विचार / लेख
-रमेश अनुपम
गुरुदेव जान रहे हैं कि अब उन्हें अपने द्वारा किए गए छल के बोझ को एकाकी ही वहन करना होगा। गुरुदेव कैसे भुला सकते हैं कि मृत्यु पूर्व दो माह मृणालिनी ने इस सुख में बिताए हैं कि रूखमणी की बेटी के ब्याह में आभूषण बनवाने के लिए उसे पच्चीस रुपए देकर उन लोगों ने कितना पुण्य का काम किया है।
मृणालिनी की स्मृति गुरुदेव की आंखों की कोरो को सजल कर रही थी। चोखेर जल थमने का नाम नहीं ले रहे थे। गुरुदेव इस सबके लिए स्वयं को कोस रहे हैं।
गुरुदेव ने ‘फांकि’ कविता में अपनी हृदय की वेदना को शब्दों के पुष्पमाला में इस तरह से पिरोकर प्रस्तुत किया हैं-
‘ऐई दूटी मास सुधाय दिले भरे
बिनुर मुखेर शेष कथा
सेई बईबो केमन करे
रये गेलेम
दायी
मिथ्या आमार हलो चीर
स्थायी’
बिलासपुर रेल्वे स्टेशन बिल्कुल वैसा ही है जैसे गुरुदेव ने दो मास पहले देखा था। प्लेटफार्म से लेकर सारा कुछ जस का तस। न दीवारें बदली है न टिकट खिडक़ी और न ही स्टेशन मास्टर, टिकट बाबू का कमरा ही। इन दो महीनों में कुछ भी तो नहीं बदला है। गुरुदेव के माथे पर चिंता की लकीरें गहरी होती जा रहीं हैं।
गुरुदेव सोच रहे हैं केवल रूखमणी नहीं है, पर उसके न होने से जैसे बिलासपुर रेल्वे स्टेशन कितना सूना, कितना निष्प्राण सा लग रहा है। किसी के नहीं होने से जगहें भी कितनी अधूरी और प्राणहीन लगती हैं, गुरुदेव को जीवन में यह पहली बार आभास हो रहा है।
अब गुरुदेव के सामने कोई विकल्प नहीं है सिवाय इसके कि वे वापस कोलकाता लौट जाएं। पर इस तरह से लौटना उनके हृदय को छलनी कर रहा था। उनका स्वप्न टूट चुका था। गुरुदेव की इस वेदना को भला कौन समझ सकता है कि बिलासपुर रेल्वे स्टेशन तक पहुंचकर भी उन्हें भग्न हृदय और खंडित स्वप्न लिए वापस लौटना होगा।
गुरुदेव थककर रेल्वे स्टेशन की बेंच में बैठकर सोच रहे हैं। कोलकाता वापस जाने वाली ट्रेन के समय का पता कर चुके हैं। प्रथम श्रेणी की टिकट भी ले ली है। बस प्रतीक्षा है ट्रेन की।
जीवन में इस तरह की यात्रा का कोई अनुभव उन्हें नहीं था। पर यह यात्रा तो एक महायात्रा थी जिसमे मृणालिनी देवी से किए गए छल से मुक्ति और प्रायश्चित की भावना ही प्रमुख थी। यह महायात्रा कितनी शीघ्र एक विफल यात्रा में बदल गई है।
अभी भी ट्रेन के आने में विलम्ब है पर यह विपदा, यह दुख, यह वेदना ट्रेन में बैठ जाने के बाद भी क्या समाप्त हो जायेगी ? क्या जोडासांको या कोलकाता पहुंच जाने पर ही इस अभिशाप से मुक्त हो जायेंगे या जीवन भर दागी ही रह जायेंगे?
