अंतरराष्ट्रीय
कनाडा के सांसदों ने चीन के शिनजियांग प्रांत में उइगुर मुस्लिमों के साथ बीजिंग के रवैये को नरसंहार के रूप में चिह्नित करने के लिए सोमवार को एक प्रस्ताव पर मतदान किया. जिसे चीन ने "दुर्भावनापूर्ण उकसावा" बताया है.
चीन के शिनजियांग प्रांत में उइगुर मुसलमानों को जबरन कैंपों में रखने का आरोप लगता आया है और उसके "सुधार केंद्रों" की दुनिया भर में आलोचना होती रही है. मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का कहना है कि इन कैंपों में उइगुरों और अन्य जातीय अल्पसंख्यकों के दस लाख से अधिक सदस्यों को जबरन रखा गया है. शिनजियांग में मुस्लिम आबादी को चीनी अधिकारियों के हाथों लंबे समय से प्रताड़ित किया जाता रहा है. सोमवार को कनाडा की संसद में उइगुर मुसलमानों के साथ चीन के बर्ताव को लेकर एक प्रस्ताव पेश किया गया. इस प्रस्ताव का नाम चीन में उइगुरों का नरसंहार दिया गया था, जिसे हाउस ऑफ कॉमन्स में सर्वसम्मति से पारित कर दिया गया.
मंत्रियों ने प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो से आधिकारिक तौर पर उसे यह घोषित करने की मांग की. साथ ही प्रस्ताव में कहा गया कि अगर "नरसंहार" जारी रहता है तो 2022 बीजिंग विंटर ओलंपिक का आयोजन कहीं और कराया जाए.
चीन का पलटवार
पिछले साल अमेरिका ने उइगुर मानवाधिकर कानून बनाया था. इस कानून के मुताबिक अमेरिकी प्रशासन को उन चीनी अधिकारियों पर "कार्रवाई" का प्रावधान है जो उइगरों और अन्य अल्पसंख्यकों की "मनमानी हिरासत, यातना और उत्पीड़न" के लिए जिम्मेदार हैं. शुक्रवार को ही ट्रूडो ने कहा था शिनजियांग से उत्पीड़न की महत्वपूर्ण रिपोर्टें बाहर आ रही हैं. मंगलवार को बीजिंग ने पलटवार करते हुए कनाडा की संसद में पारित प्रस्ताव को "शर्मनाक कृत्य" बताया है. ओटावा में चीनी दूतावास ने एक बयान में कहा, "शिनजियांग से जुड़ा प्रस्ताव पारित कर चीन के विकास को रोकने की कनाडा की कोशिश सफल नहीं होगी." दूतावास ने "शिनजियांग पर राजनीत" करने का आरोप कनाडा के सांसदों पर लगाया है और उन्हें "पाखंडी और बेशर्म" बताया है.
कई उइगुर मुसलमान चीन से भाग कर विदेशों में जाकर बस चुके हैं. कैंप में रखे जाने वाले लोगों का कहना है कि वहां विचारों को बदलने के लिए कठिन प्रशिक्षण दिया जाता है, साथ ही मंदारिन भाषा के कोर्स कराए जाते हैं. अमेरिका के नए राष्ट्रपति जो बाइडेन भी पिछले दिनों कह चुके हैं कि चीन में अल्पसंख्यकों के साथ किस तरह का बर्ताव किया जा रहा है, यह सभी जानते हैं. साथ ही उन्होंने चेतावनी देते हुए कहा था कि अगर वह मानवाधिकारों का उल्लंघन बंद नहीं करता है तो उसे भारी कीमत चुकानी पड़ेगी.
एए/सीके (रॉयटर्स, एएफपी)
वॉशिंगटन, 23 फरवरी| दुनियाभर में कोरोनावायरस मामलों की कुल संख्या 11.17 करोड़ के पार पहुंच चुकी है, जबकि 24.7 लाख से ज्यादा लोग इस बीमारी से जान गंवा चुके हैं। जॉन्स हॉपकिन्स यूनिवर्सिटी ने यह जानकारी दी है। यूनिवर्सिटी के सेंटर फॉर सिस्टम्स साइंस एंड इंजीनियरिंग (सीएसएसई) ने मंगलवार को अपने नवीनतम अपडेट में खुलासा किया कि वर्तमान वैश्विकमामलों और मौतों का आंकड़ा क्रमश: 111,705,909 और 2,473,742 है।
सीएसएसई के अनुसार, दुनिया में सबसे अधिक 28,188,296 मामलों और 500,236 मौतों के साथ अमेरिका सबसे ज्यादा प्रभावित देश बना हुआ है। वहीं, कोरोना के 11,005,850 मामलों के साथ भारत दूसरे स्थान पर है।
सीएसएसई के आंकड़ों ने दर्शाया कि कोरोना के 10 लाख से अधिक मामलों वाले अन्य देश ब्राजील (10,195,160), ब्रिटेन (4,138,233), रूस (4,130,447), फ्रांस (3,669,354), स्पेन (3,153,971), इटली (2,818,863), तुर्की (2,646,526), जर्मनी (2,399,499), कोलंबिया (2,229,663), अर्जेटीना (2,069,751), मेक्सिको (2,043,632), पोलैंड (1,642,658), ईरान (1,582,275), दक्षिण अफ्रीका (1,504,588), यूक्रेन (1,354,545), इंडोनेशिया (1,288,833), पेरू (1,283,309), चेक रिपब्लिक (1,157,180) और नीदरलैंड (1,075,425) हैं।
वर्तमान में 247,143 मौतों के साथ मौतों के मामले में ब्राजील दूसरे स्थान पर है, इसके बाद तीसरे स्थान पर मेक्सिको (180,536) और चौथे पर भारत (156,385) है।
इस बीच, 20,000 से ज्यादा मौतों वाले देश ब्रिटेन (120,988), इटली (95,992), फ्रांस (84,764), रूस (82,255), जर्मनी (68,079), स्पेन (67,636), ईरान (59,572), कोलंबिया (58,974), अर्जेंटीना (51,359), दक्षिण अफ्रीका (49,150), पेरू (45,097), पोलैंड (42,188), इंडोनेशिया (34,691), तुर्की (28,138), यूक्रेन (26,531), बेल्जियम (21,923) और कनाडा (21,720) हैं। (आईएएनएस)
न्यूयॉर्क, 23 फरवरी| राष्ट्रपति जो बाइडेन द्वारा कैबिनेट के शीर्ष पद के लिए नीरा टंडन को नामित करते ही उनके समर्थन और विरोध में लोग लामबंद होने लगे हैं। बाइडेन के लिए प्रचार अभियान में सक्रिय रहे साउथ एशियंस फॉर बाइडेन ग्रुप ने तो सोमवार को समुदाय के सदस्यों से कहा कि वे प्रमुख सीनेटरों से संपर्क करें, ताकि इस पद के लिए टंडन के नाम की पुष्टि की जा सके। संगठन की राष्ट्रीय निदेशक नेहा दीवान ने कहा कि पूरा समुदाय टंडन के लिए खड़ा है।
टंडन का नाम ऑफिस ऑफ मैनेजमेंट एंड बजट (ओएमबी) के डायरेक्टर पद के लिए नामित किया गया है। यदि सीनेट नीरा के नाम की पुष्टि करती है, तो वह अमेरिकी कैबिनेट में शामिल होने वाली दूसरी भारतीय अमेरिकी होंगी। इससे पहले पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के शासन में निक्की हेली को संयुक्त राष्ट्र के लिए कैबिनेट रैंक वाला यूएस परमानेंट रिप्रजेंटेटिव का पद दिया गया था।
ओएमबी की डायरेक्टर का पद बहुत शक्तिशाली कैबिनेट पद होता है जो 5 ट्रिलियन डॉलर के अमेरिकी बजट का विभिन्न विभागों के लिए आवंटन का निर्णय करता है।
नीरा टंडन का नाम सामने आने के बाद डेमोक्रेट सीनेटर जो मैन्चिन ने कहा कि वह टंडन को वोट नहीं देंगे। मैन्चिन रिपब्लिकन राज्य वेस्ट वर्जीनिया से चुने गए हैं और वह टीवी पर एक इंटरव्यू में उपराष्ट्रपति कमला हैरिस से ही भिड़ गए थे। 50-50 से विभाजित सीनेट टंडन के नाम की पुष्टि को लेकर एक वोट का नुकसान उठाने की भी स्थिति में नहीं हैं। ऐसे में डेमोक्रेटिव नेतृत्व को महाभियोग ट्रायल में पूर्व राष्ट्रपति ट्रंप को दोषी ठहराने वाले 7 रिपब्लिकन से उम्मीद है।
ऐसे में साउथ एशियंस फॉर बाइडेन ग्रुप ने अपने समुदाय के लोगों से आग्रह किया है कि वे रिपब्लिकन सीनेटर्स से आग्रह करें कि वे टंडन को वोट दें। हालांकि बाइडेन के प्रवक्ता जेन साकी ने सोमवार को कहा कि, "हम उनके नामांकन को लेकर ज्यादा से ज्यादा समर्थन पाने के लिए काम करेंगे।"
हालांकि टंडन के लिए समर्थन जुटाने की इस कवायद के उलट डेमोक्रेटिक पार्टी की लेफ्ट विंग रूट्स एक्शन ने टंडन को नियो-लिबरल स्टैबलिशमेंट की प्रमुख अप्रगतिशील आवाज बताते हुए उनके खिलाफ अभियान छेड़ दिया है। उनके खिलाफ ढेरों ट्वीट्स किए जा रहे हैं।
दरअसल 2016 में राष्ट्रपति पद के लिए चुनावी मैदान में उतरी हिलेरी क्लिंटन से टंडन के करीबी संबंध रहे हैं, वो उनके कैंपेन की सलाहकार भी थीं। तब उन्होंने वामपंथी सीनेटर बर्नी सैंडर्स के खिलाफ व्यक्तिगत टिप्पणी कर दी थी। ऐसे में इस मुश्किल वक्त में बर्नी उनका कितना साथ देते हैं, यह देखने वाली बात होगी। (आईएएनएस)
अमेरिका में कोविड-19 से मौतों का आंकड़ा पांच लाख पार होने पर राष्ट्रपति जो बाइडन ने देश को संबोधित किया. दुनिया में कोरोना से सबसे ज़्यादा मौतें अमेरिका में ही हुई हैं.
राष्ट्र को संबोधित करते हुए राष्ट्रपति बाइडन ने कहा, “एक देश के रूप में हम ऐसे क्रूर भाग्य को स्वीकार नहीं कर सकते. हमें दुख की भावना को सुन्न नहीं होने देना है.”
व्हाइट हाउस के बाहर मोमबत्तियां जलाकर मृत लोगों को श्रद्धांजलि दी गई, साथ ही राष्ट्रपति और उप-राष्ट्रपति ने अपने-अपने जीवन साथियों के साथ कुछ देर का मौन रखा.
अब तक 28.1 मीलियन से ज़्यादा अमेरिकी कोरोना संक्रमण की चपेट में आ चुके हैं, जो एक और वैश्विक रिकॉर्ड है.
राष्ट्रपति बाइडन ने अमेरिकियों से कोविड के ख़िलाफ़ लड़ने का आह्वान किया, “आज मैं सभी अमेरिकियों से कहता हूं कि वो याद करें. जिन्हें हमने खोया उन्हें याद करें और उन्हें याद करें जिन्हें हमने पीछे छोड़ दिया.”
राष्ट्रपति ने अगले पांच दिन के लिए सरकारी इमारतों पर सभी राष्ट्रीय ध्वज आधे झुकाने का आदेश दिया.
व्हाइट हाउस में अपने भाषण की शुरुआत में उन्होंने कहा कि विश्व युद्ध एक, विश्व युद्ध दो और वियतनाम युद्ध में मिलाकर अमेरिकियों की इतनी मौतें नहीं हुई जितनी कोविड की वजह से हुई हैं.
उन्होंने कहा, "आज हम वास्तव में 500,071 मौतों के एक मनहूस और दिल तोड़ने वाले माइलस्टोन पर पहुंचे हैं.”
“हमने अक्सर सुना है लोगों को आम अमेरिकी कहा जाता है. ऐसा कुछ नहीं है, उनमें कुछ भी आम नहीं है. जिन्हें हमने खोया वो असाधारण थे. वो अमेरिका में जन्मे थे या अपना देश छोड़कर अमेरिका आए थे.”
उन्होंने कहा, “उनमें से कइयों ने अमेरिका में अकेले अंतिम सांस ली.”
उन्होंने अपने ख़ुद के दुख के पलों को याद किया – 1972 में उनकी पत्नी और बेटी की एक कार हादसे में जान चली गई थी और उनके एक बेटे की 2015 में ब्रेन कैंसर से मौत हो गई थी.
उन्होंने कहा, “मेरे लिए, ग़म और शोक का मेरा सफर एक उद्देश्य की खोज है.”
महमारी को लेकर राष्ट्रपति बाइडन की अप्रोच पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप से अलग है, जिन्होंने जानलेवा वायरस के असर पर संदेह किया और उन्हें मास्क पहनने और वायरस के फैलाव को रोकने के लिए अन्य कदमों का राजनीतिकरण करते हुए देखा गया. (bbc.com)
कांगो में इटली के राजदूत एक हमले में मारे गए हैं. सोमवार को लुका अतानासियो की मौत अस्पताल में हो गई. लुका पूर्वी कांगो में संयुक्त राष्ट्र के एक दल में शामिल थे, जिस पर हमला हुआ.
कहा जा रहा है कि यूएन का यह दल वर्ल्ड फूड प्रोग्राम से जुड़ा था. इस दल के साथ इटली के एक पुलिस अधिकारी भी थे. उनकी भी हमले में मौत हो गई है. इसके अलावा एक और व्यक्ति की मौत की भी ख़बर है.
कांगो की राजधानी गोमा में वहाँ के विदेश मंत्रालय ने इस मौत की पुष्टि की है और इसे बहुत दुखद बताया है. कहा जा रहा है कि यह हमला अपहरण की कोशिश में किया गया था.
समाचार एजेंसी रॉयटर्स के मुताबिक हमला स्थानीय समय के मुताबिक सुबह 10 बजकर 15 मिनट पर उत्तरी गोमा हुआ.
विदेश मंत्री ल्यूदी दी मायो ने मौत पर "बहुत निराशा और दुख" व्यक्त किया है.
उन्होंने कहा, "ये कैसे हुआ, इस पर रोशनी डालने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी जाएगी."
हमले के पीछा किसका हाथ है, ये अभी साफ़ नहीं है. विरुंगा नेशनल पार्क के आसपास रवांडा और यूगांडा की सीमा से लगे हथियारबंद समूह सक्रिय हैं. कांगो के पूर्वी हिस्से में विद्रोही गुट भी सक्रिय हैं और यूएन सुरक्षा बल शांति बहाली के लिए संघर्ष कर रहे हैं.
अतानासियो 2017 से डीआर कांगो में इटली का प्रतिनिधित्व कर रहे थे. वो 2003 में राजनयिक सेवा में शामिल हुए थे. वो मोरोक्को और नाइजीरिया में भी अपनी सेवा दे चुके थे.
डीआर कांगो कई सालों तक गृह युद्ध का केंद्र रहा है, जिसमें कई पड़ोसी देश भी शामिल हो गए थे. संघर्ष के कारण 1994 से 2003 के बीच करीब 50 लाख लोगों की जान चली गई. कुछ पर्यवेक्षक इसे अफ्रीका का महायुद्ध बताते हैं.
लेकिन संघर्ष के अंत के बाद भी हिंसा ख़त्म नहीं हुई. दर्जनों हथियारबंद समूह और विद्रोही गुट पूर्वी इलाकों में सक्रिय हैं.
1999 से संयुक्त राष्ट्र का पीस कीपिंग मिशन यहा काम कर रहा है. ये दुनिया के सबसे बड़े पीस कीपिंग फ़ोर्स में से एक है जिसमें 17000 लोग शामिल हैं. (bbc.com/hindi)
ईयू के विदेश मंत्रियों ने क्रेमलिन विरोधी अलेक्सी नावाल्नी के मामले में रूसी अधिकारियों पर प्रतिबंध लगाने का फैसला किया है. उन्होंने प्रतिबंधों पर सैद्धांतिक रुख भी तय किया ताकि मानवाधिकारों के हनन पर कार्रवाई की जा सके.
डॉयचे वैले पर महेश झा की रिपोर्ट-
रूस के साथ यूरोपीय संघ का शीतयुद्ध के खात्मे के बाद रुका प्रतिबंधों का खेल बहुत पहले ही दोबारा शुरू हो गया. खासकर यूक्रेन में रूसी दखल और क्रीमिया के अधिग्रहण के बाद प्रतिबंध लगाने के अलावा कोई चारा नहीं था. ये प्रतिबंध रूस और उसके राष्ट्रपति को झुकाने में नाकाम रहे हैं. एक ओर रूस ने प्रतिबंधों का दबाव मानने से इंकार कर दिया तो दूसरी ओर अपनी ओर से यूरोपीय संघ पर प्रतिबंध लगाकर अर्थव्यवस्था के कुछ हिस्सों को कमजोर करने की कोशिश की है.
अंतरराष्ट्रीय संबंधों में प्रतिबंधों की आंच अब सरकारों के बाद उन अधिकारियों तक पहुंचने लगी है जो विवादों से जुड़े होते हैं. नावाल्नी मामले में भी चार अधिकारियों पर प्रतिबंध लगाए जाएंगे जो नावाल्नी को कैद की सजा के लिए जिम्मेदार हैं. इन प्रतिबंधों में यूरोप में उनकी जायदाद को सील करना और उनकी यात्रा पर रोक शामिल होगा.
रूस और यूरोप के संबंध
यूरोपीय संघ पहली बार प्रतिबंधों के कानूनी अधिकार का इस्तेमाल मानवाधिकारों के हनन के मामले में करेगा. ऑस्ट्रिया के विदेश मंत्री अलेक्जांडर शालेनबर्ग ने पुलिस विभाग और अदालत के अधिकारियों के खिलाफ प्रतिबंधों की वकालत की थी. यूरोपीय संघ का यह फैसला रूस और दूसरे देशों के अधिकारियों में खलबली मचा सकता है. इसकी वजह यह है कि अक्सर गैरलोकतांत्रिक देशों के अधिकारी अपने यहां मनमानी करते हैं और मानवाधिकारों को रौंदते हैं, लेकिन छुट्टियां बिताने और जायदाद खरीदने यूरोपीय देशों का रुख करते हैं.
