संपादकीय
देश के पांच राज्यों में हुए चुनाव के बाद अभी सरकारें बनने का सिलसिला चल रहा है, सैकड़ों नए विधायक चुनकर आए हैं, और ऐसे में विधायक ही सबसे अधिक खबरों में हैं। लोगों को यह पता नहीं होगा कि देश के अलग-अलग राज्यों में विधायकों को कितना मेहनताना मिलता है? यह तनख्वाह की शक्ल में भी है, सहूलियतों की शक्ल में भी, और पेंशन के भी अलग-अलग इंतजाम हैं। देश में तेलंगाना, जहां कि अभी चुनाव हुआ है और सरकार बनी है, वहां किसी भी दूसरे राज्य के मुकाबले विधायक की तनख्वाह अधिक है, जो कि ढाई लाख रूपए महीने हैं। दूसरी तरफ मेघालय में 28 हजार से कम तनख्वाह है, और त्रिपुरा में देश की सबसे कम तनख्वाह, 26 हजार से कम है। त्रिपुरा में शायद ऐसा इसलिए भी होगा कि वहां वामपंथी सरकार लंबे समय तक रही है, और नेताओं को जनता के पैसों पर अधिक सहूलियत देने की संस्कृति नहीं रही। शायद इसीलिए बंगाल में भी यह तनख्वाह कुल 52 हजार रूपए महीने है, और इन राज्यों में तनख्वाह जरा भी बढऩे पर उसका बड़ा विरोध होता है। वामपंथी शासन में लंबे समय तक रहने वाले केरल में तनख्वाह बंगाल से भी कम, 44 हजार से कम है। अलग-अलग राज्यों में मुख्यमंत्रियों या मंत्रियों की तनख्वाह भी बहुत अधिक कम या अधिक है। भारत में निर्वाचित नेताओं में प्रधानमंत्री को करीब दो लाख रूपए तनख्वाह और कुछ भत्ते मिलते हैं। जबकि कम से कम तेलंगाना में ही मुख्यमंत्री की तनख्वाह इससे दोगुनी से अधिक है।
तमाम राज्यों के आंकड़े अलग-अलग गिनाना आज का मकसद नहीं है, लेकिन यह सोचने की जरूरत है कि विधायकों और सांसदों की तनख्वाह आखिर कितनी होनी चाहिए? उनके कौन से खर्च जनता उठाए, उनके परिवारों को किस दर्जे की जिंदगी जनता के पैसों से दी जाए? अगर हम हिन्दुस्तान को बुनियादी तौर पर एक बेईमान देश मानकर यह मानकर चलें कि नेता तो करोड़ों की कमाई कर ही लेते हैं, उन्हें कोई अच्छी तनख्वाह देना जरूरी क्यों है, तो एक पुरानी कहावत याद रखनी चाहिए कि सस्ता रोए बार-बार, महंगा रोए एक बार। देश और प्रदेश को चलाने के लिए जिन सांसदों और विधायकों की जरूरत है, उन्हें सस्ता ढूंढने का मतलब काबिल लोगों को इस काम में आने से रोकना है। जनसेवा की बात और सोच तो ठीक है, लेकिन यह हकीकत अपनी जगह बनी रहती है कि जनप्रतिनिधियों के भी परिवार रहते हैं, और उनकी अपनी जरूरतें भी होती हैं, और महत्वाकाक्षाएं भी रहती हैं। आज के वक्त हर किसी से त्याग की ऐसी उम्मीद करना नाजायज होगा कि हर सांसद और विधायक वामपंथियों की तरह की गरीब जिंदगी गुजार लें, और अपनी तनख्वाह पार्टी ऑफिस में जमा करके उसके एक छोटे से हिस्से को पाकर उससे अपना घर चलाएं। ऐसा समर्पण किसी एक पार्टी में हो सकता है, या कि देश में आजादी की लड़ाई के दौरान था, लेकिन अब ऐसा समर्पण स्थाई रूप से नहीं हो सकता, और जब देश को आजाद कराने जैसा बड़ा मकसद न हो, तब तो बिल्कुल नहीं हो सकता। आज जब सांसद और विधायक बनते ही लोगों को 50-50 लाख की गाडिय़ां सूझने लगती हैं, और वे उसके इंतजाम करने में लग जाते हैं, या कि पहले दिन से ही कुछ लोग पूंजीनिवेश की तरह उनके लिए इंतजाम कर देते हैं, तब जनता को यह सोचना चाहिए कि अगर कोई सांसद या विधायक ईमानदार बने रहना चाहते हैं, तो जनता भी उसमें मदद करे। अपने लोगों को बेईमानी की तरफ धकेलकर सरकारी खजाने के पैसे को बचाना कोई समझदारी नहीं है।
हम पहले भी इसी विचार के रहे हैं कि सांसद और विधायक से यह उम्मीद नाजायज है कि वे बिना तनख्वाह, या बहुत कम तनख्वाह पर जनसेवा करें। ऐसी चुनावी राजनीति में आने वाले अधिकतर लोग जिंदगी भर के लिए अपने किसी पेशे या कारोबार से बाहर सरीखे भी हो जाते हैं। और अगर उनके लिए कार्यकाल में बेहतर तनख्वाह और बाद में ठीकठाक पेंशन रहे, तो उनमें से कम से कम कुछ लोग तो ईमानदार बने रहना पसंद कर सकते हैं। हमारा ख्याल है कि देश में सांसदों की तनख्वाह केन्द्र सरकार को कम से कम सीनियर आईएएस की तनख्वाह के बराबर तय करना चाहिए, और राज्य अपनी आर्थिक क्षमता के आधार पर विधायकों की तनख्वाह तय कर सकते हैं, वो भी हमारे हिसाब से ऐसी ही तनख्वाह के आसपास होनी चाहिए। जनप्रतिनिधियों को परिवार की जरूरतों से बेफिक्र होने का एक मौका मिलना चाहिए, उन पर सामाजिकता निभाते हुए पडऩे वाले शिष्टाचार के बोझ को भी समझने की जरूरत है। आज हिन्दुस्तान में किसी सांसद या विधायक के घर जाने पर अगर वहां कोई पानी पिलाने को न रहें, तो यह सामाजिक शिष्टाचार के भी खिलाफ रहेगा। बहुत से सांसद और विधायक बरसों तक मेहनत के बाद इस जगह पहुंचते हैं, और पांच-दस बरस के भीतर वे भूतपूर्व भी हो जाते हैं। इसलिए जिंदगी के बहुत से हिस्से को पूंजीनिवेश की तरह लगाना पड़ता है, तब जाकर लोग संसद और विधानसभाओं तक पहुंच पाते हैं। जनता के एक बड़े हिस्से के बीच यह सोच बनाई जाती है कि सांसदों और विधायकों को अधिक तनख्वाह नहीं मिलनी चाहिए, और यह जनता पर बोझ रहता है। हम यह साफ कर देना चाहते हैं कि किसी भी राज्य में इनकी गिनती बड़ी सीमित रहती है, और राज्य को चलाने, वहां के विकास से जुड़ी हुई जिम्मेदारियां इन पर बहुत रहती हैं, इनके बेईमान हो जाने के खतरे भी बहुत रहते हैं। इसलिए इन्हें पर्याप्त तनख्वाह देना एक किस्म से बचत होगी, फिजूलखर्ची नहीं होगी।
छत्तीसगढ़ में सत्तारूढ़ कांग्रेस की जमकर शिकस्त हुई, और भाजपा किसी की भी उम्मीद से अधिक सीटों के साथ सरकार पर आई। जाहिर है कि ताकतवर, और शायद कमाऊ भी, कुर्सियों पर बैठे हुए अफसर इससे सबसे पहले प्रभावित होंगे। इधर लीड के आंकड़े आते जा रहे थे, और उधर राजधानी रायपुर सहित कुछ दूसरे शहरों में भी पुलिस-प्रशासन, और म्युनिसिपल के अफसर बुलडोजर लेकर निकल गए, और जगह-जगह से ठेले और गुमटियां हटाने लगे। यह काम इस रफ्तार से चालू हुआ कि मानो यह यूपी और एमपी हो, जहां पर सत्ता बुलडोजर को एक प्रतीक बनाकर काम करती है। अभी तो विधायकों की शपथ भी बाकी थी, सरकार बनना तो अभी भी बाकी है, लेकिन बड़े-बड़े अफसर मानो एक किस्म से नई सत्ता के प्रति वफादारी दिखाने के लिए घर से दफ्तर कार के बजाय बुलडोजर पर बैठकर आने लगे हों।
इन पांच बरसों में इन्हीं अफसरों ने एक संगठित गिरोह की तरह शराब का गैरकानूनी कारोबार किया था, ये सरकार से परे के लोगों के निजी नौकरों की तरह काम करते हुए अखिल भारतीय सेवाओं का नाम डुबा रहे थे, लेकिन कमाऊ कुर्सियों पर बने रहना चाहते थे, बने हुए थे। अब एकाएक ऐसे अफसरों को शराब दुकानों के आसपास के ठेलों और गुमटियों पर हमले के लिए हाईकोर्ट में चल रही एक सुनवाई का सहारा मिल गया, दूसरी तरफ इनके बुलडोजर ऐसे इलाकों में भी जाकर गरीबों को उजाडऩे लगे जहां पर आसपास कोई भी शराब दुकान नहीं है। प्रदेश कांग्रेस भवन के अहाते से लगे हुए दर्जनों ठेलों और गुमटियों को उठाकर फेंक दिया गया, और अफसरों ने एक मजबूत बुलडोजरी-निष्ठा की नुमाइश करके अपनी अगली कुर्सियां पक्की करने की एक कोशिश कर ली। कहीं किसी अफसर ने मातहत थानेदारों के तबादले कर दिए, तो किसी कलेक्टर ने डिप्टी कलेक्टर इधर-उधर कर दिए। जब दो-तीन दिन के भीतर नई सरकार काम संभालने वाली है, उस वक्त किसी अफसर को ऐसे तबादलों में क्यों उलझना चाहिए जहां वे खुद भी कल जिले के मुखिया रहेंगे या नहीं?
दरअसल पिछले पांच बरसों में सरकारी अमले ने जिस किस्म से अपने आपको बैठने को कहने पर लेटना महफूज समझा था, उस नौबत को सुधारने में खासा वक्त लग सकता है। एक तो तमाम पार्टियों और नेताओं को यह समझ में आ गया है कि अफसर हों, या कि मीडिया, उन्हें किस तरह काबू में रखा जा सकता है, और किस तरह सरकार के एकाधिकार को दुहा जा सकता है। पिछले पांच बरस अगर आने वाली सरकार के लिए कोई मिसाल हैं, तो इस बात की मिसाल नहीं बनने चाहिए कि गलत काम कैसे-कैसे करवाए जा सकते हैं, भाजपा सरकार के लिए बेहतर यही होगा कि वह यह सबक ले कि कैसे-कैसे गलत काम नहीं करने हैं जिनकी वजह से इतनी ताकतवर दिखती सरकार इतनी गहराई में डूब सकती है। राजनीति और सरकार में एक दिक्कत यह रहती है कि अच्छी मिसालों के मुकाबले बुरी मिसालें अधिक मुनाफे की रहती हैं। लोगों को याद रहना चाहिए कि सत्ता के इर्द-गिर्द के लोग चाहे उसकी खामियों, गलतियों, और गलत कामों को न गिनाएं, जनता उन्हें गिनती रहती है। और जैसा कि इस बार के नतीजे आने के बाद समझ आ रहा है, लोगों ने ठीक जोगी सरकार की तरह इस बार भूपेश सरकार को खारिज किया है। भाजपा को यह बात सुनने में बहुत अच्छी नहीं लगेगी, लेकिन उसकी इस बार की असाधारण, और उम्मीद से परे की जीत में भूपेश सरकार का योगदान कम नहीं था।
जोगी के वक्त छत्तीसगढ़ में जो जुर्म और जुल्म हुए, ठीक उसी तर्ज पर भूपेश सरकार के दौरान भी हुए, और उसी वजह से किसानों के फायदे की अभूतपूर्व योजनाओं के रहते हुए भी कांग्रेस सत्ता से बुरी तरह बाहर हुई। आज अगर भाजपा सरकार को आने के पहले ही खुश करने में जुट गए अफसर अगर बेकसूर गरीबों पर बुलडोजर चलाकर निष्ठा दिखाना चाह रहे हैं, तो ऐसी हरकतों से भी भाजपा को सावधान रहना चाहिए। हमारा ख्याल है कि जिन इलाकों में गुंडागर्दी के अंदाज में अवैध कब्जे थे, अवैध काम चल रहे थे, वहां पर तो कार्रवाई ठीक है, लेकिन जिन इलाकों में कोई संगठित गुंडागर्दी नहीं है, दारू की दुकानों के आसपास की अराजकता नहीं है, वहां चाट-गुपचुप बेचने वालों को बेदखल और बेरोजगार करके ये अफसर सत्ता पर आने वाली भाजपा का नुकसान पहले ही शुरू कर देंगे। यह सिलसिला आने वाले लोकसभा चुनाव से लेकर पंचायत और म्युनिसिपल चुनावों तक सत्तारूढ़ पार्टी का नुकसान कर सकता है। आज गरीब जनता का जो हिस्सा पूरी तरह से कानूनी काम करते हुए अपनी रोजी-रोटी कमा रहा है, किसी जुर्म से दूर है, उसे बेरोजगार करना बिल्कुल भी समझदारी नहीं है। अफसरों की पहली प्राथमिकता सत्ता पर आने वाले नेताओं को किसी भी तरह से प्रभावित और खुश करने की है, नेताओं को ऐसे खुशामदखोरों से सावधान रहना चाहिए, क्योंकि अभी-अभी निपटे विधानसभा चुनाव में बहुत से ऐसे नेता निपटे हैं, या उनकी सरकार निपटी है, जिन्हें कोई ईमानदार और जिम्मेदार अफसर रोक सकते थे। जब लोगों को अपने आसपास दूसरी, तीसरी, और चौथी सलाह लेने का इंतजाम नहीं रहता है, सत्ता उनसे कई किस्म की मनमानी करवाती है। सत्ता की ताकत ही लोगों को अलोकतांत्रिक, बददिमाग, और बेदिमाग बना देती है। ऐसा भी नहीं कि यह खतरा सिर्फ नेताओं के सामने रहता है, अफसरों में भी बहुत कम ऐसे रहते हैं जो बहुत ही ताकत की जगह पर रहकर भी अपने दिमाग को सही जगह पर रख पाते हैं।
आने वाली भाजपा सरकार के लोगों की आज के अफसरों से अगर कोई बातचीत है, तो उन्हें अफसरों को गरीब जनता को उजाडऩे से रोकना चाहिए। किन इलाकों से अवैध कब्जों को हटाना है, किस किस्म के अवैध निर्माण गिराना है, यह करने के लिए तो पूरे पांच साल हैं। लेकिन न तो नेताओं को अपने जश्न के बीच लोगों की रोजी-रोटी छीनने के हुक्म देने चाहिए, और अगर उन्होंने ऐसे हुक्म नहीं दिए हैं, तो अफसरों को ऐसा करने से रोकना चाहिए। पिछले पांच बरस में छत्तीसगढ़ के बड़े से बड़े अफसरों ने यह साबित कर दिया है कि सत्ता उनका जैसा चाहे वैसा इस्तेमाल कर सकती है, और वे उफ भी किए बिना उपलब्ध रहेंगे। लेकिन ऐसी सत्ता का क्या हाल होता है, यह इस बार के नतीजों ने दिखा दिया है। हमारा मानना है कि भाजपा के कुछ समझदार लोग पांच बरसों के इस तजुर्बे के उन चुनिंदा हिस्सों से सबक लेंगे, जिससे पांच बरस बाद इस पार्टी का वैसा ही हाल न हो। फिलहाल जब तक कुछ तय नहीं होता है, किसी भी गरीब फुटपाथी रोजगार चलाने वाले को बेदखल नहीं करना चाहिए।
केन्द्र सरकार ने अभी संसद के एक जवाब में बताया है कि 2018 से 2023 के बीच, तकरीबन पांच बरस में देश के उच्च न्यायालयों में किन तबकों के कितने जज नियुक्त किए गए। यह जवाब खासकर उन आंकड़ों को लेकर चौंकाता है, जो कि दलित, आदिवासी, ओबीसी, और अल्पसंख्यक तबकों के हैं। इन बरसों में कुल 650 हाईकोर्ट जज बनाए गए, जिनमें से अनुसूचित जाति के 23 थे (आबादी 20 फीसदी), अनुसूचित जनजाति के 10 थे (आबादी 9 फीसदी), ओबीसी के 76 थे (आबादी 41 फीसदी), और अल्पसंख्यक 36 थे (आबादी 19-20 फीसदी)। 13 जज ऐसे भी थे जिनके बारे में यह जानकारी उपलब्ध नहीं है। अनारक्षित वर्ग के 492 जज बने, जिसकी आबादी 30 फीसदी है। बहुत बारीकी से इन आंकड़ों को न देखें, तो भी यह समझ आता है कि 70 फीसदी आबादी से 30 फीसदी से भी कम जज बने हैं, और 30 फीसदी आबादी से 70 फीसदी जज।
हिन्दुस्तान में हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों के लिए कोई आरक्षण नहीं है। इस बारे में राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग ने अपनी एक रिपोर्ट में इस व्यवस्था का जमकर विरोध किया था, और कहा था कि आज की व्यवस्था से सामाजिक न्याय की जरूरत पूरी नहीं होती है। इस रिपोर्ट में कहा गया था कि ऊंची अदालतों के अधिकतर जज उन्हीं तबकों से आते हैं जिन तबकों में सदियों से सामाजिक पूर्वाग्रह चले आ रहा है। यह भी कहा गया था कि अपने वर्गहित में इन जजों के लिए पूरी ईमानदारी बरतना, और सही फैसले देना मुमकिन नहीं रहता है। इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया था कि धर्म और जाति को लेकर समाज का पूर्वाग्रह तो भारत के कानून में भी है जिसमें कि कई जातियों को तरह-तरह से अपराधी बताया गया है। इस रिपोर्ट में मद्रास हाईकोर्ट के एक दलित जज के मामले का भी जिक्र है कि उनके जैसे ओहदे पर पहुंचे हुए व्यक्ति को भी ऊंची कही जाने वाली जातियों के साथी जजों के भेदभाव का शिकार होना पड़ता है। इस रिपोर्ट में छत्तीसगढ़ के 17 दलित आदिवासी जिला जजों का केस भी गिनाया गया था जिन्हें कि 5 से 10 बरस की बची हुई नौकरी के वक्त, हाईकोर्ट जज बनने की संभावना के वक्त, बिना कोई जायज वजह बताए नौकरी से हटा दिया गया था।
बीच-बीच में कई बड़ी अदालतों के जजों के फैसलों में ऐसी टिप्पणियां सामने आती हैं, और अदालती कार्रवाई के बीच उनकी जुबानी टिप्पणियां तो आती ही रहती हैं जो कि उनके जातिगत पूर्वाग्रह बताती हैं। फिर सुप्रीम कोर्ट के कई बड़े वकील लगातार इस बात को उठाते आए हैं कि किस तरह जजों के नामों की सिफारिश करने वाले सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम के जज अपनी ही जातियों या कुनबों के लोगों को आगे बढ़ाते हैं। इस बात में कुछ नया नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट के कई जजों के सामने, उनके करीबी वकीलों के साथ बेहतर बर्ताव की तोहमत लगती है। अंकल जज का यह सिलसिला कुनबापरस्ती और जातिवाद पर टिका हुआ कहा जाता है।
अब सवाल यह उठता है कि जब देश में बड़े से बड़े पुल बनाने वाले इंजीनियर आरक्षण की व्यवस्था से ही निकलकर आए रहते हैं, बड़े से बड़े डॉक्टर आरक्षण के तहत ऊपर पहुंचे रहते हैं, देश में शायद ही कोई ऐसा मेडिकल सुपर स्पेशलाइजेशन हो जिसमें अल्पसंख्यक तबकों के डॉक्टर न हों, तो फिर बड़ी अदालतों में ही ऐसा कौन सा ईश्वर का इंसाफ करना होता है जिसे कि आरक्षित जातियों या अल्पसंख्यकों से आए जज नहीं कर सकते? यह पूरा सिलसिला बेइंसाफी का है, और सामाजिक न्याय को ध्यान में रखते हुए इस व्यवस्था को बदलने की जरूरत है। अदालतों को समाज के भीतर रहते हुए भी समाज से ऊपर रहने की अपनी सोच खत्म करनी चाहिए। इस देश में संविधान बनाने में जिन लोगों का सबसे बड़ा योगदान था, वे भीमराव अंबेडकर दलित समाज से ही आए थे, और दलितों के साथ बेइंसाफी के एक बड़े प्रतीक भी थे। अब 140 करोड़ आबादी के इस देश में आजादी के पौन सदी बाद भी अगर यह माना जाता है कि सुप्रीम कोर्ट के तीन दर्जन से कम जजों के लिए आरक्षित तबके के लोग नहीं मिलेंगे, तो इस समाज व्यवस्था को चकनाचूर करने के लिए हाईकोर्ट-सुप्रीम कोर्ट में आरक्षण लागू करना जरूरी है। जब तक यह आरक्षण लागू नहीं होगा, तब तक अपने आपको कुलीन तबकों का प्रतिनिधि मानने वाले, ऊंची कही जाने वाली जातियों के जज नए जजों के नाम तय करते वक्त इसी तरह की बेइंसाफी करते रहेंगे।
जब देश में चलने वाले कानून के बड़े-बड़े कोर्स में आरक्षण हैं, निचली अदालतों में नियुक्तियों में आरक्षण हैं, तो हाईकोर्ट-सुप्रीम कोर्ट को किसी पवित्र ग्रंथ की तरह दलित-आदिवासियों की पहुंच से परे रखना अपने आपमें अलोकतांत्रिक, अमानवीय, और अन्याय है। सुप्रीम कोर्ट जजों में इस तरह की सोच बड़ी निराशा पैदा करती है, और उन्हें इस बेइंसाफी को खत्म करने के लिए अगर कोई रास्ता नहीं सूझता है, तो फिर देश की संसद को इस अदालती मनमानी को खत्म करने के लिए कानून बनाना चाहिए।
किसी संगठन के भीतर फैसले कितने सही हैं और कितने गलत, यह उस संगठन के अपने तौर-तरीकों पर भी निर्भर करता है। आज देश के तीन प्रमुख हिन्दीभाषी राज्यों में बड़ी जीत के बाद भाजपा के मुख्यमंत्री तय होने हैं। लोकतांत्रिक तौर-तरीकों के हिसाब से जीते हुए विधायकों के बहुमत से मुख्यमंत्री बनने चाहिए, लेकिन इस देश में हाल के दशकों में शायद ही कभी, और कहीं इस आधार पर मुख्यमंत्री तय किए गए हों। देश की दो बड़ी राष्ट्रीय पार्टियों में हाईकमान की संस्कृति विकसित और मजबूत हो चुकी है, और कांग्रेस और भाजपा के ऐसे फैसले राज्यों की राजधानी में नहीं, देश की राजधानी में तय होते आए हैं, और भाजपा में आज यही हो रहा है। 15-15 बरस मुख्यमंत्री रहे हुए नेता भी अपने राज्यों में बैठे दिल्ली के फैसले का इंतजार कर रहे हैं, और यही कांग्रेस में भी कुछ अरसा पहले तक होता था, जब तक कुछ राज्यों में उसकी सरकारें थीं। धीरे-धीरे कांग्रेस के पास अपने चुनाव चिन्ह पंजे की उंगलियों जितने राज्य भी नहीं रह गए, और इसके साथ ही राज्य के नेताओं पर उसकी पकड़ भी खत्म हो गई। अब कांग्रेस के राज्यों के संगठन स्वायत्तशासी संगठनों की तरह काम कर रहे हैं, और दिल्ली दिखावे के लिए मुखिया बनी हुई है।
