अंतरराष्ट्रीय
लॉस एंजेलिस, 9 नवंबर | हॉलीवुड अभिनेता जिम पार्सन्स का कहना है कि उनकी सेक्सुअलिटी ने उन्हें एक बेहतर अभिनेता बनाया है। बिग बैंग थ्योरी स्टार ने 2012 में खुद के समलैंगिक होने की घोषणा की थी। फीमेल फर्स्ट डॉट को डॉट यूके की रिपोर्ट के मुताबिक, पार्सन्स ने कहा, "अचानक एक ऐसे बड़े समूह का हिस्सा बना, जो पहले बदनाम रहा है। मैं खुश हूं कि इससे मुझमें ताकत की भावना बढ़ी। यह एक कहानी बन गई, इसने मुझे बहुत मजबूत बना दिया। मुझे लगता है कि इसने मेरे करियर को बेहतर बनाने में मदद की है। इसने मुझे बेहतर अभिनेता बनने में मदद की है।"
उन्होंने कहा, "मुझे एहसास हुआ कि समलैंगिक होना और आसपास के ऐसे लोगों के बीच बड़े होना जो इसे पसंद नहीं करते हैं, इससे मुझ पर प्रभाव पड़ा। मैं जैसा हूं उससे खुश हूं और इसके लिए भी बहुत खुश हूं कि मैं जो हूं उसका मैंने खुलासा किया। हो सकता है कि मैं उन लोगों के प्यार को खो दूंगा जो मेरे लिए अहम हैं। पिछले कुछ दशकों में समलैंगिक लोगों के लिए चीजें बदली हैं लेकिन अब भी काफी चीजें बाकी हैं।"(आईएएनएस)
लंदन, 9 नवंबर | ब्रिटिश सरकार ने एक अहम नीतिगत उलटफेर करते हुए सर्दियों की अवधि में सबसे गरीब बच्चों को नि: शुल्क स्कूल भोजन देने के लिए सहमति जता दी है। समाचार एजेंसी सिन्हुआ की रिपोर्ट के मुताबिक, सत्तारूढ़ कंजरवेटिव पार्टी के सांसदों ने पहले स्कूल की छुट्टियों के दौरान कमजोर बच्चों के लिए मुफ्त स्कूल भोजन देने की योजना का विस्तार करने के लिए विपक्षी लेबर पार्टी के प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया था। अब सरकार ने यह कदम फुटबालर मार्कस रैशफोर्ड द्वारा बच्चों की गरीबी के खिलाफ चलाए गए एक निरंतर अभियान के बाद उठाया है।
बीबीसी ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा, ब्रिटिश सरकार ने कहा कि स्थानीय परिषदों के माध्यम से वितरित किए जाने वाले 170 मिलियन पाउंड (लगभग 223.7 मिलियन अमेरिकी डॉलर) के फंड समेत लगभग 400 मिलियन पाउंड (लगभग 526.3 मिलियन अमेरिकी डॉलर) इस योजना के लिए खर्च किए जाएंगे। इससे परिवारों को भोजन और बिलों को भरने में मदद दी जाएगी।
पिछले महीनों में इंग्लैंड में छुट्टियों में मुफ्त स्कूल भोजन देने के निर्णय को बदलने के डाउनिंग स्ट्रीट पर फुटबॉलर के नेतृत्व में हो रहे प्रदर्शन के जरिए दबाव बढ़ रहा था।
गुरुवार को लागू हुए नए कोविड-19 लॉकडाउन नियमों के तहत देश इंग्लैंड में स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय खुले रखे गए हैं, जबकि यहां फिर से मामलों में खासी वृद्धि हो रही है।(आईएएनएस)
अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव के नतीजे आने के बाद राष्ट्रपति ट्रंप की रिपब्लिकन पार्टी में मतभेद नज़र आने लगे हैं.
पूर्व राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने डेमोक्रेट जो बाइडन की जीत पर उन्हें बधाई दी है और कहा है कि चुनाव निष्पक्ष हुए.
मगर रिपब्लिकन पार्टी के कुछ और बड़े नेताओं ने अभी तक राष्ट्रपति ट्रंप की हार को स्वीकार नहीं किया है.
हाउस ऑफ़ रिप्रेज़ेंटेटिव्स में पार्टी के नेता केविन मैक्कार्थी ने कहा है कि पहले हर क़ानूनी चुनौती पर विचार किया जाना चाहिए.
वहीं राष्ट्रपति ट्रंप अभी भी ट्विटर पर दावा कर रहे हैं कि मतदान में धोखा हुआ और चुनाव परिणाम को 'चुरा' लिया गया. हालाँकि ट्विटर ने उनके दावे को 'विवादित' बताया है.
राष्ट्रपति ट्रंप ने कई ट्वीट किए हैं जिनमें एक में उन्होंने लिखा है,"हम मानते हैं कि ये लोग चोर हैं....ये एक चुराया हुआ चुनाव था."
हालाँकि, रिपब्लिकन पार्टी में कई लोग राष्ट्रपति चुनाव से नतीजों को स्वीकार करने का अनुरोध कर रहे हैं.
वर्ष 2000 के चुनाव में हुए चुनाव में जॉर्ज डब्ल्यू बुश की ओर से फ़्लोरिडा में मतों की दोबारा गिनती करवाने के लिए क़ानूनी रणनीति बनाने वाले वकील बेन गिन्सबर्ग ने अमरीकी टीवी चैनल सीबीएस से कहा कि “ट्रंप को थोड़ा ठहरकर, नतीजों को देखना चाहिए”.
उन्होंने राष्ट्रपति को सीधे संबोधित करते हुए कहा, “ये एक लोकतंत्र है. ये वो देश है जो आपके लिए बहुत अच्छा रहा है. आपको केवल इतना करना है कि आप संस्थाओं का आदर करें और इनमें सबसे महान संस्था हमारे चुनाव हैं जिनसे कि सत्ता का शांतिपूर्ण हस्तांतरण होता है. और आप उसको तहस-नहस नहीं कर सकते.”(bbc)
वाशिंगटन, 8 नवम्बर (भाषा) : अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के दामाद और उनके वरिष्ठ सलाहकार जेरेड कुशनर ने उनसे मुलाकात की है. मीडिया में आई खबरों के मुताबिक, कुशनर ने चुनाव में डेमोक्रेट नेता जो बाइडन की जीत और रिपब्लिकन पार्टी की हार को स्वीकार करने के सिलसिले में ट्रंप से बात की है.
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने कहा था कि बाइडन जल्दबाजी में गलत तरीके से खुद को विजेता बता रहे हैं और चुनावी दौड़ अभी खत्म नहीं हुई है. ट्रंप के इस बयान के बाद कुशनर ने उनसे मुलाकात की है. सीएनएन ने दो अज्ञात सूत्रों के हवाले से कहा कि कुशनर ने हार स्वीकार करने के लिए ट्रंप से बातचीत की है.
कुछ समाचार एजेंसियों ने भी खबर दी कि कुशनर और अन्य लोगों ने राष्ट्रपति से चुनाव नतीजों को स्वीकार करने का अनुरोध किया है. डोनाल्ड ट्रंप ने कहा था, ''जब तक अमेरिकी जनता के वोटों की ईमानदारी से गिनती नहीं हो जाती, तब तक मैं हार नहीं मानूंगा. यही लोकतंत्र का तकाजा है.'' उन्होंने सोमवार से कानूनी लड़ाई शुरू करने का ऐलान भी किया था.
गौरतलब है कि अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में डेमोक्रेट प्रत्याशी जो बाइडेन ने 270 के बहुमत के आंकड़े से कहीं ज्यादा निर्वाचक वोट हासिल कर लिए हैं. जबकि मौजूदा राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का दोबारा चुनाव जीतने का ख्वाब चकनाचूर हो गया है. हालांकि ट्रंप अभी पद छोड़ने को तैयार नहीं दिख रहे हैं.
बीजिंग, 8 नवंबर| विश्व में कोरोना संक्रमितों की कुल संख्या 5 करोड़ से ज्यादा हो गई है जबकि मरने वालों का आंकड़ा साढ़े 12 लाख से अधिक हो गया है। कोरोना वायरस से सबसे ज्यादा प्रभावित देशों में शीर्ष पर मौजूद अमेरिका में संक्रमण के मामलों की संख्या 1 करोड़ से ज्यादा हो गई है और मौतों का आंकड़ा 2 लाख 43 हजार के पार है। जबकि दूसरे स्थान पर मौजूद भारत में संक्रमण के मामलों की संख्या 85 लाख हो गई है और मौतों का आंकड़ा 1 लाख 26 हजार के पार है। लेकिन दुनिया भर में कोरोना वायरस की दवाएं और वैक्सीन विकसित करने के लिए युद्धस्तर पर काम चल रहा है। इस बीच भारत और दक्षिण अफ्रीका ने विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) से नियमों में राहत मांगी है। वे चाहते हैं कि आने वाली कोरोना की दवाइयों के उत्पादन में किसी एक देश का एकाधिकार न हो। भारत ने विश्व व्यापार संगठन से कहा है कि विकासशील देशों के लिए कोविड-19 की दवाओं के निर्माण और उनके आयात को सरल बनाने के लिए बौद्धिक संपदा नियमों में राहत दे।
बाकायदा, भारत और दक्षिण अफ्रीका ने पिछले महीने डब्ल्यूटीओ को इस संबंध में पत्र लिखा है। दोनों देशों ने डब्ल्यूटीओ से बौद्धिक संपदा अधिकार (ट्रिप्स) के व्यापार-संबंधित पहलुओं पर समझौते के हिस्से में छूट देने का आह्वान किया है। दोनों का कहना है कि विकासशील देश महामारी से बहुत प्रभावित हुए हैं और यहां किफायती दवाओं की उपलब्धता के रास्ते में पेटेंट समेत विभिन्न संपदा अधिकारों से अड़चन आएगी।
दरअसल, बौद्धिक संपदा अधिकार विश्व व्यापार संगठन द्वारा संचालित अंतर्राष्ट्रीय संधि है। इसमें बौद्धिक संपदा के अधिकारों के न्यूनतम मानकों को तय किया गया है। यह वैश्विक स्तर पर पेटेंट, ट्रेडमार्क, कॉपीराइट और अन्य बौद्धिक संपदा नियमों को नियंत्रित करता है।
जेनेवा स्थित डब्ल्यूटीओ की वेबसाइट पर प्रकाशित पत्र में कहा गया है कि कोरोना वायरस से बचाव के रूप में, कोविड-19 के लिए नई दवाइयां और वैक्सीन विकसित किये गये हैं। लेकिन अधिक चिंता इस बात की है कि इन्हें पर्याप्त मात्रा और उचित मूल्य में वैश्विक स्तर पर तुरंत कैसे उपलब्ध कराया जाए।
दरअसल, पेटेंट समेत बौद्धिक संपदा अधिकार के कुछ नियम कोरोना की दवाइयों को उचित मूल्य पर उपलब्ध कराने में बाधक साबित हो सकते हैं। वर्तमान में कोरोना की दवाओं को लेकर तमाम प्रयोग चल रहे हैं, और जो देश कोरोना वायरस की दवाई या वैक्सीन पहले बना लेगा जाहिर है डब्ल्यूटीओ में वही पहले पेटेंट कर लेगा।
पेटेंट के नियम के अनुसार, पेटेंट कराने वाला देश ही उस दवा से जुड़े उत्पादन, आयात और निर्यात का पूरा अधिकार रखेगा। पेटेंट के बाद अगर कोई दूसरा देश भी दवा बनाकर पेटेंट कराने के लिए आवेदन देता है तो, मौजूदा बौद्धिक संपदा अधिकार के नियमों के तहत, पहले से पेटेंट हुई दवा से फामूर्ला मैच होने की स्थिति में उसका आवेदन खारिज हो सकता है।
ऐसे में कोई एक देश या कुछ देश पूरी दुनिया को कोरोना की दवा सही समय, मात्रा और मूल्य पर उपलब्ध करा पाएंगे, इस बात को लेकर भारत और दक्षिण अफ्रीका ने चिंता जाहिर की है। विकसित देशों के पास ज्यादा संसाधन होते हैं, इसलिए पेटेंट की रेस में स्वाभाविक तौर पर वे आगे हैं, लेकिन ऐसे में विकासशील देशों का क्या होगा?
इन्हीं चिंताओं को ध्यान में रखते हुए भारत और दक्षिण अफ्रीका ने विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) से विकासशील देशों के लिए कोरोना की दवा के उत्पादन और उसकी आपूर्ति में छूट की मांग की है। (आईएएनएस)
अमेरिका, 8 नवंबर | 2020 का अमेरिकी चुनाव बहुत से लोगों की उस ग़लत धारणा को हमेशा-हमेशा के लिए दूर करता है जो यह मानते रहे कि '2016 के राष्ट्रपति चुनाव में डोनाल्ड ट्रंप की जीत एक ऐतिहासिक दुर्घटना थी.'
डोनाल्ड ट्रंप को इस बार 70 मिलियन यानी 7 करोड़ से ज़्यादा वोट मिले हैं जो अमेरिका के इतिहास में दूसरा सबसे बड़ा वोटिंग नंबर है.
राष्ट्रीय स्तर पर उन्हें 47 प्रतिशत से अधिक वोट मिले हैं और फ़्लोरिडा-टेक्सस जैसे अपने पसंदीदा राज्यों समेत 24 राज्यों में उनकी जीत हुई है.
अमेरिका के कुछ समूह हैं जिन पर डोनाल्ड ट्रंप की बेजोड़ पकड़ है. इन समूहों की ट्रंप में गज़ब की आस्था है, इन लोगों ने चार साल तक बतौर राष्ट्रपति उन्हें देखा और उनके काम करने के स्टाइल पर अपनी मोहर लगाई है.
साल 2020 में उनकी राजनीतिक कमज़ोरियों का कोई भी विश्लेषण उनकी राजनीतिक ताक़तों को स्वीकार किये बिना संभव नहीं है.
हालांकि, वे चुनाव हार गये हैं और अब उनका नाम आधुनिक युग के उन चार राष्ट्रपतियों में शामिल हो गया है जो राष्ट्रपति पद पर होते हुए चुनाव हार गये, यानी जनता से उन्हें दूसरा मौक़ा नहीं मिला.
माना जाता है कि डोनाल्ड ट्रंप साल 2016 में राष्ट्रपति पद का चुनाव इसलिए जीते थे क्योंकि वे लीक से हटकर चलने वाले और ग़ैर-राजनीतिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवार थे जिन्होंने उन विषयों पर भी खुलकर बात की जिनपर पहले राजनीतिक तौर पर बात नहीं होती थी.
लेकिन 2020 में डोनाल्ड ट्रंप राष्ट्रपति पद का चुनाव हार गये क्योंकि वे लीक से हटकर चलने वाले नेता थे जिसने उन विषयों पर भी बड़े आक्रामक ढंग से बयान दिये जिनपर बोलने से राजनीतिक लोग बचते थे.
एग्ज़िट पोल्स में भी यह बात सामने आयी थी कि '2016 के राष्ट्रपति चुनाव में डोनाल्ड ट्रंप को वोट करने वालों में से कुछ प्रतिशत लोग उनके अति-आक्रामक रवैये के कारण उनसे दूर हो गये.'
उनके बहुत से पुराने समर्थकों ने कहा कि 'डोनाल्ड ट्रंप ने जिस आक्रामक तरीक़े से इतने सारे मानदण्डों को ख़ारिज किया, वो उन्हें पसंद नहीं आया.'
अमेरिकी उपनगरों में विशेष रूप से यह बात सच साबित हुई, जहाँ जो बाइडन की उम्मीदवारी में डेमोक्रैटिक पार्टी का प्रदर्शन काफ़ी सुधरा है.
विशेष रूप से उपनगरों की महिलाओं में डोनाल्ड ट्रंप को लेकर काफ़ी नाराज़गी सुनने को मिली थी और शायद इसी वजह से पेंसिल्वेनिया, मिशीगन, विस्कॉन्सिन में जीत के साथ-साथ एरिज़ोना और जॉर्जिया में भी जो बाइडन को बढ़त हासिल हुई.
2020 के राष्ट्रपति चुनाव में हमने फिर से वह देखा, जो हमने 2018 के मध्यावधि चुनावों में देखा था कि अधिक उच्च-शिक्षित रिपब्लिकन, जिनमें से कुछ ने चार साल पहले डोनाल्ड ट्रंप को वोट दिया था. पर इनमें से कई लोगों को लगने लगा कि डोनाल्ड ट्रंप बहुत ही आक्रामक तरीक़े कई मानदण्ड ख़ारिज कर रहे हैं, जिसके कारण उनका मन ख़राब हुआ.
फिर नस्लीय तनाव का मज़ाक बनाना, ट्विटर पर नस्लवादी भाषा का इस्तेमाल करते हुए काले लोगों को बदनाम करना और जिन मौक़ों पर गोरे वर्चस्ववादी लोगों की एक राष्ट्रपति द्वारा आलोचना की जानी चाहिए थी, वहाँ चुनी हुई चुप्पी बनाये रखना - डोनाल्ड के ख़िलाफ़ गया.
लोगों ने यह भी नोटिस किया कि डोनाल्ड ट्रंप बीच-बीच में व्लादिमीर पुतिन जैसे सत्तावादी नेताओं की प्रशंसा करते हैं.
साथ ही यह भी कि उन्हें जो लोग समझ नहीं आते, उन्हें वो भद्दी उपाधियाँ दे देते हैं. जैसे, उन्होंने अपने पूर्व वकील माइकल कोहेन को एक बार 'चूहा' कहकर बुलाया. उनकी इस भाषा से भी काफ़ी लोगों को आपत्ति थी.
डोनाल्ड ट्रंप के कुछ आलोचक अब उन्हें 'तानाशाही का समर्थक' भी कह रहे हैं क्योंकि उन्होंने चुनाव के परिणामों को स्वीकार करने से ही इनकार कर दिया है.
चुनाव अभियान के दौरान जब मेरी बात पिट्सबर्ग में चक होनस्टीन से हुई थी, जिन्होंने 2016 में ट्रंप का समर्थन किया था और अब वे जो बाइडन के साथ हैं, तो उन्होंने कहा था कि 'लोग थक चुके हैं.'
वे बोले, "लोग देश में सामान्य स्थिति को फिर से देखना चाहते हैं. वो शालीनता देखना चाहते हैं. वो इस घृणा को रोकना चाहते हैं. वो देश को एकजुट देखना चाहते हैं. और ट्रंप की वजह से लोगों में जो यह भावना आयी है, उसी की वजह से जो बाइडन राष्ट्रपति पद का चुनाव जीतेंगे."
ट्रंप के लिए एक बड़ी राजनीतिक समस्या यह थी कि वे अपने मूल बेस से परे अपने समर्थन का विस्तार करने में विफल रहे और ऐसा लगता है कि उन्होंने कोशिश भी नहीं की.