गुरुदेव का हृदय दग्ध है और दोनों चोख अश्रुजल से भरे हुए। ट्रेन प्लेटफार्म पर लग चुकी है। गुरुदेव भारी मन से उठकर प्रथम श्रेणी बोगी की ओर बढ़ रहे हैं। पांव में न स्फूर्ति है न शक्ति। भारी कदमों से वे अपनी बोगी तक जैसे तैसे पहुंच भर गए हैं।
गार्ड ने सीटी बजा दी है। ट्रेन बिलासपुर रेल्वे स्टेशन से छूट रही है। गुरुदेव की आंखें अब भी खिडक़ी के बाहर रूखमणी को खोज रही हैं। और अंत में यह मेरे लिए अद्भुत और स्वर्णिम संयोग है कि आज जब मैं गुरुदेव पर लिखी अपनी अंतिम कड़ी और छत्तीसगढ़ एक खोज की 16 वीं कड़ी लिख रहा हूं ( 7 मई 2021) वह कोई साधारण दिन न होकर गुरुदेव के पृथ्वी पर अवतरण की तिथि है ।
भारतीय भाषा और बांग्ला के महान कवि , लेखक, चित्रकार, विचारक, संगीत मर्मज्ञ, शांति निकेतन के शिल्पी रवींद्रनाथ ठाकुर को भला कौन भुला सकता है। बंगाल का ऐसा कौन सा अभागा घर होगा जहां गुरुदेव की कोई तस्वीर और साथ में ‘संचयिता’ देखने को न मिले। ऐसा कौन सा बाड़ी होगा जो संध्या बेला में रवींद्र संगीत की स्वर लहरियां से न गमक रहा हो।
आज गुरुदेव के जन्म दिवस पर उनकी स्मृति को सादर नमन करते हुए, ढेर सारे पुष्प उनके चरणों में अर्पित करते हुए मैं स्वयं को अत्यंत सौभाग्यशाली मानते हुए उनकी स्मृति को सादर नमन करता हूं।
मैं यह अपना सौभाग्य मानता हूं कि उनकी कविताओं को मूल बांग्ला में पढ़ सका, रवींद्र संगीत सुन और गा सका, शांति निकेतन जाकर वहां की रांगार माटी को अपने माथे पर लगा सका।
‘छत्तीसगढ़ एक खोज’ को पसंद करने वाले दोस्तों और शुभचिंतकों, ‘फांकि’ कविता संबंधी अपनी स्थापनाओं को, अपनी खोज या शोध को आप सबके समक्ष रखे बिना ‘जब गुरुदेव ने किया अपनी पत्नी से छल’ को समाप्त करना गुरुदेव तथा आप सबके साथ अन्याय करना होगा।
इसलिए सत्रहवीं कड़ी में मैं उन सारे तथ्यों से पर्दा हटाने की कोशिश करूंगा जिसके फलस्वरूप मैं ‘फांकि’ कविता के मर्म तक पहुंचने की सफल या असफल चेष्टा करता रहा हूं।
मैं पिछले बीस वर्षों से इस कविता का, गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर का और मृणालिनी देवी का पीछा करता रहा हूं।
जब भी कोलकाता जाना हुआ, एक चक्कर कालेज स्ट्रीट का लगाकर मृणालिनी देवी से संबंधित कोई बांग्ला बोई न खरीदूं ऐसा कभी संभव नहीं हुआ।
श्यामा बाजार से ट्राम पर बैठकर कॉलेज स्ट्रीट तक के सफर का मोह भी इसमें जरूर शामिल रहता था।
इसलिए सत्रहवीं कड़ी में मैं उन सारे तथ्यों से पर्दा हटाने का काम करूंगा जिसके फलस्वरूप मैं ‘फांकि’ कविता के मर्म तक पहुंचने की कोशिश करता रहा हूं। वैसे कभी-कभी तो मुझे यह भी लगता रहा है कि इसे लिखने लिए जैसे स्वयं गुरुदेव ही मुझे प्रेरित करते रहे हों। अन्यथा .....
शेष अगले हफ्ते ‘फांकि’ शुधु’ फांकि’