खैर, आज मुद्दा कांग्रेस नहीं भाजपा है। और भाजपा के भीतर भी हाईकमान की संस्कृति उसी तरह विकसित हो गई है जिस तरह दर्जन भर प्रदेशों पर राज करने वाली किसी भी दूसरी पार्टी में हो सकती थी, कांग्रेस में हमेशा से रहते आई थी, अभी कुछ बरस पहले तक। आज देश में भाजपा के 10 सांसद विधायक बनकर आए हैं जिनके कल लोकसभा से इस्तीफे हुए हैं। जब पार्टी देश में इस हद तक मजबूत हो जाती है कि वह राज्यों में अपने नेताओं में से जिसे चाहे बना सके, और जिसे चाहे हटा सके, तो फिर सांसदों और विधायकों को प्यादों की तरह इधर-उधर करना उसके लिए आसान भी हो जाता है, और उसका हक भी हो जाता है। हम इसे सही और गलत की परिभाषा में बांटना नहीं चाहते, क्योंकि यह भी ताजा इतिहास ही है कि मध्यप्रदेश में पांच बरस की सत्ता के बाद दुबारा जीतकर आए अर्जुन सिंह को शपथ ग्रहण के अगले ही दिन पंजाब का राज्यपाल बनाकर भेज दिया गया था। ऐसा लगता है कि भारतीय लोकतंत्र में जब कोई पार्टी या नेता जरूरत से अधिक ताकतवर हो जाते हैं, तो उन्हें किसी लोकतांत्रिक नीति-सिद्धांत, या प्रक्रिया की जरूरत नहीं रह जाती है। छत्तीसगढ़ के पांच बरस के अतिशक्तिशाली मुख्यमंत्री रहे भूपेश बघेल के हटने के बाद अब लोगों को यह कहने का हौसला जुट रहा है कि उन्होंने पार्टी और अपनी सरकार में लोकतंत्र को पूरी तरह खत्म कर दिया था। बीते पांच बरस में सिवाय दबी-छुपी जुबान के किसी ने खुलकर यह बात नहीं कही थी, क्योंकि देश या प्रदेश में अंधाधुंध ताकत के सामने मुंह खोलने के खतरे सबको पता थे।
आज प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, और गृहमंत्री अमित शाह देश के इतिहास के सबसे अधिक विपरीत और खतरनाक दौर से उबरकर, गुजरात में बचकर पूरे देश पर जिस तरह जीत हासिल कर चुके हैं, उससे वे एक ऐसी अनोखी ताकतवर स्थिति में आ गए हैं कि वे अपनी पार्टी और सरकार को लेकर कोई भी फैसले कर सकते हैं। इसलिए जब उन्होंने इन पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में पार्टी के उम्मीदवार तय करते हुए शायद दर्जनभर सांसदों को चुनाव में उतारा, तो भी किसी के पास कहने को कुछ नहीं था। आज इन सांसदों को जीतने के बाद विधायक बनाने के फैसले पर भी कहने को किसी के पास कुछ नहीं है, और पार्टी तीन राज्यों में नए मुख्यमंत्री किन्हें बनाएगी, इस बारे में भाजपा के इन दो सबसे ताकतवर नेताओं से परे किसी और को कोई खबर नहीं है। जाहिर है कि ऐसी अनोखी ताकत हासिल करने के लिए राजनीतिक और चुनावी रूप से अंधाधुंध कामयाब होना जरूरी रहता है। अगर किसी पार्टी का केन्द्रीय संगठन चुनावों में लगातार कामयाब नहीं है, तो उसकी बात प्रदेश के नेता ठीक उसी तरह अनसुनी कर देते हैं, जिस तरह परिवार में बैठे बूढ़े मां-बाप की बात को बड़बड़ाहट मान लिया जाता है। इन तीन राज्यों को खोने के बाद कांग्रेस कुछ ऐसी ही हालत में है, और 2018 के चुनाव में खोए हुए इन तीन राज्यों को पाने के बाद भाजपा का केन्द्रीय नेतृत्व अभूतपूर्व ताकत से लैस है। मोदी और शाह की जोड़ी लोकसभा चुनावों से लेकर बहुत से राज्यों के चुनावों में कामयाबी पा चुकी है, पार्टी को दिला चुकी है, और उनकी आज की ताकत इस कामयाबी पर भी टिकी हुई है। न सिर्फ किसी राजनीतिक दल में, बल्कि जिंदगी के बाकी दायरों में भी यह बात लागू होती है कि कामयाबी के साथ बहस नहीं की जाती। इसलिए भाजपा लीडरशिप से कोई सवाल भी नहीं हो सकते कि वे किसे मुख्यमंत्री बनाएंगे।
हम सोशल मीडिया पर अक्सर होने वाली चुनिंदा निशानेबाजी को लोगों की अपनी भड़ास निकालने की एक तरकीब मानते हैं, और हम राजनीति या सार्वजनिक जीवन में चुनिंदा निशानों पर हमले करने, और कुछ दूसरे चुनिंदा निशानों को रियायतें देने के खेल में शामिल नहीं होते। अगर हाईकमान की संस्कृति आज किसी पार्टी में है, तो इसकी शुरुआत तो कांग्रेस से ही हुई है, यह एक अलग बात है कि कांग्रेस की आज की दुर्गति को देखते हुए दूसरी पार्टियों को ऐसी संस्कृति से बचना चाहिए, या कांग्रेस की मिसाल का इस्तेमाल करना चाहिए? ऐसा करने के लिए भी एक बड़ी ताकत की जरूरत पड़ती है जो कि कांग्रेस में इतिहास के पन्नों पर दर्ज है, और भाजपा के वर्तमान में आज बैनर पर लिखी हुई है।
आज की इस नौबत को देखते हुए राजनीति में चुनावी कामयाबी के महत्व को समझने की जरूरत है। चुनावी लोकतंत्र में कामयाबी बुरी बात नहीं होती है, और कई मायनों में वह अपनी नीतियां लागू करने के लिए एक जरूरी औजार भी रहती है। नेताओं और पार्टियों की नीतियां चाहे कितनी अच्छी क्यों न हों, अगर सत्ता हाथ नहीं है, तो वे हसरत और नारों की तरह रह जाती है। पार्टियों के लिए अपनी विचारधारा को आगे बढ़ाने के लिए चुनावों में जीतना जरूरी रहता है, और हर चुनावी नतीजे के बाद उससे जुड़ी हुई पार्टियों को आत्ममंथन करना चाहिए। यह बात हम कांग्रेस के सिलसिले में अभी दो-चार दिन पहले ही लिख चुके हैं, और पार्टी को देश के लोकतंत्र के भले के लिए न सही, अपने खुद के अस्तित्व के लिए एक ईमानदार आत्मविश्लेषण करना चाहिए। कई बार घर के भीतर ईमानदार सोच-विचार मुमकिन नहीं हो पाता, ऐसे में पार्टी को बाहर के कुछ लोगों से भी अपनी हार का विश्लेषण मांगना चाहिए।
हिन्दुस्तान में मोदी या एनडीए के खिलाफ बने इंडिया नाम के गठबंधन में पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के बाद दरारें दिख रही हैं। गठबंधन की होने वाली बैठक को भी शायद आगे बढ़ा दिया गया है क्योंकि कांग्रेस की अगुवाई में इस गठबंधन ने अलग-अलग राज्यों में सहयोगी दलों के साथ बुरा सुलूक किया है। और इससे तमाम क्षेत्रीय दल निराश और नाराज हैं कि कांग्रेस एक बॉस की तरह बर्ताव कर रही है। गठबंधन के बनने से लेकर अब तक के वक्त को देखें तो यह बात साफ है कि बाकी तमाम पार्टियों ने यह मान लिया था कि कांग्रेस ही पूरे देश में फैली हुई अकेली पार्टी है, और उसे ही एक धुरी की तरह बाकी तमाम लोगों को साथ लेकर चलना है। जो लोग कांग्रेस के कटु आलोचक थे, उन्होंने भी वक्ती तौर पर कांग्रेस की अगुवाई को गठबंधन के मुखिया के तौर पर मान लिया था कि अगर 2024 के आम चुनाव में मोदी से कोई मुकाबला करना है, तो उसके लिए कांग्रेस के साथ काम करना जरूरी और मजबूरी दोनों है। ऐसी तस्वीर उभरकर आने के बाद एक गठबंधन के सबसे बड़े दल, और अघोषित मुखिया के रूप में कांग्रेस को जो बर्ताव करना था, उसे कांग्रेस के नेताओं के अहंकार ने नामुमकिन कर दिया।
हमारे नियमित पाठकों को याद होगा कि हमने ये खतरा पहले भी बताया था कि कांग्रेस जैसे-जैसे मजबूत होगी, वैसे-वैसे यह गठबंधन कमजोर होते जाएगा। और इन पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस का तीन राज्यों में समूल नाश सा हो गया है, लेकिन नतीजे आने के पहले तक महज ओपिनियन पोल की बदौलत कांग्रेस की बददिमागी सिर चढक़र बोलने लगी थी, और मध्यप्रदेश के कमलनाथ ने राज्य में समाजवादी पार्टी के उम्मीदवारों को एक भी सीट देने के बजाय जिस हिकारत के साथ अखिलेश-वखिलेश की भाषा बोली थी, वह किसी भी गठबंधन को बर्बाद करने वाली थी। कमलनाथ की जगह कोई और छोटे नेता होते तो ऐसी जुबान के लिए यह भी माना जा सकता था कि वे इस गठबंधन के खिलाफ भाड़े पर यह बयान दे रहे थे।
कांग्रेस के साथ हर स्तर पर एक दिक्कत यह है कि यह अपने घर के भीतर एक बेकाबू पार्टी है। राज्यों में बिखरे इसके क्षेत्रीय नेता अपने इलाकों को स्वायत्तशासी प्रदेशों की तरह लीज पर चलाने लगे हैं, और राष्ट्रीय संगठन की पकड़ वहां बुरी तरह घट गई है। क्षेत्रीय-छत्रप संगठन को उसी वक्त महत्व देते हैं जब संगठन के फैसले उन्हें अपने फायदे के दिखते हैं। इससे परे उनके लिए राहुल गांधी की कही बातें भी कोई मायने नहीं रखतीं, जैसा कि छत्तीसगढ़ में आदिवासियों के मुद्दों पर पिछली भूपेश सरकार ने साबित किया है। यही हाल देश में दूसरी जगहों पर भी दिखता है जहां राहुल गांधी, और प्रियंका गांधी भी, कोई सैद्धांतिक बात करते दिखते हैं, और उन बातों को महज मंच को सजाने का सामान बना दिया जाता है। पार्टी के प्रदेश के नेता उन पर अमल करने, या पार्टी के भीतर चर्चा करने की जहमत भी नहीं उठाते। इस किस्म से चापलूसी से भरी हुई पार्टी को उसके मौजूदा अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने कुछ हद तक तो पैरों पर खड़ा किया है, लेकिन कांग्रेस सरकारें इतने कम राज्यों में रह गई हैं कि दिल्ली की जुबान अधिक नहीं रह गई। इसी का नतीजा है कि इंडिया गठबंधन के साथियों को छत्तीसगढ़ या मध्यप्रदेश में एक सीट भी नहीं दी गई, और कांग्रेस के क्षेत्रीय नेता अपने पूरे अहंकार में डूबे हुए पार्टी की संभावनाओं को मटियामेट करते रहे। किसी से कोई गठबंधन या तालमेल करना है या नहीं, यह सबकी अपनी मर्जी की बात हो सकती है, लेकिन 2024 के लिए एक व्यापक गठबंधन बनाने चली पार्टियों में से सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस को जो एक छोटी सी दरियादिली दिखानी थी, वह एक डबरादिली भी नहीं दिखा पाई। राज्यों में तो जनता से जिसे जो मिलना था वही मिला है, हम अभी यहां उस मुद्दे को छेडऩा नहीं चाहते, लेकिन इन विधानसभा चुनावों ने कांग्रेस की बर्बादी राज्यों से परे, राज्यों से अधिक इंडिया-गठबंधन में भी की है, जो कि आज एक साथ बैठने के लायक भी नहीं रह गया है।
भारतीय लोकतंत्र में दो किस्म की पार्टियां हैं, एक जो कि राष्ट्रीय पार्टियां हैं, और दूसरी वे जो कि क्षेत्रीय पार्टियां हैं। देश में कोई भी गठबंधन इन दोनों के मेलजोल के बिना नहीं बन सकता। और अब देश के अगले कुछ चुनाव कोई गैरभाजपाई दल अपने बूते जीतते भी नहीं दिखता। ऐसे में जितनी जरूरत क्षेत्रीय पार्टियों को कांग्रेस की है, उससे कहीं अधिक जरूरत कांग्रेस को क्षेत्रीय पार्टियों की है जिनकी पीठ पर सवार होकर वह चुनाव में उतर सके। कांग्रेस के मुकाबले कुछ क्षेत्रीय पार्टियां अपने-अपने प्रदेशों में एक बेहतर चुनावी संभावना रखती हैं, उनकी जिंदगी तो कांग्रेस के बिना चल सकती है, लेकिन कांग्रेस आज एक ऐसी अमरबेल सरीखी हो गई है जिसे सहारे के लिए किसी पेड़ के तने की जरूरत है, और उस पेड़ का रस चूसकर वह बेल अपने को बढ़ा सके। कांग्रेस की अपनी जरूरत, और उसका अपना रूख, इन दोनों के बीच कोई तालमेल नहीं दिख रहा है। राहुल और सोनिया गांधी व्यवहार में विनम्र हैं, लेकिन उनकी पार्टी के बाकी नेता कुछ अलग ही किस्म की जुबान बोलते हैं। यह तो गनीमत है कि कांग्रेस राज्यों के चुनाव इस बुरी तरह हार गई, यह अगर इन राज्यों को जीत गई होती तो कमलनाथ जैसे लोग अखिलेश का पोस्टर जलाते दिखते। अगले आम चुनावों में अगर मोदी-एनडीए के खिलाफ किसी तरह की कोई विपक्षी संभावना बन सकती है, तो वह एक कमजोर कांग्रेस की अगुवाई में ही बन सकती है। किसी मामूली सी कामयाबी से भी जिस पार्टी के क्षेत्रीय नेता बदजुबानी करने लगते हैं, उस पार्टी की कामयाबी गठबंधन के साथियों को भुनगा साबित करने लगती। हम पहले भी इस बात को कह चुके हैं कि कांग्रेस का मजबूत होना गठबंधन को कमजोर करेगा। और आज चुनावी नतीजों को देखते हुए क्षेत्रीय साथियों ने कांग्रेस की ताकत और औकात को आईना दिखा दिया है, और यह जरूरी भी था। किसी भी गठबंधन या संगठन में अगुवाई करने वाली बड़ी पार्टी के कुछ गठबंधन धर्म होते हैं, जब तक सोनिया यूपीए की मुखिया थीं, यह धर्म अच्छी तरह निभ गया। यही वजह थी कि वह गठबंधन दस बरस सत्ता पर रहा। अब राज्यों में बौने साबित हो चुके नेता भी कांग्रेस के भीतर वजनदार बने हुए हैं, और ऐसे लोग गठबंधन को हिकारत की नजर से देखते भी हैं। कांग्रेस को अपने इस आंतरिक विरोधाभास से उबरना होगा, वह भारत के संघीय ढांचे की तरह अपनी राज्य इकाईयों के एक संघीय ढांचे की तरह नहीं चल सकतीं। पार्टी के भीतर आंतरिक लोकतंत्र के नाम पर क्षेत्रीय-छत्रपों की अराजक स्वायत्तता ने ही कांग्रेस को चुनाव में यह बदहाली दी है। अपना घर सुधारे बिना कांग्रेस इंडिया-गठबंधन नाम के तम्बू का बम्बू नहीं बन सकती। अब लोकसभा चुनाव तक कांग्रेस के सामने अपने क्षेत्रीय नेताओं की अधिक चुनौतियां नहीं हैं, लेकिन जैसे-जैसे आम चुनाव में सीटों की बंटवारे की बात आएगी, वैसे-वैसे इसके छत्रप फिर लीडरशिप के मुकाबले खड़े होने लगेंगे। यह खरगे और सोनिया-परिवार के कड़े इम्तिहान का मौका है।
पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के बाद अब सार्वजनिक रूप से अलग-अलग पार्टियां अपनी जीत की वाहवाही, या हार की बहानेबाजी के दौर से गुजर रही हैं। यह बात सही है कि लोकतंत्र में जनधारणा बनाने के लिए कई किस्म के झूठ बोले जाते हैं, लेकिन चुनावी नतीजों के बाद का यह मौका ऐसा रहता है कि नेताओं और पार्टियों को एक ईमानदार आत्ममंथन करना चाहिए। अगर इस मौके पर भी अपनी जीत के पीछे विरोधियों या विपक्षियों की खामियों, और उनके गलत कामों के योगदान को न गिना जाए, तो फिर अपनी खूबियों और सही कामों के योगदान को जरूरत से अधिक आंक लिया जाएगा। इसलिए जटिल चुनावी नतीजों को इस किस्म से भी देखना चाहिए कि लोगों ने आपको और आपकी पार्टी को कितना जिताया है, और कितना आपके प्रतिद्वंद्वी और उसकी पार्टी को हराया है। इस तरह अलग-अलग करके देखना आसान नहीं रहता है, लेकिन जिंदगी और दुनिया के और किसी भी ईमानदार काम की तरह यह काम भी मुश्किल रहता है, लेकिन नामुमकिन नहीं रहता है।
आज जब कहीं पर सरकार गिरी है, कहीं पर नई सरकार बनने जा रही है, और अलग-अलग विधानसभा क्षेत्रों में पुराने दिग्गज निपट गए हैं, नए चेहरे सामने आए हैं, तो जिन लोगों को राजनीतिक और सार्वजनिक जीवन में बने रहना है, जिन पार्टियों को अपनी दुकान का शटर पूरी तरह बंद नहीं करना है, उन सबको बंद कमरे में कम से कम अपने भरोसेमंद सहयोगियों के साथ बैठकर यह सोचना चाहिए कि उनकी जीत या हार के पीछे वजहें क्या रहीं? जीत जाने पर भी यह तो सोचने का मौका सबके सामने रहता है कि यह जीत किस कीमत पर मिली है, उसमें से कितने के दाम अनैतिक सिक्कों की शक्ल में दिए गए हैं, कौन-कौन से और गैरकानूनी काम किए गए हैं, और इनमें से किसका जीत में कितना योगदान रहा है। इसी तरह हारने वाले को भी यह सोचना चाहिए कि उनकी तपस्या में क्या कमी रह गई है।
अब इस मुद्दे को यहीं छोडक़र हम पांच बरस बाद के चुनाव की तरफ आते हैं कि इस बार के चुनाव से सबक लेकर कौन से नेता, और कौन सी पार्टियां अगले किसी चुनाव के लिए क्या तैयारियां कर सकते हैं? कुछ राज्यों में छह महीने के भीतर लोकसभा के आम चुनाव होने हैं, कई राज्यों में उसके कुछ महीनों के भीतर पंचायत और म्युनिसिपल के चुनाव होंगे, और राष्ट्रीय पार्टियों के सामने तो भारत में यह एक स्थाई चुनौती बनी रहती है कि उन्हें तकरीबन हर बरस कुछ राज्यों में चुनाव लडऩा पड़ता है। इसलिए हम राष्ट्रीय या क्षेत्रीय पार्टियों के बारे में यह भी सोचते हैं कि उन्हें अपने नेताओं और कार्यकर्ताओं के हुनर में कुछ जोडऩे के लिए गंभीर योजना बनानी चाहिए। इसके अलावा पार्टी के संगठन को भी एक पेशेवर अंदाज में एक राजनीतिक मशीन की तरह विकसित भी करना चाहिए ताकि चुनाव के वक्त हड़बड़ी में भाड़े की एजेंसियों के भरोसे न रहना पड़े। आज तो हालत यह है कि देश-प्रदेश में जगह-जगह बड़े नेता और उनके सहयोगी अपने और पराए नामों से तरह-तरह की कंपनियां चलाते हैं, वही चुनाव का सारा काम करते हैं, और एक जेब से पार्टी का पैसा निकालकर अपनी दूसरी जेब में डालते रहते हैं। यह काम इतने बड़े पैमाने पर चल रहा है कि नेताओं और संगठन के पदाधिकारियों ने अब मेहनत करना भी कम कर दिया है, और वे वोट डालने के अलावा बाकी तमाम कामों के लिए एजेंसियों की तरफ देखते हैं। राजनीतिक दलों के खर्च का इंतजाम और प्रबंधन करने वाले लोग इस धंधे में लाल होते रहते हैं, और कार्यकर्ताओं की जरूरत कम मान ली गई है।
हमारा मानना है कि कम से कम बड़े राजनीतिक दलों को अपनी सत्ता के प्रदेशों में लीडरशिप के कॉलेज शुरू करने चाहिए। किसी जिम्मेदार और लोक कल्याणकारी सरकार को भी यह काम करना चाहिए क्योंकि यह लोकतंत्र की परिपक्वता और उसके विकास से जुड़ा हुआ काम है। लोकतंत्र में राजनीतिक दल एक हकीकत हैं, और हर कुछ बरस में चुनाव एक नियति है। इसलिए पार्टियों को किस तरह चलना चाहिए, नेताओं को किस तैयार होना चाहिए, सत्ता और विपक्ष की अलग-अलग भूमिकाएं क्या हो सकती हैं, किस तरह विपक्ष अपने आपको एक छाया-सरकार (शैडो गवर्नमेंट) की तरह चला सकता है, और न सिर्फ सरकार की कमजोरियों पर निगाह रख सकता है, बल्कि विरोधी उम्मीदवारों पर भी निगाह रख सकता है। ऐस कॉलेज पंचायत से लेकर संसद के चुनाव तक, और गांव-कस्बे के राजनीतिक संगठन से लेकर राष्ट्रीय संगठन तक की ट्रेनिंग दे सकते हैं, देश के संविधान, इतिहास, वर्तमान, और भविष्य की ट्रेनिंग दे सकते हैं। अगर कोई जिम्मेदार पार्टी रहे, तो वह न सिर्फ चुनाव के वक्त बल्कि तमाम किस्म के दौर में अपने लोगों को बेहतर तरीके से तैयार करने का ऐसा काम कर सकती है।