शीत युद्ध खत्म होने के बाद रूस और यूरोपीय संघ एक दूसरे के करीब आ गए थे. रूस में राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने जब से सत्ता पर अपना शिकंजा कसना शुरू किया है, दोनों के संबंधों में लगातार गिरावट आ रही है. एक ओर पुतिन ने लोकतांत्रिक मूल्यों के विपरीत सत्ता छोड़ने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई तो दूसरी ओर विपक्ष को लगातार कमजोर करते गए हैं. विरोध करने वाले को जहर देकर मारने की कोशिश भी पुतिन समर्थकों का ही एक हथियार रहा है.
विपक्ष का दमन
अलेक्सी नावाल्नी हालांकि देश में उतनी बड़ी ताकत नहीं हैं, लेकिन उन्हें भी बार बार गिरफ्तार करके और कैद में रखकर विरोध की उस आवाज को दबाने की कोशिश हो रही है. पिछले साल उन्हें मारने की भी कोशिश हुई. जर्मनी में इलाज के बाद जब वो वापस लौटे तो उन्हें 2014 के एक मुकदमे में सजा के नियमों के उल्लंघन के आरोप में गिरफ्तार कर फिर से जेल में डाल दिया गया है. जर्मनी के विदेश मंत्री हाइको मास ने कहा है कि ईयू ने नावाल्नी को जहर दिए जाने के समय ही कह दिया था कि वह अंतरराष्ट्रीय कानूनों के उल्लंघन को सहने के लिए तैयार नहीं है.
यूरोपीय संघ के विदेश नैतिक आयुक्त जोसेप बोरेल का कहना है कि रूस यूरोप संघ के साथ टकराव चाहता है. नावाल्नी के मामले में उसने यूरोपीय अदालत के फैसले को मानने से इंकार कर दिया है. यूरोपीय मानवाधिकार अदालत ने नावाल्नी को जेल से फौरन रिहा किए जाने का आदेश दिया था. मॉस्को इसे अपने घरेलू मामले में हस्तक्षेप बताता है. नावाल्नी पर हमले के मामले में यूरोपीय संघ ने पिछले साल राष्ट्रपति पुतिन के नजदीकी अधिकारियों पर प्रतिबंध लगाया था. (dw.com)
-तनवीर मलिक
पाकिस्तान के प्रधान मंत्री इमरान ख़ान ने दावा किया है कि उनके ढाई साल के शासनकाल के दौरान, पाकिस्तान ने 20 अरब डॉलर का विदेशी कर्ज़ अदा किया है, जो पाकिस्तान में अब तक विदेशी क़र्ज़ों की रिकॉर्ड अदायगी है.
पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ़ (पीटीआई) ने अपने ढाई साल के शासन के दौरान 20 अरब डॉलर विदेशी क़र्ज़ की अदायगी तो की है लेकिन उनके कार्यकाल के दौरान देश का कुल विदेशी क़र्ज़ अब तक के उच्चतम स्तर पर पहुँच गया है.
अर्थशास्त्रियों के अनुसार, सरकार ने क़र्ज़ तो चुकाया है, लेकिन इस विदेशी क़र्ज़ को अदा करने के लिए, नया क़र्ज़ लेकर देश पर क़र्ज़ का और बोझ डाल दिया है.
पाकिस्तान पर कुल क़र्ज़ कितना है?
इस समय पाकिस्तान पर बकाया कुल क़र्ज़ 115 अरब डॉलर से अधिक है. स्टेट बैंक ऑफ़ पाकिस्तान द्वारा जारी आँकड़ों के अनुसार, 31 दिसंबर, 2020 तक देश का कुल क़र्ज़ 115.756 अरब डॉलर था.
एक साल पहले, 31 दिसंबर, 2019 को यह 110.719 अरब डॉलर था, इसका मतलब है कि एक साल में पाकिस्तान के कुल कर्ज़ में 5 अरब डॉलर की वृद्धि हुई है.
पाकिस्तान के वित्त विभाग में डेबिट कार्यालय के महानिदेशक अब्दुल रहमान वड़ाइच ने बीबीसी को बताया, कि स्टेट बैंक ऑफ़ पाकिस्तान द्वारा जारी किए गए आँकड़ों में देश के कुल क़र्ज़ की बात की गई है.
इस क़र्ज़ में पाकिस्तान सरकार द्वारा लिए गए क़र्ज़ के साथ-साथ सरकारी स्वामित्व में चलने वाली संस्थाओं द्वारा लिया गया क़र्ज़ और देश के निजी क्षेत्र में काम करने वाली कंपनियों द्वारा विदेशों से लिए गए ऋण भी शामिल हैं. यह राशि न केवल सरकार पर बल्कि पूरे पाकिस्तान पर बकाया है.
विदेश से लिए गए सरकारी क़र्ज़ के बारे में बात करते हुए, अब्दुल रहमान वड़ाइच ने कहा कि यह क़र्ज़ 80 अरब डॉलर है. उन्होंने कहा, कि सरकार बाहरी और आंतरिक स्रोतों से कर्ज़ लेती है. यदि आप सरकारी क़र्ज़ों को देखें, तो इनमें से एक-तिहाई क़र्ज़ बाहरी स्रोतों से प्राप्त किए गए थे और दो-तिहाई क़र्ज़ आंतरिक स्रोतों, अर्थात स्थानीय बैंकों से लिया गया उधार है.
उन्होंने कहा कि देश की जीडीपी और क़र्ज़ के बीच के अनुपात पर बात की जाए तो यह लगभग 30 प्रतिशत है. पूर्व और वर्तमान समय में कितना विदेशी क़र्ज़ चुकाया गया है? प्रधानमंत्री इमरान ख़ान के दावे के अनुसार, मौजूदा सरकार ने अपने ढाई साल के शासनकाल में 20 अरब डॉलर का विदेशी कर्ज़ चुकाया है.
डारसन सिक्योरिटीज़ के शोध प्रमुख यूसुफ़ सईद ने कहा, कि प्रधानमंत्री की तरफ़ से विदेशी क़र्ज़ की अदायगी की पुष्टि आधिकारिक आँकड़ों से होती है. उन्होंने बताया कि स्टेट बैंक ऑफ़ पाकिस्तान द्वारा जारी किए गए आँकड़ों की समीक्षा से पता चलता है कि वर्तमान सरकार के सत्ता में आने के बाद से 31 दिसंबर, 2020 तक, इस सरकार ने 20.454 अरब डॉलर का विदेशी क़र्ज़ वापस किए हैं.
उन्होंने कहा कि अगर हम 'पाकिस्तान मुस्लिम लीग नवाज़' के पहले ढाई साल के शासनकाल के दौरान विदेशी कर्ज़ की अदायगी को देखें, तो यह 9.953 अरब डॉलर था. उनके अनुसार, पाकिस्तान पीपल्स पार्टी ने अपने शासनकाल के पहले ढाई साल में 6.454 अरब डॉलर विदेशी क़र्ज़ चुकाया था.
अब्दुल रहमान वड़ाइच से जब यह पूछा गया कि क्या वर्तमान सरकार ने विदेशी क़र्ज़ की अदायगी का रिकॉर्ड बनाया है? तो इसके जवाब में उन्होंने कहा, कि यदि आँकड़ों के लिहाज़ से देखा जाए तो निश्चित रूप से यह सबसे अधिक अदा किया जाने वाला क़र्ज़ है. लेकिन हमें इसे अर्थव्यवस्था के आकार के संदर्भ में भी देखना होगा क्योंकि अर्थव्यवस्था के आकार में वृद्धि हुई है, इसलिए क़र्ज़ भी अधिक लिया गया है और इस हिसाब से इसकी वापसी भी अधिक हुई है.
उन्होंने इस बात पर ज़ोर देकर कहा, कि कर्ज़ और इसकी वापसी को अर्थव्यवस्था के आकार के हिसाब से देखना ही उचित होता है. अब्दुल रहमान वड़ाइच ने कहा कि वापस किए गए कर्ज़ में 90 प्रतिशत से अधिक रक़म तो मूल राशि है, ब्याज़ का भुगतान बहुत कम है.
उन्होंने कहा कि विदेशों से लिए गए क़र्ज़ पर ब्याज़ दर बहुत कम होती है. यह दो से तीन प्रतिशत तक होती है और इसका पुनर्भुगतान भी दीर्घकालिक होता है. उन्होंने कहा कि पाकिस्तान के विदेशी क़र्ज़ अदायगी की मैच्योर अवधि औसतन सात वर्ष होती है और इसे बहुत अच्छी अवधि मानी जाती है. इसीलिए कर्ज़ देने वाली विदेशी एजेंसी भी पाकिस्तान पर विश्वास करती हैं कि यह देश उधार लेने और चुकाने की क्षमता रखता है.
उन्होंने कहा कि हर साल पाकिस्तान पर विदेशी कर्ज़ में से आठ से दस अरब डॉलर अदायगी के लिए मैच्योर हो जाता है. उनके अनुसार, इसे चुकाने के लिए, नया क़र्ज़ लेना पड़ता है तो इसके साथ बजट ख़सारे के लिए और क़र्ज़ भी लेना पड़ता है, जो लगभग पाँच अरब डॉलर होता है.
अर्थशास्त्री क़ैसर बंगाली ने इस बारे में कहा कि प्रधानमंत्री की तरफ़ से 20 अरब डॉलर क़र्ज़ की अदायगी की पुष्टि अगर आधिकारिक आँकड़ों से हो गई है, तो इससे इनकार करने की कोई ज़रूरत नहीं है. हालांकि यह देखना होगा कि यह विदेशी क़र्ज़ पाकिस्तान ने अपने स्रोत पैदा करके अदा किया है, या फिर दूसरे देशों से नया क़र्ज़ लेकर पुराना कर्ज़ अदा किया है.
क़ैसर बंगाली ने कहा है कि अब तक यही होता आ रहा है और अब भी यही हुआ है कि विदेशी क़र्ज़ों को चुकाने के लिए एक नया कर्ज़ लिया गया है जो आधिकारिक आँकड़ों से पता चलता है कि विदेशों से लिए गए कर्ज़ का मूल्य लगातार बढ़ रहा है.
याद रहे, कि सरकार द्वारा 20 अरब डॉलर विदेशी कर्ज़ की अदायगी के बावजूद, 31 दिसंबर, 2019 से 31 दिसंबर, 2020 के बीच देश पर चढ़ रहे विदेशी कर्ज़ में 5 अरब डॉलर की वृद्धि हुई है जो 110 अरब डॉलर से 115 अरब डॉलर हो गया.
क्या विदेशी क़र्ज़ लेना ज़रूरी है?
अब्दुल रहमान वड़ाइच ने कहा कि आंतरिक और बाहरी स्रोतों से उधार लेकर अपने बजट घाटे को कवर करना देश में सरकारों की नीति रही है. उन्होंने कहा कि इसमें अंतरराष्ट्रीय संस्थानों के साथ-साथ स्थानीय बैंकों से लिया गया उधार भी शामिल है. उन्होंने कहा कि इस रणनीति को विभिन्न सरकारों ने अपनाया है.
अब्दुल रहमान वड़ाइच ने कहा कि पाकिस्तान जैसे विकासशील देशों को क़र्ज़ लेना पड़ता है और क़र्ज़ लेना कोई बुरी बात नहीं है, लेकिन यह ज़रूरी है कि यह क़र्ज़ कैसे ख़र्च होता है.
"अगर यह क़र्ज़ उत्पादन क्षेत्र को बढ़ावा देने और अर्थव्यवस्था के आकार को बढ़ाने पर ख़र्च किया जा रहा है, तो यह एक बहुत अच्छी नीति है." उन्होंने कहा, ऋण एक दुधारी तलवार है. इसे आप अपने फ़ायदे और नुक़सान दोनो के लिए इस्तेमाल कर सकते हैं. यह आप पर निर्भर है, कि आप इसे कैसे इस्तेमाल करते हैं.
इस संबंध में क़ैसर बंगाली ने कहा कि अगर पाकिस्तान, विदेशों से क़र्ज़ लेकर अपनी आय बढ़ाता है और संपत्ति बनाता है, तो ऐसा क़र्ज़ लेने में कोई समस्या नहीं है. जैसा कि हमने पाकिस्तान में साठ और सत्तर के दशक में देखा था. तब कर्ज़ लेकर मेगा प्रोजेक्ट्स और डेम वगैरह बनाए गए थे.
"हालांकि, 1990 के दशक से जिस नीति के तहत क़र्ज़ लिया जा रहा है, वह 'लोन प्रोग्राम्स' होते हैं. जब बजट घाटे को कवर करने के लिए विदेश से क़र्ज़ लिया जाता है, तो इससे अर्थव्यवस्था और देश पर बहुत नकारात्मक प्रभाव पड़ता है और देश क़र्ज़ों के चंगुल में फंसता चला जाता है."
कर्ज़ पर निर्भरता कैसे कम की जा सकती है?
देश पर चढ़े विदेशी क़र्ज़ से छुटकारा पाने के लिए क्या तरीक़ा इस्तेमाल किया जा सकता है, इस पर अब्दुल रहमान वड़ाइच ने कहा, कि इसके लिए देश की आय में वृद्धि करना सबसे महत्वपूर्ण है, जो कि ज़्यादा से ज़्यादा टैक्स प्राप्त कर के ही हो सकती है. उन्होंने कहा कि हमारी समस्याओं का कारण राजस्व में वृद्धि नहीं होना है.
"यदि देश में ज़्यादा टैक्स इकट्ठा होता है, तो सरकार को बजट घाटे को पूरा करने के लिए विदेशों से धन उधार नहीं लेना पड़ेगा." क़ैसर बंगाली ने इस संभावना को ख़ारिज कर दिया कि विदेशी ऋणों पर निर्भरता कम करने के लिए देश की वर्तमान आय में वृद्धि की जा सकती है. उनके अनुसार, देश की अर्थव्यवस्था सिकुड़ रही है और इसमें इतनी जान नहीं है, कि वह ज़्यादा टैक्स अदा कर सके.
उन्होंने कहा कि वर्तमान में देश को ऐसी नीति अपनानी होगी जिसमें ग़ैर-विकास ख़र्च को कम करना होगा. उन्होंने कहा कि इन ग़ैर-विकास ख़र्चों को नागरिक और सैन्य दोनों क्षेत्रों में कम करना होगा. उदाहरण के लिए, संघीय स्तर पर, 40 डिविजनों को घटा कर 20 तक लाना होगा, और 18 वें संशोधन के बाद, राज्यों को ट्रांसफर किए गए विभागों को एक नए नाम से संघीय स्तर पर बनाए रखने की प्रथा को समाप्त करना होगा.
वह कहते हैं, कि इसी तरह, रक्षा क्षेत्र में ग़ैर-लड़ाकू ख़र्चों को कम करने की ज़रूरत है. उन्होंने कहा कि केवल ये दो काम करने से, देश को अपने वार्षिक ख़र्च में एक ख़रब रुपए की बचत होगी, जिससे देश की विदेशी क़र्ज़ों पर निर्भरता कम होगी. (bbc.com)
अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन के लिए जरूरी सामान लिए जो रॉकेट अंतरिक्ष में पहुंचने वाला है उसका नाम उस महिला गणितज्ञ के नाम पार रखा गया है, जिनके लिखे गणित के फॉर्मूले अमेरिका के पहले अंतरिक्ष मिशन का आधार बने थे.
कैथरीन जॉनसन एक ब्लैक अमेरिकी महिला थीं और वो उन्हीं के दिए हुए आंकड़े थे जिनके आधार पर 20 फरवरी 1962 को जॉन ग्लेन पृथ्वी की परिक्रमा करने वाले पहले अमेरिकी अंतरिक्षविज्ञानी बने. अब उसी ऐतिहासिक उड़ान की 59वीं वर्षगांठ पर नासा ने कैथरीन के नाम पर एसएस कैथरीन जॉनसन नाम का एक यान आईएसएस पर भेजा है. यान सोमवार 22 फरवरी को वहां पहुंच रहा है.
कैथरीन की उपलब्धियों पर "हिडेन फिगर्स" नाम की एक फिल्म भी बनी है. जिस कैप्सूल को उनका नाम दिया गया है उसे अमेरिकी कंपनी नॉर्थरॉप ग्रुम्मान ने बनाया है. अमेरिकी राज्य वर्जीनिया के पूर्वी तट से कैप्सूल की उड़ान के मौके पर कंपनी के वाइस प्रेसिडेंट फ्रैंक डेमॉरो ने कहा, "मिसेज जॉनसन को उनके हाथ से लिखे हुए गणित के फॉर्मूलों के लिए चुना गया जिनकी मदद से अमेरिका के अंतरिक्ष मिशन ने पहली सीढ़ियां चढ़ी. एक ब्लैक महिला होने के नाते उन्होंने जिस तरह से बार बार बाधाओं को पार किया उन उपलब्धियों के लिए भी उन्हें याद रखा जाता है."
फ्रैंक ने यह भी कहा, "आप सब के लिए होमवर्क यह है कि आप सब वह फिल्म जरूर देखें." जॉनसन का पिछले साल लगभग इसी समय के आस-पास 101 साल की उम्र में निधन हो गया था. यह फिल्म 2016 में आई थी. इसमें विशेष रूप से जॉनसन और वर्जीनिया के हैंपटन में स्थित नासा के लैंगली रिसर्च सेंटर में काम करने वाली दूसरी ब्लैक महिलाओं को दिखाया गया है.
कैप्सूल का वजन चार टन है. यह एक सप्ताह के भीतर आईएसएस पहुंचने वाला दूसरा यान होगा. बुधवार को रूस का एक कैप्सूल सेब और संतरे जैसी चीजें लेकर आईएसएस पहुंचा. फल मिलने परे जापान के एस्ट्रोनॉट सोइची नोगुची ने ट्वीट किया, "हमें ताजे फल बहुत पसंद हैं!" उन्होंने यह भी बताया कि शनिवार को अमेरिकी कैप्सूल की उड़ान से बस 10 मिनट पहले ही आईएसएस वर्जिनिया के ऊपर से उड़ा था.