साल 2016 में वो 30 राज्य जीते थे, पर उन्होंने अक्सर ऐसे शासन किया, जैसे वे केवल रूढ़िवादी अमेरिकी लोगों के राष्ट्रपति हैं. उन्होंने उन 20 राज्यों के लोगों को कभी अपनी ओर लाने का मज़बूत प्रयास नहीं किया, जिनमें हिलेरी क्लिंटन को ज़्यादा वोट मिले थे.
यही वजह है कि डोनाल्ड ट्रंप के आलोचक उन्हें बीते 100 वर्षों के सबसे विभाजनकारी राष्ट्रपति के तौर पर भी संबोधित करते हैं.
चार थका देने वाले वर्षों के बाद, बहुत से अमेरिकी मतदाता चाहते थे कि उनकी पृष्ठभूमि में एक ऐसा राष्ट्रपति हो, जो व्हाइट हाउस में रहे और अधिक परंपरागत तरीके का व्यवहार रखे.
लोग नाम लेकर की जाने वाली बयानबाज़ी, धमकाने वाली भाषा और निरंतर जारी रहने वाले टकराव से थक चुके थे. वे किसी भी तरह की सामान्य स्थिति में वापसी चाहते थे.
हालांकि, उनके पक्ष में यह संभावना भी शुरू से थी कि इस बार के चुनाव में, वे 2016 की तरह नये उम्मीदवार नहीं, बल्कि पद पर बैठे राष्ट्रपति थे जिनका दूसरी बार जीतना का रिकॉर्ड रहा है.
वहीं दूसरा पहलू यह था कि ट्रंप हिलेरी क्लिंटन की ख़राब छवि बना पाये थे, पर जो बाइडन के साथ ऐसा करना आसान नहीं था, यही वजह थी कि डेमोक्रैटिक पार्टी ने राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के तौर पर उनका नाम फ़ाइनल किया.
77 वर्षीय जो बाइडन ने भी काम बखूबी किया. बिना किसी ग़लती के किया. इसी वजह से जो बाइडन अमेरिकी की 'रस्ट बेल्ट' (पेंसिल्वेनिया, मिशीगन और विस्कॉन्सिन) में भी रिपब्लिकन पार्टी को सेंध लगाने में सफ़ल हुए.
पर इस सवाल का जवाब कि 'डोनाल्ड ट्रंप राष्ट्रपति चुनाव क्यों हार गये?' एक और दिलचस्प सवाल पर निर्भर करता है कि 'उन्होंने प्रेसिडेंसी को कब खोया?'
2016 में ट्रंप की जीत के तुरंत बाद जिन लोगों ने कहीं ना कहीं उन्हें अमेरिका की सत्ता के ख़िलाफ़ वोट देकर जिताया, क्या उसके तुरंत बाद उनमें अपने फ़ैसले को लेकर कोई शक़ पैदा हो गया?
आख़िरकार उन्हें वोट देने वाले कई लोग तो उनकी जीत की उम्मीद ही नहीं कर रहे थे.
क्या ये इसलिए हुआ क्योंकि राष्ट्रपति बनने के 24 घंटे के अंदर उन्होंने अपना 'अमेरिकी नरसंहार' वाला भाषण दिया जिसमें बर्बाद फ़ैक्टरियों का ज़िक्र, मज़दूरों के पीछे लेफ़्ट का होना और मध्य-वर्गीय घरों से पैसे छीन लिये जाने की बात थी, इसके बाद उन्होंने भीड़ के साइज़ पर बात की और ट्विटर का इस्तेमाल जारी रखने की कसम खाई थी.
उनके राष्ट्रपति के तौर पर पहले दिन ही ये साफ़ हो गया था कि डोनाल्ड ट्रंप राष्ट्रपति पद को बदलना चाहते हैं, ना कि राष्ट्रपति पद उनमें कोई बदलाव ला पायेगा.
क्या ये धीरे-धीरे बढ़ता गया, कई निंदनीय घटनाओं का प्रभाव, घटिया बयानबाज़ी, स्टाफ़ के कई लोगों का छोड़ जाना और अराजकता?
या फिर कोरोना वायरस संकट ने उनके राष्ट्रपति कार्यकाल को निगल लिया?
जब तक ये संकट नहीं आया था, तब तक ट्रंप मज़बूत राजनीतिक स्थिति में दिख रहे थे.
वे महाभियोग केस में भी बच निकले थे. उनकी अप्रूवल रेटिंग भी 49 फ़ीसदी थी. वे मज़बूत अर्थव्यवस्था और अपने कार्यकाल का प्रचार कर सकते थे और अमूमन ये दोनों फ़ैक्टर किसी राष्ट्रपति को दूसरा कार्यकाल दिला ही देते हैं.
राष्ट्रपति चुनावों में एक सवाल अक्सर सामने आता है कि क्या देश पिछले चार साल की तुलना में बेहतर हुआ है.
कोविड के बाद आर्थिक संकट भी आया तो ज़ाहिर है ट्रंप का केस कमज़ोर हो गया.
लेकिन ये कहना भी गलत होगा कि ट्रंप को कोरोना वायरस की वजह से हारना पड़ा. राष्ट्रपति किसी देशव्यापी संकट से अक्सर मज़बूत होकर निकलते हैं.
संकट कई बार किसी नेता में बड़प्पन ले आता है. जैसे फ्रैंकलिन रूज़वेल्ट ने अमेरिका को ग्रेट डिप्रेशन कहे जाने वाले आर्थिक संकट से निकाला और उन्हें इसका राजनीतिक फ़ायदा मिला.
जॉर्ज बुश की 11 सितंबर वाले हमले पर शुरूआती प्रतिक्रिया ने उनकी लोकप्रियता बढ़ाई और उन्हें दूसरा कार्यकाल भी मिला.
तो ये कहना सही नहीं होगा कि कोरोना वायरस की वजह से ट्रंप हार गये. उनके इस संकट से निपटने में नाकामी की वजह से वे हारे हैं.
फिर भी ये कहना ज़रूरी है कि डोनाल्ड ट्रंप आख़िर तक राजनीतिक तौर पर प्रासंगिक रहे, जबकि देश पिछले 100 साल में सबसे बड़ा स्वास्थ्य संकट झेल रहा था,
1930 के बाद सबसे बड़ा आर्थिक संकट और 1960 के बाद सबसे बड़े 'नस्लवाद के मुद्दे' पर अशांति से घिरा था.
रिपब्लिकन अमेरिकी उनकी वापसी देखना चाहेंगे. आने वाले कई सालों तक रूढ़िवादी आंदोलन में वे एक मुख्य भूमिका में रहेंगे.
ट्रंपवाद के ख़त्म होने पर अमेरिकी रूढ़िवादी पर वही प्रभाव हो सकता है, जैसा रीगनवाद के ख़त्म होने पर हुआ.
ट्रंप ध्रुवीकरण के एक पुरोधा रहेंगे और 2024 में दोबारा चुनाव लड़ सकते हैं. ये 'विभाजित' राज्य एकदम से दोबारा एक नहीं हो जाएंगे. बहुत से अमेरिकी ट्रंप को लेकर अलग-अलग भावना रखते हैं, भक्ति से लेकर नफ़रत तक.
यह ज़रूर है कि अमेरिका ने ऐसा राष्ट्रपति आख़िरी बार नहीं देखा है.(https://www.bbc.com/hindi)
अरुल लुईस
न्यूयॉर्क, 8 नवंबर | अपनी रनिंग मेट कमला हैरिस की 'शानदार उपराष्ट्रपति' के रूप में चुने जाने की प्रशंसा करते हुए, अमेरिका के निर्वाचित राष्ट्रपति जो बाइडन ने उन्हें 'भारतीय' कहने से परहेज किया और इसके बजाय उन्हें 'दक्षिण एशियाई' कहा।
बाइडन ने शनिवार रात अपने गृह राज्य डेलावेयर में कहा, "एक शानदार उपराष्ट्रपति कनला हैरिस के साथ काम करना मेरे लिए सम्मान की बात होगी, जो देश की पहली महिला उपराष्ट्रपति,पहली ऐसी अश्वेत महिला, दक्षिण एशियाई मूल की पहली महिला और इस देश में कभी भी राष्ट्रीय पद के लिए चुनी गई अप्रवासियों की पहली बेटी हैं जिन्होंने उपराष्ट्रपति बनकर इतिहास रचा है।"
अमेरिकी सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त नस्लीय श्रेणीकरण में 'दक्षिण एशियाई' शामिल नहीं है, जबकि एशियाई भारतीय आधिकारिक तौर पर भारतीय मूल के लोगों के लिए सूचीबद्ध है।
भारतीय मूल के लोग भी आधिकारिक तौर पर एशियाइयों की व्यापक श्रेणी में आते हैं, जिसमें पूरे महाद्वीप के लोग शामिल हैं, लेकिन कोई 'दक्षिण एशियाई' नहीं है।
आम तौर पर दक्षिण एशियाई लोगों में भारतीय, पाकिस्तानी, बांग्लादेशी, श्रीलंकाई, मालदीव, भूटानी और नेपाली शामिल हैं, और इसे अमेरिका में कुछ 'प्रगतिशील' भारतीयों द्वारा पसंद किया जाता है, जो एक ऐसी पहचान की तलाश में हैं जिसे वे भारतीय और राजनीतिक रूप से सही के तौर पर शायद अधिक समावेशी के रूप में देखते हैं।
कभी-कभी सामान्य उपयोग में दक्षिण एशियाई का इस्तेमाल किसी ऐसे व्यक्ति को संदर्भित करने के लिए उपयोग किया जाता है, जिसकी राष्ट्रीय पहचान का पता नहीं लगाया जा सकता है, लेकिन इस क्षेत्र में भौतिक या अन्य विशेषताएं सामान्य हैं।
हैरिस ने अपनी मां श्यामल हैरिस गोपालन के भारत से 19 साल की उम्र में अमेरिका आने की बात कही, लेकिन अपनी भारतीय विरासत के बारे में कुछ भी नहीं कहा।
उसने कहा कि उनकी मां ने शायद इस पल की बहुत कल्पना नहीं की थी, लेकिन उन्होंने अमेरिका में इतनी गहराई से विश्वास किया जहां कि उनकी बेटी के लिए उपराष्ट्रपति बनने के लिए एक ऐसा क्षण संभव है।
हैरिस की मां सिविल राइट मूवमेंट में सक्रिय थीं जिसने अवसर की समानता पैदा की।
निर्वाचित उपराष्ट्रपति ने कहा कि वह उन महिलाओं को याद कर रही हैं जिन्होंने समानता के लिए लड़ाई लड़ी।
जब कार्यक्रम समाप्त होने को आया तो बाइडन और हैरिस अपने परिवार के सदस्यों को मंच पर ले आए।
हैरिस के परिवार ने एशियाई भारतीय, अफ्रीकी अमेरिकी और जमैका मूल के साथ अमेरिका की विविधता को प्रतिबिंबित किया।
हैरिस ने अपनी भतीजी मीना की दोनों बेटियों से बाइडन को मिलवाया। (आईएएनएस)
-एंथनी जर्चर
क़रीब 50 साल तक सार्वजनिक तौर पर काम करने के बाद और दो बार उप-राष्ट्रपति रहने के बाद जो बाइडन आख़िरकार अमेरिका के नए राष्ट्रपति चुन लिए गए हैं.
बीबीसी ने अनुमान में बताया है कि उन्होंने बहुमत के लिए ज़रूरी 270 इलेक्टोरल कॉलेज वोटों का आँकड़ा पार कर लिया है
लेकिन इस बार का चुनावी अभियान कुछ ऐसा नहीं था जिससे किसी तरह की कोई अटकलें लगाई जा सकती हों.
ये चुनाव कोरोना महामारी के दौर में हुआ है जो दुनिया के 180 से अधिक देशों में फैल चुका है. इस वायरस ने अमेरिका को सबसे बुरी तरह प्रभावित किया है. साथ ही वो दौर है जब देश के भीतर समाजिक उथलपुथल दिख रही है.
इन सभी माहौल के बीच बाइडन, डोनाल्ड ट्रंप के रूप में एक ऐसे प्रतिद्विंदी के सामने खड़े थे जो पहले के राष्ट्रपतियों से पूरी तरह अलग रहे हैं.
लेकिन राष्ट्रपति पद की तीसरी बार की अपनी दौड़ में बाइडन की टीम ने राजनीतिक चुनौतियों को पार करने का रास्ता तलाश ही लिया और आख़िरकार बाइडन को उनकी मंज़िल तक पहुंचा ही दिया.
देखने में ऐसा लगता है कि इलेक्टोरल कॉलेज वोटों के मामले में बाइडन और ट्रंप के बीच का फ़र्क़ अधिक नहीं है लेकिन अगर देश के सभी वोट के आँकडों को देखा जाए तो बाइडन लाखों वोट से ट्रंप से आगे हैं.
लेकिन डेलावर के एक कार सेल्समैन का बेटा देश में सत्ता के शिखर तक पहुंचा कैसे. जानिए वो पांच वजहें जिस कारण बाइडन आज राष्ट्रपति पद तक पहुंचे हैं.
पहला - कोविड, कोविड और कोविड
शायद बाइडन की जीत का सबसे बड़ा कारण ख़ुद पूरी तरह से उनके नियंत्रण से बाहर रहा है.
कोरोना वायरस महामारी अमेरिका में दो लाख तीस हज़ार लोगों की जान ले चुका है और इसने वहां के लोगों की ज़िंदगियों के साथ-साथ राजनीति को उलट कर रख दिया है.
चुनाव प्रचार के आख़िरी दिनों में खुद डोनाल्ड ट्रंप ने ये बात स्वीकार की थी.
बीते सप्ताह विस्कॉन्सिन में हुई एक रैली में ट्रंप ने कहा, "फेक न्यूज़ के साथ हर जगह कहीं अगर कुछ है तो वो है कोविड, कोविड और कोविड." हाल के दिनों में विस्कॉन्सिन में संक्रमण के मामलों में तेज़ी से उछाल आया है.
अमेरिका में मीडिया का फ़ोकस लगातार कोविड पर बना रहा जो इस बात का संकेत था कि महामारी लोगों की सबसे बड़ी और गंभीर चिंता बन गई थी लेकिन राष्ट्रपति के चुनाव अभियान का का मुद्दा ये नहीं था. ऐसे में राष्ट्रपति ने इस मामले को जैसे संभाला उससे उनकी लोकप्रियता में कमी आई.
बीते महीने पिउ रीसर्च ने एक पोल किया था जिसमें कहा गया था कि कोविड संकट को संभालने के बारे में लोगों की राय के हिसाब से बाइडन, ट्रंप से 17 पॉइंट आगे हें.
ट्रंप के अभियान का केंद्र विकास और समृद्धि था लेकिन हक़ीक़त में कोविड के कारण अर्थव्यव्सथा के लिए मुश्किलें बढ़ रही थीं.
इसके साथ विज्ञान पर सवाल खड़े करना, छोटी या बड़ी नीतियों के मामले में तुरंत फ़ैसले लेना जैसे कई क़दमों की वजह से ट्रंप के नेतृत्व में लोगों का भरोसा कम हुआ.
गैलअप के अनुसार इस साल की गर्मियों में ट्रंप की अप्रूवल रेटिंग क़रीब 38 फ़ीसदी तक गिर गई थी और इसकी एक बड़ी वजह कोविड संकट से निपटने से जुड़ा था. ट्रंप के चुनाव अभियान की इसी कमी को बाइडन के चुनाव अभियान में हथियार के रूप में इस्तेमाल किया.
दूसरा - कम तड़क-भड़क वाला चुनावी अभियान
अपने राजनीतिक करियर में बाइडन ख़ुद को परेशानी में डालने वाले के रूप में जाने जाते हैं.
एक बार की उनकी ग़लती के कारण 1987 का राष्ट्रपति पद का चुनाव वो हार गए थे. इसके बाद 2007 तक उन्हें चुनाव में कभी उस तरह की सफलता नहीं मिल सकी.
तीसरी बार की अपनी कोशिश में भी बाइडन के रास्ते में परेशानियां कम आईं ऐसा नहीं है, लेकिन इस बार ये कभी उतना बड़ा मुद्दा नहीं बन पाईं.
इसका पहला कारण ये रहा कि राष्ट्रपति ट्रंप खुद अपने बयानों के लिए सुर्खियों में रहते थे. दूसरा कारण ये कि बीते महीनों में कई ऐसी ख़बरें थीं जिन्होंने मीडिया को बिजी रखा, जैसे कोरोना महामारी, जॉर्ज फ्लायड की मौत के बाद हुए प्रदर्शन और हिंसा और आर्थिक मुश्किलें. इन सभी ख़बरों ने देश के लोगों का ध्यान अपने ओर लगाए रखा.
इसके लिए बधाई बाइडन के चुनावी अभियान को भी दी जानी चाहिए क्योंकि उन्होंने बाइडन को मीडिया में उतना ही आने दिया जितना अभियान के लिए ज़रूरी था. इससे उनकी ज़ुबान के फिसलने जैसी ग़लतियों के मौक़े कम बने और वो ग़लत कारणों में ख़बरों में रहने से बच गए.
लेकिन इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि अगर ये सामान्य चुनाव होता और संक्रमण से बचने के लिए अधिकतर अमेरिकी घरों से बाहर नहीं निकलने का फ़ैसला नहीं करते तो बाइडन के टीम की ये रणनीति उन पर भारी पड़ सकती थी.
हो सकता है कि उस वक्त ट्रंप के "बाइडन छिप गए हैं" जैसे बयानों को अलग तरीक़े से देखा जाता.
बाइडन के चुनावी अभियान ने इस मुश्किल स्थिति से दूरी बनाए रखी जबकि उस दौरान ट्रंप की ज़ुबान ने कई बार उन्हें धोखा दिया और विवादों में घिरते रहे. ये बाइडन के लिए फ़ायदेमंद साबित हुआ.
तीसरा - ट्रंप के सिवा कोई और
चुनाव के दिन से एक सप्ताह पहले तक बाइडन के अभियान ने टेलीविज़न पर प्रसारित होने वाले अपने अंतिम विज्ञापन दिखाने शुरू किए. इनमें जो संदेश था वो बीते साल के उनके किकऑफ़ अभियान में भी देखा गया था. अगस्त में उनके नामांकन एक्सेप्टेंस स्पीच में उन्होंने इसी संदेश की बात की थी.
उन्होंने कहा कि "ये चुनाव अमेरिका की आत्मा को बचाने की लड़ाई है". उन्होंने इस चुनाव को बीते चार सालों में पड़े विभाजनकारी असर और बढ़ती अव्यवस्था को ठीक करने का राष्ट्रीय मौक़ा कहा.