वैसे तो जिस तरह आज समाजसेवा और जनसंगठनों के कामकाज की ट्रेनिंग के लिए, तरह-तरह के डिग्री कोर्स चल रहे हैं, उसी तरह से देश की राजनीति और सामाजिक लीडरशिप के कोर्स भी चल सकते हैं जो कि भारतीय लोकतंत्र में राजनीति और चुनाव को बेहतर बना सकते हैं, पार्टियों के ढांचों को अधिक उत्पादक बना सकते हैं, और राजनीति को नारेबाजी की जगह से ऊपर उठाकर एक गंभीर लोकतांत्रिक मंच पर ले जा सकते हैं। हमने पहले भी कुछ सरकारों को इस तरह की सलाह दी थी कि उन्हें सरकारी स्तर पर लीडरशिप-विकास के लिए ऐसा कोई विश्वविद्यालय शुरू करना चाहिए जिसमें अलग-अलग विचारधाराओं के लोगों की जगह रहे, और पार्टियां अपने कार्यकर्ताओं, पदाधिकारियों, और नेताओं को यहां अलग-अलग कोर्स में भेज सकें। लोकतंत्र, राजनीतिक दल, चुनाव, और विपक्ष, ये तमाम चीजें हमेशा रहने वाली हैं, और यह कोशिश की जानी चाहिए कि वे बेहतर हो सकें। इनमें देश के करोड़ों लोग लगे हुए हैं, और उनका हुनर अगर बेहतर किया जा सके, तो यह भारतीय लोकतंत्र का विकास ही होगा।
-सुनील कुमार
पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में से चार के नतीजे कल आ गए, और उनमें से तेलंगाना का नतीजा तो उम्मीद के मुताबिक कांग्रेस के पक्ष में था, लेकिन राजस्थान के साथ-साथ मध्यप्रदेश, और मध्यप्रदेश के साथ-साथ छत्तीसगढ़ जिस तरह से भाजपा की जेब में गए हैं, वह तकरीबन तमाम लोगों को हैरान करने वाले हैं। इन पांचों राज्यों में से मिजोरम की मतगणना कल नहीं हुई थी, और वहां के क्षेत्रीय पार्टियों के गणित भी कुछ अलग हैं। लेकिन कल के चार राज्यों के नतीजों के बारे में सोचना जरूरी है कि ऐसा जनादेश क्यों आया है, उसका क्या मतलब है। अब इन चारों के बीच भी अगर फर्क किया जाए तो तेलंगाना इस मायने में अलग है कि वहां कांग्रेस और भाजपा आमने-सामने नहीं थे, और कांग्रेस का मुकाबला वहां सत्तारूढ़ क्षेत्रीय पार्टी बीआरएस से था। वहां यह माहौल भी बना हुआ था कि कांग्रेस की इकतरफा जीत होगी। लेकिन बाकी तीन हिन्दी राज्यों को एक साथ रखकर देखें तो यह याद रखने की जरूरत है कि 2018 के चुनाव में ये तीनों हिन्दीभाषी, अगल-बगल के राज्य कांग्रेस ने भाजपा से छीने थे, और उसे उस वक्त भाजपा को एक बड़ा सदमा गिना गया था। आज पांच बरस के भीतर इन तीनों में अलग-अलग वजहों से भाजपा जीतकर आई है। राजस्थान के बारे में तो यह कहा जा सकता है कि वहां हर पांच बरस में सत्ता पलट देने की परंपरा रही है, और वोटरों ने उसी इतिहास को दुहराया है, लेकिन मध्यप्रदेश को तो अधिकतर लोग कांग्रेस की जीत का बता रहे थे, वहां हाल यह है कि भाजपा को 163, और कांग्रेस को 66 सीटें मिली हैं, यानी कांग्रेस से ढाई गुना। वहां तो कमलनाथ ने कांग्रेस का मंत्रिमंडल कागज पर बना डाला था, और आज वह मौजूदा सीटों में भी 48 सीटें खोकर बैठी है। लेकिन इन तीनों राज्यों की चर्चा के बाद जब हम छत्तीसगढ़ पर आते हैं, तो लगता है कि चुनावी ओपिनियन पोल, एक्जिट पोल, और विश्लेषकों की अटकलें, उनकी अपनी-अपनी रोजी-रोटी चलाने के लिए ठीक हैं, उनका जमीनी हकीकत से अधिक लेना-देना नहीं दिखता है। या तो ये तमाम चीजें किसी दौलतमंद पार्टी के भोंपुओं की तरह काम करती हैं, और उसके एजेंडा को आगे बढ़ाती हैं, या फिर इन सबका काम खाली बैठे लोगों का मनोरंजन करने जितना रहता है। जो भी हो, छत्तीसगढ़ के बारे में पिछले कुछ महीनों के हर ओपिनियन पोल, और तकरीबन हर एक्जिट पोल, पूरी तरह गलत साबित हुए हैं, और विश्लेषकों के अंदाज भी नतीजों के आसपास भी कहीं पहुंचे हुए नहीं थे।
छत्तीसगढ़ में चुनावी नतीजों के साथ इस पृष्ठभूमि को भी समझने की जरूरत है कि यह राज्य बनने के बाद की पांच बरस की पहली कांग्रेस सरकार का लड़ा हुआ चुनाव था। शुरू की जोगी सरकार निर्वाचित नहीं थी, कुल तीन बरस की थी, और वह राज्य के ढांचे को खड़ा करने के एक मुश्किल दौर से गुजरी हुई थी। लेकिन 2018 में आई भूपेश बघेल सरकार को न सिर्फ राज्य का एक ढांचा बना हुआ मिला था, बल्कि प्रदेश के करीब डेढ़ दर्जन सालाना बजट का सरकारी तजुर्बा भी विरासत में मिला था। उसके पास चीजों की तुलना करने के लिए बहुत सी मिसालें थीं, और चार विधानसभा चुनावों का एक तजुर्बा भी था कि घोषणाओं और उन पर अमल का क्या होते आया है। 2018 में मुख्यमंत्री बने भूपेश बघेल को अविभाजित मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के मंत्रिमंडल में काम करने का तजुर्बा भी हासिल था, और उनसे बिल्कुल अलग अंदाज में काम करने वाले अजीत जोगी के साथ भी उन्होंने काम किया था। फिर रमन सिंह के 15 बरस के कार्यकाल में विपक्ष में भूपेश बघेल ने लगातार यह भी बताया था कि कौन-कौन से काम नहीं होने चाहिए, और किस-किस तरह काम नहीं किया जाना चाहिए।
इस पृष्ठभूमि में जब पिछले पांच बरस की भूपेश बघेल सरकार को देखें, तो एक आम जनधारणा 2023 के विधानसभा चुनावों को लेकर बनी हुई थी कि सरकार ने आम जनता को 2018 के घोषणापत्र के मुताबिक जो-जो दिया है, और अभी इस चुनाव में और जो-जो देने के वायदे किए हैं, उनके मुताबिक कांग्रेस पार्टी वोटरों के लिए सबसे अधिक फायदेमंद पार्टी दिखती है। हम भी जब हिसाब लगाते थे, तो लगता था कि कांग्रेस के वायदे कई तबकों को इतने बड़े निजी फायदे पहुंचाने वाले थे, कि भाजपा के चुनावी वायदे उनके मुकाबले कहीं बैठते नहीं थे। लेकिन घोषणापत्रों की यह लड़ाई मतदान में काम आई नहीं दिखती है। प्रदेश के वोटरों के एक बहुत बड़े बहुमत ने जो ऐतिहासिक फैसला दिया है, उसे बहुत साफ-साफ समझने की जरूरत है, लेकिन यह बात कहना आसान है, समझना बड़ा मुश्किल है। कल आए नतीजों में भाजपा को राज्य बनने के बाद से अब तक रिकॉर्ड सीटें मिली हैं, और दूसरी तरफ कांग्रेस की इतनी कम सीटें पिछले किसी चुनाव में नहीं थीं। यह फर्क उस समय सामने आया जब चारों तरफ यह हवा थी कि इन चार-पांच प्रदेशों में अगर किसी एक में कांग्रेस की संभावनाएं सबसे अधिक मजबूत हैं, तो वह छत्तीसगढ़ में हैं। लेकिन यहां जिस अंदाज में सत्ता की शिकस्त हुई है, वह कांग्रेस के लिए एक लंबे आत्ममंथन का सामान है, और ओपिनियन पोल, एक्जिट पोल करने वालों से लेकर राजनीतिक विश्लेषकों के लिए भी। भूपेश कैबिनेट के डिप्टी सीएम टीएस सिंहदेव सहित 8 सबसे ताकतवर मंत्री चुनाव हार गए हैं, और जो 3 मंत्री चुनाव जीते हैं, वे ऐसे हैं जो कि सत्ता की ताकत के घमंड की नुमाइश करने वाले नहीं थे। जो सरकार में दीन-हीन किस्म के मंत्री थे, वही तीन जीत पाए हैं। मुख्यमंत्री भूपेश बघेल बड़ी मामूली लीड से जीते हैं, और उनसे परे अकेले बड़े नेता डॉ.चरणदास महंत जीत पाए हैं, जो कि सत्ता के घमंड से परे रहे, जिन्हें सत्ता की ताकत हासिल नहीं रही, और जिन्हें अपने खुद के इलाकों में सत्ता की उपेक्षा का शिकार होना पड़ा। कुल मिलाकर नतीजा यह दिखता है कि जिसके पास सत्ता की ताकत जितनी अधिक थी, उन्हें जनता ने उतना ही अधिक निपटाया, मुख्यमंत्री शायद इसका अपवाद इसलिए रहे कि उनकी सीट के मतदाता विधायक नहीं मुख्यमंत्री चुनने के लिए वोट दे रहे थे।
भाजपा का चुनाव अभियान ऐसा लगता था कि बहुत देर से शुरू हुआ, और बहुत अनमने तरीके से चला। इन पांच बरसों में प्रदेश के भाजपा नेता उपेक्षित भी पड़े रहे क्योंकि उन्होंने पिछले विधानसभा चुनाव में 15 बरसों की सत्ता के बाद पार्टी को कुल 15 सीटों पर लाकर टिका दिया था। उन्हें दी गई उपेक्षा की सजा जायज थी या नाजायज, इस पर चर्चा का यह वक्त नहीं है क्योंकि भाजपा की केन्द्रीय लीडरशिप न सिर्फ छत्तीसगढ़ बल्कि इन तीनों राज्यों में अंधाधुंध कामयाब साबित हुई है, और सफलता के साथ कोई भी बहस नाजायज होती है। आज देश भर में इन तीन राज्यों में कामयाबी का सेहरा मोदी और शाह के माथे बांधा जा रहा है।
कांग्रेस के लिए यह बात बड़ी राहत की थी कि छत्तीसगढ़ में भाजपा का अभियान दबा-सहमा सा चल रहा था, और भूपेश सरकार के खिलाफ जो सबसे बड़े मुद्दे हो सकते थे, उनको भाजपा ने छुआ भी नहीं था। यह चुनाव प्रचार असल सुबूतों के साथ बड़ा खूंखार भी हो सकता था, लेकिन भाजपा ने जाने क्यों उससे परहेज किया था, और इस बात ने भी सत्तारूढ़ कांग्रेस के आत्मविश्वास और उसकी उम्मीदों को आसमान पर बनाए रखा था। कांग्रेस की उम्मीदें एक ऐसे आसमान पर चढ़ी हुई थीं जहां तक कि सीढ़ी उसने खुद ने अपनी गढ़ी हुई एक जनधारणा की शक्ल में बनाई हुई थी। अंधाधुंध आक्रामक प्रचार, और मीडिया मैनेजमेंट के चलते, देश में शायद ही किसी को यह सूझ रहा था कि छत्तीसगढ़ में कांग्रेस हार भी सकती है। खुद भाजपा के नेताओं को छत्तीसगढ़ में ऐसी किसी कामयाबी की उम्मीद नहीं थी, और वे भी आपसी बातचीत में महज आधी सीटों तक पहुंचने की उम्मीद ही जताते थे। यह चुनाव लोगों को हक्का-बक्का करने वाला साबित हुआ। कुछ लोगों का यह जरूर कहना है कि भाजपा ने अपनी महतारी वंदन योजना के तहत बड़ी रफ्तार से महिलाओं से फॉर्म भरवाए थे, और उसे उसका फायदा हुआ था।
अब अगर मतदाता की सोच को देखें तो यह भारत के लोकतांत्रिक इतिहास की सबसे अधिक हक्का-बक्का करने वाली बात दिखती है। एक तरफ तो गरीब जनता वाले छत्तीसगढ़ के मतदाताओं को भूपेश बघेल की तरफ से आसमान छूते फायदों के वायदे किए गए थे, जिन पर राज्य के खजाने का दसियों हजार करोड़ सालाना खर्च होता, और जनता की जेब में जाता। दूसरी तरफ भाजपा के तमाम वायदे देखने पर भी जनता को उनसे कुछ खास नगद-नफा होते नहीं दिख रहा है। इसके बाद भी पूरे प्रदेश की जनता ने मानो एक राय होकर, एकजुट होकर कांग्रेस के खिलाफ वोट डाला। यह बात हैरान करती है कि गरीब जनता कर्जमाफी के फायदों को ठुकराकर, मुफ्त की बिजली को ठुकराकर, परिवार की महिलाओं के काफी अधिक फायदों को ठुकराकर भी भूपेश बघेल की कांग्रेस को ठुकरा सकती है। देश में जिन लोगों को यह लगता है कि टैक्स देने वाले लोगों के पैसों से गरीबों को रेवड़ी बांटी जाती है, उन्हें यह देखना चाहिए कि भाजपा से अपेक्षाकृत तकरीबन कुछ भी नगद न मिलने की उम्मीद के बाद भी वोटरों ने नगद-फायदे को खारिज करने की कीमत पर भी कांग्रेस को खारिज कर दिया। हमको हिन्दुस्तान के लोकतांत्रिक इतिहास में जनता का इतने बड़े त्याग का कोई दूसरा फैसला याद नहीं पड़ता है। जो जनता मुफ्तखोरी की तोहमत से बदनाम की जाती है, उस जनता ने इस बार छत्तीसगढ़ में जो फैसला दिया है, उससे वोट खरीदने वाले नेताओं और पार्टियों का दिल सहम जाएगा। छत्तीसगढ़ का यह चुनाव भारतीय जनता पार्टी की जीत का जश्न तो साबित हुआ ही है, लेकिन हमारा मानना है कि यह इस प्रदेश की गरीब जनता के त्याग का और अधिक बड़ा जश्न है जिसने अपने आपको हर लालच से ऊपर साबित किया है।
कहने के लिए धार्मिक धु्रुवीकरण, जातिगत समीकरण जैसे कई और मुद्दों को गिनाया जा सकता है जिनसे कि ये चुनाव प्रभावित हुए होंगे। हम ऐसे कई अलग-अलग छोटे-छोटे प्रभावों से इंकार नहीं करते हैं, लेकिन इस बात को साफ-साफ समझने की जरूरत है कि ऐसे किसी भी असर से सत्तारूढ़ पार्टी, और खासकर उसके हर अहंकारी और ताकतवर चेहरे इस हद तक खारिज नहीं हो सकते थे। घमंड को खारिज करने, भ्रष्टाचार और जुर्म को खारिज करने का जनता का फैसला किसी भी पार्टी की चुनावी कोशिशों से अधिक ताकतवर साबित हुआ है। आज इस जगह पर इससे अधिक विश्लेषण मुमकिन नहीं है, लेकिन हम इस बात को जोर देकर कहना चाहते हैं कि किसी पार्टी को इसे महज अपनी जीत नहीं मानना चाहिए, और हारने वाली पार्टी को इसे महज जीतने वाली पार्टी की तिकड़म नहीं मानना चाहिए। यह फैसला एक अजीब किस्म की लोकतांत्रिक जनचेतना का संकेत देता है, जिस पर भरोसा करना कुछ मुश्किल भी हो रहा है, लेकिन जनादेश के इस पहलू पर गौर किए बिना राजनीतिक दल सही निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पाएंगे। अगर इन चुनावों को भविष्य के लिए किसी सबक की तरह लेना है, तो इन्हें अपने नेता, अपनी पार्टी, अपने घोषणापत्र से परे, जनता की सोच को, उसके त्याग को सबसे ऊपर रखकर देखना होगा। छत्तीसगढ़ का यह चुनाव जनता का निजी नफे के ऊपर अपनी लोकतांत्रिक पसंद और नापसंद का चुनाव रहा है।
आज इसके साथ ही बाकी प्रदेशों का विश्लेषण मुमकिन नहीं है, उनके बारे में आगे फिर कभी।
गुजरात में मस्जिदों से लाउडस्पीकर पर अजान (आवाज लगाने) के खिलाफ लगाई गई एक याचिका को अहमदाबाद हाईकोर्ट ने खारिज कर दिया। इसे ध्वनि प्रदूषण बतलाते हुए, इसके शोर से परेशानी होने का तर्क देते हुए एक याचिकाकर्ता अदालत पहुंचा था, और अदालत ने इस याचिका को बुनियादी तौर पर गलत बताया, और वकील के तर्कों पर पूछा कि क्या दूसरे धर्मों की प्रथाओं से, जैसे मंदिर में पूजा या भजन के लिए संगीत बजाने से परेशानी नहीं होती? जज ने पूछा कि सुबह 3 बजे से ही ड्रम और संगीत के साथ मंदिरों में आरती होती है, क्या इससे शोर नहीं होता? अदालत ने यह भी पूछा कि क्या घंटे और घडिय़ाल का शोर सिर्फ मंदिर परिसर में रहता है, उसके बाहर नहीं जाता? यह याचिका बजरंगदल के एक नेता ने लगाई थी, और इस पर वहां के जज सुनीता अग्रवाल और अनिरुद्ध मेई ने यह भी याद दिलाया कि अजान तो दिन में अलग-अलग वक्त पर अधिकतम दस मिनटों के लिए होती है, और लाउडस्पीकर से एक इंसान की आवाज कितना ध्वनि प्रदूषण कर सकती है, वह जनता की सेहत के लिए कितना खतरा हो सकती है? हाईकोर्ट ने कहा कि हम इस जनहित याचिका को मंजूर नहीं कर रहे हैं। यह एक ऐसी आस्था है जिसका इस्तेमाल बरसों से किया जा रहा है, और यह कुल पांच-दस मिनटों के लिए होती है। उन्होंने याचिकाकर्ता से कहा आपके मंदिर में सुबह तीन बजे से नगाड़ों और संगीत के साथ आरती शुरू होती है, क्या इससे किसी को तकलीफ नहीं होती? अदालत ने कहा कि इस याचिका का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है, और ध्वनि प्रदूषण को नापकर उसके बाद बात करनी चाहिए थी।
जैसा कि जाहिर है कि मुस्लिमों के खिलाफ अतिसक्रिय संगठनों को मस्जिद की अजान से दिक्कत होती ही है। फिर चाहे दूसरे धर्मों के कई त्यौहारों पर रात-रात भर का रतजगा क्यों न होता हो? हिन्दुओं में अखंड रामायण का पाठ कई दिन क्यों न चलता हो? और मंदिरों के अलावा घरों में भी लाउडस्पीकर लगाकर कीर्तन करना या बजाना क्यों न चलता हो। यह तो भला हुआ कि बजरंगदल नेता अदालत गया, और कम से कम जजों ने इस बात को साफ किया है कि मस्जिदों की छोटी सी अजान की तुलना में मंदिरों के रात-दिन के लाउडस्पीकर की तुलना क्यों न की जाए? क्यों न इन दोनों किस्म के धार्मिक शोर को नापा जाए? हमारा ख्याल है कि सभी प्रदेशों और शहर-गांवों में ऐसा किया जाएगा, तो हिन्दुओं का उत्साह सबसे पहले ठंडा होगा जिनके धार्मिक लाउडस्पीकर कई बार तो कई-कई दिन बिना रूके चलते हैं।
अब हम गुजरात की इस खबर को एक बिल्कुल ही अलग खबर के साथ जोडक़र देखना चाहते हैं। छत्तीसगढ़ में हाईकोर्ट पिछले कुछ बरसों से राज्य सरकार और जिला प्रशासनों को कटघरे में खड़ा करके चल रहा है कि धार्मिक और निजी जुलूसों में जिस अंदाज में अंधाधुंध ऊंचे शोरगुल के साथ डीजे (संगीत) बजता है, उस पर कैसे काबू किया जाए? वैसे तो हाईकोर्ट की अनगिनत चेतावनियों का अफसरों पर कोई भी असर नहीं हुआ है, लेकिन जब से इस मामले में हाईकोर्ट ने राज्य प्रशासनिक प्रमुख, मुख्य सचिव से एक के बाद एक कई हलफनामे लिए हैं, तब से जिला कलेक्टरों के हाथ-पांव थोड़े से हिले हैं, और अदालती हुक्म का हवाला देते हुए कलेक्टरों ने अपने मातहत अफसरों को हुक्म जारी किए हैं कि फलां-फलां कानूनों को कड़ाई से लागू किया जाए। यह बात बड़ी दिलचस्प है कि कलेक्टरों के हुक्म में इन कानूनों के संबंधित पहलुओं का कोई खुलासा नहीं है, और हर थानेदार से उम्मीद की जा रही है कि वे अधिनियम को पढक़र उसे लागू करें। जो सामान्य समझबूझ से किया जाना चाहिए था, वह एकदम साफ-साफ और खुलासे वाला आदेश जारी करना था जिसे थानेदार के नीचे भी सिपाही तक समझ सके, लेकिन यहां थानेदार को किसी बड़े वकील की तरह मानकर सिर्फ अधिनियम का हवाला दे दिया गया है। और मजे की बात यह भी है कि कलेक्टरों के ऐसे आदेश में यह लिखा गया है कि स्कूल, अस्पताल, कोर्ट, या सरकारी दफ्तरों के सौ मीटर के दायरे में इस अधिनियम को लागू करें। अब सवाल यह उठता है कि क्या सिर्फ सरकारी महकमे के कान होते हैं? क्या निजी कारोबारियों, निजी दफ्तरों, सडक़ किनारे फुटपाथ पर ट्रैफिक का हर किस्म का प्रदूषण झेलकर काम करने वाले गरीब लोगों के कान नहीं होते? कलेक्टरों के आदेश में यह जिक्र भी किया गया है कि छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय के आदेश के मुताबिक वृद्धजनों, नि:शक्तजनों, और बीमार व्यक्तियों के स्वास्थ्य और लोक शांति को ध्यान में रखते हुए ऐसे इलाकों को कोलाहल प्रतिबंधित क्षेत्र घोषित किया गया है। अब सवाल यह उठता है कि वृद्धजन तो किसी वृद्धाश्रम तक सीमित नहीं हैं, वे तो चारों तरफ बिखरे हुए हैं, वे घरों पर भी हैं, और बाजार में काम भी करते हैं, सडक़ किनारे मरम्मत करते हुए रोजी-रोटी भी कमाते हैं, इसलिए आबादी के किस हिस्से को इस दायरे के बाहर का माना जा सकता है? बीमार तो किसी भी इलाके के किसी भी परिवार के किसी भी उम्र के लोग हो सकते हैं, और जो बात अदालत के आदेश में नहीं भी आई होगी, वह साफ-साफ समझ में आती है कि छोटे बच्चों के नाजुक कानों पर ऐसे शोरगुल का बुरा असर पड़ता है, और सडक़ों पर जो जानवर पलते हैं, उनकी भी हालत खराब होती है। इस तकलीफ से परे, आज जब लोगों का बहुत सारा कारोबार फोन पर होता है, लोग इंटरनेट पर कई तरह की चीजें सुनकर पढ़ाई करते हैं, तो उन सबका नुकसान करना किसका हक माना जा सकता है?
