विचार / लेख

आपातकाल और सेंसरशिप के बीच...
26-Jun-2025 10:44 PM
आपातकाल और सेंसरशिप के बीच...

-गोकुल सोनी

साथियों, आपातकाल और प्रेस सेंसरशिप : एक अद्भुत किस्सा..

साथियों, मेरा पूरा जीवन प्रेस और पत्रकारिता के इर्द-गिर्द बीता है। इसी संसार में मैंने ना सिर्फ अपने विचारों को आकार दिया,  बल्कि ऐसे-ऐसे अनुभवों से गुजरा जो जीवनभर स्मरणीय रहेंगे। आज मैं आप सभी को एक ऐसे ही अविश्वसनीय और प्रेरणादायक प्रसंग से परिचित कराना चाहता हूँ, जो आपातकाल की पृष्ठभूमि से जुड़ा है।

बात तब की है जब देश में आपातकाल लगा था । उन दिनों हमारे प्रेस, नवभारत रायपुर में एक मशीन मैन हुआ करते थे-धरमपाल जी, जो हरियाणा के जाट थे। वे बेहद मेहनती,  तेजतर्रार और ठेठ देसी अंदाज के इंसान थे। अक्सर वे हमें अपने पुराने दिनों की एक रोचक घटना सुनाया करते थे।

धरमपाल जी बताते थे कि आपातकाल के दौरान वे दिल्ली के एक बड़े अखबार में प्रिंटिंग मशीन चलाने का कार्य करते थे। एक रात अखबार की छपाई के ठीक पहले दफ्तर की बिजली काट दी गई-यह सेंसरशिप का वो दौर था जब अखबारों को चुप कराना सत्ता का हथियार था। उस समय तक सारी कंपोजिंग और लेआउट का काम हो चुका था, बस मशीन को चालू करना बाकी था।

बिजली के बिना अखबार छपना असंभव था। जनरेटर भी उस दिन उपलब्ध नहीं हो पाया। दफ्तर में बेचैनी फैल गई। इसी बीच धरमपाल जी की नजर एक ट्रैक्टर पर पड़ी, जो प्रेस में कुछ माल छोडऩे आया था। यहीं से शुरू होती है उनकी जुगाड़ तकनीक की कहानी।

आपमें से कई लोगों को याद होगा कि पुराने ट्रैक्टरों के पीछे एक पुली डिस्क हुआ करता था, जिस पर बेल्ट चढ़ाकर थ्रेशर जैसी मशीनें चलती थीं। धरमपाल जी ने तुरंत मशीन की पट्टी को उतारा और उसे ट्रैक्टर की उस पुली पर सेट कर दिया। फिर ट्रैक्टर को मशीन रूम के पास खड़ा करवाया। ट्रैक्टर स्टार्ट हुआ और उसकी ताकत से प्रिंटिंग प्रेस की मशीनें चल पड़ीं।

उस रात, पूरे दिल्ली में जब अखबार नहीं छप सके, धरमपाल जी की सूझबूझ और देसी जुगाड़ की बदौलत वह अखबार समय पर छप गया। सत्ता की सेंसरशिप मात खा गई और लोकतंत्र की आवाज जनता तक पहुँच सकी।

आज धरमपाल जी इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन उनकी वह हिम्मत, होशियारी और तकनीकी समझ हमें आज भी प्रेरित करती है। यह किस्सा न सिर्फ आपातकाल की कठोरता को दर्शाता है, बल्कि यह भी बताता है कि जब इरादा मजबूत हो, तो जुगाड़ भी क्रांति बन सकता है।


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