावरण विशेषज्ञ अनुमिता रॉय चौधरी मानती हैं कि लोगों को जितना जागरूक इस ख़तरे के प्रति होना चाहिए, उतना ही जागरुक इसके समाधान के लिए होना चाहिए.
वो कहती हैं, “लोगों में जागरुकता ख़तरे के साथ-साथ इसके समाधान को लेकर भी होनी चाहिए. क्योंकि आगे चलकर हमें जो कदम उठाने हैं, वो काफ़ी सख़्त होंगे. अगर राजनीतिक और सामाजिक स्तर पर हम इन कड़े कदमों के प्रति समर्थन नहीं जुटा पाएंगे तो इस समस्या का हल जानते हुए भी उसे अमल में लाना बेहद मुश्किल होगा.''
''क्योंकि हम दिल्ली में प्रदूषण के बारे में बात करते हैं और जब सरकार की ओर से कहा गया कि वो निजी गाड़ियों पर रोक लगाना चाहती है और पब्लिक ट्रांसपोर्ट को बढ़ाना चाहती है तो मध्यम वर्ग सरकार के ख़िलाफ़ चला गया.''
इसके साथ ही आजकल मल्टी-सेक्टर क्लीन एयर एक्शन प्लान की बात हो रही है. सरकार की ओर से नेशनल क्लीन एयर एक्शन प्लान बनाया गया है, जिसके तहत वाहनों, उद्योग, पावर प्लांट और भवन निर्माण से जुड़ी गतिविधियों के साथ -साथ कचरा जलाने तक के लिए नियम बनाए गए हैं.
अनुमिता कहती हैं, ''इस एक्शन प्लान को लागू किए जाने में कमी दिखाई पड़ती है. ऐसे में लोगों को कड़े कदमों के लिए भी जागरूक और तैयार होना होगा.”
क्या भारतीय कानून प्रदूषण से बचा सकता है?
इस सवाल के साथ ही प्रदूषण पर जारी बहस धरातल पर उतर आती है. क्योंकि अगर कोई शख़्स आपको शारीरिक या मानसिक स्तर पर नुकसान पहुँचाता है, तो भारतीय कानून के तहत उसके ख़िलाफ़ आपराधिक मुकद्दमा दायर किया जा सकता है.
लेकिन क्या प्रदूषण के मामले में ऐसा करना संभव है? क्या प्रदूषण के मामले में आप किसी शख़्स, संस्था या सरकार के ख़िलाफ़ आपराधिक मुकदमा दाख़िल करा सकते हैं?
पिछले एक दशक से राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण में पर्यावरण से जुड़े कानूनी मसले देखने वाले वकील विक्रांत तोंगड़ मानते हैं कि वायु प्रदूषण के मामले में ऐसा करना थोड़ा मुश्किल है.
वो कहते हैं, “डॉक्टर कहते हैं कि वायु प्रदूषण ख़तरनाक है लेकिन उसको हुए नुकसान की वजह दर्ज किए जाते वक़्त किसी बीमारी का नाम लिखा जाता है, वायु प्रदूषण का नाम नहीं लिखा जाता है. अभी ब्रिटेन में सात साल लंबी कानूनी लड़ाई के बाद कोर्ट ने आख़िरकार एक बच्ची की मौत के लिए वायु प्रदूषण को ज़िम्मेदार ठहराया है. लेकिन भारत में ऐसे मामले दिखाई नहीं देते हैं.”
भारत में वायु प्रदूषण की रोकथाम के लिए साल 1981 में एक एयर एक्ट लागू किया गया था. लेकिन ये क़ानून कितना मजबूत है, ये इस बात से तय होता है कि पिछले 40 साल में इस क़ानून के तहत दर्ज किए गए मुकदमों की संख्या न के बराबर है, जबकि पिछले 40 बरसों में भारतीय शहरों में वायु प्रदूषण गंभीर स्तर पर पहुँच चुका है.
ऐसे में सवाल उठता है कि जब वायु प्रदूषण को लेकर न्यायिक स्तर पर शिकायत समाधान प्रक्रिया आसान और त्वरित नहीं है, सरकारी अमले में एक उदासीनता है तो आम लोगों के पास क्या विकल्प शेष हैं.
अनुमिता रॉय चौधरी मानती हैं कि जब तक वायु प्रदूषण के मुद्दे को चुनावी राजनीति से नहीं जोड़ा जाता है तब तक सरकारी तबके से सक्रियता की उम्मीद करना बेमानी सा है.
वो कहती हैं, “मतदाताओं को ये समझना पड़ेगा कि साफ हवा मिलना एक बहुत बड़ा मुद्दा है और इसे राजनीतिक मुद्दा बनाए जाने की ज़रूरत है. और ये चुनावी मुद्दा तभी बनेगा जब सरकार और राजनीतिक दल ये समझेंगे कि लोगों के लिए ये मुद्दा अहम है.”
“क्योंकि बीते कुछ दिनों में कई स्तर पर प्रगतिशील नीतियां और एक्शन प्लान बने हैं लेकिन उनके सख़्त अमलीकरण के लिए ज़रूरी है कि स्वच्छ वायु एक राजनीतिक मुद्दे में तब्दील हो. क्योंकि ऐसा होने पर सरकारें जब सही और सख़्त कदम उठाएंगी तो उन्हें पहले से पता होगा कि इन कदमों को उठाते हुए जनता का समर्थन मिलेगा.” (bbc.com)