अब सवाल यह उठता है कि क्या किसी राज्य की पुलिस को सिर्फ लाउडस्पीकरों को जब्त करने में झोंका जा सकता है? जब देश के कोलाहल कानून, और अदालतों या ट्रिब्यूनलों के आदेश में यह सीमा लिखी गई है कि किसी अहाते के बाहर दस डेसिबल से अधिक शोरगुल नहीं जाना चाहिए, तो फिर बहुत साफ-साफ आदेश निकालकर अदालत को ऐसे हर स्पीकर पर सीधी रोक लगा देनी चाहिए जिसकी आवाज दस फीट से दूर जाती हो? पुलिस के जिम्मे लाउडस्पीकरों की रोकथाम से अधिक जरूरी और भी कई चीजें हैं, और जब धार्मिक या किसी और किस्म की उन्मादी भीड़ कानून तोडऩे पर आमादा हों, तो गली-गली में पुलिस के साथ उनका ऐसा टकराव खड़ा करवाना ठीक नहीं है। अभी यह मामला छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट से पूरी तरह निपटा नहीं है इसलिए यह याद रखने की जरूरत है कि इसमें कुछ और व्यक्ति या जनसंगठन दखल देकर, या कि मौजूदा याचिकाकर्ता यह मांग कर सकते हैं कि ऐसे स्पीकर ही रोक दिए जाएं जिनका शोर दस फीट से दूर जाता हो। इसके अलावा जो अहाते लगातार कार्यक्रमों के लिए जाने जाते हैं, वहां पर हर कार्यक्रम के साथ में शोर नापने का इंतजाम होना चाहिए। यह मामला छोटा नहीं है। हमने आज के इस संपादकीय की शुरूआत तो गुजरात हाईकोर्ट से की है, लेकिन छत्तीसगढ़ एक अलग किस्म की कोलाहल-हिंसा झेल रहा है, और उसा समाधान एक तर्कसंगत और न्यायसंगत अंत तक पहुंचाना जरूरी है।
जब दो दिन बाद ही पांच राज्यों के चुनावी नतीजे आने जा रहे हैं, तब कल आए हुए एक्जिट पोल के नतीजों के आधार पर अधिक अटकल लगाना ठीक नहीं है। जिस सर्वे एजेंसी या जिस मीडिया-संस्थान के सर्वे सही निकलेंगे, वे भी चुनावी इतिहास में ठीक से दर्ज हो जाएंगे, जिनके गलत निकलेंगे, उनको भी अगले किसी चुनाव में उनके सर्वे-नतीजों पर चर्चा के दौरान याद रखा जाएगा। आज भी किसी एजेंसी या संस्था के निष्कर्ष पर विचार करते हुए समझदार लोग उनके पहले के अनुमानों की कामयाबी को भी देख लेते हैं। कुछ के अनुमान सचमुच ही सही निकले हुए हैं, और कुछ के तीर निशाने से इतने परे जाकर गिरे थे कि उन्हें कायदे से तो अगले कुछ चुनावों के लिए अपने आपको सर्वे से दूर कर लेना चाहिए। लेकिन ऐसा होता नहीं है। नाकामयाबी के बाद भी लोग अपने पापी पेट के लिए धंधे में तो बने ही रहते हैं। कई उम्मीदवार चुनाव दो-तीन बार हारने के बाद भी चौथी बार लडऩे की हिम्मत भी रखते हैं, और पार्टी की टिकट भी जुटा लेते हैं।
लेकिन हम एक्जिट पोल की बात पर लौटें, तो ऐसे तमाम चुनावी सर्वे पारदर्शी होने चाहिए। उनमें सैम्पल साईज का साफ-साफ जिक्र होना चाहिए, और अगर वे मतदान के पहले के ओपिनियन पोल हैं, तो यह भी जिक्र होना चाहिए कि वे किन तारीखों के बीच किए गए हैं। यह भी जिक्र होना चाहिए कि किसी पार्टी की किसी बड़ी घोषणा के पहले किए गए हैं, या बाद में। हमारा यह भी ख्याल है कि किसी अध्ययन संस्थान को हर बड़े चुनाव के बाद उस पर किए गए ओपिनियन पोल और एक्जिट पोल की कामयाबी या नाकामयाबी पर भी विश्लेषण करना चाहिए, और उसे लोगों के सामने रखना चाहिए। देश में आज कुछ ऐसे जनसंस्थान हैं जो कि चुनाव लड़ रहे उम्मीदवारों का विश्लेषण करके आंकड़े सामने रखते हैं कि किस पार्टी के कितने उम्मीदवार किस-किस किस्म के जुर्म में फंसे हुए हैं, किसकी कितनी दौलत है, किसकी कितनी पढ़ाई-लिखाई है, उन पर कर्ज कितना है। ऐसी एक संस्था चुनाव के बाद यह विश्लेषण भी लोगों के सामने रखती है कि नई बनी संसद या विधानसभा के कितने सदस्य किस उम्र-वर्ग के हैं, कितनों की दौलत कितनी है, महिला और पुरूष का अनुपात क्या है।
हमारा ख्याल है कि मीडिया संस्थानों और सर्वे एजेंसियों के दावों की एक साफ-सुथरी पड़ताल होनी चाहिए कि बीते कई चुनावों में उनके अनुमानों में कितने सही निकले कितने गलत। ऐसा इसलिए भी जरूरी है कि वोटरों को प्रभावित करने के लिए कई किस्म के प्रायोजित ओपिनियन पोल भी होते हैं, कई मीडिया संस्थान अपने पेशे से बिल्कुल परे जाकर राज्यों और मुख्यमंत्रियों की कई तरह की तथाकथित रैंकिंग भी करते हैं, और उन्हें झूठी शोहरत हासिल करने के मौके बेचते हैं। यह सारा सिलसिला उजागर होना चाहिए। सत्ता के हाथों में खेल रहे मीडिया संस्थानों से परे जनता को हकीकत पता लगना चाहिए। और इसके लिए एक स्वतंत्र जनसंगठन की जरूरत है, या किसी प्रतिष्ठित अध्ययन और शोध संस्थान की, जो कि न मीडिया के कारोबार में हो, और न ही सर्वे के कारोबार में।
अगर जनता का रूझान जानने का कोई जरिया हो सकता है, तो उसका इस्तेमाल एक लोकतांत्रिक औजार की तरह तो ठीक है, लेकिन भाड़े के हत्यारे किराए पर लेने की ताकत रखने वाले उम्मीदवार, या ऐसी ताकतवर पार्टी के लिए हथियार की तरह अगर इनका इस्तेमाल होने लगेगा, लंबे समय से हो भी रहा है, तो फिर इन धंधों की साजिशों का भांडाफोड़ होना भी जरूरी है। आज भी जब हम ओपिनियन पोल या एक्जिट पोल को एक नजर में देखते हैं तो कम से कम कुछ मीडिया संस्थानों के पेश किए गए आंकड़े साफ-साफ उस संस्थान के पूर्वाग्रहों से दबे-कुचले दिखते हैं। कुछ ऐसे टीवी चैनल या प्रकाशन समूह हैं जो कि जिस राजनीतिक प्रतिबद्धता के साथ रोज जहर उगलते हैं, उसी प्रतिबद्धता के साथ उनके सर्वे के आंकड़े भी सामने आते हैं। उन्हें देखकर लगता है कि सर्वे एजेंसी भी अपने साथ काम करने वाले मीडिया संस्थान के प्रति प्रतिबद्धता अधिक दिखाती हैं, सच के प्रति कम। इसलिए इस पूरे धंधे की जवाबदेही तय होनी चाहिए। एक ऐसा अध्ययन हर चुनाव के पहले सामने आना चाहिए कि उस प्रदेश या पूरे देश के पिछले कई चुनावों में किसके सर्वे के आंकड़े निशाने पर थे, या निशाने से कितने दूर थे। जब लोगों के सामने इस धंधे की शोहरत की हकीकत उजागर होगी, तो फिर लोग विश्वसनीयता का अपना पैमाना बनाकर ही किसी के आंकड़े देखेंगे।
इन पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के ओपिनियन पोल, और एक्जिट पोल को नतीजों के साथ जोडक़र उसका एक विश्लेषण करने की कोशिश हम भी करेंगे, लेकिन इसके लिए एक बड़ी रिसर्च टीम की जरूरत होगी जो कि कोई बड़ा जनसंगठन, या कोई शोध संस्थान आसानी से जुटा सकते हैं। हमारा तो यह भी मानना है कि आईआईएम जैसे देश के प्रतिष्ठित मैनेजमेंट शिक्षण संस्थान को लोकतंत्र के चुनाव, जनमत, और तरह-तरह के पोल का प्रबंधन भी पढ़ाना चाहिए, और इन संस्थानों को इन पर लगातार शोध करके अपनी रिपोर्ट लोगों के सामने रखना चाहिए। जब देश में इतने काबिल संस्थान हैं जहां से निकले हुए लोग पूरी दुनिया के कारोबार-जगत पर राज करते हैं, तो क्षमता का इस्तेमाल भारत के लोकतंत्र को अधिक पारदर्शी बनाने के लिए भी करना चाहिए। हम तो यह भी चाहेंगे कि अलग-अलग पार्टियों के चुनावी वायदों और उनके आर्थिक पहलुओं पर भी मैनेजमेंट संस्थानों को रिसर्च-रिपोर्ट बनानी चाहिए। और इस पर भी रिसर्च करना चाहिए कि चुनाव जीतने की राजनीतिक लागत से परे सरकारी लागत कितनी आती है ताकि यह साफ हो कि महज चुनाव जीतने के लिए विकास की संभावनाओं को किस हद तक गिरवी रख दिया जाता है, या बेच दिया जाता है। लोकतंत्र में चुनाव और शासन, संसद-विधानसभा, मीडिया, जनमत, इन सारे पहलुओं पर अधिक विस्तार से, अधिक गहराई से, गंभीर पारदर्शी रिसर्च होनी चाहिए, और उसके नतीजों को जनता के सामने रखना चाहिए। ऐसे राजनीतिक शिक्षण से ही लोगों की लोकतांत्रिक-चेतना बेहतर हो सकती है।
अंतरराष्ट्रीय संबंधों के मोर्चे पर भारत के लिए एक नई दिक्कत आ खड़ी हुई है। कुछ महीने पहले कनाडा ने भारत पर यह आरोप लगाया था कि उसने कनाडा की जमीन पर, एक कनाडाई नागरिक का कत्ल करवाया जो कि खालिस्तानी आंदोलनकारी था। इसके बाद से कनाडा और भारत के कूटनीतिक संबंध शायद इतिहास में सबसे नीचे गिर गए हैं। जबकि भारत के लाखों लोग कनाडा में काम करते हैं, और उनके भेजे हुए अरबों रूपए हर महीने भारत में उनके परिवारों तक आते हैं, और भारत को अंतरराष्ट्रीय मुद्रा मिलती है। इसके अलावा कनाडा को जिस बड़ पैमाने पर छात्रों और कामगारों की जरूरत है, वह भी भारत से पूरी होती है। लेकिन इतने जटिल अंतरसंबंधों के बावजूद खालिस्तान समर्थक नेता की कनाडा में हत्या में भारत का हाथ होने का संदेह कनाडा के लिए बहुत बड़ा था, जहां पर कि मानवाधिकारों का एक अलग पैमाना है। दूसरी तरफ भारत का हाल यह है कि यहां पर एक बड़ा तबका इस बात को लेकर खुश है कि भारत ने अपने एक अलगाववादी को अगर विदेश में कहीं मरवा भी दिया है, तो भी उसमें गलत क्या है, और इससे भारत की ताकत ही साबित होती है। जब अमरीका ने इस मामले में फिक्र जताई थी, तो भारत के लोगों ने अमरीका के खिलाफ यह लिखा था कि वह भी तो दुनिया भर में अपने दुश्मनों का कत्ल करवाते ही रहता है, और ताजा मिसाल की शक्ल में लोगों ने अमरीकी फौज के पाकिस्तान में घुसकर ओसामा-बिन-लादेन को मारने की बात भी गिनाई थी। इसके बाद से पाकिस्तान मेें एक-एक करके ऐसे कई लोगों का एक ही अंदाज में मोटरसाइकिल से पहुंचे हत्यारों ने कत्ल किया जिन्हें भारत ने आतंकी घोषित किया हुआ है। कोई सुबूत न होने से, और कोई आरोप न लगने से भारत शक के किसी कटघरे में अभी नहीं है, लेकिन लोगों ने ऐसे सिलसिले को इससे जोडक़र जरूर देखा है कि भारत के विरोधी करार दिए गए ऐसे आतंकी सिलसिलेवार ढंग से, एक ही तरीके से मारे जा रहे हैं।
लेकिन आज सामने आया अमरीका का एक मामला भारत के लिए अब तक का इस किस्म का सबसे फिक्र का मामला है क्योंकि अमरीका की एक अदालत में पब्लिक प्रॉसिक्यूटर ने यह मामला पेश किया है कि निखिल गुप्ता नाम के एक भारतीय नागरिक ने अमरीका में एक खालिस्तान-समर्थक सिक्ख को कत्ल करने के लिए वहां एक लाख डॉलर का ठेका दिया था। अदालत में पब्लिक प्रॉसिक्यूटर ने यह कहा है कि इस भारतीय नागरिक ने अमरीका में जिसे कत्ल का यह ठेका दिया था, वह अमरीकी सरकार का जासूस ही था। ऐसा कहा जा रहा है कि भारत में बैठे सरकार के एक अफसर ने अमरीका में एक भारतीय नागरिक के माध्यम से हत्या का यह ठेका दिया था, और अमरीकी सरकार ने समय पर इस साजिश को पकड़ लिया क्योंकि जिसे हत्यारा मानकर ठेका दिया गया था, वह एक खुफिया अमरीकी जासूस या खबरी ही था। अमरीका के पब्लिक प्रॉसिक्यूटर ने कहा है कि अमरीकी जमीन पर किसी अमरीकी नागरिक के खिलाफ ऐसी साजिश बर्दाश्त नहीं की जाएगी, और अमरीकी सरकार ने निखिल गुप्ता नाम के इस भारतीय को भारत में बैठे जिस अफसर से यह काम दिया गया था, उस अफसर का नाम फिलहाल अमरीका के पब्लिक प्रॉसिक्यूटर ने अदालत में उजागर नहीं किया है।
अब कुछ महीनों के भीतर कनाडा से लेकर पाकिस्तान और अमरीका तक अगर ऐसी घटनाएं हो रही हैं, और खासकर दो पश्चिमी देशों कनाडा और अमरीका में इन्हें लेकर जांच चल रही है, और अमरीका में तो मुकदमा शुरू हो गया है, तो यह बात भारत के एक तबके के राष्ट्रोन्माद को तो ठीक लग सकती है कि मोदी है तो मुमकिन है, लेकिन यह अंतरराष्ट्रीय संबंधों में भारत की स्थिति को कमजोर करती है, कनाडा और अमरीका जैसे बड़े देशों के साथ उसके रिश्तों पर इससे बड़ी आंच आ सकती है। अमरीका एक ऐसा देश है जहां पर पब्लिक प्रॉसिक्यूटर सरकार से अलग रहते हैं, और वे अपनी मर्जी से काम करते हैं। वे भारत के सरकारी वकीलों की तरह नहीं रहते, बल्कि एक स्वतंत्र संस्था रहते हैं। वहां की लोकतांत्रिक-साख के मुताबिक वहां की सरकार न तो देश के वकील को, और न ही अदालतों को प्रभावित कर सकती। ऐसे में यह मामला भारत के लिए कनाडा के मामले के मुकाबले बहुत अधिक खतरे का हो सकता है, क्योंकि कनाडा में तो अभी जांच रिपोर्ट भी उजागर नहीं हुई है, और अमरीका में तो मुकदमा शुरू हो चुका है।
हो सकता है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सरकारें अपने देश के दुश्मन करार दिए गए लोगों की ऐसी सुपारी-हत्याएं करवाती रहती हों, लेकिन ये तभी तक चल पाती हैं जब तक कि कोई सरकार उसमें फंसती नहीं हैं। या तो फिर अमरीका की तरह इतने दम-खम वाला देश रहे जो कि पाकिस्तान के भीतर घुसकर एक फौजी कार्रवाई में ओसामा-बिन-लादेन का कत्ल कर सके, और उसकी लाश को भी दुनिया के सामने पेश करने से इंकार कर दे। भारत के सामने अमरीकी अदालत में आया यह ताजा मामला बताया जाता है कि कुछ महीने पहले से भारत की जानकारी में लाया गया था। आज अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत और अमरीका एक-दूसरे पर कई किस्म से निर्भर देश हैं। और ऐसे में हो सकता है कि सरकारों के स्तर पर इस मामले को अधिक न कुरेदा जाए, लेकिन अमरीका में पब्लिक प्रॉसिक्यूटर, सरकार के न होकर जनता के वकील रहते हैं, और ऐसे पब्लिक प्रॉसिक्यूटर सरकार के काबू के बाहर भी रहते हैं। इसलिए यह मामला कहां तक आगे बढ़ेगा यह समझना मुश्किल है। दूसरी बात यह भी है कि कनाडा और अमरीका के अलावा ऑस्ट्रेलिया और ब्रिटेन जैसे कई और पश्चिमी देश हैं जहां पर खालिस्तान-समर्थक आंदोलनकारी सक्रिय हैं, और इन तमाम देशों के लिए यह एक कूटनीतिक-समस्या रहेगी कि वे भारत पर लगी इन तोहमतों को किस तरह से देखें, और कनाडा और अमरीका के मामलों में उन देशों के साथ खड़े रहें, या कि भारत पर लगी तोहमतों को अनदेखा करें?
उत्तराखंड में सुरंग में फंसे हुए मजदूरों का जिंदा निकल पाना एक करिश्मे जैसा था। उनके साथ धंसी हुई, और धसक रही सुरंग के कई किस्म के और खतरे हो सकते थे। हिमालय पर्वतमाला की बहुत नाजुक और कमजोर पहाडिय़ों पर तरह-तरह के दुस्साहसी सरकारी और कारोबारी प्रयोग किए जा रहे हैं, जिनमें अरबों रूपए का खेल हो रहा होगा। ऐसी बहुत सी सुरंगें बन रही हैं, और अब ऐसे पहले बड़े हादसे के बाद सवाल यह उठ रहा है कि कई किलोमीटर की बन रही इस सुरंग से किसी हादसे की हालत में निकलने की कोई भी तैयारी क्यों नहीं रखी गई थी। तैयारी तो दूर इसका इंतजाम भी नहीं था। लेकिन भीतर जो 41 मजदूर कैद थे, उन्होंने शायद जिंदगी भर ईमानदार का पसीना बहाकर जिंदगी चलाई थी, और कुदरत ने उन्हें वह जिंदगी वापिस कर दी, वे इतने विकराल खतरे के बीच से भी निकलकर आ गए।
जब दुनिया भर की बड़ी-बड़ी मशीनों ने, और दुनिया भर से आए विशेषज्ञों ने एक किस्म से हाथ खड़े कर दिए, और प्रयोग की तरह कई जगह छेद किए जा रहे थे जिनका बड़ा खतरा भी था, तो वैसे में हिन्दुस्तान में गैरकानूनी करार दी जा चुकी ‘रैट-होल माइनिंग तकनीक’ का इस्तेमाल किया गया, और चूहों के बिल की तरह जमीन में हाथों के औजारों से सुरंग खोदते हुए पेशेवर मजदूर भीतर फंसे 41 मजदूरों तक पहुंचे, और उन्हें लेकर बाहर आए। 17 दिनों से मशीनों ने जो काम पूरा नहीं किया था, उसका आखिरी एक बड़ा हिस्सा छेनी-हथौड़ी से काम कर रहे इन मजदूरों ने कर दिखाया। ये मजदूर दिल्ली में बड़ी नालियों और गटर के पाईप साफ करने वाली कंपनी में काम करते हैं, और वहां से आए लोगों में मुन्ना कुरैशी भी थे जो कि सबसे पहले मजदूरों तक पहुंचे, और उन्हें हौसला देकर बाहर निकालना शुरू किया। उनके अलावा ऐसे ही चूहे के बिल की खुदाई के एक और जानकार फिरोज भी थे, और उन्हें भी फंसे हुए मजदूरों ने खूब दुआएं दीं। मौके पर बहुत से और अफसरों के साथ-साथ इस अभियान की इंचार्ज एजेंसी, एनडीआरएफ के एक मेम्बर, रिटायर्ड लेफ्टिनेंट जनरल सैय्यद अता हसनैन भी वहां तैनात थे, और उन्होंने बताया कि 24 घंटे से भी कम समय में रैट होल माइनर्स ने 10 मीटर सुरंग बना दी, और फंसे हुए मजदूरों तक पहुंच गए। इन कुछ नामों का जिक्र हम इसलिए कर रहे हैं कि वहां मिट्टी और मलबे से लथपथ, हेलमेट पहने लोगों की पोशाक से शायद उनके धर्म का पता न चल सका हो। मीडिया के काफी लोग चूंकि नामों को लिखने से बच रहे हैं इसलिए कुछ नामों का जिक्र जरूरी है ताकि अगली बार जब देश के कुछ लोगों की हसरत देश के एक तबके को पाकिस्तान भेजने की हो, तो वे इस बात को याद रखें कि पाकिस्तान से तो मुन्ना कुरैशी और फिरोज मजदूरों की जान बचाने यहां आ नहीं सकते थे। इसलिए किसी और वजह से न सही, कम से कम आड़े वक्त पर महानगरों के नाले-गटर साफ करने के लिए, सुरंगों में फंसे मजदूरों को निकालने के लिए तो ऐसे लोगों को यहां रखा जाए। अभी हम नाम देख रहे हैं, तो इन 41 मजदूरों में सिर्फ एक, सबाह अहमद ही मुस्लिम दिख रहा है, बाकी सारे के सारे मजदूर गैरमुस्लिम दिख रहे हैं। इनमें से कुछ तो महादेव, गणपति, राममिलन, रामसुंदर, भगवान, रामप्रसाद भी थे। मजदूरों की पोशाक से न सही उनके नाम से ही कुछ तो समझ पड़ता है। तकरीबन सारे के सारे, 40 मजदूर हिन्दू ही दिखते हैं। सोशल मीडिया पर कुछ और लोगों ने चूहे के बिल की तरह की सुरंग खोदकर लोगों को बचाने वाले मजदूरों में मोहम्मद नसीम, वकील, मुन्ना, फिरोज, मोनू, इरशाद, अंकुर, राशिद, जतिन, नासीर, सौरव, और देवेन्द्र के नाम लिखे हैं। इनके कपड़ों से कीचड़ मिट्टी धुल जाए तो फिर इन्हें अलग-अलग करने की कोशिश आगे बढ़ाई जा सकती है।
देश में लोगों को अलग-अलग बांटने की कोशिशें आम लोग ही नाकाम कर सकते हैं, अगर वे नफरत के जहर के असर से बर्बाद न हो चुके हों। कहीं क्रिकेट के मैदान पर, तो कहीं बेदिमागी से बनाई जा रही सरकारी सुरंगों के बीच, जिस तरह लोग उनके मजहब के कपड़ों की उड़ाई गई खिल्ली को अनदेखा करके देश के लिए लगे हुए हैं, वह फख्र की बात है। कायदे से तो जब किसी पूरे तबके को रात-दिन धिक्कारा जा रहा हो, नफरत का सामान बना दिया गया हो, तब यह नौबत फिक्र की होनी चाहिए थी, लेकिन घटिया नेताओं के बावजूद बेहतर इंसान बने हुए आम लोग हैं कि वे फिक्र की नौबत को फख्र में तब्दील करते हैं। जिस अंदाज में सुरंग का आखिरी का दस मीटर का यह हिस्सा एक दिन में इन मजदूरों ने हाथों से बना दिया, उसने नफरत के साथ-साथ मशीनों को भी एक चुनौती दी है कि इंसान की जरूरत अभी तक पूरी खत्म नहीं हुई है, और कई ऐसी नौबतें आएंगी जहां पर मशीनें इंसानों के मुकाबले कुछ फीकी और कमजोर भी साबित हो सकती हैं। फंसे हुए मजदूरों और बाहर काम कर रहे मजदूरों ने आज एक सवाल भी खड़ा किया है कि हिमालय पर्वतमाला के इस सबसे ही नाजुक, भूकम्प और भूस्खलन के खतरे वाले इलाके में बनाई जा रही ऐसी सुरंगों से हिफाजत कैसे की जा सकेगी?