इस स्लोगन के पीछे एक छोटा सा मैथ्स का हिसाब-किताब था. बाइडन ने अपना राजनीतिक भाग्य इस सोच पर दांव पर लगा दिया कि ट्रंप ध्रुवीकरण चाहते हैं, वो भड़काऊ बातें करते हैं और अमेरिकी लोगों को शांत और स्थिर नेतृत्व चाहिए.
थिएरी एडम्स 18 सालों से फ्लोरिया में रहते हैं. इस बार मायामी में वो पहली बार वोट कर रहे थे. उनका कहना था, "ट्रंप के रवैये से मैं थक गया हूं"
इस चुनाव को डेमोक्रैट नेता, ट्रंप पर जनमतसंग्रह का रूप देने में कामयाब हुए, न कि दो उम्मीदवारों के बीच का चुनाव.
बाइडन का संदेश स्पष्ट था, "ट्रंप नहीं".
डेमोक्रैट समर्थकों की ये आम धारणा थी कि अगर बाइडन जीते को कुछ सप्ताह तक राजनीति के बारे में सोचने से फुर्सत मिलेगी. हालांकि ये पहले केवल एक मज़ाक था लेकिन इसमें कहीं न कहीं सच्चाई भी छिपी थी.
चौथा - मध्यमार्गी रास्ता चुनने की रणनीति
जिस दौरान जो बाइडन डेमोक्रैटिक पार्टी की उम्मीदवारी के लिए मैदान में थे उनका कंपीटिशन बर्नी सैंडर्स और एलिज़ाबेथ वॉरन से था. इन दोनों के अभियान में पैसा अधिक था, अभियान का आयोजन पूरे व्यवस्थित तरीके से हो रहा था और इनमें बड़ी संख्या में लोगों की भीड़ भी जुट रही थी.
लिबरल पक्ष से इस चुनौती के बावजूद बाइडन ने बीच का रास्ता यानी मध्यमार्गी बने रहने का फ़ैसला किया. उन्होंने सरकार द्वारा चलाई जाने वाली स्वास्थ्य सेवा, कॉलेज में मुफ़्त शिक्षा या वेल्थ टैक्स का समर्थन करने से इनकार किया.
इससे उनके अभियान की अपील मॉडरेट और असंतुष्ट रिपब्लिकन्स तक पहुँचाने में काफ़ी मदद हुई.
बाइडन ने कमला हैरिस को उप-राष्ट्रपति पद की उम्मीदवार के तौर पर चुना जबकि वो वामपंथी खेमे का समर्थन पाने के लिए से किसी और को भी चुन सकते थे.
पर्यावरण और जलवायु-परिवर्तन के मुद्दे पर बाइडन, बर्नी सैंडर्स और वॉरेन के काफी क़रीब थे और इस मुद्दे के साथ उन्होंने युवाओं को भी अपनी तरफ आकर्षित किया जिनके लिए ये बेहद गंभीर मुद्दा था. हालांकि इसके साथ उन्होंने स्विंग स्टेट्स में ऊर्जा (प्रदूषण करने वाले एनर्जी उत्पादन) पर निर्भर रहने वाली इंडस्ट्री से जुड़े वोटरों का समर्थन न पाने ख़तरा भी मोल लिया.
लेकिन ये एक अपवाद साबित हुआ.
पर्यावरण पर काम करने वाली संस्था सनराइज़ मूवमेंट की सह-संस्थापक वार्शिनी प्रकाश कहती हैं, "ये कोई छुपी हुई बात नहीं कि हम अतीत में उप-राष्ट्रपति बाइडन की योजनाओं और प्रतिबद्धताओं की आलोचना करते रहे."
"लेकिन उन्होंने इन आलोचनाओं का उत्तर दिया है. उन्होंने निवेश बढ़ाया है और ये भी विस्तार से बताया है कि वो कैसे तुरंत क़दम उठाएंगे, पर्यावरण की सुरक्षा करेंगे और साथ ही अधिक संख्या में रोज़गार पैदा करेंगे."
पाँचवाँ - अधिक पैसा, कम समस्याएं
इस साल की शुरुआत में बाइडन के पास चुनावी अभियान चलाने के लिए अधिक पैसा नहीं था. उनकी जेब खाली थी.
लेकिन उन्होंने नुक़सान उठा कर चुनाव अभियान शुरू करने की फ़ैसला किया, वो भी ट्रंप के ख़िलाफ़ जिन्होंने अपने राष्ट्रपति के कार्यकाल के दौरान अभियान के लिए अरबों डॉलर जुटाए थे.
अप्रैल के बाद से बाइडन ने अपने चुनावी अभियान को फंडरेज़िंग अभियान (दान इकट्ठा करने का अभियान) में बदल दिया और शायद ट्रंप के चुनाव अभियान की लापरवाही के कारण उनसे कहीं अधिक पैसा जमा कर लिया.
अक्टूबर के आख़िर तक बाइडन के चुनाव अभियान के पास ट्रंप के अभियान के मुक़ाबले 14.4 करोड़ डॉलर अधिक धन था. उन्होंने हर महत्वपूर्ण राज्य में इतने अधिक टेलिविज़न विज्ञापन दिए जिसका उनके प्रतिद्वंदी इसका मुक़ाबले नहीं कर सके.
लेकिन पैसा ही सब कुछ नहीं है. चार साल जब ट्रंप कम पैसों पर अपना अभियान चला रहा थे उस वक्त क्लिंटन के पास अभिय़ान के लिए पैसों की कोई कमी नहीं थी.
साल 2020 में जब कोरोना महामारी के कारण एक राज्य से दूसरे राज्य में घूम-घूम कर अभियान चलाना संभव नहीं था, तब अधिकतर अमेरिकी ज़्यादा टेलीविज़न देख रहे थे. इस वक्त बाइडन के विज्ञापनों काम में आए क्योंकि वो घरों में बैठे वोटरों तक अपने संदेश आसानी से पहुंचा पा रहे थे.
इससे वो अपने अभियान को बढ़ा सके और टेक्सस, जॉर्जिया, ओहायो और आयोवा जैसे बड़े बड़े राज्यों में अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचने में कामयाब हुए.
वो रूढ़िवादी एरिज़ोना और बेहद कंपीटीटिव जॉर्जिया में ट्रंप को कड़ी टक्कर देने में सफल रहे. (bbc.com/hindi)
अरुल लुइस
न्यूयॉर्क, 8 नवंबर | अमेरिकी राष्ट्रपति चुने गए जो बाइडेन ने कठोर बयानबाजी वाले कैंपेन के बाद कहा है कि अब मरहम लगाने का वक्त है, साथ ही उन लोगों को चेतावनी दी है जो 'अमेरिका के खिलाफ दांव' लगाने की कोशिश कर रहे हैं।
मीडिया द्वारा 2020 के राष्ट्रपति पद की दौड़ का विजेता घोषित किए जाने के बाद शनिवार की रात डेलावेयर में अपने विजय भाषण में बाइडेन ने कहा, "हम उस काम को करेंगे जो भगवान और इतिहास ने हमें करने का मौका दिया है।"
बाइडेन ने भाषण में घरेलू मुद्दों पर ध्यान केंद्रित किया, खासकर देश को एक साथ लाने और उसे कोविड-19 संकट से बाहर निकाले की बात की। दुनिया से जुड़े मुद्दों की बात करें तो उन्होंने अमेरिका के खिलाफ दांव लगाने वालों को चेतावनी दी। उन्होंने कहा कि उनका काम 'अमेरिका को फिर से दुनिया भर में सम्मान दिलाने का है'।
उन्होंने कहा, "आज की रात पूरी दुनिया अमेरिका को देख रही है। वह पूरी दुनिया के लिए एक रोशनी की तरह है। हम अपनी शक्ति के उदाहरण से नहीं बल्कि अपने उदाहरण की शक्ति से आगे बढ़ेंगे। यह एक महान राष्ट्र है और हम अच्छे लोग हैं। अमेरिका के खिलाफ दांव लगाने वालों के लिए यह हमेशा बुरा रहा है।"
अपने कैंपेन में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप पर महामारी का दुरुपयोग करने का आरोप लगाने वाले बाइडेन ने कहा, "मैं इस महामारी को खत्म करने के लिए कोई प्रयास नहीं छोड़ूंगा।" उन्होंने घोषणा की कि वह 20 जनवरी को राष्ट्रपति पद की शपथ लेने के बाद वह अपनी और कमला हैरिस की योजना के आधार पर प्रोग्राम बनाने के लिए प्रमुख वैज्ञानिकों और विशेषज्ञों का एक पैनल नियुक्त करेंगे।
ट्रंप समर्थकों से बाइडेन ने कहा, "जिन्होंने राष्ट्रपति ट्रंप के लिए मतदान किया था, मैं आज रात उनकी निराशा को समझता हूं। मैंने खुद भी कुछ चुनाव हारे हैं।" साथ ही अपील की कि वे कठोर बयानबाजी को खत्म करें। उन्होंने कहा कि वो रेड और ब्लू राज्य नहीं देखते बल्कि एक संयुक्त राज्य के तौर पर देखते हैं। मैंने चुनाव में हिस्सा डेमोक्रेट के तौर पर लिया था लेकिन अब मैं अमेरिका का राष्ट्रपति बनूंगा और उनके लिए भी कड़ी मेहनत करूंगा, जिन्होंने मुझे वोट नहीं दिया।"
रिपब्लिकन द्वारा सीनेट को नियंत्रित करने की संभावना पर बाइडेन ने कहा, "डेमोक्रेट और रिपब्लिकन का एक दूसरे के साथ सहयोग करने से इनकार करना हमारे नियंत्रण से परे किसी रहस्यमयी ताकत के कारण नहीं है। यह एक निर्णय है। यदि हम सहयोग न करने का फैसला कर सकते हैं तो सहयोग करने का फैसला भी कर सकते हैं।" (आईएएनएस)
पेरिस, 8 नवंबर | जर्मनी के एलेक्जेंडर ज्वेरेव ने पेरिस मास्टर्स टेनिस टूर्नामेंट के फाइनल में जगह बना ली है। उन्होंने 20 बार के ग्रैंड स्लैम विजेता स्पेन के राफेल नडाल को मात दे कर फाइनल में प्रवेश किया। ज्वेरेव ने शनिवार को नडाल को 6-4, 7-5 से हरा लगतार 12वीं जीत हासिल की। यह नडाल के खिलाफ उनकी दूसरी जीत है।
टूर्नामेंट की आधिकारिक वेबसाइट पर ज्वेरेव के हवाले से लिखा गया, "उनके खिलाफ खेलना आसान नहीं है। इस बात को रिकार्ड भी बयां करते हैं। इस मैच से पहले मैं उनके खिलाफ पांच में से एक मैच जीता था। इसलिए मैं काफी खुश हूं कि मैं एक बार फिर मास्टर्स सीरीज के फाइनल में जगह बना सका। यह अच्छा है और कल का मैच एक और मुश्किल मैच होने वाला है।"
नडाल 2007 के बाद से पहली बार पेरिस मास्टर्स के फाइनल में जगह बनाने की कोशिश कर रहे हैं। उस समय डेविड नालबोनडियन ने उन्हें हराया था।
नडाल ने ज्वेरेव के बारे में कहा, "मुझे लगता है कि वह शानदार खेल रहे हैं। वह लगातार दो टूर्नार्मेंट जीत चुके हैं और यहां अच्छा खेल रहे हैं।"
फाइनल में ज्वेरेव का सामना रूस के डेनिल मेदवेदेव से होगा।
नडाल ने अपने खेल के बारे में कहा, "पूरे टूर्नामेंट के दौरान मेरा नजरिया सही रहा। मैंने हर मैच में प्रतिस्पर्धा करने के बारे में सोचा।" (आईएएनएस)
निखिला नटराजन
न्यूयॉर्क, 8 नवंबर | सफेद पैंट सूट पहनकर स्टेज पर पहुंची अमेरिका की पहली भारतीय और अश्वेत अमेरिकी उप-राष्ट्रपति चुनीं गईं कमला हैरिस ने जीत का शानदार भाषण दिया। अपनी मां को याद किया और 'महत्वाकांक्षा के साथ देखे जाने वाले सपने' और चुनाव में अपने साथी के तौर पर महिला को चुनने के लिए जो बाइडेन के 'साहस' की बात की।
पुलित्जर पुरस्कार विजेता इतिहासकार जॉन मैचम ने शनिवार रात के हैरिस के भाषण को 'अमेरिकी वातार्लाप के नवीकरण' का संकेत बताया।
हैरिस लाल और नीली बत्ती लगी एक मोटरसाइकिल पर पहुंची, जो कि संकेत था व्हाइट हाउस अब डोनाल्ड ट्रंप-माइक पेंस के हाथ से चला गया है। अपनी बातों में हैरिस ने बहुसांस्कृतिक अमेरिका के अविश्वसनीय वादे की झलक दिखाई।
100 साल पहले महिलाओं को मतदान देने और 55 साल पहले देश के शक्तिशाली राजनीतिक पदों पर महिलाओं को चुने जाने के नियमों का हैरिस ने जिक्र करते हुए कहा, "मैं इस कार्यालय में पहली महिला हो सकती हूं, लेकिन मैं आखिरी नहीं होऊंगी।"
हर खास मौके की तरह हैरिस ने इस बार भी अपनी मां श्यामला गोपालन को धन्यवाद देते हुए कहा, "आज यहां मेरी उपस्थिति के लिए सबसे अधिक श्रेय मेरी मां को जाता है। जब वह 19 साल की उम्र में भारत से यहां आई थी, तो शायद उसने इस पल की कल्पना नहीं की थी। हर छोटी लड़की आज रात को देखेगी कि यह संभावनाओं का देश है।"
जो को लेकर उन्होंने कहा, "जो के चरित्र की खासियत है कि वे अपने साहस से बाधाओं को तोड़ते हैं, उन्होंने एक महिला को उप-राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के तौर पर चुनकर एक अहम बाधा को तोड़ा है। जब मैं इस कार्यालय में पहली महिला हो सकती हूं, तो मैं अंतिम नहीं होउंगी। आज रात हर छोटी लड़की देखेगी कि यह संभावनाओं का देश है। लिंग की परवाह किए बिना हमारे देश ने बच्चों को एक स्पष्ट संदेश भेजा है कि महत्वाकांक्षा के साथ सपने देखें, ²ढ़ विश्वास के साथ आगे बढ़ें और उन रास्तों पर जाएं जो दूसरों के लिए आसान नहीं थे, हम आपको हर कदम पर सराहेंगे।"
महामारी के बाद शनिवार का दिन देश में जश्न का दिन रहा। अमेरिकियों ने हर गली-चौराहे पर जीत का जश्न मनाया। लोग कारों और बालकनी से हाथ हिला रहे थे, गा रहे थे, डांस कर रहे थे, जैसे 2008 में ओबामा की जीत पर हुआ था।
हैरिस ने कहा, "पिछले 4 साल जब ट्रंप राष्ट्रपति थे तो मैं गुफा में थी, वहां बहुत अंधेरा था अब मैं गुफा से बाहर आई हूं।" (आईएएनएस)
निखिला नटराजन
न्यूयॉर्क, 8 नवंबर| डेमोक्रेटिक पार्टी के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार जो बाइडन की जीत के बाद से न्यूयॉर्क में जश्न का माहौल है, ये वही जगह है जहां राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का आशियाना है। लोग 'यू आर फायर्ड', 'बाय बाय ट्रंप', 'डोंट बी ए सोर लूजर!' और 'क-म-ला, क-म-ला' बोल रहे हैं। सात नवंबर को न्यूयॉर्क में कमोबेश ऐसा ही माहौल रहा, जो निश्चित रूप से ट्रंप के लिए बहुत मुश्किल भरा है।
शायद ही कभी किसी राष्ट्रपति का गृहनगर उनकी हार से इतना खुश हुआ हो।
न्यूयॉर्क, जहां राष्ट्रपति का ट्रंप का आशियाना 'ट्रंप टॉवर' स्थित है, वह बाइडन की जीत के बाद जश्न से अछूता पड़ा है।
बाइडन की जीत से खुश न्यूयॉर्क में शैम्पेन की बोतलें खुल रही है, लोग नाच-गाकर जश्न मना रहे हैं। खुशी में झूम रहे हैं।
टाइम्स स्क्वायर पर तेज संगीत के बीच जश्न मना रही एक महिला ने कहा, "ऐसा लगता है कि हमें किसी अत्याचार से बाहर निकाल लिया गया है।"
एक थिएटर एक्टर ने कहा, "यह एक खुशी की तरह लग रहा है, लेकिन यह सिर्फ एक बड़ी, बड़ी राहत है। मैं अब आसानी से सांस ले सकता हूं।" (आईएएनएस)
सैन फ्रांसिस्को, 8 नवंबर| अगले साल की 20 जनवरी को जब अमेरिका के चुने गए राष्ट्रपति जो बाइडेन पद ग्रहण करेंगे, तब डोनाल्ड ट्रंप ट्विटर पर अपना विशेषाधिकार खो देंगे। उनके ट्वीट के साथ किसी अन्य उपयोगकर्ता की तरह सामान्य व्यवहार किया जाएगा। ट्विटर दुनिया के नेताओं और कुछ अन्य अधिकारियों को विशेषाधिकार देता है। ट्विटर के नियमों को तोड़ने वाले उनके ट्वीट यदि सार्वजनिक हित से जुड़ें हों तो उन्हें छोड़ दिया जाता है।
द वर्ज की रिपोर्ट के मुताबिक, बाइडेन के शनिवार को व्हाइट हाउस में जीत दर्ज करने के साथ ही ट्विटर ने कहा, "ट्रंप के खाते के लिए अब नियम अन्य उपयोगकर्ता के समान ही होंगे - जिसमें हिंसा भड़काने और मतदान या कोरोनावायरस महामारी के बारे में गलत जानकारी देने पर प्रतिबंध लगाया जाएगा।"
कंपनी के प्रवक्ता के हवाले से कहा गया, "दुनिया के नेताओं, उम्मीदवारों और सार्वजनिक अधिकारियों को लेकर ट्विटर का ²ष्टिकोण इस सिद्धांत पर आधारित है कि लोगों को यह दिखना चाहिए कि उनके नेता स्पष्ट संदर्भ के साथ क्या कह रहे हैं। इससे मतलब है कि हम चेतावनियां और लेबल लगा सकते हैं और कुछ ट्वीट्स के लिए लोगों की पहुंच सीमित कर सकते हैं। यह नीतिगत ढांचा वर्तमान विश्व के नेताओं और कार्यालय के उम्मीदवारों पर लागू होता है, आम नागरिकों पर नहीं जब वे इन पदों को खो चुके होते हैं।"
यह परिवर्तन ट्रंप के व्यक्तिगत अकाउंट पर लागू होगा। बता दें कि 3 नवंबर से वोटों की गिनती शुरू होने के बाद ट्रंप ने लगभग 37 बार ट्वीट या रीट्वीट किए और ट्विटर ने 13 में चेतावनी लगा दी। जो बताता है कि ट्रंप द्वारा चुनाव के बारे में बताई गई कुछ या सभी सामग्री विवादित और संभवत: भ्रामक है। (आईएएनएस)
न्यूयॉर्क, 8 नवंबर । द लिंकन प्रोजेक्ट के सह-संस्थापक और रिपबिल्कन पॉलिटिकल कैम्पन के लिए काम कर चुके स्टीव श्मिट ने राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को निशाने पर लेते हुए कहा है, इस मूर्ख की अक्षमता के कारण करीब 2.5 लाख अमेरिकी मारे गए। उन्होंने अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में डेमोक्रेटिक पार्टी के उम्मीदवार जो बाइडन की जीत के बाद कुछ इस तरह से प्रतिक्रिया दी।
जैसा कि बाइडन की जीत के बाद अमेरिका में कोरोना महामारी के बीच जश्न मनाया जा रहा है, शहर में एक और पार्टी है : डोनाल्ड ट्रंप के हर ट्वीट और बयान पर उनके पक्ष और विपक्ष में प्रतिक्रिया उमडऩे लगती है।
सबसे ज्यादा ट्रंप को चुनाव में धांधली होने की बात कहने और नतीजों को लेकर अदालत का रुख करने के लिए निशाने पर लिया जा रहा है।
जैसा कि बाइडन और हैरिस समर्थक सड़कों पर नाच-गाकर जश्न मना रहे हैं समाचार टेलीविजन पर द लिंकन प्रोजेक्ट के सह-संस्थापक स्टीव श्मिट ने न्यूज टेलीविजन पर ट्रंप की हार पर प्रतिक्रिया व्यक्त की।
उन्होंने कहा, जब आप इन सभी लोगों को देखते हैं .. देखिए, लोकतंत्र विश्वास की प्रणाली पर टिकी होती है और डोनाल्ड ट्रंप ने वह सब कुछ किया है जो वह संभवत: अमेरिकी प्रणाली में विश्वास को तोडऩे के लिए कर सकते हैं। अमेरिकी लोगों ने अमेरिकी इतिहास में सबसे भ्रष्ट, सबसे अक्षम राष्ट्रपति को बेदखल कर दिया है। अमेरिकी इतिहास में सबसे घातक राष्ट्रपति को सत्ता से हटा दिया गया है।
उन्होंने कहा कि डोनाल्ड ट्रंप व्हाइट हाउस छोड़ देंगे, जो बाइडन 20 जनवरी को 35 शब्दों में शपथ लेंगे और अमेरिकी लोकतंत्र का नवीनीकरण होगा। अमेरिकी कहानी का एक नया अध्याय शुरू होगा। हमारे भविष्य के लिए संभावनाएं बहुत अच्छी हैं। हमारे सपने हमारे देश जितने बड़े हैं और हमारे पास एक अच्छा नेता होगा।(आईएएनएस)
अमेरिका से लगभग 12 हजार किलोमीटर दूर भारत के एक गांव में डेमोक्रैटिक पार्टी की जीत की खुशियां मनाई जा रही हैं. डेमौक्रैटिक पार्टी की ओर से उपराष्ट्रपति पद की उम्मीदवार कमला हैरिस के पुश्तैनी गांव में लोग खूब उत्साहित हैं.