नोगुची और उनके साथी छह अमेरिकी और रूसी अंतरिक्ष यात्री यान के साथ कुछ और चीजें पाने की उम्मीद कर सकते हैं. अमेरिकी कैप्सूल में उनके लिए टमाटर, बादाम, स्मोक्ड सालमन, पामेजान और चेडार चीज, कैरामेल और नारियल के टुकड़े. कैप्सूल में 12.000 छोटे छोटे राउंडवर्म भी हैं जिनका एक प्रयोग के लिए इस्तेमाल किया जाएगा. इसके साथ ही कुछ कंप्यूटर उपकरण हैं जिनसे आईएसएस में डाटा प्रोसेसिंग की रफ्तार बढ़ाने की कोशिश की जाएगी.
इसके अलावा चांद पर एस्ट्रोनॉट भेजने के नासा के कार्यक्रम के लिए रेडिएशन डिटेक्टर और अंतरिक्षयात्रियों के पेशाब को पीने के पानी में बदलने के लिए एक नया सिस्टम भी भेजा गया है. नॉर्थरॉप ग्रुम्मान ने नासा के लिए 15वीं बार अंतरिक्ष में सामान भेजा है. स्पेसएक्स नासा के लिए यह काम करने वाली दूसरी कंपनी है.
सुमी खान
ढाका, 22 फरवरी | बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना ने कहा है कि कोई भी व्यक्ति 1948 से 1971 तक की पाकिस्तान की खुफिया ब्रांच की रिपोटरें को पढ़कर देश के भाषा आंदोलन का असल इतिहास आसानी से जान सकता है।
रविवार को हसीना ने कहा, "हम 21 फरवरी, 1952 को बंगाली भाषा के लिए अपना बलिदान देने वाले शहीदों को याद करते हैं और इसे शहीद दिवस के तौर पर मनाते हैं।"
उन्होंने कहा कि देश को स्वतंत्रता, भाषा आंदोलन के जरिए मिली थी और इसका नेतृत्व राष्ट्रपिता बंगबंधु शेख मुजीबुर रहमान ने किया था। यहां तक कि जब उन्होंने यह आंदोलन शुरू किया था तो जानकार और बुद्धिजीवियों ने इसका विरोध किया था। प्रधानमंत्री ने यह भी कहा कि कई लोगों ने उनकी यह कहने पर आलोचना भी की है कि पाकिस्तान की खुफिया ब्रांच की रिपोर्ट के आधार पर भाषा आंदोलन की शुरूआत बंगबंधू ने की थी।
मातृभाषा की शिक्षा की अहमियत बताते हुए हसीना ने कहा, "भाषा किसी भी राष्ट्र के लिए बहुत अहम होती है लेकिन दुर्भाग्य से कई भाषाएं धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही हैं। दुनिया भर की इन भाषाओं की विविधता को संरक्षित करने, उनका इस्तेमाल करने और उन्हें विकसित करने की बहुत ज्यादा जरूरत है।"
प्रधानमंत्री ने शहीद दिवस और अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के मौके पर 4 दिवसीय कार्यक्रम का उद्घाटन अपने अधिकारिक निवास गोनो भवन से वर्चुअल तौर पर किया। इस कार्यक्रम का आयोजन इंटरनेशनल मदर लैंग्वेज इंस्टीट्यूट (आईएमएलआई) में हुआ था।
इस मौके पर हसीना ने अपनी सरकार द्वारा मातृभाषा को बढ़ावा देने वाली तमाम योजनाओं के बारे में भी बताया। (आईएएनएस)
चीन की एक नामी पेय पदार्थ बनाने वाली कंपनी को अपने उत्पादों पर सेक्सिस्ट नारा लिखने की वजह से सोशल मीडिया पर भारी नाराज़गी का सामना करना पड़ा, जिसके बाद उस कंपनी को माफ़ी मांगनी पड़ी है.
सेक्सी टी शॉप ने अपने एक मग पर महिलाओं के लिए "मोल-भाव" शब्द का इस्तेमाल किया था, साथ ही लिखा था कि उसके कस्टमर अपनी ड्रिंक्स का इंतज़ार करते वक़्त महिलाओं को चुन सकते हैं.
इस शॉप ने पहले भी अपने टी बैग के लिए स्लोगन रखा था, "मास्टर, आई वॉन्ट यू", इसके साथ टैडपोल यानी मेंढक के बच्चे की तस्वीर भी लगाई गई थी जिनका आकार दिखने में स्पर्म जैसा लगता है.
शॉप ने बाद में कहा कि उसका मक़सद "महिलाओं का अपमान" करना नहीं था.
कंपनी ने कहा कि वो मग की अपनी नई रेंज को वापस लेगी और वो इसके लिए "बहुत शर्मिंदा" है.
सेक्सी टी शॉप ने हाल में मग की नई रेंज निकाली थी, जिसपर हुनान प्रांत की राजधानी में मुख्य रूप से बोली जाने वाली एक बोली में लिखा था. इस चेन के वहां 270 आउटलेट हैं.
उसने मग पर कई स्थानीय मुहावरे प्रिंट किए गए थे, जिसमें से एक है "jian lou zi", जिसे सस्ती डील के लिए इस्तेमाल किया जाता है.
कंपनी ने फिर उदहारण दिया कि एक वाक्य में इस लाइन को कैसे इस्तेमाल किया जा सकता है, "जब मैं बबल चाय ख़रीदने गया, वहां बहुत सारी सुंदर लड़कियां थी. अगर आप किसी लड़की से ऐसे मिलते हैं, आप अपने दोस्त से कह सकते हैं - मैंने मोलभाव किया."
चीनी सोशल मीडिया साइट वीबो पर मग की एक तस्वीर वायरल हो गई, जिसकी ख़ूब आलोचना होने लगी.
एक शख़्स ने लिखा, "ये घटिया मार्केटिंग है."
एक ने लिखा, "वो मुहावरा अपमानित करने वाला नहीं है - बल्कि कंपनी ने वाक्य में उसे इस्तेमाल करने का जो उदहारण दिया है, वो अपमानित करने वाला है. क्या मार्केटिंग टीम में किसी को इसमें कुछ ग़लत नहीं लगा?"
इसके बाद कंपनी ने मुहावरे का इस तरह से इस्तेमाल करने के लिए लंबा बयान जारी कर मांफ़ी मांगी.
बयान में कहा गया, "हमने एक बहुत ही अनुचित वाक्य बनाया, जिसे स्थानीय बोली में भी लोगों ने स्वीकार नहीं किया...हम बहुत शर्मिंदा है. हम बिल्कुल भी महिलाओं को अपमानित नहीं करना चाहते थे."
"हम इस थीम पर बनाए मगों को तुरंत वापस लेंगे और इस घटना को गंभीरता से लेंगे."
यूज़र्स ने ये भी कहा कि ये पहली बार नहीं है जब सेक्सी टी ने अपने मार्केटिंग कैंपेन में किसी मुहावरे का सेक्सिस्ट तरीक़े से इस्तेमाल किया है.
कई लोगों ने कहा कि अपने टी बैग पर उन्होंने जिन टैडपोल की तस्वीरों का इस्तेमाल किया था, उसे देखकर लगता है कि वो स्पर्म को दिखाते हैं. (bbc.com)
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण की तीन आपात स्थितियों से निपटने के लिए एक नई योजना लेकर आया है. जलवायु संकट, जैव विविधता में ह्रास और प्रदूषण, ये तीनों संकट एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं और इनका अकेले-अकेले हल नहीं निकाला जा सकता.
डॉयचे वैले पर स्टुअर्ट ब्राउन की रिपोर्ट
संयुक्त राष्ट्र महासचिव अंटोनियो गुटेरेश ने संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) की नई रिपोर्ट की प्रस्तावना में कहा है, "प्रकृति के खिलाफ हमारे युद्ध ने धरती को छिन्न-भिन्न कर दिया है." इस रिपोर्ट में जलवायु संकट, जैव विविधता के ह्रास और प्रदूषण की समस्या से निबटने के लिए एकीकृत कार्रवाई का कार्यक्रम दिया गया है.
जैसे जैसे पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाला उत्सर्जन लगातार बढ़ रहा है, जैव विविधता को होने वाली हानि तेजी से बढ़ रही है और नई-नई महामारियां फैल रही हैं, इन सभी समस्याओं का अलग-अलग हल ढूंढ़ने की कोशिश अपर्याप्त साबित हुई हैं. इसके जवाब में 'मेकिंग पीस विद नेचर' नाम की यह रिपोर्ट वैश्विक आपात स्थितियों के तत्काल हल के लिए एक ब्लूप्रिंट है. इसमें विश्व के विभिन्न पर्यावरणीय आकलनों के जरिए समस्याओं का हल निकालने की बात कही गई है.
टुकड़ों में कार्रवाई से नहीं हासिल होंगे लक्ष्य
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूनेप) के यूएन के 2030 सतत विकास लक्ष्यों के ढांचे के तहत आपस में जुड़े पर्यावरण संकटों से निपटना चाहता है और साल 2050 तक कार्बन तटस्थता का लक्ष्य हासिल करना चाहता है. यूनेप की कार्यकारी निदेशक इंगर एंडरसन ने डॉयचे वेले को बताया कि जलवायु संकट, जैव विविधता में ह्रास और प्रदूषण पर टुकड़ों में कार्रवाई करके "हम अपने लक्ष्यों को हासिल नहीं कर सकते." बिना किसी समन्वय के हो रहे प्रयासों की वजह से साल 2100 तक धरती का तापमान औद्योगिक क्रांति से पहले के मुकाबले कम से कम 3 डिग्री तक बढ़ जाएगा. हालांकि, कोरोना महामारी के कारण उत्सर्जन में आंशिक कमी आई थी.
यह पेरिस पर्यावरण समझौते के तहत तय किए गए लक्ष्य 1.5 डिग्री का दोगुना है. तय लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए साल 2030 तक वैश्विक उत्सर्जन को 45 फीसद तक कम करना होगा. द लांसेट में 2018 में छपे एक लेख के अनुसार अनुमानित 80 लाख में से 10 लाख से भी ज्यादा प्रजातियों के विलुप्त होने का खतरा है. यही नहीं हर साल करीब 90 लाख लोगों की प्रदूषण से जुड़ी बीमारियों के कारण मृत्यु हो जाती है. इस ट्रेंड को उल्टा करने के लिए समन्वित दृष्टिकोण अपनाने की जरूरत है. यह रिपोर्ट बताती है कि कैसे प्राकृतिक आवासों का संरक्षण कर, अत्यधिक फसल और शिकार को रोक कर और प्रदूषण कम करके जैव विविधता को होने वाले नुकसान को कम किया जा सकता है और जंगली जानवरों को जलवायु परिवर्तन को सहने लायक बनाया जा सकता है.
सोचना होगा प्राकृतिक पूंजी के बारे में
पर्यावरण में हो रहे व्यापक गिरावट से निपटने के लिए 'मेकिंग पीस विद नेचर' के लेखकों ने आने वाले दशकों में जलवायु परिवर्तन को रोकने में फौरी कार्रवाई न करने से होने वाले भारी आर्थिक नुकसान की ओर ध्यान दिलाया है. रिपोर्ट में आजीविका, समृद्धि, स्वास्थ्य और खुशहाली के लिए प्राकृतिक पूंजी पर हमारी निर्भरता की ओर धयान दिलाया गया है और उसके असमान वितरण की चर्चा की गई है. इंसान धरती और उसके इकोसिस्टम पर निर्भर है और प्रकृति से फायदा उठाता है, लेकिन मौजूदा आर्थिक और वित्तीय प्रणालियों में इसका कोई हिसाब किताब नहीं है. यूएन महासचिव अंटोनियो गुटेरेश कहते हैं, "प्रकृति को देखने का नजरिया बदलकर हम इसके असल महत्व को समझ सकते हैं." उनका कहना है कि इस मूल्य को नीतियों, योजनाओं और आर्थिक व्यवस्था में शामिल कर हम ऐसी गतिविधियों में निवेश को बढ़ावा दे सकते हैं जिनसे प्रकृति बहाल होगी.
प्राकृतिक पूंजी की गणना करने के लिए भूमि क्षरण, जलवायु परिवर्तन, जैव विविधता की हानि और जल व वायु प्रदूषण के खर्च और लाभ का हिसाब किया जाता है. इंगर एंडरसन ने स्पष्ट किया कि अत्यधिक गरीबी और भुखमरी को खत्म करने के लिए विकास की जरूरत है. 1990 से हमारी उत्पादित पूंजी दोगुनी हो चुकी है, लेकिन हमारी प्राकृतिक पूंजी के मूल्य में जिसमें जीवन के लिए अहम क्षेत्र, हमारी जैविक संपदा, हवा, पानी और मिट्टी शामिल है, 40 फीसद की कमी आयी है.
यूनेप का कहना है कि प्राकृतिक पूंजी तथाकथित प्लैनेटरी पूंजी का 20 फीसद हिस्सा है. प्लैनेटरी पूंजी में मानव पूंजी और मानव निर्मित पूंजी व अन्य चीजें शामिल हैं. हालांकि स्टैंडर्ड आर्थिक कदमों और सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) दोनों में ही पर्यावरण का नियमन करने वाले इकोसिस्टम के मूल्य को शामिल नहीं किया गया है. इनमें पर्यावरणीय विनाश की वजह से प्राकृतिक पूंजी को होने वाले नुकसान को नहीं मापा जाता.
प्रकृति का मूल्य समझना होगा
जीडीपी यूं तो वर्तमान आय को मापती है, लेकिन यह नहीं बताती कि यह कितनी टिकाऊ है. रिपोर्ट में कहा गया है कि प्रकृति का नुकसान कर मौजूदा आय को बढ़ाने का कदम टिकाऊ नहीं है. इंगर एंडरसन ने कहा, "आप नदी से सारी मछली निकाल कर अपने तिमाही आंकड़ों को तो सुधार लेंगे, लेकिन आगे का क्या? टिकाऊ आर्थिक विकास को मापने का एक अच्छा तरीका जीडीपी के स्थान पर ‘समावेशी धन‘ की प्रणाली हो सकता है. क्योंकि यह प्राकृतिक पूंजी में गिरावट की गणना करता है और चक्रीय व टिकाऊ आर्थिक प्रणाली को स्वीकार करता है.
रिपोर्ट में कहा गया है कि वैश्विक स्तर पर कार्बन जैसी पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाली गैसों के उत्सर्जन को कम करने और जीवाश्म ईंधन पर सब्सिडी को चरणबद्ध तरीके से खत्म किए जाने की जरूरत है. जीवाश्म ईंधन, गैर टिकाऊ कृषि और मछलीमारी, गैर अक्षय ऊर्जा, खनन और परिवहन के लिए सालाना 5 ट्रिलियन डॉलर की सब्सिडी को खत्म कर उसे लो कार्बन और टिकाऊ प्रौद्योगिकियों के समर्थन में लगाया जाना चाहिए.
चक्रीय और लो इंपैक्ट इकोनॉमी को बढ़ावा देने का एक और रास्ता उत्पादन और श्रम से करों को हटाकर उसे संसाधनों के उपयोग और निकलने वाले कचरे पर लगाना है. विकासशील देशों में कम ब्याज वाला ग्रीन फाइनेंस भी कार्बन उत्सर्जन करने वाले और पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाले उद्योगों को हतोत्साहित करने में योगदान दे सकता है.
समस्या किसी एक की नहीं, वैश्विक है
सवाल यह है कि वैश्विक स्तर पर अगले एक दशक में इस तरह के परिवर्तनकारी बदलाव कैसे लागू होंगे? गुटेरश जिसे शांति योजना और युद्ध के बाद का पुनर्निर्माण करार दे रहे हैं उस पर यह रिपोर्ट कहती है कि निजी क्षेत्र, श्रमिक संगठन, शैक्षिक निकाय और मीडिया के अलावा निजी स्तर पर लोग और सिविल सोसाइटी इस परिवर्तन का नेतृत्व कर सकते हैं. सरकारों को अंतरराष्ट्रीय सहयोग और कानूनों के माध्यम से इन प्रयासों का मार्गदर्शन करना होगा.
साल 2021 इस दिशा में महत्वपूर्ण साल होगा. इस साल नवंबर में ग्लास्गो में कॉप 26 का आयोजन होगा और इसी साल मई माह में चीन में होने वाले कॉप 15 यूएन बायोडायवर्सिटी कनवेंशन होगा. 'मेकिंग पीस विद नेचर' के संदेश का प्रसार करते हुए इंगर एंडरसन ने कहा, "हमने इसे एक साथ रखा है, ताकि सिविल सोसाइटी, एनजीओ, शिक्षाविद, शैक्षिक समूह और दुनियाभर के सामाजिक कार्यकर्ता इस तक पहुंच सकें." उन्होंने कहा, "शेयरहोल्डर और पेंशन फंड जो अधिक टिकाऊ निवेश करना चाहते हैं, उन्हें भी लक्षित किया गया है. यह पूरी तरह से एक सामाजिक प्रयास होना चाहिए."
तो क्या श्रीलंका इस स्थिति से वाकिफ नहीं है? ऐसा नहीं है. श्रीलंका की स्थिति मुंशी प्रेमचंद्र या रेणु की कहानियों के उस पात्र जैसी हो चुकी है जो साहूकार का ऋण चुकाने के लिए उसी के पास फिर से उधार मांगता है और हर बार जमीन का एक टुकड़ा रेहन रख आता है. मिसाल के तौर पर देखें तो 2021 में श्रीलंका पर विदेशी कर्ज के भुगतान और ब्याज का 710 करोड़ डॉलर बकाया है जिसे चुकाने के लिए वह चीन की मदद चाहता है. सूत्रों की मानें तो श्रीलंका की सरकार चीन के साथ एक मुद्रा विनियमन समझौता करने को राजी हो गयी है. साथ में श्रीलंका को उम्मीद है कि एशियन इंफ्रास्ट्रक्चर इंवेस्टमेंट बैंक (एआईआईबी) से बजट समर्थन की सुविधा के तहत 30 करोड़ डॉलर की मदद और चीन विकास बैंक से 200 करोड़ डॉलर का उधार अलग से मिलेगा. इसके अलावा चीन ने 2019 और 2020 में श्रीलंका को कई सौ करोड़ डॉलर के दो अनुदानों से भी नावाजा है. जाहिर है चीन जानता है कि उसका पैसा डूबेगा नहीं. लेकिन अगर यह सौदे व्यापारिक नजरिए से घाटे का सौदा हैं तो, फायदा किसका हो रहा है?