यह एक मौका है जब देश को धरती से दुस्साहस खिलवाड़ की कोशिशों को रोककर एक बार फिर दुनिया के जानकार लोगों से राय लेनी चाहिए। न सिर्फ सुरंगों के मामले में, बल्कि पहाड़ों पर बांधों के बारे में, पहाड़ी इलाकों में अंधाधुंध चौड़ी सडक़ें बनाकर ट्रैफिक को अंधाधुंध बढ़ाने के मामले में, ऐसे कई मामलों में सरकारों को अपने फैसलों पर फिर से गौर करना चाहिए। इस बार तो ये मजदूर बच गए हैं, लेकिन हर बार इन इलाकों के ऐसे हादसों में सब लोग शायद न बच पाएं। इंसानों को धरती को समझने की रफ्तार से सौ गुना अधिक रफ्तार से इसके साथ एक दुस्साहसी छेडख़ानी करना बंद करना चाहिए। हर इलाका हर किस्म के विकास के लायक नहीं होता है। इसलिए इस किस्म की जो बाकी सुरंगें बन रही हैं, उनके बारे में सरकारी असर के बाहर के अंतरराष्ट्रीय विशेषज्ञों से राय लेनी चाहिए। और इसके साथ-साथ देश में पोशाकों से लोगों को पहचानना बंद भी करना चाहिए।
बिहार में स्कूल-छुट्टियों की अगले बरस की जो लिस्ट आई है उसमें मकर संक्रांति, रक्षाबंधन, भाईदूज, और (हरतालिका) तीज की छुट्टियां रद्द कर दी गई हैं। सरकार का कहना है कि साल में कम से कम 220 दिन स्कूल खुलें इस हिसाब से छुट्टियां घटाई गई हैं। बिहार से केन्द्र सरकार में मंत्री गिरिराज सिंह ने इसे एक तुगलकी फरमान ठहराया है, और कहा है कि हिन्दुओं के महापर्व शिवरात्रि, जन्माष्टमी पर छुट्टियां काट दी गई हैं, और ईद और बकरीद जैसे मुसलमानों के त्यौहारों पर छुट्टियां बढ़ा दी गई हैं। अपने मिजाज और अपनी सोच के मुताबिक गिरिराज सिंह का कहना है कि बिहार सरकार इस्लामिक आधार पर काम कर रही है, इसी वजह से अररिया, पूर्णिया और कटिहार की स्कूलों में शुक्रवार की छुट्टी दी जा रही है। उन्होंने कहा कि ये सरकार शुक्रवार को इस्लामिक छुट्टी बनाने की योजना बना रही है। यही आरोप बिहार के एक दूसरे बीजेपी सांसद सुशील मोदी ने लगाया है कि हिन्दुओं के पर्वों पर छुट्टियां रद्द कर दी गई हैं, और मुसलमानों के त्यौहारों पर छुट्टियां बढ़ा दी गई हैं। बिहार बीजेपी ने इसे इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ बिहार बताकर ट्विटर पर पोस्ट किया है। बिहार में सत्तारूढ़ जेडीयू का कहना है कि शिवरात्रि की छुट्टी रद्द नहीं हुई है, यह आरोप गलता है, बल्कि दशहरे की छुट्टी एक दिन बढ़ा दी गई है। उन्होंने कहा कि यह भी सही है कि अल्पसंख्यकों की छुट्टी बढ़ा दी गई है, हालांकि एक मुस्लिम छुट्टी घटा दी गई है। बिहार में पिछले बरस भी छुट्टियों में बदलाव को लेकर विवाद हुआ था।
हम सिर्फ बिहार के मुद्दे पर अधिक खुलासे में जाना नहीं चाहते, किस धर्म की कितनी छुट्टियां रहें, और किस त्यौहार पर कितने दिन रहें, कितनी छुट्टियां सबके लिए रहें, और कितनी छुट्टियां मर्जी से लेने की रहें, इसे लेकर कई तरह की तरकीबें निकाली जा सकती हैं। लेकिन हमारा सबसे ऊपर यह मानना है कि चाहे सरकारी दफ्तर रहें, चाहे स्कूल-कॉलेज रहें, सबसे पहले तो कामकाज और पढ़ाई-लिखाई के न्यूनतम दिन तय होने चाहिए। उसके बाद ही किसी तरह की छुट्टी के बारे में सोचा जाना चाहिए। आज हिन्दुस्तान की संस्कृति कामकाज से ऊपर उठ गई है, और अब महज छुट्टियों की बात होती है। काम या पढ़ाई की जिम्मेदारी की बात नहीं रहती, सिर्फ अधिकारों की बात होती है। यह सिलसिला देश को गड्ढे में ले जा रहा है क्योंकि लोगों की जिंदगी के दिन सीमित रहते हैं, उनके पढ़ाई के दिन और कामकाजी दिनों की भी सीमा रहती है, और सरकारी नौकरी से रिटायर होने के बाद उन्हें पुरानी पेंशन योजना के तहत अधिक भुगतान होना चाहिए, यह देश में आज एक बड़ा राजनीतिक मुद्दा बना हुआ है।
हम इन तमाम मुद्दों को एक साथ लेकर इसे सुलझाए न जा सकने वाले ऊन के उलझे हुए गोले जैसा नहीं बनाना चाहते। इसलिए एक सीधी सरल बात यह है कि छुट्टियां कितनी हों, और कब-कब हों, इन्हें तय करते हुए यह भी देखना चाहिए कि छुट्टियों से परे कर्मचारियों या छात्र-छात्राओं का जो बुनियादी काम है उसके लिए कितना वक्त तय किया जा रहा है? कहने के लिए दर्जनों धार्मिक त्यौहारों पर, और दर्जनों जयंती या पुण्यतिथि पर लोगों को छुट्टियां मिलती हैं, लेकिन ऐसा लगता है कि उनमें से बहुत कम से उनका ऐसा लेना-देना रहता है कि उन्हें अपने बुनियादी काम से परे इस छुट्टी से जुड़ी बातों को पूरा करना पड़े। किसी महान व्यक्ति की जन्मतिथि या पुण्यतिथि पर मिली छुट्टी उनके प्रति सम्मान के प्रदर्शन के अलावा क्या होती है? क्यों गांधी जयंती पर, या नेहरू के जन्मदिन पर छुट्टी होनी चाहिए? क्यों किसी शहादत के दिन छुट्टी होनी चाहिए? लोगों को अगर सचमुच किसी का सम्मान करना है, तो उस दिन लोग एक-दो घंटे अधिक काम कर लें, छात्र-छात्राएं दो-चार घंटे अधिक पढ़ लें। और अगर इतने से भी सम्मान पूरा नहीं होता है तो फिर लोग अपने दफ्तर या स्कूल-कॉलेज के बाद कुछ घंटे की समाजसेवा कर लें, गांधी या नेहरू या किसी और की स्मृति के लिए यह बेहतर तरीका होगा। लोग सफाई कर लें, पेड़ लगा लें, अस्पताल जाकर गरीब मरीजों की मदद कर दें, खुद सेहतमंद हों तो रक्तदान कर दें, सडक़ किनारे कोई बीमार और भूखे दिखें, तो उन्हें कुछ खिला दें, फुटपाथी बच्चों को कोई कपड़े दिलवा दें। किसी त्यौहार या खास दिन को मनाने के हजार ऐसे तरीके हो सकते हैं जो कि छुट्टियों से परे के हों। और इसके बाद सरकार चाहे तो हर किसी को यह छूट दे सकती है कि वे साल में कितने दिन छुट्टी ले सकते हैं, ताकि वे अपनी मर्जी से, अपनी जरूरत के मुताबिक छुट्टी लें, और उसका इस्तेमाल भी कर सकें। वैसे भी छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में, और पूरी की पूरी केन्द्र सरकार में पांच दिन का ही हफ्ता होता है, और लोग साल में 104 दिन तो सप्ताहांत की छुट्टी ही मनाते हैं। इससे परे बहुत से और त्यौहार हैं, दिवस हैं, और बीच में पडऩे वाले इक्का-दुक्का कामकाजी-दिनों पर लोग और छुट्टियां ले लेते हैं ताकि उन्हें एक साथ कई दिन की छुट्टी मिल जाए। ऐसा लगता है कि छुट्टियों का इंतजाम करना, और बाकी वक्त उनका इंतजार करना ही हिन्दुस्तान का वर्क-कल्चर हो गया है। देश-प्रदेश में कहीं भी लोग कामकाज या पढ़ाई के लिए आंदोलन करते नहीं दिखते। जिन छात्र-छात्राओं की आगे की जिंदगी स्कूल-कॉलेज की पढ़ाई पर है, वे भी पढ़ाई की मांग नहीं करते। कुछ गिने-चुने मामलों में स्कूली बच्चे जरूर हड़ताल पर दिखते हैं, जहां उन्हें पढ़ाने के लिए कोई शिक्षक नहीं हैं, या 6-8 कक्षाओं को पढ़ाने के लिए एक ही शिक्षक है। इन बच्चों को छोडक़र कहीं कोई पढ़ाई के लिए हड़ताल करते नहीं दिखते। फिर चाहे आगे जाकर उनकी बाकी जिंदगी पढ़ाई की कमी से बर्बाद ही क्यों न हो जाए। ठीक ऐसा ही हाल सरकारी कर्मचारियों का रहता है जो कि काम की जवाबदेही की बात भी करना नहीं चाहते, और महज छुट्टियों और सहूलियतों को लेकर हंगामा करते हैं।
हम बिहार के इस हिन्दू-मुस्लिम छुट्टी-विवाद में पड़े बिना सिर्फ यह कह रहे हैं कि देश में सभी तरह की छुट्टियां खत्म कर देना चाहिए, और एक गिनती जारी कर देनी चाहिए कि कौन लोग कितने दिन की छुट्टियां ले सकते हैं, एक साथ अधिकतम कितने दिन की ले सकते हैं ताकि पढ़ाई और काम बर्बाद न हों। 15 अगस्त और 26 जनवरी की छुट्टी भी कौन लोगों में देश के लिए कोई परवाह पैदा कर पाती हैं। अगर परवाह ही पैदा हुई रहती तो लोग देश के लिए अधिक काम करने की बात करते, अधिक छुट्टियां जुटाने के लिए संघर्ष नहीं करते। महान व्यक्तियों के स्मृति दिवसों पर, या त्यौहारों पर छुट्टी को लोगों की मर्जी पर छोडऩा चाहिए, जिनका उनसे लेना-देना न हो, वे क्यों काम या पढ़ाई न करें? छुट्टियों का जिंदगी में राजनीति से अधिक इस्तेमाल होना चाहिए। देश या प्रदेश के स्तर पर कोई भी छुट्टी तय नहीं होनी चाहिए, और गिनी-चुनी छुट्टियां जिला या शहर स्तर पर तय हों, और बाकी छुट्टियां लोगों को मर्जी से लेने दी जाएं।
चीन के कुछ हिस्सों में अचानक बच्चे सांस की बीमारी से जूझ रहे हैं। उनके फेंफड़ों में जलन हो रही है, तेज बुखार और फ्लू जैसे लक्षण हैं। उत्तरीय चीन में इसे फैलने से रोकने के लिए स्कूलें बंद कर दी गई है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने फिक्रमंद होकर चीन से इस बारे में जानकारी मांगी है क्योंकि जब कोरोना का विस्फोट चीन में हुआ था, तो उसने बड़े संदिग्ध तरीके से जानकारी बाकी दुनिया से छुपाई थी। इस बार चीन के अफसरों का कहना है कि अभी बच्चों में जो संक्रमण फैला है वह मार्च तक जारी रह सकता है, और उसके अलावा कोरोना का संक्रमण फिर से होने की चेतावनी भी दी गई है। वहां से आई खबरें बताती हैं कि अस्पताल भर गए हैं, और डॉक्टर को दिखाने में ही लोगों को घंटों इंतजार करना पड़ रहा है। कोरोना प्रतिबंध हटाने के बाद यह ठंड का पहला मौसम है, और इसमें मौसमी सर्दी-बुखार के साथ-साथ एक बार फिर कोरोना का संक्रमण फैलने का खतरा माना जा रहा है। चीन की सरकार ने लोगों को मास्क पहनने कहा है, और यह भी कहा है कि स्कूलों और नर्सिंग होम जैसी भीड़भाड़ वाली जगहों पर बीमारी फैलने का खतरा है इसलिए लोग इससे बचें। भारत सरकार ने चीन के इस ताजा संक्रमण को देखते हुए देश के सभी प्रदेशों को सावधान किया है, और कहा है कि सांस से संबंधित बीमारियों से निपटने की अपनी तैयारी आंक लें, और बच्चों और किशोर उम्र लोगों की बीमारी पर बारीकी से नजर रखें। राज्यों को याद दिलाया गया है कि ऑक्सीजन, वेंटिलेटर जैसे उपकरणों की उपलब्धता और क्षमता को भी तौल लिया जाए।
हिन्दुस्तान किसी भी नसीहत और सदमे से बड़ी तेजी से उबर जाता है। कई बरस पहले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने एक झाड़ू थाम लिया था, और पूरे देश को साफ-सफाई करने और रखने के लिए कहा था। नतीजा यह हुआ कि देश में जितने कैमरे थे उतने झाड़़ू सामने आ गए, और बहुत सी जगहों पर तो नेताओं के साफ करने के लिए साफ-सुथरा ‘कचरा’ बिखेर दिया जाता था जिन्हें लोग कैमरों के सामने साफ करते दिखते थे। लेकिन लोग उससे बड़ी तेजी से उबर गए। कुछ महीनों के भीतर लोग फिर चारों तरफ गंदगी फैलाने लगे, और मोदी के आव्हान के बाद की एक दीवाली छोड़ बाद की किसी दीवाली पर लोगों ने पटाखों का कचरा भी नहीं हटाया। इसी तरह जब कोरोना का हमला हुआ, तो लोग अचानक मास्क लगाकर रहने लगे, हाथ साफ रखने लगे, लापरवाही से खाना-पीना बंद कर दिया, और साल-दो साल के भीतर ही आज हालत यह है कि लोग पुराने ढर्रे पर लौट गए हैं, और देश में साफ-सफाई की तहजीब पूरी तरह गायब हो चुकी है। लोगों का बस चले तो अब पखाने के बाद भी हाथ न धोएं।
इसी तरह देश-प्रदेश की सरकारों ने जिस युद्धस्तर पर कोरोना से लडऩे के लिए अस्पतालों को तैयार किया था, मशीनें खरीदी थीं, वह सब कुछ शायद ही दुबारा इस्तेमाल के लायक बचा हो। वेंटिलेटर जैसे नाजुक सामान चलाने के लिए उस वक्त भी स्वास्थ्य कर्मचारियों की ट्रेनिंग नहीं थी, और उसके बाद से तो अब ऐसा कुछ सुना भी नहीं गया। देश-प्रदेश की सरकारों में स्वास्थ्य कर्मचारी तो करोड़ों की संख्या में होंगे, लेकिन कोरोना के जाने के बाद से किसी और संक्रामक महामारी के लिए इन कर्मचारियों की ट्रेनिंग हुई हों ऐसा कभी सुना भी नहीं गया। सरकारों में नौकरी पाने तक लोगों की दिलचस्पी रहती है, और नौकरी में आ जाने के बाद उनकी अगली दिलचस्पी ओल्ड पेंशन स्कीम लागू होने, और महंगाई भत्ता मिलने तक सीमित रह जाती है। नेताओं की दिलचस्पी उम्मीदवारी पाने, चुनाव जीतकर मंत्री बनने, और उसके बाद कमाऊ विभाग पाने तक सीमित रहती है। इसके बाद कमाने का रास्ता तो उन्हें पेशेवर आला अफसर दिखा ही देते हैं जिनमें वे भागीदार भी रहते हैं। ऐसे देश में किसी खतरे के लिए तैयारी की जागरूकता किसी में नहीं रहती।
अभी उत्तराखंड में जिस बन रही सुरंग में फंसे मजदूरों को एक पखवाड़ा होने को है, उस सुरंग से ऐसे किसी हादसे से निकलने का कोई रास्ता ही नहीं रखा गया था। मजदूरों की जान की हिफाजत शायद सत्ता की आखिरी प्राथमिकता रहती है। और अभी देश में करीब दर्जन भर और ऐसी सुरंगें बन रही हैं, और यह हादसा होने के बाद अब जाकर सरकार इस बात के लिए तैयार हो रही है कि बाकी सुरंगों का भी सुरक्षा ऑडिट करवाया जाए। जब हजारों करोड़ की ऐसी विनाशकारी योजनाएं नाजुक पहाड़ों के नीचे से बनाई जा रही हैं, तब किसी सुरक्षा ऑडिट की बात इसलिए नहीं की गई होगी कि इसमें हजारों करोड़ का ठेका रहा होगा, और इतना बड़ा केक कटने पर सबको उसका एक-एक टुकड़ा तो मिलता ही है। पिछले कोरोना के दौर में वेंटिलेटर जैसी जान बचाने वाली मशीन को बनाने के लिए कई तरह के कारखानों का इस्तेमाल किया गया था, और पीएम केयर्स नाम के बनाए गए एक फंड से जो वेंटिलेटर खरीदे गए थे, उसमें बड़ी संख्या में खराब भी निकलने की खबरें थीं। ऐसी तमाम बातों को देखें तो लगता है कि यह भ्रष्ट, बेईमान, लापरवाह, और इन सबके बावजूद आत्ममुग्ध और गौरव में डूबा देश किसी भी बड़ी मुसीबत को झेलने लायक नहीं है।
चीन के बारे में जितने किस्म की खबरें आती हैं, उनसे साजिश की ऐसी कहानी भी बनते दिखती है कि चीन तरह-तरह की संक्रामक बीमारियां फैलाने वाले वायरस के प्रयोग करते ही रहता है, और हो सकता है कि वह किसी घोषित या अघोषित युद्ध में दुश्मन देश पर इनसे हमला भी करे। भारत जैसे देश के साथ एक दिक्कत यह है कि अगर किसी अपराधकथा की तरह उस पर ऐसा बायोलॉजिकल हमला होता है, तो उससे इलाज की मशीनें भी उसे चीन से ही खरीदनी पड़ेंगी, अधिकतर दवाओं का कच्चामाल भी चीन से ही आता है। यह कुछ उस किस्म का मामला हो सकता है कि कम्प्यूटर वायरस से हिफाजत के सॉफ्टवेयर बनाने वाली कंपनियां ही पहले कम्प्यूटरों पर वायरस-हमला करवाएं, और फिर परेशान ग्राहकों के बीच आसानी से अपना सामान बेचें। भारत जैसे भ्रष्ट देश में न तो सरहद पार से आने वाली ऐसी किसी बीमारी से बचाव की तरकीबें हैं, और न ही इस देश के लोगों को साफ-सुथरा रहने की आदत है। इन सबसे ऊपर, देश की सरकारें भ्रष्टाचार में डूबी हुई हैं, और कोरोना जैसी किसी भी बीमारी का हमला भ्रष्ट सरकारी मशीनरी के लिए दशकों का सबसे बड़ा त्यौहार भी साबित हुआ था। इसलिए यह कहना मुश्किल है कि सरकारें ऐसी किसी बीमारी के खतरे से बचना चाहेंगी, हो सकता है कि वे इंतजार कर रही हों कि ऐसी कोई दूसरी बीमारी आए, और वे अपने पसंदीदा सप्लायरों से सैकड़ों करोड़ के सामान और खरीद लें।
जनता अपने स्तर पर अपनी जिंदगी को साफ-सुथरा रखने का काम ही कर सकती है, और वह यह भी कर सकती है कि वे अपनी सेहत को ठीक रखे। सरकारों पर भरोसा करके खुद लापरवाह रहना जनता को कहीं नहीं पहुंचाएगा।
बीबीसी में अभी दुनिया की सौ प्रमुख महिलाओं की एक फेहरिस्त जारी की है जिसमें उसने अलग-अलग वजहों से उन्हें छांटना बताया गया है। उनमें से एक इराक से अमरीका पहुंचकर वहां बसी हुई, और अब सौंदर्य प्रसाधन उद्योग की एक जानी-मानी नाम बन चुकी हुडा काटन भी हैं, जिनके कॉस्मेटिक की बड़ी शोहरत है। अभी उन्होंने सौ प्रेरणादायी और असरदार महिलाओं की लिस्ट में शामिल होने के बाद सौंदर्य प्रसाधन उद्योग और सोशल मीडिया, दोनों की कड़ी आलोचना की है, और कहा है कि उन्हें कई बार यह लगता है कि कॉस्मेटिक इंडस्ट्री लिंगभेदी है, और यहां कई बार महिलाओं को वस्तुओं की तरह पेश किया जाता है। इस इंडस्ट्री और लोगों की सोच की वजह से महिलाओं को सिर्फ उनके रूप-रंग से आंका जाता है। जब किसी के रूप-रंग से उनके बारे में सामूहिक धारणा बना ली जाती है, तो फिर यह उन महिलाओं के लिए दिल तोडऩे वाली बात हो सकती है। उन्होंने यह भी कहा कि जब उन्होंने यह कारोबार शुरू किया तो लोग बैठकों में उनसे बात करने के बजाय उनके पति से बात करते थे, उन्हें महिला होने की वजह से गंभीरता से नहीं लिया जाता था। इसके अलावा उनका यह भी तजुर्बा रहा कि कॉस्मेटिक इंडस्ट्री में गोरे लोगों से परे बाकी रंगों के लोगों की परवाह नहीं रहती थी। उनका यह भी कहना है कि समाज महिलाओं को लेकर हमेशा ही सख्त रहा है, लेकिन अब तो सोशल मीडिया ने उन पैमानों को और कड़ा कर दिया है, और उन्हें खुद यह लगता है कि वे कभी भी पर्याप्त सुंदर नहीं हो सकतीं। उनका कहना है कि लोग महिलाओं से उनके नाखूनों से लेकर बाल और चमड़ी के रंग तक कुछ खास पैमानों पर परफेक्ट देखना चाहते हैं।
उनकी ये बातें इसलिए दिलचस्प हैं कि क्योंकि उनकी रोजी-रोटी और कमाई इसी कारोबार से चल रही है। फिर भी अगर वे ऐसा कह पा रही हैं तो उसकी एक वजह शायद यह होगी कि वे अपनी ग्राहक महिलाओं के बीच थोड़े से कॉस्मेटिक और बहुत सा आत्मविश्वास बेचना चाहती हैं। उनके तमाम कॉस्मेटिक के इस्तेमाल के बावजूद हर लडक़ी या महिला को समाज के प्रचलित पैमानों पर खूबसूरत साबित नहीं हो सकतीं, इसलिए कहीं न कहीं सौंदर्य प्रसाधनों की सीमा खत्म होनी चाहिए, और रूप-रंग से परे के आत्मविश्वास की सीमा शुरू होनी चाहिए। हम इस अखबार में, और अपने सोशल मीडिया पर लगातार इस बात को लिखते हैं कि सौंदर्य और फैशन के मर्दों के बनाए हुए पैमानों ने महिलाओं की उत्पादकता को बहुत सीमित कर रखा है, और उनके आत्मविश्वास को कुचलकर रखा है। दरअसल जब समाज किसी महिला के अपने बस के बाहर के उसके रूप-रंग को खूबसूरती के तथाकथित पैमानों पर खरा साबित करने का बोझ उसी महिला पर डाल देता है, तो उसका एक असर अनगिनत महिलाओं के आत्मविश्वास को तोड़ देना होता है। दूसरी तरफ बहुत थोड़ी सी गिनती में जो महिलाएं हर नजरिए से खूबसूरत रूप-रंग वाली मानी जाती हैं, उन्हें अपनी असल क्षमताओं और संभावनाओं से बहुत अधिक महत्व भी मिलता है, और यह बात समाज में एक अलग किस्म की रूप-रंग-आधारित गैरबराबरी कायम करती है।