तमिलनाडु के तुलासेंद्रापुरम गांव के मंदिर में स्थानीय लोगों ने डेमोक्रैटिक पार्टी की जीत के लिए विशेष पूजा अर्चना की थी. गांव में कमला हैरिस के बड़े-बड़े बैनर लगे हैं और उनकी जीत के लिए शुभकामनाएं दी गई हैं. ग्राम पंचायत की सदस्य 34 वर्षीय उमादेवी का कहना है कि वह महिला राजनेता होने के नाते हैरिस से जुड़ाव महसूस करती हैं.
वह कहती हैं, "वह हमारे गांव की बेटी हैं." उमादेवी का पांच साल का एक बेटा है और वह सिलाई-कढ़ाई कर घर चलाने में अपने पति का हाथ बंटाती हैं, जो पेशे से ड्राइवर हैं. कमला हैरिस के बारे में उमादेवी कहती हैं, "यह उनके लिए मुश्किल और चुनौतीपूर्ण रहा होगा. लेकिन जब भी कुछ नया करना हो तो ऐसा ही होता है. मैं भी अपनी नई भूमिका के लिए उत्साहित और थोड़ी घबराई हुई हूं."
यह गांव चेन्नई से दक्षिण में 320 किलोमीटर दूर स्थित है. यहीं पर एक सदी से ज्यादा समय पहले कमला हैरिस के नाना का जन्म हुआ था. हैरिस का जन्म अमेरिकी राज्य कैलिफोर्निया में हुआ. उनकी मां भारतीय मूल की थीं जबकि पिता जमैकन मूल के. उनके माता-पिता पढ़ाई के लिए अमेरिका पहुंचे थे.
एक नजर कमला हैरिस के जीवन पर
पिता के साथ
अप्रैल 1965 की तस्वीर. हैरिस अपने पिता डॉनल्ड हैरिस की गोद में हैं. डॉनल्ड एक जमैकन-अमेरिकी अर्थशास्त्री हैं और स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय में एमेरिटस प्रोफेसर हैं.
हैरिस की उपलब्धियां
कमला हैरिस जब पांच साल की थीं तो वह तुलासेंद्रपुरम गई थीं. वह चेन्नई के बीच पर अपने नाना के साथ बिताए गए समय की बात करती हैं. कैलिफोर्निया की पूर्व अटॉर्नी जनरल 55 वर्षीय हैरिस पहली अश्वेत और पहली भारतीय मूल की महिला हैं जिन्हें अमेरिका में मुख्यधारा की किसी बड़ी पार्टी की तरफ से उपराष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया गया है. अब तक इस पद के लिए उम्मीदवार बनने वाली वह चौथी महिला हैं.
हैरिस से प्रेरित उमादेवी पिछले साल दिसंबर में ग्राम पंचायत की सदस्य चुनी गई हैं. उनका कहना है कि उनकी प्राथमिकता गांव में सड़क बनवाना है. उनके गांव में 200 किसान परिवार रहते हैं. वह कहती हैं, "हमारे यहां की सड़क बहुत खराब है. उसे बनवाना चाहते हैं ताकि हमारे गांव में बेहतर अवसर आएं."
कानून में स्नातक हैरिस की तरह उमादेवी को पढ़ने का मौका नहीं मिला. वह 15 साल की थीं जब मां के कहने पर उनकी पढ़ाई रुकवा दी गई. जनसंख्या के आंकड़े बताते हैं कि भारत में लगभग 60 प्रतिशत लड़कियां शिक्षित हैं जबकि कुछ राज्यों में यह दर 90 प्रतिशत है.
तमिलनाडु के जिस थिरुवारुर जिले में तुलासेंद्रापुरम गांव स्थित है, वहां साक्षरता दर 82 प्रतिशत है. जिला शिक्षा अधिकारियों का कहना है कि सभी लड़कियां का नाम स्कूल में लिखाया गया है.
शिक्षा की अहमियत
उमादेवी कहती हैं कि अगर अगली पीढ़ी की लड़कियों को हैरिस की तरह नाम कमाना है तो उनके लिए पढ़ाई बहुत जरूरी है. वह कहती हैं, "आज हमारी सब लड़कियां पढ़ती हैं. इसका मतलब है कि वे माध्यमिक स्कूल में जाती हैं जो गांव से कई किलोमीटर दूर है. कॉलेज भी दूर है लेकिन लड़कियां वहां भी जाती हैं और स्नातक की डिग्री ले रही हैं." लेकिन उन्हें इस बात से शिकायत है कि युवाओं को आसपास अच्छा काम नहीं मिलता.
पास के गांव पैनगानाडु के माध्यमिक विद्यालय में अंग्रेजी पढ़ाने वाले एस तमिलसेलवन कहते हैं कि वह हैरिस के चुनाव प्रचार और उनके भाषणों पर लगातार नजर रखे हुए थे और अपने छात्रों को प्रेरित करने के लिए वे उनका इस्तेमाल करेंगे. वह बताते हैं, "मेरे छात्रों को उनके बारे में पता है. लेकिन मैं चाहता हूं कि उनमें से कुछ उनके जैसे बनें. मेरे छात्रों में बहुत से ऐसे हैं जो अपने परिवार में से पहली बार स्कूल में आकर पढ़ रहे हैं और अपनी महत्वाकांक्षाओं को आकार देने में उन्हें बहुत मुश्किलें आती हैं."
हेमलता राजा भी तुलासेंद्रापुरम पंचायत की सदस्य हैं. उमादेवी की तरह वह भी खुद को गृहिणी बताती हैं. वह महिलाओं के लिए निर्धारित 33 प्रतिशत आरक्षण के तहत पंचायत के लिए चुनी गई थीं. औपचारिक शिक्षा ना होने के बावजूद ये दोनों महिलाएं उसी जज्बे से लैस दिखती हैं, जो सामाजिक न्याय के लिए हैरिस में है.
36 वर्षीय राजा को भी 13 साल की उम्र में स्कूल छोड़ देना पड़ा क्योंकि उनके माता पिता को यह पसंद नहीं था कि पढ़ाई के लिए उनकी बेटी गांव से बाहर जाए. राजा कहती हैं, "मैं अपने आसपास के लोगों की परेशानियों को दूर करना चाहती हूं. पता नहीं कर पाऊंगी या नहीं, लेकिन कोशिश करती हूं. जब हम देखते हैं कि हमारे गांव से किसी ना किसी तरह नाता रखने वाली कोई महिला अमेरिका में इतने बड़े बड़े काम कर रही है तो इससे हमें भी थोड़ी सी प्रेरणा मिलती है."
एके/एनआर (थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन)
बीबीसी के अनुमान के मुताबिक़ राष्ट्रपति पद की रेस में रिपब्लिकन पार्टी के डोनाल्ड ट्रंप को हराने के लिए ज़रूरी 270 इलेक्टोरल वोट का आँकड़ा जो बाइडन ने पार कर लिया है. लेकिन अब इसके बाद क्या होगा?
इसका मतलब ये नहीं है कि इसके बाद बाइडन को तुरंत अपना सामान 1600 पेंसिल्वेनिया एवेन्यू में बने व्हाइट हाऊस ले जाना है. ऐसा करने से पहले अभी और भी काफ़ी कुछ होना बाक़ी है.
अमेरिका में चुनाव प्रक्रिया यूं तो सुचारू रूप से संपन्न होती है लेकिन इस बार मामला उलझा हुआ है. चुनाव में वोटों की गिनती को लेकर ट्रंप क़ानूनी चुनौती देने जा रहे हैं.
तो फिर, जो बाइडन कब बनेंगे राष्ट्रपति?
अमेरिकी संविधान के अनुसार आधिकारिक तौर पर नए राष्ट्रपति का कार्यकाल 20 जनवरी की दोपहर को शुरू होता है.
इससे पहले राजधानी वॉशिंगटन डीसी में एक ख़ास समारोह आयोजित किया जाता है जिसे इनॉगरेशन कहते हैं.
इस समारोह में सुप्रीम कोर्ट के चीफ़ जस्टिस नए राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति को पद और गोपनीयता की शपथ दिलाते हैं.
उम्मीद की जा सकती है कि हर बार की तरह 20 जनवरी 2021 को जो बाइडन और कमला हैरिस शपथ लेंगे.
साल 2017 में डोनाल्ड ट्रंप के इनॉगरेशन समारोह में जो बाइडन
हालांकि इसमें कुछ अपवाद भी हैं. अगर कार्यकाल ख़त्म होने से पहले मौजूदा राष्ट्रपति की मौत हो जाती है या फिर वो इस्तीफ़ा दे देते हैं तो उप-राष्ट्रपति को जल्द से जल्द राष्ट्रपति पद की शपथ दिलाई जाती है.
चुनाव के नतीजे आने के बाद से लेकर राष्ट्रपति का कार्यकाल शुरू होने का वक़्त यानी 20 जनवरी तक के समय को प्रेजिडेन्शियल ट्रांज़िशन कहते हैं.
इस दौरान चुने गए राष्ट्रपति एक ट्रांज़िशन टीम बनाते हैं जो इनॉगरेशन के तुरंत बाद काम शुरू करने के लिए ज़रूरी तैयारी करती है.
जो बाइडन और कमला हैरिस ने पहले ही एक ट्रांज़िशन वेबसाइट बना कर जानकारी दी है कि वो आने वाले दिनों की तैयारी में जुट गए हैं.
वेबसाइट पर लिखा है, "देश के सामने आज महामारी से लेकर आर्थिक मंदी तक और जलवायु परिवर्तन से लेकर नस्लीय अन्याय तक कई गंभीर मुद्दे हैं. ट्रांज़िशन टीम तेज़ी से तैयारी कर रही है ताकि पहले दिन से ही बाइडन-हैरिस प्रशासन काम शुरू कर सके."
दोनों नेता कैबिनेट के सदस्य चुनेंगे और नीतियों और प्रशासन के बारे में चर्चा करेंगे.
साल 2016 में जब राष्ट्रपति ओबामा और चुने गए राष्ट्रपति ट्रंप की मुलाक़ात हुई थी तो दोनों के बीच गर्मजोशी का अभाव स्पष्ट दिखा था.
इस टीम के सदस्य संघीय एजेंसियों से संपर्क करते हैं और अलग-अलग काम के लिए समयसीमा और बजट जैसी चीजों के साथ-साथ कौन से करियर स्टाफ़ क्या करते हैं इस पर जानकारी इकट्ठा करते हैं.
वो नए कर्मचारियों के लिए ज़रूरी जानकारी इकट्ठा करते हैं और उसके बाद इनॉगरेशन की तैयारियों में भी मदद करते हैं. इनमें से कुछ बाद में राष्ट्रपति या उप-राष्ट्रपति के साथ काम करते हैं.
साल 2016 में ओवल ऑफ़िस में बराक ओबामा और डोनाल्ड ट्रंप की मुलाक़ात हुई थी, उस वक़्त की तस्वीरों में स्पष्ट दिख रहा था कि दोनों नेताओं के बीच कम गर्मजोशी थी, अभी भी दोनों नेताओं के रिश्तों में वो गर्मजोशी नहीं दिखती.
जो बाइडन ने अपनी ट्रांज़िशन टीम बनाने में महीनों का वक़्त लगाया है. उन्होंने इसके लिए ज़रूरी पैसा जुटाया है और पिछले सप्ताह उन्होंने इसके बारे में एक वेबसाइट भी लॉन्च की.
क्या क़ानूनी चुनौतियां पेश आने वाली हैं?
हां, बिल्कुल. जिन राज्यों में "बाइडन ने चुनाव जीतने" का दावा किया है वहां ट्रंप वोटर फ्रॉड का आरोप लगा चुके हैं और पहले ही कोर्ट में जाने की बात कह चुके हैं. हालांकि उन्होंने इन आरोपों से जुड़ा कोई सबूत नहीं पेश किया है.
बताया जा रहा है कि उनके अभियान से जुड़े अधिकारी इस मामले में देश के बड़े वकीलों से संपर्क कर रहे हैं.
उनकी कोशिश है कि कुछ डाक वोटों को गिना न जाए. ये मामला पहले राज्यों की अदालत में पेश होगा जिसके बाद ये सुप्रीम कोर्ट पहुंच सकता है.
हालांकि क़ानून के जानकारों का मानना है कि इस तरह के मामलों से चुनाव के नतीजों पर फ़र्क नहीं पड़ेगा.
ट्रंप के अभियान से जुड़े अधिकारियों की गुज़ारिश के बाद कुछ राज्यों में दोबारा मतगणना होने की उम्मीद है, लेकिन वहां भी परिणाम बदलने की उम्मीद कम ही है.
डोनाल्ड ट्रंप पहले ही कह चुके हैं कि वह चुनाव के नतीजों को कोर्ट में चुनौती देंगे. अगर वो अपनी कोशिश में कामयाब नहीं हुए तो उन पर सार्वजनिक तौर पर हार स्वीकार करने का दवाब बढ़ने लगेगा. लेकिन क्या हार स्वीकार करना उनके लिए ज़रूरी है?
अमेरिका की राजनीति में चुनाव हार चुके उम्मीदवार, चुनाव जीत कर आए उम्मीदवार को फ़ोन पर बधाई देते हैं और अपनी हार मानते हैं. लेकिन ये बाध्यकारी नहीं है.
साल 2018 में गवर्नर पद के लिए डेमोक्रेटिक पार्टी के उम्मीदवार स्टेसी अब्राम्स ने चुनाव में वोटर फ्रॉड और डराने-धमकाने का आरोप लगाया और रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार ब्रायन कैंप ने हार स्वीकार नहीं की.
हालांकि हाल के सालों में राष्ट्रपति पद की दौड़ में ऐसा कभी नहीं हुआ. फ़िलहाल जॉर्जिया में क़ानूनी तरीके से चुनाव के नतीजों की घोषणा की जाएगी, लेकिन तब तक सरकारी कामकाज जैसे चल रहा है वैसे ही चलता रहेगा, चाहें ट्रंप कुछ भी करें.
ये बात सच है कि न तो ट्रंप को अपनी हार स्वीकार करने की ज़रूरत है और न ही चेहरे पर मुस्कान लेकर बाइडन के इनॉगरेशन में शिरकत करने की ज़रूरत है, लेकिन क़ानूनी तौर पर उनकी कुछ ज़िम्मेदारियां हैं.
बाइडन की टीम ज़िम्मेदारी लेने की शुरुआत कर सके इसके लिए उन्हें अपने प्रशासन को इजाज़त देनी होगी. ट्रंप के अधिकारियों के अनुसार वो पहले ही ये काम कर चुके हैं.
ट्रांज़िशन के दौरान कमला हैरिस क्या करेंगी?
कमला हैरिस, देश की पहली महिला उप-राष्ट्रपति होंगी. वो अपने कर्मचारियों की नियुक्ति करेंगी और पिछले प्रशासन से अपने काम और कार्यकाल के बारे में अधिक जानकारी इकट्ठा करेंगी.
उप-राष्ट्रपति का दफ्तर उपराष्ट्रपति व्हाइट हाऊस के वेस्ट विंग में हैं, हालांकि वो वहां नहीं रह सकते.
पारंपरिक तौर पर वो अमेरिकी नौसेना की ऑब्ज़रवेटरी के परिसर में रहते हैं जो शहर के उत्तर-पश्चिम में है, जो व्हाइट हाऊस से लगभग 10 मिनट की दूरी पर है.
उनके पति डगलस एम्पहॉफ पेशे से एक वकील हैं और एंटरटेन्मेंट जगत के साथ जुड़े हैं.