श्रीलंका कर्ज के चक्रव्यूह में फंसता जा रहा है. अब वहां के नीतिनिर्धारकों और आम लोगों को इस मुद्दे पर गंभीरता से व्यापक बहस करनी होगी. शायद अंतरराष्ट्रीय समुदाय, और खास तौर पर अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और वर्ल्ड बैंक जैसी अंतरराष्ट्रीय बहुपक्षीय संस्थाओं को भी श्रीलंका की बद से बदतर होती निवेश और आर्थिक व्यवस्था पर ध्यान देने की जरूरत है. साथ ही जरूरत है श्रीलंका को चीन पर बढ़ती निर्भरता पर भी अंकुश लगाने के बारे में सचेत करने की. लेकिन जापान और भारत के श्रीलंका में साझा निवेश के मंसूबों को झटका लगने के बाद फिलहाल सवाल यही है कि श्रीलंका को कौन समझाएगा? (dw.com)
श्रीलंका आज भी भारी कर्ज की समस्या से गुजर रहा है और कर्ज के चक्रव्यूह से बाहर आने का कोई आसान रास्ता भी नहीं दिख रहा. श्रीलंका का विदेशी मुद्रा भंडार 530 करोड़ डॉलर है जबकि उसे इस साल 710 करोड़ डॉलर की अदायगी करनी है.
डॉयचे वैले पर राहुल मिश्र का लिखा
श्रीलंका के बाह्य संसाधन विभाग के अनुसार 2021 से 2025 के बीच श्रीलंका को 2370 करोड़ डॉलर का कर्ज अदा करना है. इस सरदर्दी के बीच रेटिंग एजेंसी मूडी ने देश की अर्थव्यवस्था की रेटिंग बी2 से घटाकर सीएए1 कर दिया है और ऐसा करके विदेशी निवेश की आशाओं को चकनाचूर कर दिया है. रेटिंग घटने का सीधा मतलब होता है बाजार में उगाही के लिए ब्याज दर का बढ़ना यानी श्रीलंका के लिए अंतरराष्ट्रीय बाजार में पूंजी जुटाना मुश्किल हो गया है. इस सब के बीच यह भी दिलचस्प है कि श्रीलंका ने भारत और जापान के साथ कोलम्बो पत्तन के इलाके में एक त्रिपक्षीय संयुक्त निवेश को एकतरफा ढंग से लाल झंडी दिखा दी है. श्रीलंकाई कैबिनेट के फरवरी 2021 के निर्णय में यह भी कहा गया है कि श्रीलंका ईस्ट कंटेनर फेसिलिटी (ईसीटी) को साझा उपक्रम के बजाय एक पूर्ण स्वामित्व वाले उपक्रम के तौर पर चलाना पसंद करेगा. भारत और जापान के लिए यह खबर अच्छी न भी हो, दिलचस्प सवाल ये है कि कर्ज में डूबे श्रीलंका को जब ज्यादा से ज्यादा दोस्तों की मदद की जरूरत है तब वह ऐसा क्यों कर रहा है? भारत और जापान के निवेश को परे धकेलने की क्या वजह है? दरअसल, इन दोनों ही खबरों के पीछे है श्रीलंका के चीन के साथ निवेश और व्यापार संबंध.
स्मॉल पॉवर डिप्लोमैसी के पैंतरे
श्रीलंका जैसे देशों की समस्या यह है कि छोटा देश होने के नाते वे अक्सर बड़े देशों की आपसी तनातनी में पिस जाते हैं. स्थिति बद से बदतर तब हो जाती है जब ऐसे देश अपनी कूटनीतिक कला का इस्तेमाल कर, जिसे स्मॉल पॉवर डिप्लोमेसी की संज्ञा भी दी जाती है, एक बड़े देश को दूसरे के सामने खड़ा कर अपना उल्लू सीधा करने की कोशिश करते हैं. हालांकि स्मॉल पॉवर डिप्लोमेसी की किताब में सिर्फ यही एक पैंतरा नहीं है लेकिन दक्षिण एशिया के कई देशों ने इस पैंतरे को बखूबी सीखा है और भारत और चीन के बीच प्रतिस्पर्धा को तेज कर यह देश अपने निवेश, रक्षा और व्यापार हितों को साधते रहे हैं. पिछले दो दशकों में इलाके में चीन की बढ़ती पकड़ के पीछे सिर्फ चीन की दक्षिण एशिया में दिलचस्पी, भारत की कमजोर होती पकड़, और भारत-चीन प्रतिस्पर्धा ही कारण नहीं रहा है. श्रीलंका और नेपाल जैसे देशों की भी इसमें बड़ी और व्यापक भूमिका रही है.
चीन जैसी गैरलोकतांत्रिक महाशक्ति से सिर्फ अपना हित साधने की कोशिश करना शेर की सवारी करने जैसा है. जब तक सवार सवारी कर रहा है सब कुछ बढ़िया है लेकिन जैसे ही सवार-सवारी का संतुलन बिगड़ा, शान और जान दोनों जाने का डर पैदा हो जाता है. श्रीलंका के साथ भी यही कुछ हो रहा है. करोड़ों डॉलर के कर्ज में डूबे श्रीलंका के लिए अब इस कर्ज के जाल से बाहर निकलना मुश्किल हो गया है. राजपक्षे की सरकार हो या सिरीसेना की – सत्तापक्ष हो विपक्ष में बैठी पार्टी, किसी भी राजनीतिक दल के लिए चीन के शिकंजे से निकल पाना मुश्किल है. वजह यह है कि बेल्ट एंड रोड परियोजना के एक अहम हिस्से – मैरीटाइम सिल्क रोड के तहत चीन और श्रीलंका के बीच किए गए निवेश समझौतों में पारदर्शिता नहीं रही थी. निवेश की कठिन शर्तों, ऋण न वापस करने की स्थिति में दंडकारी प्रावधानों ने इस स्थिति को और खराब कर दिया है.
निवेश और लाभ का गणित
श्रीलंका के सामने सबसे बड़ी समस्या यह आ खड़ी हुई है कि निवेश तो हुए हैं लेकिन उन निवेशों से हासिल कुछ खास नहीं हुआ है. हंबनटोटा जैसी जगहों पर लाखों डॉलर लगा कर एयरपोर्ट तो किसी तरह बन भी गया लेकिन यात्रियों की आमदरफ्त से निवेश के पैसों की वापसी एक दिवास्वप्न सा ही लगता है. रहा सवाल बहुचर्चित हंबनटोटा पोर्ट का, तो श्रीलंका सरकार के धूम धाम से बनाए गए इस पोर्ट पर 2017 में सिर्फ 175 जहाज आकर रुके या उन पर माल ढुलाई हुई. उधार चुकाने की कवायद में श्रीलंका अपने बंदरगाहों की संप्रभुता ही रेहन पर रखने की स्थिति में आ गया और इस ऋण के बदले श्रीलंका को हंबनटोटा में चीन को साझेदार बनाना पड़ा. हाल ही में श्रीलंका ने 110 करोड़ डॉलर के बदले हंबनटोटा का 70 फीसदी हिस्सा चीनी कम्पनी चाइना मर्चेंट होल्डिंग्स लिमिटेड को लीज पर दे दिया.
इस करार के तहत चीनी कंपनी 99 साल तक पोर्ट के उस हिस्से पर अपनी व्यापारिक गतिविधियां निर्बाध रूप से चलाने को स्वतंत्र है. आश्चर्य की बात है कि कर्ज में डूबे और निवेश के सफेद हाथी बन चुके हंबनटोटा में चीन 40 करोड़ डॉलर से ज्यादा का निवेश और करना चाहता है जिससे पोर्ट की सुविधाएं और अच्छी हो सकें और उसे अंतरराष्ट्रीय स्तर का बनाया जा सके. यह निवेश ऑफशोर सप्लाई को बढ़ाने, सुरक्षित ऐंकरेज सुनिश्चित करने, ड्राई डॉकिंग और भारी लिफ्टिंग क्षमता बढ़ाने तथा आयल एवं गैस रिफाइनरियां बनाने के लिए हो रहे हैं. ऐसा नहीं लगता कि ये क्षमताएं श्रीलंका के किसी काम आएंगी. हंबनटोटा पोर्ट पर विदेशी जहाज भी बहुत कम आते हैं. इसलिए लगता है कि यह निवेश चीन की अपनी जरूरतों के लिए है.
श्रीलंका को नहीं हो रहा है फायदा
साफ शब्दों में कहें तो श्रीलंका में निवेश तो जरूर हो रहा है लेकिन यह निवेश उसकी जरूरतों को पूरा करने के लिए है ही नहीं. यह बात और साफ हो जाती है चीन के बंकरिंग सुविधाओं के विकास की योजना से. चीन की कंपनी साइनोपेक हंबनटोटा पोर्ट से गुजरने वाले जहाजों को जरूरत पड़ने पर तेल मुहैया कराने की तैयारी कर रही है. यह सीधे तौर पर चीन की अपनी जरूरतों से जुड़ा है. हिंद महासागर में अपने जहाजों की मदद के लिए चीन यह निवेश कर रहा है, और बिल फाड़े जा रहे हैं श्रीलंका से दोस्ती और श्रीलंका के विकास के नाम पर. चीन के श्रीलंका पर बढ़ते दबदबे से साफ है कि वह श्रीलंका और उसके जरिए हिंद महासागर में अपनी पैठ बढ़ाने को एक सोचे समझे तरीके से अंजाम दे रहा है. श्रीलंका सरकार भारत को गिनाए अपने तमाम कसमों वादों के बावजूद चीन की भारत को घेरने की स्ट्रिंग आफ पर्ल्स रणनीति का हिस्सा बनती जा रही है. यह स्थिति श्रीलंका -भारत संबंधों के लिए अनुकूल तो बिल्कुल नहीं कही जा सकती है.
तो क्या श्रीलंका इस स्थिति से वाकिफ नहीं है? ऐसा नहीं है. श्रीलंका की स्थिति मुंशी प्रेमचंद्र या रेणु की कहानियों के उस पात्र जैसी हो चुकी है जो साहूकार का ऋण चुकाने के लिए उसी के पास फिर से उधार मांगता है और हर बार जमीन का एक टुकड़ा रेहन रख आता है. मिसाल के तौर पर देखें तो 2021 में श्रीलंका पर विदेशी कर्ज के भुगतान और ब्याज का 710 करोड़ डॉलर बकाया है जिसे चुकाने के लिए वह चीन की मदद चाहता है. सूत्रों की मानें तो श्रीलंका की सरकार चीन के साथ एक मुद्रा विनियमन समझौता करने को राजी हो गयी है. साथ में श्रीलंका को उम्मीद है कि एशियन इंफ्रास्ट्रक्चर इंवेस्टमेंट बैंक (एआईआईबी) से बजट समर्थन की सुविधा के तहत 30 करोड़ डॉलर की मदद और चीन विकास बैंक से 200 करोड़ डॉलर का उधार अलग से मिलेगा. इसके अलावा चीन ने 2019 और 2020 में श्रीलंका को कई सौ करोड़ डॉलर के दो अनुदानों से भी नावाजा है. जाहिर है चीन जानता है कि उसका पैसा डूबेगा नहीं. लेकिन अगर यह सौदे व्यापारिक नजरिए से घाटे का सौदा हैं तो, फायदा किसका हो रहा है?
श्रीलंका कर्ज के चक्रव्यूह में फंसता जा रहा है. अब वहां के नीतिनिर्धारकों और आम लोगों को इस मुद्दे पर गंभीरता से व्यापक बहस करनी होगी. शायद अंतरराष्ट्रीय समुदाय, और खास तौर पर अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और वर्ल्ड बैंक जैसी अंतरराष्ट्रीय बहुपक्षीय संस्थाओं को भी श्रीलंका की बद से बदतर होती निवेश और आर्थिक व्यवस्था पर ध्यान देने की जरूरत है. साथ ही जरूरत है श्रीलंका को चीन पर बढ़ती निर्भरता पर भी अंकुश लगाने के बारे में सचेत करने की. लेकिन जापान और भारत के श्रीलंका में साझा निवेश के मंसूबों को झटका लगने के बाद फिलहाल सवाल यही है कि श्रीलंका को कौन समझाएगा?
(राहुल मिश्र मलाया विश्वविद्यालय के एशिया-यूरोप संस्थान में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के वरिष्ठ प्राध्यापक हैं)
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण की तीन आपात स्थितियों से निपटने के लिए एक नई योजना लेकर आया है. जलवायु संकट, जैव विविधता में ह्रास और प्रदूषण, ये तीनों संकट एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं और इनका अकेले-अकेले हल नहीं निकाला जा सकता.
डॉयचे वैले पर स्टुअर्ट ब्राउन का लिखा
संयुक्त राष्ट्र महासचिव अंटोनियो गुटेरेश ने संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) की नई रिपोर्ट की प्रस्तावना में कहा है, "प्रकृति के खिलाफ हमारे युद्ध ने धरती को छिन्न-भिन्न कर दिया है." इस रिपोर्ट में जलवायु संकट, जैव विविधता के ह्रास और प्रदूषण की समस्या से निबटने के लिए एकीकृत कार्रवाई का कार्यक्रम दिया गया है.
जैसे जैसे पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाला उत्सर्जन लगातार बढ़ रहा है, जैव विविधता को होने वाली हानि तेजी से बढ़ रही है और नई-नई महामारियां फैल रही हैं, इन सभी समस्याओं का अलग-अलग हल ढूंढ़ने की कोशिश अपर्याप्त साबित हुई हैं. इसके जवाब में 'मेकिंग पीस विद नेचर' नाम की यह रिपोर्ट वैश्विक आपात स्थितियों के तत्काल हल के लिए एक ब्लूप्रिंट है. इसमें विश्व के विभिन्न पर्यावरणीय आकलनों के जरिए समस्याओं का हल निकालने की बात कही गई है.
टुकड़ों में कार्रवाई से नहीं हासिल होंगे लक्ष्य
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूनेप) के यूएन के 2030 सतत विकास लक्ष्यों के ढांचे के तहत आपस में जुड़े पर्यावरण संकटों से निपटना चाहता है और साल 2050 तक कार्बन तटस्थता का लक्ष्य हासिल करना चाहता है. यूनेप की कार्यकारी निदेशक इंगर एंडरसन ने डॉयचे वेले को बताया कि जलवायु संकट, जैव विविधता में ह्रास और प्रदूषण पर टुकड़ों में कार्रवाई करके "हम अपने लक्ष्यों को हासिल नहीं कर सकते." बिना किसी समन्वय के हो रहे प्रयासों की वजह से साल 2100 तक धरती का तापमान औद्योगिक क्रांति से पहले के मुकाबले कम से कम 3 डिग्री तक बढ़ जाएगा. हालांकि, कोरोना महामारी के कारण उत्सर्जन में आंशिक कमी आई थी.
यह पेरिस पर्यावरण समझौते के तहत तय किए गए लक्ष्य 1.5 डिग्री का दोगुना है. तय लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए साल 2030 तक वैश्विक उत्सर्जन को 45 फीसद तक कम करना होगा. द लांसेट में 2018 में छपे एक लेख के अनुसार अनुमानित 80 लाख में से 10 लाख से भी ज्यादा प्रजातियों के विलुप्त होने का खतरा है. यही नहीं हर साल करीब 90 लाख लोगों की प्रदूषण से जुड़ी बीमारियों के कारण मृत्यु हो जाती है. इस ट्रेंड को उल्टा करने के लिए समन्वित दृष्टिकोण अपनाने की जरूरत है. यह रिपोर्ट बताती है कि कैसे प्राकृतिक आवासों का संरक्षण कर, अत्यधिक फसल और शिकार को रोक कर और प्रदूषण कम करके जैव विविधता को होने वाले नुकसान को कम किया जा सकता है और जंगली जानवरों को जलवायु परिवर्तन को सहने लायक बनाया जा सकता है.
सोचना होगा प्राकृतिक पूंजी के बारे में
पर्यावरण में हो रहे व्यापक गिरावट से निपटने के लिए 'मेकिंग पीस विद नेचर' के लेखकों ने आने वाले दशकों में जलवायु परिवर्तन को रोकने में फौरी कार्रवाई न करने से होने वाले भारी आर्थिक नुकसान की ओर ध्यान दिलाया है. रिपोर्ट में आजीविका, समृद्धि, स्वास्थ्य और खुशहाली के लिए प्राकृतिक पूंजी पर हमारी निर्भरता की ओर धयान दिलाया गया है और उसके असमान वितरण की चर्चा की गई है. इंसान धरती और उसके इकोसिस्टम पर निर्भर है और प्रकृति से फायदा उठाता है, लेकिन मौजूदा आर्थिक और वित्तीय प्रणालियों में इसका कोई हिसाब किताब नहीं है. यूएन महासचिव अंटोनियो गुटेरेश कहते हैं, "प्रकृति को देखने का नजरिया बदलकर हम इसके असल महत्व को समझ सकते हैं." उनका कहना है कि इस मूल्य को नीतियों, योजनाओं और आर्थिक व्यवस्था में शामिल कर हम ऐसी गतिविधियों में निवेश को बढ़ावा दे सकते हैं जिनसे प्रकृति बहाल होगी.
प्राकृतिक पूंजी की गणना करने के लिए भूमि क्षरण, जलवायु परिवर्तन, जैव विविधता की हानि और जल व वायु प्रदूषण के खर्च और लाभ का हिसाब किया जाता है. इंगर एंडरसन ने स्पष्ट किया कि अत्यधिक गरीबी और भुखमरी को खत्म करने के लिए विकास की जरूरत है. 1990 से हमारी उत्पादित पूंजी दोगुनी हो चुकी है, लेकिन हमारी प्राकृतिक पूंजी के मूल्य में जिसमें जीवन के लिए अहम क्षेत्र, हमारी जैविक संपदा, हवा, पानी और मिट्टी शामिल है, 40 फीसद की कमी आयी है.
यूनेप का कहना है कि प्राकृतिक पूंजी तथाकथित प्लैनेटरी पूंजी का 20 फीसद हिस्सा है. प्लैनेटरी पूंजी में मानव पूंजी और मानव निर्मित पूंजी व अन्य चीजें शामिल हैं. हालांकि स्टैंडर्ड आर्थिक कदमों और सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) दोनों में ही पर्यावरण का नियमन करने वाले इकोसिस्टम के मूल्य को शामिल नहीं किया गया है. इनमें पर्यावरणीय विनाश की वजह से प्राकृतिक पूंजी को होने वाले नुकसान को नहीं मापा जाता.