सौंदर्य प्रसाधन, फैशन, और फिटनेस के कारोबार लोगों में एक हीनभावना पैदा करके ही चलते हैं। लोगों को उनकी सहूलियत के मुकाबले मौजूदा नई फैशन के कपड़े और दीगर सामान इस्तेमाल करने की मजबूरी लगती है क्योंकि उसके बिना वे पर्याप्त फैशनेबुल नहीं माने जाएंगे। लड़कियों पर बार्बी डॉल की तरह का छरहरा बदन बनाए रखने का एक मानसिक दबाव हमेशा बने रहता है, और कई जगहों पर यह बात मान ली जाती है कि जिनका बदन भरा हुआ है, या जो लड़कियां चश्मा लगाती हैं, उन्हें आसानी से साथी नहीं मिलते। मतलब यह हुआ कि उनका दिल-दिमाग, उनकी बाकी किस्म की क्षमताएं धरी रह जाती हैं, और उनका मूल्यांकन सिर्फ रूप-रंग, और कद-काठी के आधार पर तय होने लगता है। हालत यह है कि लड़कियों की हड्डियों को चोट पहुंचाने की हद तक ऊंची एडिय़ों के सैंडिल पहनना उनकी मजबूरी हो जाती है क्योंकि न सिर्फ समाज में, बल्कि अब तो बहुत से देशों की बहुत सी कंपनियों में भी लड़कियों को ऊंची एड़ी पहनना जरूरी कर दिया गया है। ऊंची एड़ी, खुले टखने, और इस किस्म के कई दूसरे पैमानों को लड़कियों पर ही लादा जाता है।
ये तमाम बातें पुरूषप्रधान समाजों की साजिश का हिस्सा हैं जिनमें एक वक्त महिलाओं को घुंघरू वाले गहने पहनाए जाते थे ताकि उनकी आवाजाही पर नजर रखे बिना भी कानों से उसकी खबर हो सके। बहुत से मुस्लिम देशों में बुर्का प्रथा लागू करके, और हिन्दुस्तान के राजस्थान या हरियाणा जैसे प्रदेशों में हिन्दू समाज में भी महिलाओं के लिए घूंघट निकालना जरूरी था ताकि कोई उनका चेहरा न देख ले। दूसरी तरफ भारत के केरल की उस प्रथा के खिलाफ हम कई बार लिख चुके हैं जिसके तहत एक वक्त एक राज में दलित महिलाओं को सीना ढांकने की मनाही थी, और कोई कपड़ा पहनने के लिए उन्हें टैक्स देना पड़ता था। महिला का बदन चाहे किसी पौराणिक कहानी में जुएं में दांव पर लगाया जाता रहा हो, कहीं किसी पारिवारिक दुश्मनी को निकालने के लिए महिलाओं के साथ बलात्कार किए जाते रहे हों, तमाम चीजें महिलाओं के बदन पर ही केन्द्रित रहते आई है। सजावट की उम्मीद उसी से, और बदले की आग से जलाना भी उसी को। समाज की सोच की हालत यह है कि अगर किसी लडक़ी या महिला से बलात्कार होता है तो उसके लिए प्रचलित भाषा यही है कि उसकी इज्जत लुट गई। मानो बलात्कारी की इज्जत किसी भी तरह से कम नहीं हो सकती, और उसके हिंसक हमले की शिकार महिला की देह भी जख्म पाती है, और उसी की इज्जत भी लुटती है। यह सब इसलिए कि औरत को महज एक देह मान लिया गया है, और उसकी देह को चाहे मर्द जख्मी करे, उसी देह के जख्म को उसकी बेइज्जती करार दिया जाता है।
आज की यह चर्चा चाहे फैशन उद्योग की एक कारोबारी महिला की बातों से ही क्यों न शुरू हुई हो, यह बहस पहले से चली आ रही है, और आगे भी जारी रहना चाहिए कि देह के रखरखाव, रूप-रंग, कद-काठी, और फैशन के तमाम पैमाने बनाने का हक मर्द का, और ढोने का जिम्मा औरत का क्यों होना चाहिए? यह सिलसिला लैंगिक असमानता का है, हिंसक है, और बुनियादी मानवाधिकार के खिलाफ है।
भारत में अभी पांच राज्यों में चल रहे विधानसभा चुनाव में ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस की चर्चा सुनाई नहीं पड़ी, लेकिन ऐसा हो नहीं सकता कि बड़ी पार्टियों या बड़े उम्मीदवारों ने इसकी कोशिश न की हो। यह भी हो सकता है कि इन्होंने खुद होकर सीधे-सीधे ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस मुहैया कराने वाली किसी एजेंसी को भाड़े पर न लिया हो, लेकिन फेसबुक और ट्विटर जैसे सोशल मीडिया का अध्ययन, विश्लेषण करने, और फिर उनका राजनीतिक और चुनावी इस्तेमाल करने का काम किया हो। यह काम फेसबुक भाड़े पर करता ही है, और फेसबुक का अपना खुद का सारा कामकाज ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस पर आधारित है। अब जैसे अभी हमने अपने फेसबुक पेज से सैकड़ों लोगों की पोस्ट देखना 30 दिन के लिए हटा दिया। नतीजा यह निकला कि पेज पर आने वाली पोस्ट घट गईं, और ऐसे में फेसबुक ने सैकड़ों नए लोगों के पेज सुझाने शुरू कर दिए, और उन पर यह लिखा हुआ भी आने लगा कि ये नाम या ये पेज फेसबुक सुझा रहा है। इनको जब बारीकी से देखें, तो इनमें से बहुत से लोग या पेज एक खास किस्म की राजनीतिक विचारधारा की तरफ रूझान रखने वाले दिख रहे हैं। अब पार्टियों को सिर्फ यही करना है कि वे अपने विश्लेषकों से सोशल मीडिया पर सक्रिय लोगों की राजनीतिक सोच दर्ज कर लें, जो कि बड़ा आसान काम है, और उसके बाद उन लोगों तक, या वैसे तबके तक अपने पेज की पहुंच करने के लिए फेसबुक को भुगतान करें। भुगतान के एवज में फेसबुक किसी इलाके के, किसी उम्र के, या किसी खास तबके के लोगों तक आपकी पहुंच बढ़ा देता है। इस तरह जैसे ही (हमारी तरह के) कोई लोग अपने पेज से अधिक संख्या में लोगों को 30 दिन के लिए हटाते हैं, या कि उन्हें अनफॉलो करते हैं, वैसे ही फेसबुक आक्रामक अंदाज में नए लोग और नए पेज सुझाना शुरू कर देता है। यह पूरा ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस पर आधारित कारोबार है।
आज दुनिया के सबसे बड़े टेक्नालॉजी कारोबारी यह मांग कर रहे हैं कि ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस पर आगे की रिसर्च को रोका जाए। उनका मानना है कि बाकी खतरों के साथ-साथ एक खतरा यह भी है कि यह लोगों की सामाजिक और राजनीतिक सोच को प्रभावित करके किसी भी लोकतंत्र में चुनावी नतीजों को भी प्रभावित कर सकता है। दुनिया का कारोबार बड़ी आसानी से सोशल मीडिया और दूसरे किस्म के इंटरनेट पेज देखकर वहां ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस की मदद से ऐसी दखल पैदा कर सकता है जिससे कि लोगों का सोचना-विचारना प्रभावित हो सके। ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस लोगों के राजनीतिक रूझान को पहचान कर, उनके आसपास उसी किस्म के रूझान वाले दूसरे लोगों को पहचान कर, उनकी पसंद के मुद्दों की शिनाख्त करके, एक अलग राजनीतिक विचारधारा को वहां पर रोप सकता है जो कि धीरे-धीरे पौधे की शक्ल में बढ़ सके, और लहलहा सके। इस तरह आज दुनिया में जो लोकतांत्रिक सोच दशकों या सदियों में विकसित हुई है, वह कुछ घंटों में ही प्रभावित होना शुरू हो सकती है। हिन्दुस्तान का लोकतंत्र पौन सदी पुराना है, और अमरीका जरा से वक्त में अपने लोकतंत्र के ढाई सौ बरस पूरे होने का जलसा मनाने जा रहा है। दुनिया के तमाम लोकतंत्रों में वहां के लोगों की विचारधारा, उनकी पसंद-नापसंदगी विकसित होने में लंबा अरसा लगता है, लेकिन अब सोशल मीडिया पर पिछले कुछ बरसों से हम ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस के बिना भी यह देख रहे थे कि किस तरह भाड़े के साइबर-सैनिक या साइबर-मजदूर किसी विचारधारा को बढ़ाने, और किसी को खारिज करवाने के काम में लगे हुए थे, लगे हुए हैं। अब ऐसी ताकतों के हाथ ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस नाम का एक असाधारण और अभूतपूर्व हथियार भी लग चुका है, और अब वे हजार किस्म के दूसरे विश्लेषण करके अपने जहर को एकदम निशाने पर छोड़ सकते हैं ताकि उसका अधिकतम असर हो।
अमरीका या हिन्दुस्तान जैसे लोकतंत्र बहुत धीमी रफ्तार से अपने लोगों की राजनीतिक परिपक्वता तक पहुंचे थे, और हिन्दुस्तान में तो हकीकत यह है कि लोग ठीक से परिपक्व हुए भी नहीं हैं, और पिछले एक दशक में लोगों की आधी सदी में पाई परिपक्वता काफी हद तक खत्म भी हो चुकी है, ऐसे लोकतंत्र दुनिया के कारोबारियों का निशाना बन सकते हैं। और महज कारोबार की बात क्यों करें, ये लोकतंत्र किसी धार्मिक या आतंकी सोच का निशाना भी बन सकते हैं, लोगों को धर्म और हिंसक आतंक की तरफ खींच सकते हैं। वैसे भी आज महज सोशल मीडिया के इस्तेमाल से धार्मिक और राजनीतिक नफरत फैलाना बड़ा आसान हो चुका है, और हिन्दुस्तानी लोकतंत्र उसका एक सबसे लहूलुहान शिकार दिख रहा है। अब जब ऐसी कोशिशें ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस से लैस होकर हमला करेंगी, तो लोगों को पता ही नहीं चलेगा कि कब और कैसे उनका हृदय परिवर्तन हो गया है, कैसे उन्हें एक खास साम्प्रदायिक या राजनीतिक बुलबुले में ला दिया गया है, और इस बुलबुले की दीवारें ही उन्हें दुनिया लगने लगेंगी। यह पूरा सिलसिला कितना खतरनाक होगा, इसकी कल्पना भी हमारे लिए मुश्किल है, और हम इसके तमाम किस्म के खतरों, और उनकी ऊंचाईयों का अंदाज भी नहीं लगा पा रहे हैं। जिस तरह लोगों का कोरोना के हमले से बचना तकरीबन नामुमकिन था, उसी तरह लोगों का ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस के हमले से बचना नामुमकिन रहेगा क्योंकि भाड़े के हत्यारों को किराए पर लेने की ताकत रखने वाले लोग और संगठन न सिर्फ सोशल मीडिया बल्कि हर किस्म का मीडिया भी इस तरह प्रभावित करेंगे कि अधिक से अधिक लोगों का ब्रेनवॉश होते चले। हिन्दुस्तान में आज नफरत के जहर को देखकर ऐसा लगता है कि वह ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस की पीठ पर सवार होकर तेजी से चारों तरफ दौड़ रहा है, और पौराणिक कहानियों के किसी झंडे लगे घोड़े की तरह चारों तरफ पहुंचकर वहां तक अपना साम्राज्य कायम कर रहा है। क्या पता इसे पढऩे वाले लोग भी अपने आपको ऐसे हमले से बचा सकेंगे या नहीं, हम आज इस पर महज चर्चा कर रहे हैं, और लोग अपने-अपने स्तर पर बारीकी से ऐसे खतरों के पहुंचने पर नजर रखें। आप कुछ कर चाहे न सकें, अपनी जिंदगी का दायरा बदलना तो कम से कम आपकी नजरों में दर्ज हो जाए।
पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में जहर घोलने के अभी कुछ और दिन बाकी हैं। प्रचार तो चार दिन बाद आखिरी राज्य तेलंगाना में खत्म हो जाएगा, लेकिन मीडिया के मार्फत जहर घोलना तो राज्य की सरहद के बाहर से भी हो सकेगा, होता ही है। लोगों को यह उम्मीद करनी चाहिए, या आशंका रखनी चाहिए कि जब किसी प्रदेश में चुनाव के डेढ़-दो दिन पहले प्रचार खत्म हो जाता है, उस वक्त देश या विदेश में कोई ऐसी घटना हो सकती है, कोई ऐसा शिगूफा छोड़ा जा सकता है कि तमाम खबरें उस तरफ मुड़ जाएं, और मतदान के पहले उस राज्य के लोगों के दिमाग में भी वही बात घूमती रहें। आज देश भर में नफरत और गंदगी का जहर इस बुरी तरह फैलाया जा रहा है कि फिर यह लगने लगा है कि पांच बरस में एक बार पूरे देश में चुनाव एक साथ होने लगते, तो हर कुछ महीनों में किसी न किसी राज्य के चुनाव को लेकर यह गंदगी नहीं बिखरती रहती। आखिर कोई इंसान अपने घर पर अखबारों को बच्चों से कब तक छुपाकर रखे? कहीं न कहीं चुनाव हो रहे हैं, और चुनावों के बीच भी किसी घटना के होने पर, या किसी खास मौके पर जहर फैलाने के लिए मानो एक स्प्रे से कुछ बार छिडक़ाव और कर दिया जाता है। मीडिया अपने मिजाज के मुताबिक नफरती जहर को केक के ऊपर की आइसिंग के ऊपर की चेरी की तरह सबसे ऊपर पेश करता है। अब बहुत से लोग थककर टीवी समाचार चैनलों को देखना कम कर रहे हैं कि उनसे जहर काफी गाढ़ा निकलता है, और कई लोग कई दिनों के अखबारों को भी बच्चों से दूर रखने लगे हैं कि वे स्याही से नहीं, जहर से छपने लगे हैं।
भारतीय राजनीति में सद्भावना पूरी तरह खत्म हो चुकी है, और नेता और राजनीतिक दल एक-दूसरे के बारे में जो कहते हैं, उसे देखना भी भले इंसानों की मानसिक सेहत के लिए खतरनाक साबित हो सकता है। जिन लोगों ने ड्रैकुला फिल्म देखी होगी वे जानते हैं कि एक अच्छा भला, जेंटलमैन दिखने वाला रईस जब अपनी असली ड्रैकुला शक्ल में आकर किसी शिकार के गले में अपने लंबे हो रहे दांतों को धंसाकर उसका खून पीना शुरू करता है, तो पल भर में उसका किरदार जेंटलमैन से रक्तपिशाच जैसा कैसे हो जाता है। ठीक वैसे ही जो महान बनते हुए नेता चुनिंदा मौकों पर बड़प्पन की बातें करते हुए इतिहास में नाम दर्ज कराने की कोशिश करते हैं, वे चुनावों के मौकों पर पल भर में ड्रैकुला हो जाते हैं, और भारतीय लोकतंत्र के गले में अपने लंबे दांत घुसाकर उसका लहू पीने लगते हैं। यह बात इतनी आम हो गई है कि अब धीरे-धीरे ड्रैकुला बड़ी-बड़ी आमसभाओं में जनता के सामने, दर्जनों वीडियो-कैमरों के बीच मंच पर यह करने लगे हैं, और लोगों की जुबान पर लहू इतना लग चुका है कि वे इस पर वाहवाही करते हुए और-और की मांग करने लगते हैं।
हर चुनाव पर गंदगी और हिंसा की एक नई सुनामी की गारंटी सी रहती हैं कि वह आएगी, और सार्वजनिक जीवन के रहे-सहे शिष्टाचार को भी बहाकर ले जाएगी। वही चल रहा है। इस सुनामी में अच्छे, भले लोगों के पांव भी इस तरह उखड़ जा रहे हैं कि वे भी ऐसी ही जुबान में बहस करने लगे हैं जिस पर काउंट ड्रैकुला का एकाधिकार होना चाहिए था। अब सवाल यह उठता है कि केन्द्र सरकार के चुनाव विभाग से जब कोई उम्मीद नहीं बचती है, तो फिर किधर देखा जा सकता है? एक चुनाव आयोग नाम की एक संवैधानिक संस्था बनने के बाद सुप्रीम कोर्ट भी अपने आपको कुछ संवैधानिक जिम्मेदारियों से बरी कर लेता है, और आयोग उन जिम्मेदारियों को चुनिंदा तरीके से छूता है, तो फिर ऐसे में केन्द्र सरकार के चुनाव विभाग के खिलाफ रोजाना तो सुप्रीम कोर्ट जाया नहीं जा सकता। एक संवैधानिक संस्था के सरकारी विभाग में तब्दील हो जाने के खतरे अब आम लोगों को भी साफ-साफ दिखने लगे हैं, ऐसे में लोकतंत्र की रही-सही रीढ़ की हड्डी भी टूटती चल रही है। ऐसी संवैधानिक संस्थाओं का होना खतरनाक होता है जो कि अपनी संवैधानिक जिम्मेदारियों को तो पूरी नहीं करतीं, लेकिन संवैधानिक अधिकारों का भरपूर इस्तेमाल करती हैं। जब ऐसे औजार सत्ता के हाथ लग जाते हैं, तो फिर वे हथियार में तब्दील होने में अधिक वक्त नहीं लेते। जिसे एक हथौड़ा या घन होना चाहिए था, उस लोहे ने अपने को एके-47 में ढाल लिया, और अपने को मनोनीत करने वाले हाथों में अपने को दे दिया। टी.एन.शेषन नाम के मुख्य चुनाव आयुक्त ने प्रधानमंत्री राजीव गांधी के वक्त इस संस्था को जो साख दिलाई थी, वह अब सरकारी औजार और हथियार की शक्ल में तब्दील हो गई है। ऐसे में देश में चुनावों के वक्त तबाह होने वाले लोकतंत्र को बचाने की और कोई गुंजाइश नहीं बचती है।
कायदे की बात तो यह होती कि चुनाव आयोग प्रेमचंद की एक छोटी सी कहानी पर अमल करता कि बिगाड़ के डर से क्या इंसाफ की बात नहीं करोगे? लेकिन चुनाव आयोग नाम का यह पंच अब परमेश्वर नहीं रह गया, और वह सत्ता का पंच (अंग्रेजी का घूंसा) बन गया है, विपक्ष के चेहरे पर। यही वजह है कि विपक्ष के करेले को नोटिस जारी हो रहे हैं, और सत्ता का सल्फास लोगों के कानों में घुलते चले जा रहा है। हिन्दुस्तानी लोकतंत्र में कुछ जुमले राज करते हैं जो कि अखबारों ने फर्जी सुर्खियों की शक्ल में बरसों से चलाए हुए हैं। ये तो पब्लिक है, ये सब जानती है, या जनता का हथौड़ा जब चलता है तो तानाशाही पलट जाती है, ऐसे बहुत से हैडिंग या रिपोर्टिंग के जुमले इस्तेमाल होते हैं, और जनता की सामूहिक समझ को लेकर बड़ी इज्जत गढ़ते हैं। हकीकत तो यह है कि जब चुनाव जीतने के लिए लोकतंत्र से 8वीं पीढ़ी की रिश्तेदारी भी जरूरी नहीं रह जाती, किसी तरह की शराफत भी जरूरी नहीं रह जाती, तो फिर सामूहिक समझ नाम के झांसे पर तरस आता है। यह सिलसिला ऊंचाई से ढलान की ओर लुढक़ते हुए इतनी गहराई तक पहुंच चुका है कि इसे फिर कभी लोकतंत्र की ऊंचाई पर ले जाया जा सकेगा इसकी उम्मीद बड़ी कम लगती है। लेकिन यह बात तो अपनी जगह सच है ही कि जनता को वही, और वैसी ही सरकार मिलती है जिसकी वह हकदार होती है।
क्रिकेट वर्ल्ड कप के फाइनल मैच में अपने नाम के स्टेडियम पहुंचने वाले नरेन्द्र मोदी को हार के लिए जिम्मेदार अपशकुनी करार देते हुए कांग्रेस के बाकी लोगों के साथ-साथ राहुल गांधी भी जुट गए हैं। उन्होंने बिना नाम लिए कहा कि वहां अच्छा-भला हमारे लडक़े वर्ल्ड कप जीत जाते, लेकिन पनौती ने हरवा दिया। कांग्रेस समर्थक और मोदी विरोधी लगातार इस कम प्रचलित शब्द पनौती को लेकर मोदी पर टूटे पड़े हैं। राजनीति में यह सबसे ओछी जुबान नहीं है, और अपनी अनगिनत चुनावी सभाओं में भाषा को पाताललोक तक ले जाने वाले मोदी को कई लोग ऐसे शब्दों का ही हकदार करार दे सकते हैं। लेकिन हमारा सोचना है कि किसी की ओछी जुबान के जवाब में ओछी जुबान का इस्तेमाल ही अकेला विकल्प नहीं होता है। किसी की घटिया और गंदी जुबान का जवाब अगर साफ-सुथरी भाषा में तर्क और तथ्यों के साथ दिया जाए, तो लोग उससे प्रभावित भी होते हैं, और इस फर्क को महसूस भी करते हैं कि गंदी जुबान के जवाब में भी किसने अपने पर, अपनी जुबान पर काबू बना रखा। और जहां तक ओछी जुबान के मुकाबले की बात है, तो हिन्दुस्तान में हर चुनाव इसका वर्ल्ड कप होता है, और चुनावी सभाओं का घटियापन लोगों को पहले की तरह हक्का-बक्का तो नहीं करता है, लेकिन नए रिकॉर्ड जरूर कायम करता है।
मोदी ने घटिया जुबान और घटिया मिसालों के ऐसे रिकॉर्ड बनाए हुए हैं कि उनके खिलाफ जब ओछी जुबान बोली जाती है, तो लोग उसे भी ठीक करार देते हैं। लेकिन जैसा कि गांधी ने कहा था आंख के बदले आंख का मतलब पूरी दुनिया का अंधा हो जाना होगा, उसी तरह जुबानी गंदगी के मुकाबले जुबानी गंदगी का मतलब चारों तरफ गंदगी फैला देने के अलावा और कुछ नहीं होगा। और जब गंदगी के मैच में दोनों तरफ से गेंदों से छेडख़ानी होती है, तो फिर किसी पर तोहमत नहीं लग सकती, और गंदगी नवसामान्य हो जाती है। हिन्दुस्तान के चुनाव में यही हो रहा है। आज जब हमारे सरीखे लोग कांग्रेस जैसी पार्टी के नेताओं की भाषा में पनौती जैसे अपशकुन बताने वाले शब्दों का विरोध कर रहे हैं, तो कांग्रेस के राष्ट्रीय नेता भी टूट पड़ रहे हैं कि जब मोदी ने और भाजपा के दूसरे नेताओं ने इससे हजार गुना गंदी जुबान इस्तेमाल की थी, तब पत्रकार कहां थे? जो लोग गंदगी फेंकने के मुकाबले का मजा ले रहे हैं, उनसे तो हम कुछ नहीं कह सकते, लेकिन जो कांग्रेस के इतिहासकार रहेंगे, वे तो इस बात को दर्ज करेंगे कि नेहरू जैसी वैज्ञानिक सोच वाले देश के एक महानतम नेता की पार्टी आज पनौती जैसे शब्द का इस्तेमाल करके देश में अंधविश्वास को भी बढ़ा रही है। अपशकुनी अपने आपमें कांग्रेस की विधवा, जर्सी नस्ल के बछड़े, सौ करोड़ की गर्लफ्रेंड जितना ओछा शब्द नहीं है, लेकिन यह शब्द देश की उस वैज्ञानिक सोच के खिलाफ हैं जिसे नेहरू ने बहुत मेहनत से अपनी पूरी जिंदगी लगाकर हिन्दुस्तान में फैलाने की कोशिश की थी, और काफी हद तक कामयाबी भी पाई थी। आज सोशल मीडिया में प्रचलित और आम घटिया और ओछी जुबान को नवसामान्य मानकर अगर कांग्रेस के राहुल जितने बड़े नेता भी उसका इस्तेमाल करेंगे, देश में अंधविश्वास फैलाएंगे, तो फिर उनकी पार्टी मोदी की किसी जुबान के लिए उन पर क्या तोहमत लगा सकेगी?