पहली शादी से उनके दो बच्चे हैं- कोल और एला. हैरिस बताती हैं कि दोनों बच्चे उन्हें प्यार से "मोमाला" कहते हैं.
कैसा होता है राष्ट्रपति का आधिकारिक निवास?
अमेरिकी राष्ट्रपति के आधिकारिक निवास व्हाइट हाऊस में पहली बार जॉन एडम्स और उनकी पत्नी राष्ट्रपति के तौर पर शिफ्ट हुए थे. उस वक्त इस इमारत का काम पूरा नहीं हुआ था.
हाल के दिनों में ये उम्मीद की जाती है कि जो भी नए राष्ट्रपति यहां आएंगे वो अपनी सुविधा के अनुसार पुराना फर्नीचर बदलेंगे. इसके लिए कांग्रेस अलग से पैसों की व्यवस्था करती है.
व्हाइट हाऊस में लोगों के रहने के लिए कुल 132 कमरे हैं और 35 बाथरूम हैं.
फैशन जगत से ताल्लुक रखने वाली डोनाल्ड ट्रंप की पत्नी मेलानिया ट्रंप ने यहां कई बदलाव किए. व्हाइट हाऊस में होने वाले ख़ास समारोह और त्योहारों के आयोजनों की ज़िम्मेदारी उन्हीं की ज़िम्मेदारी थी.(bbc)
वाशिंगटन, 8 नवंबर | अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के समर्थकों ने डेमोक्रेटिक उम्मीदवार जो बाइडेन और उनके साथ मैदान में उतरीं कमला हैरिस को विजेता घोषित किए जाने के बाद जमकर विरोध प्रदर्शन किया। 2020 के राष्ट्रपति चुनाव के परिणामों का विरोध करते हुए ट्रंप समर्थक देश भर में सड़कों पर उतर आए। 4 दिन तक धीमी रफ्तार से चली मतगणना के बाद 77 वर्षीय बाइडेन ने ट्रंप को हराकर अमेरिका में एक महान राजनीतिक पारी की शुरूआत की है। लगभग 160 साल पहले इसी समय के आसपास अब्राहम लिंकन अमेरिकी राष्ट्रपति चुने गए थे।
शनिवार को सुबह करीब 11.30 बजे (स्थानीय समय) उस समय बाइडेन की जीत दर्ज हुई, जब एनबीसी, बीबीसी और द वाशिंगटन पोस्ट ने कहा कि पेन्सिलवेनिया बाइडेन की हुई। द हिल न्यूज वेबसाइट के मुताबिक, इस घोषणा के तुरंत बाद राष्ट्रपति के समर्थक जॉर्जिया, मिशिगन और विस्कॉन्सिन राज्यों में सड़कों पर उतर आए।
अटलांटा में जॉर्जिया राज्य कैपिटल के सामने कम से कम 200 प्रदर्शनकारी इकट्ठा हो गए। जॉर्जिया पारंपरिक रूप से रिपब्लिकन राज्य माना जाता है, यहां ट्रंप समर्थकों ने नारे लगाए। इसी तरह हैरिसबर्ग, पेन्सिलवेनिया में भी विरोध प्रदर्शन किए गए और ट्रंप समर्थकों ने 'चोरी बंद करो' जैसे नारे लगाए। परिणाम का विरोध करने के लिए मैडिसन, विस्कॉन्सिन में भी प्रदर्शनकारी एकत्रित हुए। सलेम, ओरेगन में, सैकड़ों प्रदर्शनकारियों ने ओरेगन स्टेट कैपिटल के बाहर रैली की।
मिशिगन में प्रदर्शनकारी एक साथ प्रार्थना कर रहे थे, उन्हें विश्वास नहीं था कि वह हार गए थे। उन्होंने चुनाव परिणामों की वैधता पर संदेह जताया। बता दें कि अभी जॉर्जिया, एरिजोना, पेन्सिलवेनिया, अलास्का और उत्तरी कैरोलाइना में वोटों की गिनती जारी है। इनमें से अलास्का और उत्तरी कैरोलाइना में ट्रंप आगे हैं।
राष्ट्रपति ने बाइडेन की जीत को मानने से इनकार कर दिया है और अपने एक ट्वीट में कहा है, "ऑब्जर्वरों को काउंटिंग रूम में शामिल नहीं किया गया है। मैं चुनाव जीत गया, मुझे कानूनी तौर पर 71 लाख वोट मिले हैं। लेकिन हमारे ऑब्जर्वरों को देखने की अनुमति नहीं दी गई, ऐसा पहले कभी नहीं हुआ, मेल के जरिए लाखों ऐसे लोगों को मतपत्र भेजे गए, जिन्होंने कभी इनकी मांग ही नहीं की थी।"(आईएएनएस)
क़रीब 50 साल तक सार्वजनिक तौर पर काम करने के बाद और दो बार उप-राष्ट्रपति रहने के बाद जो बाइडन आख़िरकार अमेरिका के नए राष्ट्रपति चुन लिए गए हैं.
बीबीसी ने अनुमान में बताया है कि उन्होंने बहुमत के लिए ज़रूरी 270 इलेक्टोरल कॉलेज वोटों का आँकड़ा पार कर लिया है
लेकिन इस बार का चुनावी अभियान कुछ ऐसा नहीं था जिससे किसी तरह की कोई अटकलें लगाई जा सकती हों.
ये चुनाव कोरोना महामारी के दौर में हुआ है जो दुनिया के 180 से अधिक देशों में फैल चुका है. इस वायरस ने अमेरिका को सबसे बुरी तरह प्रभावित किया है. साथ ही वो दौर है जब देश के भीतर समाजिक उथलपुथल दिख रही है.
इन सभी माहौल के बीच बाइडन, डोनाल्ड ट्रंप के रूप में एक ऐसे प्रतिद्विंदी के सामने खड़े थे जो पहले के राष्ट्रपतियों से पूरी तरह अलग रहे हैं.
लेकिन राष्ट्रपति पद की तीसरी बार की अपनी दौड़ में बाइडन की टीम ने राजनीतिक चुनौतियों को पार करने का रास्ता तलाश ही लिया और आख़िरकार बाइडन को उनकी मंज़िल तक पहुंचा ही दिया.
देखने में ऐसा लगता है कि इलेक्टोरल कॉलेज वोटों के मामले में बाइडन और ट्रंप के बीच का फ़र्क़ अधिक नहीं है लेकिन अगर देश के सभी वोट के आँकडों को देखा जाए तो बाइडन लाखों वोट से ट्रंप से आगे हैं.
लेकिन डेलावर के एक कार सेल्समैन का बेटा देश में सत्ता के शिखर तक पहुंचा कैसे. जानिए वो पांच वजहें जिस कारण बाइडन आज राष्ट्रपति पद तक पहुंचे हैं.
पहला - कोविड, कोविड और कोविड
शायद बाइडन की जीत का सबसे बड़ा कारण ख़ुद पूरी तरह से उनके नियंत्रण से बाहर रहा है.
कोरोना वायरस महामारी अमेरिका में दो लाख तीस हज़ार लोगों की जान ले चुका है और इसने वहां के लोगों की ज़िंदगियों के साथ-साथ राजनीति को उलट कर रख दिया है.
चुनाव प्रचार के आख़िरी दिनों में खुद डोनाल्ड ट्रंप ने ये बात स्वीकार की थी.
बीते सप्ताह विस्कॉन्सिन में हुई एक रैली में ट्रंप ने कहा, "फेक न्यूज़ के साथ हर जगह कहीं अगर कुछ है तो वो है कोविड, कोविड और कोविड." हाल के दिनों में विस्कॉन्सिन में संक्रमण के मामलों में तेज़ी से उछाल आया है.
अमेरिका में मीडिया का फ़ोकस लगातार कोविड पर बना रहा जो इस बात का संकेत था कि महामारी लोगों की सबसे बड़ी और गंभीर चिंता बन गई थी लेकिन राष्ट्रपति के चुनाव अभियान का का मुद्दा ये नहीं था. ऐसे में राष्ट्रपति ने इस मामले को जैसे संभाला उससे उनकी लोकप्रियता में कमी आई.
बीते महीने पिउ रीसर्च ने एक पोल किया था जिसमें कहा गया था कि कोविड संकट को संभालने के बारे में लोगों की राय के हिसाब से बाइडन, ट्रंप से 17 पॉइंट आगे हें.
ट्रंप के अभियान का केंद्र विकास और समृद्धि था लेकिन हक़ीक़त में कोविड के कारण अर्थव्यव्सथा के लिए मुश्किलें बढ़ रही थीं.
इसके साथ विज्ञान पर सवाल खड़े करना, छोटी या बड़ी नीतियों के मामले में तुरंत फ़ैसले लेना जैसे कई क़दमों की वजह से ट्रंप के नेतृत्व में लोगों का भरोसा कम हुआ.
गैलअप के अनुसार इस साल की गर्मियों में ट्रंप की अप्रूवल रेटिंग क़रीब 38 फ़ीसदी तक गिर गई थी और इसकी एक बड़ी वजह कोविड संकट से निपटने से जुड़ा था. ट्रंप के चुनाव अभियान की इसी कमी को बाइडन के चुनाव अभियान में हथियार के रूप में इस्तेमाल किया.
जो बाइडन ने जीता अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव, डोनाल्ड ट्रंप हारे
दूसरा - कम तड़क-भड़क वाला चुनावी अभियान
अपने राजनीतिक करियर में बाइडन ख़ुद को परेशानी में डालने वाले के रूप में जाने जाते हैं.
एक बार की उनकी ग़लती के कारण 1987 का राष्ट्रपति पद का चुनाव वो हार गए थे. इसके बाद 2007 तक उन्हें चुनाव में कभी उस तरह की सफलता नहीं मिल सकी.
तीसरी बार की अपनी कोशिश में भी बाइडन के रास्ते में परेशानियां कम आईं ऐसा नहीं है, लेकिन इस बार ये कभी उतना बड़ा मुद्दा नहीं बन पाईं.
इसका पहला कारण ये रहा कि राष्ट्रपति ट्रंप खुद अपने बयानों के लिए सुर्खियों में रहते थे. दूसरा कारण ये कि बीते महीनों में कई ऐसी ख़बरें थीं जिन्होंने मीडिया को बिजी रखा, जैसे कोरोना महामारी, जॉर्ज फ्लायड की मौत के बाद हुए प्रदर्शन और हिंसा और आर्थिक मुश्किलें. इन सभी ख़बरों ने देश के लोगों का ध्यान अपने ओर लगाए रखा.
इसके लिए बधाई बाइडन के चुनावी अभियान को भी दी जानी चाहिए क्योंकि उन्होंने बाइडन को मीडिया में उतना ही आने दिया जितना अभियान के लिए ज़रूरी था. इससे उनकी ज़ुबान के फिसलने जैसी ग़लतियों के मौक़े कम बने और वो ग़लत कारणों में ख़बरों में रहने से बच गए.
लेकिन इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि अगर ये सामान्य चुनाव होता और संक्रमण से बचने के लिए अधिकतर अमेरिकी घरों से बाहर नहीं निकलने का फ़ैसला नहीं करते तो बाइडन के टीम की ये रणनीति उन पर भारी पड़ सकती थी.
हो सकता है कि उस वक्त ट्रंप के "बाइडन छिप गए हैं" जैसे बयानों को अलग तरीक़े से देखा जाता.
बाइडन के चुनावी अभियान ने इस मुश्किल स्थिति से दूरी बनाए रखी जबकि उस दौरान ट्रंप की ज़ुबान ने कई बार उन्हें धोखा दिया और विवादों में घिरते रहे. ये बाइडन के लिए फ़ायदेमंद साबित हुआ.
तीसरा - ट्रंप के सिवा कोई और
चुनाव के दिन से एक सप्ताह पहले तक बाइडन के अभियान ने टेलीविज़न पर प्रसारित होने वाले अपने अंतिम विज्ञापन दिखाने शुरू किए. इनमें जो संदेश था वो बीते साल के उनके किकऑफ़ अभियान में भी देखा गया था. अगस्त में उनके नामांकन एक्सेप्टेंस स्पीच में उन्होंने इसी संदेश की बात की थी.
उन्होंने कहा कि "ये चुनाव अमेरिका की आत्मा को बचाने की लड़ाई है". उन्होंने इस चुनाव को बीते चार सालों में पड़े विभाजनकारी असर और बढ़ती अव्यवस्था को ठीक करने का राष्ट्रीय मौक़ा कहा.
इस स्लोगन के पीछे एक छोटा सा मैथ्स का हिसाब-किताब था. बाइडन ने अपना राजनीतिक भाग्य इस सोच पर दांव पर लगा दिया कि ट्रंप ध्रुवीकरण चाहते हैं, वो भड़काऊ बातें करते हैं और अमेरिकी लोगों को शांत और स्थिर नेतृत्व चाहिए.
थिएरी एडम्स 18 सालों से फ्लोरिया में रहते हैं. इस बार मायामी में वो पहली बार वोट कर रहे थे. उनका कहना था, "ट्रंप के रवैये से मैं थक गया हूं"
इस चुनाव को डेमोक्रैट नेता, ट्रंप पर जनमतसंग्रह का रूप देने में कामयाब हुए, न कि दो उम्मीदवारों के बीच का चुनाव.
बाइडन का संदेश स्पष्ट था, "ट्रंप नहीं".
डेमोक्रैट समर्थकों की ये आम धारणा थी कि अगर बाइडन जीते को कुछ सप्ताह तक राजनीति के बारे में सोचने से फुर्सत मिलेगी. हालांकि ये पहले केवल एक मज़ाक था लेकिन इसमें कहीं न कहीं सच्चाई भी छिपी थी.
चौथा - मध्यमार्गी रास्ता चुनने की रणनीति
जिस दौरान जो बाइडन डेमोक्रैटिक पार्टी की उम्मीदवारी के लिए मैदान में थे उनका कंपीटिशन बर्नी सैंडर्स और एलिज़ाबेथ वॉरन से था. इन दोनों के अभियान में पैसा अधिक था, अभियान का आयोजन पूरे व्यवस्थित तरीके से हो रहा था और इनमें बड़ी संख्या में लोगों की भीड़ भी जुट रही थी.
लिबरल पक्ष से इस चुनौती के बावजूद बाइडन ने बीच का रास्ता यानी मध्यमार्गी बने रहने का फ़ैसला किया. उन्होंने सरकार द्वारा चलाई जाने वाली स्वास्थ्य सेवा, कॉलेज में मुफ़्त शिक्षा या वेल्थ टैक्स का समर्थन करने से इनकार किया.
इससे उनके अभियान की अपील मॉडरेट और असंतुष्ट रिपब्लिकन्स तक पहुँचाने में काफ़ी मदद हुई.
बाइडन ने कमला हैरिस को उप-राष्ट्रपति पद की उम्मीदवार के तौर पर चुना जबकि वो वामपंथी खेमे का समर्थन पाने के लिए से किसी और को भी चुन सकते थे.
पर्यावरण और जलवायु-परिवर्तन के मुद्दे पर बाइडन, बर्नी सैंडर्स और वॉरेन के काफी क़रीब थे और इस मुद्दे के साथ उन्होंने युवाओं को भी अपनी तरफ आकर्षित किया जिनके लिए ये बेहद गंभीर मुद्दा था. हालांकि इसके साथ उन्होंने स्विंग स्टेट्स में ऊर्जा (प्रदूषण करने वाले एनर्जी उत्पादन) पर निर्भर रहने वाली इंडस्ट्री से जुड़े वोटरों का समर्थन न पाने ख़तरा भी मोल लिया.
लेकिन ये एक अपवाद साबित हुआ.
पर्यावरण पर काम करने वाली संस्था सनराइज़ मूवमेंट की सह-संस्थापक वार्शिनी प्रकाश कहती हैं, "ये कोई छुपी हुई बात नहीं कि हम अतीत में उप-राष्ट्रपति बाइडन की योजनाओं और प्रतिबद्धताओं की आलोचना करते रहे."
"लेकिन उन्होंने इन आलोचनाओं का उत्तर दिया है. उन्होंने निवेश बढ़ाया है और ये भी विस्तार से बताया है कि वो कैसे तुरंत क़दम उठाएंगे, पर्यावरण की सुरक्षा करेंगे और साथ ही अधिक संख्या में रोज़गार पैदा करेंगे."
पाँचवाँ - अधिक पैसा, कम समस्याएं
इस साल की शुरुआत में बाइडन के पास चुनावी अभियान चलाने के लिए अधिक पैसा नहीं था. उनकी जेब खाली थी.
लेकिन उन्होंने नुक़सान उठा कर चुनाव अभियान शुरू करने की फ़ैसला किया, वो भी ट्रंप के ख़िलाफ़ जिन्होंने अपने राष्ट्रपति के कार्यकाल के दौरान अभियान के लिए अरबों डॉलर जुटाए थे.
अप्रैल के बाद से बाइडन ने अपने चुनावी अभियान को फंडरेज़िंग अभियान (दान इकट्ठा करने का अभियान) में बदल दिया और शायद ट्रंप के चुनाव अभियान की लापरवाही के कारण उनसे कहीं अधिक पैसा जमा कर लिया.
अक्टूबर के आख़िर तक बाइडन के चुनाव अभियान के पास ट्रंप के अभियान के मुक़ाबले 14.4 करोड़ डॉलर अधिक धन था. उन्होंने हर महत्वपूर्ण राज्य में इतने अधिक टेलिविज़न विज्ञापन दिए जिसका उनके प्रतिद्वंदी इसका मुक़ाबले नहीं कर सके.
लेकिन पैसा ही सब कुछ नहीं है. चार साल जब ट्रंप कम पैसों पर अपना अभियान चला रहा थे उस वक्त क्लिंटन के पास अभिय़ान के लिए पैसों की कोई कमी नहीं थी.
साल 2020 में जब कोरोना महामारी के कारण एक राज्य से दूसरे राज्य में घूम-घूम कर अभियान चलाना संभव नहीं था, तब अधिकतर अमेरिकी ज़्यादा टेलीविज़न देख रहे थे. इस वक्त बाइडन के विज्ञापनों काम में आए क्योंकि वो घरों में बैठे वोटरों तक अपने संदेश आसानी से पहुंचा पा रहे थे.
इससे वो अपने अभियान को बढ़ा सके और टेक्सस, जॉर्जिया, ओहायो और आयोवा जैसे बड़े बड़े राज्यों में अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचने में कामयाब हुए.
वो रूढ़िवादी एरिज़ोना और बेहद कंपीटीटिव जॉर्जिया में ट्रंप को कड़ी टक्कर देने में सफल रहे.(bbc)
भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जो बाइडन को राष्ट्रपति चुनाव में जीत की बधाई दी है. पीएम मोदी ने जो बाइडन की जीत को शानदार बताया है. भारतीय प्रधानमंत्री ने कमला हैरिस को भी बधाई दी और भारत से उनकी जड़ों को भी याद किया. कमला हैरिस की माँ तमिलनाडु की थीं.