प्रकृति का मूल्य समझना होगा
जीडीपी यूं तो वर्तमान आय को मापती है, लेकिन यह नहीं बताती कि यह कितनी टिकाऊ है. रिपोर्ट में कहा गया है कि प्रकृति का नुकसान कर मौजूदा आय को बढ़ाने का कदम टिकाऊ नहीं है. इंगर एंडरसन ने कहा, "आप नदी से सारी मछली निकाल कर अपने तिमाही आंकड़ों को तो सुधार लेंगे, लेकिन आगे का क्या? टिकाऊ आर्थिक विकास को मापने का एक अच्छा तरीका जीडीपी के स्थान पर ‘समावेशी धन‘ की प्रणाली हो सकता है. क्योंकि यह प्राकृतिक पूंजी में गिरावट की गणना करता है और चक्रीय व टिकाऊ आर्थिक प्रणाली को स्वीकार करता है.
रिपोर्ट में कहा गया है कि वैश्विक स्तर पर कार्बन जैसी पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाली गैसों के उत्सर्जन को कम करने और जीवाश्म ईंधन पर सब्सिडी को चरणबद्ध तरीके से खत्म किए जाने की जरूरत है. जीवाश्म ईंधन, गैर टिकाऊ कृषि और मछलीमारी, गैर अक्षय ऊर्जा, खनन और परिवहन के लिए सालाना 5 ट्रिलियन डॉलर की सब्सिडी को खत्म कर उसे लो कार्बन और टिकाऊ प्रौद्योगिकियों के समर्थन में लगाया जाना चाहिए.
चक्रीय और लो इंपैक्ट इकोनॉमी को बढ़ावा देने का एक और रास्ता उत्पादन और श्रम से करों को हटाकर उसे संसाधनों के उपयोग और निकलने वाले कचरे पर लगाना है. विकासशील देशों में कम ब्याज वाला ग्रीन फाइनेंस भी कार्बन उत्सर्जन करने वाले और पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाले उद्योगों को हतोत्साहित करने में योगदान दे सकता है.
समस्या किसी एक की नहीं, वैश्विक है
सवाल यह है कि वैश्विक स्तर पर अगले एक दशक में इस तरह के परिवर्तनकारी बदलाव कैसे लागू होंगे? गुटेरश जिसे शांति योजना और युद्ध के बाद का पुनर्निर्माण करार दे रहे हैं उस पर यह रिपोर्ट कहती है कि निजी क्षेत्र, श्रमिक संगठन, शैक्षिक निकाय और मीडिया के अलावा निजी स्तर पर लोग और सिविल सोसाइटी इस परिवर्तन का नेतृत्व कर सकते हैं. सरकारों को अंतरराष्ट्रीय सहयोग और कानूनों के माध्यम से इन प्रयासों का मार्गदर्शन करना होगा.
साल 2021 इस दिशा में महत्वपूर्ण साल होगा. इस साल नवंबर में ग्लास्गो में कॉप 26 का आयोजन होगा और इसी साल मई माह में चीन में होने वाले कॉप 15 यूएन बायोडायवर्सिटी कनवेंशन होगा. 'मेकिंग पीस विद नेचर' के संदेश का प्रसार करते हुए इंगर एंडरसन ने कहा, "हमने इसे एक साथ रखा है, ताकि सिविल सोसाइटी, एनजीओ, शिक्षाविद, शैक्षिक समूह और दुनियाभर के सामाजिक कार्यकर्ता इस तक पहुंच सकें." उन्होंने कहा, "शेयरहोल्डर और पेंशन फंड जो अधिक टिकाऊ निवेश करना चाहते हैं, उन्हें भी लक्षित किया गया है. यह पूरी तरह से एक सामाजिक प्रयास होना चाहिए."
श्रीलंका आज भी भारी कर्ज की समस्या से गुजर रहा है और कर्ज के चक्रव्यूह से बाहर आने का कोई आसान रास्ता भी नहीं दिख रहा. श्रीलंका का विदेशी मुद्रा भंडार 530 करोड़ डॉलर है जबकि उसे इस साल 710 करोड़ डॉलर की अदायगी करनी है.
डॉयचे वैले पर राहुल मिश्र की रिपोर्ट-
श्रीलंका के बाह्य संसाधन विभाग के अनुसार 2021 से 2025 के बीच श्रीलंका को 2370 करोड़ डॉलर का कर्ज अदा करना है. इस सरदर्दी के बीच रेटिंग एजेंसी मूडी ने देश की अर्थव्यवस्था की रेटिंग बी2 से घटाकर सीएए1 कर दिया है और ऐसा करके विदेशी निवेश की आशाओं को चकनाचूर कर दिया है. रेटिंग घटने का सीधा मतलब होता है बाजार में उगाही के लिए ब्याज दर का बढ़ना यानी श्रीलंका के लिए अंतरराष्ट्रीय बाजार में पूंजी जुटाना मुश्किल हो गया है. इस सब के बीच यह भी दिलचस्प है कि श्रीलंका ने भारत और जापान के साथ कोलम्बो पत्तन के इलाके में एक त्रिपक्षीय संयुक्त निवेश को एकतरफा ढंग से लाल झंडी दिखा दी है. श्रीलंकाई कैबिनेट के फरवरी 2021 के निर्णय में यह भी कहा गया है कि श्रीलंका ईस्ट कंटेनर फेसिलिटी (ईसीटी) को साझा उपक्रम के बजाय एक पूर्ण स्वामित्व वाले उपक्रम के तौर पर चलाना पसंद करेगा. भारत और जापान के लिए यह खबर अच्छी न भी हो, दिलचस्प सवाल ये है कि कर्ज में डूबे श्रीलंका को जब ज्यादा से ज्यादा दोस्तों की मदद की जरूरत है तब वह ऐसा क्यों कर रहा है? भारत और जापान के निवेश को परे धकेलने की क्या वजह है? दरअसल, इन दोनों ही खबरों के पीछे है श्रीलंका के चीन के साथ निवेश और व्यापार संबंध.
स्मॉल पॉवर डिप्लोमैसी के पैंतरे
श्रीलंका जैसे देशों की समस्या यह है कि छोटा देश होने के नाते वे अक्सर बड़े देशों की आपसी तनातनी में पिस जाते हैं. स्थिति बद से बदतर तब हो जाती है जब ऐसे देश अपनी कूटनीतिक कला का इस्तेमाल कर, जिसे स्मॉल पॉवर डिप्लोमेसी की संज्ञा भी दी जाती है, एक बड़े देश को दूसरे के सामने खड़ा कर अपना उल्लू सीधा करने की कोशिश करते हैं. हालांकि स्मॉल पॉवर डिप्लोमेसी की किताब में सिर्फ यही एक पैंतरा नहीं है लेकिन दक्षिण एशिया के कई देशों ने इस पैंतरे को बखूबी सीखा है और भारत और चीन के बीच प्रतिस्पर्धा को तेज कर यह देश अपने निवेश, रक्षा और व्यापार हितों को साधते रहे हैं. पिछले दो दशकों में इलाके में चीन की बढ़ती पकड़ के पीछे सिर्फ चीन की दक्षिण एशिया में दिलचस्पी, भारत की कमजोर होती पकड़, और भारत-चीन प्रतिस्पर्धा ही कारण नहीं रहा है. श्रीलंका और नेपाल जैसे देशों की भी इसमें बड़ी और व्यापक भूमिका रही है.
चीन जैसी गैरलोकतांत्रिक महाशक्ति से सिर्फ अपना हित साधने की कोशिश करना शेर की सवारी करने जैसा है. जब तक सवार सवारी कर रहा है सब कुछ बढ़िया है लेकिन जैसे ही सवार-सवारी का संतुलन बिगड़ा, शान और जान दोनों जाने का डर पैदा हो जाता है. श्रीलंका के साथ भी यही कुछ हो रहा है. करोड़ों डॉलर के कर्ज में डूबे श्रीलंका के लिए अब इस कर्ज के जाल से बाहर निकलना मुश्किल हो गया है. राजपक्षे की सरकार हो या सिरीसेना की – सत्तापक्ष हो विपक्ष में बैठी पार्टी, किसी भी राजनीतिक दल के लिए चीन के शिकंजे से निकल पाना मुश्किल है. वजह यह है कि बेल्ट एंड रोड परियोजना के एक अहम हिस्से – मैरीटाइम सिल्क रोड के तहत चीन और श्रीलंका के बीच किए गए निवेश समझौतों में पारदर्शिता नहीं रही थी. निवेश की कठिन शर्तों, ऋण न वापस करने की स्थिति में दंडकारी प्रावधानों ने इस स्थिति को और खराब कर दिया है.
निवेश और लाभ का गणित
श्रीलंका के सामने सबसे बड़ी समस्या यह आ खड़ी हुई है कि निवेश तो हुए हैं लेकिन उन निवेशों से हासिल कुछ खास नहीं हुआ है. हंबनटोटा जैसी जगहों पर लाखों डॉलर लगा कर एयरपोर्ट तो किसी तरह बन भी गया लेकिन यात्रियों की आमदरफ्त से निवेश के पैसों की वापसी एक दिवास्वप्न सा ही लगता है. रहा सवाल बहुचर्चित हंबनटोटा पोर्ट का, तो श्रीलंका सरकार के धूम धाम से बनाए गए इस पोर्ट पर 2017 में सिर्फ 175 जहाज आकर रुके या उन पर माल ढुलाई हुई. उधार चुकाने की कवायद में श्रीलंका अपने बंदरगाहों की संप्रभुता ही रेहन पर रखने की स्थिति में आ गया और इस ऋण के बदले श्रीलंका को हंबनटोटा में चीन को साझेदार बनाना पड़ा. हाल ही में श्रीलंका ने 110 करोड़ डॉलर के बदले हंबनटोटा का 70 फीसदी हिस्सा चीनी कम्पनी चाइना मर्चेंट होल्डिंग्स लिमिटेड को लीज पर दे दिया.
इस करार के तहत चीनी कंपनी 99 साल तक पोर्ट के उस हिस्से पर अपनी व्यापारिक गतिविधियां निर्बाध रूप से चलाने को स्वतंत्र है. आश्चर्य की बात है कि कर्ज में डूबे और निवेश के सफेद हाथी बन चुके हंबनटोटा में चीन 40 करोड़ डॉलर से ज्यादा का निवेश और करना चाहता है जिससे पोर्ट की सुविधाएं और अच्छी हो सकें और उसे अंतरराष्ट्रीय स्तर का बनाया जा सके. यह निवेश ऑफशोर सप्लाई को बढ़ाने, सुरक्षित ऐंकरेज सुनिश्चित करने, ड्राई डॉकिंग और भारी लिफ्टिंग क्षमता बढ़ाने तथा आयल एवं गैस रिफाइनरियां बनाने के लिए हो रहे हैं. ऐसा नहीं लगता कि ये क्षमताएं श्रीलंका के किसी काम आएंगी. हंबनटोटा पोर्ट पर विदेशी जहाज भी बहुत कम आते हैं. इसलिए लगता है कि यह निवेश चीन की अपनी जरूरतों के लिए है.
श्रीलंका को नहीं हो रहा है फायदा
साफ शब्दों में कहें तो श्रीलंका में निवेश तो जरूर हो रहा है लेकिन यह निवेश उसकी जरूरतों को पूरा करने के लिए है ही नहीं. यह बात और साफ हो जाती है चीन के बंकरिंग सुविधाओं के विकास की योजना से. चीन की कंपनी साइनोपेक हंबनटोटा पोर्ट से गुजरने वाले जहाजों को जरूरत पड़ने पर तेल मुहैया कराने की तैयारी कर रही है. यह सीधे तौर पर चीन की अपनी जरूरतों से जुड़ा है. हिंद महासागर में अपने जहाजों की मदद के लिए चीन यह निवेश कर रहा है, और बिल फाड़े जा रहे हैं श्रीलंका से दोस्ती और श्रीलंका के विकास के नाम पर. चीन के श्रीलंका पर बढ़ते दबदबे से साफ है कि वह श्रीलंका और उसके जरिए हिंद महासागर में अपनी पैठ बढ़ाने को एक सोचे समझे तरीके से अंजाम दे रहा है. श्रीलंका सरकार भारत को गिनाए अपने तमाम कसमों वादों के बावजूद चीन की भारत को घेरने की स्ट्रिंग आफ पर्ल्स रणनीति का हिस्सा बनती जा रही है. यह स्थिति श्रीलंका -भारत संबंधों के लिए अनुकूल तो बिल्कुल नहीं कही जा सकती है.
शिज़ा मलिक
"मैंने अपनी सारी उम्र ज़ुहा ज़ुबैरी के नाम से गुज़ारी है. और अब मैं एकदम से अपना नाम बदल लूं ये सोचकर मुझे बहुत अजीब लगा. अगर मैं अपना नाम बदल लेती तो शायद मुझे अपनी पहचान ख़त्म होती महसूस होती."
ये कहना था ज़ुहा ज़ुबैरी का जिन्होंने एक आम परंपरा को न मानकर अपनी शादी के बाद नाम न बदलने का फ़ैसला किया. यानी उन्होंने शादी के बाद अपने पति या उनके ख़ानदान का उपनाम अपने नाम के साथ नहीं जोड़ा.
दुनिया के बहुत से देशों की तरह पाकिस्तान में भी पारंपरिक तौर पर अधिकतर महिलाएं शादी के बाद अपने परिवार का नाम हटाकर अपने पति के परिवार का नाम लेती हैं. मगर आजकल पाकिस्तानी महिलाओं में भी शादी के बाद नाम न बदलने का रुझान बढ़ता जा रहा है.
ज़ुहा का कहना है कि वह अपने परिवार और दोस्तों में पहली महिला हैं जिसने अपना नहीं बदला है.
वह कहती हैं, "मेरी मां की शादी के फ़ौरन बाद ही उनका नाम बदल दिया गया था और अब उनका पूरा पैदाइशी नाम किसी को याद नहीं है. मेरी बहन ने भी शादी के बाद अपना नाम बदल लिया था."
मगर जब ज़ुहा कि अपनी शादी का वक़्त क़रीब आने लगा तो उन्हें अपना पैदाइशी नाम बदलने का विचार परेशान करने लगा.
इसका कारण यह था कि उन्हें अपना पैदाइशी नाम बहुत पसंद था और साथ ही पेशेवर ज़िंदगी में लोग उन्हें इसी नाम से जानते थे.
बालाच तनवीर, ज़ुहा ज़ुबैरी
वह कहती हैं, "कॉलेज में सभी मुझे ज़ुबैरी नाम से बुलाते थे. उसके अलावा मैं आर्किटेक्ट हूं और गायिका भी हूं. इन दोनों पेशों में मुझे लोग इस नाम से जानते हैं."
ज़ुहा के पति बालाच तनवीर ने भी उनके नाम न बदलने के फ़ैसले का समर्थन किया.
बालाच बताते हैं, "ज़ुहा ने अपने असली नाम से अपनी एक पहचान बनाई है. उनका जिस पेशे से संबंध है उसमें एक नाम के साथ लोगों का विश्वास जुड़ा होता है."
कुछ ऐसा ही कहना है जन्नत करीम ख़ान का.
नाम और कामयाबी
जन्नत करीम ख़ान
ज़ुहा की तरह जन्नत करीम ख़ान ने भी शादी के बाद अपना नाम नहीं बदला. जन्नत का कहना है, "जैसे-जैसे हम ज़िंदगी में आगे बढ़ते जाते हैं तो हमारा नाम ही हमारी पहचान बन जाता है. मैंने ज़िंदगी में जितनी भी कामयाबियां हासिल कीं उनके साथ मेरा नाम जुड़ा हुआ है."
एलाफ़ ज़हरा नक़वी का कहना था कि शादी के बाद नाम न बदलना महिला का निजी फ़ैसला होना चाहिए. "कुछ महिलाओं को अपना नाम पसंद होता है तो कुछ को अपने नाम से ख़ास लगाव होता है. वजह जो भी हो यह फ़ैसला करने का अधिकार महिला को ही होना चाहिए."
उनके पति तलाल ने बताया कि एक वक़्त पर वह चाहते थे कि एलाफ़ उनका नाम अपनाएं क्योंकि उनका मानना था कि अगर सरकारी दस्तावेज़ों में पति-पत्नी का नाम एक जैसा हो तो इमिग्रेशन और अन्य मामलों में आसानी होती है.
मगर एलाफ़ से बात करने के बाद उन्हें एहसास हुआ कि किसी का पैदाइशी नाम बदलना अच्छी बात नहीं है.
"इंसान जो नाम लेकर इस दुनिया में आए और जिस नाम के साथ बड़ा हो, उसका वह नाम बदल देना शायद उसके साथ एक तरह का ज़ुल्म है."
उन्होंने हंसते हुए कहा, "सिर्फ़ इसलिए कि आपकी किसी से शादी हो गई है तो आप क्या अपना नाम ही बदल देंगी?"
भावुक मसला
अपना पैदाइशी नाम बदलना या न बदलना अक्सर महिलाओं के लिए एक भावुक मामला भी होता है.
अनम सईद
अनम सईद कहती हैं कि उन्हें शादी के कुछ साल के बाद अपना पुराना नाम बदलने पर मलाल होने लगा.
"जब मेरी शादी हुई उस वक़्त मुझे लगता था कि अपने पति का नाम एक अच्छी परंपरा है जो पति को सम्मान देने का प्रतिबिंब है. इसलिए मैंने अपने नाम में अपने पति के ख़ानदानी नाम 'इक़बाल' को जोड़ लिया था."
"मगर शादी के कुछ अरसे बाद जब मैं अमेरिका गई तो वहां लोग मुझे सिर्फ़ मिसेज़ इक़बाल और अनम इक़बाल कहने लगे. तब मुझे अपनी पहचान खो जाने का एहसास होने लगा."
अनम ने बताया कि उन्हें ख़ासकर इस चीज़ का अफ़सोस होने लगा कि वह अपने उस नाम से जुदा हो गईं जो उन्हें उनके दिवंगत पिता ने दिया था.
इसलिए कुछ अरसे के बाद उन्होंने अपने पुराने नाम अनम सईद को अपना लिया.
कुछ और महिलाओं का भी कहना था कि उन्हें उनका पैदाइशी नाम उनके परिजनों से जोड़ता है.
जन्नत करीम ख़ान ने बताया कि उन्हें भी अपना पैदाइशी नाम इसलिए प्यारा है क्योंकि उनका नाम उन्हें अपने दिवंगत पिता से जोड़े रखता है.