हमारा ख्याल है कि चुनावी मंच से भाषण हों, संसद के भीतर कही गई बात हो, या सोशल मीडिया पर लिखी गई पोस्ट हो, अगर आप गालियों या घटिया भाषा पर उतर आते हैं, तो उसका यही मतलब होता है कि आपके पास तथ्य और तर्क चुक गए हैं। जब लोगों के पास वजनदार बातें नहीं बचतीं, तो वे हल्की गालियों पर उतर आते हैं। लेकिन याद रखना चाहिए कि ऐसी जुबान का निशाना जिस पर रहता है, उनको चोट पहुंचे या न पहुंचे, ऐसी भाषा बोलने और लिखने वाले की साख को पहले ही चोट पहुंच जाती है। सोशल मीडिया ऐसे लोगों से भरा हुआ है जो घटिया जुबान बोलते हैं, घटिया बातें बोलते हैं, लेकिन यह याद रखना चाहिए कि वे भीड़ की वाहवाही तो पा सकते हैं, लोगों के विचारों को प्रभावित नहीं कर सकते। ऐसी भाषा चुनावी सभाओं के काम की हो सकती है जहां पर जनता फूड पैकेट की गंदगी, और नेता जुबान की गंदगी छोडक़र चले जाते हैं, लेकिन जिन नेताओं को अपनी साख की फिक्र हो, उन्हें अपनी भाषा और अपनी बातें न्यायसंगत और तर्कसंगत रखनी चाहिए। हम किसी भी हिंसक और अश्लील मुकाबले में भरोसा नहीं रखते। गैरजिम्मेदार लोगों के बीच गालियों के जो मुकाबले चलते हैं, उनमें सबसे हिंसक और सबसे अश्लील लोग विजेता रहते हैं, लेकिन वे साख का मैडल नहीं पाते। यह तो भारतीय लोकतंत्र और राजनीति में पार्टियों और उनके नेताओं को तय करना है कि वे अधिक भारी-भरकम गाली देने के लिए महिलाओं की मिसालें दें, गरीबों को गाली बकें, अवैज्ञानिक और अन्यायपूर्ण बातें करें, या फिर अपनी साख कायम रखकर राजनीति की लंबी पारी खेलें। यह लोगों को खुद ही तय करना होगा। हमने अपने इस अखबार में और इससे जुड़े हुए दूसरे माध्यमों में हिंसा और अश्लीलता का इस्तेमाल नहीं किया, और जो चाहा वह लिखने और कहने में कभी शब्दों की कमी भी नहीं पड़ी। जिनका भाषा ज्ञान कमजोर होता है, जिनके सामाजिक सरोकार कम रहते हैं, जिनके राजनीति या सार्वजनिक जीवन में कोई आदर्श नहीं रहते हैं, वे लोग कई किस्म की घटिया जुबान बोलते हैं, घटिया सोच सामने रखते हैं। उनसे मुकाबले की हसरत रखने वालों के लिए हमारे पास कोई सलाह नहीं है, लेकिन हमारे पास देश के बच्चों और नौजवान पीढ़ी के लिए यह सलाह जरूर है कि भाषा अपने शिक्षकों से ही सीखें, इस देश के नेताओं से नहीं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
सुप्रीम कोर्ट ने देश के सबसे चर्चित दवा कारोबारी, स्वघोषित बाबा, रामदेव की कंपनी पतंजलि को चेतावनी दी है कि अगर उसने झांसा देने वाले दावों का इश्तहार देना बंद नहीं किया तो उस पर मोटा जुर्माना लगाया जाएगा। रामदेव आधुनिक चिकित्सा पद्धति के खिलाफ कई किस्म का झूठा प्रचार करते हुए अपनी दवाईयों के करिश्माई असर की बात करते ही रहता है। अभी जस्टिस अहसानुद्दीन अमानुल्ला और जस्टिस प्रशांत कुमार मिश्रा की बेंच ने इस कंपनी को तुरंत ही ऐसे झूठे और बरगलाने वाले इश्तहार बंद करने को कहा है। उसने कहा है कि किसी बीमारी के इलाज का झूठा दावा करने वाले ऐसे हर प्रोडक्ट पर अदालत एक-एक करोड़ रूपए जुर्माना लगाने की सोचेगी। इस पर पतंजलि के वकील ने अदालत में वायदा किया कि वे भविष्य में ऐसे कोई भी विज्ञापन नहीं छापेंगे, और प्रेस में लापरवाही से कोई भी बयान नहीं देंगे। अदालत ने इस वायदे को अपने ऑर्डर में दर्ज किया है। अदालत ने यह भी कहा कि वह एलोपैथी और आयुर्वेद के बीच किसी बहस में उलझना नहीं चाहती, लेकिन झूठे मेडिकल इश्तहारों के खतरों से निपटना जरूरी है। अदालत ने केन्द्र सरकार के वकील से भी कहा कि वह सरकार से बात करके इस खतरे से निपटने का रास्ता तय करे, और अदालत को बताए। पिछले बरस इंडियन मेडिकल एसोसिएशन की एक पिटीशन पर अदालत ने रामदेव को एलोपैथी जैसी आधुनिक चिकित्सा के खिलाफ बेबुनियाद बयानबाजी करने पर चेतावनी दी थी। उस वक्त के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस एन.वी.रमना ने कहा था कि उन्हें (रामदेव) को दूसरी चिकित्सा पद्धतियों के बारे में गैरजिम्मेदार बातें नहीं करनी चाहिए। आईएएम ने रामदेव की बयानबाजी को लगातार, योजनाबद्ध और बेकाबू झूठ फैलाने वाली कहा था।
आज हिन्दुस्तान के सोशल मीडिया पर गैरजिम्मेदार लोग बिना किसी नाम के हजार किस्म के मेडिकल दावे करते हैं, और तरह-तरह के इलाज भी बताते हैं। इनमें से बहुत से तो लोगों को खतरे में डालने वाले भी रहते हैं, लेकिन देश की आबादी का एक बड़ा हिस्सा ठलहा बैठे रहता है, और वह इसे अपनी जिम्मेदारी मान लेता है कि उसे हर किस्म के मेडिकल दावे को चारों तरफ फैलाना है। ऐसे में जब इस तबके को रामदेव सरीखे फर्जी और झूठे दावे करने वाले एक तथाकथित योगी के भगवा कपड़ों के भीतर से निकलने वाले नाटकीय दावे और मिल जाते हैं, तो फिर ठलहों के हाथ एक बड़ा औजार लग जाता है। कोरोना के पूरे दौर में रामदेव ने तबाही फैलाने का इतना बड़ा काम किया, और आधुनिक चिकित्सा व्यवस्था की साख को खत्म करने के लिए धर्म, भारत के इतिहास, संस्कृति, इन सबको हथियार बनाकर इस्तेमाल किया, और असाधारण और अभूतपूर्व खतरे के बीच उसने अकेली असरदार चिकित्सा पद्धति की विश्वसनीयता खत्म करने का एक अभियान चला रखा था। हिन्दुस्तान में धर्म का चोला ओढक़र कई किस्म गैरजिम्मेदारी के काम किए जा सकते हैं, और कई किस्म के जुर्म किए जा सकते हैं, और रामदेव यही सब करते रहा। सुप्रीम कोर्ट ने भी इस बेकाबू सुनामी पर रोक लगाने में बरसों लगा दिए, और इन बरसों में रामदेव ने अपने कारोबार को आगे बढ़ाने के लिए राष्ट्रीयता की आड़ ले ली, दूसरी कंपनियों को बहुराष्ट्रीय साजिश करार दे दिया, और मालामाल हो गया।
आज ही हिन्दुस्तान के एक बड़े प्रेस-संस्थान रिपोर्ट्र्स कलेक्टिव ने एक बड़ी रिपोर्ट प्रकाशित की है जिसमें उसने यह स्थापित किया है कि पतंजलि समूह ने किस तरह से संदिग्ध मुखौटा कंपनियां बनाकर, अरावली की जंगल-जमीन खरीदने का फंड खड़ा किया, और फिर इसे जमीन-जायदाद की तरह बेचा। कहने के लिए रामदेव ने योग गुरू के रूप में कारोबार शुरू किया था, और उसकी दवा कंपनी से जुड़ी हुई बहुत सी मुखौटा कंपनियां, और संदिग्ध कंपनियां उसके लिए हरियाणा में जमीनें खरीद रही हैं, और वे भारी मुनाफे पर इन जमीनों की बिक्री का कारोबार कर रहे हैं। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि इसी बरस फरवरी में सरकार ने संसद को बताया था कि उसने तीन बरस में करीब सवा लाख मुखौटा कंपनियों को बंद किया है। अब समझ पड़ता है कि पतंजलि से जुड़ी हुई इन मुखौटा कंपनियों पर केन्द्र सरकार ने कुछ नहीं किया। जमीनों की ऐसी बिक्री से ये कंपनियां जो मुनाफा कमा रही हैं, वह पतंजलि साम्राज्य की दूसरी कंपनियों में डाला जा रहा है, और वहां से अरावली पर्वतमाला के हिस्सों में और जमीनें खरीदी जा रही हैं। इस समाचार-संस्थान के रिपोर्टरों ने ऐसे एक बड़े मकडज़ाल के सुबूत जुटाए हैं जिनसे यह पूरा कारोबार किया जा रहा है। इस रिपोर्ट में यह भी पाया गया कि 2014 के बाद की सरकारों ने पतंजलि के इस जमीन-जायदाद के मुखौटा-कारोबार को मदद करने वाले नियम-कायदे बनाए।
हिन्दुस्तान में अंधविश्वास रखने वाले लोगों के बारे में जब भी अंदाज लगाना हो तो जस्टिस मार्केण्डेय काटजू की इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि 90 फीसदी हिन्दुस्तानी बेवकूफ हैं। यह बात बहुत से लोगों को अपमानजनक लग सकती है, और हमारी तरह के कुछ तर्कवादी लोग 90 फीसदी के आंकड़ों को भी कम-ज्यादा मान कर सकते हैं, लेकिन यह बात अपनी जगह बनी हुई है कि जब अंधविश्वास की बात आती है तो हिन्दुस्तान का एक बहुमत जिंदा इंसानों से लेकर, कभी न रहे इतिहास तक पर अंधविश्वास कर लेता है, और अपनी धर्मान्धता या राष्ट्रीयता में जान देने पर भी उतारू हो जाता है। इस सिलसिले का ताजा नमूना रामदेव है जो कि अपनी दाढ़ी, अपने भगवा कपड़े, और धर्म-योग की बातों को लेकर देश का बहुत बड़ा फर्जीवाड़ा खड़ा कर चुका है, और अब जाकर वह सुप्रीम कोर्ट के कटघरे में आया है। देश के लोगों को अपनी अंधश्रद्धा पर काबू रखना चाहिए क्योंकि इससे वे आने वाले भविष्य के पीढिय़ों को भी खत्म कर रहे हैं।
सुप्रीम कोर्ट में अभी एक दिलचस्प मामला सामने आया जिसमें एक याचिका लगाई गई थी कि हाईवे पर जो लोग पैदल टहलने जाते हैं, उनकी सुरक्षा का इंतजाम ठीक से करना चाहिए। अदालत ने इसमें एकदम ही आलोचनात्मक रवैया अपनाते हुए यह साफ कर दिया कि लोगों को राजमार्ग पर घूमना नहीं चाहिए। यह मामला गुजरात हाईकोर्ट के एक फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में दायर अपील का था जिसमें हाईकोर्ट ने कहा था कि हाईवे पर पैदल चलने वालों की हिफाजत पर वह सरकार को कोई आदेश नहीं दे सकता, और लोगों को केन्द्र सरकार के राजमार्ग मंत्रालय से संपर्क करना चाहिए। हाईकोर्ट के खिलाफ याचिकाकर्ता सुप्रीम कोर्ट पहुंचे तो सुप्रीम कोर्ट ने वकील से सवाल किया कि पैदल लोग हाईवे पर कैसे आते हैं? जजों ने यह भी कहा कि ये सडक़ हादसे तब तक होते रहेंगे जब तक पैदल चलने वाले लोग उन जगहों पर मिलेंगे जहां उन्हें नहीं होना चाहिए। अदालत ने कहा कि हाईवे का मतलब यही होता है कि वह साधारण रास्ते से अलग है, और लोगों को वहां नहीं घूमना चाहिए। अदालत ने कहा कि अगर लोग ऐसे नियम तोड़ते हैं तो अदालत कैसे कह सकती है कि वे नियम तोड़ सकते हैं। दो जजों की बेंच ने कहा कि दुनिया में कहीं भी लोग हाईवे पर ऐसे पैदल नहीं घूमते। जजों का रूख था कि यह पूरी तर्कहीन पिटीशन है, और इसे जुर्माने के साथ खारिज करना चाहिए था। अदालत ने वकील को याद दिलाया कि अभी इस पर जुर्माना लगा नहीं है।
हम इस मामले को एक नमूना मानकर हिन्दुस्तान के लोगों की सोच और यहां की जिंदगी में रग-रग में बसी हुई अराजकता की बात करना चाहते हैं। लोग ट्रैफिक के नियम मानना नहीं चाहते, जबकि उनकी अराजकता से दूसरों की जिंदगी खतरे में पड़ती है। वे अगर सिर्फ अपनी जिंदगी किसी निजी जगह पर खतरे में डालें, तो आत्महत्या की कोशिश अब अपराध नहीं रह गई है, उनकी खुदकुशी की हसरत हो तो वो किसी निजी जगह पर इसे पूरा करें, लेकिन सार्वजनिक जगहों पर, ट्रैफिक की जगहों पर दूसरों की जिंदगी को खतरे में डालने का हक किसी को भी नहीं है। इसलिए गुजरात हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के इस रूख से हम सहमत हैं। अदालत की यह बात भी सही है कि दुनिया में कहीं भी लोगों को इस तरह की छूट नहीं मिलती है कि वे हाईवे पर पैदल चलें। अब हिन्दुस्तान के साथ एक दिक्कत यह आ सकती है कि यहां कई किस्म की तीर्थयात्राओं में लोग पैदल चलते हैं, और यह सवाल उठ सकता है कि ऐसे लोगों का क्या होगा? लेकिन दूसरा सवाल यह भी उठता है कि जब जानवरों को बचाते हुए गाडिय़ां पैदल लोगों को कुचल देती हैं, तो पैदल लोगों को बचाते हुए गाडिय़ों के और भी किस्म के एक्सीडेंट हो सकते हैं। यह बात भी पूरी तरह साफ है कि हिन्दुस्तान में धर्म के नाम पर, या राजनीतिक प्रदर्शन के नाम पर, किसी और किस्म के हिंसक आंदोलन के तहत सडक़ों पर कई तरह के उत्पात होते हैं, और इनमें बहुत सी मौतें भी होती हैं। इसलिए जहां सार्वजनिक सुरक्षा की बात आती है, वहां पर निजी या किसी गिरोहबंदी की अराजकता को खत्म किया ही जाना चाहिए।
कल के दिन अगर लोग ट्रेन की पटरियों पर पखाना करने को अपना हक मान लेंगे, और ट्रेन से कटने पर मुआवजा मांगेंगे, तो क्या उस मांग को सही माना जाए? जो लोग सडक़ों के डिवाइडर फलांगकर आर-पार आते-जाते हैं, वे किस तरह की सुरक्षा के हकदार बनाए जा सकते हैं? न सिर्फ लोकतंत्र में बल्कि किसी भी तरह के तंत्र में सार्वजनिक सहूलियतें कहीं न कहीं निजी मनमानी को काबू करके ही दी जा सकती हैं। कल को लोग ट्रेन और बसों में थूकने या मूतने को लेकर अदालत तक दौड़ लगाएं, और यह साबित करने की कोशिश करें कि उनके लिए उस पल यह बात उसी जगह जरूरी थी, तो फिर बाकी लोगों के हक का क्या होगा? क्या बाकी लोग किसी की पीक या पेशाब पर बैठकर सफर करेंगे? सुप्रीम कोर्ट को इस पिटीशन पर जुर्माना लगाना ही था क्योंकि यह नियमोंं को तोडऩे और अराजकता को बढ़ाने की नीयत रखती है। इसमें किसी की जिंदगी में आ रही दिक्कत को कम करने की कोशिश नहीं थी।
भारत वैसे भी सार्वजनिक जगहों पर निजी लोगों के हक को दूसरों के प्रति जिम्मेदारी से अलग करके चलने वाला देश है। यहां पर अपने हक का दावा किसी भी दूसरे के हक के ऊपर रखा जाता है, और सार्वजनिक जीवन की तमीज यहां लोगों को छू भी नहीं गई है। यह देश बहुत ही असभ्य समाज है, और लोगों का हर तरफ थूकना, हर कोने पर मूतना इस देश को बाकी दुनिया के सभ्य देशों के मुकाबले बहुत ही कमजोर ठहराता है। हिन्दुस्तानियों में सामूहिक और सार्वजनिक जिम्मेदारी की भावना छू भी नहीं गई है। लोग सडक़ों सहित तमाम किस्म की सार्वजनिक जगहों का पूरी तरह नाजायज इस्तेमाल करने को अपना हक मानते हैं, और प्रदेशों में शासन या शहर-कस्बे में प्रशासन की भी इतनी हिम्मत नहीं पड़ती कि ऐसे आदतन अराजक लोगों पर कोई कार्रवाई की जा सके। आज सिर और कंधे के बीच मोबाइल दबाए हुए तिरछे सिर सहित दुपहिया चलाने वाले लोग खतरा बने रहते हैं, लेकिन उन्हें रोकने की कोई कोशिश नहीं होती। यह सारा सिलसिला खत्म किया जाना चाहिए। और हिन्दुस्तानी लोग जब दुनिया के सभ्य देशों में जाते हैं तो वहां महंगा जुर्माना देते ही एकदम से तमीज वाले बन जाते हैं। हिन्दुस्तान में भी जुर्माना इतना बढ़ाना चाहिए कि उसे पटा देने का आज का अहंकार खत्म किया जाना चाहिए। और चूंकि सुप्रीम कोर्ट हर छोटी-छोटी बात में फैसले नहीं दे सकता, इसलिए सरकार और समाज को ही जिम्मेदारी दिखानी चाहिए।
विधानसभा चुनावों के चलते हुए राजनीति को जीना और उस पर लिखना पिछले महीने भर में अनुपात से कुछ अधिक ही हुआ है। अभी भी पॉलीटिक्स के अलावा क्रिकेट ही खबरों में है, और लिखने के लिए कोई दूसरा मुद्दा ढूंढना कुछ मुश्किल होता है। लेकिन जिंदगी राजनीति और क्रिकेट तक सीमित नहीं है, उसके दूसरे छोटे-छोटे बहुत से ऐसे पहलू हैं जो कि बहुत मायने रखते हैं, फिर चाहे वे खबरों में उतने बड़े न दिखते हों। अब जैसे यूपी के बदायूं की खबर है कि कल वहां एक बेटा बाप पर जमीन अपने नाम कराने का दबाव डाल रहा था। वह 9 साल से बाप से अलग रह रहा था, और कल उसने अपने साथियों सहित बाप के खेत पहुंचकर उसे दौड़ा-दौड़ाकर गोलियां मारी, और कत्ल कर दिया। जिस वक्त यह हमला हुआ, आसपास और भी किसान थे, लेकिन कोई बचा नहीं पाए। इसी के साथ ही अभी चार दिन पहले की एक और खबर याद पड़ती है जिसमें देश के एक बड़े उद्योगपति रेमंड ब्रांड के मालिक गौतम सिंघानिया की बीवी उनके बंगले के फाटक के बाहर बैठी दिख रही है, और उसे भीतर घुसने नहीं दिया जा रहा है। इसके कुछ घंटे बाद गौतम सिंघानिया ने 32 साल के संबंधों और 24 साल की शादी के बाद अपनी बीवी नवाज मोदी से तलाक की घोषणा की है। बंगले की दीवाली पार्टी के दौरान बीवी को फाटक के बाहर ही रोक रखा गया था। लोगों को इस घटना से कुछ अरसा पहले का वह वाकया भी याद पड़ा जब इसी गौतम सिंघानिया ने पूरा कारोबार खड़ा करने वाले अपने बाप, विजयपथ सिंघानिया को कारोबार और घरबार, सबसे बेदखल कर दिया था। पद्मभूषण से सम्मानित देश के एक चर्चित उद्योगपति, और विमान और गुब्बारे उड़ाने के कुछ रिकॉर्ड बनाने वाले विजयपथ सिंघानिया को आखिरी वक्त बदहाली में गुजारना पड़ा था क्योंकि उन्होंने सब कुछ बेटे के हवाले कर दिया था।
ऐसे मामलों से लोगों को कुछ सबक लेने चाहिए। वैसे तो अधिकतर आबादी गरीब रहती है, जो कि कर्ज के अलावा आल-औलाद पर कुछ छोड़ नहीं जाती। लेकिन जो लोग आल-औलाद को कुछ दौलत दे जाते हैं, उन्हें ऐसा करते हुए कुछ चीजों का ध्यान रखना चाहिए। पहली बात तो यह कि जायदाद मिलने के पहले औलाद का बर्ताव जितना अच्छा रहता है, जरूरी नहीं कि सब कुछ उनके नाम हो जाने के बाद भी वे उतने भले बने रहें। बहुत से मामलों में मालिकाना हक मिलते ही आल-औलाद का बर्ताव बदल जाता है। और एक बार सब कुछ दे देने के बाद बूढ़े मां-बाप सिर्फ एक गुजारे के इंतजाम के लिए अदालत तक जा सकते हैं जो कि अदालत की आम दिक्कतों के साथ ही उन्हें मिल पाता है। ऐसी नौबत से बचना ठीक है। लोगों को अपनी आगे की लंबी, पहाड़ सी, बीमार जिंदगी का ख्याल रखते हुए अपना इंतजाम पहले करना चाहिए, उसके लिए पर्याप्त जमीन-जायदाद रखनी चाहिए, और उसके बाद ही आल-औलाद की मदद करनी चाहिए। इसके बिना सरकारी या किसी समाजसेवी संस्थान के वृद्धाश्रम के अलावा दूसरी जगह बचती नहीं है। फिर पुराने लोगों ने समझदारी की एक बात की हुई है कि पूत कपूत तो का धन संचय, पूत सपूत तो का धन संचय। मतलब यह कि अगर औलाद काबिल है तो उसके लिए धन छोडक़र जाने की जरूरत नहीं है, और अगर औलाद नालायक है तो भी वह अपने लिए छोड़ी गई दौलत को बर्बाद कर ही देगी। मां-बाप को संतानमोह से बाहर निकलना चाहिए, और आल-औलाद को जिंदा रहने से अधिक मदद नहीं करनी चाहिए। खासकर यह मदद तो कभी नहीं करनी चाहिए कि अपने बुढ़ापे को दांव पर लगाकर वे सब कुछ बच्चों को दे दें।
यह मां-बाप की भी जिम्मेदारी होती है कि वे बच्चों को जिम्मेदार बने रहने दें। उनके सामने जिंदगी की चुनौतियां आने दें, और अगर उनकी कोई मदद करनी भी है, तो वह इतनी किस्तों में होनी चाहिए कि वह उन्हें निठल्ला बनने को न उकसाए। औलाद काबिल हो, या नालायक हो, मां-बाप की दौलत पाकर मां-बाप को लात मारने का खतरा तो हमेशा ही बने रहता है। इसलिए एक ऐसे दिखावे का झांसा बने रहने देना चाहिए कि दो पीढिय़ों के बीच परस्पर प्रेम और सम्मान के अच्छे संबंध हैं, और किसी भावनात्मक वसीयत से ऐसे संबंधों को खत्म नहीं करना चाहिए। हर परिवार को यह जानकारी भी रहनी चाहिए कि किस तरह आज बहुत से बैंक मकान या दूसरी जायदाद पर एक रिवर्स-लोन भी देते हैं। जिसमें लोग अपनी ही संपत्ति में रहते हुए भी हर महीने किस्तों में कर्ज पा सकते हंै, और उनके गुजर जाने के बाद बैंक ऐसी संपत्ति को बेचकर अपने दिए गए कर्ज की वसूली करके बची हुई रकम वसीयत के मुताबिक आल-औलाद को दे सकते हैं। हमारा ख्याल है कि सरकार और सामाजिक संगठनों को बुजुर्गों की जागरूकता के कुछ ऐसे कार्यक्रम चलाने चाहिए जिन्हें उन्हें उनकी अगली पीढ़ी तो घर तोडऩे वाले और घर में आग लगाने वाले मान सकती है, लेकिन जिनसे बुजुर्गों का बुढ़ापा और उनके अंतहीन आखिरी बरस धर्मों में बताए गए नर्क की तरह न गुजरें। लोगों में एक जागरूकता लानी चाहिए, और जरूरत हो तो सरकार भी ऐसा कानून बना सकती है कि मां-बाप चाहकर भी अपनी संपत्ति के एक अनुपात से अधिक आल-औलाद को न दे सकें, और उनके पूरे जीवन तक एक हिस्सा उनके इस्तेमाल के लायक बचा रहे। ऐसा कानून नई पीढ़ी को बूढ़े मां-बाप के भावनात्मक शोषण करने से रोकेगा। हम पहले भी एक बार सुझा चुके हैं कि वसीयत में संपत्ति पूरी की पूरी दे देने का प्रावधान नहीं होना चाहिए, और मां-बाप के मरने तक उनके काम चलाने लायक इंतजाम उनके नाम पर ही रहना चाहिए। इस बारे में कानून बनाने वाले लोग भी सोचें।