Congratulations @JoeBiden on your spectacular victory! As the VP, your contribution to strengthening Indo-US relations was critical and invaluable. I look forward to working closely together once again to take India-US relations to greater heights. pic.twitter.com/yAOCEcs9bN
— Narendra Modi (@narendramodi) November 7, 2020
मोदी ने ट्विटर पर लिखा है, ''आपकी कामयाबी बेहतरीन है. आपकी जीत से न केवल भारत स्थित आपके रिश्तेदारों गौरवान्वित हैं बल्कि सभी भारतीय-अमेरिकी नागरिकों के लिए गौरव का पल है. मोदी और ट्रंप की दोस्ती की चर्चा तो पूरे कार्यकाल में रही लेकिन बाइडन प्रशासन के साथ कैसे रिश्ते बनते हैं ये देखना बाक़ी है. हलांकि कहा जा रहा है कि भारत और अमेरिका अहम साझेदार हैं ऐसे में सरकार बदलने से भारत के साथ रिश्तों पर असर नहीं पड़ेगा.
Heartiest congratulations @KamalaHarris! Your success is pathbreaking, and a matter of immense pride not just for your chittis, but also for all Indian-Americans. I am confident that the vibrant India-US ties will get even stronger with your support and leadership.
— Narendra Modi (@narendramodi) November 7, 2020
बाइडन ने कश्मीर और सीएए पर जताई थी चिंता
हालांकि बाइडन ने अपने चुनावी कैंपेन में कश्मीर और सीएए को लेकर चिंता ज़ाहिर की थी. बाइडन ने चुनावी कैंपेन के दौरान अपना पॉलिसी पेपर जारी किया था. उसमें सीएए और कश्मीर में मानवाधिकारों को लेकर चिंता जताई थी. जो बाइडन ने कहा था कि कश्मीरियों के सभी तरह के अधिकार बहाल होने चाहिए.
बाइडन ने कहा था कि कश्मीरियों के अधिकारों को बहाल कराने के लिए जो भी क़दम उठाए जा सकते हैं उसे भारत उठाए. इसके साथ ही बाइडन ने भारत के नागरिकता संशोधन क़ानून यानी सीएए को लेकर भी निराशा ज़ाहिर की थी. बाइडन ने नेशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटिज़न यानी एनआरसी को भी निराशाजनक कहा था.
जो बाइडन की कैंपेन वेबसाइट पर प्रकाशित एक पॉलिसी पेपर में कहा गया था, ''भारत में धर्मनिरपेक्षता और बहु-नस्ली के साथ बहु-धार्मिक लोकतंत्र की पुरानी पंरपरा है. ऐसे में सरकार के ये फ़ैसले बिल्कुल ही उलट हैं.''
जो बाइडन का यह पॉलिसी पेपर एजेंडा फ़ॉर मुस्लिम-अमरीकन कम्युनिटीज़ टाइटल से प्रकाशित हुआ था. कश्मीर को लेकर बाइडन के इस पॉलिसी पेपर में कहा गया था, ''कश्मीर लोगों के अधिकारों को बहाल करने के लिए भारत को चाहिए कि वो हर क़दम उठाए. असहमति पर पाबंदी, शांतिपूर्ण प्रदर्शन को रोकना, इंटरनेट सेवा बंद करना या धीमा करना लोकतंत्र को कमज़ोर करना है.''
इस पेपर में कश्मीर के साथ चीन के वीगर मुसलमानों और म्यांमार के रोहिंग्या मुसलमानों को लेकर भी बात कही गई थी. बाइडन के पॉलिसी पेपर में लिखा गया था, ''मुस्लिम बहुल देशों और वे देश जहां मुसलमानों की आबादी अच्छी-ख़ासी है, वहां जो कुछ भी हो रहा है उसे लेकर अमरीका के मुसलमान चिंतित रहते हैं. मैं उनके उस दर्द को समझता हूं. पश्चिमी चीन में वीगर मुसलमानों को निगरानी कैंपों में रहने पर मजबूर करना बहुत ही शर्मनाक है. अगर बाइडन अमरीका के राष्ट्रपति बनते हैं तो वो शिन्जियांग में नज़रबंदी कैंपों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाएंगे. राष्ट्रपति के तौर बाइडन इसे लेकर कोई ठोस क़दम उठाएंगे. म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमानों के साथ जो कुछ भी हुआ और हो रहा वो वीभत्स है. इससे शांति और स्थिरता दांव पर लगी है.''
ट्रंप ने भी दिए थे झटके
हालांकि ट्रंप की भी कई ऐसी नीतिया रही हैं जिनसे भारत को नुक़सान हुआ है. ट्रंप सरकार ने अपनी प्रिफ्रेंशियल ट्रेड पॉलिसी (कारोबार में तवज्जो) के जनरल सिस्टम ऑफ़ प्रिफरेंसेज़ में से भारत को बाहर कर दिया था. इस नीति की वजह से भारत से अमरीका जाने वाले 1930 उत्पाद अमरीका में आयात शुल्क देने से बच जाते थे. साल 1970 के दशक में अमरीकी सरकार ने विकासशील देशों की अर्थव्यवस्थाओं को मजबूत करने के मंसूबे के साथ इस नीति को अपनाया था. इसके अलावा एचबी1 वीज़ा पर भी ट्रंप की नीतियां भारत के ख़िलाफ़ रही हैं.
लेकिन ट्रंप प्रशासन सीएए, एनआरसी और कश्मीर को लेकर चुप रहा था. इस मामले में पाकिस्तान ने अमेरिका पर दबाव बनाने की कोशिश की थी लेकिन ट्रंप प्रशासन पर इसका असर नहीं पड़ा था.(bbc)
न्यूयॉर्क, 8 नवंबर | आज से लेकर 20 जनवरी 2021 के बीच 70 से ज्यादा दिन बाकी हैं, जब अमेरिका के 46 वें राष्ट्रपति शपथ ग्रहण करेंगे।
शनिवार, 7 नवंबर को टेलीविजनों पर बाइडेन के प्रेसिडेंट चुने जाने की हेडलाइन प्रसारित हुईं। लेकिन वोटों की गिनती का लंबा काम अभी भी जारी है। न्यूज नेटवर्क ही अमेरिका में चुनावी दौड़ के दौरान नतीजे बताते हैं क्योंकि इसके लिए कोई राष्ट्रीय चुनाव निकाय नहीं है, जो नतीजों की घोषणा करे।
अमेरिकी चुनाव राज्य स्तर पर चलाए जाते हैं और परिणाम के आधिकारिक रूप से प्रमाणित होने से पहले एक लंबी प्रक्रिया होती है। साथ ही कागजी कार्रवाई खत्म करने की समय सीमा होती है। जैसे कि 8 दिसंबर तक राज्य स्तर पर वोटों की गिनती और कानूनी चुनौतियों के मुद्दे हल हो जाने चाहिए। फिर 538 इलेक्टोरल कॉलेज इन परिणामों पर अपनी आधिकारिक मुहर लगाकर उन्हें अमेरिकी कांग्रेस को सौंपते हैं।
इसके बाद 6 जनवरी, 2021 को अमेरिकी कांग्रेस एक संयुक्त सत्र आयोजित करेगी, जहां मौजूदा उपराष्ट्रपति माइक पेंस औपचारिक रूप से राष्ट्रपति चुनाव के परिणाम की घोषणा करेंगे।
इस साल कानूनी कार्रवाई काफी हुई है। बाइडेन कैंपेन के वकील बॉब बाउर ने कहा कि ट्रंप कैंपेन के मुकदमे केवल चुनावी प्रक्रिया के बारे में एक झूठी कहानी फैलाने वाले हैं। वहीं ट्रंप कह रहे हैं कि उन्होंने चुनाव जीत लिया है और अब कैंपेन मामले को अदालत में लेकर जाएगा।
खैर, मुख्य दिन 20 जनवरी, 2021 को बुधवार का होगा, जब राष्ट्रपति पद की शपथ ली जाएगी।(आईएएनएस)
न्यूयॉर्क, 8 नवंबर | अमेरिका की उपराष्ट्रपति-चुनी गईं कमला हैरिस ने विलमिंगटन, डेलावेयर में जीत का अद्भभुत भाषण दिया। जाने-माने विषयों का जिक्र किया और जो बाइडेन के उस साहस की तारीफ की कि जो उन्होंने उप-राष्ट्रपति के उम्मीदवार के तौर पर एक महिला को चुनकर दिखाया।
हैरिस ने अपनी मां श्यामला गोपालन का उल्लेख करते हुए कहा, "हर छोटी लड़की आज रात को देखेगी कि यह संभावनाओं का देश है।"
हैरिस लाल और नीली बत्ती लगी एक मोटरसाइकिल पर पहुंची, जो कि संकेत था व्हाइट हाउस अब डोनाल्ड ट्रंप-माइक पेंस के हाथ से चला गया है। वे पीच और व्हाइट कलर का पैंट सूट पहने थीं। अपनी बातों में हैरिस ने बहुसांस्कृतिक अमेरिका के अविश्वसनीय वादे की झलक दिखाई।
अपने भाषण में उन्होंने कहा, "कांग्रेसी जॉन लुईस ने अपने निधन से पहले लिखा था कि लोकतंत्र एक राज्य नहीं है। यह एक अधिनियम है। इससे उनका मतलब था कि अमेरिका के लोकतंत्र की गारंटी नहीं है। यह उतना ही मजबूत है जितना कि इसके लिए लड़ने की, रक्षा करने की हमारी इच्छा मजबूत है। लोकतंत्र की रक्षा में संघर्ष है, यह कुछ बलिदान मांगता है, लेकिन इसमें खुशी और प्रगति भी है। क्योंकि हम लोगों में बेहतर भविष्य बनाने की शक्ति है।"
उन्होंने कहा, "मेरी मां श्यामला गोपालन हैरिस ..जब 19 साल की उम्र में भारत से अमेरिका आईं होंगी तो उन्होंने इस पल की कभी कल्पना भी नहीं की होगी। लेकिन वो अमेरिका में भरोसा करती थीं। मैं सोचती हूं आज के इस पल ने महिलाओं की पीढ़ियों, अश्वेत महिलाओं, मूल अमेरिकी महिलाओं सभी के लिए रास्ता बनाया है।"
जो को लेकर उन्होंने कहा, "जो के चरित्र की खासियत है कि वे अपने साहस से बाधाओं को तोड़ते हैं, उन्होंने एक महिला को उप-राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के तौर पर चुनकर एक अहम बाधा को तोड़ा है। जब मैं इस कार्यालय में पहली महिला हो सकती हूं, तो मैं अंतिम नहीं होगी। आज रात हर छोटी लड़की देखेगी कि यह संभावनाओं का देश है। लिंग की परवाह किए बिना हमारे देश ने बच्चों को एक स्पष्ट संदेश भेजा है कि महत्वाकांक्षा के साथ सपने देखें, ²ढ़ विश्वास के साथ आगे बढ़ें और उन रास्तों पर जाएं जो दूसरों के लिए आसान नहीं थे, हम आपको हर कदम पर सराहेंगे।"
अमेरिकियों को लेकर हैरिस ने कहा, "अमेरिका के लोगों, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आपने किसे वोट दिया। मैं जो कि तरह उप-राष्ट्रपति बनने की कोशिश करूंगी जैसे वे ओबामा के लिए थे: वफादार, ईमानदार, और हर दिन आपके और आपके परिवार के बारे में सोचकर जागने वाले। क्योंकि अब जब असली काम शुरू हो रहा है तो सबसे जरूरी काम है इस महामारी को हराकर हमारी अर्थव्यवस्था का पुर्ननिर्माण करना।"(आईएएनएस)
अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों में बीबीसी के अनुमान में डेमोक्रेटिक उम्मीदवार जो बाइडन ने जीत दर्ज कर ली है. उन्होंने उप-राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के तौर पर सीनेटर कमला हैरिस को चुना था. यानी के कमला अब अमेरिका की नई उप-राष्ट्रपति होंगी. कमला जानी-मानी ब्लैक नेता हैं. लेकिन उन्होंने अपनी भारतीय जड़ें नहीं छोड़ी हैं.
कमला हैरिस ने 2018 में अपनी आत्मकथा, 'द ट्रुथ वी टोल्ड' में लिखा, "लोग मेरा नाम किसी विराम चिन्ह यानी "Comma-la'' की तरह बोलते हैं."
इसके बाद कैलिफोर्निया की सीनेटर कमला अपने भारतीय नाम का मतलब समझाती हैं. कमला भारत में जन्मी मां और जमैका में पैदा हुए पिता की संतान हैं.
कमला कहती हैं, "मेरे नाम का मतलब है 'कमल का फूल'. भारतीय संस्कृति में इसकी काफ़ी अहमियत है. कमल का पौधा पानी के नीचे होता है. फूल पानी के सतह से ऊपर खिलता है. जड़ें नदी तल से मज़बूती से जुड़ी होती हैं."
साझा नस्ल की विरासत पर गर्व
कमला और उनकी बहन माया ऐसे घर में बड़ी हुईं जो ब्लैक अमेरिकी कलाकारों के संगीत से गूंजता रहता था. उनकी मां एरेथा फ्रैंकलिन की 'अर्ली गोस्पेल' गुनगुनाती रहती थीं और स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी में अर्थशास्त्र पढ़ाने वाले पिता जैज के दीवाने थे. उनके टर्नटेबल पर थेलोनियस मॉन्क और जॉन कोल्ट्रेन के रिकार्ड बजते रहते थे.
(1/2) Was there ever more of an exciting day? For our entire country of course, but especially for my Black and Indian sisters, many of us who have gone our entire lives thinking that someone who looks like us may never hold high office? We work so hard and contribute to the pic.twitter.com/LpG0DvsGuT
— Mindy Kaling (@mindykaling) August 11, 2020
कमला जब पाँच साल की थीं तो उनकी मां श्यामला गोपालन और पिता डोनाल्ड हैरिस अलग हो गए. कमला और उनकी बहन की परवरिश उनकी सिंगल हिंदू मदर ने ही की. कैंसर रिसर्चर और मानवाधिकार कार्यकर्ता श्यामला और उनकी दोनों बेटियों को '' श्यामला एंड द गर्ल्स'' के नाम से जाना जाता है.
कमला की मां ने सुनिश्चित किया कि उनकी दोनों बेटियां अपनी पृष्ठभूमि को अच्छी तरह जानते हुए बड़ी हों.
कमला अपनी आत्मकथा में लिखती हैं. "मेरी मां यह अच्छी तरह जानती थीं कि वह दो ब्लैक बेटियों को बड़ी कर रही हैं. उन्हें पता था कि उन्होंने जिस देश को रहने के लिए चुना है वह माया और मुझे ब्लैक लड़कियों के तौर पर ही देखेगा. लेकिन वह इस बात को लेकर दृढ़ थीं कि वह अपने बेटियों की परवरिश इस तरह करेंगी कि वे आत्मविश्वासी ब्लैक महिला के तौर पर दुनिया के सामने आएं."
वॉशिंगटन पोस्ट ने पिछले साल लिखा, "हैरिस अपनी भारतीय संस्कृति के साथ पलती हुई बड़ी हुई हैं, लेकिन वह बड़े ही शान से अपनी अफ्ऱीकी-अमरीकी ज़िंदगी जीती हैं."
2015 में जब वह पहली बार सीनेट की सीट के लिए चुनाव मैदान उतरीं तो 'द इकोनॉमिस्ट' ने लिखा, " कमला की मां भारतीय और पिता जमैका के हैं. कैंसर रिसर्चर मां और इकनॉमिक्स के प्रोफ़ेसर पिता की संतान कमला सीनेट में जाने वाली पहली अफ्ऱीकी-अमरीकी महिला और कैलिफ़ोर्निया की पहली एशियाई अटॉर्नी जनरल हैं."
सीनेट की सदस्य 55 साल की कमला कहती हैं कि वह अपनी इस पहचान से जूझने के बजाय ख़ुद को एक अमरीकी कहलाना ही पसंद करती हैं. लेकिन जो लोग कमला को जानते हैं कि वे कहते हैं कि वह दोनों समुदायों में भली-भांति घुलमिल जाती हैं.
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भारतीय परंपराओं से प्रेम
कमला हैरिस ने राष्ट्रपति पद के लिए अपने अभियान की शुरुआत की थी तो भारतीय मूल की अमरीकी कॉमेडियन और अभिनेत्री मिंडी कैलिंग ने उनके यू ट्यूब पेज पर एक वीडियो पोस्ट किया था. इसमें कमला और कैलिंग भारतीय भोजन बनाती दिख रही हैं. वीडियो में दोनों अपनी साझा दक्षिण भारतीय पृष्ठभूमि के बारे में भी बात करती हुई दिख रही हैं.
कैलिंग कहती हैं कि बहुत से लोग उनकी भारतीय विरासत के बारे में नहीं जानते हैं. जब भी वह भारतीय मूल के अमरीकी लोगों से मिलती हैं वे उन्हें कमला की इस विरासत के बारे में याद दिलाते हैं.
कैलिंग इस वीडियो में कहती हुई दिख रही हैं, "हमें लगता है कि आप हमारी ही तरह हैं. हम राष्ट्रपति पद के लिए शुरू किए गए आपके अभियान से रोमांचित हैं."
कैलिंग हैरिस से पूछती हैं कि क्या वह दक्षिण भारतीय खाना खाते हुए बड़ी हुई हैं. इस सवाल पर कमला एक के बाद एक दक्षिण भारतीय भोजन का नाम लेती दिखती हैं. वह कहती हैं कि वह ख़ूब सारा चावल और दही, आलू की रसदार सब्जी, दाल और इडली खाते हुए बड़ी हुई हैं.
कमला बताती हैं कि जब एक बार वह भारत में अपने ननिहाल पहुंची थीं तो नानी के घर पर न रहने पर उनके नाना ने धीरे से उन्हें पूछा था कि क्या वह अंडे से बना फ्रेंच टोस्ट खाना पसंद करेंगी? (भारत में अंडे को मांसाहारी खाना समझा जाता है).
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अपनी आत्मकथा में कमला लिखती हैं कि कैसे वह घर पर भारतीय बिरयानी और स्पैगेटी बोलोगनीज दोनों बनाती हैं.
(मंगलवार को कैलिंग ने कमला हैरिस की राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी का बड़ी गर्मजोशी का स्वागत किया. उन्होंने लिखा, "आज का दिन जबर्दस्त है. ख़ास कर मेरी ब्लैक और भारतीय बहनों के लिए.")
जब कमला ने 2014 में वकील डगलस एम्पहॉफ से शादी की तो इसमें भारतीय और यहूदी परंपरा दोनों निभाई गई. कमला ने डगलस को फूलों की माला पहनाई, जबकि डगलस ने यहूदी परंपरा के तहत पैर से कांच तोड़ी.