झंझट का काम
कुछ महिलाओं के लिए नाम न बदलने का फ़ैसला व्यावहारिक कारणों पर भी आधारित होता है. हुमा जहांज़ेब कहती हैं कि वह एक कामकाजी महिला हैं इसलिए उनका नाम बदलना बहुत मुश्किल था.
"नाम बदलने का मतलब है सारे शैक्षिक और नौकरियों के दस्तावेज़ पर नाम बदलना जो कि बड़े झंझट का काम है."
मगर आज भी पाकिस्तानी समाज में महिलाओं का नाम न बदलना बड़ी अनहोनी बात समझी जाती है और कई दफ़ा नाम न बदलने वाली महिलाओं को रिश्तेदारों और दोस्तों की ओर से आलोचना का सामना करना पड़ता है.
"चूंकि महिलाएं तलाक़ के बाद अपना पैदाइशी नाम दोबारा अपना लेती हैं इसलिए विवाहित महिलाओं का अपना नाम न बदलना अच्छा नहीं समझा जाता है. ऐसी लड़कियों को लोग सरफिरा समझते हैं."
तलाल
तलाल का कहना था कि उनके दोस्तों को हैरत होती थी कि उन्होंने अपनी पत्नी एलाफ़ का नाम नहीं बदलवाया.
उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा कि लोगों की नज़र में नाम बदला नहीं बदलवाया जाता है.
इस तरह अक्सर महिलाएं बताती हैं कि सरकारी अफ़सर भी इस बात पर हैरत जताते हैं कि कोई महिला शादी के वक़्त अपना नाम क्यों नहीं बदल रही है.
ज़ुहा ज़ुबैरी का कहना था, "जब शादी के बाद मैं पहचान पत्र बनवाने सरकारी कार्यालय गई तो उन्होंने ख़ुद से ही मेरा नाम बदलकर मेरे नाम के साथ मेरे पति का नाम लगा दिया. जब मैंने आपत्ति जताई तो वे हैरत में पड़ गए कि मैं शादीशुदा होते हुए भी अपना नाम क्यों नहीं बदल रही हूं."
पति से मोहब्बत का इज़हार
एक ओर जहां कुछ महिलाएं अपना नाम नहीं बदल रही हैं वहीं बहुत सी महिलाएं अपनी खु़शी से शादी के वक़्त अपने पति का नाम अपनाती हैं.
मुअदब फ़ातिमा फ़रहान
मुअदब फ़ातिमा फ़रहान ने बताया कि उनके लिए शादी के वक़्त अपना बदलना पति से मोहब्बत का इज़हार करने की तरह था.
"जब कोई व्यक्ति आप से बेइंतहा प्यार करे और आपका हर तरह से ख़याल रखे तो आपका भी दिल चाहता है कि आप उसका नाम अपने साथ ज़िंदगी भर के लिए जोड़े रखें."
यही वजह थी कि उन्होंने अपने पति का पहला नाम अपने साथ लगाया न कि उनका ख़ानदानी नाम लगाया.
दानिश बतूल का कहना था कि बहुत सी महिलाएं शादी की ख़ुशी में अगले ही दिन सोशल मीडिया पर अपना नाम बदलकर अपने शादीशुदा होने का ऐलान कर देती हैं. "ये उनका अधिकार है और अगर किसी को अपना नाम बदलने में ख़ुशी मिलती है तो इसमें कोई दिक़्क़त नहीं है."
सिदराह औरंगज़ेब जिनकी शादी को 10 साल होने वाले हैं, वो कहती हैं कि जिस वक़्त उनकी शादी हुई तो उन्हें बहुत सी महिलाओं की तरह यह मालूम नहीं था कि नाम बदलना क़ानूनी या सामाजिक तौर पर आवश्यक नहीं है.
"मैं समझती थी कि नाम न बदलने का मतलब है कि आपने पूरी तरह उस ख़ानदान को नहीं अपनाया है जिसका हिस्सा आप बनने जा रही हैं."
सिदराह से सहमति जताते हुए हुमा कहती हैं कि अकसर महिलाओं को नाम न बदलने को लेकर पूरी जानकारी नहीं होती.
"महिलाओं को इस बात के बारे में बताना चाहिए कि ये उनका निजी मामला है और फिर वह इस मामले में जो भी फ़ैसला करें वह उनके पति और समाज को स्वीकार करना चाहिए." (bbc.com)
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान ख़ान 23 फ़रवरी को श्रीलंका के दौरे पर जा रहे हैं. पाकिस्तान के विदेश मंत्रालय ने कहा है कि पीएम ख़ान का दौरा श्रीलंका के प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे के आमंत्रण पर होने जा रहा है.
इस दौरे में इमरान ख़ान श्रीलंका के राष्ट्रपति गोटाभाया राजपक्षे और प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे के साथ द्विपक्षीय बैठक करेंगे. इसके अलावा भी कई उच्चस्तरीय बैठक होनी है. पाकिस्तानी पीएम बिज़नेस और निवेश फोरम की बैठक में भी शामिल होंगे.
साथ ही क्रिकेट को लेकर भी कुछ समझौते हो सकते हैं. दोनों मुल्कों के बीच कई एमओयू पर भी हस्ताक्षर होंगे. प्रधानमंत्री के तौर पर इमरान ख़ान पहली बार श्रीलंका जा रहे हैं. इस साल का यह उनका पहला विदेशी दौरा है.
इमरान ख़ान के साथ एक उच्चस्तरीय प्रतिनिधिमंडल भी होगा. इस दौरे में पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद क़ुरैशी, इमरान ख़ान के सलाहकार अब्दुल रज़ाक दाऊद और विदेश सचिव सुहैल महमूद के अलावा कई सीनियर अधिकारी रहेंगे.
श्रीलंका के प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे ने शनिवार को ट्वीट कर कहा है कि इमरान ख़ान का श्रीलंका में स्वागत है. उन्होंने अपने ट्वीट में लिखा है, ''श्रीलंका अगले हफ़्ते इमरान ख़ान के स्वागत के लिए तैयार है. इस दौरे से दोनों देशों के संबंध और मज़बूत होंगे.''
पाकिस्तान को श्रीलंका इतनी तवज्जो क्यों देता है?
1950 के दशक में पाकिस्तान और श्रीलंका दोनों अमेरिका के नेतृत्व वाले कम्युनिस्ट विरोधी खेमे में थे. जब श्रीलंका ने प्रधानमंत्री श्रीमाओ भंडारनायके के काल में सोवियत संघ और चीन के पक्ष में राजनीतिक रंग बदला तब भी दोनों देश क़रीब रहे.
यहाँ तक कि श्रीमाओ भंडारनायके ने बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के दौरान पाकिस्तानी एयरक्राफ़्ट को कोलंबो में 174 बार ईंधन भरने की अनुमति दी थी जबकि भारत ने पाकिस्तानी विमानों को अपने हवाई क्षेत्र में उड़ान भरने पर पाबंदी लगा रखी थी. श्रीलंका ने भारत की आपत्ति को भी अनसुना कर दिया था.
इसके बाद 1990 के दशक में जब पश्चिम के देश और भारत ने तमिल विद्रोहियों से लड़ाई में हथियार की आपूर्ति रोकी तो पाकिस्तान सामने आया और उसने हथियार भेजे. तमिलों के ख़िलाफ़ युद्ध में पाकिस्तान की सरकार ने श्रीलंका की खुलकर मदद की थी.
श्रीलंकाई अख़बार डेली स्टार के अनुसार पाकिस्तानी पायलटों ने श्रीलंका की वायुसेना को ट्रेनिंग भी दी थी. तमिलों के ख़िलाफ़ युद्ध अपराध को लेकर भी पाकिस्तान ने हमेशा श्रीलंका की मदद की. 2000 से 2009 के बीच पाकिस्तान और श्रीलंका काफ़ी क़रीब रहे.
तब श्रीलंका में तमिल विद्रोहियों और श्रीलंका की सेना के बीच युद्ध चल रहा था. 2000 में जाफना में जब श्रीलंका के सैनिक फँसे थे तो पाकिस्तान ने उन्हें एयरलिफ़्ट किया था. 2006 में एलटीटीई ने कोलंबो में पाकिस्तानी उच्चायुक्त बशीर वली मोहम्मद पर हमला भी किया था. कहा जाता है कि वली ही श्रीलंका में एलटीटीई के ख़िलाफ़ पाकिस्तान को आगे करने में लगे थे. (bbc.com)
बर्लिन, 20 फरवरी | जर्मन चांसलर एंजेला मर्केल ने म्यूनिख सिक्योरिटी कॉन्फ्रेंस (एमएससी) के विशेष वर्चुअल एडिशन में कहा है कि बहुपक्षवाद ने सभी राजनीतिक गतिविधियों के लिए आधार प्रदान किया और बहुपक्षीय संगठनों को मजबूत किया जाना चाहिए। समाचार एजेंसी सिन्हुआ के अनुसार, मर्केल ने शुक्रवार को कहा, "मुझे लगता है कि पिछले दो वर्षों ने यह स्पष्ट कर दिया है कि बहुपक्षवाद को लेकर यह विश्वास सही है। महामारी के खिलाफ लड़ाई एक बार फिर यह साबित करती है।"
कोविड-19 संकट के बारे में, मर्केल ने विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के महानिदेशक ट्रेडोस एडहैनॉम गेब्रेयेसस का हवाला दिया। ट्रेडोस ने भी इस कार्यक्रम में बोला। उन्होंने कहा, "यदि आप यह सुनिश्चित नहीं कर सकते कि सभी को टीका लगाया गया है, यदि वायरस को पूरी दुनिया में नहीं हराया गया है तो कोई भी सुरक्षित नहीं होगा।"
मर्केल ने यह भी कहा कि विश्व बैंक, विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ), डब्ल्यूएचओ और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) जैसे बहुपक्षीय संगठनों को एक बार फिर मजबूत होना चाहिए।
कोविड-19 संकट के कारण, विशेष कार्यक्रम जर्मन शहर म्यूनिख के होटल बेयरिचर होफ में आयोजित किया गया था और वक्ताओं ने वर्चुअल रूप से इसमें भाग लिया। (आईएएनएस)
दक्षिण वजीरिस्तान, 20 फरवरी | पाकिस्तान के कबायली जिले दक्षिण वजीरिस्तान के सारा रोगा इलाके में आतंकवादियों ने एक सुरक्षा चौकी पर हमला कर पांच सैनिकों की हत्या कर दी जबकि एक अन्य घायल हो गया। पुलिस ने यह जानकारी दी।
डॉन ने शनिवार को बताया कि पुलिस ने कहा कि मारे गए जवान फ्रंटियर कोर 223 विंग के हैं, जो एक अर्धसैनिक बल है, जो कबायली जिलों में आतंकवादियों से लड़ रहा है। अधिकारियों ने कहा कि आतंकवादियों ने हमले में हल्के और भारी हथियारों का इस्तेमाल किया।
मारे गए जवानों की पहचान नायब सूबेदार शाहिद अनवर, नायक अहमद खान, लांस नायक शहरयार और सिपाहियों अयूब और शहजाद के रूप में हुई और घायल की पहचान शाहिद अफजल के रूप में हुई है।
अभी तक किसी भी समूह ने हमले की जिम्मेदारी नहीं ली है।
सारा रोगा के एक निवासी इकबाल मेहसूद ने डॉन को बताया कि देर रात से भारी गोलीबारी शुरू हुई और लंबे समय तक जारी रही। गोलियों की आवाज सुनकर स्थानीय लोग अपने घरों से बाहर निकल आए।
बाद में, पुलिस और अर्धसैनिक बलों ने हमले के अपराधियों को पकड़ने के लिए इलाके में घर-घर तलाशी अभियान चलाया।
2009 में सुरक्षा बलों द्वारा ऑपरेशन रह-ए-निजात चलाए जाने के बाद सारा रोगा को आतंकवादियों से मुक्त कर दिया गया था।
हालांकि, हाल ही में दक्षिण वजीरिस्तान जिले के अहमदजई वजीर और महसूद कबायली क्षेत्रों में सुरक्षा बलों पर हमले हुए हैं। (आईएएनएस)
वॉशिंगटन, 20 फरवरी | दूसरे महाभियोग प्रकरण में बरी होने के बाद अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और उनकी ग्रैंड ओल्ड पार्टी (जीओपी) अब एक चौराहे पर हैं। सिन्हुआ न्यूज एजेंसी की रिपोर्ट के अनुसार, 6 जनवरी के दंगों के परिणामस्वरूप ट्रंप पर महाभियोग चला। उन दंगों में दर्जनों ट्रंप समर्थकों ने अमेरिकी कैपिटल बिल्डिंग में प्रवेश किया, सांसदों को धमकी दी और खिड़कियां तोड़ दीं।
दंगे के दौरान भीड़ ने एक पुलिस अधिकारी को मार दिया था और पुलिस ने एक मिलिट्री वेटरन को गोली मार दी थी। डेमोक्रेट्स ने ट्रंप पर दंगा भड़काने का आरोप लगाया। उनका कहना है कि ट्रंप ने अपने भाषण में प्रदर्शनकारियों को कैपिटल बिल्डिंग तक मार्च करने के लिए उकसाया।
हालांकि सीनेट ने ट्रंप को विद्रोह भड़काने के आरोपों से बरी कर दिया। ट्रंप की अपनी पार्टी के कुछ सांसदों ने उनके खिलाफ मतदान किया था। सीनेट में ट्रंप के समर्थन में 43 के मुाबले 57 मत पड़े और इस तरह उन्हें दोषी साबित करने के लिए आवश्यक दो-तिहाई बहुमत से भी कम वोट पड़े।
अमेरिकी इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ जब किसी राष्ट्रपति पर दो बार महाभियोग का मामला चला - एक बार पद पर रहते हुए और फिर से व्हाइट हाउस छोड़ने के बाद।
फिलहाल यह तो ज्ञात नहीं है कि इस महाभियोग का रिपब्लिकन पार्टी और वर्ष 2024 में राष्ट्रपति पद के लिए ट्रंप की क्षमता पर क्या प्रभाव पड़ेगा।
सेंट एंसलम कॉलेज में सहायक प्रोफेसर क्रिस्टोफर गाल्डिएरी ने कहा कि दूसरे महाभियोग ने ट्रंप की ग्रैंड ओल्ड पार्टी (जीओपी) में दरारें और गहरी कर दीं।
नॉर्थ कैरोलाइना और लुइसियाना राज्यों में जीओपी समितियों ने महाभियोग के दौरान ट्रम्प के खिलाफ मतदान के लिए अपने स्वयं के दो सीनेटरों को प्रतिबंधित कर दिया।
ट्रंप ने मंगलवार को सीनेट के अल्पसंख्यक नेता सेन मिच मैककोनेल पर प्रहार करते हुए एक बयान दिया जिसमें यह तर्क दिया कि अगर रिपब्लिकन सीनेटर उनके साथ रहेंगे, तो वे फिर दोबारा नहीं जीतेंगे।
विशेषज्ञों ने कहा कि ऐसा प्रतीत होता है कि महाभियोग के कारण ट्रंप के 'आधार' को आघात नहीं पहुंचा है। यह 'आधार' अब भी ट्रंप के प्रति वफादार है, लेकिन कुछ लोगों की उनसे सहमति नहीं है जिसके परिणामस्वरूप देश के भीतर लगातार विभाजन की आशंकाएं दिख रही हैं।
गाल्डिएरी ने कहा कि अल्पावधि में ऐसा प्रतीत नहीं होता है कि महाभियोग ने रिपब्लिकन नेताओं और मतदाताओं को अधिक चोट पहुंचाई है।
मैरीलैंड विश्वविद्यालय में अंतर्राष्ट्रीय व सुरक्षा अध्ययन केंद्र में शोधकर्ता क्ले रामसे ने कहा कि महाभियोग का शायद सबसे महत्वपूर्ण प्रभाव कांग्रेस में उन लोगों के बीच स्पष्ट विभाजन बनाना है जो ट्रम्प के प्रति वफादार रहेंगे, और दूसरे अन्य रिपब्लिकन।
रामसे ने कहा कि इसका मतलब यह है कि कांग्रेस में अनिवार्य रूप से अब तीन-पार्टी प्रणाली है। ट्रम्प की अपनी पार्टी है, एक छोटी रूढ़ीवादी समूह है, और डेमोक्रेटिक पार्टी है।
ट्रंप भले ही महाभियोग मामले में बरी हो गए हों, लेकिन 6 जनवरी को कैपिटल में हुए दंगों का मामला अभी पूरी तरह से शांत नहीं हुआ है।
हाउस स्पीकर नैन्सी पेलोसी ने घोषणा की है कि कानूनविद् कैपिटल दंगा के कारणों की जांच के लिए एक आयोग की स्थापना करेंगे। (आईएएनएस)
अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने कहा है कि नाटो के साथ अमेरिका की प्रतिबद्धता “अडिग” है. इसके साथ ही उन्होंने एक सदस्य पर हमले को सारे सदस्यों पर हमले के सिद्धांत पर टिके रहने की बात कही है.
डॉयचे वैले निखिल रंजन की रिपोर्ट-
अमेरिका और यूरोप के सहयोग के रास्ते पर फिर से आगे बढ़ने की उम्मीदें जवान हो गई हैं. अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने कहा है कि नाटो के साथ अमेरिका की प्रतिबद्धता "अडिग” है. इसके साथ ही उन्होंने एक सदस्य पर हमले को सारे सदस्यों पर हमले के सिद्धांत पर टिके रहने की बात कही. म्युनिख सिक्योरिटी कांफ्रेंस में राष्ट्रपति ने अपने भाषण की शुरुआत में कहा, "अमेरिका लौट आया है.”
बाइडेन ने अपने भाषण से यह संकेत दे दिया है कि अमेरिका उनके दौर में पूर्व राष्ट्रपति की नीतियों से उल्टी राह पर चलेगा. डॉनल्ड ट्रंप ने 30 सदस्यों वाले संगठन नाटो को "गुजरे जमाने का” कहा था और एक वक्त तो ऐसी आशंका भी उठने लगी थी कि अमेरिका इससे बाहर हो जाएगा. ट्रंप ने जर्मनी और दूसरे देशों में रक्षा खर्च को जीडीपी के 2 फीसदी के स्तर पर नहीं ले जाने के कारण कई बार सार्वजनिक रूप से इन देशों की आलोचना की.