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हिन्दुस्तान का चुनावी माहौल इन दिनों राजस्थान के फलौदी नाम के शहर के किसी सट्टाबाजार कहे जाने वाले कारोबार के नाम से फैलाए जा रहे पोस्टरों से भरा हुआ है। हर पार्टी अपनी-अपनी सहूलियत से फलौदी सट्टाबाजार का रूझान गढ़ रही है, और उसे सोशल मीडिया पर लोगों को पहुंचाया जा रहा है। जिन लोगों ने न कभी सट्टा लगाया होगा, न ही फलौदी गए होंगे, वे लोग भी चुनावी नतीजों को ऐसे पोस्टरों से तय कर रहे हैं, और एक-दूसरे को बता रहे हैं कि आज तक कभी भी फलौदी का सट्टाबाजार गलत साबित नहीं हुआ है। जिन पोस्टरों पर ऐसा दावा किया जाता है, उन्हें 20 मिनट में कम्प्यूटर पर कोई नौसिखिए फोटोशॉप ऑपरेटर भी बना सकते हैं, उनमें जितना चाहे उतना आंकड़ा भर सकते हैं। आज 21वीं सदी में देश के लोगों की लोकतांत्रिक परिपक्वता का हाल यह है कि बेनाम और गुमनाम गढ़े हुए सट्टाबाजार रूझान को वे देश का लोकतांत्रिक भविष्य बता रहे हैं।
एक वक्त था जब हिन्दुस्तान में किसी अफवाह को फैलाने के लिए बीबीसी के नाम का सहारा लिया जाता था। उस वक्त टीवी चैनल नहीं हुआ करते थे, और रेडियो बीबीसी भरोसेमंद खबरों के लिए जाना जाता था। लेकिन उसके बुलेटिन दिन में शायद दो-तीन बार अलग-अलग समय पर आते थे, बहुत कम लोगों के पास रेडियो-ट्रांजिस्टर रहते थे, और ऐसे में किसी अफवाह को बीबीसी का नाम लेकर फैलाना इसलिए आसान रहता था कि उसके रेडियो-समाचार बुलेटिन छपे हुए अखबार की तरह तो सामने रहते नहीं थे। ऐसे में हिन्दुस्तान की अधिकतर बड़ी अफवाहें बीबीसी के हवाले से फैलाई जाती थीं। हिन्दुस्तानी लोकतंत्र की दुर्गति इतनी हो गई है कि एक वक्त यहां बीबीसी के नाम पर अफवाहें फैलती थीं, और अब सट्टाबाजार के नाम पर। और तो और देश का एक सबसे बड़ा कारोबारी अखबार, इकानॉमिक टाईम्स भी फलौदी सट्टाबाजार के हवाले से खबरें बना रहा है कि बाजार किसकी कितनी जीत-हार पर कितना रेट दे रहा है। जो हिन्दुस्तान के कुछ अखबार चुनावी सर्वे नहीं छापते हैं क्योंकि बहुत से सर्वे फर्जी रहते हैं, गढ़े हुए रहते हैं, या माना जाता है कि वे खरीदे हुए रहते हैं, लेकिन ऐसे अखबार भी सट्टाबाजार के हवाले से जीत-हार पर लगने वाले रेट छापते हैं। अब सवाल यह उठता है कि सट्टाबाजार जो कि हिन्दुस्तान में जुर्म है, उसके हवाले से खबरें बनाना जुर्म क्यों नहीं होना चाहिए? क्या कोई ऐसी खबर भी कल के दिन बना सकते हैं कि हत्यारे ने कत्ल करने के तरीके के बारे में कौन सी तरकीबें सुझाई हैं, या एटीएम की मशीन को किस तरह से काटकर नोट निकाले जा सकते हैं? आज हालत यह हो गई है कि सट्टाबाजार के बेनाम और गुमनाम पोस्टर हवा में तैर रहे हैं, और अखबार और टीवी वाले उन्हें कटी पतंग की तरह लपककर पकड़ रहे हैं, और फिर अपना धागा बांधकर आसमान पर उड़ा रहे हैं।
इस देश के लोगों की जागरूकता, उनकी वैज्ञानिक समझ, और उनकी सोच को इस हद तक बर्बाद कर दिया गया है कि कल तक क्रिकेट पर लगने वाला सट्टा, अब लोकतंत्र के भविष्य को भी तय कर रहा है। अगर फलौदी के सट्टाबाजार को ही देश-प्रदेश की सरकारें बनानी हैं, तो फिर चुनाव नाम का यह पाखंड किया ही क्यों जाए? फलौदी वाले रेट खोलें, और देश की जनता उसमें से जिस पर सबसे अधिक दांव लगाए उसी को जीता हुआ मान लिया जाए। लोकतांत्रिक समझ आधी सदी से अधिक वक्त में किसी तरह विकसित हो पाई थी कि पिछले दस बरसों में उसको खत्म करने की तमाम कोशिशें हो गईं। नतीजा यह है कि आधी सदी पहले जो देश बीबीसी के नाम पर ही अफवाहों पर भरोसा करता था, अब वह सट्टाबाजार के नाम पर भरोसा करता है, लोकतंत्र में गिरावट का यह एक बड़ा सुबूत दिखता है।
बहुत से ऐसे हादसे होते हैं जिन्हें लेकर कोई जागरूकता नहीं फैल पाती। जैसे सडक़ों पर आए दिन लोग मारे जाते हैं, लेकिन उनसे कोई सबक नहीं लेते, न ही सरकारें, और न ही सडक़ों को इस्तेमाल करने वाले बाकी लोग। ऐसे में जब कोई चर्चित हादसा होता है, तो कम से कम उसके बहाने एक ऐसी चर्चा छिडऩी चाहिए कि लोगों का ध्यान उस तरफ जाए, सरकारें भी थोड़ा संभलकर बैठें, और सबका कुछ भला हो सके। यह बात आज सुबह-सुबह राजस्थान में हुई एक सडक़ दुर्घटना से सूझ रही है जिसमें प्रधानमंत्री की सभा में सुरक्षा इंतजाम के लिए जा रहे पुलिसवालों की एक कार एक बड़े ट्रक से जा भिड़ी, और छह पुलिसवालों की मौत हो गई, दो बुरी तरह जख्मी हैं, और गंभीर हैं। चूंकि यह मामला प्रधानमंत्री की सभा के इंतजाम से जुड़ा हुआ है, शायद इसलिए इसकी चर्चा पर कुछ लोग ध्यान दें।
हिन्दुस्तान सडक़ हादसों के मामलों में दुनिया का एक सबसे खराब देश माना जाता है जहां पर सडक़ों की हिफाजत को सरकार के ही भ्रष्ट अमले खुलेआम कानून तोडऩे वाले ट्रांसपोर्ट कारोबारियों को बेचते हैं, और जो लोगों की मौत की कीमत पर भी अंधाधुंध गाडिय़ां चलवाते हैं। हम इसी एक घटना में इस तरह की जिम्मेदारी तय नहीं कर रहे हैं, लेकिन हम इतना जरूर कहना चाहते हैं कि सडक़ों के बहुत सारे हादसे आरटीओ और ट्रैफिक पुलिस जैसे भ्रष्ट विभागों की वजह से होते हैं, और देश में हर बरस डेढ़ लाख या अधिक इंसान मारे जाते हैं। भारत सरकार के 2021 के आंकड़ों के मुताबिक देश की सडक़ों पर हर दिन 422 से अधिक मौतें होती हैं, और इन मौतों में 67 फीसदी मौतें 18 से 45 बरस की उत्पादक उम्र के लोगों की रहती है जिससे कि देश में कामकाजी लोगों का एक बड़ा नुकसान भी होता है। बहुत अधिक आंकड़ों का कोई मतलब नहीं है, लेकिन आज की ही इस ताजा दुर्घटना को लेकर सबको यह सोचना चाहिए कि किस तरह सडक़ हादसों को कम किया जाए। हम अपने अखबार और यूट्यूब चैनल पर लगातार जागरूकता के लिए हेलमेट और सीटबेल्ट लगाने के अभियान चलाते रहते हैं। लेकिन जब तक ट्रैफिक और आरटीओ के अमले सरकार के अपने खुद के नियमों को ठीक से लागू नहीं करेंगे, तब तक हिन्दुस्तानियों पर किसी जागरूकता के अभियान का कोई असर नहीं होना है। जागरूकता हिन्दुस्तानियों पर उतना असर नहीं करती है जितना कि सडक़ किनारे कड़ाई बरतते पुलिसवाले कर सकते हैं। जब देश में सडक़ सुरक्षा के कानून बड़े कड़े बने हुए हैं, तो फिर किसी प्रदेश या शहर की पुलिस को उन्हें लागू न करने का हक क्यों रहना चाहिए? इस घटना से ही केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों को संभलकर बैठना चाहिए, और हिन्दुस्तानी सडक़ों को अधिक सुरक्षित बनाना चाहिए। यह बात तो तय रहती है कि सडक़ों पर होने वाली मौतों के लिए जरूरी नहीं है कि मरने वाले जिम्मेदार रहते हों, बहुत से बेकसूर लोग भी जिंदगी खो सकते हैं, खोते ही हैं। इसलिए हर नागरिक का यह हक भी है कि वे सुरक्षित सडक़ पाएं, और सरकारें जब रोड टैक्स लेती हैं, तो सडक़ बनाना, मरम्मत करना, और उन पर कानून व्यवस्था बनाए रखना, यह सब जिम्मेदारी सरकार की ही रहती है।
यूपी के जौनपुर से जुर्म की एक खबर सामने आई है जिसमें एक पत्नी किसी और के साथ प्रेमसंबंध में पड़ी, और फिर प्रेमी के साथ मिलकर उसने पति की हत्या करवाई, और उसी प्रेमी ने लाश ले जाकर दूर फेंक दी। पुलिस को कत्ल की साजिश तक पहुंचने में अधिक वक्त नहीं लगा क्योंकि इन दिनों मोबाइल फोन के कॉलडिटेल्स, फोन की लोकेशन जैसी जानकारी पल भर में निकल आती है, और प्रेमसंबंध या दूसरे किस्म के अंतरंग संबंध वाले लोग जाहिर तौर पर एक-दूसरे के अधिक संपर्क में रहते हैं, और ये जानकारियां आनन-फानन साजिश को उजागर कर देती हैं। अब इसमें से यूपी और जौनपुर को हटा दिया जाए तो यह खबर हिन्दुस्तान की किसी भी छोटे-बड़े शहर से आई हुई हो सकती है, क्योंकि हिन्दुस्तान जैसे देश का शायद ही ऐसा कोई प्रदेश हो जहां साल-छह महीने में ऐसे कुछ मामले न होते हों। पति-पत्नी के बीच, प्रेमी-प्रेमिका के बीच, कत्ल में कुछ भी अनहोनी नहीं रह गई है, कुछ अटपटा नहीं रह गया है।
अब सवाल यह उठता है कि जब देश के कानून और समाज के रिवाज के मुताबिक तलाक कोई बहुत अटपटी बात नहीं है, हर दिन कुछ तलाक होते ही हैं, और शायद ही कोई तबका तलाक से अछूता रहता हो। ऐसे में लोग आए दिन कातिलों की गिरफ्तारी की खबर भी पढ़ते हैं, और कत्ल जैसे जुर्म में उलझ भी जाते हैं। लोगों से उम्मीद की जाती है कि उन्हें देश की कानून की कम से कम कुछ समझ तो रहे, और सामान्य समझबूझ से परे, अखबारों में आने वाली खबरों को ही कोई देख लें, तो भी उन्हें यह समझ आ जाएगा कि कातिल अधिक वक्त तक नहीं बच पाते। शायद एक फीसदी मामले ही ऐसे रहते होंगे जिनमें कातिलों की गिरफ्तारी में महीना-पन्द्रह दिन से अधिक का वक्त लगता हो। फिर ऐसे में लोग आसपास के लोगों का कत्ल करते हैं, तो उन्हें यह समझ तो रहनी चाहिए कि पुलिस सबसे पहले करीबी लोगों से जांच शुरू करेगी, और ऐसे में आसपास के किसी के विवाहेत्तर प्रेमसंबंध उजागर होते ही हैं, और उसके बाद अगर जुर्म उससे जुड़े हुए हैं, तो पकड़ाना महज कुछ दिनों की बात रहती है। इसलिए अगर ऐसे कातिल करीबी लोगों का कत्ल करके भी अपने आपको महफूज महसूस करते हैं, तो यह उनमें अक्ल की कमी का एक पुख्ता सुबूत रहता है।
कुछ लोग बहुत पहले से यह बात कहते आए हैं कि प्यार अंधा होता है। ऐसी घटनाओं से यह भी लगता है कि या तो प्यार लोगों की सोचने-समझने की ताकत छीन लेता है, या फिर वे सामान्य समझ भी नहीं रखते, और खतरों का अहसास नहीं होता है। लेकिन यहां पर अपराधी को बचाने की नीयत नहीं है, और इसीलिए हम मुजरिम के पकड़े जाने के खतरे, और सजा पाने की गारंटी पर अधिक बात नहीं करना चाहते। हमारी फिक्र यह है कि अगर लोगों का एक-दूसरे के साथ रहना मुमकिन नहीं रह गया है, तो फिर लोग एक-दूसरे से अलग होकर सिरे से नई जिंदगी क्यों बसाना नहीं चाहते? एक तलाक और दूसरी शादी, इसमें क्या दिक्कत रहती है? हो सकता है कि ऐसे तलाक में कुछ बरस लग जाएं, लेकिन यह तो तय है कि ये बरस उम्रकैद से कम ही होंगे। इसके साथ-साथ ऐसे किसी जुर्म के बाद कम से कम दो-तीन परिवार पूरी तरह से तबाह होते हैं, पत्नी, पति, और प्रेमी, इनमें से जो मारे जाएं, और जो जेल जाएं, सबके परिवार, बच्चे, सबके लिए तबाही का दौर आता है।
यह सिलसिला इस सामाजिक सोच की वजह से अधिक होता दिखता है कि तलाक अच्छी बात नहीं है। समाज और परिवार दोनों ही तलाक टालते रहने के हिमायती रहते हैं, जो कि एक हिसाब से ठीक भी है कि पति-पत्नी की तनातनी बहुत से मामलों में वक्त के साथ खत्म हो जाती है। लेकिन जब मामला खून-खराबे तक पहुंचने लगे, तो कातिल बनने के बजाय तलाकशुदा बनना बेहतर माना जाना चाहिए।
छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव का मतदान पूरा हो जाने पर जो आंकड़े सामने आ रहे हैं उनमें सबसे ही हैरान करने वाले आंकड़े राजधानी रायपुर के हैं। यहां की चार सीटों पर 55 से 60 फीसदी के बीच वोट डले हैं। इनमें से कुल एक विधानसभा सीट ने 60 फीसदी वोट देखे हैं। इन चारों सीटों को पिछले कुछ चुनावों से देखें, तो 2008, 2013, 2018 से भी खासे कम वोट इन सीटों पर पड़े हैं। अब सवाल यह उठता है कि जो सबसे सुविधा-संपन्न शहर है, वहां पर ऐसी दुर्गति क्यों हो रही है कि आधा किलोमीटर के भीतर मतदान केन्द्र होने पर भी वोटर घर बैठे हुए हैं। हर किसी के पास गाडिय़ां हैं, लेकिन वोट डालने नहीं जा रहे हैं। कहने के लिए इन चारों सीटों पर कहीं हिन्दू-मुस्लिम के मुद्दे थे, तो कहीं ब्राम्हण और गैरब्राम्हण के। कहीं म्युनिसिपल के मुद्दों को लेकर नाराजगी थी, तो अखबारों के दो-चार पेज हर दिन इस शहर की बदहाली से भरे रहते थे। ऐसे में लोगों को या तो सत्ता पलट के लिए, या किसी नए उम्मीदवार को जिताने के लिए अधिक संख्या में बाहर आकर वोट डालने थे, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। अब नक्सली हिंसा और सुरक्षाबलों की भारी मौजूदगी वाले, जंगलों में बसे बस्तर के गांवों के लोगों ने बड़ी संख्या में वोट डाले हैं। कई जगहों पर तो राजधानी रायपुर से डेढ़ गुना तक वोट डले हैं। और वोटरों की जागरूकता के लिए होने वाले तमाम कार्यक्रम इसी राजधानी रायपुर से शुरू होते हैं, लेकिन वोटर इस बार जिस हद तक उदासीन थे, उससे इस शहर के उम्मीदवारों और पार्टियों को लेकर कई तरह के सवाल खड़े होते हैं। चुनाव तो हर पांच बरस में होते ही रहते हैं, इसलिए जिन जगहों पर वोट इतने कम पड़े हैं, उनके बारे में चुनाव आयोग, सरकार, पार्टियों, और प्रेस को भी सोचना चाहिए कि आगे क्या किया जा सकता है? ऐसे सीमित वोटों का मतलब तो यह भी निकलेगा कि बहुत मामूली वोटों से लोग जीत जाएंगे। ऐसी भला क्या वजह हो सकती है कि इसी राजधानी रायपुर से लगे हुए धरसीवां में यहां से करीब डेढ़ गुना वोट डले, लगे हुए आरंग में डेढ़ गुना वोट डले, और लगे हुए अभनपुर में डेढ़ गुना से ज्यादा वोट डले, ऐसा कैसे हो सकता है? कैसे राजधानी की इन चार सीटों के मतदाता पिछले किसी भी चुनाव के मुकाबले कम दिलचस्पी रखें, और आसपास की लगी हुई और तमाम सीटों से भी कम दिलचस्पी रखें! इसकी वजहें पता लगानी चाहिए, क्योंकि इन्हीं के बारे में पैसा, मुर्गा, दारू, सब कुछ बांटने की ढेर-ढेर खबरें भी थीं। यह एक रहस्य है, और वार्ड स्तर पर किसी को इसका अध्ययन करना चाहिए कि पिछले चुनाव से इस चुनाव तक मतदान केन्द्रों पर क्या फर्क पड़ा है, और क्यों फर्क पड़ा है।
उत्तराखंड के उत्तर काशी में एक सुरंग ढह जाने से 6 दिनों से 40 मजदूर फंसे हुए हैं। उनको बचाने की कई तरह की कोशिश चल रही है जिनमें थाईलैंड और नार्वे की तजुर्बेकार टीमें भी शामिल हो गई हैं। सुरंग के मलबे में खुदाई करके बचाने की कोशिश जारी है, और तब तक के लिए खाना और ऑक्सीजन भेजने को कुछ पाईप लगाए गए हैं। उत्तराखंड में चारधाम परियोजना के नाम से बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री, और यमुनोत्री के तीर्थों को जोडऩे के लिए बड़े पैमाने पर कंस्ट्रक्शन चल रहे हैं जिनमें सुरंगें भी शामिल हैं। दूसरी तरफ उत्तराखंड में ही दस बरस पहले केदारनाथ में ऐसी भयानक बाढ़ देखी थी कि जिसमें हजारों लोग मारे गए थे, और बड़े पैमाने पर तबाही हुई थी। इसके साथ-साथ आगे-पीछे इन इलाकों में कभी भूकम्प आता है, कभी बादल फटते हैं, भूस्खलन तो चलते ही रहते हैं, और तमाम सरकारें इस पूरे इलाके में अधिक से अधिक निर्माण कर लेना चाहती हैं। नेता, अफसर, ठेकेदार, इन सबके लिए बड़े-बड़े निर्माण जिंदगी का मकसद होते हैं, और कमाई का मोटा जरिया भी।
हिमालय पर्वतमाला और उसके आसपास के इलाकों को लेकर दुनिया भर के जानकार हमेशा से यह बतलाते आए हैं कि वहां की धरती बड़ी नाजुक (फ्रेजाइल) है, और वह बहुत बड़े पैमाने पर फेरबदल, प्रयोग, निर्माण, और आवाजाही के लायक नहीं हैं, लेकिन सैलानियों और तीर्थयात्रियों की भीड़ के मुताबिक शहरों मेें अधिक बसाहट बनाने के लिए अंधाधुंध निर्माण चलते रहते हैं, अधिक मुसाफिरों की तेज रफ्तार आवाजाही के लिए हर पर्यटन केन्द्र और तीर्थस्थल तक चौड़े रास्तों को बनाना जारी है, इसके लिए कहीं पुल बन रहे हैं, तो कहीं सुरंगें। और फिर सस्ती बिजली के नाम पर जो पनबिजली योजनाएं बनाई जा रही हैं, उनसे भी हिमाचल या उत्तराखंड जैसे प्रदेशों में धरती पर खतरनाक बोझ बढ़ रहा है। इन प्रदेशों की अर्थव्यवस्था के लिए पर्यटन और तीर्थयात्रा को एक बड़ा जरिया माना गया है, और सरकार और कारोबार दोनों मिलकर ऐसी हर संभावना को दुह लेना चाहते हैं, तब तक जब तक कि धरती के थन से खून न निकल जाए।
अब सवाल यह उठता है कि इतनी नई सडक़ों, इतनी सुरंगों के साथ अगर इस इलाके को और अधिक खतरनाक बनाया जा रहा है तो अगली किसी बड़ी प्राकृतिक आपदा होने पर उससे कैसे जूझा जा सकेगा? यह पूरी नौबत प्रकृति, पर्यावरण, और धरती को समझे बिना उससे एक खतरनाक छेड़छाड़ करने के अलावा कुछ नहीं है। अभी कुछ अरसा पहले ही ऐसे ही किसी भारतीय प्रदेश से एक वीडियो आया था कि किस तरह एक सुरंग के ठीक पहले की पूरी की पूरी सडक़ पानी में बह गई थी, और सुरंग तक पहुंचना मुमकिन ही नहीं रह गया था। जहां पर स्थानीय बसाहट की रोजाना की जरूरतों के लिए सुरंग और पुल जरूरी है, वहां तो ठीक हैं, लेकिन तीर्थ और पर्यटन को अंधाधुंध और अंतहीन बढ़ाते चलने के लिए जब ये प्रोजेक्ट बनाए और धरती पर उतारे जा रहे हैं, तो फिर वे आने वाले वक्त के लिए एक बहुत बड़ा खतरा है। लोगों को याद रहना चाहिए कि भोपाल के एक पत्रकार राजकुमार केसवानी ने यूनियन कार्बाइड कारखाने की जहरीली गैस को लेकर अपनी रिपोर्ट में बहुत पहले से यह आशंका जताई थी कि किसी औद्योगिक हादसे की नौबत में बड़ा नुकसान हो सकता है, और बड़ी संख्या में जिंदगियां जा सकती हैं। आखिर हुआ वही था, कारखाने तक आबादी बस गई थी, और उस कारखाने में तो मिक नाम की ऐसी जहरीली गैस थी जिसने कि कई किलोमीटर दूर तक लोगों को मार डाला था, और लाखों लोगों की सेहत को बकाया जिंदगी के लिए खत्म कर दिया था। हिमालय पर्वतमाला के इलाकों के लिए ऐसी चेतावनियां बहुत से देसी-विदेशी प्रकृति वैज्ञानिक देते ही आए हैं, और सरकारों का हाल यह है कि इन सबको अनसुना और खारिज करने की उसने आदत सी डाल रखी है।
ऐसे में सरकारों को अपना दुस्साहस घटाना चाहिए। आज जंगल का मामला हो, नदी का, पहाड़ या समंदर का, केन्द्र और राज्य सरकारों की अधिक से अधिक दिलचस्पी इसमें रहती है कि किस तरह इन तमाम जगहों से खिलवाड़ की कीमत पर भी कमाऊ प्रोजेक्ट बनाए जाएं। कमाऊ का मतलब महज सरकार के लिए कमाऊ नहीं, सत्ता हांकने वाले लोगों के लिए निजी कमाई के भी। अभी सुरंग में फंसे 40 मजदूरों की जिंदगी बचाने की प्राथमिकता है, और जब यह काम हो जाए, उसके बाद भारत सरकार को देश-विदेश के जानकार लोगों से अपनी योजनाओं की एक समीक्षा करवानी चाहिए। जब सरकारें हर किस्म के विशेषज्ञ लोगों को अपने भीतर समाने लगती हैं, या अपने घरेलू विशेषज्ञों की राय को ही सब कुछ मानने लगती हैं, तब बाहरी और तटस्थ, ईमानदार राय मिलना मुमकिन नहीं रह जाता। अंग्रेज जिन्हें रायबहादुर बनाते थे, वे भला अंग्रेजों को कितनी अच्छी राय देते रहे होंगे? इसलिए बाहरी सलाहकारों का बड़ा महत्व रहता है, मामले चाहे पारिवारिक हों, या सरकारी। कुल मिलाकर हम अपनी बात इसी मुद्दे पर खत्म कर रहे हैं कि केन्द्र और राज्य सरकारों को कुदरत से छेडख़ानी और खिलवाड़ की अपनी हरकतों पर काबू पाना चाहिए क्योंकि सरकारों की जिंदगी पांच बरस की होती है, और धरती की जिंदगी अगले लाखों बरस तक ऐसी हरकतों से बिगड़ सकती है।