अफ्रीकी-अमरीकी राजनीतिक नेता के तौर पर पहचान
इस साझा बैकग्राउंड से अलग कमला हैरिस की छवि एक अफ्रीकी-अमरीकी राजनीतिक नेता के रूप में ज़्यादा मज़बूत दिखती है. ख़ास कर हाल में अमरीका में ब्लैक लाइव्स मैटर्स आंदोलन के दौरान चल रहे विमर्शों में उन्हें अफ्रीकी-अमरीकी राजनीतिक नेता के तौर पर ही देखा गया.
लेकिन अमरीका में रहने वाले भारतीय मूल के लोग भी उन्हें अपने ही समुदाय का मानते हैं. उनकी उम्मीदवारी अमरीका में भारतीय और दक्षिण एशियाई समुदायों को मिल रही व्यापक पहचान का सबूत है.
कमला की ज़िंदगी पर माँ की गहरी छाप
यह बिल्कुल साफ़ है कि कमला की ज़िंदगी में उनकी दिवंगत मां की गहरी छाप है. मां कमला के लिए बड़ी प्रेरणा रही हैं. कमला की मां श्यामला गोपालन का जन्म चेन्नई में हुआ था. मां-बाप की चार संतानों में वह सबसे बड़ी थीं.
कमला की मां ने 19 साल की उम्र में दिल्ली यूनिवर्सिटी से ग्रैजुएशन कर लिया था. इसके बाद उन्होंने बर्कले के ग्रैजुएट प्रोग्राम के लिए आवेदन दिया. एक ऐसी यूनिवर्सिटी के लिए जिसे उन्होंने कभी देखा नहीं था और यह एक ऐसे देश में थी, जहां अब तक वह कभी नहीं गई थीं.
1958 में न्यूट्रीशिन और एंडोक्रनॉलोजी में पीएचडी करने के लिए वह भारत से निकल पड़ीं. बाद में वह ब्रेस्ट कैंसर के फील्ड में रिसर्चर बन गईं.
कमला हैरिस कहती हैं, "मेरे लिए यह कल्पना करना ही मुश्किल है कि नाना-नानी के लिए मेरी मां को भारत से बाहर जाने देने का फ़ैसला कितना कठिन रहा होगा. उस समय कॉमर्शियल हवाई उड़ानें शुरू ही हुई थीं. एक दूसरे से संपर्क में रहना भी काफ़ी कठिन था. फिर भी जब मेरी मां ने कैलिफ़ोर्निया जाने की इजाज़त मांगी तो मेरे नाना-नानी ने मना नहीं किया."
हैरिस ने लिखा है कि उनकी मां से अपनी पढ़ाई पूरी कर वतन लौटने और यहां मां-बाप की पसंद से शादी कर घर बसाने की उम्मीद थी. लेकिन किस्मत को कुछ और मंज़ूर था.
कमला की मां और पिता की मुलाक़ात बर्कले में हुई. मानवाधिकार आंदोलनों में हिस्सा लेते हुए दोनों एक दूसरे के प्यार में पड़ गए. कमला लिखती हैं, "मेरी मां ने अपने प्रेमी से शादी करने और अमरीका में रहने का फ़ैसला किया. यह आत्मनिर्णय और प्रेम की पराकाष्ठा थी".
साल 1964 में श्यामला गोपालन ने 25 साल की उम्र में डॉक्टरेट की डिग्री हासिल कर ली. उसी साल कमला हैरिस का जन्म हुआ. कमला हैरिस लिखते हैं कि उनकी मां अपनी दोनों बेटियों की डिलिवरी होने तक काम पर जाती रहीं. वह लिखती हैं, "पहले केस में तो उनके गर्भ का पानी ही निकल गया था. उस वक्त वह लैब में काम कर रही थीं. दूसरे केस में एपल स्ट्रडल बनाते वक़्त ऐसा हुआ."
भारत में कमला की मां की परवरिश एक ऐसे परिवार में हुआ जो राजनीतिक और नागरिक आंदोलन से जुड़ा रहा.
कमला की नानी हाई स्कूल तक भी नहीं पढ़ी थीं लेकिन वह घरेलू हिंसा की शिकार महिलाओं की मददगार थीं. वह महिलाओं को गर्भ निरोधक उपायों के बारे में बताती थीं. इसमें उन्हें मदद करती थीं. कमला के नाना पी वी गोपालन भारत सरकार में सीनियर राजनयिक थे. जमैका की आजादी के बाद वह यहां भेजे गए थे. उन्होंने शरणार्थियों को बसने में मदद की.
कमला ने अपनी आत्मकथा में भारत की अपनी यात्राओं के बारे में ज़्यादा नहीं लिखा है. लेकिन वह लिखती हैं कि वह अपने मामा और दो मौसियों की नज़दीकी रहीं. उनके साथ फ़ोन और पत्र के ज़रिये उनका संपर्क बरक़रार रहा. कभी-कभार उनसे मिलने के लिए उन्होंने भारत की यात्रा भी की. कमला हैरिस की मां का 2009 में सत्तर साल की उम्र में निधन हो गया.
कमला की उम्मीदवारी से जोश में हैं भारतीय-अमरीकी
शेखर नरसिम्हन जैसे डेमोक्रेटिक पार्टी के कार्यकर्ताओं का कहना है कि कमला की उम्मीदवारी ने भारतीय अमरीकी समुदाय को जोश से भर दिया है. वह महिला हैं. उनका दो नस्लों से संबंध हैं और वह राष्ट्रपति चुनाव में जो बाइडेन की मदद करेंगी. अमरीका के कई समुदायों में उन्हें पसंद किया जाता है और वह वास्तव में स्मार्ट हैं."
वह कहते हैं आखिर भारतीय मूल के अमरीकियों को कमला पर गर्व क्यों न हो? उनकी उम्मीदवारी बताती है कि अमरूकी समाज में आने वाला वक्त हमारा है.(bbc)
महीनों पहले ख़ुद राष्ट्रपति बनने का सपना टूटने के बाद कमला हैरिस के पास डेमोक्रेटिक टिकट पर कमाल दिखाने का एक ही मौक़ा था.
एक साल पहले कैलिफ़ोर्निया की सीनेटर ने उम्मीदवारों की भीड़ से अलग छाप छोड़ी थी और लगातार कई बेहतरीन भाषण भी दिए. यही नहीं, राष्ट्रपति पद की रेस में उन्होंने अपने प्रतिद्वंद्वी जो बाइडन की आलोचना भी ख़ूब की. लेकिन साल 2019 के अंत तक उनका प्रचार अभियान ठंडा पड़ चुका था.
डेमोक्रेटिक पार्टी के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार जो बाइडन ने 55 वर्षीय कमला हैरिस को उप-राष्ट्रपति पद के लिए अपना उम्मीदवार बनाया था. अब उन्होंने जीत दर्ज कर ली है.
राष्ट्रपति चुनावों में डेमोक्रैट की जीत का पक्की हो चुकी है जिसके बाद कमल हैरिस ने ट्वीट भी किया है.
उन्होंने ट्वीट में लिखा है, "यह चुनाव जो बाइडन या मेरे लिए बहुत कुछ था. यह अमेरिका की आत्मा और इसकी लड़ाई के लिए हमारी इच्छा थी. हमारे लिए आगे अब बहुत काम है. चलिए शुरू करते हैं."
कौन हैं कमला हैरिस?
कैलिफ़ोर्निया की डेमोक्रेट नेता कमला हैरिस ऑकलैंड में पैदा हुईं. उनकी मां भारतीय मूल की हैं और पिता जमैका मूल के. तलाक के बाद हैरिस को उनकी हिंदू मां ने अकेले ही पाला. उनकी मां कैंसर रिसर्चर और सिविल राइट्स एक्टिविस्ट रही हैं. वो भारतीय विरासत के साथ पली बढ़ीं, अपनी मां के साथ भारत आती रहीं लेकिन हैरिस बताती हैं कि उनकी मां ने अमरीकी-अफ्रीकी संस्कृति अपना ली थी और अपनी दोनों बेटियों कमला और माया को भी इसी में रखा.
वो कहती हैं, "मेरी मां बहुत अच्छे से जानती थी कि वो दो काली बेटियों को पाल रही है."
उन्होंने अपनी आत्मकथा 'द ट्रुथ वी होल्ड' में यह लिखा.
वो लिखती हैं, "उन्हें पता था कि उन्होंने जिस धरती को घर की तरह अपनाया है वो माया और मुझे काली लड़कियों की तरह देखेगी. वो यह सुनिश्चित करने के लिए दृढ़ संकल्पित थीं कि हम आत्मविश्वास से परिपूर्ण, काली महिलाओं के रूप में बड़ी हों."
उन्होंने देश की चर्चित होवार्ड यूनिवर्सिटी में दाख़िला लिया. यह देश के ऐतिहासिक कॉलेज और यूनिवर्सिटी में से एक है. इसे वो ज़िंदगी का सबसे रचनात्मक अनुभव बताती हैं.
हैरिस कहती हैं कि वो हमेशा से अपनी पहचान को लेकर सहज रही हैं और खुद को अमरीकी बताती हैं.
साल 2019 में उन्होंने वॉशिंगटन पोस्ट से कहा था कि राजनेताओं को उनका पृष्ठभूमि या रंग की वजह से किसी कंपार्टमेंट में नहीं फिट कर देना चाहिए. उन्होंने कहा, "मेरा मानना है कि मैं वो हूं जो मैं हूं. मैं इसी के साथ ठीक हूं. आपको इस पर विचार करना पड़ सकता है लेकिन मैं ऐसे ही ठीक हूं."
क़ानून-व्यवस्था और कामयाबी की सीढ़ी
होवार्ड में चार साल बिताने के बाद हैरिस क़ानून की पढ़ाई के लिए कैलिफ़ोर्निया यूनिवर्सिटी, हैस्टिंग चली गईं और फिर अलामेडा काउंटी डिस्ट्रिक्ट अटॉर्नी ऑफिस से अपने करियर की शुरुआत की.
साल 2003 में वो सैन फ्रांसिस्को की शीर्ष अधिवक्ता बन गईं थी. इसके बाद वो कैलिफ़ोर्निया की अटॉर्नी जनरल चुन ली गईं. अमरीका के सबसे अधिक आबादी वाले राज्य में इस पद पर पहुंचने वाली वो पहली महिला और पहली अफ्रीकी महिला बनीं.
बतौर अटॉर्नी जनरल अपने दो कार्यकाल में कमला हैरिस ने डेमोक्रेटिक पार्टी के उभरते सितारे के तौर पर अपनी साख बनाई और इसी का इस्तेमाल करके उन्होंने साल 2017 में कैलिफ़ोर्निया की जूनियर यूएस सीनेटर का चुनाव लड़ा.
अमरीकी सीनेट में चुने जाने पर हैरिस अपनी बातों की वजह से काफ़ी चर्चा में रहीं. सीनेट की महत्वपूर्ण सुनवाइयों में तत्कालीन सुप्रीम कोर्ट के नॉमिनी ब्रेट कावानॉघ और अटॉर्नी जनरल विलियम बार पर अपने सवालों की वजह से भी वो चर्चा में रहीं.
व्हाइट हाउस की तमन्ना
जब उन्होंने 20 हज़ार लोगों की भीड़ के सामने ऑकलैंड कैलिफ़ोर्निया में राष्ट्रपति पद के लिए अपनी उम्मीदवारी का ऐलान किया तो वो साल 2020 के इस दांव के लिए काफ़ी उत्साहित थीं. लेकिन अपने कैंपेन को लेकर वो स्पष्ट तर्क देने में चूक गईं और जब उनसे स्वास्थ्य सेवा जैसे मुद्दे पर सवाल किए गए तो उन्होंने काफ़ी गोलमोल जवाब दिए. इसके साथ ही वो अपनी उम्मीदवारी के दावे को लेकर ज्यादा नंबर नहीं जुटा पाईं. उम्मीदवारी की डिबेट में उनकी अधिवक्ता वाली खूबी दिखी, बार-बार वो बिडेन पर हमला बोल रही थीं.
क़ानून की डिग्री और अनुभव रखने वाली हैरिस ने अपनी पार्टी में प्रगतिशील और उदारवादी धाराओं के बीच संभलकर चलने की कोशिश की लेकिन दोनों में से एक को भी सही से अपील नहीं कर पाईं. दिसंबर में उन्होंने अपनी उम्मीदवारी ख़त्म कर दी. इसके कुछ समय बाद ही 2020 की शुरुआत में डोमोक्रेटिक्स का पहला उम्मीदवारी कॉन्टेस्ट होने वाला था.
मार्च में हैरिस ने पूर्व राष्ट्रपति का समर्थन किया और कहा कि "वो उन्हें अमरीका का अगला राष्ट्रपति चुने जाने में हर मुमकिन मदद करेंगी."
अपराध और पुलिसिंग को लेकर उनका रिकॉर्ड
कमला हैरिस की उम्मीदवारी ने उनके कैलिफ़ोर्निया के टॉप अधिवक्ता के रिकॉर्ड को चर्चा के केंद्र में लगा दिया है.
गे मैरिज और मृत्युदंड जैसे मसलों पर वामपंथी झुकाव होने के बावजूद वो बार-बार प्रगतिशील सोच वाले लोगों के निशाने पर रही हैं. उनपर ये सवाल उठते हैं कि उन्हें जितना प्रगतिशील होना चाहिए वो उतनी नहीं हैं. सैन फ्रांसिस्को विश्वविद्यालय में क़ानून की प्रोफ्रेसर लारा बाज़ेलोन ने हैरिस की आलोचना में एक लेख भी लिखा था.
कमला हैरिस के अभियान की शुरुआत में बाज़ेलन ने लिखा था कि हैरिस ने पुलिस सुधार, ड्रग सुधार और ग़लत तरीक़े से अपराधी ठहराए जाने जैसे मसलों की प्रगतिशील लड़ाइयों से किनारा किया.
लेकिन खुद को "प्रोग्रेसिव अधिवक्ता" कहने वाली हैरिस ने अपनी विरासत के ज़्यादातर वामपंथी झुकाव वाले हिस्सों पर ज़ोर देने की कोशिश की है - जैसे कैलिफ़ोर्निया के डिपार्टमेंट ऑफ जस्टिस के कुछ ख़ास एजेंट्स को बॉडी कैमरे का इस्तेमाल करने के लिए कहा गया, इस फैसले पर अमल करने वाली ये पहली स्टेट एजेंसी बनी और उन्होंने एक डेटाबेस लॉन्च किया, जिससे आम लोग भी अपराध के आंकड़े देख सकते हैं - लेकिन इन कदमों से भी वो ज़्यादा ध्यान नहीं खींच पाईं.
चुनाव अभियानों के दौरान "कमला इस अ कॉप" वाक्य का खूब इस्तेमाल हो रहा है, जिससे प्राइमरीज़ में ज़्यादा लिबरल डेमोक्रिटिक बेस हासिल करने में उन्हें मुश्किल हो रही है. लेकिन यही चीज़ें उन्हें आम चुनाव में तब फायदा दे सकती हैं जब डेमोक्रेट्स को और ज़्यादा मोडरेट मतदाताओं और निर्दलीयों पर जीत की ज़रूरत होगी.
इस वक्त अमरीका में नस्लवादी घटनाओं और पुलिस की बर्बरता पर बहस छिड़ी हुई है, ऐसे में हैरिस को अपने अनुभव का फायदा मिल सकता है.
कई टॉक शो में उन्होंने कहा है कि पूरे अमरीका में पुलिस के काम के तरीक़े में सुधार होना चाहिए.
ट्वीटर पर उन्होंने उस पुलिस अधिकारी की गिरफ्तारी की मांग की जिनके हाथों 26 साल की अफ्रीकी-अमरीकी महिला ब्रेओना टेलर की जान चली गई थी.
और हैरिस सिस्टमेटिक नस्लवाद को ख़त्म करने की ज़रूरत पर अक्सर बोलती हैं.
कमला हैरिस कई बार बोल चुकी हैं कि अपनी पहचान की वजह से वो वंचित तबकों का प्रतिनिधित्व करने के लिए सही व्यक्ति हैं. (bbc.com/hindi)
अमेरिकी राष्ट्रपति पद के लिए डेमोक्रेटिक पार्टी के उम्मीदवार जो बाइडन पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा के दोनों कार्यकाल में उप-राष्ट्रपति रह चुके हैं. 77 साल के जो बाइडन अब से पहले राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी के दौड़ में भी दो बार और शामिल हो चुके हैं. पहली बार 1988 और दूसरी बार 2008 में.
पहली बार 1988 में उन्होंने राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी की दौड़ से ख़ुद को ये कहते हुए बाहर कर लिया था कि उन्होंने ब्रिटिश लेबर पार्टी के नेता नील किनॉक के भाषण की नकल की थी.
दरअसल, जब 1987 में बाइडन ने राष्ट्रपति चुनाव में प्रत्याशी बनने के लिए पहली बार कोशिश करनी शुरू की थी, तो उन्होंने रैलियों में दावा करना शुरू कर दिया था कि, "मेरे पुरखे उत्तरी पश्चिमी पेंसिल्वेनिया में स्थित कोयले की खानों में काम करते थे."
बाइडन ने भाषण में ये कहना शुरू कर दिया था कि उनके पुरखों को ज़िंदगी में आगे बढ़ने के वो मौक़े नहीं मिले जिनके वो हक़दार थे, और वो इस बात से बेहद ख़फ़ा हैं.
मगर, हक़ीक़त ये है कि बाइडन के पूर्वजों में से किसी ने भी कभी कोयले की खदान में काम नहीं किया था. सच तो ये था कि बाइडन ने ये नील किनॉक के संबोधन की नक़ल करते हुए कहा था. नील किनॉक के पुरखे वाक़ई कोयला खदान में काम करने वाले मज़दूर थे.
इसके बाद वो 2008 में भी डेमोक्रेटिक पार्टी की ओर से राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी की दौड़ में शामिल हुए, लेकिन उस वक़्त बराक ओबामा पार्टी की ओर से उम्मीदवार बना दिए गए थे.
तब वो उप-राष्ट्रपति के तौर पर चुने गये. माना जाता है कि अमरीकी विदेश नीति पर उनकी शानदार पकड़ की वजह से बराक ओबामा ने उन्हें उप-राष्ट्रपति पद के लिए अपनी पसंद बनाया था.
बराक ओबामा ने अपनी जीत के मौक़े पर दिए भाषण में बाइडन की तारीफ़ करते हुए कहा था कि "इस यात्रा में मेरे सहयोगी ने दिल से मेरा साथ दिया है."