यूरोप से संबंधों में सुधार
राष्ट्रपति बनने के बाद बाइडेन ने पहली बार किसी अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन को संबोधित किया जहां वो यूरोपीय श्रोताओं के सामने थे. म्युनिख सिक्योरिटी कांफ्रेंस में जी7 देश के राष्ट्रप्रमुखों के अलावा यूरोपीय संघ के शीर्ष नेता भी ऑनलाइन सम्मेलन में हिस्सा ले रहे है. बाइडेन के भाषण ने यूरोप और अमेरिका के रिश्तों में पिछली सरकार के दौरान आई तल्खियों को घटाने की शुरूआत कर दी है.
जी7 देशों के नेताओं के साथ ऑनलाइन बैठक के बाद सम्मेलन में दिए भाषण में बाइडेन ने कहा, ”मैं जानता हूं कि बीते कुछ साल तनाव भरे रहे हैं जिनमें हमारे अटलांटिक पार रिश्तों की परीक्षा हुई है, लेकिन अमेरिका इस बात के लिए प्रतिबद्ध है कि वह यूरोप के साथ फिर सहयोग करेगा, मशविरा लेगा और भरोसेमंद नेतृत्व की स्थिति हासिल करेगा.”
बाइडेन ने कहा कि अमेरिकी सेना दुनिया भर में अपनी सैन्य स्थिति की समीक्षा कर रही है. हालांकि उन्होंने जर्मनी से सेना की वापसी का फैसला वापस ले लिया है. यह फैसला भी डॉनल्ड ट्रंप का ही था जिसने नाटो सहयोगियों की बेचैनी बढ़ा दी थी. बाइडेन ने यह भी कहा कि उन्होंने जर्मनी में कितनी सेना मौजूद रहेगी इस पर पिछले प्रशासन की लगाई सीमा को भी खत्म कर दिया है.
एकजुट होगा यूरोप
सिर्फ नाटो के साथ अपने रिश्ते पर ही नहीं बाइडेन ने पूरी दुनिया के लिए यूरोप के साथ मिल कर काम करने की प्रतिबद्धता जताई. इनमें कोविड की महामारी निपटने के उपाय से लेकर पेरिस समझौते में वापसी और तमाम ऐसे दूसरे सहयोग के मंच हैं जहां अब तक यूरोपीय देश और अमेरिका कदम से कदम मिला कर चलते रहे हैं.
कॉन्फ्रेंस में ब्रिटिश प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन ने कहा कि बाइडेन ने स्वतंत्र देशों के बीच अमेरिका को नेता के रूप में वापस ला दिया है. उनके शानदार कदमों ने पश्चिमी देशों को एकजुट किया है. जॉनसन ने कहा, "जैसा कि आपने पहले देखा और सुना है, अमेरिका बिल्कुल निष्कपट रूप से स्वतंत्र देशों के नेता के तौर पर वापस लौट आया है जो एक शानदार बात है.” ब्रिटिश प्रधानमंत्री का कहना है कि निराशा के दिन खत्म हो गए हैं और अब सारे पश्चिमी देश एक हो कर अपने सामर्थ्य और विशेषज्ञता को एक बार फिर से आपस में जोड़ सकेंगे.
ईरान के साथ समझौते में वापसी
म्युनिख सिक्योरिटी कांफ्रेंस में ही अमेरिका के ईरान के साथ परमाणु समझौते में वापस लौटने की उम्मीद भी मजबूत हो गई है. कांफ्रेंस में बाइडेन ने कहा, "हमें निश्चित रूप से ईरान की पूरे मध्यपूर्व में अस्थिरता फैलाने वाली गतिविधियों से निबटना होगा. हम अपने यूरोपीय और दूसरे सहयोगियों के साथ इस मुद्दे पर आगे काम करेंगे.”
जर्मन चांसलर अंगेला मैर्केल ने बाइडेन के इस कदम का स्वागत किया और कहा कि उन्हें उम्मीद है कि समझौते को बचाया जा सकेगा. मैर्केल ने कहा, "अगर हर कोई रजामंद हो तो करार को एक दूसरा मौका दिया जाना चाहिए और तब इसके तरीके ढूंढे जाने चाहिए कि करार कैसे चलता रहे. कम से कम हम बातचीत में नया वेग भर सकते हैं.”
कोरोना के टीके पर सहयोग
कॉन्फ्रेंस में हिस्सा ले रहे जी7 देशों के नेताओं ने दुनिया भर के जरूरतमंद लोगों तक वैक्सीन पहुंचाने का वादा किया. इसके लिए संयुक्त राष्ट्र के समर्थन से चल रहे वैक्सीन को बांटने के कार्यक्रम में पैसा और वैक्सीन की डोज का सहयोग करेंगे. इन नेताओं पर फिलहाल अपने देशों में ही लोगों को वैक्सीन पहुंचाने की चुनौती है. जर्मन चांसलर अंगेला मैर्केल ने कहा कि वैक्सीन को सही तरीके से बांटने के फैसले में "निष्पक्षता का सवाल सबसे बुनियादी है.” हालांकि उन्होंने साफ किया "जर्मनी में वैक्सीन लगाने के किसी भी अपॉइंटमेंट को खतरे में नहीं पड़ने दिया जाएगा.”
साल की पहली बैठक में नेताओं ने कहा कि वो पूरी दुनिया के लिए वैक्सीन विकसित करने और उसे लोगों तक पहुंचाने की कोशिशों को तेज करेंगे. उन्होंने सामूहिक रूप से जी-7 देशों की तरफ से 7.5 अरब डॉलर का धन संयुक्त राष्ट्र के कार्यक्रम के लिए देने का एलान किया है. फ्रांस के राष्ट्रपति इमानुएल माक्रों ने तो एक कदम और आगे बढ़ कर कहा है कि सभी देश पांच फीसदी वैक्सीन गरीब देशों के लिए बाहर निकालें. फ्रांस ने अपनी तरह से ऐसा करने का एलान भी कर दिया है, हालांकि इसके लिए डोज की संख्या या फिर कोई तारीख नहीं बताई गई है. म्युनिख कांफ्रेंस में शामिल जी-7 देशों में फ्रांस, जर्मनी, इटली, कनाडा, जापान, ब्रिटेन और अमेरिका शामिल हैं. इस साल से जी-7 की अध्यक्षता ब्रिटेन के पास आ गई है.
(एपी, एएफपी, रॉयटर्स, डीपीए)
यूरोप के आखिरी तानाशाह आलेक्जांडर लुकाशेंको के खिलाफ एक बैंकर ने मोर्चा खोल दिया है. बैंकर तो जेल में बंद है लेकिन उसने लोगों को जागरूक कर दिया है जो शायद कभी तानाशाही सरकार बदल देंगे. हालांकि यह कब होगा कोई नहीं जानता.
डॉयचे वैले निक कोनोली की रिपोर्ट-
विक्टर बाबारिको ने कोर्ट में सुनवाई शुरू होने से पहले बयान कर अपने समर्थकों से कहा कि पिछला साल, "हमारे लिए, हमारी आत्मा की गुलामी पर" एक जीत का साल था, भले ही तानाशाह राष्ट्रपति अलेक्जांडर लुकाशेंको से राजनीतिक जीत की कोशिश अब तक नाकाम रही है. बाबरिको ने कहा, "कई सालों से उन्होंने हमारे मन में यह बिठा रखा था कि बेलारूस के लोग बिना सख्ती किए बात नहीं मानेंगे, हम स्वतंत्र रूप से अपने फैसले लेने में अक्षम हैं और अपने भविष्य की जिम्मेदारी नहीं ले सकते.”
बाबरिको ने यह संदेश जेल के भीतर से लिखा है जहां वे पिछले आठ महीने से बंद हैं. इन महीनों में बेलारूस में बहुत बदलाव हुए हैं, हालांकि वे इन बदलावों को सींखचों के पीछे रह कर ही जान पा रहे हैं.
राष्ट्रपति चुनाव का अभियान छोटा हो गया
बाबारिको की के न्याय तंत्र के साथ समस्या 2020 के जून में शुरू हुई. कुछ ही हफ्तों चले राष्ट्रपति चुनाव के अभियान ने लाखों बेलारुसवासियों ने खुद को राष्ट्रपति के उम्मीदवार के रूप में रजिस्टर करा. शुरुआती ऑनलाइन सर्वे में बाबारिको वर्तमान राष्ट्रपति लुकाशेंको की तुलना में बहुत ज्यादा आगे थे. कुछ लोगों का तो मानना था कि विपक्षी उम्मीदवार 50 फीसदी तक वोट हालिस कर सकते हैं. अधिकारियों ने इसका जवाब स्वतंत्र सर्वे पर रोक लगाकर दिया.
जून की शुरुआत में ही जांच अधिकारियों ने बेलगाजप्रोमबैंक पर छापे भी मारे. यह वही बैंक है जिसे बाबारिको बीते 20 साल से चला रहे हैं और राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी के लिए उन्होंने वहां से इस्तीफा दिया. बाबरिको को घूस लेने के आरोप में बंद किया गया. आरोप लगा कि उन्होंने 16 साल में मनी लाउंड्रिंग के जरिए करीब एक करोड़ यूरो की रिश्वत ली. इसके तुरंत तबाद ही बेलारुस के निर्वाचन आयोग ने उनके उम्मीदवार के तौर पर खुद को रजिस्टर करने की कोशिश पर विराम लगा दिया. आयोग ने इसके पीछे उनके खिलाफ आपराधिक मामले चलने की दलील दी. साथ ही यह भी आरोप लगा कि वो अपनी सारी संपत्ति का ब्यौरा देने में नाकाम रहे.
अगर बाबरिको दोषी करार दिए जाते हैं तो उन्हें 15 साल की कैद की सजा हो सकती है. बेलगाजप्रोमबैंक के उनके छह साथियों के खिलाफ भी सुनवाई चल रही है और उनमें से सभी ने जांचकर्ताओं के साथ करार में वादामाफ गवाह बनने पर सहमति दे दी है. इसके बाद इन लोगों की सजाएं आधी माफ हो जाएंगी. जांचकर्ताओं को यह बताने में काफी मुश्किल पेश आ रही है कि क्यों बाबरिको के खिलाफ मुकदमा उनका सार्वजनिक जीवन शुरू होने और उनकी राजनीतिक आकांक्षाओं के सामने आने के बाद चला. एमनेस्टी इंटरनेशनल का कहना है कि यह मात्र संयोग नहीं है.
रूस की सरकारी गैस कंपनी गजप्रोम के स्वामित्व वाली बैंक के प्रमुख के रूप में बाबरिको के रूस से रिश्ते जाहिर तौर पर करीबी हैं. हालांकि उन्होंने रूस के साथ अपने सभी संबंधों में बेलारुस की संप्रभुता को बचाने पर जोर दिया है और ना सिर्फ रूस के साथ बल्कि यूरोप के साथ भी अपने संबंधों में दोनों के लिए फायदेमंद संबंध बनाए हैं.
राष्ट्रपति के दफ्तर में कारोबारी कुशलता !
बाबरिको ने रूस के कोमरसांट अखबार से कहा कि लंबे समय के दौर में वो उम्मीद करते हैं कि बेलारुस निरपेक्षता हासिल कर लेगा, भले ही इसका मतलब रूस के साथ मौजूदा सुरक्षा इंतजामों से बाहर निकलना ही क्यों ना हो.
बाबरिको ने राष्ट्रपति चुनाव के अभियान में खुद को एक मैनेजर के रूप में पेश किया जिसे बेलारुस के लोग उन्हें अपने लिए काम पर रखें. बाबरिको कहते हैं कि करीब ढाई दशक के कार्यकाल में लुकाशेंको यह भूल गए हैं कि बेलारुस के लोग उनके मालिक हैं, उनके नौकर नहीं. इस अभियान में उन्होंने मैनेजर के तौर पर अपनी कुशलता का भरपूर प्रयोग किया. इसने उनकी ऐसी छवि बनाई है जो समस्याओं का निदान करने और बेलारुस के पिछड़ेपन को दूर करने में सक्षम है. बाबरिको के समर्थकों ने "वमेस्ते” नाम की एक पार्टी भी बनाने की कोशिश की. इसका मतलब है "साथ साथ.” हालांकि यह पार्टी नहीं खड़ी हो सकी, गिरफ्तारियों के चले एक दौर ने बाबरिको के सहयोगियों को भी जेल के भीतर पहुंचा दिया.
जेल या फिर निर्वासन
अक्टूबर में मिंस्क की सड़कों पर करीब दो महीने के विशाल प्रदर्शनों के बाद लुकाशेंको सामने आए और कहा कि वो विपक्ष के साथ मिलकर काम करना चाहते हैं. सबको चौंकाते हुए उन्होंने जेल जाकर बाबरिको और दूसरे विपक्षी नेताओं से मुलाकात की. इस दौरान उन्होंने चार घंटे तक ज्यादा समय में बेलारुस के भविष्य के लिए संवैधानिक सुधारों पर चर्चा की. उम्मीद से भरे विश्लेषकों को लगा कि यह राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा की शुरुआत है. हालांकि पतझड़ के बाद जैसे ही सर्दियों ने सिर उठाया और प्रदर्शन थमे, आत्मविश्वास से भरी सरकार ने विपक्षी दलों के साथ किसी तरह की कोई बातचीत से इंकार कर दिया.
नागरिक समाज के खिलाफ कार्रवाई शुरू हो गई और उनके सहआरोपियों ने अभियोजन के साथ करार कर लिया. ऐसे में कोर्ट क्या फैसला देगा इसके बारे में कोई संदेह नहीं रह जाता. सरकारी मीडिया में बाबरिको के खिलाफ सबूतों वाली रिपोर्टों की बारिश हो रही है. ऐसा लग रहा है जैसे सरकार के पास अपने चेहरे से दाग छिपाने का बस एक ही तरीका है कि वो बाबरिको को निर्वासन पर भेज दे. आने वाले वर्षों में लगता नहीं कि बाबरिको की जिंदगी जेल से बाहर निकलेगी.
सरकार का संदेश साफ है. देश का कोई विपक्षी नेता चाहे कितना भी रसूख वाला हो, वह आजाद और बेलारुस में नहीं रह सकता.
कैरिबियाई द्वीप देश जमैका में डेढ़ सौ साल पुराने गर्भपात विरोधी कानून को बदलने की मांग पुरजोर हो उठी है. संसद में इस पर वोटिंग कराने की तैयारी है. लेकिन ईसाई धार्मिक समूहों ने मुहिम को रोकने का बीड़ा उठा लिया है.
20 साल की त्रिशाना (बदला हुआ नाम) के बॉयफ्रेंड ने ऐन सेक्स के बीच कंडोम निकाल दिया जिसका नतीजा हुआ अनचाहा गर्भ. अगर गर्भपात कराते पकड़ी जाती तो त्रिशाना को जिंदगी जेल में काटनी पड़ जाती. उसका गायनोकलोजिस्ट 300 डॉलर में बच्चा गिराने को तैयार हो गया था, हालांकि वो भी अगर पकड़ा जाता तो उसे तीन साल की सजा हो सकती थी. त्रिशाना ने बताया, "वो मेरा सही फैसला था. हूं तो मैं अभी 20 साल की ही.” उसने अपना असली नाम नहीं बताया लेकिन वो अपनी दास्तान पिछले महीने लॉन्च हुई "अबॉर्शन जमैका” नाम की वेबसाइट को बताना चाहती हैं. जमैका उन देशों में एक है जहां प्रजनन अधिकारों के निषेध से जुड़े दुनिया के सबसे सख्त कानून लागू हैं. ऐसे में "अबोर्शन जमैका” मुहिम के युवा एक्टिविस्ट, महिलाओं और लड़कियों से अपने गर्भपात से जुड़े अनुभवों को शेयर करने की अपील कर रहे हैं. यह मुहिम गर्भपात को अपराध की श्रेणी से हटाने का दबाव बनाने के लिए चलाई जा रही है.
सालों पुराने कानून को बदलने की लड़ाई
जमैका में 157 साल पुराने इस प्रतिबंध को लेकर बहस तब शुरू हुई जब पिछले साल दिसबंर में लातिन अमेरिकी मित्र देश अर्जेंटीना ने गर्भपात को कानूनी रूप देने का फैसला किया. इस बीच अमेरिकी राष्ट्रपति जो बीडेन ने भी दुनिया भर में गर्भपात सेवाओं के लिए अरबों डॉलर की फंडिंग जारी करने का ऐतिहासिक फैसला किया है. सेंटर-राइट जमैका लेबर पार्टी की सांसद जुलियन कुथबेर्ट-फ्लिन ने 2018 में कानून को बदलने का एक प्रस्ताव पेश किया था और एक संसदीय समिति ने पिछले साल इस पर सजग मतदान कराने की सिफारिश की थी. लेकिन चुनावों के भंग होने से पहले संसद के एजेंडे में यह मुद्दा रखा ही नहीं गया.
पूर्व ओलम्पियन के तौर पर मशहूर और अब स्वास्थ्य उप-मंत्री बन चुकी कुथबेर्ट-फ्लिन का कहना है कि 1864 के ऐक्ट में संशोधन के लिए वे स्वास्थ्य मंत्रालय के साथ मिलकर एक पॉलिसी तैयार कर रही हैं. फिर इस पर संसद में चर्चा के बाद वोटिंग कराई जाएगी. सितंबर में भारी मतों से जीत दर्ज कर संसद पहुंची कुथबेर्ट-फ्लिन ने थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन को बताया, "और भी सांसद हैं जो इस कानून को वापस लिए जाने के पक्ष में हैं. मैं मानती हूं कि हमारी दलीलों के समर्थन में बहुत से लोग हैं जो महिलाओं के प्रजनन अधिकारों के खिलाफ इस निरंकुश कानून को बदलना चाहते हैं.”
कुथबेर्ट-फ्लिन को भी महज 19 साल की उम्र में गर्भपात कराना पड़ा था. उस समय वे ब्रेन ट्युमर से भी पीड़ित थी. कैरेबियन पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट (कैपरी) नाम के एक थिंकटैंक के मुताबिक जमैका में हर साल करीब 22 हजार महिलाएं गर्भपात कराती हैं, और चोरी छिपे ये काम करने और खुद से ही दवा के इस्तेमाल का सबसे बड़ा जोखिम गरीब महिलाओं को भुगतना होता है.