बराक ओबामा ने बाद में उन्हें “अमेरिका को मिला अब तक का सबसे बेहतरीन उप-राष्ट्रपति” भी बताया था. बाइडन एफ़ोर्डेबल केयर एक्ट, आर्थिक प्रोत्साहन पैकेज और वित्तीय उद्योग सुधार जैसे ओबामा के फ़ैसलों के मज़बूत समर्थक रहे हैं.
जो बाइडन डेलावेयर प्रांत से छह बार सीनेटर रह चुके हैं. 1972 में वो पहली बार यहाँ से सीनेटर चुने गए थे. उस वक्त वो सबसे कम उम्र के सीनेटर थे. उस समय उनकी उम्र महज़ 30 साल थी.
प्रारंभिक जीवन
जो बाइडन का जन्म पेंसिल्वेनिया के स्क्रैनटॉन में 1942 एक आइरिश-कैथोलिक परिवार में हुआ था. उनके अलावा उनके तीन और भाई-बहन हैं.
उनका परिवार बाद में पेंसिल्वेनिया छोड़ कर अमरीका के उत्तरी-पूर्वी राज्य डेलावेयर चला गया. वहाँ स्कूली पढ़ाई के बाद जो बाइडन ने यूनिवर्सिटी ऑफ़ डेलावेयर और साइराकुज़ लॉ स्कूल से अपनी पढ़ाई पूरी की.
अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत में उन्होंने अमेरिकी बच्चों के बीच नस्लीय भेदभाव कम करने के लिए एक साथ पढ़ाने का विरोध करने वालों का साथ दिया था.
तब दक्षिण के अमरीकी राज्य इस बात के ख़िलाफ़ थे कि गोरे अमरीकी बच्चों को बसों में भर कर काले बहुल इलाक़ों में ले जाया जाए.
इस बार के चुनाव अभियान के दौरान, बाइडन को उनके इस स्टैंड के लिए बार-बार निशाना बनाया गया. वो 1994 में लाए गए अपराध रोकने वाले बिल के भी मज़बूत समर्थक रहे हैं. इस बिल के आलोचकों का कहना है कि इसकी वजह से बड़े पैमाने पर लंबी सज़ाओं और हिरासत में रखे जाने को बल मिला.
जो बाइडन के इस तरह के रुख़ के कारण कई बार उनकी पार्टी को असहज स्थिति का सामना करना पड़ा है.
2012 में वो उस वक़्त सुर्खियों में आ गए थे जब उन्होंने खुलकर समलैंगिक विवाह का समर्थन किया था. इसे उस वक्त के राष्ट्रपति बराक ओबामा को नज़रअंदाज करने के तौर पर देखा गया था क्योंकि उस वक्त तक ओबामा ने खुलकर इस पर अपनी राय नहीं रखी थी.
बाइडन के समर्थन के कुछ दिनों के बाद आख़िरकार ओबामा ने समलैंगिकता के पक्ष में बयान दिया था.
पारिवारिक जीवन
जो बाइडन 1972 में पहली बार अमरीकी सीनेट का चुनाव जीत कर शपथ लेने की तैयारी कर रहे थे, तभी उनकी पत्नी नीलिया और बेटी नाओमी की एक कार दुर्घटना में मौत हो गई. इस हादसे में उनके दोनों बेटे ब्यू और हंटर भी ज़ख़्मी हो गए थे.
2015 में ब्यू की 46 साल की उम्र में ब्रेन ट्यूमर से मौत हो गई थी.
बीबीसी वर्ल्ड सर्विस के पीटर बाल अपनी रिपोर्ट में लिखते हैं कि इतनी कम उम्र में इतने क़रीबी लोगों को गंवा देने के कारण, आज बाइडन से बहुत से आम अमरीकी लोग जुड़ाव महसूस करते हैं. लोगों को लगता है कि इतनी बड़ी सियासी हस्ती होने और सत्ता के इतने क़रीब होने के बावजूद, बाइडन ने वो दर्द भी अपनी ज़िंदगी में झेले हैं, जिनसे किसी आम इंसान का वास्ता पड़ता है.
लेकिन, बाइडन के परिवार के एक हिस्से की कहानी बिल्कुल अलग है. ख़ास तौर से उनके दूसरे बेटे हंटर की.
जो बाइडन के दूसरे बेटे हंटर ने वकालत की पढ़ाई पूरी करके लॉबिंग का काम शुरू किया था. इसके बाद उनकी ज़िंदगी बेलगाम हो गई.
हंटर की पहली पत्नी ने उन पर शराब और ड्रग्स की लत के साथ-साथ नियमित रूप से स्ट्रिप क्लब जाने का हवाला देते हुए तलाक़ की अर्ज़ी अदालत में दाख़िल की. कोकीन के सेवन का दोषी पाए जाने के बाद हंटर को अमरीकी नौसेना ने नौकरी से निकाल दिया था.
एक बार हंटर बाइडन ने न्यू यॉर्कर पत्रिका के साथ बातचीत में माना था कि एक चीनी ऊर्जा कारोबारी ने उन्हें तोहफ़े में हीरा दिया था. बाद में चीन की सरकार ने इस कारोबारी पर भ्रष्टाचार के आरोपों की जाँच की थी.
अपनी निजी ज़िंदगी का हंटर ने जैसा तमाशा बनाया उससे बाइडन को काफ़ी सियासी झटके झेलने पड़े हैं. पिछले ही साल हंटर ने दूसरी शादी एक ऐसी लड़की से की थी, जिससे वो महज़ एक हफ़्ते पहले मिले थे. इसके अलावा हंटर की भारी कमाई को लेकर भी बाइडन पर निशाना साधा जाता रहा है.
बाइडन पर लगे आरोप
पिछले साल आठ महिलाओं ने सामने आकर ये आरोप लगाया था कि जो बाइडन ने उन्हें आपत्तिजनक तरीक़े से छुआ था, गले लगाया था या किस किया था.
इन महिलाओं के आरोप लगाने के बाद कई अमरीकी न्यूज़ चैनलों ने बाइडन के सार्वजनिक समारोहों में महिलाओं से अभिवादन करने की तस्वीरें दिखाई थीं. इनमें कई बार बाइडन को महिलाओं के बाल सूंघते हुए भी देखा गया था.
इन आरोपों के जवाब में बाइडन ने कहा था, “भविष्य में मैं महिलाओं से अभिवादन के दौरान अतिरिक्त सावधानी बरतूंगा.”
लेकिन, अभी इसी साल मार्च महीने में अमरीकी अभिनेत्री तारा रीड ने इल्ज़ाम लगाया था कि जो बाइडन ने तीस साल पहले उनके साथ यौन हिंसा की थी. उन्हें दीवार की ओर धकेल कर उनसे ज़बरदस्ती करने की कोशिश की थी.
उस वक़्त तारा रीड, बाइडन के ऑफ़िस में एक सहायक कर्मचारी के तौर पर काम कर रहीं थीं. जो बाइडन ने तारा रीड के इस दावे का सख़्ती से खंडन किया और एक बयान जारी करके कहा था कि, “ऐसा बिल्कुल भी नहीं हुआ था.”
इस साल दिए एक इंटरव्यू में तारा रीड ने कहा था, "बाइडन के सहयोगी मेरे बारे में भद्दी-भद्दी बातें कहते रहे हैं और सोशल मीडिया पर भी मुझे लेकर अनाप-शनाप बोल रहे हैं. ख़ुद बाइडन ने तो मुझे कुछ भी नहीं कहा. मगर, बाइडन के पूरे प्रचार अभियान में एक पाखंड साफ़ तौर पर दिखता है कि उनसे महिलाओं को बिल्कुल भी ख़तरा नहीं है. सच तो ये है कि बाइडन के क़रीब रहना कभी भी सुरक्षित नहीं था."
जो बाइडन की प्रचार टीम ने भी तारा रीड के इन आरोपों का खंडन किया था.
विदेश नीति को लेकर बाइडन का रुख़
जो बाइडन के समर्थक विदेश नीति को लेकर उनकी समझ को लेकर कायल रहते हैं. उनके पास क़रीब पांच दशकों के राजनीतिक अनुभव के साथ-साथ कूटनीति का भी लंबा अनुभव है. ये उनकी सबसे बड़ी ताकत के तौर पर भी राजनीति के मैदान में दिखाई पड़ती है.
जो बाइडन, पहले सीनेट की विदेशी मामलों की समिति के अध्यक्ष रह चुके हैं और वो ये दावा बढ़-चढ़कर करते रहे हैं कि, “मैं पिछले 45 बरस में कमोबेश दुनिया के हर बड़े राजनेता से मिल चुका हूं.”
जो बाइडन ने 1991 के खाड़ी युद्ध के ख़िलाफ़ वोट दिया था. लेकिन, 2003 में उन्होंने इराक़ पर हमले के समर्थन में वोट दिया था. हालांकि, बाद में वो इराक़ में अमेरिकी दख़ल के मुखर आलोचक भी बन गए थे.
ऐसे मामलों में बाइडन अक्सर संभलकर चलते हैं. अमेरिकी कमांडो के जिस हमले में पाकिस्तान में ओसामा बिन लादेन को मार गिराया गया था, बाइडन ने ओबामा को ये हमला न करने की सलाह दी थी.
विदेश नीति से जुड़े ज़्यादातर मामलों में बाइडन का रवैया मध्यमार्गी रहा है. बाइडन को लगता रहा है कि बीच का ये रवैया अपना कर वो उन मतदाताओं को अपनी ओर खींच सकते हैं, जो ये फ़ैसला नहीं कर पाए रहे कि ट्रंप और उनके बीच वे किसे चुनें.
कश्मीर और भारत को लेकर बाइडन की राय
इस साल जून के महीने में जो बाइडन ने कश्मीरियों के पक्ष में बयान देते हुए कहा था कि कश्मीरियों के सभी तरह के अधिकार बहाल होने चाहिए.
बाइडन ने कहा था कि कश्मीरियों के अधिकारों को बहाल करने के लिए जो भी क़दम उठाए जा सकते हैं, भारत सरकार उठाए. उन्होंने भारत के नागरिकता संशोधन क़ानून यानी सीएए को लेकर भी निराशा ज़ाहिर की थी. इसके अलावा उन्होंने नेशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटिज़न यानी एनआरसी को भी निराशाजनक बताया था.
जो बाइडन की कैंपेन वेबसाइट पर प्रकाशित एक पॉलिसी पेपर में कहा गया है, "भारत में धर्मनिरपेक्षता और बहुनस्ली के साथ बहुधार्मिक लोकतंत्र की पुरानी पंरपरा है. ऐसे में सरकार के ये फ़ैसले बिल्कुल ही उलट हैं."
कश्मीर को लेकर बाइडन के इस पॉलिसी पेपर में कहा गया है, "कश्मीरी लोगों के अधिकारों को बहाल करने के लिए भारत को चाहिए कि वो हर क़दम उठाए. असहमति पर पाबंदी, शांतिपूर्ण प्रदर्शन को रोकना, इंटरनेट सेवा बंद करना या धीमा करना लोकतंत्र को कमज़ोर करना है.
समाचार एजेंसी पीटीआई के अनुसार जून में अमरीकी हिन्दुओं के एक समूह ने बाइडन के इस पॉलिसी पेपर को लेकर आपत्ति जताई थी और बाइडन के कैंपेन के सामने इस समूह ने पॉलिसी पेपर की भाषा पर नाराज़गी ज़ाहिर की थी. इस समूह का कहना था कि यह भारत विरोधी है और इस पर विचार किया जाना चाहिए.
हालांकि बाइडन को दशकों तक सीनेटर और आठ साल तक उप-राष्ट्रपति के पद पर रहते हुए अब तक भारत के दोस्त के तौर पर ही देखा जाता रहा है. बाइडन भारत और अमेरिका के बीच द्विपक्षीय व्यापार बढ़ाने की भी वकालत करते रहे हैं.
वह भारत-अमरीका व्यापार को 500 अरब डॉलर तक ले जाने की बात करते रहे हैं. बाइडन अपने उप-राष्ट्रपति के आवास पर दिवाली का भी आयोजन करते रहे हैं.
एक ‘अकुशल’ वक्ता
बाइडन का दोस्ताना स्वभाव उनकी असली ताक़त रही है और उनकी मुस्कराहट एक तरह से उनकी फ़िलोसॉफ़ी रही है. वो मीठी ज़ुबान बोलने वाले नेता के तौर पर मशहूर हैं, जो बड़ी आसानी से लोगों का दिल जीत लेते हैं. लेकिन बीबीसी संवाददाता निक ब्रायंट अपने विश्लेषण में लिखते हैं कि चुनाव प्रचार के दौरान उनके भाषण लंबे-लंबे मोनोलॉग की शक्ल अख़्तियार कर लेते थे जो उनके सीनेट के दिनों की याद दिला रहे थे.
“कभी-कभार वह उप-राष्ट्रपति के अपने कार्यकाल के दौरान के साथियों का नाम ले लिया करते थे. लेकिन उनके उदाहरणों और कहानियों से कोई भी राजनीतिक बात निकलकर नहीं आती थी. जब वह अमरीका की आत्मा को बचाने की बात करते थे, तब उन्होंने कभी भी स्पष्ट रूप से ये नहीं बताया कि असल में उसका मतलब क्या होता है.”
वो लिखते हैं, "मैं बीते 30 सालों से अमेरिकी राजनीति पर रिपोर्टिंग कर रहा हूं लेकिन देश के सबसे बड़े पद की रेस में वह मुझे सबसे अधिक कमज़ोर उम्मीदवार लगे. वह साल 2016 में राष्ट्रपति पद की दौड़ से बाहर हुए, वो जेब बुश से भी ज़्यादा ख़राब उम्मीदवार लगे. फ़्लोरिडा के पूर्व गवर्नर जेब बुश कम से कम अपनी बात तो पूरी कर लेते थे चाहें उनकी बात ख़त्म होने के बाद कोई उनकी तारीफ़ करे या नहीं."
विवादास्पद बयानबाज़ी
इसके बावजूद बीबीसी संवाददाता पीटर बॉल मानते हैं कि बाइडन के पास वोटरों को लुभाने का क़ुदरती हुनर है. मगर इसके साथ ही वह यह भी मानते हैं कि बाइडन के साथ सबसे बड़ा जोखिम ये है कि वह कभी भी कुछ भी ग़लत बयानी कर सकते हैं, जिससे उनके सारे किए कराए पर पानी फिर जाए.
पीटर बॉल लिखते हैं कि जनता से रूबरू होने पर जो बाइडन अक्सर जज़्बात में बह जाते हैं और इसी कारण से राष्ट्रपति चुनाव का उनका पहला अभियान शुरू होने से पहले ही अचानक ख़त्म हो गया था (जब उन्होंने नील किनॉक के भाषण की नकल की थी).
2012 में अपने राजनीतिक तजुर्बे का बखन करते हुए बाइडन ने जनता को ये कह कर ग़फ़लत में डाल दिया था कि, "दोस्तों, मैं आपको बता सकता हूं कि मैंने आठ राष्ट्रपतियों के साथ काम किया है. इनमें से तीन के साथ तो मेरे बड़े नज़दीकी ताल्लुक़ात रहे हैं."
उनके इस बयान का असल अर्थ तो ये था कि वो तीन राष्ट्रपतियों के साथ क़रीब से काम कर चुके हैं. मगर इसी बात को उन्होंने जिन लफ़्ज़ों में बयां किया, उसका मतलब ये निकाला गया कि उनके तीन राष्ट्रपतियों के साथ यौन संबंध रहे थे.
जब बराक ओबामा ने जो बाइडन को अपने साथ उप-राष्ट्रपति उम्मीदवार बनाया, तो बाइडन ने ये कह कर लोगों को डरा दिया था कि इस बात की तीस फ़ीसद संभावना है कि ओबामा और वो मिलकर अर्थव्यवस्था सुधारने में ग़लतियां कर सकते हैं.
इससे पहले बाइडन ने ओबामा के बारे में ये कह कर हलचल मचा दी थी कि, “ओबामा ऐसे पहले अफ्रीकी मूल के अमेरिकी नागरिक हैं, जो अच्छा बोलते हैं. समझदार हैं. भ्रष्ट नहीं है और दिखने में भी अच्छे हैं.”
अपने इन बयानों के बावजूद वो अफ्रीकी-अमेरिकी समुदाय के बीच बहुत लोकप्रिय हैं.
जो बाइडन के ऐसे बेलगाम बयानों के कारण ही न्यूयॉर्क मैग़ज़ीन के एक पत्रकार ने लिखा था कि बाइडन की पूरी प्रचार टीम बस इसी बात पर ज़ोर दिए रहती है कि कहीं वो कोई अंट-शंट बयान न दे बैठें.
निखिला नटराजन
न्यूयॉर्क, 7 नवंबर| अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के नतीजों पर अमेरिका के साथ ही दुनिया के अन्य देशों की भी नजरें टिकी हुई हैं। अभी भी काफी इलेक्टोरल वोट की गिनती बाकी है और लंबे इंतजार के बाद भी अभी तक इस सवाल का जवाब साफ तौर पर नहीं मिल पाया है कि अमेरिका का अगला राष्ट्रपति कौन होगा।
हालांकि अभी तक के रुझानों एवं नतीजों की बात करें तो डेमोक्रेटिक पार्टी के उम्मीदवार जो बाइडन की स्थिति मौजूदा राष्ट्रपति और रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रंप की तुलना में मजबूत दिख रही है। न्यूज एजेंसी द एसोसिएटेड प्रेस (एपी) और फोक्स न्यूज ने एरिजोना में बाइडन को विजेता बताते हुए वहां के 11 इलेक्टोरल वोट उनके खाते में डाले हैं।
अभी पेन्सिलवेनिया में अनुमानित 270,000 शेष वोट गिने जाने बाकी हैं और हम अभी भी परिणाम की प्रतीक्षा कर रहे हैं।
जिस समय से एपी ने एरिजोना के लिए संभावना जताई है, बाइडन की बढ़त नौ प्रतिशत अंक से घटकर 4.2 और अब 0.92 प्रतिशत तक रह गई है!
अलग-अलग जगह से दोनों उम्मीदवारों के लिए अलग-अलग संभावनाएं जताई जा रही हैं। कुछ में बाइडन के खाते में 264 वोट तो कुछ में 253 वोट जाते दिखाए गए हैं।
अभी तक जिन राज्यों के इलेक्टोरल वोट को उम्मीदवारों के खाते में दिखाया है, उनमें से कई में अभी भी बड़ी संख्या में वोट गिने जाने बाकी हैं, यही वजह है कि स्थिति स्पष्ट नहीं हो सकी है और लोग अभी भी परिणाम का इंतजार कर रहे हैं।
एपी के कार्यकारी संपादक सैली बुजबी ने आईएएनएस को बताया कि एसोसिएटेड प्रेस ने एरिजोना के 11 इलेक्टोरल वोटों को बाइडन के खाते में दिखाया है। शेष मतपत्रों के आधार पर राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप बाइडन से पिछड़ गए हैं। (आईएएनएस)