बहुत गहरे राज
अपनी स्थापना के एक महीने के भीतर "अबोर्शन जमैका" वेबसाइट ने 30 कहानियां छाप दी हैं. मुहिम का जन्म "रीबेल वुमेन लिस्ट" नाम के एक बुक क्लब से हुआ जो लेखकों की मुलाकातों, संवादों, योगाभ्यासों और नेटफ्लिक्स देखने के लिए ऑनलाइन और ऑफलाइन दोनों तरह से सक्रिय रहा है. वेबसाइट के मुताबिक, "ये कहानियां हम एक कान से दूसरे कान तक पहुंचाएंगे, अपने सपोर्ट सिस्टम के बीच इन्हें फैलाएंगे - वे मददगार लोग, जो करीबी दोस्त हो सकते हैं, बहन, पार्टनर या मां हो सकती हैं - वैसे लोग जिनसे हम अपने सबसे गहरे राज साझा करते हैं.” वेबसाइट का कहना है कि गर्भपात को "एक हेल्थकेयर जरूरत” की तरह देखा जाना चाहिए, "हम किसी को क्या देते लेकिन एक एक कहानी पर हमने ध्यान दिया, उसे सुना और उनके अनुभवों पर खामोशी लादने की कोशिश नहीं की.”
वेबसाइट में सुरक्षित गर्भपात के विभिन्न तरीकों के बारे में सूचना के लिंक दिए गए हैं. गर्भपात करा चुकी दोस्त हों या अपराध की श्रेणी से इसे निकालने का समर्थन कर रहे लोकल एडवोकेसी समूह, उन सबकी किस तरह मदद कर सकते हैं, ये भी वेबसाइट में दर्ज है. अबॉर्शन जमैका ने पुरानी पीढ़ी के अनुभवों के ऑडियो शेयर करने की योजना भी बनाई है.
वेबसाइट की संस्थापक 27 साल की झेराना पैटमोर हैं. उन्होंने अबोर्शन मोनोलॉग्स के नाम से 2018 में ब्लॉग लिखा था. 74 साल की पामेला अपने गर्भपात की दास्तान को वेबसाइट में देना चाहती है. उनका कहना है, "इस बारे में ज्यादा लोग बात नहीं करते हैं और मैं बहुत मजबूती से ये बात मानती हूं कि औरतों को अपने शरीर से जुड़े फैसले खुद करने में समर्थ होना चाहिए.” कुछ कहानियां ग्राफिक रूप में हैं - तकलीफ और दर्द को बयान करतीं, संक्शन की आवाजें और खून का रिसाव - इन घटनाओं में औरतों और लड़कियों का अफसोस और अकेलापन दर्ज है. इनमें एक 16 साल की लड़की की दास्तान भी है जिसे हाईस्कूल पास करने से एक दिन पहले ही गर्भपात कराना पड़ा था. पैटमोर कहती हैं, "अगर हम इन औरतों और बच्चियों की व्यथा समझ सकें, तो हम बहस का रुख मोड़ सकते है.”
पूरी तरह वर्जित
दुनिया में 26 देश ऐसे हैं जहां किसी भी हाल में गर्भपात की अनुमति नहीं है, फिर चाहे मां या बच्चे की जान पर ही खतरा क्यों ना हो. यानी यहां गर्भवती होने के बाद महिला का अपने शरीर पर कोई हक ही नहीं रह जाता. दुनिया की कुल पांच फीसदी यानी नौ करोड़ महिलाएं ऐसे देशों में रहती हैं. इनमें इराक, मिस्र, सूरीनाम और फिलीपींस शामिल हैं.
अजन्मे बच्चों की लड़ाई का ‘धर्म‘
कुथबेर्ट-फ्लिन का मानना है कि इस बारे में लोगों की राय धीरे धीरे बदलने लगी है, संसद में महिलाओं के पास रिकॉर्ड 29 प्रतिशत सीटे हैं. कई पुरुष सांसदो ने भी सुधार के लिए समर्थन का संकेत दिया है. इनमें विपक्ष की ओर से स्वास्थ्य मामलो के प्रवक्ता मोराइस गाय भी शामिल हैं जो खुद एक डॉक्टर भी हैं. कुथबेर्ट-फ्लिन का कहना है, "औरतें घरों में मर रही हैं और हमें पता ही नहीं चलता है.” वे बताती हैं कि कैसे बहुत ज्यादा खून बह जाने से उनकी एक सहयोगी की मौत हो गई थी.
इस बारे में प्रधानमंत्री कार्यालय से कोई बयान नहीं मिला है. स्वास्थ्य मंत्री क्रिस्टोफर टुफ्टोन ने कहा है कि वे संसद में सजग मतदान का समर्थन करेंगे. उनके मुताबिक, "यह एक महत्त्वपूर्ण जन स्वास्थ्य मुद्दा है और इसके लिए उतने ही व्यापक रिस्पॉन्स की जरूरत है.” जमैका प्रमुख रूप से प्रोटेस्टेंट ईसाई देश है और उसके धार्मिक नेता अबॉर्शन के सख्त खिलाफ हैं. एक ईसाई युवा समूह, लव मार्च मूवमेंट ने संसद में मतदान को रद्द करने की मांग के साथ एक अपील जारी की है जिस पर सहमति के 13 हजार हस्ताक्षर जमा हो गए हैं.
जमैका कॉज संस्था के चेयरमैन पादरी आल्विन बाइली का कहना है, "मैं मानता हूं कि गर्भपात कराना गलत है और किसी को भी इसकी इजाजत नहीं मिलनी चाहिए. हम लोग अजन्मे बच्चे को आवाज और पहचान और जीने का मौका देने के लिए जो भी बन पड़ेगा करने के लिए तैयार हैं.”
एसजे/आईबी (थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन)
वॉशिंगटन, 20 फरवरी | अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने कहा है कि अमेरिका ट्रांसअटलांटिक साझेदारी में लौट रहा है और जलवायु परिवर्तन एवं कोविड-19 महामारी जैसी वैश्विक चुनौतियों का सामना करेगा। सिन्हुआ न्यूज एजेंसी के मुताबिक, बाइडेन ने म्यूनिख सिक्योरिटी कॉन्फ्रेंस में उपस्थित लोगों को एक वीडियो संदेश में कहा, "मैं दुनिया को एक स्पष्ट संदेश भेज रहा हूं: अमेरिका वापस आ गया है। ट्रान्सअटलांटिक गठबंधन वापस आ गया है और हम पीछे नहीं देख रहे हैं।" इस साल कोरोनावायरस महामारी के कारण म्यूनिख सिक्योरिटी कॉन्फ्रेंस का आयोजन वर्चुअली किया गया।
इस आयोजन में शामिल होने वाले पहले अमेरिकी राष्ट्रपति के रूप में बाइडेन ने कहा कि उनका प्रशासन अपने यूरोपीय संघ (ईयू) के सहयोगियों और पूरे महाद्वीप में राजधानियों के साथ मिलकर काम करेगा। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि अमेरिका उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन ( नाटो) के साथ अपने गठबंधन के लिए पूरी तरह से प्रतिबद्ध है।
बाइडेन ने राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के पिछले प्रशासन के दौरान बिगड़ते अमेरिका-यूरोप संबंधों का जिक्र करते हुए कहा, "मुझे पता है कि पिछले कुछ वर्षों में ट्रांसअटलांटिक संबंधों को परखा गया है..अमेरिका यूरोप के साथ फिर से जुड़ने के लिए प्रतिबद्ध है।"
उन्होंने कहा कि वाशिंगटन साझा चुनौतियों को पूरा करने के लिए अपने यूरोपीय संघ के भागीदारों के साथ मिलकर काम करेगा और यूरोप के लक्ष्यों का समर्थन करना जारी रखेगा।
बाइडेन ने "वैश्विक अस्तित्व संकट" की चेतावनी देते हुए अमेरिका के यूरोपीय सहयोगियों से जलवायु परिवर्तन से लड़ने के लिए प्रतिबद्धताओं को दोगुना करने का आग्रह किया।
वाशिंगटन के औपचारिक रूप से पेरिस समझौते पर लौटने के कुछ ही घंटों बाद बाइडेन ने कहा कि हम अब देरी नहीं कर सकते हैं या जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर बहुत कुछ कर सकते हैं।
बाइडेन ने कहा कि कोविड-19 महामारी एक ऐसे मुद्दे का उदाहरण है जिसे वैश्विक सहयोग की आवश्यकता थी। उन्होंने विश्व स्वास्थ्य संगठन के सुधार और संयुक्त राष्ट्र प्रणाली के निर्माण का आह्वान किया जो जैविक खतरों पर केंद्रित है और तेजी से कार्रवाई शुरू कर सकता है। (आईएएनएस)
संयुक्त राष्ट्र, 20 फरवरी| संयुक्त राष्ट्र (यूएन) महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने जलवायु परिवर्तन पर पेरिस समझौते में अमेरिका के वापस आने की सराहना की और 2050 तक विशुद्ध रूप से जीरो उत्सर्जन को प्राप्त करने के लिए वैश्विक कदम का आह्वान किया।
समाचार एजेंसी सिन्हुआ के मुताबिक, गुटेरेस ने शुक्रवार को एक वर्चुअल कार्यक्रम में कहा, "आज उम्मीद का दिन है क्योंकि अमेरिका ने आधिकारिक तौर पर पेरिस समझौते में वापसी की है। यह अमेरिका और दुनिया के लिए अच्छी खबर है।"
उन्होंने कहा कि पिछले चार वर्षों के लिए, एक प्रमुख देश की अनुपस्थिति ने पेरिस समझौते में एक अंतर पैदा कर दिया, एक गायब कड़ी जिसने पूरे को कमजोर कर दिया। इसलिए आज, जैसा कि अमेरिका ने इस समझौते में फिर से प्रवेश किया है, हम इसका सम्मान करते हैं।
अमेरिका ने 22 अप्रैल, 2016 को पेरिस समझौते पर हस्ताक्षर किए, और 3 सितंबर, 2016 को स्वीकृति द्वारा समझौते से बाध्य होने की सहमति व्यक्त की। डोनाल्ड ट्रंप ने अमेरिकी राष्ट्रपति के रूप में पद ग्रहण करने के तुरंत बाद, जून 2017 में घोषणा कर दी कि उनका देश समझौते से अलग होगा।
व्हाइट हाउस में अपने पहले दिन, राष्ट्रपति जो बाइडेन ने स्वीकृति के एक नए दस्तावेज पर हस्ताक्षर किए, जिसे उसी दिन संयुक्त राष्ट्र महासचिव के पास जमा किया गया था, जिससे पेरिस समझौते के प्रावधानों के अनुसार 19 फरवरी, 2021 को अमेरिका को प्रवेश मिल गया। (आईएएनएस)
पाकिस्तान में बलात्कार पीड़ितों को आज भी टू फिंगर टेस्ट से गुजरना पड़ता है. महिला अधिकार कार्यकर्ता लंबे समय से इस पर रोक लगाने की मांग कर रहे हैं. हाल में पाकिस्तानी अदालतों के कुछ फैसलों से इसकी उम्मीद जगी है.
दो महीने पहले शाजिया (बदला हुआ नाम) को बलात्कार की जांच के दौरान तथाकथित वर्जिनिटी टेस्ट (कौमार्य परीक्षण) से गुजरना पड़ा. टेस्ट के दौरान हुए भयानक अनुभव से पाकिस्तानी लड़की अब भी सहमी हुई है. टेस्ट में डॉक्टर ने क्या किया यह बताते हुए उसके चेहरे पर बार बार दर्द झलकता है. वर्जिनिटी टेस्ट या टू फिंगर टेस्ट में डॉक्टर योनि के अंदर दो उंगलिया डाल कर यह पता करते हैं कि कोई महिला या लड़की यौन रूप से सक्रिय है या नहीं. शाजिया ने बताया, "उसने अपनी उंगली डाली और फिर कुछ और भी, मैं जोर से चीखी क्योंकि बहुत दर्द हुआ और मैंने उसे रुकने के लिए कहा लेकिन वो नहीं मानी और मुझे डांटते हुए कहा कि तुम्हें यह सब सहना होगा."
बलात्कार और फिर टेस्ट में अपमान
महिला अधिकार कार्यकर्ता लंबे समय से वर्जिनिटी टेस्ट पर रोक लगाने की लड़ाई लड़ रहे हैं. उनकी दलील है कि यह अपमानजनक है और किसी महिला के यौन इतिहास से उसके बलात्कार पर कोई असर नहीं पड़ता. विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 2018 में अपनी एक रिपोर्ट में कहा कि इस टेस्ट का कोई "वैज्ञानिक महत्व नहीं है", यह दर्दनाक और नीचा दिखाने वाला है जिस पर पूरी दुनिया में प्रतिबंध लगना चाहिए.
पाकिस्तान में हाल के दिनों में हुए कुछ कानूनी फैसलों से इस नियम पर रोक लगने की उम्मीद जगी है. इसी साल जनवरी में पाकिस्तान की सबसे ज्यादा आबादी वाले राज्य में सामाजिक कार्यकर्ताओं के एक समूह की याचिका पर इस टेस्ट को कोर्ट ने गैरकानूनी घोषित किया. पाकिस्तान का सुप्रीम कोर्ट एक दशक पहले ही यह फैसला दे चुका है कि बलात्कार की शिकायत वर्जिनिटी टेस्ट के आधार पर खारिज नहीं की जा सकती.
हालांकि पाकिस्तान के न्याय तंत्र में काम करने वाली महिलाओं का कहना है कि अब भी बड़े पैमाने पर टेस्ट का इस्तेमाल हो रहा है. इसके लिए वो संसाधनों की कमी और यौन हिंसा को लेकर गहराई तक लोगों के मन में बैठे भ्रम को जिम्मेदार मानती हैं. सुमैया सैयद तारिक एक पुलिस सर्जन हैं जो पाकिस्तान के सिंध प्रांत में 1999 से ही पीड़ितों के साथ काम कर रही हैं. वो बलात्कार की जांच करती हैं, पोस्टमार्टम करती हैं और कोर्ट में सबूत पेश करती हैं. 2006 में जब उन्हें टू फिंगर टेस्ट से होने वाले नुकसान का पता चला तो उन्होंने इसे बंद कर दिया और अब वो लोगों के बीच इसके बारे में जागरूकता फैलाने के लिए काम कर रही हैं.
हालांकि पाकिस्तान के सबसे बड़े शहर कराची में बलात्कार की जांच के लिए केवल 11 मेडिकल वर्कर मौजूद हैं. यहां 1.6 करोड़ से ज्यादा लोग रहते हैं. तारिक का कहना है कि टू फिंगर टेस्ट को अकसर जल्दी से काम निपटाने का तरीका माना जाता है. व्हाट्सऐप पर दी प्रतिक्रिया में उन्होंने कहा,"कौमार्य का मुद्दा या महिला 'उस काम' की कितनी 'आदी' है यह कभी भी जांच करने वालों के विचार में नहीं आना चाहिए." तारिक का कहना है, "व्यापारिक सेक्स वर्कर का भी बलात्कार हो सकता है. बलात्कार का सिर्फ आरोप ही परीक्षण या जांच करने के लिए पर्याप्त है. इसके लिए यौन इतिहास पर विचार करने की जरूरत नहीं है."
कम लोगों को सजा
बहुत से मानवाधिकार संगठनों ने वर्जिनिटी टेस्ट को अमानवीय और अनैतिक बता कर उसकी निंदा की है और इस पर कई देशों में रोक है. भारत सरकार ने भी 2014 में जारी दिशानिर्देशों में कहा कि टेस्ट का "यौन हिंसा के मामलों में कोई संबंध नहीं है." हालांकि महिला अधिकार कार्यकर्ता बताते हैं कि इसका अब भी इस्तेमाल हो रहा है.
पाकिस्तान में पिछले साल जब एक महिला के सामूहिक बलात्कार के मामले पर बहुत हंगामा मचा तो देश में यौन हिंसा के कानूनों को मजबूत करने के लिए राष्ट्रपति ने कई उपायों की घोषणा की. उसमें इस टेस्ट पर रोक लगाने की बात भी शामिल थी. हालांकि ये उपाय जल्दी ही बेअसर हो जाएंगे अगर संसद उन्हें वोटिंग करा कर कानून ना बना दे.
प्रधानमंत्री इमरान खान के सलाहकार मिर्जा शहजाद अकबर का कहना है कि इन उपायों को संसद के ऊपरी सदन में 3 मार्च को होने वाले चुनाव के बाद पेश किया जाएगा. पाकिस्तान में मानवाधिकार मामलों की मंत्री शिरीन माजरी ने पिछले महीने ट्वीट कर टेस्ट पर पाबंदी का समर्थन किया था.
वो लाहौर हाइकोर्ट के इस फैसले का जवाब दे रही थीं कि वर्जिनिटी टेस्ट नहीं कराए जाने चाहिए. जजों ने इसे "अपमानजनक कहा जो पीड़ित पर ही संदेह करने की इजाजत देता है बजाए इसके कि आरोपी पर पूरा ध्यान लगाया जाए." सिंध प्रांत की राजधानी कराची की हाईकोर्ट में भी इसी तरह की सुनवाई चल रही है जिसमें इस टेस्ट को चुनौती दी गई है.
पिछले साल सुमैया सैयद तारिक ने सिंध के 100 मामले ले कर यह जानने की कोशिश की कितने मामलों में वर्जिनिटी टेस्ट हुआ. उन्हें पता चला कि 86 मामलों में शाजिया की तरह पीड़ितों को वर्जिनिटी टेस्ट से गुजरना पड़ा. शाजिया ने बताया कि जिस महिला ने उसका टेस्ट किया वह गुस्से में दिख रही थी और जल्दी में थी.
उसके साथ बलात्कार करने वाला शख्स हिरासत में है लेकिन फिर भी उसे और उसके परिवार को वो इलाका छोड़ कर जाना पड़ा. बलात्कार के साथ समाज में जुड़े कलंक ने उन्हें ऐसा करने पर मजबूर किया. शाजिया को वकील आसिया मुनीर से मदद मिल रही है जो वॉर अगेंस्ट रेप नाम के एक अभियान से जुड़ी हैं. मुनीर का मानना है कि टू फिंगर टेस्ट के कारण बलात्कार के मामलों में कम लोगों को सजा हो पाती है. पाकिस्तान में यौन हिंसा या बलात्कार के सिर्फ 3 फीसदी मामलों में ही दोषी को सजा होती है.
मुनीर का कहना है, "जो शख्स पहले से ही सदमे की स्थिति में है उसके लिए यह बहुत पीड़ादायी है. मुझे पूरा यकीन है कि इससे ज्यादा गरिमा और कम अपमान के साथ सच का पता लगाया जा सकता है."
एनआर/आईबी(थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन)